
आज पढ़िए जाने-माने शायर गौतम राजऋषि की ताज़ा नज़्म-
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ये ग़ुस्सा कैसा ग़ुस्सा है
ये ग़ुस्सा कैसा-कैसा है
ये ग़ुस्सा मेरा तुझ पर है
ये ग़ुस्सा तेरा मुझ पर है
ये जो तेरा-मेरा ग़ुस्सा है
ये ग़ुस्सा इसका-उसका है
ये ग़ुस्सा किस पर किसका है
ये ग़ुस्सा सब पर सबका है
ये ग़ुस्सा ये जो ग़ुस्सा है
ये यूॅं ही नहीं तो उतरा है
जब पाॅंव-पाॅंव मजदूर चले
इक मुम्बई से इक पटना तक
जब भूख की आग में बच्चों की
जल जाये माॅं का सपना तक
जब सरहद पर सैनिक गिरते
तो मुल्क के नेता हॅंसते हों
जब बेबस-बेबस कृषकों को
सब कर्ज के विषधर डसते हों
फिर ग़ुस्सा ऐसा उठता है
मानो लावा सा फटता है
ये ग़ुस्सा ये जो ग़ुस्सा है
ऐसे ही नहीं ये उफ़नता है
जब-जब रोटी का ज़िक्र चले
तो फिर मंदिर का खीर बॅंटे
जब रोज़गार का प्रश्न करो
तो मस्जिद में सेवईयां उठे
जब राम के नाम पे चीख़-चीख़
हर झूठ पे परदा डाला जाय
जब काफ़िर-काफ़िर चिल्लाता
अल्लाहो-अकबर वाला जाय
फिर ग़ुस्सा ऐसा आता है
ज्यों पोर-पोर चिल्लाता है
ये ग़ुस्सा ये जो ग़ुस्सा है
अब भड़का है तो भड़का है
घुटती सॉंसों की क़ीमत पर
जब हवा यहॉं पर बिकती हो
शमशान की उठती लपटों से
जब रात सुलगती रहती हो
लाशों की नदियों का मंज़र
जब देख के साहिब सोता हो
परदे पर आकर लेकिन वो
बस झूठ-मूठ का रोता हो
फिर ग़ुस्सा ऐसा उबलता है
जैसे दावानल जलता है
ये ग़ुस्सा ये जो ग़ुस्सा है
बेवजह नहीं यह फूटा है
हर गाॅंव-गाॅंव हर नगर-नगर
सच दीखे औंधा पड़ा हुआ
औरों के कंधों पर बैठा
हर दूजा बौना बड़ा हुआ
इंसानों की करतूतों पर
शैतान भी शर्म से गड़ा हुआ
जब सारा का सारा ही हो
सिस्टम अंदर से सड़ा हुआ
फिर किसकी ख़ैर मनाये कौन
फिर कब तक पाले रक्खो मौन
फिर ग़ुस्सा तो उट्ठेगा ही
ज्वाला-पर्वत फूटेगा ही
ये जो तेरा-मेरा ग़ुस्सा है
ये ग़ुस्सा इसका उसका है
ये ग़ुस्सा किस पर किसका है
ये ग़ुस्सा सब पर सबका है
~ गौतम राजऋषि
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