‘तीसरी कसम’, हिरामन, हीराबाई पर इतना लिखा जा चुका है कि लगता है अब नया क्या पढना? इसीलिए कोई नया लेख इसके ऊपर देखता हूँ तो पढने का मन ही नहीं करता. लेकिन फिर भी इस विषय पर अच्छा लिखा जा रहा है और कई बार ऐसा लिखा जा रहा है जो अपने आपको पढवा ही लेता है. ‘छबीला रंगबाज का शहर’ कहानी संग्रह से चर्चा में आये लेखक प्रवीण कुमार का यह लेख कल पढ़ा तो लगा कि इसको साझा किया जाना चाहिए. आप भी पढियेगा तो यही मन करेगा. प्रवीण कुमार से आग्रह है कभी ऐसे किरदारों पर भी लिखें जिनके ऊपर कम लिखा गया है. फिलहाल यह लेख पढ़िए- मॉडरेटर
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‘गोदान’ के बारे में कहा जाता है कि इसकी कथा जितनी ‘होरी’ की है उतनी ही ‘धनिया’ की भी है | क्या यही बात ‘तीसरी कसम’ के बारे में कही जा सकती है ? होरी और धनिया को जोड़ने वाली स्थिति दांपत्य है लेकिन कथा में दांपत्य के बंधन से अधिक उनके जीवन-संघर्ष ने दोनों की देह को एक प्राण में तब्दील कर दिया है, अतः वह एक जोड़े की भी संघर्ष कथा है , क्रौंच मर जाता है और क्रौंची छटपटा रही है ; फिर …मा निषाद प्रतिष्ठाम् ! क्या इसी तरह की छटपटाहट को ‘तीसरी कसम’ में हम देख पाते हैं ? क्या हिरामन-हीराबाई जोड़े हैं ? दोनों ही कथाओं में भिन्नता है मगर क्या जोड़ा बिछड़ने का कारण दोनों ही जगहों पर सामाजिक संरचना छिपे हुए हैं और वह भी एक ही तरह की संरचना में? प्रेमचंद के यहाँ पात्रों की विवशता की कारक-शक्तियां साफ़ साफ़ दिखाई देती हैं –पुरोहित से लेकर रायसाहब तक ,पर रेणु के यहाँ कम से कम इस कहानी में वे शक्तियां साफ़-साफ़ नहीं दिखतीं ,केवल उनका स्याह असर दिखाई देता है | वाकई ? क्या इस कहानी के बारे में दावा किया जा सकता है कि हिरामन और हीराबाई को जोड़ने वाली भाव-स्थिति ‘प्रेम’ ही है ?
रेणु ने रचना के प्रचलित मानदंड ही नहीं बदले बल्कि आलोचना के प्रचलित मानदंडों को अपनी रचनाधर्मिता से दरका दिया है | उनकी रचना के भीतर से गुजरने के लिए आलोचना के प्रचलित औज़ार किसी लायक नहीं बचते! कहानीकार प्रेमचंद से अलग लीक वाले रेणु इसलिए भी अलग हैं कि वे सपाट की जगह ‘विभावन व्यापर’ के लेखक हैं | उनके यहाँ कहानी ख़त्म होने के आसपास है और ‘छि-ई-ई-छक्क ! गाड़ी हिली | हिरामन ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे को बाएं पैर की एड़ी से कुचल लिया | कलेजे की धड़कन ठीक हो गई …हीराबाई हाथ की बैंगनी साफी से चेहरा पोंछती है! साफी हिलाकर इशारा करती है – अब जाओ |’ बीस साल से लगातार गाड़ीवानी करने वाले चालीससाले कुंवारे हिरामन का कलेजा ,पहली बार उस देह के टप्पर-गाड़ी में बैठने से साथ ही जो धड़कना शुरू होता है वह अंततः अंगूठे को कचरने के बाद भी थमने का नाम नहीं लेता | हिन्दी कहानी में अपनी धडकनों को रोकने का इतना मार्मिक प्रयास शायद ही किसी पात्र ने किया हो ! लेकिन ये हीराबाई को क्या हो गया है ? ‘आसिन-कातिक’ में चेहरे पर पसीना ? पसीना या कुछ और ? इसी ‘कुछ’ में रेणु हैं ,उनके अनुभव हैं और कलम की धार है |
कथा में एक सुबोध है तो दूसरा अबोध | हिरामन अबोध न होता तो अबतक भला कुंवारा रहता ! वह जिस आबोहवा में पला-बढ़ा है वहां नाच है , नौटंकी है , ‘पुतरिया’ शब्द से वह परचित है पर है इस दुनिया से कोसों दूर | एहसाह तो उसे सबकुछ का है पर एहसास जगे नहीं थे अबतक | उसके एहसास पहली बार संबोधनों से जगते हैं –भैया ,मीता , मेरा हिरामन, उस्ताद ,गुरूजी से |हिरामन के लिए भी हीराबाई के लिए सच्चे और कल्पित कई संबोधन हैं- कंपनी की औरत ,पश्चिम की औरत , परी, डाक्डरनी , चंपा का फूल , कुंवारी लड़की , विदागी ,भगवती ,लाल होंठ पर गोरस का परस जैसे पहाड़ी तोता – पर पूरी कथा में हिरामन ने सीधे सीधे हीराबाई को कभी भी किसी नाम से संबोधित नहीं किया है | बस एक संबोधन है जिससे हीराबाई को वह पूरी कहानी में बचाता फिरता है ,वह है ‘पुतरिया’| यह संबोधन समाज का है उसका नहीं | हीराबाई सबकुछ हो सकती है पर ‘पुतरिया’ नहीं | इस शब्द की धार से वह मेले में लगातार छिल-छिल जाता है ‘…आज वह हीराबाई से मिलकर कहेगा ,नौटंकी-कंपनी रहने से बहुत बदनाम करते हैं लोग| सरकस कंपनी में क्यों नहीं काम करतीं?..”|
कहानी में एक दूसरा संबोधन भी है जिससे वह हिराबाई को नहीं बल्कि ख़ुद को बचाता फिरता है – ‘मालकिन’ | टप्पर-गाड़ी जब फारबिसगंज पहुच जाती है तब ‘ लालमोहर ने कहा “इनाम बकसीस दे रही है मालकिन, ले लो हिरामन!” हिरामन ने कटकर लालमोहर की ओर देखा …बोलने का जरा भी ढ़ंग नहीं है इस लालमोहरा को |’ कहानी के इसी प्रसंग में हिरामन अपने एहसास को पकड़ लेता है | सारे संबोधनों के अर्थ कम से कम उसके मन में इसी जगह खुल जाते हैं अतः मालिक-मालकिन वाले सम्बन्ध त्याज्य ही नहीं अस्वीकार्य हैं | यही है चालीस की दहलीज पर खड़े एक काले-कलूटे कुंवारे गाड़ीवान के पीठ पर उठती गुदगुदी का राज ! पर हीराबाई क्या ‘पूरक’ है ? वह तो बस एक एहसास जगा कर चली जाती है ‘ गाड़ी ने सिटी दी| हिरामन को लगा , उसके अन्दर से कोई आवाज निकलकर सिटी के साथ ऊपर की ओर चली गई –कू-उ-उ ! इस्स!’
तो फिर ‘महुआ घटवारिन’ की कथा का क्या करें ? ‘महुवा घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है ,गुरूजी !’ इसका मतलब हुआ कि ‘महुवा घटवारिन’ की कथा और हिरामन-हीराबाई की कथा एक ही है ? दोनों ही जगहों पर प्यासे प्रेमी हैं पर उनकी तथाकथित प्रेमिकाएं ? – एक न थकने वाली जल की मछली है तो दूसरी कंपनी की औरत | महुआ भी मजबूर थी और हीराबाई भी | पर एक सौदागर की नाव से बहती धारा में छलांग लगा देती है लेकिन दूसरी बहती रेल में बैठी रहती है | यदि नाव और रेल इतिहास की प्रतीकात्मक गति है तो महुआ और हीराबाई के अलग-अलग फैसले किस्से और यथार्थ का फ़र्क बताते हैं | फिर ‘बैंगनी साफी से चेहरा’ पोंछने में किसी बड़ी विवशता की कोई बड़ी सूचना है ? ध्यान रहे कि दोनों ही कथा के प्रेमी ‘चाहत’के शिकार हैं ,बस यही एकता है दो कथाओं में | लेकिन इतने भर से ये दोनों कथाएं एक दूसरे की पूरक नहीं बन जातीं |आंचलिकता की पहचान इससे भी है कि एक जैसी लगने वाली कथा और किस्से प्रसंग में क्रमबद्धता और एकतानता की जगह क्रमभंग और बहुतानता होती है | बहुतानता का आशय किसी अन्य घटना या कथा का मुख्य कथा से आत्यंतिक स्तर पर जुड़ाव के नहीं होने से है | अलग अलग कथाएं अपने एकान्तिक भाव में विशिष्ठ हैं पर उसका दूसरी कथा से स्वतंत्र और गैर-सम्बंधित रिश्ता हो सकता है, आंचलिक साहित्य में इन अन्य कथाओं का ‘ओवरलोड’ होता है | हालाँकि इस कथा को आंचलिकता के ठेठ रूपक के रूप में नहीं बल्कि एक स्वतंत्र कथा के रूप में देखने का आग्रह ज्यादा होना चाहिए |महुआ-घटवारिन की कथा लेखक और हिरामन का एक अस्त्र है ,पाठक और हीराबाई को सम्मोहित करने के लिए , आंचलिकता गद्द्य में कविता है ;उसका एक लक्ष्य भावविभोर करना भी होता है| इसी बहाने कई तरह का दर्द पसरा हुआ है ,कथा में ,किस्सों में , गीत में , यथार्थ में , जीवन में , भूत में और शायद भविष्य में भी ||लेखक और हिरामन मिले हुए हैं और उनकी पैदा की हुई भावुकता के अनंत विस्तार में सब कुछ बहा जा रहा है , अब तक |
हिरामन और हीराबाई का अंतर यहाँ वर्गीय नहीं जितना भावावेग और भाव-प्रबंधन का है | यह अंतर अनुभव का भी है , आंचलिक-गंवई ‘मन’ और शहराती ‘मन’ का है | हिरामन की भीतरी पीड़ा में , अबूझ स्थिति में जो खीज है , उसमें सहज आंचलिकता-बोध का उभार है | हीराबाई कोई विदेशी नहीं पर ‘पश्चिम’ की हीराबाई किसी दूसरे अंचल या सांस्कृतिक भूमि की बोधक भी है ,वह आती है और हिरामन का सबकुछ दांव पर लग जाता है | बाहरी जीवन-स्थितियां या हिरामन के अंचल से बाहर की विकसित जीवन-स्थितियां उस अंचल के लिए, गंवई हिरामन के लिए अग्राह्य हैं ,इसलिए भी ‘तीसरी कसम’है | पर मामला केवल इतना ही नहीं है, यह ‘मारे गए गुलफ़ाम’ का भी मामला है; गुलफ़ाम शब्द उभय-लिंगी विशेषण है ,यह फूलों जैसी देह के लिए नजाकत से भरा संबोधन है ,जितना मर्द के लिए उतना ही औरत के लिए | पर गुलफ़ाम संज्ञा भी तो है ! शहर का प्रेमी कलेज़े की धड़कने तेज होने पर अपने दाहिने पैर के अंगूठे को बाएं पैर की एड़ी से शायद ही कुचले ! हिरामन जिस ‘पीर’ से गुजर रहा है उसे संभालना उसके बूते से बाहर है | भावना की चरम अवस्था है धडकनों का तेज होना और ‘बैंगनी साफे’ से चेहरे का पोछा जाना भाव-प्रबंधन है | हीराबाई ईमानदार है , अच्छी है पर अनुभवी है और भाव-कुशल भी | हिरामन अपनी नाराजगी से उसे अबतक जाता चुका है कि उसे हीराबाई पसंद है, उसके प्यार का एहसास उस नाराजगी से भांप लेती है , हिरामन के कलेजे से रेल की सिटी के साथ उठ रही हूक हीराबाई साफ साफ सुन रही है | सो हूक में एक ने अंगूठा कुचला तो दूसरे ने भाव-प्रबंधन कर लिया | हिरामन वह आदमी है जो अपने बूते के बाहर की चीजों से दूर रहता है | जो चीज उसे खटकती है वह चीज उसके बूते का नहीं| वह अपनी टप्पर-गाड़ी में सर्कस का बाघ तो लाद सकता है पर स्मगलिंग का सामान और बांस नहीं ,इसलिए उसने पहले ही दो कसमें खा लीं थी | पर यह तीसरी कसम ? यह इसलिए भी कि इस अनुभूति को , इस पीर को संभालना उसके बूते का नहीं | वह अंचल का है किसी शहर का नहीं ,उसे भाव-प्रबंधन नहीं आता| एक कभी न ख़त्म होनेवाली अनुभूति ,लगातार खटकनेवाली अनुभूति | हीराबाई के दिए रुपय-पैसे से जो गरम चादर आएगा उससे हिरामन के भीतर की ठिठुरन कम नहीं होने वाली | क्या इसी घटना को कहानी में ‘त्रासदी’ मानकर आगे बढ़ा जा सकता है ? यहाँ कहानी में ‘त्रासदी’ तो है पर यह तबतक एक अधूरी त्रासदी है जब तक एक और विडंबना को इससे न जोड़ा जाय जो कथा में बहुत पीछे छूट गई है | |
यह विडंबना राग का रूप धरे हुए है ,इसलिए उसकी पहचान थोड़ी मुश्किल है “ लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया… आह दुल्हनिया, तेगछिया गाँव के बच्चों को याद रखना | लौटती बेर गुड़ का लड्डू लेते अइयो | लाख बरिस तेरा दूल्हा जिए !..कितने दिनों का हौसला पूरा हुआ है हिरामन का !ऐसे कितने सपने देखे हैं उसने !..”| पर हीराबाई इस प्रसंग में गायब है | इस प्रसंग के ठीक पहले वह जो मुस्कुराती हुई गाँव निहारती है ,यहाँ नहीं है | इस प्रसंग के बाद कथा में वह फिर उपस्थिति होती है –मुस्कुराते हुए| और अब महुआ-घटवारिन की कथा है ; कथा ख़त्म होते होते हिरामन भावुक हो जाता है “ उसने हीराबाई से अपनी गीली आँखें चुराने की कोशिश की| किन्तु हीराबाई तो उसके मन में बैठी न जाने कब से सब-कुछ देख रही थी”| आख़िर वह देख क्या रही है ? दोनों चरित्रों का ‘कंस्ट्रक्शन’ यहाँ अलग अलग है | इन दोनों घटनाओं से पाठक और हिरामन दोनों ही हुलसित होते हैं , पर हीराबाई ? वह “तकिये पर केहुनी गड़ाकर ,गीत में मगन एकटक उसकी ओर देख रही थी” पर अगली ही पंक्ति आती है “खोयी हुई सूरत कितनी भोली लगती है !” जीवन की वास्तविक त्रासदी ‘राग’ की अनुपस्थिति से नहीं उभरती बल्कि जीवन की ओर बार-बार बढ़े आ रहे ‘राग’ की अवहेलना और अवहेलना की वजहों की पहचान से उभरती है | ‘खोयी हुई सूरत’ राग से सामना होने पर भी उससे तटस्थ है | वह किस अनंत में किस अ-संभव का तलाश रही है ; किसी और प्रेम का या किसी के दुल्हन होने से अ-तटस्थ या तटस्थ ? हीराबाई के अनुभूति-बोध में ‘प्रेम’ है पर उसका सगुण रूप हिरामन नहीं , संभवतः कहीं कोई सगुण है ही नहीं ,यह उसकी त्रासदी है ; एक का दूल्हा होना नसीब नहीं ,दूसरे का दुल्हन होना नसीब नहीं , किसी की भी दुल्हन नहीं |बस एक क्षणिक अनुभूति है ,कम से कम हिरामन और पाठक के लिए , हीराबाई के लिए नहीं | यहाँ जिस भारतीय समाज का सच है उसमें कम समर्थवान की त्रासदी तो है ही समर्थवान की भी त्रासदी है |टप्पर-गाड़ी से लेकर रेलगाड़ी तक दोनों ही नए भावों के अजायबघर में आवाजाही कर रहे हैं ,हीराबाई के लिए हिरामन मिता है ,गुरूजी है ,उस्ताद है और ‘मेरा हिरामन’ है | इस सम्बन्ध में गहरी मानवीय गंध है पर मानवीय कह देने भर से वह ‘प्रेम’ का पर्याय नहीं बन जाता | राग से , एहसास से तटस्थता हीराबाई के भीतरी विवशता का सूचक है | त्रासदी यह भी है कि दोनों मजबूर हैं , दोनों में प्यास है ,पर एक पानी है एक बर्फ़ , एक का चरित्र तरल है एक का ठोस ; एक रागधर्मी है तो दूसरा दुनियादार| पानी कही और है , प्यास कही और | हिरामन की विडंबना यह है कि अंगूठा कुचलने के बाद भी उसे उन्ही राहों से गाड़ीवानी करते हुए बार बार गुजरना होगा जो कभी हीराबाई की वजह से जादुई हो गईं थी | हीराबाई को भी हिरामन जैसा ‘सच्चा’ नहीं मिलने वाला | पर सच्चा किसी का ‘प्रेमी’ हो जाए यह जरूरी नहीं , यही नियतिजन्य प्रश्न है , कहानी इसलिए भी यहाँ आकर बड़ी हो जाती है | ‘बैंगनी साफी’ से पुछता हुआ चेहरा एक औरत की इकहरी विवशता नहीं ,बल्कि दुहरी विशशता की सूचना है जो जान गई है हीरा का ‘मन’ पर उसके उस एहसाह का वह कुछ नहीं कर सकती | इसलिए यह कथा दोनों की है , अविवाहित जोड़े की कथा ; उनको आपस में जोड़ने वाली चीज उनकी अपनी-अपनी त्रासदी है ,एक ही समय में घटित होने वाली दो त्रासदियाँ | हिरामन के अनुरागी ‘मन’ और हीराबाई के हिलते हुए तटस्थ ‘मन’ में कथा-विश्लेषण की अनंत संभावनाएं छोड़ दीं हैं रेणु ने , यही उनकी ताकत है | ताकत यह भी है कि अलग अलग दो चरित्र हमें ‘जोड़े’ दिखने लगते हैं ,यह जानते हुए भी कि दोनों के नामों में केवल छोटी ‘इ’ और बड़ी ‘ई’ का ही भेद नहीं है ,यहाँ और भी बहुत ‘कुछ’ है |
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