सदन झा इतिहासकार हैं. सेंटर फॉर सोशल स्टडीज, सूरत में एसोसियेट प्रोफ़ेसर हैं. उनका यह लेख हिंदी के ‘पब्लिक स्फेयर’ की व्यावहारिकताओं और आदर्शों के द्वंद्व की अच्छी पड़ताल करता है और कुछ जरूरी सवाल भी उठाता है. एक बहसतलब लेख- मॉडरेटर
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चंद रोज पहले मैंने अपने फेसबुक वाल पर एक सवाल पूछा: हिंदी में लिटरेरी एजेंट क्यों नहीं हुआ करते?
यह सवाल एक व्यक्तिगत कठिनाई से उपजा था और कुछेक शुभेक्षु आत्मीय जनों ने व्यक्तिगत तौर पर इस मामले में दिलचस्पी ली. पर सवाल जस का तस बना रहा. शायद सवाल ही लद्धड़ है. शायद प्रश्न का पूछ जाना ही यह आभास देता है कि प्रश्नकर्ता को हिंदी साहित्य जगत का क ख ग भी नहीं मालूम है. मानो इसलिए बच्चों जैसा सबाल पूछ रहा है. शायद इस सवाल को बार बार पूछा गया हो और हिंदी साहित्य और प्रकाशन से ताल्लुक रखने वालों के लिए यह एक बासी पर चुका मुद्दा हो. या फिर, यह भी हो सकता है कि यह सवाल पश्चिमी प्रकाशन और उसके बाजार की हकीकत से उपजा हो, एक आयातित सरोकार और इसीलिए इस और विशेष तबज्जो देना नैतिक रूप से ठीक नहीं.
लिटरेरी एजेंट…हूँ!
लाहौल विला कूवत! तौबा तौबा! अब ये दिन भी देखने को रह गए. अपने ही शब्दों को बेचना शेष रह गया हो जैसे. यदि बेचने की जद्दोजहद नहीं तो फिर एजेंट ही क्यों?
अरे सुनती हो, ज़रा छुट्टन आये तो मुंशी जी के यहाँ भेजना इत्तिला दे आवे कि हमने कुछ हर्फ़ कागज़ पर उतारे हैं. किसी से भिजवाकर ले जावें और अपने छापेखाने से इनकी किताब तैयार करवायें.
मेरा ऐसा लिखना अतिशयोक्ति लगे आपको. हिंदी प्रकाशन का इतिहास भी इस तरह के अतिशयोक्ति की इजाजत नहीं देता. छापे का इतिहास तो यही दिखाता है कि लेखक और प्रकाशक के समीकरण में पलड़ा सदैब प्रकाशक की ही तरफ झुका रहता आया है. पर, अभी उस तरफ नहीं जाना हो पायेगा.
बात, लेकिन जो भी हो, लिटरेरी एजेंट के सवाल को नकारने के पीछे अन्य बहुतेरी मंशाओं के साथ कुछ इस तरह की हेकड़ी भी दिलो दिमाग के एक कोने में चुपचाप बसी हुई है ही.
खैर, इस लिटरेरी एजेंट वाले प्रश्न में मेरा दिमाग घूम फिर कर एजेंट शब्द पर ही टिक जाता है. हमें एजेंट नामधारी से कोफ़्त हुआ करता है. जितना संभव हो ट्रेवल एजेंट के पास गए बगैर ही काम चलाने की कोशिश होती है.
अच्छा जी, वो जो आपका स्टूडेंट था कश्मीर से, उससे जरुर कह देना कि हवाई अड्डे पर ही आ जाए और फिर सुबह से रात तक साथ ही रहे. कोई हम बार बार कश्मीर तो जाते नहीं. हाँ, इन ट्रेवल एजेंसियों के चक्कर में मुझे नहीं पड़ना. जाने कहाँ वीराने में फंसा भाग खड़े हों. गुप्ताजी का किस्सा याद है न? बेचारे कैसे फंसे थे, ई ट्रेवल एजेंटो के चक्कर में.
एजेंट मतलब मध्यस्थ. इतिहासकारों के बीच सामंतवाद को लेकर चाहे जितनी बहस क्यों न हो, इस बात में कोई दो राय नहीं है कि सामन्तवादी पदानुक्रम हमारे दिलो दिमाग पर आज तक उसी तरह का भय पैदा करता है जिस तरह कभी यह हमारे सोच को अपनी चंगुल में जकड़े हुए था. ईश्वर से संवाद के लिए पुरोहित की अनिवार्यता ने ब्राह्मणों को जिस तरह विलेन बना दिया वह तो जग जाहिर ही है. मध्यस्थता की जड़ें कुछ इतनी गहरी जमी रही कि जब भक्ति का प्रादुर्भाव हुआ और उसकी महिमा बढ़ी तब पुरोहितों, कर्मकांडों और पंडों का प्रभाव भले ही कम हो गया हो लेकिन बगैर गुरु के मध्यस्थता के न तो ईश्वर ही मिल सकते थे और न ही रंगरेज के, उस्ताद के रंगरेजी ही.
मध्यस्थों से पीछा कहाँ छुटना. पहले द्वारपाल और दरबारियों को, अमीर उमराओं की सरपरस्ती दरकार थी, प्रजातंत्र के आने के बाद लीडरानों की. आखिर हम रिप्रेजेंटेटिव डेमोक्रेसी ही तो है. कोई डायरेक्ट डेमोक्रेसी तो है नहीं हमारी. प्रतिनिधियों से जब हम हर तरफ आक्रांत हैं, जब वे प्रतिनिधि के नाम पर हम पर शासन करने लगते हैं, जब वे जो जन सेवक कहते नहीं अघाते लेकिन लाल किला गिरवी रखने से भी जिन्हें गुरेज नहीं तो ऐसे में एक और मध्यस्थ. एक और एजेंट वह भी साहित्य में?
न बाबा न! कम से कम जो क्षेत्र बचा है अब तक इन एजेंटों से उन्हें तो वैसे ही रहने दो.
लिटरेरी एजेंट के नाम पर नाक मुँह सिकोड़ने का हमारा यह रवैया शायद घुमावदार तर्क लगे आपको. डिस्टॉर्टेड एवं डिसप्लेसड. भ्रामक!
सीधा और सरल तर्क है कि हिदी प्रकाशन जगत अभी इतना प्रोफेशनल नहीं हुआ है. कुल मिलकर बाजार इतनी परिपक्व नहीं हुआ है. इसी तर्क का दूसरा पहलू यह होगा कि हमारे साहित्यिक बाजार के रिश्ते नाते इतने व्यक्तिवादी और एलियनेटेड नहीं हुए है कि लिटरेरी एजेंट जैसी संस्था को जन्म दे सके और उसको सस्टेन तथा उसका परिमार्जन कर सकें.
यहाँ जो बात, जो तर्क साहित्य के बाजार के लिए लागू होगा कुछ कुछ वही गति अन्य बाजार या अर्थव्यवस्था के दूसरे पहलुओं के बारे में भी उपयुक्त होगा. क्योंकि, यहाँ हम साहित्य के विषयवस्तु या कंटेंट से मुखातिब नहीं है बल्कि प्रकाशन की अर्थवय्वस्था के अवयवों के बीच के रिश्तेदारी ( आपसी संवंधों तथा उनके बनने) की बात कर रहे हैं जहां किताब एक उत्पाद हो जाता है. जिसका उत्पादन होता है, जिसका सर्कुलेशन और जिसकी खरीद विक्री हुआ करती है. तो ऐसे में जब हम एक बाजार और उसकी अर्थव्यवस्था के खांचे में रह कर बातचीत कर रहे हैं तो जाहिर सी बात है कि मध्यस्थता की अनिवार्यता और किसी मध्यस्थ की उपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है. बाजार के इतिहास को जानने वाले आपको बतायेंगे कि अत्यंत प्रिमिटिव बाजार (जैसे पास्टोरल या ग्रामीण इलाकों में लगने बाले छोटे हात या फिर लन्दन जैसे शहरों में भी लगने बाले साप्ताहिक किसान बाजार जहां किसान और शिल्पकार [कुम्हार आदि] सीधे सीधे अपने उत्पादों को बाजार में स्वयं ही ग्राहकों [उपभोक्ताओं] के हाथों बेचते हैं को छोड़कर हर तरह के बाजार में मध्यस्थ हुआ ही करते हैं. तो फिर सवाल यह उठता है कि हिंदी के प्रकाशन के बाजार में या फिर बृहत्तर तौर पर कहें तो भारतीय प्रकाशन जगत में किस तरह के मध्यस्थ कार्यरत हैं और उनका स्वरुप क्या है? यह सवाल हमें महज मध्यस्थों की भूमिका या इस बाजार के अंदरूनी पदानुक्रम की समझ पैदा करने तक ही सीमित नहीं रखती हैं बल्कि इस सवाल के सहारे हम सम्पूर्ण बाजार के स्वरुप की और फिर बाजार के सहारे पूरी अर्थव्यवस्था तथा पूंजी के स्वरुप और गतिकी तक पहुँच सकते हैं.
खैर, यह बड़े और गहरे सरोकार हैं. इसके तार उस विमर्श की तरफ भी ले जाते हैं जो अर्थव्यवस्था और उसके बाजार को औपचारिक/व्यस्थित और अनौपचारिक या अवस्थित खांचों में बांटकर देखा करते हैं. हमें इस तरह के खांचो से परे जा कर देखना होगा. साहित्य के बाजार को लेकर जो लेखन पिछले डेढ़ दो दशकों में हो रहे हैं और हिंदी के प्रकाशन के इतिहासों को लेकर भी जिस तरह की उम्दा लेखनी सामने आई हैं, दुर्भाग्य से वहाँ भी इस तरह के प्रश्न नहीं उभारे जा रहे हैं.किताब का इतिहास और प्रकाशन का इतिहास सर्कुलेशन या तकनीकी आदि को लेकर जितना सजग दिखता है उतना ही लापरवाह यह विमर्श विकसित हो रहे इस साहित्य के बाजार और इसके अवयवों के आर्थिक संवंधों और आमूल स्वरुप को लेकर भी नजर आता है. इसलिए न तो हम यहाँ इस उत्पादन में लगे पूंजी की विशिष्टता को ही ठीक से समझ पाए हैं न ही इस पूंजी और इसके बाजार के विभिन्न घटकों के आपसी रिश्तों को ही विस्तार से व्याख्यायित कर पाए हैं. तो ऐसे में अभी यदि हम अपना ध्यान एजेंटों या मध्यस्थों तक ही रखें तो जाहिर सी उत्सुकता होगी कि हिंदी प्रकाशन में आज की तारीख में किस तरह के मध्यस्थ कार्यरत हैं और उनका क्या स्वरुप है?
एक स्तर पर यह सवाल कुछ ऐसा है कि हम सबके पास तैयार उत्तर हैं. मध्यस्थों की बात जैसे ही आती है तुरत ही हमारे जेहन में तथाकथित मठाधीशों की छवि उभरने लगती है. यह उस विमर्श या फिर कहें तो उस साहित्यिक पर्यावरण एवं उसकी संस्कृति की देन हैं जो हमारे दिमाग में छवियाँ गढ़ती रही है. ऐसी छवियाँ जिन्हें हम बहुत सुलभता से अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए और अपनी बेचैनियों के कारण के रूप में स्वीकार कर सकें. इससे सामान्य जीवन की राजनीतियों और उलझनों को पचा जाने में कुछ हद तक आसानी सी हो जाती है. ये छवियाँ कहानियों के रूप में साहित्य जगत में तैरती रहती हैं. पार्टियों के प्लेटों से लेकर, समीक्षक और पत्रकारों तक यह साहित्य के प्रति हमारी समझ को तय करती हैं. इससे बाजार भी अछूता तो नहीं ही रहता है. मसलन, एक बड़े प्रकाशक के (लेकिन हिंदी साहित्य से बाहर के), बारे में पता चला कि वे कभी सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बेहद करीबी हुआ करते थे और राधाकृष्णन ने ही उन्हें संस्कृत और इंडोलोजी के क्षेत्र में प्रकाशन खोलने की सलाह दी थी. यह जिक्र कुछ अटपटा लग सकता है पर यह अकेला उदाहरण नहीं है जहां कोई परिबार किसी व्यक्तिगत परिचयों के कारण प्रकाशन में पूँजी निवेश करता पाया गया हो. आज भी हिंदी प्रकाशन जगत में पूंजी पारिवारिक संरचना द्वारा ही कमोबेश संचारित हुआ करती है. साहित्य आकादमी जैसे संस्थानात्मक संरचना विरले ही दीखते हैं.यही हाल पत्रकारिता जगत का भी है, जिसके बारे में समय समय पर किस्से कहानियाँ सतह पर आते हैं. तो ऐसी परिस्थिति में क्या राधाकृष्णन जैसी हस्तियों को मध्यस्थ माना जाय? मुझे विशवास है कि आपके जेहन में भी उत्तर इतना सरल नहीं रह जाएगा. आइये एक बार फिर से हम साहित्य जगत की प्रचलित कहानियों की तरफ,किम्वदंतियों की तरफ रुख करते हैं.
मुझे याद है कि जब मैं नब्बे और इस सदी के पहले दशक में दिल्ली में रहा करता था तो हिंदी जगत की कुछेक अफवाहें यूँ ही कानो में पड़ते रहते. अज्ञेय और रामविलास शर्मा जैसे लोग तब तक गुजर चुके थे. तीन नामों की इन दशकों में तूती बोला करती. तीनों के प्रभाव क्षेत्र भी इन अफवाहों में साफ़ साफ़ विभाजित हुआ करते.जहां एक तरफ राजेंद्र यादव हंस के सम्पादक हुआ करते थे. नामवर सिंह जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय में प्राध्यापक थे और अशोक वाजपेयी सरकारी संस्थानों में कार्यरत थे. सरकारी संस्था, विश्वविद्यालय और प्रकाशन तीन ध्रुवों के बीच हिंदी साहित्य की राजनीति कई अर्थों में परिभाषित हुई जाती थी उन दिनों. कम से कम अफवाहों से तो लगता कि साहित्य का समूचा जगत ही दिल्ली के ही इन तीन मठों के बीच संकुचित हो. यह संभव भी है इन व्यक्तियों का प्रकाशन जगत पर महत्वपूर्ण प्रभाव रहा हो. लेकिन यदि आप इस प्रभाव की खुदाई करने जाएँ तो शायद ही कोई मुक्कम्मल व्याख्या तक पहुँच पायें. तो क्या इन हस्तियों के प्रभाव को महज अफवाहों तक ही सीमित रख उसके प्रभाव को सिरे से नकार दिया जाय. या फिर उसे साहित्य के खेमेबंदी के उदाहरण के तौर पर देखा जाय. लेकिन, ऐसा करने पर न तो हम साहित्य और पूंजी के बीच के अंतर्संवंधो तक ही पहुँच पाएंगे और न ही बाजार की ही कोई नयी समझ पैदा कर पायेंगे. हाँ इससे यह तो पता चलता ही है कि बाजार के मध्यस्थ का स्वरूप किस तरह का हुआ करता है.
यहाँ बहुत संभव है कि राधाकृष्णन से लेकर नामवर सिंह तक के प्रभाव को पूंजी के सामाजिक सरोकार के रूप में ही देखा जाय. पूंजी के सार्वभौमिक इतिहास में यह माना जाता रहा है कि पूंजीवाद के विकास के लिए यह एक आवश्यक शर्त है कि पूंजी अपने को इन सामाजिक सरोकार से मुक्त करे. इस फ्रेम में एक जगह का पूंजीवाद (जैसे कि भारत का पूंजीवाद) दूसरे जगह के पूंजीवाद ( जैसे कि अमरीका या योरप के पूंजीवाद ) से गुणात्मक स्तर पर नहीं महज ऐतिहासिकता में ही भिन्न होता है. तो जो पूंजी का स्वरुप आज के भारत में यहाँ दिखता है वही कभी अमरीका या योरप का इतिहास हुआ करता था. जो आज की अमरीका या योरप है वही भविष्य का हिन्दुस्तान होगा. इस फ्रेम में समूचे दुनिया का समाज एक ही समय केन्द्रित रेखा पर स्थित मन जाता है कोई आगे तो कोई पीछे.
इस युनिवर्सल फ्रेम के बरक्स उत्तर औपनिवेशिक विद्वानों ने दलील दी है कि पूंजीवाद को कोई एक सार्वभौमिक इतिहास और गतिकी नहीं हुआ करती. औपनिवेशिक विविधताओं को रेखांकित करते हुए, इस विचार पद्धति में पूंजीवाद का कोई एक स्वरुप नहीं माना गया है. अर्थात भिन्न सामजिक और ऐतिहासिक परिस्थितयों में पूंजी ने भिन्न भिन्न स्वरुप अख्तियार किये जिनकी एक दूसरे से तुलना नहीं की जा सकती. सरल शब्दों में कहें तो भारतीय पूंजीवाद की विशिष्टताओं को अविकसित, विकासशील जैसे विशेषणों के साथ लगाकर अमरीका या योरप से तुलना करना जायज नहीं होगा.
इस परिमार्जित दलील के साथ यदि हम अपने सवाल की तरफ लौटते हैं तो राधाकृष्णन से लेकर नामवर सिंह तक के प्रभावों को न तो मध्यस्थता और न ही लिटरेरी एजेंट के पूर्व इतिहास की तरह माना जाएगा. इससे अधिक महत्व यह कि पूंजीवाद को देखने का यह उत्तर औपनिवेशिक नजरिया यह ताकीद भी करता है कि लिटरेरी एजेंट का होना या न होना प्रकाशन जगत के विकसित या पिछड़े होने का कोई इंडेक्स नहीं माना जाय.
लिटरेरी एजेंट की अनुपस्थिति, इंटरनेट पर साहित्यिक गतिविधियों के प्रसार और कुछ बहुराष्ट्रीय प्रकाशकों का हिंदी जगत में प्रवेश आदि ने हालिया वर्षों में सम्पादक और सम्पादकीय संस्था की अहमियत और जिम्मेदारियों को नए तरह से परिभाषित किया है. गौरतलब हो कि सम्पादक और प्रकाशन जगत में इसकी भूमिका और अहमियत के सम्बन्ध में हिंदी के साहित्य इतिहास में कम ही लिखा गया गया है. जो कुछ थोड़े बहुत लेखन हैं भी वह ख़ास संपादकों के व्यक्तित्व और उनकी व्यक्तिगत राजनीति उनके विचारधारा से ही मुखातिव मिलते हैं. इस संस्था के सम्बन्ध में इसकी गतिकी के बारे में, इसकी भूमिका तथा इसकी चुनौतियों के सम्बन्ध में अक्सर ही व्यापक चर्चा का अभाव ही मिलता है. यह अभाव खटकता भी है. संभव है कि संपादकों के आत्मकथ्यात्मक लेखनियों और टिप्पणियों से इस अभाव की भरपाई हो सके.
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