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शैलेंद्र शर्मा की कहानी ‘तीन पगडंडियां’

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शैलेन्द्र शर्मा पेशे से चिकित्सक हैं। 1980-90 के दशक में हिंदी की सभी पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कहानियाँ प्रकाशित होती थीं, सराही जाती थीं। लम्बे अंतराल के बाद इन्होंने दुबारा लेखन  शुरू किया है। जानकी पुल पर प्रकाशित यह उनकी दूसरी कहानी है-

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स्टेशन पर सुमेधा और श्रुति पहले ही पंहुच गयी थीं। वे दोनों समय की पाबंद थीं। बस पद्मा हमेशा की तरह लेट-लतीफ थी। खैर, अभी ट्रेन आने में आधा घंटा था। दोनों हंस रहीं थीं। अभी हाँफते-हाँफते पंहुच जाएगी। और हुआ भी यही। ट्रेन के आने का सिग्नल हो चुका, तब पद्मा, अपने बेडौल शरीर को समेटते हुए नमूदार हुई। साथ में बैग पकड़े कुली।

    “अरे, पद्मा की बच्ची, ट्रेन निकलने के बाद आती न! और, दो दिनों के लिए इतना बड़ा बैग क्या ले आई है?तुझसे तो उठ भी नहीं रहा है।”

“अरे छोटा सूटकेस जाने कहाँ रख दिया है, मिला ही नहीं। फिर वहां के लिए खाना और नाश्ता भी तो रखना था।”

“होटल में रुकने जा रहीं हैं मैडम, अपने घर से नाश्ता लाद के।” श्रुति बोली।

ट्रेन में बैठते ही दोनों ने नोट किया, पद्मा की बायीं आंख के नीचे एक ताजा दाग है। दोनों ने एक दूसरे को देखा।

सुमेधा बोली, ” ये तेरी आंख के नीचे क्या हो गया, जिसपे तूने इतनी सारी क्रीम मल रखी है।”

“अरे कल सुबह बाथरूम में पैर फिसल गया। दरवाज़े का कोना लग गया।”

“बहुत देखे हैं, तेरे पैर फिसलते हुए। ज़रूर अजीत की कारिस्तानी होगी।”

पद्मा चुप हो गयी। कुछ पलों बाद धीरे से बोली,”सहेलियों के साथ घूमने जा रही हूँ, इसका तो अवॉर्ड मिलना ही था।”

“सही कह रही थी न मैं! अजीत ने फिर मारा न तुझे? पलट के तुझसे एक थप्पड़ नहीं मारा गया?”

पद्मा ने नज़रें झुका लीं।

श्रुति बोली, “पद्मा, मैं अक्सर सोचती हूँ, तेरे इतने बड़े बच्चे हो गए, वो कुछ नहीं बोलते तेरी तरफ से।”

“श्रुति… ऐसा नहीं है कि बच्चे बाप का फ़ेवर करते हों। बस एक तटस्थता है दोनों में। न्यूट्रल रहते हैं, अपने दोस्तों में, अपनी पढ़ाई-लिखाई में लगे रहते हैं।।।या शायद मैं ही इतनी अच्छी मां नहीं बन सकी कि वे मजबूती से मेरे साथ खड़े हो जाएं।

पद्मा ने एक फीकी हंसी से बात को संभालने की कोशिश भी की, पर मन की चोट शायद उसके चेहरे पर और विकराल रूप में उभर आई थी। तभी तो उसके शब्द भी खुद उसका साथ नहीं दे रहे थे। उसके चेहरे पर छाई बेचारगी को देख कर सुमेधा ने उसे सहारा दिया। बोली,

“बच्चे कहाँ अपने होते हैं।।।तेरे तो फिर भी छोटे हैं।।।मुझे देख, एक ही शहर में रहती है बिटिया, लेकिन बात किये हफ्ता हो जाता है, मिलने की तो कौन कहे।”

“अच्छा चलो, जिन बातों को भूलने के लिए बाहर जा रहे हैं, उन्हीं की गठरी सिर पर लाद रखी है।”

तीनों सहेलियों ने सिर को ऐसे झटका दिया, जैसे वाकई ऐसा करने से यादों का, और अंधेरों का बोझ, दूर जा गिरा हो।

“मैं ब्राउन ब्रेड सैंडविच बना के लायी हूँ, वो खाओ तुम लोग।” पद्मा ने बहुत जतन से बैग में से एक नीले रंग का सुंदर सा टिफिन निकाला।

“अरे मेरी मैनेजमेंट एक्सपर्ट, तू बेकार में मरी सुबह-सुबह। नाश्ता तो ट्रेन में मिलेगा।”

“शिट मिलेगी यहां तो। कौन खायेगा।”

“ज़िन्दगी भी तो शिट है।” सुमेधा बोली, और तीनों मुस्कुरा कर सैंडविच कुतरने लगीं।

जाड़े की गुनगुनी सुबह थी। खुशनुमा मौसम था। तीनों सहेलियाँ, खुशियां ढूंढने दूसरे शहर जा रही थीं, दो दिन के लिए। वे खुशियां, जो उनकी जिंदगियों से, मुट्ठी में बंद रेत की तरह कब की निकल चुकी थीं। रह गए थे कुछ निचुड़े हुए टुकड़े, जो इतने अलग अलग हिस्सों में बंटे हुए थे, कि चाह कर भी उन्हें जोड़ कर कोई मुकम्मल आकृति नहीं बनाई जा सकती थी। खुशी तो खरपतवार की तरह होती है, जहां तहां उग आती है, मगर इन तीनों को उस खरपतवार की भी खोज करनी पड़ती थी।

ट्रेन से उतर कर होटल की गाड़ी का ड्राइवर सुमेधा के नाम का बोर्ड लिए खड़ा था। वहां से उन्हें होटल पंहुचने में करीब पौन घंटा लगा। गाड़ी एक नए बने होटल के विशालकाय परिसर के आगे रुकी।

“अरे, नदी के किनारे वाले होटल में नहीं कराया? मुझे नदी के किनारे पानी में पैर डाल कर बैठना था।” पद्मा ने नए होटल की खूबसूरत इमारत को देखते हुए कहा।

“वे बता रहे थे, नदी में बाढ़ आ गयी थी, पूरा होटल तहस-नहस हो गया था। वहां रेस्टोरेशन का काम चल रहा है। इसीलिए  यह नया होटल।”

जब तीनों अपने कमरों के सामने पंहुचीं, तो सुमेधा ने कहा, “आधे घंटे में फ्रेश हो लो। फिर चलेंगे नदी  में पैर डालने।”

पद्मा चिल्लायी, “अब तू टूर मैनेजर की तरह व्यवहार मत कर। मैं चार बजे की उठी हुई हूँ, नहाई भी नहीं हूँ। अब अच्छी तरह से नहा धो कर तैयार होने दे।”

“ओहो, मेरी छमक छल्लो, खूब तैयार हो जा, अब तुझ बुढ़िया पे कौन रीझेगा।”

“अच्छा, सेंट जोन्स कॉलेज के दिन याद कर, हम तीनों का ग्रुप लड़कों में कितना मशहूर था!”

एक पल को सुमेधा ठिठक कर खड़ी हो गयी। “वो भी क्या दिन थे यार।।।कैसी हंसिनी सी चाल थी हमारी।”

“अब बुड्ढी लोमड़ी जैसी है, गिरती-पड़ती।” यह श्रुति थी, खिलखिलाते हुए।

फिर अचानक गंभीर होकर, पद्मा ने सुमेधा की कमर में बांहें डाल लीं। ” मुझे कभी-कभी बड़ा अफसोस होता है, कि तेरा घर नहीं बस सका, और मेरी सखी, कुंवारी ही रह गयी।”

“अच्छा ही हुआ न, शादी नहीं करी।।।नहीं तुम दोनों जैसा हाल होता।” सुमेधा ने एक ठंडी सांस भरी।

पद्मा और श्रुति, दोनों के चेहरे चुप-सी लगा गए। एक पल को  बेचैन शांति सी छा गयी, फिर सुमेधा चहक कर बोली, “और कुंवारी,या नो कुंवारी।।।दैट’स अ सीक्रेट!”

दोनों सहेलियों ने सुमेधा को घेर लिया,” अच्छा, तो वो तेरे कॉलेज का पी। टी। टीचर…”

सुमेधा ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर घोषणा की, “चलो आज अपने दोस्तों की खातिर रात को एक पेग के बाद इस रहस्य से भी पर्दा उठेगा।”

तीनों खिलखिलाती हुईं अपने अपने कमरे में तैयार होने चली गईं।

तकरीबन डेढ़ घंटे बाद तीनों नदी के किनारे पानी में पांव लटकाए बैठी थीं। सुमेधा ने अपने मोबाइल में फुल वॉल्यूम में लता के पुराने गाने लगे रखे थे।

“जानती हो, दुनिया की सबसे मासूम चीज़ क्या है?”सुमेधा ने पूछा।”

“क्या?”

“लता की सिक्सटीज़-सेवेंटीस के समय की आवाज़।”

दोनों ने अनुमोदन में सिर हिलाया।

“एक और चीज़ बहुत मासूम है? श्रुति बोली।

“क्या?”

“तीन भटकती आत्माओं की मित्रता।”

तीनों ने ठहाका लगाया।

पद्मा, ममतामयी मां की भूमिका में थी। उसने छोटे थैले से एक चादर निकाल कर नदी  के किनारे मिट्टी पर बिछा दी।होटल से आया कॉफी का थर्मस तो था ही। लता की कच्ची, मगर सुरीली, निष्पाप, निष्कलुष आवाज़ नदी की लहरों के साथ बह रही थी।

पद्मा

——

तुम्हें याद है, पहला थप्पड़ कब पड़ा था? हैरान रह गयी थी न तुम! विवाह के शुरू के वर्ष। एक महीने का विभु साथ में। अजीत फिर माफी मांगता। तुम नशे के टाइम कुछ मत बोला करो।

स्त्री, पति के हाथों मार भी खा सकती है? और आज के आधुनिक युग में! तुम सोचती थी। फिर भी क्यों आवाज़ नहीं उठाई तुमने? शायद तुम्हारा स्वभाव ही ऐसा था। प्रतिरोध करना ही नहीं जाना था। क्यों प्रकृति ने ऐसा स्वभाव बनाया तुम्हारा? सौम्य, सहनशील, ज़्यादातर मौन रहने वाली, संतोषी जीव? मगर क्या तुम्हें ऐसा होना चाहिए था? ठीक किया क्या तुमने इस प्रकार जीवन बिता कर?

वैसे तो सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था। अजीत का व्यवसाय भी। उसकी पार्टियां भी। उसका नशा भी। सितारों तक जाती सीढियां थीं, जिनकी रोशनी आधे रास्ते में समाप्त हो जाती थी। इतना घुप्प अंधेरा क्यों कर रखा है तुमने? बच्चे बाहर खेलने जाते हैं, तो तुम कमरे में बत्ती बुझा कर क्यों बैठ जाती हो?

बाहर अंधेरे में जुगनू चमक रहे हैं। बचपन में खेलते थे न? कागज़ के लिफाफे में जुगनू बंद  कर लेते थे। कितने खुश होते थे बच्चे बाहर से जुगनुओं को देख कर। तुमने अपनी स्मृतियों के जुगनू कहाँ कैद कर रखे है? हथेलियों में। हथेलियों में तो चुम्बन हैं अजीत के। माथे पर, होंठों पर, कानों पर। कितना आलोड़ित करते हैं न? फिर एक झन्नाटेदार झापड़ पड़ता है। सारे जुगनू बिखर जाते हैं, उड़ जाते हैं।

बहुत दर्द कर रहा है अजीत! तुमने धक्का दिया था न, तो सिर दीवार से टकरा गया था। तुम्हें हिंसा के समय चुम्बनों की याद नहीं आती?

फिर पैरों से लिपट आंसू बहाना। पूरा मेलोड्रामा। तुम छोड़ दोगी तो मर जाऊंगा। कहाँ जाऊंगा दो छोटे बच्चों को लेकर। समझ लो तुम्हारे तीन बच्चे हैं। एक ज़्यादा बिगड़ा हुआ है।

शरीर के कई टुकड़े हो गये हैं। हाथ-पांव अलग अलग। चेहरा और धड़ अलग। सब अंग एक दूसरे की ओर आना चाहते हैं, जुड़ना चाहते हैं, लेकिन नहीं जुड़ते।

तुम्हें क्या कमी है? घर में सब कुछ तुम्हारे हाथ में है। सारी चाबियां, ज्वेलरी, लॉकर, सब। ज़्यादातर एकाउंट्स जॉइंट हैं। मैं कितना ख्याल रखता हूँ तुम्हारा।

तुम्हें क्या चाहिए, किटी पार्टीज़ में जाओ, बच्चों की पीटीएम। में जाओ, नई चलन के कपड़े खरीदो, नए गहने बनवाओ, पुराने तुड़वाओ।

पैर कहीं और जाना चाहते हैं, बाकी शरीर कहीं और। कैसे हो सकता है ऐसा! शरीर के इतने टुकड़े?

चांदनी रात है। खिड़की के सहारे चांद अंदर आ गया है, बिस्तर तक। तुम्हारे बगल में लेटना चाहता है। मगर वहां तो एक गंधाता हुआ शरीर है। रसायन-विज्ञान की प्रयोगशाला में एक बहुत दुर्गंध देने वाली गैस लीक हो गयी है। चांद को दोनों बांहों में भींच कर तुम सोने की कोशिश कर रही हो। चांद वापस जाना चाहता है।

जादुई कालीन पर बैठ कर तुम बच्चों के साथ आसमान में उड़ रही हो। एक झटका लगता है, तुम्हारे पैर जमीन पर हैं, बच्चे अंतरिक्ष की ओर उड़े जा रहे हैं।

तुमने अपने पंख क्यों सिकोड़ रखे हैं? क्यों डरती हो उड़ने से? निरभ्र, अनंत आकाश है तुम्हारे सामने। बंधनों को खोलने की कोशिश तो करो।

*****

नदी  के तट से लौट कर तीनों ने सुमेधा के कमरे में अड्डा जमाया हुआ है। मेज पर दो बियर, और एक मोहितो रखी है। तीनों रात्रि के परिधानों में हैं। रात के खाने का रूम सर्विस को आर्डर हो गया है। किचेन जब बंद हो रही होगी, तो आखिरी आर्डर के रूप में भोजन आ जायेगा।

“त्रिशा(श्रुति की पुत्री) का क्या हाल है?” बियर की चुस्की लेते हुए सुमेधा ने श्रुति से पूछा।

“वहीं रह रही है, सनराइज अपार्टमेंट में, उसी लड़के के साथ।”

“और विवाह का क्या सोचा है, उसने?” यह पद्मा थी।

“कहती है, अभी साल भर हम एक दूसरे को समझ लें, उसके बाद मन करेगा तो विवाह करेंगे, नहीं तो अपने-अपने रास्ते।”

“वैसे इसमें कोई बुराई नहीं है।” पद्मा बोली।

“बुराई नहीं, सच्ची पद्मा, मुझे इस बात से ज़रा भी समस्या नहीं है। लेकिन माँ को बातें शेयर तो करो। अचानक फरमान जारी कर दिया, मैं कल से फ्लैट में शिफ्ट हो रही हूँ, जैसे मां तुम्हारी सबसे बड़ी दुश्मन हो।।।तुम लोगों ने तो देखा है, सिंगल पैरेंट का कितना मुश्किल होता है बच्चे को बड़ा करना।”

“अरे क्या हम जानते नहीं हैं। एक-एक पल के गवाह रहे हैं हम दोनों। कितना मर-मर के पाला है तूने त्रिशा को।”

“कितने साल की रही होगी बेटी, निशांत की मृत्यु के समय? ज़्यादा से ज़्यादा चार साल।” सुमेधा बोली।

“हां, तीन पूरे हुए थे तब।”

“तेरी नौकरी नहीं होती तो असंभव हो जाता।” पद्मा बोली। फिर थोड़ा रुक के बुदबुदाई, “शायद मैंने इसीलिए तलाक़ की कभी सोची नहीं, या सोच ही नहीं पाई।”

“पागल है तू, एम।बी।ए। कर रखा है, उस समय तो कोई भी नौकरी मिल जाती तुझे। और आज भी कोई टोटा नहीं है। अपने खाने लायक तो कमा ही सकती है।” सुमेधा ने तेज़ आवाज़ में कहा।

पद्मा थोड़ी देर तक चुप बैठ कर दोनों को बारी-बारी से घूरती रही, जैसे कुछ कहना चाह रही हो, फिर अपने मोहितो के गिलास में डूब गई।

श्रुति

——-

एक सैलाब-सा है, जो टकराता है, बहाए लिए जाता है। अंदर तक चीरते अंधेरों के बीच, पसीनों में डूबा कोई वक़्त-बेवक्त उठ बैठता है, और टटोल कर अपने जिस्म से खींच कर निकाल देना चाहता है, उन अनाम इच्छाओं को, जो खून के गर्म दौरे की तरह हरदम मुझे घेरे रहती हैं।

ज़िन्दगी कैसी विचित्र रही है मेरी। पढ़ाई पूरी करके नौकरी करनी शुरू ही की थी, कि वसंत का आगमन हो गया। फूल, पौधों पर ही नहीं, देह पर भी खिल उठे थे। निशांत से परिचय तो सहकर्मी के रूप में ही हुआ था, लेकिन कब दोनों पज़ल के दो हिस्सों की तरह आपस में जुड़ गए, इसका अहसास ही नहीं हुआ। मुश्किल से छह महीने की कोर्टशिप, फिर विवाह प्रस्ताव, फिर विवाह, और एक साल में ही त्रिशा का आगमन।।।एक परियों की सबसे ऊंचाई वाली कहानी जैसी लगती है। कभी कभी सोचती हूँ, शायद निशांत के पास समय कम था, इसलिए उसके काज जल्दी-जल्दी होते जा रहे थे।

निशांत था, हर दिन मदनोत्सव था। फूलों के झूले थे, सर-सर बहती हवा थी, निशांत पीछे से झूले को बहुत तेज़-तेज़ धक्का दे रहा था। अपने भाग्य की सारी लिखावट, मोरपंख से लिखी दिखती उसे। निशांत, ओ निशांत! इतना प्रेम क्यों करता थे तुम…

तुमने गुलमोहर के लाल -लाल फूल मेरे ऊपर क्यों गिरा दिए हैं? जैसे मंच पर फूलों वाली होली खेली जा रही हो।

कलाकार कमर तक फूलों में डूब गए हैं । फूलों में भी कोई डूबता है भला? लेकिन निशांत में ही वह कुव्वत थी कि बिना पानी के डुबो दे  मुझे। गुलमोहर जैसे रंग के उसके  होंठ।।।लड़कों के होंठ भी कहीं लाल होते हैं? मगर उसके थे  तुम मेरे दांतों के लिए क्या कहते थे? कहीं पढ़ा होगा तुमने ज़रूर। ‘दाड़िम जैसी दंतपंक्ति’।।।मारूंगी तुम्हें।

पेड़ की सबसे ऊँची फुनगी पर ले गया था वह। वहां से तो गिरना ही था। वह जगह कितनी कमज़ोर होती है! कहीं पाँव टिक सकते हैं भला?

फिर आफिस में ही उसका चक्कर खा कर बेहोश हो जाना, फिर कैंसर की पुष्टि, और फिर दिल्ली में एम्स में उसका आपरेशन। और वहां “डेथ ऑन टेबल।” एक ऐसी स्थिति, जिससे हर डॉक्टर के प्राण सूखते हैं।

“घबरा मत श्रुति, कुछ नहीं होगा मुझे। एक विजेता की तरह आऊंगा लौट कर। तू क्या सोचती है, इतनी जल्दी पीछा छोड़ दूंगा तेरा?।।।मरने के बाद भी, सृष्टि के आखिरी छोर तक…”

सच है, पीछा तो नहीं छोड़ा तुमने, निशांत! तभी तो फैल गयी कांच की किरचों को जोड़ कर दोबारा दिवास्वप्नों की शुरुआत करने का साहस नहीं जुटा पाई मैं!

एक पूरी ज़िंदगी, चार वर्षों में, तुम्हारे साथ ! और एक आधी-अधूरी ज़िन्दगी, न गिने जा सकें, इतने लंबे सालों में, तुम्हारे बिना!

निचाट सूनी रातें, बंदरिया की तरह एक छोटे बच्चे को अपने अंदर चिपकाए, अंधेरे के बीच दूसरे तकिये पर तुम्हारे खो गए चेहरे को टटोलती मैं! जब सब समाप्त हो जाएगा, तब मिलोगे न तुम! वायदा किया है तुमने।

फिर त्रिशा के अभाव! क्या बेटी के जीवन में पिता की इतनी ज़रूरी भूमिका होती है, जिसे मैं पूरा नहीं कर पाई, पूरी कोशिशों के बावजूद?

मैंने चाहा तो था दोनों किरदारों को निभाना, लेकिन मां ही बन कर रह गयी केवल। और या मां भी पूरी नहीं, आधी-अधूरी। मन तो हर समय उसे खोजता रहता जिसने इतने कम समय में, पूरे ब्रह्मांड की सैर करा दी थी।

उसके अभाव को अपनी व्यस्त दिनचर्या से भरती मैं। ऑफिस में किसी और का भी काम हो, कभी मना नहीं करती, चलो थोड़ा समय और कट जाएगा। स्मृतियों के प्रेत कुछ देर तो पीछा छोड़ेंगे।

उसकी कमी को तरह-तरह से भरने की कोशिश में लगी मैं। एक-एक घंटे को एक-एक दिन की तरह जीना, और संभवतः मैंने अनुभव ही नहीं किया त्रिशा का अपनी अंगुलियों से सरकते जाना। एक बड़े से आंगन का, बिना किसी गाछ की छाँह के, निरंतर बड़े होते जाना। और आंगन के दो छोरों पर निरंतर दूर होते, एक औरत और एक किशोरी। कोई कह रहा था कि त्रिशा का बचपन, एक परेशान बचपन था, और उसके परिणामस्वरूप कैशोर्य, एक विद्रोही कैशोर्य था।

क्यों चली गयी त्रिशा मुझसे दूर? उसके नन्हे हाथ जिसे टटोल रहे थे, उस जगह को मैं भी तो भर सकती थी? मुझसे क्यों नहीं चिपक गयी वह? आधे-अधूरे दो मिल कर एक पूरा भी तो हो सकता था? क्यों नहीं हुआ फिर?

******

अगली सुबह। सुमेधा जल्दी उठ कर जॉगिंग करके वापस आ गयी थी । बाकी दोनों सो रही थीं । शायद रात का हैंगओवर। लॉन में घास पर ओस जमी हुई थी।। हल्का सा कोहरा था।। वेटर चाय रख गया था। कप में से भाप उठ रही थी।

सुमेधा

——–

उसे एक बहुत पढ़ने लिखने वाली लड़की याद आती है। किताबों, कॉपियों, नोट्स, लाइब्रेरी वाली एक लड़की।बहुत पढ़ती थी तो ज़ाहिर है कक्षा में अव्वल आती थी। माता-पिता की इकलौती संतान, और वह भी बुढापे की। जब दोनों ने उम्मीद ही छोड़ दी थी, कि अब तो वृद्धावस्था एकाकी ही काटनी पड़ेगी, तब उसने मां के गर्भ में दस्तक दी, और बिना बताए चली आयी।

जब तक युवा हुई, माता-पिता बूढ़े हो चुके थे। दोनों अशक्त, रोगों से ग्रस्त। हर बात के लिए उन्हें बेटी की आवश्यकता होती। उसे केवल पढ़ना होता और उन दोनों का ख्याल रखना होता।

समय आया दूसरे घर जाने का। उस उम्र तक किसी से प्रेम नहीं हुआ था, इसलिए रिश्ते तलाशे गए। कुछ पसंद नहीं आये। कुछ इसके हेड स्ट्रांग स्वभाव की वजह से, तो अधिकांश संभावित दूल्हे भविष्य में दो रोगग्रस्त बूढ़ों का बोझ लादने को तैयार न थे। वह दृढ़प्रतिज्ञ थी। विवाह के बाद माता-पिता को साथ रखना होगा। ऐसी आर्थिक स्थिति भी नहीं थी, जिसके लोभ में कोई वर आ टकराता। केवल एक पुश्तैनी मकान था। था तो काफी बड़ा, दाम भी अच्छे मिल जाते उसके, लेकिन पिता की भावनाएं उस घर से जुड़ी थीं, और वे उसे बेचने को तैयार न थे, जबकि शहर के मास्टरप्लान में घर का पीछे का भाग, बिल्कुल मुख्य सड़क पर आ गया था।

उसने मान लिया था कि अब जीवन ऐसे ही कटेगा।

ऐसे में प्रेम ने दस्तक दी थी।अनंत  उसके कॉलेज में पी। टी। इंस्ट्रक्टर था, आयु में उससे दस वर्ष छोटा।

“मेरा प्रेम करने का पहला अवसर है।” उसने अंतरंग क्षणों में अपने प्रेमी से कहा था।

“हर एक के जीवन में कभी तो एक पहली बार होता है।” अनंत ने  सुमेधा को अपनी बलिष्ठ बांहों में भरते हुए कहा था।

“अपने मन-प्राण की सब ग्रंथियों को ढीला करके मेरे हवाले कर दो।” वह फुसफुसाया था।

“मैं तुम्हारी शिराओं को मीठे पानी के स्रोतों से निकलने वाले अनूठे पवित्र जल से नहलाऊंगा।” उसके युवा शरीर से उठते संगीत ने सुमेधा के कानों से कहा था।

“तुम्हारे कैक्टस से खुरदुरे पड़ चुके रोमों को गुलदाउदी के फूलों जैसे रंगीन स्पर्शों से ऊर्जान्वित कर एक नई यात्रा का अतिथि बनाने का वचन देता हूँ तुम्हें।” उसकी चंचल मांसपेशियों ने सुमेधा के लाल हो आये चेहरे से कहा था।

और घुल गयी थी सुमेधा, जल में शक्कर की तरह।

इस संबंध में कोई नियम नहीं था, कोई वायदा नहीं था एक दूसरे से। जैसे कभी कभी सप्ताहांत में मदिरापान किया जाता है, दिमाग पर लगे मकड़ी के जालों को साफ करने के लिए, कुछ-कुछ वैसा ही।

और संभवतः दोनों एक-दूसरे से इसी तरह आ जुड़े थे। बिना किसी शर्त वाला प्रेम था यह, जिसमें कोई पूर्वाग्रह न था, अपेक्षाएं न थीं, वचनबद्धता न थी, उलाहने न थे, ईर्ष्या न थी। सिर्फ प्रेम था इसमें, देह में भी, और देह से परे भी।

थोड़े बहुत चर्चे उड़े तो थे, इस प्रेम के, किन्तु दोनों को परवाह न थी।

प्यार अक्सर होता। कभी अनंत के एक कमरे वाले घर में। कभी उसके अपने घर में। माता-पिता तो बिना उसके सहारे के उठ भी नहीं सकते थे। ऐसे में उसका कमरा स्वर्ग का-सा एकांत देता।

*****

तभी श्रुति और पद्मा, दोनों लगभग एक साथ ही अपने-अपने कमरों से प्रकट हुईं। दोनों के चेहरे फ़र्क़ थे। श्रुति के चेहरे पर जहां रात भर चैन से पैर फैला कर निद्रा देवी की गोद में ऐश करने का आलोक था, वहीं पद्मा का चेहरा उदासियों, बेचैनियों, चिंताओं और अनिद्रा का सच्चा प्रतिनिधि बनकर उसकी आयु को और दस वर्ष अधिक करके पेश कर रहा था।

“तू कर आई अपनी जॉगिंग?” श्रुति ने सुमेधा से कहा।

“भई, अपन से तो पांच बजे के बाद बिस्तर में नहीं रह जाता। हम तो नदी किनारे तक टहल भी आये।”

“चाय आर्डर करती हूँ।” श्रुति उठने लगी।

“मैंने मंगा ली है चाय। ला रहा होगा।” पद्मा बोली।

बाकी दोनों ने उसी क्षणांश में पद्मा का चेहरा गौर से देखा।

“तुझे क्या एक मोहितो से इतना हैंग ओवर हो गया?” श्रुति ने पद्मा से कहा।

“नहीं मैं… रात भर सो नहीं पाई… सोचती रही इससे अच्छा तो मैं मर जाऊं।” जैसे कोई बांध भरभराकर टूट गया हो, ऐसे पद्मा रो पड़ी।

“अरे, अरे, पागल है क्या पद्मा!” श्रुति ने उठा कर पद्मा को बाहों में भर लिया, और एक हथेली से उसकी पीठ सहलाने लगी।

बाहों का सहारा पाकर सिसकियां, रुदन में बदल गयीं।

“उस कुत्ते अजीत के बारे में ही सोच रही होगी तू। मन कर रहा है, अभी हरामी को गोली मार दूं जाके।” सुमेधा गुस्से से शब्दों को चबा-चबा कर बोली।

“तू उसे छोड़ क्यों नहीं देती।।।सारी जिंदगी होम कर दी तूने उसके लिए।” श्रुति ने पद्मा का सिर सहलाते हुए कहा।

वेटर चाय ले आया था। वे दोनों थोड़ा सीधी होकर बैठ गईं।

पद्मा थोड़ी देर सुबकती रही, फिर धीरे से अटकते हुए शब्दों में बोली, “मैं कल रात बता नहीं पाई तुम दोनों को, इधर एक नया डेवलपमेंट और हुआ है।”

दोनों प्रश्नवाचक निगाहों से उसे ताके जा रही थीं।

“अजीत की जिंदगी में कोई और है।”

“मतलब?।।।कोई और औरत?” श्रुति बोली।

“मुझे दो-तीन महीने से शक हो रहा था। अजीत के कॉलर पर लिपस्टिक के निशान, फिर एक जूलरी वाले का बिल, फिर उसके फ़ोन में मेसेज…”

“गिरेबान नहीं पकड़ा कुत्ते का तूने?” सुमेधा आग-बबूला हो आयी थी।

“मैंने उस दिन रात को सारी बातें बता कर पूछा, तो बहाना बनाकर दूसरी तरफ पलट कर सो गया।”

सुमेधा का क्रोध सातवें आसमान पर था। “अब अगर तू उस घर में एक मिनट भी रुकी न, तो तू समझ लेना। हम दोनों को छोड़ दे, और मर उसी नरक में।”

“अब तुझे डाइवोर्स फ़ाइल करना ही पड़ेगा।” श्रुति मजबूती से बोली।

“मेरे बच्चे…” पद्मा फिर रोने लगी थी।

“खुद ही तो कहती है, बच्चे तुझे घास नहीं डालते! खैर छोड़, बच्चों का बाद में देखा जाएगा।” श्रुति ने कहा।

“कहाँ जाऊंगी मैं?” पद्मा की सिसकियां बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थीं।

“मेरे पास शिफ्ट हो रही है तू। इतना बड़ा घर खाली पड़ा है।” सुमेधा ने दृढ़ता पूर्वक कहा।

दोनों पद्मा को बहुत देर तक समझाती रहीं। फिर सुमेधा कुछ सोचती हुई बोली, “मुझे भी तुम दोनों से कुछ बात करनी है। लेकिन अभी पुराने  मंदिर चलेंगे न, वहीं बताऊंगी।”

“इतनी बार का देखा हुआ है, क्या करेगी जाके। हम लोग रिलीजियस टूरिज्म थोड़ी करने आये हैं।”श्रुति ने कहा।

“नहीं, आज तो जाना ही है।” सुमेधा ने जोर देते हुए कहा।

कुछ देर बाद मंदिर से लौटते समय सुमेधा ने टैक्सी में ही दोनों से कहा, “देखो, अब थोड़े दिनों बाद मेरी सेवानिवृत्ति है। पिताजी ने अंततः आज्ञा दे दी है, कि पीछे वाली दीवार तोड़ कर, सड़क के ठीक किनारे कुछ काम लगा लो।”

वे दोनों बड़े ध्यान से सुन रही थीं। “हां, फिर?”

“तो देखो मेरे पास दो ऑफर हैं। दोनों ही अपना पैसा लगाकर भवन वगैरह बनाकर देंगे। एक तो जोधपुर की बेड लिनेन की कंपनी है। दूसरी, ऑटिज़्म…यानि स्पेशल बच्चों  के स्कूल की श्रृंखला की फ्रैंचाइज है।”

“उसमें सोचना क्या है? दूसरे ऑफर को लपक ले।” श्रुति ने कहा।

“यही मैं भी सोच रही हूँ। उसमें अर्थ-लाभ तो कम है, लेकिन मन का संतोष बहुत अधिक है।” कहकर सुमेधा ने दोनों सखियों के हाथ पकड़ लिए, ” मुझे इस नए काम में तुम दोनों की ज़रूरत होगी।”

“डन।” श्रुति थोड़ा ज़ोर से किलकारी-सी मार कर बोली।

पद्मा ने डबडबायी आंखों से सुमेधा की तरफ देखा,” तू यह सब मेरे लिए कर रही है न?”

“ये लो जी, मोटी की बातें सुनो! इतने बड़े प्रोजेक्ट में हाथ डालूंगी तेरे लिये?”

फिर सुमेधा थोड़ा रुक कर धीरे से बोली, ” मैं तुम लोगों से थोड़े दिन बाद पूछती, लेकिन सुबह तूने उस कुत्ते अजीत की बात सुनाई तो मेरा निर्णय पक्का हो गया। अब तो यही काम करना है, और फौरन से पेश्तर।”

दो पल बाद वह फिर पद्मा से बोली, ” मगर मेहनत बहुत करनी पड़ेगी तुझे। कुछ विशेष प्रशिक्षण वाली अध्यापिकाएं रखनी पढ़ेंगी। मगर अपनी प्रबंधन क्षमताओं के साथ तेरा परिश्रम असली होगा।”

“ज़िन्दगी भर नाशुकरों के लिए किया है।अब तो अपने मन का काम होगा।” पद्मा फुसफुसाई।

शाम को ट्रेन से लौटते समय तीनों अपने-अपने ख्यालों में गुम थीं।

पद्मा सोच रही थी, एक बहुत बड़े निर्णय का समय आ गया है। शायद यह लम्हा, बहुत पहले आ जाना चाहिए था।अब तक तो आजाद हवा में सांस लेते कई साल गुज़र जाते। हालाँकि अतीत में वह कभी साहस नहीं जुटा पायी थी, लेकिन अब उसे लग रहा  था जैसे उसके हाथ आज़ाद हो गए हों। एक पल को भी आगत से भय नहीं लग रहा था। दिमाग के चारों ओर जो घने गाढ़े बादलों की मेखलाएँ थीं, वे टूटती  सी लग रहीं थीं। और पैरों  में पड़ा निरभ्र,बादलों से रिक्त आकाश, उसे अपने ऊपर चलने को आमंत्रित कर रहा था।

एक पल को बच्चों की चिंता हो रही थी, लेकिन जैसा सुमेधा ने आश्वासन दिया था, कि  बाद में कुछ न कुछ समाधान निकाल लेंगे, तो अनिश्चितता की धुंध कुछ छंटती-सी लग रही थी। पहले अपना थोडा ज़रूरी सामान लेकर सुमेधा के यहाँ आ जाएगी, फिर अजीत को अपने निर्णय से अवगत कराएगी। क्या प्रतिक्रिया होगी अजीत की? उंह, उसे जरा भी परवाह नहीं है। बस एक बात निश्चित है। अब ये कदम वापस नहीं लौटेंगे।

श्रुति सोच रही थी, जीवन के एकाकी भटकाव में, कुछ तो ठहराव आएगा। त्रिशा के चले जाने से जो रिक्तता पैदा हुई है, उसे संभवतः कुछ हद तक भर पाने में सफल होगी वह। पूरे  दिन सुमेधा और पद्मा के साथ होने का अहसास, मन में एक शीतल रोमांच की अनुभूति दे रहा था। शायद स्कूल में उन दिव्यांग बच्चों का साथ उसे अपने वजूद की व्यर्थता के अहसास से मुक्ति दिला सके।

 सुमेधा सोच रही थी, जीवन में थोड़ी व्यस्तता बढ़ जाएगी।अच्छा ही है, नहीं तो सेवा-निवृत्ति के बाद पहाड़ जैसे दिन काटने मुश्किल हो जाते। पद्मा के घर में  होने से स्कूल का काम भी अच्छी तरह से संभल जायेगा। तीनों की बोन्डिंग इतनी अच्छी है, कि इतने वर्षों बाद भी यह मन करता है, कि तीनों दिन भर साथ रहे। एकदम से मन में एक ख्याल आया। क्या पद्मा के होने से अनंत के घर आने में कोई रूकावट आएगी? फिर तुरंत उस ख्याल को उसने परे झटक दिया। हम तीनों की कौन सी बात एक दूसरे से छुपी है?

जैसे कोई टेली पैथी हो गयी हो, श्रुति ने सुमेधा की तरफ मुंह घुमा कर पूछा, “ अरे सुमेधा, तू  तो कल पर्दाफाश कर रही थी, कुंवारी, या नो कुंवारी।”

सुमेधा ने हँसते हुए कहा, “मेरे इतना कहने पर ही तुम दोनों को समझ जाना चाहिए था, कि इस प्रश्न का उत्तर क्या होगा।”

दोनों का मुंह आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से खुला का खुला रह गया।

“अरे, तो वही तेरे कॉलेज का पी। टी। टीचर?” श्रुति बोली।

“तुम दोनों को गॉसिप के अलावा कोई और काम भी है?” सुमेधा हँसते हुए बोली, “और आपकी जानकारी के लिए, उसका नाम पी। टी। टीचर नहीं, अनंत है।”

“तो शहनाई कब बज रही है?” श्रुति ने हँसते हुए पूछा।

“उसका कोई कमिटमेंट नहीं है।” सुमेधा इतराते हुए बोली। “सिर्फ एक चीज़ का कमिटमेंट है… प्रेम का।”

“वही जीवन के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है।” पद्मा ने मुस्कुराते हुए कहा।

तीनों ने हँसते हुए भरपूर ऊर्जा से हाथ उठा कर एक-दूसरे को हाई- फाइव किया।

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आयो गोरखाली और गोरखाओं का इतिहास

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गोरखाओं के इतिहास पर एक किताब आई है ‘आयो गोरखाली – अ हिस्ट्री ऑफ द गुरखा’स’, जिसके लेखक हैं टिम आई. गुरुंग. वेस्टलैंड से आई इस पुस्तक पर आज कलिंगा लिटेररी फ़ेस्टिवल के भाव संवाद में लेखक से बातचीत करेंगे नेपाल मामलों के विशेषज्ञ अतुल कुमार ठाकुर। फ़िलहाल आप किताब के बारे में पढ़िए-

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गोरखाओं के स्वर्णिम इतिहास में एक और अध्याय जोड़ने आ रहे हैं, ‘आयो गोरखाली – अ हिस्ट्री ऑफ द गुरखा’स’ के लेखक टिम आई. गुरुंग, कलिंग लिटरेरी फेस्टिवल के भाव-संवाद में और उनसे गुफ्त-गू करने के लिए साथ में होंगे लेखक और कॉलमनिस्ट अतुल कुमार ठाकुर। इस महत्त्वपूर्ण सत्र का प्रसारण होगा 28 नवंबर को शाम 6 बजे से, कलिंग लिटरेरी फेस्टिवल के ऑफिशियल (फेसबुक, ट्विटर, यूट्युब) पेज से।

‘आयो गोरखाली..’ कहनी है 1767 के नेपाल की। पृथ्वी नारायण साह के शासन में उन्नति की ओर बढ़ता हुआ एक छोटा सा साम्राज्य। कुछ ही दशकों में उनकी गोरखा सेनानी ने एक शक्तिशाली साम्राज्य कायम कर लिया जिसकी सीमा पश्चिम में कांगरा से मिलती थी तो पूरब में तीस्ता से। इस विशाल प्रांतर में शामिल था वर्तनमान हिमाचाल प्रदेश और उत्तराखंड का बहुत बड़ा भूभाग और लगभग पूरा का पूरा नेपाल और सिक्किम।

1815 में ब्रिटिश साम्राज्य और गोरखाओं के बीच एक नये सैन्य संबंध की शुरुआत हुई। गोरखाओं के युद्ध कौशल से प्रभावित होकर ब्रिटिश आर्मी में उनकी भर्ती की जाने लगी। गुरखा लगभग एक शताब्दि तक अनेक युद्धों में अतुल्य शौर्य का परिचय देते रहे। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में उनके पराक्रम के लिए उन्हें अनेक शौर्य पदक प्राप्त हुए।

1947 में भारत की आज़ादी के बाद गुरखा प्रमुख रूप से ब्रिटिश, भारतीय और नेपाली सेनाओं में बंट गए।

एक पूर्व ब्रिटिश गोरखा, टिम आई. गुरुंग द्वारा लिखित ‘आयो गोरखाली’ इस समुदाय के किसी सदस्य द्वारा लिखा गया पहला ऐतिहासिक कार्य है, जो उन वीरों की गाथाओं को जीवंत कर देती है जो केवल अपनी ही नहीं अन्य सेनाओं में भी सम्मानजनक सेवा देते हुए अपने परंपरागत सैन्य भावनाओं को अक्षरश: जीते रहे।

यह कहानी गोरखाओं के सैन्यकर्म और वीरता से भी आगे की है। यह कहानी है लोचदार मानवीय भावनाओं की, एक ऐसे छोटे समुदाय की जिन्होंने विश्व के इतिहास में अपने लिए एक खास मुकाम बनाया है।

लेखक टीम आई. गुरुंग का जन्म 1962 ई. में पश्चिम मध्य नेपाल के धामपुस नामक गुरुंग गाँव में हुआ था। अपने दादा और चाचाओं के पदचिन्हों पर चलते हुए, उन्होंने 17 साल की आयु में ब्रिटिश गोरखा ज्वाइन किया था और तेरह वर्षों तक सेवा देने के बाद 1993 में अवकाश प्राप्त होकर अगले बीस वर्षों तक चीन में अपना व्यवसाय करते रहे। अपने पचासवें जन्मदिन से पूर्व टीम ने एक पूर्ण-कालिक लेखक बनने का फैसला लिया जिसने उनका जीवन बदल दिया। उसके बाद से वे पंद्रह उपन्यास लिख चुके हैं। टीम अभी अपने परिवार के साथ हाँग का‍ँग में रहते हैं।

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रवि रंजन की कविताएँ

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रवि रंजन दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में राजनीति शास्त्र पढ़ाते हैं। उनकी कुछ कविताएँ पढ़िए
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जीवन की कविता में अलंकरण
ज़िंदगी की कहानी में संकलन
पूर्णता नहीं पूरकता को तय करती है
जीवनधारा यूं ही बहती है
जीव मरते पर जीवन अनंत
नहीं होता कविता का अंत
चलती रहती कहानी जीवन पर्यंत
 
 
जैसे बिन पानी जीना दुश्वार
जल ही है जीवन का आधार
जल की भांति जीवन तरल
फिर क्यों नहीं लगता जीना सरल
जीवन के भाव का भाव ना लगाइए
सपनों और भावनाओं को सीमा में ना लाइए
 
 
इज्जत, मान-सम्मान और पहचान
जब से बन गए जीवन का ज्ञान
कविता और कहानी पहुंच गए
असफलता और सफलता की दुकान
मेरी रचनाओं को तो सिर्फ मालूम है
खुशियों का भाव नहीं होता
संतुष्टि पर कोई दाव नहीं होता
 
नहीं है रचनायें डब्बे-बंद ‘भाव’ के फुटकर विक्रेता
वह तो है उन भावनाओं के है ‘भाव’ निर्माता
जो पहुंचता आप तक बिना किसी कीमत के
न जीएसटी की मार है, न बिक्री कर की दरकार है
रचनायें तो अपने आप की सरकार हैं
कविता और कहानी तभी तो जीवंतता की रसधार है
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शुभरात्रि
अंधेरी हो रही अब रात की पहर
चलो चलते हैं करने नींद का सफर
सपनों में दिखे खेल के मैदानवाला दोपहर
कुछ दोस्त खेले कबड्डी कुछ वॉलीबॉल या क्रिकेट
बचे हुए अंतराक्षी में गीत गाते बनके गायक अलहर
 
सुनकर स्कूल की घंटी जब घड़ी पर पड़ी नजर
भागे सब अपने साइकिल और बसों में लगाकर दौड़
सपनों की पूरी रात और ख्वाबों का सफर
महसूस हुआ हम सब लौट गए हो बचपन का शहर
मित्र नींद खुला तो मालूम हुआ
ये कैसा शुभरात्रि का सलाम है
रात में तो दिखा दोस्ती का पैगाम
अब सुबह का चमकता आसमान है।
================
 
मुल्क की तक़दीर
मैं बड़े लोगों से छोटी बात करता नहीं
और छोटे लोगों को बड़ी बात समझता नहीं
मेरे दोस्त ये तो मुक़द्दर का फेर है
गधा भी ख़ुद को समझता शेर है
झेलना पड़ता है चोर और मक्कार को
सहना पड़ता है तानाशाही अहंकार को
पहचाना है फ़रेब में छुपे प्यार को
 
क्या हुआ जो मेरे हाथों में ज़ंजीर है
वक़्त आने पर बता देंगे
आज भी जिगर में ज़मीर है
बदल दो रहबरों को
वो चाहे कुछ भी हो कोई हो
नहीं वो हमरी क़िस्मत की लकीर है।
वो भी हमरी तरह है मुशफिर
क्यों समझते अपने को मुल्क की तक़दीर है
====================
अजीब फलसफा है जिंदगी
धन्यवाद संवादों के तकनीक
आज तूने मिलाए मीत
वर्षों बाद जब हुई मुलाकात
चैटिंग चली देर रात
 
संबंधों की औपचारिकता में
जब सर ने दोस्त को मैडम कहा
मैडम को लगा बिना नाम लिए
किसी ने पुराना गम कहा
मुद्दतों बाद माहौल मिलन का नम रहा
यादों में खोए दोस्तों को लगा
देर रात तक के चैटिंग में भी कम कहा
 
फिर एक ने दूसरे से चाहा जानना
क्या आज भी याद है दोस्तों से बिछड़ना
दूसरे ने कहा नाम तुम्हारा लेकर
वो ठिकाना मुझसे पूछते थे
क़सम देकर मुलाक़ातों का
वो दोस्ती का पैमाना पूछते थे
आज भी याद है सिलसिला रूखसती का
किस्सा जुदाई का और गीत तनहाई का
 
तुम्हारे साथ होने के भ्रम को ही
हसीन मुलाकात समझकर
मैं खुद को यादों में उलझता रहा
मैं अपने में तो था ही नहीं
और स्वयं को दूसरों में ढूँढता रहा
खुद को खोने का गम नहीं
अपने को और में तलाशता रहा
अजीब फलसफा है जिंदगी मेरे दोस्त
जीवन में बदलाव और बेहतरी में बाहर ढूंढता है
दुनिया में होते हुए भी ख़ुद में ही संसार ढूंढता है
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तेलुगु उपन्यासकार केशव रेड्डी के उपन्यास ‘भू-देवता’का अंश

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केशव रेड्डी की  गिनती तेलुगु के प्रतिष्ठित उपन्यासकारों में होती है। 2019 में किसान के जीवन पर आधारित उपन्यास भू-देवता काफी चर्चित रहा था। संयोग से इस समय पूरे देश में किसान एक बार फिर चर्चा में हैं। देशभर में चल केंद्र सरकार के नए बिल पर किसान आन्दोलन अपने चरम पर है। भू-देवता  में केशव रेड्डी ने 70 साल पहले की उन स्थितियों का चित्रण किया है जब अकाल रोज ही तांडव किया करता था। लेकिन 70 साल बाद भी किसानों की स्थिति  में कोई बदलाव नहीं आया है। तो भू-देवता एक ऐसे किसान की कथा है जिसने अपने जमीन गंवा दी है। भू-देवता राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है, फ़िलहाल आप अंश पढ़िए-

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आकाश में घने बादल छाते जा रहे हैं। सिर उठाकर दिगन्तों तक कितना भी ढूँढो, हथेली-भर नीला आकाश दुर्लभ है। विभिन्न आकार-प्रकार के बादल प्रकट हो गए हैं। अब वे ईशान की दिशा में अग्रसर नहीं हैं। जहाँ-तहाँ निश्चल, गम्भीर और रहस्यमय रूप से उपस्थित मात्र हैं। उनके पीछे विराजमान सूरज की किरणें सीधे आकर ज़मीन को छू नहीं रही हैं; दिगन्तों के पास परावर्तित होकर ही ज़मीन पर उतर रही हैं। सूरज का उजास थोड़ी देर तक भगवे रंग में, तो थोड़ी देर तक स$फेद चाँदनी की तरह झिलमिला रहा है। ज़मीन पर इन्द्रजाल की तरह पसरे उस उजास को देखकर कुत्ते ‘भौं…भौं…’ करते हुए गलियों में टेढ़े-मेढ़े दौड़ने लगे हैं। मैदानों में पशु नथुनों को फड़काते हुए सींगों से ज़मीन को कुरेदने लगे हैं। पेड़ों पर कौए ‘काँव-काँव’ करते हुए एक डाल से दूसरी डाल पर कूद रहे हैं। बगुले भूमि के समानान्तर उड़ नहीं रहे हैं। कभी ऊपर की ओर तो कभी नीचे की ओर उड़ने लगे हैं। मुर्गियाँ हिचकते-हिचकते आकर अपने खानों में ऐसे पहुँच रही हैं, जैसे उनसे कोई गुनाह हो गया हो। फिर अपने सिर को पंखों के नीचे दबाकर चुपचाप लेट रही हैं। मुर्गों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि वह साँझ की बेला है या भोर का वक्त। निरर्थक ही वे बाँग देने लगे हैं।

हवा का चलना एकदम बन्द हो जाने से पत्ते स्थिर हैं। निश्चल पवन गर्मी को क्रमश: आत्मसात् करता जा रहा है। वातावरण की गर्मी एक सीमा से ऊपर पहुँच जाने पर पतंगे शोर करने लगे हैं। धरती कुम्हार के आवाँ की तरह, धोबी की भट्ठी की तरह तप रही है। मनुष्यों के शरीर बुरी तरह पसीना उगल रहे हैं। उन लोगों ने अपने शरीर से उतार देने योग्य सारे कपड़े उतार दिए हैं।

कई किसानों ने आकाश की ओर देखकर सोचा, बादल उतर रहे हैं। ईशान के कोने में उतरते जा रहे हैं। लगता है कि शाम तक मूसलाधार बारिश शुरू हो जाएगी। रात में तालाब के परिवाह का टूट जाना तो पक्का ही समझो।

खेतों में काम कर रहे किसानों ने अपने काम जहाँ-तहाँ छोड़ दिए हैं। अपने उपकरणों को सिर या कन्धों पर उठाकर उन्होंने घर का रास्ता ले लिया है। मैदान में फैलाए कपड़ों को उठाकर धोबियों ने अफ़रा-तफ़री में उनका गट्ठर बना लिया है और अब गट्ठरों को गधों पर लादकर घर की ओर चल पड़े हैं। गाँव में कुछ लोगों ने कहीं-कहीं से उड़े हुए अपने मकानों के छप्परों को ताबड़तोड़ दुरुस्त कर लिया है। मकान पर चढ़कर छत के छेदों को पुआल या ताड़ के पत्तों से ढक दिया है और छत से जलावन को ले आकर मकानों के अन्दर डाल लिया है।

थोड़ी देर में हवा का चलना शुरू हो गया। पेड़ों की डालें तो नहीं, बस, पत्ते हिलने लगे हैं।

धीरे-धीरे बादलों के अपना आकार खो देने से ऐसा लगा जैसे एक महामेघ ने पूरे आकाश को आच्छादित कर लिया हो। वह महामेघ गाढ़े काले रंग का है। पृथ्वी पर अँधियारा छाने लगा। बादलों का गर्जन और उसके पीछे बिजली का चमकना आरम्भ हो गया। प्रकृति ने अपना रौद्र रूप धारण कर लिया था।

मोटी-मोटी बूँदों के साथ वर्षा आरम्भ हो गई। बूँदें ज़मीन पर जहाँ गिरती हैं, वहाँ से धूल बालिश्त-भर ऊपर हवा में उछलती है। पूरी धरती को धूल के बादलों ने ढाँप दिया है। जो भी बूँद गिरती है, ज़मीन उसे वहीं-की-वहीं सोखती जा रही है। बूँदों को सोखकर ज़मीन सोंधी गन्ध बिखेरने लगी है। वह गन्ध मन्द लहरों के रूप में चारों ओर फैल रही है।

वह गन्ध बक्कि रेड्डी के नथुनों से आ टकराई। वह खटिया पर उठ बैठा। मिट्टी की गन्ध से भरी हवा को उसने अन्दर छाती-भर में खींच लिया। उसे बार-बार वह अन्दर ऐसे खींचता रहा, जैसे कोई लालची आदमी रत्नराशियों का ढेर लगा रहा हो। मिट्टी की गन्ध ने उसके शरीर के अणु-अणु का स्पर्श किया। उस गन्ध ने उसके भीतर एक सनातन भूख जगा दी। फिर वह भूख एक प्रचंड रूप धारण करती चली गई।

जुगाली कर रहे बैलों की ओर उसने देखा। खेती का काम करने से उनकी गरदनों पर रोएँ उग आए थे। फिर उसने दीवार से सटाकर रखे हल की तरफ़ ताका। उसकी मूठ सीधी खड़ी थी।

बक्कि रेड्डी की हथेलियों में खुजली-सी होने लगी। हथेलियाँ बन्द होतीं, और खुल जातीं। ऐसा गाढ़ा अन्धकार जो हथेली से चिपक जाए, ज़मीन पर व्याप गया था। हरहराकर पानी बरसता जा रहा था। वर्षा ऐसे हो रही थी, जैसे ज़मीन और आसमान एक हो गए हों, या हाथी अपनी सूँड़ों की पिचकारियाँ छोड़ रहे हों या मटकों में भरकर कोई पानी उड़ेल रहा हो। पर्वतों को कम्पित करने वाली हवा तनों समेत पेड़ों को झकझोर रही थी। बिजली आकाश को खंड-खंड चीरती चमक रही थी। वह कभी भयंकर घोष के साथ तो कभी मन्द ध्वनि के साथ गरज रही थी।

पानी फैलकर बहने लगा। बहकर वह छोटे-छोटे नालों में मिलने लगा। छोटे-छोटे नाले टेढ़े-मेढ़े बहकर सोते में मिलने लगे। सोते का पानी सूखे पत्तों और तिनकों को धकेलते हुए तालाब की ओर बहने लगा।

निरन्तर बरसते पानी और हरहराकर बहती हवा से आतंकित गाँव सिकुड़-सा गया। लोग कसकर चादरें ओढ़े गहरी नींद में डूबे हुए हैं। बस, थोड़े-से बूढ़े प्रकृति के बीभत्स रव को सुनते हुए जगे हुए हैं।

बक्कि रेड्डी खटिया से उठ पड़ा। खूँटों से खोलकर बैलों को उसने मड़ई के बाहर ला खड़ा किया। हल को कन्धे पर टिकाए उसने ओरी में से पैना निकालकर दाएँ हाथ में थाम लिया। बैलों को हाँकता हुआ वह उनको गली में ले आया।

गली में पानी मकानों की दीवारों और ऊँची ज़मीन से रगड़ खाता हुआ बह रहा है। सारी गलियाँ सुनसान हैं। बक्कि रेड्डी गलियों से होता हुआ गाँव से बाहर निकल आया। बिजली जब चमकती तभी रास्ता दिखाई पड़ता था। बिजली की कौंध के सहारे आगे बढ़ते हुए वह अपनी ज़मीन के पास पहुँच गया। पहुँचकर खेत की मेंड़ पर उसने हल उतार दिया। फिर बिजली के प्रकाश में उसने अपने पूरे खेत पर एक नज़र दौड़ाई। चौदह एकड़ ज़मीन। ज़मीन आठ चकों में बँटी हुई है। छह चक बड़े हैं और दो छोटे। सभी पानी से भरे हुए हैं। पानी एक चक से दूसरे चक में बहा जा रहा है। खेत के दक्षिण में खड़े बड़े-से पेड़ की डालें हवा में झूल रही हैं।

बक्कि रेड्डी ने बैलों की गरदनों पर जुआ रखकर पट्टे कस दिए। हल को जुए के साथ जमा दिया। पगड़ी कसकर बाँध ली और लांग कस ली।

वह हल और बैलों के साथ चकों में ऐसे उतरा जैसे कोई दूध पीता नन्हा बच्चा सरपट रेंगता माँ की गोद में प्रवेश करता है। बाएँ हाथ से उसने हल की मूठ कसकर पकड़ ली। फिर दाएँ हाथ का पैना ऊपर उठाकर उसने बैलों को हाँका। बैल चल पड़े। हल ज़मीन को चीरता हुआ आगे बढ़ने लगा।

खूब ज़ोर की बारिश हो रही है। बिना अपनी दिशा बदले हवा तेज़ बह रही है। हवा के वेग में पेड़ की डालें इतनी नीचे झुकी जा रही हैं जैसे ज़मीन को छू लेना चाहती हों। पेड़ों के पत्ते और पतली टहनियाँ हवा में दूर, बहुत दूर उड़ी जा रही हैं।

बक्कि रेड्डी के पूरे शरीर पर से बारिश का पानी फिसल रहा है। पगड़ी भीगकर भारी हो गई है और नीचे को खिसककर गरदन पर आ टिकी है। पगड़ी निकालकर उसने मेंड़ पर उछाल दी। कमर की काछनी को छोड़कर उसकी पूरी देह खुली हुई है। हवा और बारिश दोनों उसके शरीर का निर्दयता से मर्दन कर रही हैं। ठंड से उसका शरीर थरथर काँपने लगा है। दाँत बजने लगे हैं। बूँदें तीर जैसी आकर उसके शरीर पर लग रही हैं। धीरे-धीरे उसका शरीर संवेदनशून्य हो गया। हवा के वेग में लड़खड़ाकर गिरते-गिरते अपने को सँभालता हुआ वह आगे बढ़ा जा रहा है। इस प्रयास में वह गिरगिट की तरह चल रहा है।

दो चकों की जुताई पूरी करके वह तीसरे चक में घुसा। उसके शरीर पर धीरे-धीरे कमज़ोरी छाने लगी। हल के पीछे एक-एक पैर उठाकर चलना दूभर होता गया। कमर और रीढ़ के जोड़ों में ऐसा दर्द उठने लगा जैसे शूल चुभ रहे हों। पैना थामे हाथ को कन्धे से ऊपर उठाना तक दूभर हो गया। थकान के मारे उसके उच्छ्वास और नि:श्वासों की आवाज़ बैलों के हाँफने की आवाज़ से ऊपर सुनाई पड़ रही थी। धीरे-धीरे हल का वेग मन्द पड़ने लगा। लेकिन हल की मूठ को कसकर पकड़ी हुई बक्कि रेड्डी की मुट्ठी ज़रा भी ढीली नहीं पड़ी।

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राकेश श्रीमाल की कविताएँ

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जानकी पुल के उपक्रम ‘कविता शुक्रवार’ के संपादक राकेश श्रीमाल का आज जन्मदिन (5 दिसम्बर) है। जानकी पुल की तरफ से बधाई देने के लिए उनके पहले कविता संग्रह ‘अन्य’ (वाणी प्रकाशन, 2001) में प्रकाशित उनकी कुछ प्रेम कविताओं को पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। इन कविताओं के साथ राकेश जी के ही बनाए तीन रेखांकन भी दिए जा रहे हैं। उम्मीद है यह रचनात्मक तोहफा उन्हें और जानकी पुल के पाठकों को अच्छा लगेगा-

=================================================

रुमाल
———-
एक रुमाल में समाकर
वह मेरे साथ
लगातार रही पूरी यात्रा में
हाथ में पकड़े हुए
किसी फिक्र की तरह
जेब में रखा रुमाल
चौकीदार की तरह
जागता रहा रातभर
दुःस्वप्नों को फटकार भगाने के लिए
मेरी गीली देह को सोखता, सुखाता रुमाल
अपनी काया में
उसकी नम्रता लिए हुए
हर क्षण तैयार रहा
उसके होने को
सतत स्पर्श में बदलता हुआ
एक छोटे रुमाल में
और भी छोटी बनकर
वह लगातार घुलती रही
हर पल पिघलती मेरी देह में
अंतिम
———
वह कौन सी लड़की होगी
जिससे हम जीवन में अंतिम बार मिलेंगे
लगभग क्षणिक मुस्कान
या
दूर सड़क पर चलती
अपने बीमार भाई का टिफिन ले जाती
पता नहीं कौन सी
हो सकता है
वह लाल फ्रॉक पहने हो
या उसने अपने जूड़े में फूल लगा रखे हों
यह भी तो पता नहीं
हम जिसे अंतिम बार देखेंगे
उसके विचार प्रेम के बारे में क्या होंगे
सम्भव है
अंतिम लड़की आपसे कुछ बात कर ले
पूछ लें आपका नाम
और यह भी
कि आपने जीवन में क्या किया है
हमें यह भी पता नहीं पड़ेगा
कि जो लड़की हम देख रहे हैं
वह हमारे जीवन की अंतिम लड़की है
वह कभी नहीं जान पाएगी
कोई उसे अंतिम बार देख रहा है
होगी जरूर
कहीं न कहीं एक लड़की
जिसे जीवन में हम अंतिम बार देखेंगे
असंभव
———-
कल ही मैंने
बिखेर दिए थे तुम्हारी चोटी के बाल
कल तुम ही तो गुनगुना रही थी गाना
कल ही यह भी हुआ था
हम झगड़े नहीं थे किसी बात पर
कल ही तुम लाई थी मेरे लिए टिफिन
कल ही छेड़ा था मैंने तुम्हें फोन पर
कल ही मिलते रहे थे हम विदा के बाद तक
क्या यह संभव है कि हमारा जीवन
वैसा ही रहे जैसा कल था
         
पृथ्वी पर कुछ कविताएं
        ——————————
पृथ्वी एक शब्द नहीं है सिर्फ
———————————–
इन दिनों
मैं पृथ्वी को पढ़ रहा हूँ
पृथ्वी के शब्द
पृथ्वी की पीठ से निकलते हैं
हाथ से फिसल जाते हैं
पृथ्वी को पढ़ते हुए
मुझसे पृथ्वी
कई बार छूट जाती है
वह मुस्कराती है
मैं उसे फिर पढ़ने लगता हूँ
पृथ्वी को
केवल रह-रहकर ही पढा जा सकता है
पृथ्वी
एक शब्द नहीं है सिर्फ
पृथ्वी केवल पृथ्वी को जानती है
————————————–
वह कौन सी पृथ्वी है
जिस पर
पृथ्वी रहती है
क्या पृथ्वी को मालूम है
उस पर संसार रहता है
मैं
पृथ्वी को जानता हूँ
पृथ्वी मुझे नहीं
पृथ्वी नहीं जानती वह
जो मैं जानता हूँ
पृथ्वी
केवल पृथ्वी को जानती है
पृथ्वी
पृथ्वी के पास क्या करती है
पृथ्वी पृथ्वी के पास है
—————————
मेरी पृथ्वी
कहीं गुम हो गई है
मुझे पता होता
तो एक क्षण भी
उसे नहीं छोड़ता
उसने कहा
फिर मिलते हैं
और वह देखते ही देखते अदृश्य हो गई
क्या वह
कहीं छुप भी सकती है
पृथ्वी का छुपना
पृथ्वी का नहीं होना नहीं है
वह छुपती कभी नहीं
सिर्फ दिखना बंद हो जाती है
पृथ्वी का दिखना
उतना जरूरी नहीं
जितना पृथ्वी का होना
पृथ्वी नहीं दिख कर भी
होती तो पृथ्वी ही है
पृथ्वी तो है ही
पृथ्वी के पास
पृथ्वी पर कोई भी चल सकता है
—————————————-
पृथ्वी को मालूम ही नहीं है
मैं पृथ्वी से गुजर रहा हूँ
मैं चुपचाप चल रहा हूँ पृथ्वी पर
कहीं पृथ्वी जान नहीं पाए
मैं चलता रहूँ
पृथ्वी को कोई फर्क नहीं पड़ता
मैं उस पर चल रहा हूँ
या कोई और
पृथ्वी पर
कोई भी चल सकता है
पृथ्वी पर चलने के लिए
केवल
पृथ्वी पर चलने की जरूरत है
कोई जहाँ भी चलेगा
पृथ्वी पर ही चलेगा
पृथ्वी से परे
कोई भी पृथ्वी नहीं है
जिस पर चला जा सके
मैं पृथ्वी पर चल रहा हूँ
दोनों चुप हैं
मैं भी
पृथ्वी भी
पृथ्वी को पकड़ते हुए
—————————
मैंने कल
तुम्हारा हाथ पकड़कर
पूरी पृथ्वी को पकड़ा था
और उसे
इस तरह देखा था
जैसे उड़ती चिड़िया देखती है
मैं सोच भी नहीं पा रहा था
पृथ्वी
इतनी छोटी क्यों है
इतनी सी पृथ्वी पर
कैसे समाए हुए हैं
इतने सारे लोग
जंगल, पहाड़ और घर
पृथ्वी पर रहते हुए
मैंने
पृथ्वी को पकड़ा था
सोचा था
इसे कहीं छुपा लूँगा
मुझे थोड़ा भी गुमान नहीं था
पृथ्वी को
केवल पृथ्वी में छुपाया जा सकता है
मैंने चाहा था
पृथ्वी को सिर्फ छुपाना
बिना इस बात की फिक्र किए
मेरी इस जिद में
पृथ्वी गुम भी सकती है
(तब कौन ढूंढता पृथ्वी को)
पृथ्वी को पकड़े हुए
मैं
पृथ्वी को छुपा नहीं पा रहा था
मैंने उसे छोड़ा
वह पल की तरह अदृश्य हो गई
इस बार
तुम मेरा हाथ छोड़ना नहीं
मैं सचमुच पृथ्वी को छुपाना चाहता हूँ
पृथ्वी के पास कोई नहीं रहता
————————————
पृथ्वी से कोई नहीं डरता
पृथ्वी पर सब चलते रहते हैं
पृथ्वी पर चलते हुए
कोई पृथ्वी को देखता भी नहीं
पृथ्वी
अकेली रहती है हमेशा
पृथ्वी के पास कोई नहीं रहता
सब पृथ्वी पर रहते हैं
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बापू और बाबा साहेब- कितने दूर,कितने पास

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विवेक शुक्ला जाने माने पत्रकार हैं। आज उनका यह लेख पढ़िए जो गांधी और बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के आपसी संबंधों को लेकर है। आज बाबा साहेब की जयंती पर विशेष-

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महात्मा गांधी और बाबा साहेब अंबेडकर के बीच 1932 के ‘कम्यूनल अवार्ड’ में दलितों को पृथक निर्वाचन का स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकार मिलने के कारण मतभेद उभरे थे। लेकिन वक्त के गुजरने के साथ ही दोनों में एक-दूसरे को लेकर परस्पर आदर का भी पैदा हो गया था। उपर्युक्त अवार्ड  दलितों को पृथक निर्वाचन के रूप में प्रांतीय विधानसभाओं और केन्द्रीय एसेम्बली के लिए अपने नुमाइंदे चुनने का अधिकार देता था। बापू इस अवार्ड का विरोध कर रहे थे। उन्होंने इसके विरोध में 20सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन चालू कर दिया। वे मानते थे कि इससे दलित हिन्दू समाज से अलग हो जायेंगे जिससे हिन्दू समाज दो फाड़ हो जाएगा। हालांकि बाबा साहेब अवार्ड के पक्ष में थे। पर अंत में बापू के अनशन के आगे सबको झुकना ही पड़ा।

गांधी जी और बाबा साहेब का विकास का मॉडल भी अलग था। जहां गांधी जी की स्पष्ट राय थी कि देश के गांवों का विकास किए बगैर भारत खुशहाल नहीं हो सकता, डा. अंबेडकर का मानना था कि विकास का रास्ता बड़े स्तर पर औद्योगिकरण से ही मुमकिन है। यानी दोनों कई सवालों पर अलग तरीके से सोच रहे थे।

बहरहाल, ये दोनों 1940 के दशक के बाद से राजधानी दिल्ली में रहने लगे थे। ये दिल्ली में पड़ोसी नहीं थे, पर ये एक-दूसरे से बहुत दूर भी नहीं रहते थे। गांधी जी 9 सितंबर, 1946 के बाद अलबुर्कर रोड ( अब तीस जनवरी मार्ग) पर स्थित बिड़ला हाउस ( अब गांधी स्मृति) में रहने लगे। इस दौरान बाबा साहेब पहले रहते थे 1, हार्डिंग लेन ( अब तिलक लेन) और फिर 22, पृथ्वीराज रोड पर। गांधी जी का बिड़ला हाउस से पहले आशियाना  मंदिर मार्ग पर स्थित वाल्मिकी मंदिर में रहा। यानी ये सब जगहें एक-दूसरे से करीब ही थीं। पर इन दोनों महान विभूतियों के बीच यहां पर कोई मुलाकात का कोई उदाहरण नहीं मिलता। कहा तो यहां तक जाता है कि बापू और बाबा साहेब में सिर्फ तीन-चार बार ही मुलाकातें हुईं। इनके बीच दिल्ली में कभी कोई बैठक हुई हो, इस तरह के प्रमाण नहीं मिलते। पर ये सोचना-समझना भी गलत होगा कि ये दोनों एक-दूसरे से मिलने से बचते होंगे। दोनों बहुत बड़े कद के नेता थे, इसलिए उनको लेकर हल्की बातें करना पाप के समान ही है।

 गांधी जी 9 सितंबर 1947 को दिल्ली आने के बाद यहां पर भड़के सांप्रदायिक दंगों को शांत कराने में लगे हुए थे। वे दिन-रात दंगाग्रस्त इलाकों में आ-जा रहे थे। इस बीच, 15 अगस्त,1947 को देश स्वतंत्र होता है। फिर 29 अगस्त,1947 को डा. अंबेडकर के नेतृत्व में स्वतंत्र भारत का नया संविधान बनाने के लिए एक सात सदस्यीय कमेटी बना दी जाती है। बाबा साहेब देश के नए संविधान को तैयार करने के अहम कार्य में जुट जाते हैं। इसकी बैठकें मौजूदा संसद भवन में होती हैं। पर ये भी सत्य है कि प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु और सरदार पटेल तो संवैधानिक मामलों के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान सर गऊर जैनिंग्स को भी देश के संविधान को अंतिम रूप देने के लिए आमंत्रित करने पर विचार कर रहे थे। इसी सिलसिले में ये दोनों एक बार बापू से मिले। तब बापू ने उन्हें सलाह दी थी कि डा.अंबेडकर सरीखे विधि और संवैधानिक मामलों के उद्भट विद्वान की मौजूदगी में किसी विदेशी को देश के संविधान को तैयार करने की जिम्मेदारी देना उचित नहीं होगा। बापू की सलाह पर अमल करते हुए डा. अंबेडकर को संविधान सभा से जुड़ने का प्रस्ताव दिया गया। जिसे वे तुरंत स्वीकार कर लेते हैं। इससे स्पष्ट है कि गांधी जी सम्मान करते थे डा. अंबेडकर की विद्वता का। वहीं डा. अंबेडकर को भी पता चल गया होगा कि उन्हें इतनी अहम जिम्मेदारी गांधी जी की सलाह और सिफारिश पर ही मिली है।

 इस बीच, समय बीतता है और देश देखता है 30 जनवरी,1948 का काला स्याह दिन। उस दिन एक विक्षिप्त शख्स बापू की हत्या कर देता है। बापू की हत्या से देश बिलखने लगता है। “बापू की हत्या का समाचार सुनकर बाबा साहेब भी स्तब्ध हो जाते हैं। वे पांचेक मिनट तक सामान्य नहीं हो पाते। फिर कुछ संभलते हुए बाबा साहब कहते कि बापू का इतना हिंसक अंत नहीं होना चाहिए था”, ये जानकारी दलित चिंतक एस.आर.दारापुरी ‘डा. अंबेडकर की दिनचर्या’ किताब के हवाले से देते हैं। हालांकि वे इस बात की पुष्टि नहीं करते कि बाबा साहेब ने बापू की अंत्येष्टि में शिरकत की थी या नहीं।

 डा. भीमराव अंबेडकर का लुटियन दिल्ली के  22 पृथ्वीराज रोड के सरकारी बंगले से इस लिहाज से अलग तरह का  संबंध था क्योंकि इधर ही उन्होंने 15 अप्रैल 1948 को डा. सविता अंबेडकर से सादगी के साथ विवाह किया था। ये बंगला उन्हें नेहरुजी की कैबिनेट का सदस्य बनने के चलते आवंटित हुआ था। डा. सविता चिकित्सक थीं। वे महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं। उनका मुम्बई में क्लीनिक था जहां इलाज के दौरान बाबा साहेब से उनका परिचय हुआ था। 22 पृथ्वीराज रोड के सरकारी आवास में ही डा.भीमराव अंबेडकर के साथ उनके जीवनपर्यंत सहयोगी रहे नानक चंद रत्तू और सेवक सुदामा भी रहते थे। वे 28 सितंबर, 1951 तक पृथ्वीराज रोड के बंगले में रहे। अब 22 पृथ्वीराज रोड में तुर्की के भारत में राजदूत रहते हैं।

 खैर,22 पृथ्वीराज रोड के सरकारी आवास में ही डा.भीमराव अंबेडकर गांधी की मौत के दो महीने के बाद डा. सविता अंबेडकर जी से सादगी से विवाह कर लेते हैं। डा. सविता चिकित्सक थीं। वे महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं। उनका मुम्बई में क्लीनिक था जहां इलाज के दौरान बाबा साहेब से उनका परिचय हुआ था। 22 पृथ्वीराज रोड के सरकारी आवास में ही डा.भीमराव अंबेडकर के साथ उनके जीवनपर्यंत सहयोगी रहे नानक चंद रत्तू,देवी दयाल और सेवक सुदामा भी रहते हैं।

चूंकि बाबा साहेब के कंधों पर देश के विधि मंत्री और संविधान सभा के प्रमुख के पद का दायित्व था, इसलिए उनका आम जन से मिलना-जुलना सिर्फ रविवार को ही संभव होने लगा। वे साप्ताहिक अवकाश के दिनों में राजधानी के करोल बाग के टैंक रोड और रैगरपुरा जैसे इलाकों में अपने परिचितों से मिलने जुलने के लिए जाना पसंद करते थे। यहां चमड़े का काम करने वाले दलितों की घनी बस्तियां थीं। बाबा साहेब का वे भी आदर करते थे,जो कांग्रेस से जुड़े नहीं थे। करोल बाग के असरदार जनसंघ नेता गोपाल कृष्ण रातावाल अपने समर्थकों के साथ बाबा साहेब से मिलने पृथ्वीराज रोड और 1951 के बाद 26 अलीपुर रोड जाते। कृष्ण रातावाल के पुत्र सुरेन्द्र पाल रातावल सन 1993 में मदन लाल खुराना के  नेतृत्व में बनी दिल्लीसरकार में मंत्री थे। बाबा साहेब सबको यही कहते कि दलितों को अधिक से अधिक संख्या में संसद और विधानसभाओं में पहुंचना है। ये महत्वपूर्ण नहीं है कि वे किस दल में हैं। बहरहाल, 27 सितंबर,1951 को डा. अंबेडकर ने नेहरु जी की कैबिनेट से अप्रत्याक्षित रूप से त्यागपत्र दे दिया। दोनों में हिन्दू कोड बिल पर गहरे मतभेद उभर आए थे। डा. अंबेडकर ने अपने इस्तीफे की जानकारी संसद में दिए अपने भाषण में दी। वे दिन में तीन-चार बजे अपने आवास वापस आए। तब उन्होंने रत्तू को अपने पास बुलाकर कहा कि वे चाहते हैं कि सरकारी आवास अगले दिन तक खाली कर दिया जाए। ये सुनते ही रत्तू जी की पेशानी से पसीना आने लगा। एक दिन में घर खाली करके नए घर में जाना कोई बच्चों का खेल नहीं था। इसी बीच, करोल बाग क्षेत्र से दर्जनों डा.अंबेडकर समर्थक 22 पृथ्वीराज रोड  पहुंचने लगे। सबको बाबा साहेब के इस्तीफे की खबर आकाशवाणी से  मिल चुकी थी।  करोल बाग से आने वालों की चाहत थी कि बाबा साहेब करोल बाग में शिफ्ट कर लें। वहां पर उनके लिए स्तरीय आवास की व्यवस्था हो जाएगी। उन्हें इस तरह का घर दिलवा दिया जाएगा जिसमें उनकी लाइब्रेयरी और मिलने-जुलने के लिए आने वालों के लिए पर्याप्त स्पेस हो। पर बाबा साहेब के चाहने वाले एक सज्जन ने उन्हें अपना 26 अलीपुर रोड का घर रहने के लिए देने का प्रस्ताव दिया।  बाबा साहेब को वो घर लोकेशन के लिहाज से सही लगा। इसलिए उन्होंने अगले ही दिन यानी 28 सितंबर,1951 को 26 अलीपुर रोड में शिफ्ट कर लिया। कैबिनेट से बाहर होने के बाद बाबा साहेब का वक्त अध्ययन और लेखन में गुजरने लगा। उन्होंने 26, अलीपुर रोड में रहते हुए ही ‘बुद्धा एंड हिज धम्मा’ नाम से अपनी अंतिम पुस्तक लिखी। डा॰ अंबेडकर ने इसमें महात्मा बुद्ध के विचारों की व्याख्या की है। यह डा॰ अंबेडकर द्वारा रचित अंतिम ग्रन्थ है। इधर रहते हुए उन्होंने कभी गांधी जी की आलोचना में कुछ नहीं लिखा। इधर ही डा.अंबेडकर की 6 दिसम्बर 1956 को मृत्यु हुई।

पुनशच:- अब 22 पृथ्वीराज रोड  में तुर्की के भारत में राजदूत रहते हैं।

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सुरेंद्र मोहन पाठक की आत्मकथा ‘निंदक नियरे राखिए’का एक अंश

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सुरेंद्र मोहन पाठक की आत्मकथा का तीसरा खंड ‘निंदक नियरे राखिए’ हाल में ही प्रकाशित हुआ है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक के एक अंश का आनंद लीजिए-

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यहाँ मैं पिछले साठ साल से चले आ रहे पुरानी दिल्ली के अनोखे संडे बुक बाजार का जिक्र करना चाहता हूँ जो भारत में तो अनोखा, बाकमाल है ही, मुमकिन है एशिया में—या दुनिया में भी—ऐसे बुक बाजार की कोई मिसाल न हो। शुरुआत में ये बुक बाजार जामा मस्जिद के करीब के—अब बन्द हो चुके—जगत सिनेमा से लेकर एडवर्ड पार्क—अब सुभाष पार्क—की नुक्कड़ तक, यानी दरियागंज, नेताजी सुभाष मार्ग के उस ओर के क्रॉसिंग के सिग्नल तक, सड़क की दोनों ओर लगता था, फिर फैलता, पसरता दाएँ घूमकर दिल्ली गेट तक, फिर और दाएँ घूमकर आसफ अली रोड पर डिलाइट सिनेमा तक पहुँच गया था। जब ऐसा हुआ था तो जगत सिनेमा वाला शुरुआती सेगमेंट बन्द हो गया था और बाजार की हदूद डिलाइट सिनेमा से लेकर सुभाष पार्क के चौराहे तक सड़क की एक ही तरफ—गोलचा सिनेमा की तरफ—कायम हो गई थीं।

पुस्तक प्रेमियों में वो बाजार इतना पॉपुलर था—अब भी है—कि हर इतवार को, कोई भी मौसम हो, वहाँ मेले जैसा माहौल होता था। बरसात के मौसम में भी कितने ही ग्राहक और पटड़ी वाले बरसात बन्द होने का इन्तजार करते पाए जाते थे। केवल दो मर्तबा, छब्बीस जनवरी और पन्द्रह अगस्त को, वो बाजार बन्द होता था भले ही वो दोनों सरकारी त्योहार इतवार को न हों। छब्बीस जनवरी को उस रूट से परेड ने गुजरता होता था और पन्द्रह अगस्त को उधर से ही गुजरकर प्रधानमंत्री लाल किला पहुँचते थे, ध्वजारोहन की रस्म पूरी करते थे और किले की प्राचीर से कौम से मुखातिब होते थे। लिहाजा पहले ही बुक बाजार की हाकर्स यूनियन को खबर कर दी जाती थी कि उन दोनों सरकारी त्योहारों के पहले इतवार को बाजार नहीं लगेगा। चौदह अगस्त और पच्चीस जनवरी की शाम को तो सुभाष मार्ग की दुकानें, शोरूम्स जबरन बन्द करा दिए जाते थे और दुकानों के तालों को सील लगा दी जाती थी जो त्योहार गुजर जाने के बाद भी अगर उस रोज टूटी पाई जाती थी तो दुकान के मालिक के लिए वो सिक्योरिटी ब्रीच का गम्भीर मसला बन जाता था।

उस बुक बाजार की मशहूरी से मुब्तला कई ऐसे हॉकर जिनका किताबों से कोई लेना-देना नहीं था, खासतौर से सर्दियों में गर्म कपड़ों की, जींस, टी-शर्ट्स वगैरह की रेहड़ियाँ लगाने लगे थे, लेकिन उनका वो हंगामा बावजूद पुलिस की शह के सुभाष पार्क के चौक और गोलचा सिनेमा तक भी सीमित रहता था। किताबों वाले उन रेहड़ियों से असुविधा तो महसूस करते थे लेकिन संडे बुक बाजार में रेहड़ी वालों की घुसपैठ पर उनकी पेश नहीं चलती थी। फिर ग्राहक भी ऐसे कमिटिड थे कि हर हाल में पहुँचते थे, दूर-दूर से आते थे, कारों पर आते थे पर पहुँचते थे।

कई बार उस बुक बाजार पर क्लोजर का संकट आया—दो-तीन बार बन्द भी हुआ—क्योंकि कभी लोकल लीडर को वो चुभने लगा, कभी दरियागंज थाने का थानाध्यक्ष नाराज हो गया तो कभी वैसे ही उस बाजार को इलाके की हफ्तावरी जनरल न्यूसेंस करार दिया गया। जब पहली बार वो नौबत आई तो हाॅकरों ने उसका इतना तीव्र विरोध किया कि वो मीडिया की निगाह का भी मरकज बना और दिल्ली से प्रकाशित होने वाले तमाम अखबारों ने उस सिलसिले में लीड स्टोरीज़ छापीं। यहाँ तक कि खुशवन्त सिंह और अनिल धारकर जैसे नामचीन लेखकों और पत्रकारों ने उस बन्दी का प्रबल विरोध किया, बाकायदा उस बुक बाजार को आइकॉनिक बुक बाजार बताया जिसको बन्द किया जाना प्रशासन की नादानी थी और पुस्तक प्रेमियों का बड़ा नुकसान था।

नतीजतन बाजार फिर चालू हो गया।

लेकिन गौरतलब बात है कि वो संडे बाजार तब भी बन्द न हुआ जबकि ऐन सुभाष मार्ग पर प्रस्तावित मेट्रो रूट का महीनों टनल वर्क चालू रहा।

तीन बार यूँ बाजार बन्द हुआ, बन्दी की कोई साफ वजह किसी की समझ में न आई लेकिन खुसर-पुसर यही रही कि किसी को—क्या पता किसको, जबकि सबको पता था—खटक रहा था। एक बार तो खुद उस निर्वाचन क्षेत्र का संसद सदस्य दखलअन्दाज हुआ तो वो बाजार खुला।

आखिरी बार—हाल ही में सन् 2019 के उत्तरार्ध में ही सुप्रीम कोर्ट के हुक्म से बन्द हुआ तो किसी की पेश न चली। हाॅकरों की यूनियन ने भी तीव्र विरोध किया तो उन्हें कोई वैकल्पिक जगह दी जाने का आश्वासन मिला।

वैकल्पिक जगह रामलीला मैदान था, जिसे हॉकरों की यूनियन ने रिजैक्ट
कर दिया।

अब वो बाजार आसफ अली रोड पर डिलाइट सिनेमा के सामने के महिला पार्क में लगता है और हॉकर्स उस नयी जगह से खुश हैं।

उस बुक बाजार का मैं नियमित पैट्रन था, हर इतवार को मैं वहाँ जाता था और ढेर पुरानी, दुर्लभ, अनुपलब्ध पुस्तकें खरीदकर लाता था।

एक बार को करतब हुआ।

बल्कि चमत्कार हुआ।

मुझे वहाँ पटड़ी पर से स्ट्रेंट मैगजीन के सौ साल—रिपीट, सौ साल—पुराने अंक मिले। और ये वो अंक थे जिनमें से हर एक में सर आर्थर कॉनन डायल के फिक्शन हीरो शरलॉक होम्ज की मूल कथा छपी थी। खुद बेचने वाले दुकानदार को उनके दुर्लभ होने की न कोई समझ थी न कद्र थी।

सीरियल वाइज छब्बीस इशू मुझे पाँच-पाँच रुपये में मिले।

यहाँ ये बात भी काबिलेजिक्र है कि उस बाजार के सारे ही हॉकर अल्पशिक्षा प्राप्त कबाड़िए नहीं हैं। पिछले दस-बारह सालों में मैंने देखा था कि कुछ हॉकर किताब की अहमियत को समझने लग गए थे और अपनी समझ को किसी खास किताब को रेयर बताकर बाकायदा कैश करते थे। मैंने एक बार खुद एडगर वॉलेस का एक नावल—ओरिजिनल कीमत 25 सैंट। तब के डॉलर रेट के मुताबिक दो रुपये—खरीदने की कोशिश की तो उसने अस्सी रुपये माँगे। वजह पूछी तो बोला, रेयर बुक थी। मैंने कहा, मेरे पास एडगर वालेस के ऐसे पन्द्रह नावल थे, वो चालीस-चालीस रुपये में ले ले।

जवाब में उसने नावल मेरे हाथ से लगभग छीना और वापिस पटड़ी पर लगी किताबों में रख दिया।

उसे यकीन जो था कि अस्सी रुपये देने वाला कोई ग्राहक देर-सवेर जरूर आएगा।

पटड़ी पर सबसे ज्यादा सेल या पायरेटिड नावलों की थी या फर्नीचर, फैशन डिजाइनिंग की बड़ी-बड़ी काफी टेबल बुक्स की थी या कम्प्यूटर सम्बन्धी पुस्तकों और डिक्शनरीज़ वगैरह की थी। एक बार एक स्पैनिश ग्राहक ने मेरे सामने मेरे एक हॉकर दोस्त से आयरन ग्रिल वर्क की एक किताब मुँह माँगे दामों पर खरीदी—इतने ज्यादा दामों पर कि कोई लोकल ग्राहक एक-चौथाई भी न देता—और फिर भी सन्तुष्ट था और कहता था—“आई गॉट ए गुड डील।”

फिर उसने पूछा कि ऐसी और किताबें थीं तो जवाब मिला कि थीं तो सही लेकिन मुख्तलिफ नहीं थीं, एक ही किताब की कई कॉपियाँ थीं।

उसने तमाम की तमाम—कोई दो दर्जन—खरीद लीं।

मैंने हैरानी जाहिर की तो बोला—“वुई डोंट गैट सच बुक्स इन स्पेन।”

कभी ऐसे नावल पटड़ी पर दिखाई देते थे जो साफ किसी पुस्तक प्रेमी का पर्सनल कलैक्शन जान पड़ते थे। एक बार जब ऐसे नावल पटड़ी पर मुझे दिखाई दिए थे तो मैंने पाया था कि वो 40-50 के दशक के वो नावल थे, जिनके तमाम के तमाम लेखक मेरी खास पसन्द के थे, जैसे अर्ल स्टेनले गार्डनर, एडगर वालेस, जान डिक्सन कैर, विक्टर गन, पीटर चीनी, वर्कले ग्रे, ई.सी.आर. लोराक, एलरी-क्वीन वगैरह।

मैं जो किताब उठाता था मेरी पसन्द की निकलती थी यूँ चौवालीस किताबें मेरी निगाह कर मरकज बनी तो धड़कते दिल से मैंने कीमत पूछी—धड़कते दिल से इसलिए क्योंकि सब किताबें पसन्द करता देखकर वो मेरे से अन्धाधुंध पैसे माँग सकता था।

अप्रत्याशित जवाब मिला—“बाउजी सुबह पटड़ी लगाते वक्त एक जना डेढ़ सौ किताबें बेचकर गया था, जो मैंने पाँच-पाँच रुपये में उससे खरीदी थीं और दस-दस रुपये में बेच रहा हूँ।”

“सब ऐसी ही?”

“हाँ।”

मेरा दिल चाहा कि जो खरीद ले गया था—या ले गए थे—मैं दौड़कर उनके पीछे जाऊँ और जैसे-तैसे किताबें खुद कब्जाऊँ।

मैंने उसे चार सौ चालीस रुपये दिए और यूँ उन किताबों को समेटा जैसे कोई खजाना मिल गया था जो मेरे से छिन सकता था।

वैसी डेढ़ सौ!

एक सौ छ: वैसी किताबें मेरे हाथ से निकल गईं क्योंकि मैं वहाँ दोपहर को—दो घंटा लेट—पहुँचा।

उस बाजार का ये भी जहूरा था कि चंडीगढ़, शिमला, मसूरी तक से बुक सैलर्स उस संडे बुक बाजार से लॉट में किताबें खरीदने दिल्ली आते थे।

एक बार उसी बाजार के दिल्ली गेट वाले सिरे पर टैलीफोन एक्सचेंज के सामने आपके खादिम के 15-20 रुपये कीमत के पुराने नावल सौ-डेढ़ सौ रुपये तक में बिकते देखे।

मैं फैसला न कर सका मुझे खुश होना चाहिए था या ब्लैक के रेट्स पर रोष प्रकट करना चाहिए था।

उस हॉकर ने ही—जो कि मुझे पहचान गया था—मुझे बताया कि सन् 65 और 70 के बीच में छपे मेरे एक-एक, दो-दो रुपये के नावल हजार-हजार रुपये में बेच चुका था और मेरे प्रथम प्रकाशित उपन्यास ‘पुराने गुनाह नये गुनहगार’, जिसके मूल संस्करण की कीमत बारह आने थी, को बोली लगवा चुका था, जो आखिर सवा तीन हजार रुपये तक पहुँची थी।

ताकीद है कि विदेशों में एंटीक का दर्जा रखने वाले प्रसिद्ध लेखकों के रेयर एडीशन 70-80 हजार डॉलर (पाँच-साढ़े पाँच लाख रुपये) में बिक चुके थे। मूल संस्करण की कोई प्रति लेखक द्वारा हस्ताक्षरित भी हो तो कहना ही क्या!

फिर भी कहा जाता है कि भारत में, दुनिया में, किताब की—प्रिंट मीडिया की—कद्र घट रही है।

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लेखक : सुरेन्द्र मोहन पाठक

पुस्तक : निंदक नियरे राखिए

सेगमेंट : आत्मकथा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन

भाषा : हिंदी

बाईंडिंग : पेपरबैक

मूल्य : 299/-

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कलिंगा लिटेरेरी फ़ेस्टिवल का भाव संवाद: आगामी चर्चाएँ

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कलिंगा लिटेरेरी फ़ेस्टिवल का भाव संवाद इस लॉकडाउन के दौरान बहुत सक्रिय रहा और उसने ऑनलाइन बौद्धिक चर्चाओं का एक अलग ही स्तम्भ खड़ा किया है। आगामी चर्चाओं के बारे में पढ़िए-

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केएलएफ भाव संवाद बनेगा रेबेलियस लॉर्ड, ‘महाभारत सीरीज, बिकाउज इंडिया कम्स फर्स्ट, ‘द अवस्थीस ऑफ अम्नागिरी, रेबेल्स विद आ कॉज’ जैसी पुस्तकों पर विमर्श का साक्षी।

भुबनेश्वर: कलिंगा लिटररी फेस्टिवल दिसंबर के आगामी विशिष्ट सत्रों में करेगा कुछ ख्यातिलब्ध लेखक, अर्थशास्त्री, निति-निर्माता, और विचारकों की मेजबानी। कलिंगा लिटररी फेस्टिवल के भाव संवाद में शामिल होंगे, विचारक राम माधव, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मेघनाद देसाई, डॉ. बिबेक देबरॉय, तमाल बंदोपाध्याय, प्रो. टीटी राम मोहन, आईएएस सुभा शर्मा और अन्य।

10 दिसंबर को शाम 7 बजे, प्रख्यात विचारक और लेखक राम माधव (सदस्य, बोर्ड ऑफ गवर्नर्स, इंडिया फाउंडेशन) से उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक “बिकाज इंडिया कम्स फर्स्ट” पर वार्तालाप करेंगी ‘द हिंदू’ की राजनीतिक संपादक निस्तुला हेब्बार।

12 दिसंबर को शाम 8 बजे, सुविख्यात लेखक प्रभात रंजन जी से उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक “कोठागोई” पर वार्तालाप करेंगे अंग्रेजी भाषा के बेहतरीन उपन्यासकर अब्दुल्लाह खान।

13 दिसंबर, शाम 7 बजे, महान अर्थशास्त्री और लेखक लॉर्ड मेघनाद देसाई से उनकी नयी किताब ‘रेबेलियस लॉर्ड – एन ऑटोबायोग्रफी’ पर बातचीत करेंगे इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के सहनिदेशक डॉ. अजय सिंह।

17 दिसंबर को रात 8 बजे, मशहूर आर्थिक पत्रकार और लेखक तमाल बंद्योपाध्याय से उनकी किताब ‘पंडेमोनियम: द ग्रेट इंडियन बैंकिंग ट्रेजडी’ पर बात करेंगे स्तंभकार अतुल के ठाकुर। 23 दिसंबर को शाम 5 बजे, अर्थशास्त्री और लेखक डॉ. बिबेक देबरॉय से उनकी नयी किताब पर बातचीत करेंगी साई स्वरूपा अय्यर। 12 और 13 दिसंबर को केएलएफ के मंच पर होंगे प्रो. टीटी राम मोहन, आईएएस सुभा शर्मा, त्रिशा डे नियोगी।

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मंगलेश डबराल की कविताएँ

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एक कवि हमेशा अपनी कविताओं के जरिए हम सबकी स्मृतियों में रहता है। जानकी पुल का उपक्रम ‘कविता शुक्रवार’ मंगलेश डबराल की इन कुछ कविताओं से उन्हें नमन करता है। उनकी कविताएँ सदा हमारे साथ रहेंगी-
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स्मृति : एक
————–
खिड़की की सलाख़ों से बाहर आती हुई लालटेन की रौशनी
पीले फूलों जैसी
हवा में हारमोनियम से उठते प्राचीन स्वर
छोटे-छोटे बारीक बादलों की तरह चमकते हुए
शाम एक गुमसुम बच्ची की तरह छज्जे पर आकर बैठ गई है
जंगल से घास-लकड़ी लेकर आती औरतें आँगन से गुज़रती हुईं
अपने नंगे पैरों की थाप छोड़ देती हैं
 
इस बीच बहुत-सा समय बीत गया
कई बारिशें हुईं और सूख गईं
बार-बार बर्फ़ गिरी और पिघल गई
पत्थर अपनी जगह से खिसक कर कहीं और चले गए
वे पेड़ जो आँगन में फल देते थे और ज़्यादा ऊँचाइयों पर पहुँच गए
लोग भी कूच कर गए नई शरणगाहों की ओर
अपने घरों के किवाड़ बन्द करते हुए
 
एक मिटे हुए दृश्य के भीतर से तब भी आती रहती है
पीले फूलों जैसी लालटेन की रोशनी
एक हारमोनियम के बादलों जैसे उठते हुए स्वर
और आँगन में जंगल से घास-लकड़ी लाती
स्त्रियों के पैरों की थाप।
 
 
स्मृति : दो
————–
वह एक दृश्य था जिसमें एक पुराना घर था
जो बहुत से मनुष्यों के साँस लेने से बना था
उस दृश्य में फूल खिलते तारे चमकते पानी बहता
और समय किसी पहाड़ी चोटी से धूप की तरह
एक-एक क़दम उतरता हुआ दिखाई देता
अब वहाँ वह दृश्य नहीं है बल्कि उसका एक खण्डहर है
तुम लम्बे समय से वहाँ लौटना चाहते रहे हो जहाँ उस दृश्य का खण्डहर न हो
लेकिन अच्छी तरह जानते हो कि यह संभव नहीं है
और हर लौटना सिर्फ़ एक उजड़ी हुई जगह में जाना है
एक अवशेष, एक अतीत और एक इतिहास में
एक दृश्य के अनस्तित्व में
 
इसलिए तुम पीछे नहीं बल्कि आगे जाते हो
अन्धेरे में किसी कल्पित उजाले के सहारे रास्ता टटोलते हुए
किसी दूसरी जगह और किसी दूसरे समय की ओर
स्मृति ही दूसरा समय है जहाँ सहसा तुम्हें दिख जाता है
वह दृश्य उसका घर जहाँ लोगों की साँसें भरी हुई होती हैं
और फूल खिलते हैं तारे चमकते है पानी बहता है
और धूप एक चोटी से उतरती हुई दिखती है।
 
 
सोते-जागते
—————-
 
जागते हुए मैं जिनसे दूर भागता रहता हूँ
वे अक्सर मेरी नीन्द में प्रवेश करते हैं
 
एक दुर्गम पहाड़ पर चढ़ने से बचता हूँ
लेकिन वह मेरे सपने में प्रकट होता है
जिस पर कुछ दूर तक चढ़ने के बाद कोई रास्ता नहीं है
और सिर्फ़ नीचे एक अथाह खाई है
 
जागते हुए मैं एक समुद्र में तैरने से बचता हूँ
सोते हुए मैं देखता हूँ रात का एक अपार समुद्र
कहीं कोई नाव नहीं है और मैं डूब रहा हूँ
और डूबने का कोई अन्त नहीं है
 
जागते हुए मैं अपने घाव दिखलाने से बचता हूँ
ख़ुद से भी कहता रहता हूँ — नहीं, कोई दर्द नहीं है
लेकिन नीन्द में आँसुओं का एक सैलाब आता है
और मेरी आँखों को
अपने रास्ते की तरह इस्तेमाल करता है
 
दिन भर मेरे सर पर
बहुत से लोगों का बहुत सा सामान लदा होता है
उसे पहुँचाने के लिए सफ़र पर निकलता हूँ
नीन्द में पता चलता है, सारा सामान खो गया है
और मुझे ख़ाली हाथ जाना होगा
 
दिन में एक अत्याचारी-अन्यायी से दूर भागता हूँ
उससे हाथ नहीं मिलाना चाहता
उसे चिमटे से भी नहीं छूना चाहता
लेकन वह मेरी नीन्द में सेन्ध लगाता है
मुझे बाँहों में भरने के लिए हाथ बढ़ाता है
और इनकार करने पर कहता है
इस घर से निकाल दूँगा, इस देश से निकाल दूँगा
 
कुछ ख़राब कवि जिनसे बचने की कोशश करता हूँ
मेरे सपने में आते हैं
और इतनी देर तक बड़बड़ाते हैं
कि मैं जाग पड़ता हूँ घायल की तरह ।
 
 
भूलने का युग
——————-
याद रखने पर हमला है और भूल जाने की छूट है
मैं अक्सर भूल जाता हूँ नाम
अक्सर भूल जाता हूँ चेहरे
एक आदमी मिलता है बिना चहरे का एक नाम
एक स्त्री मिलती है बिना नाम का एक चेहरा
कोई पूछता है आपका नाम क्या है
उसे यक़ीन नहीं होता
जब मैं भूला हुआ कुछ याद करने की कोशिश करता हूँ
कुछ देर किसी के साथ बैठता हूँ
तो याद नहीं आता उसका नाम
जो कभी झण्डे की तरह फहराता था उस पर
उसका चेहरा लगता है
जैसे किसी अनजान जगह की निशानदेही हो
 
यह भूलने का युग है जैसा कि कहा जाता है
नौजवान भूलते हैं अपने माताओं-पिताओं को
चले जाते हैं बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठकर
याद रखते हैं सिर्फ़ वह पता वह नाम
जहाँ ज़्यादा तनख़्वाहें हैं
ज़्यादा कारें ज़्यादा जूते और ज़्यादा कपड़े हैं
बाज़ार कहता है याद मत करो
अपनी पिछली चीज़ों को पिछले घर को
पीछे मुड़ कर देखना भूल जाओ
जगह-जगह खोले जा रहे हैं नए दफ़्तर
याद रखने पर हमले की योजना बनाने के लिए
हमारे समय का एक दरिन्दा कहता है — मेरा दरिन्दा होना भूल जाओ
भूल जाओ अपने सपने देखना
मैं देखता रहता हूँ सपने तुम्हारे लिए।
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मेरी कवयित्री चाची ‘शैलप्रिया’ – अविनाश

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कवयित्री शैलप्रिया जी को याद करते हुए यह संस्मरण लिखा है अविनाश दास ने। वे जाने माने फ़िल्म निर्देशक हैं, लेकिन उससे पहले बहुत अच्छे कवि और गद्यकार हैं। आइए शैलप्रिया जी को याद करते हैं-

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91-92 की बात है। मैं स्कूल के अपने अंतिम सालों में था। मोरहाबादी में मामा के घर रहता था। मोरहाबादी के मशहूर मैदान के पूरब की ओर हरिहर सिंह रोड में मामा का जो घर था, वहां ज़्यादातर बंगले ही थे। खेत थे लंबे-चौड़े। थोड़ा आगे जाने पर आरोग्य सदन का जंगलनुमा बड़ा बगीचा था। वहां मेरा मन लगता नहीं था। मन लगता था किशोरगंज में, जहां मेरी फुआ रहती थी। डेढ़ कमरे के घर में फुआ-फुफा और उनके चार बच्चे। किशोरगंज में ऐसे प्रवासी परिवारों की तादाद बहुत बहुत ज़्यादा थी, जो किराये के छोटे-छोटे घरों में उल्लास और उत्साह से भरे हुए मिज़ाज के साथ रहते थे। मेरी साइकिल मोराबादी और किशोरगंज के बीच अनवरत दौड़ती रहती थी। यही वजह थी कि तार-बिजली के मुहावरे वाला पतलापन उन दिनों मेरी देह पर चिमटे की तरह चिपका हुआ रहता था। उन्हीं दिनों मुझे कविता लिखने का चस्का लगा था और प्रेस जैसे शब्द बड़े अनोखे लगते थे। तो एक दिन हुआ ये कि किशोरगंज की गली में टहलते हुए एक विशाल घर पर नज़र ठहर गयी, जहां बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, प्रतिमान प्रेस।

प्रतिमान प्रेस पूरे किशोरगंज में बहुत मशहूर था। फुआ ने ही बताया था कि ये विद्याभूषण जी का घर है, जो बहुत बड़े विद्वान हैं और कवि हैं। कवि विशेषण में ही एक सम्मोहन था मेरे लिए। एक दिन हिम्मत करके मैं उस घर में घुस गया। उस घर में कई हिस्सों में किरायेदार भरे हुए थे। ऊपर की मंज़िल पर पहुंचा, तो विद्याभूषण जी मिले। उन्होंने बस ये पूछा था कि किससे मिलने आये हो। मैंने उनका ही नाम लिया और वे घर के अंदर ले गये। पूछा तक नहीं कि क्यों मिलने आये हो? सोफे पर इत्मीनान से बैठने को कहा। मैंने कहा, कुछ कविताएं सुनाना चाहता हूं आपको। तभी एक सौम्य सी महिला आयीं, तो विद्याभूषण जी ने मेरा परिचय उनसे करवाया। वह शैलप्रिया थीं। उनकी पत्नी। शैलप्रिया जी को देखते ही मुझे मेरी मां याद आयी। चेहरे में ग़ज़ब की समानता थी। बहरहाल, दोनों ने मेरी उन दिनों की मामूली तुकबंदियां सुनीं और कहा कि तुम्हें लिखते रहना चाहिए और उससे भी ज़रूरी ये है तुम्हें अच्छे कवियों को पढ़ते रहना चाहिए। उस दिन मुझे कुछ बढ़िया खाने को भी मिला था। चाय भी, जो घर से बाहर ही पीने को मिलती थी।

तो हुआ ये कि मुझे प्रतिमान प्रेस जाकर विद्याभूषण जी के साथ बैठने, उनसे बातें करने का चस्का सा लग गया। हमारी हर बैठक में शैलप्रिया जी भी बैठती थीं, लेकिन बोलती बहुत कम थीं। मेरी बकबक को बहुत प्यार से सुनती थीं। कमाल ये था कि मेरे टाइम-कुटाइम घर में घुस जाने पर घर के किसी सदस्य ने कभी खीज नहीं दिखायी। उन दिनों आज जैसी आने की पूर्व सूचना देने का चलन नहीं था। मैं विद्याभूषण जी को सर बोलता था और शैलप्रिया जी को चाची। तो एक दिन चाची ने मुझे कविताओं की अपनी दो किताबें दीं। मैं आसपास के ऐसे कवियों को उन दिनों ज़्यादा जानता था, जिनकी कोई किताब नहीं छपी थी। विद्याभूषण जी और शैलप्रिया जी पहले ऐसे कवि थे मेरे जीवन में, जिनकी किताबें छपी थीं।

ख़ैर, पराग (प्रियदर्शन) और अनुराग भैया की फेसबुक वॉल पर जब भी मैं शैलप्रिया जी की तस्वीर देखता हूं, मुझे मेरी मां की याद आती है। मेरी मां उनसे तीन साल छोटी थीं। संयोग ही है कि दोनों लगभग एक ही उम्र में इस दुनिया से रुख़सत हुईं। शैलप्रिया जी 48 साल की उम्र में और मेरी मां 49 साल की उम्र में। 94 में जब शैलप्रिया जी का इंतक़ाल हुआ था, मैं दरभंगा चला आया था। मुझे ख़बर ही नहीं थी। कुछ सालों बाद रांची जाना हुआ, तो फुआ से पता चला। मुझे याद है, मैं विद्याभूषण जी से मिला था और मेरा मन बहुत भारी था। मैं शैलप्रिया जी के बिना प्रतिमान प्रेस की कल्पना ही नहीं कर सकता था। किसी के न होने की सूचना एकदम ताज़ा होने की वजह से मेरे दुख को विद्याभूषण जी ने ही कम किया था। ढेर सारी बातें की थीं। ढेर सारे किस्से सुनाये थे।

इतने सालों बाद आज भी जब रांची जाता हूं, तो एक चक्कर प्रतिमान प्रेस का ज़रूर लगाता हूं। किरायेदार अब भी हैं, लेकिन अपने वाले हिस्से में बस विद्याभूषण जी मिलते हैं। बाकी सब वहां से निकल कर अपने-अपने कामकाज़ी शहरों में बस चुके हैं और मेरी नज़र उन्हें तलाशती भी नहीं। मैं जिन्हें बहुत ज़्यादा मिस करता हूं, तो वो हैं शैलप्रिया जी। चाची। एक ऐसी कवयित्री, जिन्होंने ख़ामोशी से अपने हिस्से की संवेदनाओं को रचा, लिखा और चुपचाप चली गयीं। मैं शुक्रगुज़ार हूं शैलप्रिया स्मृति सम्मान के वार्षिक आयोजनों का, जिसके ज़रिये हर साल मेरी कवयित्री चाची की चर्चा होती है और उनकी रचनात्मक धरोहर आज के रचनाकारों में बांटी जाती है।

 

 

 

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मुझे दस जूते मार लीजिए लेकिन घर से मत निकालिए

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बनारस का नाम आने पर लेखक शिव प्रसाद सिंह का नाम ज़रूर आएगा। उनके ऊपर एक बहुत अलग तरह का गद्य लिखा है बीएचयू की शोध छात्रा रही प्रियंका नारायण ने। आप भी पढ़िए-

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मुझे दस जूते मार लीजिए लेकिन घर से मत निकालिए

दो पथिक (पहला- आगंतुक, दूसरा – आटविक)

पथिक – महाकाल विश्वेश्वर की नगरी में यह कोलाहल क्यों आटविक? विंध्य की ये मनोरम उपत्यकाएं, प्रपातों का हाहाकार, चंद्रप्रभा का आसिंजनकारी प्रवाह, आटविक जनों का सादा- सरल अनुरागमय जीवन, नौगढ़ के ये अरण्य प्रदेश, पंचक्रोशी के जीवंत काही वृक्ष व विश्रामशालाएं…क्या ये इन कोलाहलप्रिय जनों का तनिक भी मन नहीं मोहती?…यहाँ आने के पश्चात् न तो यशोलिप्सा शेष रहती है न आक्षेपों का भय…। बाड़े को तोड़कर अनंत जीवन के अवगाहन- धारण की क्षमता से विहीन, कार्य- कारण स्थिति को समझे बिना क्षुद्र कीटों- सा जीवन…हूंह…क्या ही प्राप्य है इनका…

आटविक – अब का करबा महाराज! विश्वेश्वर के मयवा इहे ह … जब ना तब इहवां के बकैत ( विदूषक ) बिना सिर –पैर के बातन में भीड़ जइहें… आ जब जीत न पैयेहें तब गरियावल शुरू कर दीहें …आ ओहसे भी कमवा ना चली तब कपारे फोड़े लगिहें एक दूसरा के …

दोनों के ठहाके से चंद्रप्रभा प्रकम्पित हो उठी।

अच्छा… एक बात बताओ मित्र !…इस अरण्य- आटविक जनों से दूर विश्वेश्वर की नगरी में चंद्र किरणों की रहस्यमयी नीलिमा को परखने वाला कौन था ? सुना है… चंद्रलेखा की इन रुक्ष- ऊँची पहाड़ियों को उसका पवनपंखी घोड़ा प्रचंड ऐसे ही पार कर जाया करता था… कोई भारी विद्वान था संभवतः। विश्वेश्वर की काशी में साहित्य का ‘शिव’ था वह । गुरु भी अघोर साधनाओं के महाप्रतापी कोई ‘हजारी’ हुआ करते थे।

मित्र! ये सब तो जानी- सुनी, कही- कहायी बातें हैं। कुछ अनकहा जानते हो तो बताओ …तुम्हारे कोष में तो लोक- ग्राम, श्रेष्ठी- चेट्टी, राज- काज से लेकर महाकाल तक ऊँघते हैं। कुछ इनके बारे में बताओ…

रूपांतरित भाषा के साथ

आटविक –  सुनो मित्र! पथ काटने को तुमने ये अच्छी चर्चा छेड़ दी और जिस ‘शिव’ की तुमने चर्चा की वह वास्तव में समय और साहित्य के शिव – प्रसाद ही थे। कोई भी नवीन साहित्यिक विषय उनसे छूट न पाता  था। मित्र! वास्तव में जब दृष्टि और लक्ष्य दोनों ही स्पष्ट हो तभी ऐसा होता है – जब इस अत्यल्प जीवन काल में कुछ कालजयी सध जाता है। विद्वत शिवप्रसाद के साथ ऐसा ही था।

आज तुम्हें इन कही- सुनी बातों से इतर एक ही छत के नीचे रहने वाले उनके मित्र राणा. पी.बी. सिंह और

उनके संबंधों की कथा सुनाता हूँ। राणा पी. बी सिंह शिव प्रसाद जी के किराएदार थे। आगे चलकर राणा और शिवप्रसाद मित्र नहीं बल्कि गुरु- शिष्य संबंध में बंध गए थे।

हालाँकि यह निर्णय करना मुश्किल है कि कौन- किसका गुरु था? राणा आज भी उन्हें गुरु कहते हैं और शिवप्रसाद अपने उपन्यासों के लिए आजीवन उनसे सीखते रहे। यथार्थ जीवन को चित्रित करने के लिए यथार्थ को केवल देखना या जीना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसकी सही माप, वर्णन और उनके प्रभावों की गणना और मूल्यांकन भी उतना ही आवश्यक है। राणा से शिवप्रसाद ने यही सीखा था।

राणा आज भी कहते हैं – शिवप्रसाद जी बड़े गंभीर लेकिन प्रतिक्रियावादी आदमी थे। एक बार मेरी अनुपस्थिति में उन्होंने मेरे घर का सामान भी फिंकवा दिया था, सो मैं तो उनसे डरा ही रहता था। एक बार उन्होंने मुझसे कहा- सुनो राणा! तुमसे एक काम है। मंजू ने कहा है, नहीं तो मैं तुमसे कहता भी नहीं। यह मेरे एक उपन्यास का अंश है। सौ पृष्ठों की सामग्री है-  देख कर बताओ कि कैसा है? तुम्हारा फील्ड वर्क बहुत अच्छा है और तुम जिस गुरु के शिष्य हो वो मेरे भी आराध्य हैं…प्रो. आर. एन. सिंह।

मैंने चुपचाप ले लिया। उनके क्रोधी स्वाभाव से मैं डरा ही रहता था। इसलिए चुपके से लिया और अगले दिन लौटा दिया। कहा- बहुत अच्छा लिखा है आपने…बहुत ही अच्छा लिखा है।

शिवप्रसाद – अरे अच्छा थोड़े सुनना है, कुछ बताओ भी।

सर! मैं पैर पकड़कर क्षमा मांगता हूँ। मुझे दो जूते मार लीजिये लेकिन मेरा मुंह न खोलवाइये। मुँह खोलना मेरे लिए बहुत कठिन होगा।

क्यों?

नहीं सर! जूते मार लीजिए लेकिन सत्य किसी को बर्दाश्त होता नहीं और मेरी जो ट्रेनिंग है, मुंह से निकल जाएगा तो संघर्ष होगा।

नहीं ऐसा कुछ नहीं होगा – शिवप्रसाद जी ने कहा।

नहीं सर…ऐसा ही होता है।

फिर शिवप्रसाद जी ने राणा जी को बैठाया। राणा कहते हैं- डेढ़ साल उनके घर में रहा होगा लेकिन एक ही दो बार उनके साथ उनके घर में चाय पीने का मौका मिला था। उस दिन उन्होंने चाय मंगवायी। पत्नी से कहा- कुछ इसको खिलाओ- पिलाओ दो कि इसका दिमाग ठीक हो।

इसके बाद कहा अब शांति से बैठो और बताओ…

राणा –  सर, ऐसा बकवास और यूज़लेस मैटर मैंने आज तक अपनी जिंदगी में पढ़ा ही नहीं था।

गुरुदेव एकदम से चौंक उठें। राणा संकोच और घबराहट में कहने लगे –  सर मैंने पहले ही कहा था- मेरे से मत कहलवाइये। अब आप मुझसे तुरंत मारपीट फ़साद करेंगे …

अरे नहीं! नहीं! लेकिन राणा आज तक मुझे किसी ने ऐसा कहा ही नहीं…

राणा- सर आपका चेला लोग तो कहेगा कैसे? उनको चाटुकारिता से फुर्सत होगी तब तो कहेंगे। चेले तो बस चाटना जानते हैं।

हालाँकि राणा ऊपर से तो कह रहे थे लेकिन बकौल राणा- मैं बोल तो रहा था लेकिन मेरी हलक सूख रही थी।

असल में गुरुदेव की आँखें अब तक मंजू से मिल चुकी थी और मंजू ने उन्हें शांत रहने का इशारा कर दिया था।

मैं अकबकाया- सा उन्हें देखता रहा।

अब शिवप्रसाद जी बोले – तुम्हें तो भूगोल का बहुत अच्छा ज्ञान है और तुम्हें क्षेत्र की बारीकियों का भी पता है। कथा के बारे में भी तुम जानते हो। अब बताओ कि कैसे सिद्ध करोगे कि बकवास है ?

तब राणा जी कहते हैं –  बस एक लाइन सुन लीजिए …मैं बोल नहीं पाऊंगा। बस एक पंक्ति सुन लीजिए…सर! हाथी जब चलेगा और क्षेत्र दलदल का है तब हाथी उसमें कैसे चलेगा ? आप ये बताएं…

शिवप्रसाद सिंह – हाँ! ये तो है।

दूसरी बात कमल जब खिलता है, स्वच्छ पानी में खिलता है, कीचड़ में नहीं खिलता है। ये कहावत है कि कीचड़ में जन्मेगा लेकिन कीचड़ में खिलता नहीं है।

शिवप्रसाद सिंह – हाँ, ये भी सत्य है।

तीसरी बात- हाथी दलदल क्षेत्र पार किया और उसके बाद किला आ गया तो किला तो वहाँ बन ही नहीं सकता है।

शिवप्रसाद सिंह – हाँ! ये भी सत्य है…

तो गुरुदेव यही न वर्णन किया है आपने सौ पृष्ठों में।

जानते हो मित्र! इसके बाद शिवप्रसाद जी अचानक से उठे और उन सौ पृष्ठों को टुकड़े- टुकड़े कर हवा में उड़ा दिए। बकौल राणा-  मेरी हालत ख़राब होती गयी। मैं कांपने लगा था। बी.पी. बढ़ गया। मैं उठा और सीधे उनके पैर पकड़ लिए- सर! मुझे माफ़ कर दीजिए। माफ़ कर दीजिए। मेरे बच्चे छोटे- छोटे हैं। मैं इतनी जल्दी दूसरा मकान नहीं ढूंढ पाऊंगा। मेरा इस शहर( बनारस) में रहना मुश्किल हो जाएगा। मुझे दस जूते मार लीजिये लेकिन घर से मत निकालिए। मैं एकदम से रोने लगा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैंने क्या कर दिया ? सर ! मुझे कुछ मोहलत दे दीजिए… मैं चला जाऊँगा।

इसके बाद मंजू सामने आयीं। उन्होंने कहा कि देखिये आप मेरे भाई हैं। आपको कोई नहीं निकालेगा। जब मेरी लाश निकलेगी तभी आपको कोई निकाल पाएगा यहाँ से। इतना सुनना था कि शिवप्रसाद जी भी रोने लगे।

असल में मंजू की तबीयत उस समय बहुत ख़राब रहने लगी थी। दर्द से वो बैठ नहीं पाती थी। शिवप्रसाद जी दिन- रात बिटिया के लिए रोते रहते थे और अंत में उसकी मौत ने तो उन्हें तोड़ ही दिया था। मंजू के यह कहने पर उन्हें फिर से ध्यान में आ गया सो वो रोने लगे थे। बड़ी मुश्किल से उस दिन किसी तरह मामला शांत हुआ। फिर कहा- मैं तुमसे एक हफ्ते बाद मिलूँगा। तुम कौन- सा स्कूटर रखे हो?

सर! मेरे स्कूटर का नाम तो चेतक है और मेरा नाम राणा है। मुझे बहुत लगाव है अपने स्कूटर से।

शिवप्रसाद जी बोले – अब तुमने मुझे जो कुछ कहा है, वह सब तुम्हें प्रूफ़ करना होगा। तुम ले चलोगे मुझे अपने ‘चेतक’ से और उन सभी जगहों को दिखाओगे।

मैंने कहा- सर! मेरा ‘चेतक’ तो आपका ही है।

इसके बाद राणा शिवप्रसाद जी को लेकर अगले कई दिनों तक स्कूटर पर बैठाकर सर्वे के लिए जाते रहे। जहाँ- जहाँ उनके पात्र थे, उन सभी जगहों पर ले गया। कई बार ऐसा होता कि पात्र और जगहों से वे इतने कनेक्ट हो जाते कि रोने लगते…कभी बेहोश हो जाते। बहुतों बार अगल- बगल के लोगों को आवाज़ देकर उन्हें उठा कर हवा- पानी करना पड़ता। इसके बाद उन्होंने फिर से उस नॉवेल लिखा और मुझे पढ़ने के लिए दिया।

मैंने कहा भी कि सर, अब मुझे मत कहिए लेकिन वो नहीं माने। इसके बाद मैंने पढ़ा और लिखा भी कि ‘मैं तो साहित्य का नहीं हूँ लेकिन काश! इतिहास को इस तरह से मिथकों व पौराणिक साहित्य से जोड़कर सर्वे के द्वारा उपन्यासों की लिखा जाता। यह अद्भुत उपन्यास है।’ समय के अनुसार उन्होंने भाषा उस समय की रख दी, इसलिए यह कठिन हो गया और दूसरा उनका कोई ग्रुप नहीं था। जैसे एक रामविलास जी का ग्रुप था, एक नामवर जी का ग्रुप था, एक भगवती शरण सिंह का ग्रुप था …जैसे आज तो पचास ग्रुप है। आपके बी.एच यू में ही देख लीजिए एक अवधेश प्रधान और पाण्डेय जी का ग्रुप है तो दूसरा अशोक सिंह का ख़ुरापाती ग्रुप है तो एक कविता  कहने वालों का है, दूसरा आलोचना वालों का है…साहित्य…खैर! हाँ तो शिवप्रसाद जी के तीनों उपन्यासों में ‘गली आगे मुड़ती है’( नीला चाँद, वैश्वानर) को हिन्दी साहित्य में “चटपटा पड़ाका” कह सकते हैं। ‘काशीकथा’ में मैंने उस पर वक्तव्य दिया था।

सुनो मित्र! ८३- ८४ में कोई भाषण- भूषण हुआ था। वहाँ शिवप्रसाद जी भी थे…कमलनाथ गुप्त भी थे और राणा भी पहुंचे हुए थे। ‘गली  आगे मुड़ती है’ पर बात चल रही थी और उस पर लगातार काल्पनिक होने का आक्षेप लगाया जा रहा था। राणा सुनते- सुनते जब थक गए तब उठ खड़े हुए और कहा– मैं साहित्य से तो नहीं हूँ लेकिन इंसानियत के नाम पर कोई मुझे बोलने दे। यहाँ किताब भी है और उसके लेखक भी लेकिन मेरा इन सबसे कोई वास्ता नहीं है। इस व्यक्ति से व्यक्तिगत होने या साहित्यिक होने न होने की तो यहाँ कोई बात ही नहीं है लेकिन जो सच है वो सच है। मै बस यह पूछना चाहता हूँ कि कोई यहाँ कसम खा कर बताए कि इस नॉवेल में जो लिखा गया है आप में से किसी ने फील्ड में जाकर चेक किया है ? है कोई जो माँ की कसम खा कर कहे कि उसने तथ्यों को जाँचा है।

  कमल जी ने कहा – आपका हो गया …बैठिए। जाइए यहाँ से।

राणा- नहीं! सच सुनना पड़ेगा। इस उपन्यास पर आप सब मिथ्या होने का आरोप लगा रहे हैं लेकिन मैंने पच्चीस बार से ऊपर इसे पढ़ा है और फील्ड में जाकर जाँच की है। एक रिसर्चर होने के नाते मैं कह सकता हूँ कि इसमें कहीं- कहीं ही कल्पना है। कोरा सच है ये। यहाँ मेरे विभाग और मेरे जानने वाले भी पचासों बच्चे बैठे हैं आप ऐसे ही हमें नहीं भगा सकते हैं…

फिर क्या था…हल्ला हो गया। शिवप्रसाद जी जिंदाबाद के नारे लगने लगे। आर कमल गुप्त जी से भी संबंध अच्छे बन गए। उस समय नीरजा जी असिस्टेंट हुआ करती थीं। कमल गुप्त जी आएं और कहा- तुम इस पर लिख कर दो। फिर मैंने लिखा… उस सुखदेव जी ने प्रतिक्रिया दी। मैंने फिर सामानांतर उत्तर दिया। उसके बाद सुखदेव जी ने कान पकड़ लिए कि ये तो बनारस में मुश्किल कर देगा।

इसके बाद शिवप्रसाद जी ने मुझे अलग बुलाकर कहा – इधर आओ! तुम ऐसे भीड़ा मत करो नहीं तो लोग तुमसे भीड़ जाएंगे।

सर, क्या करूं? सत्य तो सत्य है, उसके लिए तो भीड़ ही जाऊंगा।

देखो… लोग तुम्हारा नुकसान कर देंगे। तुम चुपचाप साहित्यिक मीटिंग में आओ और सुनकर चले जाया करो।

शिवप्रसाद जी के बाद त्रिभुवन जी ने भी मुझे रोका।  इसके बाद मैं चुप हो गया लेकिन साहित्य और शिवप्रसाद जी को लेकर लिखता रहा।

इसके बाद की कहानी तो और भी दिलचस्प है मित्र!

शीघ्र कहो आटविक…

सुनो!

इसके बाद  ‘गली आगे मुड़ती है’ पर जब नामवर जी ने लिखा कि “ घर की चारदीवारी में बंद होकर कल्पना की उड़ान से ये बताना कि गंगा में छलांग कैसे लगती है – यही उपन्यास है।”

तब  जानते हो राणा ने क्या कहा ?

क्या?

राणा से ही सुनो।

तब मैंने ८४-८५ की पत्रिका “साहित्यकार” में लिखा- “ दिल्ली की ऊँची अट्टालिकाओं पर बैठकर फाइव स्टार होटल में शराब पीकर करके हिन्दी साहित्य को दुर्दांत रूप में भ्रष्ट करने वाले साहित्यकार बता देते हैं कि गंगा में डूबकी लगायी कैसे जाती है ? काश ! ऐसे इंसान होते जो गंगा में डुबकी लगाते- लगाते डूबते रहते और डूबने के बाद निकलते तब उनको पता चलता कि माँ मृत्यु को कैसे रोकती है? माँ के कितने रूप होते हैं और माँ का एक रूप ‘वेश्या’ भी है। ( मार्कंडेय पुराण ) माँ वेश्या बनकर भी संसार की रक्षा करती है। उसके सत्ताईस रूप हैं, सत्ताईस नक्षत्र हैं और ‘गली आगे मुडती है’ ये ऐसी पहली रचना है जिसमें सत्ताईस रंग हैं।”

उसके बाद नामवर जी मानने लगे कि यह भारी पाजी, बदमाश पागल लड़का है। जबकि काशीनाथ जी से राणा की अच्छी बनती रही है। उन्हें जब कुछ होता तो कहते- ‘आ जाओ थोड़ा…झगड़ा- वगड़ा हो जाए। उनके बेटे सिद्धार्थ ने एक दिन राणा से कहा – अरे चाचाजी, आप एक बार बड़े बाबूजी से तो मिल लीजिए।

राणा- नहीं, आपके बड़े बाबूजी बहुत बड़े वाले हैं। वो अट्टालिकाओं वाले हैं और मैं कुटिया वाला। मैं कुटिया में रहने वाला, तू महलों की रानी… बता फिर तेरा- मेरा प्यार?

लेकिन सिद्धार्थ अड़े रहे।  नामवर जी से जाकर कहा। उन्होंने सीधे कहा – अजीब पागल है। साहित्य पढ़ा ही नहीं है और ऐसे लिख देता है।

बस ऐसे ही एक दिन भेंट हो गयी। काशीनाथ जी ने कहा- भैया! वो जो महलों वाली …अट्टालिकाओं वाली बात नहीं आई थी…

नामवर सिंह – छोड़ो उस पागल को। उसका नाम सुनते दिमाग गरम हो जाता है।

काशीनाथ सिंह – भैया, सुनिए न…मिलिए तो उससे कौन है ?

नामवर सिंह – अरे छोड़ो …

काशीनाथ सिंह – भैया, वो आये है …ये जो सामने खड़ा है, यही है राणा पी. बी. सिंह।

अब नामवर जी अवाक् हो गये। अरे नहीं! नहीं…ये तो बहुत अच्छा है…बहुत अच्छा लिखता है…

राणा – नहीं सर, जो सच है वो तो कहना ही पड़ेगा। मैं भले ही बदमाश हूँ, मवाली हूँ बाक़ी जो सच है और यदि वह कड़वा भी है तो उसको सुनकर आप जैसे महारथी सुनकर उसे नहीं आशीर्वाद देंगे तो सत्य तो दब जाएगा।

फिर उन्होंने कहा – इधर आओ…आज मेरा मन शांत हो गया। इसके बाद मैंने पैर छुआ तो पैर नहीं छुने दिया बल्कि गले लगा लिया।

 इसके बाद नामवर जी ने कहा – आज से तुम मेरे दिल में हो।

कहना यह है कि आप आलोचक हो और फील्ड देखे नहीं हो। शिवप्रसाद जी बड़े घुमक्कड़ प्रवृत्ति के  थे। उनका संस्कृत, पर कमांड था, अवधी, ब्रज, पाली पर कमांड था। वो अनेक भाषाओं को जानने वाले थे। किताबों का अम्बार हुआ करता था उनके घर में…ऐसे थे शिवप्रसाद जी। कैसे कोई ऐसे लेखकों की सस्ती आलोचना कर सकता है? शायद उन्होंने अंग्रेजी में लिखी होती तो वे आज नोबेल मिला होता…।

 कुल मिलाकर मित्र यह कि हम अब काशी पहुँच गए हैं और मित्र! जाते- जाते मेरी एक बात गांठ बांध लो। विश्वेश्वर की इस नगरी में घूमो-फिरो सब करो लेकिन अब सत्य कहना छोड़ दो…सत्य किसी को बर्दाश्त नहीं होता।

प्रियंका नारायण

 

( ५ नवम्बर २०१९ को भूगोल विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष और वाराणसी पर महत्वपूर्ण कार्य करने वाले राणा पी.बी. सिंह के साक्षात्कार के आधार पर )

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कवि चोर के लव जिहाद की कथा: मृणाल पाण्डे

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चौरपंचाशिका से लेकर उत्तराखंड के लोकगीतों में विस्तृत कथाओं का रस घोल यह कथा तैयार की है जानी मानी लेखक मृणाल पाण्डे ने। बच्चों को न सुनाने लायक़ बाल कथाएँ सीरीज़ की यह 21 वीं कथा ज़रा देर से आई लेकिन लव जिहाद क़ानून की व्यथा के बीच चोर कवि और राजकुमारी की सैकड़ों-हज़ारों साल से सुनी सुनाई जा रही कथा का रस है। आप भी पढ़िए-

(कथाकार जन्मजात उठाईगिरे होते हैं। जहां रसवंत किस्सा दिखा, तोते की तरह लोभ संवरण न कर सके, तुरत उसे कुतर लिया। फलों की बगीची की ही तरह कथाओं के बाग से कुछ पुराने गल्पों (गप्पों?)में चोंच मारने को पुराने समय के संस्कृत मीमांसाकारों ने चोरी नहीं स्वीकरण कहा है। यानी मूल को पचा कर उसकी नये सिरे से पुनर्रचना। अस्तु।

प्रेम की इस कथा का स्वीकरण 8वीं सदी की एक लघुप्रेम कथा चौरपंचाशिका और उत्तराखंड के लंबे लोकगीतों को एक साथ कथारस में घोलते हुए बना है । चौरपंचाशिका वसंततिलका छंद के पचास श्लोकों में एक कवि हृदय चोर और राजकुमारी के बीच के निषिद्ध प्रेम की आत्मकथा कहती है। धारणा है कि यह दुखांत प्रेमकथा काश्मीरी कवि बिल्हण ने रची।

पर धारणा का क्या?

सवा अरब के देश की सवा अरब धारणाओं पर क्या बिचारे नीति आयोग प्रमुख ने नहीं कह बैठे कि भारत में लोकतंत्र कुछ अधिक ही है!

उनकी जो गत बनी सो बनी, पर सरकार बहादुर के कई बड़ों की राय में लव जिहाद यानी दो वर्जित प्रेम जो है सो इस्लाम की फतह के साथ ही भारत में घुसा। हम असहमत हैं।

वसंततिलका छंद में कही गई चौरपंचाशिकी ठोस सबूत है कि 8वीं सदी के म्लेच्छ विहीन अतीत में भी दो अलग अलग जाति कबीलों के बीच निषिद्ध प्रेम का बिरवा अकारण, अनायास ही उपज जाय करता था। और उनका अंत भी सदा भला नहीं होता था।

चौरपंचाशिका के तीन पाठ काश्मीर, वाराणसी और दक्षिण भारत से मिलते हैं। क्या इसे इस बात का प्रमाण माना जाये कि सामाजिक तौर से वर्जित प्रेम हमेशा से एक अखिल भारतीय रुचि और युवा प्रयोगधर्मिता का विषय रहा है। लिहाज़ा कुल जमा यह, कि हमारे पूर्वज भी यह गुनाह बार बार करते रहे हैं और उनके कबीलों-बापों का रिएक्शन भी पीढी दर पीढी बदला नहीं है।

शायद हम सभी रोमांटिकों की तरह चौरपंचाशिका सरीखी कविता के प्रेमियों को उम्मीद थी, कि जब तक जिहादी कवि सूली तक पहुंचेगा, कला प्रेमी राजा उसकी कविता से पिघल चुका होगा। और उसे प्राणदान देकर शायद राजकन्या का हाथ भी उसे थमा देगा। पर हा हंत, इस पर भी मतभेद है।

करणा से पिघल कर अपने चुगे फलों से हमने इस कथा में सुदूर उत्तराखंड से सुनी निषिद्ध प्रेम की अमर कथा मालूशाही को भी ला जोड़ा जिसे घुमंतू गायक गाते आये हैं। द्रोणगिरि पर्वत की छाया में अलग कबीलों: तिब्बती सीमांत के अमीर शौका व्यापारी सुनपति की बिटिया राजुला और बैराठ के क्षत्रिय राजा के बेटे का प्रेम प्यूणी के फूल सा स्वयमेव उपजा, फिर सुनजै(सोनजुही)की लतर सा परवान चढ गया! राजुला मालूशाही की कथा अलकनंदा की तरह साथ साथ बहती आई अनेक उमगती, उच्छृंखल प्रेमकथाओं को भी ले आई। अब उन सबके संगम से बनी इस प्रेम सुरसरि को जो लेखक जगह न दे, उसकी लेखनी को सराप न लगता? सो भूल चूक लेनी देनी सहित हम शुरू करते हैं राजकुमारी यामिनी पूर्णतिलका और चोर कवि के लवजिहाद की कथा।)

एक राजा था। उसकी दुलारी बेटी यामिनी पूर्णतिलका ने एक दिन अपनी सहेलियों से कहा: ‘ हम छोरियों ने जनम से अब तक महलों के भीतर बूढियों की चौकीदारी तले उनकी बासी कथायें और प्रवचन सुन सुन कर अपनी मूंडी महलों में ही छिपाये रखी। आज तक उनकी ही आंखों से हमने जितनी उन्ने दिखाई बस उतनी दुनिया देखी। चलो आज जब वे दिन में खर्राटे भर भर कर लार चुआती हुई सोती होंगी, हम चुपचाप जाकर स्वयं बाहर की दुनिया भी देख आयें ।’

छोकरियां तो छोकरियां। बूढियों को चरका देकर बाहर भागना सबको सुहाया। राज़ी हो गईं। तुरत।

गर्मी की दोपहर में जब रनवास से गेट पर तैनात सब बूढी कुटनियाँ और खोजासरा फसाफस सोते थे, छोकरियों की चिडियों सी टोली बाग के रास्ते फुर्र हुई । पास जाकर वहीं किसी झुरमुट में कोई बडी मीठी बंसी बजती सुनी। छोरियाँ राजकुमारी के साथ साथ उधर को चल दीं।

जाकर क्या देखती हैं? कि बस एक साँवली, सलोनी बोतल सी सुती जवान मरद की जाँघ, पेड की पत्तियों के बीच लटक रही है। पत्तियों में छुपा उसका अनदिखता मालिक बांसुरी से उनको कुछ कुछ चिढाता सा ऐसे टेर रहा है, जैसे उसे अटल भरोसा है वे खिंची चली आयेंगी।

शैतान राजकुमारी ने पेड़ को झकझोरा।

अचानक कूद कर एक रूपवान बलिष्ठ युवक पेड से निकल कर धम्म से राजकुमारी के ऐन सामने आन खडा हुआ।

‘मुझे पीने को पानी दे दो!’वह राजकुमारी की आंखों में आंखें डाल कर बोला।

राजदुलारी राजकुमारी ने नहीं दिया। क्यों देती? पानी खींचना तो दूर, वह जो दसियों को अपने लिये एक गिलास पानी लाने को कह सकती थी इस ढीठ लंगर को पानी काहे देती?

’क्यों दूं तुझे पानी?तू मेरा कौन?’ राजकुमारी हंस पड़ी। उसके गालों पर दो गढे। युवक को लगा वह उनका ही रस पी कर तृप्त हो सकता है।

राजकुमारी हंसी तो उसकी सब सहेलियों को भी हंसी का दौरा सा पड़ गया।

झनकारो, झनकारो, झनकारो,

गोरी प्यारो लगै है तेरो झनकारो।

‘तुम हो कौन?’ यामिनी रत्नतिलका ने पूछा।

‘मैं मनुष्य हूं और अपनी मां के पेट से निकल कर आया हूं।’

बात सुन कर हंसी की एक और लहर छोरियों को हिला गई।

‘तुम्हारे साथ ब्याह कर लूं तो भी पानी नहीं दोगी?‘

‘तेरे जैसा पति हुआ तो उससे तो मैं सौ घड़े पानी भरवाऊंगी।’ इतना कह कर नटखट छोरियों की वह इठलाती टोली पैंजनियां बजाती महल को चल दी।

मृगी सी चितवनवाली कनकचंपा की रंगतवाली राजकुमारी जाने क्यों मुड़ मुड़ कर बांसुरीवाले युवक देखती रही।

‘बजेली झांवर छमाछम ओ हो, ठमाठम चले जब

पीछे देखके आगे आगे जानेवाली,..’

मन सोचता रहा और पैर लौट चले। पैरों के लौटने से क्या? मन सोचता रहा, बजेली तेरी झांवर छमाछम ओ हो!

पानी पिलाओगी मुझे?

बाहर एक बांसुरी है जो बंद भी हो जाती है। पर भीतर की यह कैसी बांसुरी है जो बंद नहीं होती। फिर अपने अपने ठौर में दाखिल हो कर दोनों मन बाहर से दूर भीतरघुसरू हो गये ।

एक दूसरे से अपनी अपनी दूरियाँ तय कीं, पर मन पीछे जाता, पैर आगे।

राजकुमारी ने खाना न खाया।

चोर ने कमंद नहीं फेंकी।

हुंह, शादी करेगा मुझसे!

मुझसे?

रात, रात, रात। किसी अनजान नदी के कलकल जल की सी स्वच्छ हंसी पीछा करती। अकेला कवि उठता, पानी पीता, नींद फिर भी नहीं आती। हाय रे किस घड़ी में सामना हुआ राजा की उस कनकवर्णी कन्या से। और क्या जाने वह मृगनयनी कि देश का सबसे शातिर चोर और कवि, जिसे दस सालों से उसके पिता की सारी गुप्तचर सेना खोजती थी, उसके गाल के गढों में डूब चुका, ठगा-लुटा अंधेरे में खुल गई खिडकी से छला खडा था।

तू कहीं खोजी नहीं जा सकती थी, युवक ने नदी पर झुकते हुए सोचा। तू दरअसल कहीं है ही नहीं, न इस वन के अंधेरे में, न किसी राजमहल की बगीची में। न तू बांसुरी में है, न मेरे होंठों की उस फूंक में जो उसमें सुरों के परान भर कर तेरे परान मुझ तक खींच लाती है। तू सिर्फ मेरी आंख की पुतली में बंद अपना ही रूप है।

कवि मन भ्रमर समान भटकता फिरता रहा जब तक वह चेहरा आंख से ओझल न हुआ। फिर उसने आंखें बंद कर लीं, और सब कुछ अंधेरा हो गया। फिर वह अपनी कमंद से घड़ा भरने लगा।

उसी की तरह आधी रात को हिमालय की घाटी में बैराठ का राजकुमार मालूसाही भी जागता था।

उसकी मां पूछती: बेटा क्या द्वार पर कोई भूखा खड़ा है? या कि तेरा चरुआ बैल गोठ में नहीं? या तू किसी के प्रेम में पड़ गया है? तू मेरा इकलौता, फिर भी तुझ के भीतर कितनी दु:ख हैं? बोल, माँ से कैसी शरम जिसने तुझसे भी पहले तुझको नंगा देखा है।

मां, मालू गोद में सर छुपा कर बोला। तुझसे क्या छुपा है? यहाँ तो हाय सुवा रात ढली, कि आंख बंद करते ही मखमली अंगिया पहिरे सुनपति शौक की नाज़ों पली राजुला दिखती है। पुन्यू के चंदा (पूर्णचंद्र) जैसी, बुरुंश के फूल जैसी, फेरे हुए पान जैसी। उसे देखा नहीं, कि मुझे ‘खुद’ लग जाती(अनकही व्यथा व्याप जाती) है। सब कुछ अलोना अनमना।

बेटा तो जी हलका करके गोद में सो गया। डरी मां रात भर जागती रही, हाय इसके बाप राजा को पता चला तो? उसके बाप सुनपति शौक को पता चला तो?

मां को भी सोचते सोचते ‘खुद’ लग जाती।

राजकुमारी यामिनी पूर्णतिलका को भी रात भर करवटें बदलते कभी वंशी की धुन  सुनाई देती, कभी हरे भरे नये चिकने पत्तों के बीच सोने की गदा सी जाँघ अचानक कूद कर एक बाँके युवक में बदल जाती। तिरभंगी खडा हो कर भारी मेघ जैसा एक कंठ हंस कर पूछता, ‘पानी पिलाओगी मुझे?’

प्रेम में पराया हुआ मन अपने ही लिये परदेस। न ही दिन दिन पान के पत्ते सी कुम्हलाती बेटी का बाप कुछ समझ पाता।

बस माँओं को ‘खुद’ लग जाती जो सब समझ रही होतीं।

हे देवा कैलास परबत के जोगी – दक्ष परजापति की राजलली, छौनों की रक्षा करना। तुम जनों ने भी तो अपने मन से एक दूसरे का हाथ थामा था?

पर दक्ष का कोप? बबू। सगे दामाद को भी नहीं न्योता जज्ञ में। बेटी जल मरी। दामाद पगला गया। क्या मिला किसी को?

माँओं को ‘खुद’ फिर लग जाती।

तू बांसुरी क्यों बजाता है? गुस्से से सोचती यामिनी पूर्ण तिलका की नज़र गई, अरे! यह क्या? उसकी खिड़की के नीचे सौ घड़ों में पानी भरा रखा था ।

जंगली बिल्ले की फुर्ती से वह उसके पीछे से आया और फुसफुसा कर बोला,’ले आया तेरे लिये सौ घडे जल के! अब तो पानी पिला!’

पानी पीने लगा तो तृप्त ही न हो। न वह, न यह। युग युग की प्यास।

हर दिन जलाभिषेक।

आखिरकार कवि का वही हुआ जो होना था । राजकुमारी के शयनकक्ष से पेड़ पर छलांग लगाता वह धरा गया।

तेरी यह मजाल कहते हुए उसे बाँधा गया। पीटा गया। फिर उसे सूली पर चढाये जाने का शाही फरमान जारी हो गया। राजा के घर में सेंध?

भैंस की प्यास और क्षत्री के कोप की कोई सीमा नहीं होती । दरबार में बेडियों में जकड़े चोर कवि को देखते ही दूध के उफान सा क्रोध राजा के सर चढ उफ़ना गया। पर कहता क्या? वह चोर जिसे दस बरस से राज की सारी सेना खोजती थी,  उसे शयनकक्ष मे पनाह देती उसकी अपनी लड़की को भी तो बाप के मान का ध्यान न रहा!

दंड दो इसे, कठोरतम दंड। हुकुम हुआ।

महामंत्री ने हाथ जोड दिये,’महामना, आपके कलाप्रेम से देश परिचित है। मातृभाषा के पुजारी विमल सरस्वती दास हो आप! और यह दु्ष्ट सरस्वती का चरदपुत्र कवि! राष्ट्रहित में मेरा अनुरोध है सूली तक ले जानेवाली पचास सीढियाँ चढते चढते इस अभागे के मुख से उसकी अंतिम पचास कवितायें सुन ली जायें।

प्रार्थना मंज़ूर हुई ।

सूली वाले दिन काव्यप्रेमियों और साहित्य संगीत से शून्य किंतु अपनी ही धृष्ट संतान से छले गये माता पिता और जबरन अनचाहे विवाहों मे डाले गये नागरिकों की भारी भीड़ जुट गई।

कवि चोर जंज़ीरों में बंधा सीढियां एक एक कर चढने लगा। ढिठाई से मुस्कुराता हुआ वह सीढी दर सीढी एक एक अद्भुत् श्लोक में अपने विगत प्यार की कथा कहता चला। उसका लक्ष्य राजा नहीं, जो यामिनी पूर्णतिलका का बाप था। मंत्री भी नहीं जो उसकी कविता अपने नाम से छपा कर उसे स्वर्णमुद्रायें भेजता रहा था। वह भीड भी नहीं जो अपने विनष्ट सपनों की सज़ा उसे भुगतते हुए देखने का पर उत्पीड़न सुख लेने आई थी।

उसकी कवितायें सिर्फ उन भयभीत मृगी जैसे नयनों को संबोधित थीं, जिनकी स्वामिनी खंभे के पीछे छिपी खडी उसको सुनती थी।

‘आज फिर देखता हूं मन की आंखों से

सपनों के भंवर तिरते उन आंखों में,

जब जब शरीरों ने हमको आनंद में गोता लगाने को पुकारा

जब हम मछुआरे धीरज की डोर सहित मछलियों के बीच सानंद डूबते थे,

हमारे ऊपर उड़ती चिड़ियों की डार की छाया सी

बन गई थी दुनिया राजा रानी प्रजा और चोरों कवियों समेत।

माया हमको भंवर में घूमते दारु खंडों सा घुमाती रही…

आज जब प्राण कंठागत हैं

उस अनावृत रूप छुरी का स्पर्श

फिर जबरन खोल देता है उजली खिड़की,

कुछ दूर तक नदी, पहाड़, फिर भंवर, बस भंवर में आनंद से डूबता मन।’

इधर चोर की निष्प्राण देही झूली, उधर राजकुमारी पछाड़ खाकर गिरी फिर न कभी उठी।

आग ने दोनों को दाग दिया। नदी ने दोनों को बहा दिया।

कुछ लोग कहते हैं, राजा ने चोर को माफ करके राजकुमारी का हाथ उसे पकड़ा दिया था ।

कुछ का कहना है कि एक झिलमिल करता रथ उतरा आकाश से और सहसा सबका जी फीका हो गया। प्राण अकुला उठे और इसी बीच इंद्र की परियाँ आकर राजकुमारी और चौर कवि की अंगूठे बरोबर आत्मा को गाती हुई देवलोक ले गईं।

कुछ से हमने यह भी सुना कि कवि ने मरते मरते अपनी मृत प्रेमिका को अपने प्रिय धनुष की सारी आभा दे दी। लडकी मर कर बादलों की ओट हो गई तो लड़के की आत्मा उसके गिर्द का इंद्रधनुष बन गई। जब जब इंद्र धनुष उगता है, तब तब मोरों के जोडे केहां केहां कर नाचने लगते हैं। उनका आनंद देख कर आसमान से टप टप बादलों से जल गिरता है।

भोले लोग उसे कहते हैं वर्षा!

अब किसी को कैसे पता कि क्या हुआ। जो हुआ सो ठीक नहीं हुआ यह सब जानते हैं।

हमने जितना सुना उतना कहा। बाकी तुम जानो, तुम्हारा काम!

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प्रवीण कुमार झा की कहानी ‘अहुना मटन’

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 प्रवीण कुमार झा की यह कहानी पढ़िए। चंपारण के अहुना मटन के बहाने एक ग्लोबल कहानी-

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 ‘ग म धss…ग म धsss’

 भोर के घुप्प अंधकार में धैवत को आंदोलित करते भैरव गा रहा हूँ कि शायद कोई करिश्मा हो जाए। छत पर तिरछी खिड़की के शीशे को ताक रहा हूँ कि शायद आज सूर्य उग जाएँ। अलबत्ता आलम यह है कि कमरे के भीतर का अंधकार कमरे के बाहर के अंधकार से कुछ छटाँक अधिक रौशन है। मैं चाहूँ तो बत्ती जला कर इस शुबहे को और पुख़्ता कर सकता हूँ, मगर वह सुबह ही क्या जो बत्ती जला कर नजर आए? आज नहीं तो कल, सूर्य को उगना ही है। वह भी उगे बिना कहाँ चैन से बैठने वाले।

 पुणे के एक चिकित्सक मित्र ने रमेश तेंदुलकर की कविता फ़ोन पर सुनायी,

 

‘सूर्य विश्वाला प्रकाशित करतो

हे एक अर्धसत्यच

अर्द्ध विश्व त्या क्षणी

पूर्ण अंधारात बुदलेले अस्ते’

 पूर्ण सत्य तो यही है कि सूर्य विश्व को प्रकाशमय नहीं करता, आधी दुनिया को अंधकारमय करता है। मेरी किस्मत ने मुझे उसी आधी दुनिया में लाकर पटक दिया।

 “सुनो! यह आ आ आ आ बंद करो। आज शालोट आ रही है। भूल गए?”

 भैरव की शूलताल बंदिश अपने उरूज पर थी, धड़ाम से ‘सम’ पर गिरते-गिरते बची। मैंने बत्ती जला कर सुबह कर ली। पास रखा गुनगुना पानी लेकर गला खखारा। अपनी तनी हुई पीठ को दो अंश अधिक ताना और अपने गले से एक इंच आगे झांकते आदम के सेब को सहला कर मन ही मन कहा, “गुरु! तुमने भी अच्छा गाया। एक दिन तुम मेरी जगह मंच पर गाओगे। ऐसे ही घुप्प अंधेरे में। शायद बनारस के किसी घाट पर किसी उत्सव में, जब तक राजन-साजन मिश्र और भी बूढ़े हो चुके होंगे। तब गंगा किनारे बैठ गाना। जैसे-जैसे तुम्हारे स्वर धैवत से निषाद की ओर प्रस्थान करेंगे, सूर्य क्षितिज से उगता जाएगा। उस वक्त तुम गंगा में डुबकी लगा कर उस आधे सूर्य को तलाशना जो अब भी क्षितिज के नीचे ही है। जो अभी उगा नहीं है।”

 किंतु, बनारस तो भविष्य है। वर्तमान तो यह है कि शालोट आ रही है, और मैं भूल गया हूँ। यह भी एक आश्चर्य ही है कि जिस व्यक्ति ने तमाम मर्ज, नुस्ख़े, लम्बे-लम्बे लैटिन नाम, किताबों की फ़ेहरिस्त जेहन में रखा, जिसकी स्मृति का लोहा बड़े-बड़े तीसमार खाँ मानते रहे, वह कैसे भूल गया कि शालोट आ रही है? शायद यह बात कभी दिमाग की सिलवटों में दर्ज ही न की गयी हो। यह ‘भूल गए’ ताना न होकर वाक्य की टेक भर हो, क्योंकि मेरी स्मृति में तो मैं किसी शालोट को जानता तक नहीं। भूलने का तो सवाल ही नहीं उठता।

 “कौन शालोट?” मैं तीसरी मंजिल के तिकोनाकार कमरे से चिल्लाया, और मेरी आवाज सीढ़ियों के बीच से गुजरती पहली मंजिल तक पहुँची।

 “अरे? शालोट! मेरी दोस्त! तुम्हें बताया तो था।” यह आवाज जैसे सीढ़ी बायपास कर सीधे कानों के परदे पर दस्तक दे गयी।

 “हाँ हाँ! शालोट। तुम्हारी दोस्त। मुझे लगता है तुमने यह नाम अभी-अभी जोड़ा है। पहले सिर्फ दोस्त कहा था।” यह कहते-कहते मैं और मेरी आवाज़ साथ-साथ सीढ़ियों से नीचे आ गए।

 “तुमने कहा था कुछ स्पेशल बनाओगे। याद करो।” इस ‘याद करो’ में ‘भूल गए?’ की पुनरावृत्ति थी।

 मैंने अपनी याद्दाश्त पर लगे आरोप-प्रत्यारोप को धत्ता बताते कहा, “हाँ! मैंने सब सोच रखा है। मैंने तिवारी से बात भी कर ली।”

 “कौन तिवारी?”

 मैं अकचकाया कि यह पूछने का अधिकार तो मुझे भी था।

 “जैसी तुम्हारी दोस्त शालोट। वैसा ही मेरा यार मुन्ना तिवारी। दुबई वाला?”

 “तुम्हारे यारों की लिस्ट इतनी लंबी है कि कितने याद रखूँ? अब सोच रखा है तो बना लेना। वे लोग बारह बजे तक आ जाएँगे।”

 “ठीक है। वैसे ये शालोट नाम तो फिरंगी लगता है।”

 “बस नाम शालोट है, चेहरे से पूरी सांवली सावित्री। गोवा से है वह।”

 “यह नस्लवादी बात कर दी तुमने। वह भी सुबह-सुबह? तुम्हें मालूम है अब मैं नस्लवादी नहीं रहा।”

 “अब नहीं रहे मतलब?”

 “मतलब कुछ नहीं। यह बताओ कि शालोट का पति फिरंगी तो नहीं?”

 “हाँ! वह नॉर्वेजियन है। सुमित।”

 “ये कैसे-कैसे लोग हैं? एक शालोट है जो भारतीय है, एक सुमित है जो फिरंगी है!”

 “सुमित बचपन में ही गोद ले लिया गया था। यहीं पला-बढ़ा। उसके माता-पिता नॉर्वेजियन हैं।”

 “और रेसीपी दे रहे हैं दुबई से मुन्ना तिवारी!” मैंने ठहाके लगाते कहा।

 “इस तिवारी ने तो जरूर शाकाहारी रेसीपी दी होगी।”

 “क्यों? चम्पारण का तिवारी है। सौ प्रतिशत मटनहारी।”

 “लेकिन, मटन तो घर में है ही नहीं”।

 “वह सब मैंने इंतजाम कर रखा है। बशीर भाई ओस्लो गए थे। लेते आए।”

 “तुम और तुम्हारे बशीर भाई! बकरे के बदले मेमना न उठा लाए हों।”

 “अब मेमने-बकरे का फ़र्क़ क्या हम हिंदुस्तानी सिखाएँगे? कमाल करती हो! यह तो उनका खानदानी पेशा होगा मीरपुर में। किस्मत पलट गयी तो डाक्टर बन गए”।

 “देख कर तो कसाई नहीं लगते”

 “देख कर भला कसाई ही कहाँ कसाई लगता है। वैसे यह सुमित देख कर कैसा लगता है? सुमित या स्टीव? कहते है गोरों के बीच पल कर भूरे भी गोरे हो जाते हैं”।

 “अब यह मालूम नहीं। मैं पहले कभी मिली नहीं।”

 बाहर बर्फीली ओस गिरी थी, जिसके नीचे कुछ कुम्हलाए से घास अपने होने का अहसास करा रहे थे। मैं जैकेट-टोपी पहन कर बशीर भाई के घर निकला ही था कि बशीर और उनकी तोंद सामने से चले आ रहे हैं। तोंद मेरी भी है, लेकिन बशीर भाई की तोंद चार इंच ज्यादा है।

 “सलाम वालेकुम बशीर भाई!”

 “वालेकुम सलाम! आज सुबह सुबह?”

 “आप भी तो सुबह सुबह?”

 “मैं तो रोज सैर पर निकलता हूँ। सोचा कि आपको गोश्त दे आऊँ।”

 “आपकी भाभी कह रही थी कि मेमना ले आए होगे।”

 “नहीं जी नहीं। बकरी खुद कटवायी है सामने।”

 “कटवायी है या खुद ही पकड़ कर काट लाए?”

 “अब कटा तो हलाल ही है। झटका काटते हैं नॉर्वेजियन। उनसे कटवा लेते?”

 “यह बकरी इस मुल्क में आप पाकिस्तानियों की वजह से ही कटती है। मालूम है?”

 “हाँ! सब मालूम है डाकसाब! एक लतीफ़ा सुनें!”

 “नहीं नहीं। अभी आपके वाहियात लतीफ़े सुनने का वक्त नहीं है। फिर कभी।”

 “सुनिए तो सही। यह लतीफा नहीं है, शे’र है।”

 “चलिए, इरशाद!”

 “अर्ज किया है। काग़ज पर लिखी ग़जल…काग़ज पर लिखी…”

 “ग़जल! वाह!”

 “बकरी चबा गयी। काग़ज़ पर लिखी ग़जल बकरी चबा गयी…चर्चे हुए शहर में!”

 “बकरी शेर खा गयी”

 “आपने सुन रखी है?”

 “आपको क्या लगता है कि ऐसे वाहियात शे’रों का ठेका बस लाहौर ने ले रक्खा है।”

 “अच्छा सुनो! आज खाने पर नहीं आ सकूँगा। किसी और को दावत दे रखी है।”

 “दावत तो हमने भी दे रखी है।”

 घर पहुँच कर मैं बरामदे में बार्बेक्यू-स्टैंड पर अलाव जलाने की तैयारी में जुट गया। जावा द्वीप के एक मित्र ने मिट्टी का चौकोर मटका तोहफ़े में दिया था। यह कोई ताज्जुब की बात नहीं, जापान में तो तरबूज भी चौकोर होते हैं, तो जावा में मटके क्यों नहीं? उसने कहा था कि इसमें भाप वाली शामन मछली पकाना। मैं एक साल तक ताख के ऊपर रख कर भूल गया था। हालांकि वह मटका मुझे रोज रियाज़ के वक्त घूरता रहता, और मैं उसे। हम दोनों एक-दूसरे का प्रयोजन भूल गए थे। उस इंडोनेशियाई मटके भी नहीं सोचा होगा कि उसके गर्भ में चम्पारण का अहुना मटन पलेगा। बशर्तें कि वह मटका हज़ारों वर्ष पहले चम्पारण की सैर कर चुका हो। मेरा व्यक्तित्व जानने वाले यह जानते हैं कि मैं सौ-हज़ार साल की बात यूँ करता हूँ जैसे कल की बात हो।

 “कैसे हो?”, मेरे अधेड़ सूडानी पड़ोसी ने बाड़ की दूसरी तरफ से पूछा। यह सवाल वह साल में एक या दो बार ही पूछते हैं, और फिर अपनी सूडानियत में कहीं गुम हो जाते हैं।

 “ठीक हूँ। बकरी का मांस पका रहा हूँ। आपने चखा है?”

 “हूँ”, उन्होंने लगभग बुझे मन से कहा, और अपनी सिगरेट बुझा कर अंदर चले गए। मैं भी कुछ भोजपत्र की लकड़ियों को चीर कर छोटा करने लगा।

 “…हमने तो खूब खाया है। अब भी खाते हैं।” उन्होंने अचानक लौट कर कहा, और इस बार उनकी खिली बाँछें देख कर मैं अचम्भित हो गया।

 “लेकिन यह अलग तरह का मांस है। मिट्टी के बर्तन में पकता है।”, इस बार मैंने उनकी बात को अनदेखा किया।

 “हाँ हाँ! सारे मसाले डाल कर बर्तन बंद कर दो। वही न?”, उन्होंने पुन: चकित किया।

 “लेकिन यह तो भारत के एक ख़ास स्थान की ख़ासियत है।”, मैंने ख़ास पर जोर देते हुए कहा।

 “भारत में भी बनाते होंगे। सूडान में भी बनता है।”, उन्होंने बात पर मिट्टी डालते कहा।

 “यह तो नॉर्वे में भी बनता है”, मेरी पत्नी ने बात पर पड़ी मिट्टी पर ढेला फेंकते कहा।

 “नॉर्वे में आखिर कैसे अहुना मटन बन सकता है? यह चम्पारण की डिश है।”, मैंने लगभग भड़कते हुए कहा।

 “यह तो यहाँ का राष्ट्रीय भोजन है। माँस में काली मिर्च और खरे मसाले डाल कर एक पत्तागोभी डाल दो और बर्तन को आटे से सील कर दो। तीन घंटे धीमी आँच पर छोड़ दो!”

 “अब इसमें पत्तागोभी कहाँ से आ गया? यह अहुना मटन है। हर मिट्टी के बर्तन में बनने वाला मांस अहुना नहीं होता।”, मैंने सारी दलीलों को ख़ारिज कर कहा।

 “मगर ऐसे भोजन दुनिया भर में बनते तो हैं। इनके सूडान में भी बनता है।”

 एक पल में मेरा संपूर्ण श्रम और चिंतन जैसे अपना वजूद तलाशने लगा। जैसे थॉमस अल्वा एडीशन बल्ब का आविष्कार कर उत्साहित हों, और उन्हें कहा जाए कि ऐसे बल्ब तो घर-घर में जलते रहे हैं। संभव है जलते भी रहे हों। लेकिन, यह अहुना तो चम्पारण की ही खोज है, बल्कि बल्ब से बड़ी खोज है। मेरे तर्क को अब बौद्धिक संदर्भास्त्र की आवश्यकता थी। मैं अलाव, मटका और मांस त्याग ऊपर अपने रियाज़ की जगह पर धुनी रमाने लग गया।

 कुछ देर कंप्यूटर की खिटर-पिटर के बाद मैं चिल्लाया, “यह सिंध प्रांत से चंपारण गया!”

 कुछ देर बाद मैं फिर से चिल्लाया, “यह दरअसल चंगेज़ ख़ान के किरात मूलक वंशज लेकर आए”

 मैं आखिरी बार उत्साहित होकर चिल्लाया, “यह नागालैंड के सूमी आदिवासियों के अहुना उत्सव से जन्मा! बस यही सही है। मुझे उत्तर मिल गया।”

 मैं ये सभी साक्ष्य अपनी जेब में खोंस कर ला रहा था, और साक्ष्य सीढ़ियों पर गिरते जा रहे थे।

 “शायद वे लोग कुछ जल्दी आ जाएँ। वे निकल चुके हैं।”, उसने कहा और मेरे बिखरे हुए साक्ष्य टका सा मुँह लिए मुझे देखते रह गए।

 “तुम्हारे मन में यह प्रश्न नहीं उठता कि कोई चीज कहाँ से आयी?”, मैंने पूछने की शैली में पूछा।

 “उठता है। कई बार उठता है। यह जो आदमी मेरे सामने खड़ा है, वह आखिर किस ग्रह से आया?”, उसने जवाब देने की शैली में जवाब दिया।

 मैं किस ग्रह से आया हूँ? यह प्रश्न मेरे शरीर के कण भी कई बार पूछते हैं। ख़ास कर मेरे डीएनए में पिरोए हुए नाइट्रोजन। मैं उन्हें कहता हूँ कि तुम प्रोटीन से आए, जो मैं मांस रूप में खाता हूँ। वे पूछते हैं कि मांस में वह कहाँ से आया? मैं कहता हूँ कि बकरी ने जो पौधे खाए, उनसे आया। और पौधों में? मिट्टी में दबे नाइट्रोजन से। और मिट्टी में? इसका जवाब ढूँढते हुए मैं सूर्य की ओर देखने लगता हूँ। करोड़ों वर्ष पूर्व एक सूर्य की तरह ही तारा जब बूढ़ा हो चला तो सुपरनोवा बन कर फट पड़ा। उसके अंश ब्रह्माण्ड में बिखर गए, और कुछ टूट कर पृथ्वी पर आ गिरे। वही डब्बा-बंद नाइट्रोजन लेते आए, जो मिट्टी से पौधे में गए, पौधे से बकरी मे, और बकरी से मेरे शरीर में आ गए। मैं, मेरी पत्नी, यह सूडानी और दुनिया के तमाम लोग उसी तारे के टुकड़ों से बने हैं। यह रहस्य मैं अपनी किसी किताब में खोलूँगा, और उसी किताब में एक अध्याय में इस अहुना-द्वंद्व को भी सदा के लिए समाप्त कर दूँगा। इस निश्चय को मैं बनारस के मंच पर राग भैरव गाने के निश्चय के साथ फिलहाल नत्थी कर देता हूँ।

 अगले कुछ मिनटों में अहुना मटन का भविष्य किसी चुनाव की मतपेटी की तरह मिट्टी के बर्तन में सील हो गया। अब मेरे पास न उसे लारने की स्वतंत्रता थी, न बघारने की, न ढक्कन खोल-खोल सूँघने की, न स्वाद लेने की। मैंने सरसों तेल शायद कुछ अधिक डाल दिया? तिवारी ने भी इस विषय पर स्पष्ट राय नहीं दी थी। उसने किसी हारी हुई पार्टी के चुनावी प्रवक्ता की तरह कहा था कि निष्कर्ष कई बिंदुओं पर निर्भर करता है। लेकिन, यह नहीं बताया कि वे बिंदु आखिर हैं क्या? खैर।

 “देखना! शायद वे लोग आ गए। गाड़ी पार्क करवा देना।”, यह सुन कर मैं बाड़ के दरवाजे से निकल कर बर्फीली ढलान में लुढकते-फिसलते उनकी गाड़ी तक पहुँचा।

 “टेक राइट फ्रॉम दैट वाइट डोर!” मैंने सुमित को कहा।

 सुमित वाकई सर से गर्दन तक फिरंगियों की तरह गोरा था। बाकी का तन ढका था। गोरा ही होगा। शालोट सांवली नहीं थी, काली थी। मैं अब रंग में ग़लतियाँ नहीं करता। यूँ भी अब मेरी पहचान मेरा रंग ही है। मेरे सूडानी पड़ोसी की तरह?

 मेहमानों को घर लाकर मैं सीधे बाहर पक रहे मटन के पास ले गया। मुझे लगा कि इससे आगंतुक आश्वस्त हो जाएँगे कि भोजन की व्यवस्था है। यह नॉर्वेजियन नियम भी है कि ड्राइंग-रूम में न बिठा कर सीधे भोजन की मेज पर बिठा दिया जाए। ख़्वाह-म-ख़्वाह के लटारम्भ नहीं। लटारम्भ कोई आंचलिक शब्द नहीं, यह नाट्यारंभ का अपभ्रंश है। ‘सैकड़ों’ वर्ष पूर्व मूल नाटक से पहले घंटा भर नाट्यारंभ ही चलता, और दर्शक जब इस प्रतीक्षा में पक चुके होते कि नाटक शुरू कब होगा, तब जाकर कहीं पात्र मंच पर आते। यह साक्ष्य मुझे भरत मुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित एक ट्वीट में मिला, जो किसी भरतमुनि नामक अप्रमाणित एकाउंट से ही किया गया था। उस वक्त मैंने झट से रीट्वीट कर तथ्य का अनुमोदन कर दिया था।

 “तुम्हें पता है सुमित, यह भारत के चम्पारण का ख़ास मटन है?”, मैंने नाटक सीधे शुरू करते कहा।

 “नहीं। चम्पारण?”

 “वहीं जहाँ गांधीजी ने सत्याग्रह किया था?”

 “लेकिन वह तो शाकाहारी थे? बकरी का दूध पीते थे?”

 “उन्हें किसी ने यह खिलाया होता तो वह शाकाहारी न होते। शाकाहारी तो तिवारी भी था।”

 “कौन तिवारी?”

 मैंने भी आखिर कैसे तिवारी को गांधी के साथ तौल दिया? मुझे न जाने क्यों लगा कि वह गांधी को जानता है तो तिवारी को भी जानता होगा। दुनिया में मेरे अलावा तिवारी को जानता ही कौन है? मेरी पत्नी भी तो नहीं जानती। चम्पारण से परिचय गांधी का है, तिवारी का नहीं। भले तिवारी और उसकी पिछली सात पुश्तें चम्पारण की मिट्टी में मर-खप गयी हों।

 “अरे छोड़ो तिवारी को। यार है मेरा। तुम दोनों कब और कहाँ मिले? यह सुनाओ!”

 “अरेंज मैरेज़”

 “क्या? नॉर्वे में?”, मैंने चौंक कर पूछा।

 “नही। भारत में। शादी एजेंट के माध्यम से।”

 “नॉर्वे के एक लड़के ने गोवा की एक लड़की से यूँ ही शादी कर ली?”, मैंने अपने प्रश्न से ‘काली’ शब्द को नहीं आने दिया।

 “तुम यही पूछना चाहते हो न कि इस काली लड़की से कैसे शादी कर ली?”, शालोट ने हँसते हुए उस शब्द को मेरे हलक से निकाला।

 “नहीं नहीं। यहाँ इस तरह के विवाह होते नहीं। इसलिए पूछा।”

 “इसे एक भारतीय लूथेरान ईसाई से शादी करनी थी। बस।”

 “लेकिन गोवा में तो कैथोलिक…”

 “तभी तो। लाखों में बस एक मैं ही थी। मेरी भी शादी नहीं हो रही थी, और इसे भी कोई मिल नहीं रहा था।”

 “कमाल चीज है न यह अरेंज्ड मैरेज! तुम दोनों का भविष्य कुछ यूँ बंद था जैसे इस मटके के अंदर मटन”, मैंने बशीर भाई के अंदाज़ में लतीफ़ा ठोका।

 “ऐसा नहीं है। हम कई बार मिले भी। मैं भारत जाता रहता था। हमने एक दूसरे को पसंद किया।”

 “तुम पहले भी कभी भारत गए? जड़ें तलाशने?”

 “तुम क्या पूछना चाहते हो?”, यह वाक्य उसने फिरंगी अंदाज़ में ही अकड़ कर कहा।

 “नहीं। कुछ नहीं। बस यूँ ही।”

 “हाँ! मैं अपनी जैविक माँ से एक बार मिल चुका हूँ।”

 “अच्छा है”

 “फिर कभी नहीं मिला। मेरे माँ-बाप तो यहीं हैं।”

 “हाँ हाँ! उन्होंने तो यह निर्णय सोच-समझ कर ही लिया होगा।”

 “मैंने उनको पहले नहीं देखा था। वह शायद मेरे पैदा होते ही अनाथालय में छोड़ गयी थी। मुझे तो नाम-पता भी एजेंसी से ही मालूम पड़ा।”

 “कोई वजह रही होगी।”

 “वह किसी राजा की रखैल थी।”

 

“अरे नहीं। अब कहाँ राजा-महाराजा?”

 “राजा की फैमिली होगी। मुझे पता नहीं मेरे जैविक पिता कौन हैं? मेरी माँ तो जंसी में रहती है।”

 “झांसी?”

 “हाँ हाँ!”

 “झांसी से आगे तो रजवाड़े ही रजवाड़े हैं। पन्ना है। मैहर है। ओरछा है। ग्वालियर है। इनमें कहाँ कहाँ ढूँढोगे? तुम्हें पता है झांसी की कहानी भी दत्तक पुत्र से…”

 “जो भी पिता हो, मुझे नहीं जानना”

 मैं इस उत्तर से कुछ सहम गया। उसे नहीं जानना कि उसके पिता कौन हैं। उसके शरीर के डीएनए कहाँ से आए? मेरे कद का और मेरी उम्र का व्यक्ति इस प्रश्न से मुक्ति पा चुका है? शायद वह जानता है कि वह भी उसी ग्रह से आया है, जिससे मैं आया हूँ। एक ही तारे से टूट कर। उसी से शालोट भी तो आयी है, जिसका रंग शायद सांवला ही है। मुझे सूर्य की अनुपस्थिति में वह काला दिख रहा था। अगर वह किसी और गोलार्द्ध में होती, जहाँ सूर्य कुंडली मार कर बैठे होते तो वह गोरी होती।

 “मैं इंडिया कुकबुक से कभी-कभी खाना बनाता हूँ। यह रेसीपी उसमें है?”, सुमित ने पूछा।

 “शायद होगी। मैं पूछ कर बताऊँगा। उसके लेखक मेरे ख़ास दोस्त हैं। मैं हिन्दी लेखक भी हूँ।”, मैंने ख़ास और लेखक पर जोर देकर कहा।

 “हिन्दी लेखक हो तो क्या सबको जानते हो?”, मेरी पत्नी ने मेरा घमंड तोड़ते कहा।

 “अरे, यह देखो! उन्होंने मेरे ट्वीट को रीट्वीट किया है। मेरे बहुत अच्छे मित्र है…”

 मैं वह ट्वीट ढूँढने में कहीं खो गया। अर्थहीन साक्ष्यों, गोत्रों, मूलों की जद्दोजहद में मैं भी किसी क्षितिज पर अस्त हो रहा था।

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सांता जो किताबें लेकर आने वाला है!

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हमारे जीवन में पर्व त्योहारों का बहुत महत्व है। अपनी अपनी ख़ुशियों को साझा करने के अवसर होते हैं ये पर्व त्योहार। पिछले कुछ दिनों से ऐसे मौक़ों को राजकमल प्रकाशन समूह किताबों के साथ मनाने की योजना लेकर आता रहा है। यह समूह इस बार क्रिसमस पर ‘किताबों वाले सांता’ की योजना के साथ आया है। आइए इस योजना के बारे में जानते हैं और इसका लाभ उठाते हैं-

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  • सबतक ज्ञान की खुशी पहुँचाने के लिए हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशन समूह की विशेष पहल।
  • पुस्तक प्रेमियों के लिए विभिन्न विषयों और विधाओं की किताबों के 50 सेट पेश किए।
  • इन सेटों में से चुनकर अपने दोस्तों-करीबियों को लोग उपहार में किताबें भिजवा सकते हैं।

  • घोषित सेटों में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पन्त, रामधारी सिंह दिनकर, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह जैसे कवियों के काव्य-संग्रह और गुलज़ार, स्वानंद किरकिरे एवं पीयूष मिश्र सरीखे लोकप्रिय लेखकों की कृतियाँ शामिल हैं।
  • देवदास, चित्रलेखा, साहब बीवी गुलाम, उमराव जान अदा से लेकर राग दरबारी, मैला आँचल, आधा गाँव, पाकिस्तान मेल और तमस जैसे कालजयी उपन्यास भी सेट में शामिल।
  • महात्मा गाँधी, भगत सिंह, स्त्री विमर्श, आत्मकथा, जीवनी,ऐतिहासिक उपन्यास समेत अनेक विषयों और विधाओं की किताबें भी सेट के तहत उपलब्ध।

नई दिल्ली :  क्रिसमस के मौके पर सभी पुस्तक प्रेमियों के लिए राजकमल प्रकाशन किताबों वाले सांता को लेकर आया है। इस अनूठी पहल के तहत कोई भी व्यक्ति राजकमल के जरिये अपने दोस्तों और करीबियों के पसंदीदा लेखकों-कवियों की किताबें क्रिसमस के उपहार स्वरुप भिजवा सकता है। इसके लिए पाठकों की रुचि को ध्यान में रखकर प्रकाशन समूह ने विभिन्न विधाओं और विषयों की किताबों के पचास सेट घोषित किए हैं, ताकि लोग उपहार देने के लिए पसंदीदा किताबें आसानी से चुन । इन पर तीस प्रतिशत की छूट भी दी जाएगी।

किताबों वाले सांता द्वारा तैयार किए विशेष सेट में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिंदी कवियों की किताबें और वह चर्चित उपन्यास हैं, जिनपर बेहतरीन फ़िल्में बन चुकी हैं। गांधी-साहित्य, स्त्री विमर्श, आत्मकथा, यात्रा-वृत्तान्त, जीवनी, कहानी-संग्रह, ऐतिहासिक उपन्यास, दस्तावेजी साहित्य और विभाजन विषयक चर्चित किताबें भी इनमें शामिल हैं। पाठकों की रुचि का ध्यान रखते हुए इन सेटों में गीतकार गुलज़ार की ‘पाजी नज़्में’, स्वानंद किरकिरे की ‘आपकमाई’ एवं पीयूष मिश्रा की ‘कुछ इश्क किया कुछ काम किया’ सरीखी बेस्टसेलिंग काव्य-कृतियाँ भी शामिल की गई हैं।

राजकमल प्रकाशन समूह के प्रबंध निदेशक अशोक माहेश्वरी ने कहा, “साल बीतते-बीतते क्रिसमस की छुट्टियों का इंतजार सबको रहता है। उससे भी अधिक इंतजार रहता है सांता बनने का या सांता के आने का! सांता विस्मयकारी खुशियाँ लेकर आते हैं। विस्मय कुछ नए का, निःस्वार्थ प्रेम का। सांता ज्ञान के विस्मय से भी भर सकते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए हमने इस बार पुस्तक प्रेमियों के लिए विशेष पहल की है कि वे इस बार किताबों वाले सांता बनें और अपनी पसंद की किताबों के तोहफे से अपने मित्रों-परिचितों को विस्मित करें। उन्होंने कहा, ज्ञान की खुशी की  तुलना किसी और खुशी से नहीं हो सकती। यह खुशी हम समाज के सभी लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं।

उन्होंने बताया, ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मानित हिंदी कवियों में महादेवी वर्मा की ‘यामा’, सुमित्रानंदन पन्त की ‘चिदम्बरा’, रामधारी सिंह दिनकर की ‘रश्मि लोक’, कुंवर नारायण की ‘इन दिनों’ और  केदारनाथ सिंह की ‘अकाल में सारस’ जैसे काव्य-संग्रहों के सेट तैयार किये हैं। वे उपन्यास जिनपर मशहूर फ़िल्में बनी हैं उनके भी सेट तैयार किये गये हैं इनमें ‘देवदास’, ‘चित्रलेखा’, ‘साहब बीवी गुलाम’, ‘उमराव जान अदा’ आदि उपन्यास हैं।

गाँधी साहित्य के सेट में ‘गाँधी की मेजबानी’, ‘गाँधी और अकथनीय’, ‘महात्मा गाँधी : जीवन और दर्शन’, गाँधी : एक असंभव सम्भावना’ जैसे उपन्यास शामिल हैं। दस्तावेजी साहित्य में ‘भगत सिंह को फांसी-1’, ‘भगत सिंह को फांसी-2’, ‘भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़’ एवं ‘क्रांतिवीर भगत सिंह’ पुस्तकें हैं। विभाजन पर केन्द्रित पुस्तकों में खुशवंत सिंह ‘पाकिस्तान मेल’, भीष्म साहनी ‘तमस’ आदि शामिल हैं। कालजयी रचनाओं में ‘राग दरबारी’, मैला आँचल’, ‘आधा गाँव’, बूँद और समुद्र’ आदि उपन्यास हैं।

अगर कोई व्यक्ति इन सेटों के अतिरिक्त राजकमल प्रकाशन समूह की अन्य किताबों में से उपहार देने के लिए चुनेगा तो उसे उन किताबों पर भी बीस प्रतिशत की छूट दी जाएगी।

यह विशेष पहल 31 जनवरी, 2021 तक जारी रहेगी।

www.rajkamalbooks.in

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युवा कवि शाश्वत की कविताएँ

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बनारस के युवा शाश्वत की कविताओं की तरफ़ युवा कवयित्री अनामिका अनु ने ध्यान दिलाया। ताज़गी से भरी ये कविताएँ साझा कर रहा हूँ-
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1.छोड़े गये प्रेमी
 
छोड़े गये प्रेमी……
 
छोड़े गये प्रेमी खूब गज़ब होते हैं ,
उन्हें बिंधती है बड़े भाई की कटीली मुस्कान !
जगजीत सिंह जब गाते हैं, उन्हें बिराते हैं !
छोड़े गये प्रेमी
छोड़ते हैं रंग ,
अपनी ‘बाय थ्री गेट वन फ्री’ वाली टी शर्ट की तरह
कि जिसमें तीन अपने लिये,
एक उनके लिये ,
मात्र छः सौ निन्यानवे में
छोड़े गये प्रेमी
पूछ भी नहीं सकते कि
क्या तुम्हारी वाली टी शर्ट का भी छूट रहा है रंग ?
 
छोड़े गये प्रेमी
गांधी आश्रम के पर्स के मानिंद दोहरी सिलाई वाले होते हैं ! जिनमें होती है भरपूर जगह
भर-भर के प्यार भरा होता है
जिनमें होती है एक चोर पॉकेट
जिसमें छिपा कर रखते हैं
पहले दिन के कुरकुरे के पैकेट
आख़िरी दिन का छोटा रिचार्ज
दिलवाले की टिकट और
होने वाले बच्चों के नाम तक
 
छोड़े गये प्रेमी
जब-तब झिझोड़ते हैं चोर पॉकेट
टूटा दिल छुट्टे पैसों सा खनकता है
जो मोल न पाए
वह भी चुभता है
 
छोड़े गये प्रेमी देख तो चाँद तक सकते हैं
मगर नही देख पाते
बैग के दूसरी तरफ लगे
झन्नाटेदार चेन को भी
 
छोड़े गये प्रेमी
दो माह , तीन ट्यूशन के बाद
चांदी के पायल हो जाते हैं
झनक उठते हैं उसी पायल की तरह
जब भी देखते हैं ,
चालीस किलो की कोई भी झिलमिलाती लड़की ।
 
छोड़े गये प्रेमी
छोड़ते हैं खूब लम्बी साँस
और
पिघल कर महावर हो जाते हैं
 
छोड़े गये प्रेमी
छूटते तो नही हैं….
हाँ मगर,
छोड़ दिये जाते हैं…….!
 
 
 
2.आत्महत्या ऊपर उठती दुनिया की सबसे आखिरी मंजिल है
 
सात आसमानों के पार आठवें आसमान पर
जहां आकर चांद रुक जाता है
सूरज की रौशनी पर टूटे सपनों के किरचें चमकते हैं
दिन और रात की परिभाषायें रद्द हो जाती हैं
कि आत्महत्या
ऊपर उठती दुनिया की सबसे आखिरी मंजिल है
प्यार के भी बाद किया जाने वाला सबसे तिलिस्मी काम।
 
कोई है
जिसके पास बहुत कुछ
सुबहें उम्मीद से जगमगाई
शाम चांदनी की परत लिए हुए
मैं से हम होकर नूर बरसाता ख़ल्क़ पर
 
फिर किसी एक दिन
जब उसकी उम्मीद से जगर मगर सुबह को खींच कर
उसके शाम के चांदनी के परत को उतार कर
उसके मैं से हम हुये अस्तित्व को निथार कर
कोई और
अपनी सुबह शाम और खुद को रचता है
तो जानिए
प्यार के भी बाद किया जाने वाला सबसे तिलिस्मी काम है
आत्महत्या
 
मेरे दोस्त बेशक आपने प्यार किया होगा
प्रेम के गहनतम क्षणों से निवृत्त हो
मृतप्राय पड़े होगे
आपको लगा होगा
क्या यही जीवन है?
जीवन और मृत्यु के इतने करीब जाकर भी आप मरे नही
क्योंकि मरना सबके बस की बात नहीं
यह गले में सुईं चुभा कर थूक के साथ
क्रोध घोंटने की तमीज़ है
यह प्यार से भी आगे की चीज़ है
 
मुझे कुछ आत्महंताओ का पता चाहिए
मैं उनसे मिलना चाहता हूँ
शायद उन्हें जोड़कर कोई कविता बनाऊं
या फिर
आत्महत्या की भूमिका
नहीं नहीं!
मैं उनके मरने के ठीक पहले की बात जानना चाहता हूँ
यह भी जानना है कि इरादों की यह पेंग
कहां से भरी थी तुमने
 
क्या किसी बदबूदार सफ़ेदपोश की कार का धुंआ
तुम्हारे सपनों कर गया पेशाब
और तुम कुछ नहीं कर सके
 
क्या तुम्हें ऐसा लग रहा था कि
गांव के खेतों में खुल रही फैक्टरी का काला पानी
तुम्हारे बेटे की आंतें निचोड़ लेगा
और तुम कुछ नही कर सकते
 
या ऐसा की तुम्हारी बन्द हुई फेलोशिप
किसी सूट में सोने के तारों से नाम लिखवाने की बजबजाती सोच है
‘तुम कुछ नही कर सकते’ का नारा
जो बजता रहा उम्र भर
तुम्हें मूक होने के लिए उकसा रहा है
 
मैं कुछ आत्महंताओ से मिलना चाहता हूँ
आप मेरे भीतर का शोर दबा दें
आप मेरी सारी कविताएँ फूंक दें
या मुझसे स्तुति गान ही लिखवा लें
मगर मुझे उन आत्महंताओ का पता दे दें
जिनके पास प्यार करने का भी विकल्प था
पर उन्होंने नहीं चुना
 
वह तो चढ़ गये उस आखिरी मंजिल पर
जहां चांद रुक जाता है,
सूरज की रौशनी पर टूटे सपनों के किरचें चमकते हैं
दिन और रात की परिभाषाएँ रद्द हो जाती हैं
और रची जाती है
प्यार के भी बाद के तिलिस्म की भूमिका
सात आसमानों के पार आठवें आसमान पर…
 
 
 
3.ट्रेन साहब जी की बुलेट है।
 
ट्रेन साहब जी की बुलेट है
इसीलिए बस घण्टा घण्टा लेट है
सरापा युग बीता / पिता की पीढ़ी बीती
हफ्ते भर में ट्रेन का समय आंकते
कल समय से थी आज जरा सा लेट है
ट्रेन साहब जी की बुलेट है।
 
आँख आँख में सपने बेचे,
खूब तेज़ फर्राटा भर के
एक साँस में शहर नापेगी
कलकत्ते का जहर काटेगी
ओहि बुलेट रेलिया से धनिया
नइहर की धमकी टाँकेगी ।
क्योंकि भाई
ट्रेन साहब जी की बुलेट है
भले ही घण्टा घण्टा लेट है
 
तुम मूरख हो , घने विधर्मी
कइसे बुलेट ट्रेन बनाएं
कइसे धनिया को बिठलायें
खिड़की से जब पच्छम की
झनक झनक के हवा चलेगी
पल्लू तब सर पर न टिकेगा
बोलो सास बुरा मानेगी
टोला मे बदनामी होगी
कानों कानों बात उठेगी ,
बबुआ बो तो बड़ी ढीठ है
ट्रेन साहब जी की बुलेट है
इसीलिये तो घण्टा घण्टा लेट है ।
 
यू पी ने साहब को है गोद ले लिया
अब विधिवत होगा छठिहार ,
उठेगा सोहर , सजेगा घर
और उसी दिन
रेल खुलेगी फर्राटा
तो इसीलिये हाँ
शुभ शुभ दिन का वेट है
ट्रेन साहब जी की बुलेट है
इसीलिए तो घण्टा घण्टा लेट है
 
 
 
4.घर लौटना
 
त्यौहार में घर जाने वाले बच्चों की तरफ से
यह ख़त तुम्हारे नाम है मेरे गांव मेरे घर….बड़का घर।
 
मैं इस त्यौहार
शहर के किसी किनारे पर बैठ कर
तुम्हारे सपने देख रहा हूँ
मैं बार बार तुमको याद कर रहा हूँ
मुझे तुमसे मिलना है मेरे घर
अभी के अभी मिलना है
मेरे गांव,
तुम तो शहर भी नही आ सकते
शहर ही आ रहा अब तो तुम्हारे पास
 
सुबह दस बजे की आखिरी जीप के पेंग में
लोहे की खट्टी गन्ध के साथ
जब से शहर आया हूँ,
रोज़ सपने में कभी रेलगाड़ी आ जाती है,
तो कभी सड़क के मोड़ वाला जनरल स्टोर,
जहां के पटाखों से जले कई बार मेरे हाथ
 
यहां शहर में एक नदी है
लेकिन मछलियां नही हैं मेरे गांव।
यहां शहर में बैठने की जगह है
लेकिन पैर पसारने का सुकून नही है।
यहां शहर में कभी भी कहीं भी जा सकते हैं
लेकिन यह शहर कलमुहाँ,
तुम जैसे हाथ पकड़ कर नहीं ले जाता बाज़ार ।
 
मुझे यहां तुम्हारी याद आती है मेरे घर
त्यौहारों में तो रो देने का मन करता है।
 
सब याद आने लगते हैं
कैसे हर बार डांट पर
तुमने मुझे रोने के लिए सीढियां खोल दीं।
मुझे छुपने के लिए दीवारों में अलमारी गढ़ दी।
और तो और मेरे नवीं क्लास के प्यार में,
मेरे ग्रीटिंग्स तक तुमने ऐसे छुपा लिए अपने छत की गोद में,
जैसे तुम्हारा अपना अनचाहा गर्भ हो।
 
मुझे इसलिए बस इसलिए तुम्हारे पास आना है मेरे घर, मेरे गांव,
कि मैं,
जो तुम्हारे छत से उन उड़ती जहाजों की जलती-बुझती बत्तियां गिन लेता था,
उन जहाजों का ठिकाना जान गया हूँ
वो ठीक इसी शहर में आकर उतरती हैं।
 
मेरे घर,
बस यह त्यौहार तुम मुझ बिन मना लो,
अगले त्यौहार
जहाज से आऊंगा।
ठीक तुम्हारे बगल से जहाज लाकर धप्पा बोल जाऊँगा
तुम डर जाओगे और मैं वैसे ही हंस दूंगा,
जैसे बिन बात हंसते-हंसते तुम्हारी फर्श पर गिर कर
मेरे दांत गये थें टूट
मेरे घर,
आज न मालूम क्यों तुम्हारी बहुत याद आ रही
 
त्योहार में घर जाने वाले बच्चों की तरफ से
यह खत तुम्हारे नाम है मेरे गांव मेरे घर… बड़का घर।
 
 
 
 
5.’स्कॉउट की अनजानी गांठ
 
मेरी बाहें तुम्हारी डोर से सजकर सुंदर,
और
मन समंदर हो गया है ।
 
मेरी बच्ची ,
मुझे याद है अधपके करौंदे ,
जिन्हें बांटते वक़्त हर बार मैं भाई संग
तुमसे करता रहा बेईमानी
चीज़ें बहनों से बराबर बांँटनी चाहिए
समझा अब जाकर
 
मुझे याद है ,
क्या बेजोड़ डांटा था मैंने
जब कॉलोनी के किस्सों को चाव दे रही थी तुम ।
 
मुझे याद है ,
जब उठ रहा था बड़ी बुआ का शगुन,
और तुम नाचते नाचते
धप्प से रुक गई
कि मैं किसी काम से कमरे मे आ गया था ।
 
मुझे याद है ,
मेरी आँख दिखाने भर से….
तुम बाल बांध कर कॉलेज जाती ।
तुम बाइक पर एक तरफ बैठती ।
तुम फोन को हाथ भी नहीं लगाती ।
और ओढ़नी,
ओढ़नी तो जैसे गाय का पगहा !
 
आह !
न जाने हर रोज की कितनी बातें / डांट
मुझे आज पीड़ा रहे हैं
यह
सबके लिये सबक हो .
इन
सबके लिये क्षमा करो मुझे ।
 
पर मेरी बच्ची
आज डोर बांधते वक्त तुमने जिस अदा से हाथ घुमा कर
स्काॅउट की न मालूम कौन सी गांठ लगाई है.
समझो की मैं झूम गया भीतर तक.
 
मेरी बच्ची
मुझे सिखाओ ,
मै सीखूंगा
फिर
जोर लगाऊंगा
ऐसी ही एक गांठ लगाने की सूरज पर
की छन के आये रौशनी तुम तक.
 
मेरी बच्ची मुझसे नजर मिलाओ
अबकी छोटी बुआ के शादी में हम झमक कर साथ नाचेंगे
कॉलोनी के किस्सों को साथ बाचेंगे.
तो दे ताली !
तीज से कोहबर लिपान तक करो स्वीकार मुझे
मेरी बच्ची
मुबारक हो डोरी का त्यौहार…..
तुम्हारी डोर से मेरी बाहें सुंदर
और
मन समंदर हो गया है……
 
 
 
6.जब दुनिया बनी
 
जब दुनिया बनी
सबसे पहले बने मिठाई बनाने वाले
हाथों में भर भर के
चीनी की परत
परत भी ऐसी वैसी नही
एकदम गूलर का फूल छुआ के,
जितना खर्च हो उतना बढ़े ।
उंगली के पोरों में घी का कनस्तर
कनस्तर भी वही गूलर के फूलों वाला।
आंखों में परख
परख भी एकदम पाग चिन्ह लेने वाली.
ओह्ह
इतने सब के बाद
बोली तो मीठी होनी ही थी
सो भी है.
लेकिन कलेजा ?
मठुस हलवाई कहीं का.
बचपन में ही काले रसगुल्ले की कीमत
आसमान पर रखे था
सात रुपया पीस.
आते जाते स्कूल
मन मार कर साइकिल चलाते लड़कों में
नोकरी की पहली ललक तुम्हारे रसगुल्ले के रेट ने ही तो लगाई
सात रुपया पीस ।
रसगुल्ला है की कलेजे का टुकड़ा तुम्हारे.
और समोसा
वह भी हर साल एक रुपये महंगा.
बहाना तो देखो
महंगाई बढ़ रही.
लौंगलत्ता तो ऐसे
जैसे सोखा का लौंग डाले हो ओझइती करके.
क्या सोचे हो
की शो केश के उस पार की सारी मिठाई तुम्हारी बपौती है?
सो तो हैं ।
लेकिन,
एक दिन जब होंगे लायक
तो जरूर देह में घुल चुकी होगी चीनी की परत
जिंदगी उबले हुए आलू को सोख रही होगी
और ज़बान में लड़खड़ाहट भी होगी
 
फिर भी,
किसी दिन आ कर
तुम्हारे दुकान की सारी मिठाई खा जाएंगे
फिर देह में घुल चुकी शर्करा के पार जा कर
भगवान से आश्वासन लेंगे
कि
अगली बार
लड़की बनाना
जिसके पिता और पति दोनों की
अपनी मिठाई की दुकान हो.
 
 
 
 
7.इजाजत
 
अब इजाजत दे दो मेहरम
इसलिए कि मुझे लग रहा कि
तुम्हारे देश की दिशाओं ने भरम बना दिया है
तुम रोज जिधर से आती हो
वही पूरब है क्या?
 
तुम्हारे देश की सुबह दोपहर शाम बस नीली और गुलाबी
के बीच फंसी जा रही
मौसम सुहाना है या खराब
समझ में आता नहीं मुझे
 
तुम्हारे देश के लीचियों में मुझे स्वाद नही मिल रहा
तुम हो कि उन्हें स्ट्रॉबेरी बता रही हो
 
तुम्हारे देश के लोग अब तेज़ चलने लगे हैं मुझसे
तुम भी तो भागती ही जा रही हो मेहरम।
इसलिए अब इजाजत दे दो।
 
देखो
जाते जाते ही जा पायेगा कोई भी
वैसे भी
एक ही बैग है
कपड़े रखें की यादें सहेजे
समझते समझते कई अनर्गल दिनों से रुके हैं तुम्हारे देश
 
बरसों कहीं रह कर
रच बस कर
लोग कैसे चले जाते हैं मेहरम ?
मुझसे तो बैग भी नही हिल रहा
जबकि इसमें सिर्फ गर्मियों के कपड़े हैं
 
फिर किताबें तो उठने से रही मेहरम।
और उन पुरस्कारों का क्या
जो अभिकल्पन, स्पंदन, अकादमियों में जीते गये हैं।
वो तो टूट जाएंगे स्टेशन से पहले ही।
तुम रख लेना,
घर पर कह देना कि रूपा या सबीना का है
नाम थोड़े लिखा है।
 
सोचे हैं,
एक बार और आ जाएंगे
बर्तन, पंखा, गद्दे लेने ।
सालों साल सिर्फ तुमसे ही हुई दोस्ती
किस जूनियर को दे देता
मगर कोई है भी तो नहीं
कोई मजलूम भी नही मिला मुझे आज तक तुम्हारे देश में मेहरम।
सब तुम सरीखे किसी दूसरे से प्यार करके खुश हैं
 
खुद से प्यार करने वाले बहुत खुश रहते हैं मेहरम।
मगर जानती हो,
दूसरों से प्यार करने वालों का देश खुश रहता है
 
आह…!
तुम्हारा देश मेहरम।
हम इससे सीख नही पाए दूसरों से प्यार करना
इसलिए इजाजत लेनी होगी
 
जाने को आसान बनाना कोई खेल नही मेहरम
कविता लिखनी पड़ती है
पढ़ो, पढ़ कर विदा दे दो
 
उस मन को विदा दे दो
जिसके चंचलता में तुम्हारे शहर के लड़कपन ने चिंगोटी की है।
उस सपने को विदा दे दो
जिसके पूरा होने पर सबसे सुंदर मंदिर में बिन नहाए गये
 
उस प्यार को विदा दे दो
जो व्हाट्सएप से हाथ की छुवन तक आया और होंठ नही बन सका
उस गुस्से को विदा दे दो
जो तुम्हारे इन्तज़ार से पनपता और
और तुम्हारे सुन्दर मुँह को सोच कर उड़ जाता
दूर अमलतास की टहनियों पर
 
जब सबकी हो रही है विदाई
तो
उस लड़के को भी जाने दो
जिसने
तुम्हारी कल्पना कर के तुम्हें मेहरम माना है
जो तुम्हारे साथ कभी रहा ही नहीं
जो अगले शहर में फिर यूं ही फिदा होगा
खुद पर
क्योंकि उसके शहर में
खुद से प्यार किया जाता है
दूसरों से नही।
 
 
 
 
8.मेरी उम्र के लड़के
 
लड़के जो पढ़ने के साथ सोचते भी हैं
सोचते हैं
दोस्तों में बने रहने का तरीका
या कैसे हाथ मिलाएं की कुर्ते की फ़टी कांख ना दिखे।
तभी तो सहपाठी को भी
हाथ जोड़कर आप कहते जाते हैं लड़के
 
लड़के,
महीने भर का हिसाब लगा कर पैसे वाले दिन
अपनी दोस्त से मिलना चाहकर भी
फोन देखते ही स्क्रीन गार्ड पर आह भरते हैं
मगर फिर ,
टूटी स्क्रीन के साथ साझा सेल्फी ड्राइव में भेजते ही
समय आने पर फ्रेम कराने का सोचते हैं लड़के
 
उठते बैठते,
रंगीनियत आंखों में धँसाकर
लड़के
सपनो में इठलाते हैं
 
वे सोचते हैं अपनी प्रेमिका को किसान
जब गांव मे आलू की मेढ़ काढ़ लेते हैं
कि
पी ओ में सलेक्शन सोच कर प्रेमिका को
महँगी साड़ी में सोचते हैं
 
रोज़ क्लास से लॉज की दूरी में
नौकरी से इंटरव्यू देने तक को सोचते जाते हैं लड़के
 
लड़के
रात तक पूरा डेटा खर्च करने के बाद
अपने सबसे धनी दोस्त को ‘तुम’ में सँवादित कर
खुद में खुश होते हैं
कि
मेरा बेटा भी होगा उसके जैसा ही
सबका दोस्त
और ऐसे ही सहज सीधा ।
 
 
लड़के जो पढ़ने के साथ सोचते भी हैं
 
 
 
 
9.लोरियों के देश में
 
सो जाओ
यहाँ लोरीयों के देश में
चांद अब आरे पारे नही आता
ना तो सोने की कटोरी में दूध भात लेकर आता है कोई
यहां कोई हाथ अब तकिया नही बनता
दादियों ने सारी कहानियां बीच में ही रोक दीं हैं
 
सो जाओ
इसलिए भी,
कि कहानियों के बीच में रुकने से
मामाओं के घर का रस्ता भूल गये हैं हम
 
मैं तुम्हे वीडियोकॉल पर
इधर उधर की बातें कर के सुला रहा हूँ
सो भी जाओ अब
 
मैं कमजोर भाग्य का नवजवान
जिसने लोरीयां तो खूब सुनी हैं
खूब सुनी है कहानियां भी
मगर याद कुछ भी नही।
फिर भी मुझे पूरा यकीन है
कि
उस सफेद बाल वाली
बूढ़ी महिला की आवाज में एक जादू था
उसके बाहों में रुई के फाहे रहे।
उसके थपकियों में नींदघर की दस्तक थी
जिसने किसी भी कहानी का अंत नही होने दिया।
हर शाम
वह उसी कहानी को नए किरदार गढ़ के आगे बढ़ाती रही
तो
इसलिए भी
कि जिंदा रहे किरदार तुम्हारा
 
यहां लोरीयों के इस देश में
तुम वीडियो कॉल पर
मेरी बातें सुन कर
उधर इधर की
सो जाओ।
 
 
 
 
10.सुनो कवि एक कविता लिखो
 
सुनो कवि,
एक कविता लिखो.
सबके किये पर लिखना
शाम के छींटाकशी पर कुछ लिखना सबसे पहले
फिर,
भोर में जागे रहे,
उसका साफ़ साफ़ कारण.
किसी लिखे को पढ़ कर बढ़ी धड़कन
का सबसे पहला जवाब जब छाप लेना काग़ज़ पर
तो कवि,
सबसे ज़रूरी शख़्स को लिखना दिल की बातें
उसको गलियाना मन में.
उसका मुँह नोच लेना ले जा के नींद के वन में.
उसको भाग्यहीन कहना.
फिर धीरे धीरे,
उसपे आ रही दया को दुआ करना.
उसपे आ रहे ग़ुस्से को कपूर समझ कर हवा कर देना
और आख़िरी में
सबको माफ़ कर देना.
क्यूँकि,
 
बड़ी लड़ाईयों में,
सच के साथ रहना होता है.
सच कह कर चुप हो जाना होता है,
साबित नहीं करना होता.
 
 
 
 
11.मुट्ठी भर माटी
 
आदमी को गढ़ते-गढ़ते
एक रोज़ थक कर ईश्वर ने
मुट्ठी भर मिट्टी एक तरफ रख दी
 
रोज़ थकने के बाद वह ऐसा करता रहा
रोज आदमी गढ़ता
थकता और मिट्टी किनारे रखता
 
आदमी गढ़ता है ?
हां ,
सुबह नहा धो कर
 
जैसे चाय वाला बनाता है चाय
स्कूल जाता बच्चा जैसे सजाता है बैग
या आकाशवाणी पर
राम चरित मानस सुनने बैठते हैं जैसे बाबा
आदमी ही गढ़ना तो काम है ईश्वर का
 
रोज के कुम्हारी में बना मैं
उसी में बने चांद सूरज
बल्कि उसी में बने मम्मी , पापा और
वह नेता भी जिसके कुर्ते पर कई दाग है।
 
लेकिन तुम सभी बच्चे
तुम सब के सब
किनारे की मिट्टी हो
उसी से बने हैं किनारे
समय के सहारे
 
लेकिन तुम सब ढूंढ़ते क्या हो ?
क्या तुम्हें टूटी केन में वही मिठास मिलती है ,
जिसकी कड़वाहट के साथ एक पीढ़ी रसहीन हो गयी
या
खोजते खोजते
प्लास्टिक के बीच शीशा
तुम गढ़ते-गढ़ते कचकड़ होते जा रहे
 
ओह्ह
अब समझे
तुम मीर हो
और तुम्हारी बहन मीरा
दोनों मिल कर ‘भगवान’ को खोजते हैं
ढेरों – ढेर, घरों – घर, दुकानों – दुकान।
 
अब तो ज़रूर
पृथ्वी पर ही है देवता.
वही रखता है
किनारे मुठ्ठी भर मिट्टी,
वहीं चढ़ती जाती है परतें
वहीं बनती है लोई
कभी वह नेता
कभी पापा
कभी कोई
 
कभी कोई ..
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The post युवा कवि शाश्वत की कविताएँ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


सदेई और सदेऊ की कथा: मृणाल पाण्डे

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प्रसिद्ध लेखिका-संपादिका मृणाल पाण्डे की बच्चों को न सुनाने लायक बाल कथाएँ  का यह 22 वाँ खंड है। इस बार गढ़वाल की मूल लोककथा को आधार बनाकर उन्होंने एक शानदार कथा रची है। भाषा, परिवेश, संदेश सब लिहाज़ से एक ऐसी कथा है जिसे आप बार बार पढ़ना चाहें-

===================================

सदेई और सदेऊ की कथा

( मूल कथा गढवाल की लोकगाथा है, पर मायके से दूर बेटियों के सहोदर भाई के लिये मूक लगाव और अपने पितृवंश के लिये अखंड स्वामिभक्ति की ऐसी उदास कहानियाँ हर प्रांत में पंछियों सी उड़ती मिल जायेंगी। कहते हैं चैत मास उतपतिया हो रामा! पहाडों में चैत मास आने पर जब बर्फीली ठंड से सिकुडी प्रकृति जागने लगी, तो वनों में घुघुती (फाख्ता) ॠतुरैण के सुर पुकारने लगते हैं, बिलगाई बाछी जैसी बेटियों को मायके न्योतने, और जो न आ सकें उनके लिये मांओं की पकाई भिटौली भाई के हाथ उन तक भिजवाने के लिये। अहा हमारे लिये तू आज भी नानी दाणी नारिंग(छोटी नारंगी) के दाने जैसी है। सपनों में तेरी मुखड़ी देखी तो ‘खुद’ (व्यथा) व्याप जाती है।

बिन भाई की बहनों की व्यथा चैत में अन्य सुर भी उठा देती है। ‘री घुघुती,’ चैत का गीत कहता है, ‘मेरे मायके के वन में मती बोलियो, मेरी पुत्रहीन माँ सुनेगी तो रो पड़ेगी।’

घर घर चैती गा कर दक्षिणा बटोरनेवाले पारंपरिक गायक औजी लोगों की बहार हो रहती है। उनसे ही सुनी ठहरी हमने सदेई सुदेऊ की यह अजब गजब कहानी।)

बहुत समय हुआ एक छोटा सा परिवार पहाड़ के एक सुदूर गाँव में रहता: मां बाप और उनकी इकलौती बेटी सदेई। लड़कों के सौ सौ निहोरे करो तो भी देही चीड़ का छिलुका(नन्हीं छीलन), पर बिन सेवा टहल के भी लड़कियाँ तो सिसूण की झांप जैसी बढती जाती हैं, सदेई की मां ने उसके बाप से कहा। बस। अच्छे घर वर की तलाश शुरू। अगले ही बरस लडैती गुडिया खेलणिया, दुधवा पिलनिया, छाजा (छज्जे) बैठणिया, अंगना खेलनिया नौ बरस की सदेई ब्याह दी गई, दूर गाँव।

यही रिवाज था तब बड़ों का बनाया। उसको कौन तोड़े?

बिन भाई की सदेई विदा हो गई दूर गांव के लिये। यही रिवाज हुआ हवे (अरी), धी बेटी किसके घर टिकी है आज तक बूढियों ने मां को समझाया। महाज्ञानी राजा जनक तक यह जुआ नहीं हार आये थे क्या?

‘रामीचंद-लछिमन जुवरा जीति लाये, जनक जुवरा हारि आये।

बाग न हारे बगीचा न हारे पिया, मेरी धी काहे हार आये हो ?’

बरसों बीत गये सदेई को दो दो बेटे भी हो गये। पर उसके मायके से लेने या तीज त्योहार पर मां के पकाये व्यंजनों की भेंट का टोकरा देने कोई नहीं आया। आता कैसे? मां बाप बुढा रहे थे। रिवाज के अनुसार वे लड़की के ससुराल का तो पानी भी नहीं पी सकते थे। तिस पर घर के गोरू बाछी पडोसियों के भरोसे छोड भी दें, पर चार दिन ऊंचे नीचे पर्वतों के बीच बिना पुल की नदियों और घने जंगलों के बीच से पैदल जात्रा करने दोनो बूढे जनी कैसे जाते?

सास भली न चून की। चैत लगा तो सास भी कभी सदेई को एक ताना जैसा मार देती: ‘इसका भाई हुआ नहीं, साथ की बहुओं के जैसे, घुघुती और दही की हाँडी लाये कौन इसके हेत? हमारे वंश हेत इसने दो दो बेटे जने, पर उनके लिये भी मालाकोट (ननिहाल) से छूचक कौन लाता? हा री बिन भाई की बहन!’

घर से दूर जानलेवा ढलानों पर भैंस के लिये घास छीलती सदेई कभी कुलदेवी भवानी को उलाहना देती और कभी पहाड़ों को सुना कर अपना दु:ख कहती थी:

हो उच्ची डांड्यो, तुम नीसी हो जावा, घनी कुलाडियो तुम छांटी हो जावा,मैं तईं लागी खुद्द मैतुडा की …बाबा जी को देश देखण देवा…

अरे ऊंची चोटियो थोड़ी सी झुक ही जाओ, मुझे बाबा का देस देखने दो।

ओ चीड़ के घने पेड़ों तुम तनिक छोटे नहीं होगे क्या? मेरे भीतर मायके की ‘खुद’ जग रही है।

गांव की और बहुओं को भागीरथी के पानी सी चंचल-खुश खुश अपने भाइयों के साथ मैके जाती देखती सदेई, तो हांडी में उबलते चावल के दाने सी खुद भी मायके जाने को छटपटाती।

अहा आज मेरा भी कोई भाई होता, वह भी दिदी दिदी कहता मुझे लेने आता। फिर बचपन की यादों पर चुहल करते हम दोनो का गांव तक का रास्ता बातों बातों में ही कट जाता।

आखिरकार सदेई ने जंगल एक चौंरी बना ली, और उसमें एक शिलंग का पेड रोप दिया। उस पौधे को वह कहती ‘मेरे मायके का पौधा’ और घास लकडी के बहाने हर दिन थोडी देर उसकी टहल को रुकती।

धीमे धीमे सदेई का पौधा बढा, उसमें टहनियाँ फूटीं और वह जवान हुआ। सदेई बदस्तूर उसके मज़बूत तने पर पीठ टिकाये मेहनत से खुरदुरे हाथों से उसको सहलाती, धूप का सेंक करती अपने सब सुख दुख उससे कहती रहती।

शिलंग के साथ सुख दुख कह कर नियम से सदेई भवानी के मंदिर जाती और भाई के लिये प्रार्थना करती।

आहा रे माया। पानी में फूल डाल पडी भंवर ने धंसाई। कहाँ की धी कहां बह गई, माया ने घुमाई।

धी तेरा घर कहां हो? सब छाया माया।

शायद कभी देवी को दया आ गई होगी, उसके मायके में भाई जनमा। इससे बेखबर सदेई ने शिलंग के पेड़ को बताया, ‘जानता है भुला (छोटा भाई), कल रात मुझको सपने में आकर देवी भवानी ने कहा, जा तेरे भी एक भाई होगा। तुझे भेंटने आयेगा।’

मैंने शीश नवा कर उसको कहा हे देवी, ऐसा हो गया, तब तो तेरे लिये मैं चार चार पाठों की बलि चढाउंगी।

भवानी की लीला। सदेई की मां को बेटा हुआ यह खबर देने कौन जाता? बस  नामकरण के दिन माँ ने आंख में जल भर कर बेटी की याद में पुरोहित से सदेवी के भाई का नाम सदेऊ(सहदेव) रखा दिया।

याद तेरी इतनी आई कि मन उजाड़ हो गया मेरी नन्हीं नारंगी। बहता पानी थम भी जाये, मां की छाती जो क्या थमती है?

छोरा भी बहन ही जैसा चेहरा मोहरा लेके जनमा था हूबहू। बहन के बारे में पता चला तो उससे मिलने को भागेगा बिन सोचे कि राह कठिन है खतरे इतने।

डर से मां ने सदेव को सुदेई की बाबत कुछ नहीं बताया।

समय बीता। शिलंग के पेड जैसा मज़बूत कद काठीवाला सहदेव जब जब चैत में और भाइयों को बहनों के लिये सर पर भिटौली का टोकरा लिये जाते देखता, नि:श्वास छोड कर सोचता, अहा मेरी भी कोई दिदी होती, जिसे बुलाने मैं उड़ कर चला जाता। फिर उसकी गोद में सर रख कर मैं भी घाम तापते हुए उससे सारे चैत भर लंबी लंबी बात करता।

सोचते सोचते उसे एक दिन सपना आ गया कि सामने दूर पहाड़ की चोटी पर एक शिलंग के पेड के नीचे बैठी ऐन मैन उसके जैसे चेहरेवाली एक लड़की भुला (छोटे भाई ) कहके उसे पुकार रही है।

उसने सपना माँ को बताया तो उसका चेहरा फक पड गया। स्नेह दुर्बल मन काँप उठा।

यह तुझे किसने भरमाया बेटा सदेऊ?

नहीं मां सच सच बता। तेरी आंख में शिव थान की गगरी जैसे पानी क्यों टपकने लगा?

मां बोली तू कहाँ जायेगा रे बहन से मिलने जिसे तेरे बाबू ने चार पहाड पार ब्याह रखा है। उसकी ससुराल की राह में भयंकर जंगल हैं, जंगलों में खूंखार जानवर हैं, अगल बगल कई कई बिना पुल की नदियां हैं। तुझे राह कौन दिखायेगा? खाई खड्ड नदियाँ कौन पार करायेगा?

मेरी आंखें रास्ता दिखायेंगी। हाथ नदी नाले तैरा कर पार करा देंगे। मेरी शिलंग की डगाल जैसी भुजायें हमलावर जानवरों को मार डालेंगी; हमारे कुलदेवता मेरी रक्षा करेंगे।

इतना कह कर मां की सारी चिरौरी अनसुनी करके सुदेव बहन को भेंटने चल दिया तो बस चल दिया।

सुदेऊ जब जैसे कैसे अपने सपने में देखे शिलंग के पेड के पास पहुंच गया, तो वहाँ खडा हो कर पास दीखते गांव को देखने लगा। दिदी ने देखा नहीं पछाणेगी कैसे उसे?

पास की हर पगडंडी, चोटी पर चील जैसी निगाह रखनेवाले वाले गांव के लोगों ने, चारा लाने गई घस्यारियों ने गांव जाकर सुदेई से कहा, री एक बिलकुल एक तेरे जैसे चेहरीवाला सजीला लड़का तेरे लगाये शिलंग के पेड तले खड़ा है। तेरा भाई तो नहीं?’

मेरा कैसा भाई री? सुदेई की आंखें भर आईं। मजाक मत करो।

आखिर गांववाले सुदेऊ को बुला लाये। शकल इतनी मिलती थी बहन से कि शक की गुंजैश ही न थी। ‘ले ये रहा तेरा भाई।’ सहेली घस्यारिनों ने सदेई से कहा।

भाई ने बहन से कहा तू मुझे सपने में शिलंग के पेड के नीचे खडी भुला करके पुकारती दिखी थी। बस चाह उठी और मैं चार वन पाँच नदी पार कर चला आया तुझे भेंटने।

देवी भवानी दाहिनी हुई हैं, रोती हुई भाई को गले लगाती हुई बहन बोली।

गांववालों, मेरी मनोकामना पूरी हुई। जाओ सबको कह दो कल ही अनुष्ठान करा के कुलदेवी को मैं चार चार तगडे बकरों की बलि चढाऊंगी। फिर भीतर जा कर उसने अपने बेटों को बुला कर कहा, देखो ये रहे तुम्हारे मामा। बडी मुश्किल से हमारे पाहुन बन कर आये हैं। घर ले चलो इनको। पति को सदेई ने तुरत चार बढिया से बढिया बकरे लाने को दौड़ा दिया।

मामा भांजे जल्द ही घुलमिल गये।

अगले दिन अनुष्ठान की तैयारी पूरी हुई। जग्य की आग जगी। खांडा लिये पुरोहित ने कहा बलि पशु लाओ। चार बकरे गले में फूलहार डाले लाये गये।

तभी आकाशवाणी हुई, मुझे पशुबलि नहीं, नरबलि चाहिये।

सब भौंचक्के रह गये। सदेई का मुंह भी उतर गया पर वह बात की पक्की थी। बोली, पतिकुल को मैंने दो दो बंसधर दे दिये, मेरा काम तमाम हुआ। मैं अब खुद अपनी बलि दे दूंगी।

नहीं, आवाज़ आई, स्त्री बलि वर्जित है। तू अपने इस भाई की बलि दे।

भाई की बलि? सदेई का शरीर कांपने लगा। नहीं नहीं, अपने निरपराध माता पिता को निर्बंसिया नहीं बना सकती मैं। कोख का बेटा मिल जाता है, पीठ का भाई नहीं। फिर छोटा भाई तो मेरा अतिथि है। मैं अतिथि हत्या नहीं करूंगी।

आकाशवाणी हुई, तो अपने बेटों की बलि दे।

पछाड़ खा कर सुदेई अग्निहोत्र के पास गिर पडी, अपनी कोख को कैसे सूनी कर दूं देवी भवानी?

रहने दे, आकाशवाणी हुई, मनुखों की तरह तू भी कह दे तूने झूठमूठ प्रतिज्ञा करी थी। क्षमा कर दो।

काम पूरा हो गया तो सब यही करते हैं।

सदेई का सोया सत्व जागा। दृढ सुर में बोली, मैं सदेई हूं। आनवाली हूं। सारा गांव जानता है मैंने कभी छल कपट नहीं किया।

ठीक है, वचन रखने को मैं अपने हाथों खड्ग से बेटों की बलि देती हूँ।

गांवालों के चेहरों पर करुणा छा गई। सुदेई की सहेलियाँ बुज़ुर्ग औरतें बिलख पडीं, बच्चों के दोस्त भी बिलबिला उठे पर सुदेई पर तो चंडी सवार थी। घर भीतर जा कर बच्चों से बोली, चलो खेल के वस्त्र उतारो। तुम्हारा मामा नये कपड़े लाया है, वह पहनाती हूं।

बच्चों को नये कपड़े पहना कर उसने दोनों का माथा चूमा और एक एक वार से दोनो के सर धड़ से जुदा कर दिये।

माँ तो माँ। सोचा एक बार इनका मुंह फिर दुलरा लूंगी। सो उसने सरों को तो एक नरम ओढनी में लपेट कर धर दिया और खून से लथपथ दोनो धड उठाये बाहर निकली।

उसका बाहर आना था कि फिर आकाशवाणी हुई, नहीं, बिन सर के बलि स्वीकार नहीं होती। सरों को भी लाओ!

सुदेई सन्न रह गई। फिर उसने कहा जैसी तुम्हारी माया।

पर भीतर घुसी तो क्या देखती है कि दोनो बालक हंसी खुशी नये कपड़े पहने खेलते हैं।

बाहर आ कर सुदेई ने मूर्ति को हाथ जोडे, मां, तूने परीक्षा लेकर मुझे भाई और बच्चे दोनों दे दिये। अब मुझे कुछ चाहना न रही।

मनुख मर जाते हैं, बस ऐसी सत्त कहानी बच जाती है।

आज भी चैत के महीने में औजी लोग घर घर घूम कर भाई बहन सुदेई और सुदेऊ के सच्चे पिरेम की गाथा गाते हैं।

मरना तो सबने है। फिर भी जीते जी देवी देवता सुरग से जो क्या उतर कर किसी का हाथ पकडने को आते हैं कि तूने अपनी बात को क्यों झुठलाया? पर मनुख का अपना सत्त भी तो है।

हे देबी, दूध का दूध पानी का पानी करनेवाली, हम सबको सुदेई जैसा निडर, अपने कहेपर कायम रहने और बात की लाज रखनेवाला बना।

डरने लगो तो झूठे को सत्त की छाया भी डराती है, डर जाओ तो मतिनाश होता है, मतिनाश हुआ तो अंधेरे मन में छल कपट धुंए जैसा पनप जाता है।

न डरो, तो सत्त की दिये की जोत जैसी जागी रहेगी, उस जोत का उजाला अनहोनी को होनी बना देगा। जैसा सुदेई के साथ हुआ।

नानी यह कहानी कहते तेरी आंखों से आंसू क्यों बह चले?

नहीं रे, कुछ पड गया था। जाओ, सोने जाओ। रात बहुत हुई।

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मीरां का कैननाइजेशन

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मीरां के समय और समाज एकाग्र पुस्तक ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ (2015) का प्रदीप त्रिखा द्वारा अनूदित अंग्रेज़ी संस्करण ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ वाणी बुक कंपनी, नयी दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। यहाँ इस पुस्तक के पाँचवें अध्याय ‘कैननाइजेशन’ का मूल हिन्दी पाठ दिया गया है। विद्वान आलोचक माधव हाड़ा का यह काम मीरां के जीवन और काव्य को देखने का एक नया नज़रिया देता है और इसके अंग्रेज़ी अनुवाद से यह किताब बड़े पाठक वर्ग में मीरां की रूढ़ छवि के बरक्स उसकी एक नई छवि को लेकर जाएगी। माधव हाड़ा आजकल इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी में फ़ेलो हैं और पद्मिनी पर शोध कर रहे हैं-

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इतिहास में मीरां की रहस्यवादी और रूमानी संत-भक्त और कवयित्री छवि का बीजारोपण उपनिवेशकाल में लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने किया। टॉड पश्चिमी भारत के राजपूताना की रियासतों में ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी और पोलिटिकल एजेंट था। इससे पहले तक मध्यकाल में प्रचलित तवारीख़, ख्यात, बही, वंशावली आदि पारंपरिक भारतीय इतिहास रूपों में मीरां का उल्लेख नहीं के बराबर था। अलबत्ता मध्यकालीन धार्मिक चरित्र-आख्यानों और लोक समाज की स्मृति में मीरां की मौजूदगी कई तरह से थी। मध्यकालीन धार्मिक चरित्र-आख्यानों में उसकी छवि एक असाधारण और अतिमानवीय लक्षणों वाली संत-भक्त स्त्री की थी, जब कि लोक उसे एक ऐसी स्त्री के रूप में जानता था, जो सामंती पद प्रतिष्ठा और वैभव छोड़कर भक्ति के मार्ग पर चल पड़ी है। मध्यकालीन सामंती समाज के कुछ हिस्सों में उसकी पहचान एक ऐसी स्त्री के रूप में भी थी, जिसके स्वेच्छाचार से कुल और वंश की मान-मर्यादा कलंकित हुई। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में टॉड ने पहले अपने विख्यात इतिहास ग्रंथ एनल्स एंड एंक्टिविटीज़ ऑफ़ राजस्थान में और बाद में अपने यात्रा वृत्तांत ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इंडिया में मीरां का उल्लेख एक रहस्यवादी संत-भक्त और रूमानी कवयित्री के रूप में किया। यह एक तरह से मीरां का कैननाइजेशन था। मीरां की यह छवि यथार्थपरक और इतिहाससम्मत नहीं थी। इसमें उसके जागतिक अस्तित्व के संघर्ष और अनुभव को अनदेखा किया गया था, लेकिन टॉड के प्रभावशाली व्यक्तित्व और वैदुष्य ने इसे मान्य बना दिया। मीरां के इस छवि निर्माण में यूरोप के राजनीतिक और सैद्धांतिक हितों और राजपूताना के सामंतों और उनके अतीत के संबंध में टॉड के व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उपनिवेशकाल और बाद में राजस्थान की मेवाड़ और मारवाड़ रियासतों में भी इतिहास लेखन के लिए विभाग क़ायम हुए और इनमें टॉड से प्रभावित-प्रेरित श्यामलदास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा और मुंशी देवीप्रसाद जैसे देशी विद्वानों को इतिहास लेखन का ज़िम्मा दिया गया। ये लोग विद्वान थे, इन्होंने बहुत परिश्रमपूर्वक यह काम किया, लेकिन इनका नज़रिया उपनिवेशकालीन यूरोपीय इतिहासकारों से अलग नहीं था। ये उनसे बहुत गहराई तक प्रभावित थे, इसलिए इन्होंने टॉड द्वारा निर्मित मीरां की छवि में कुछ तथ्यात्मक भूलों को दुरुस्त करने के अलावा कोई रद्दोबदल नहीं किया।

1.

टॉड ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में नियुक्त ब्रिटिश अधिकारियों में से एक होकर भी कुछ मायनों में अलग था। अन्वेषण और संग्रह की नैसर्गिक प्रवृत्ति, यूरोपीय इतिहास और साहित्य की क्लासिकल परंपरा का ज्ञान, अपने कार्य क्षेत्र राजपूताना से गहरा लगाव आदि विशेषताओं के कारण उसको इनमें अलग पहचाना जा सकता है। उसका जन्म 20 मार्च, 1782 ई. को इस्लिंगटन में हुआ। उसने अपने पैतृक व्यापार के व्यवसाय को छोड़कर सैन्य जीवन अपनाने का निश्चय किया। उसे बहुत कम उम्र में ईस्ट इंडिया कंपनी में कैडेटशिप मिल गई। 1798 ई. में वह बूलविच रॉयल मिलिटरी एकेडमी में प्रशिक्षण के लिए भेजा गया। वहाँ से वह बंगाल आया, जहाँ 9 जनवरी, 1800 ई. को उसे दूसरी यूरोपीयन रेजिमेंट में कमीशन मिला। कुछ समय तक मोलक्का और मेराइन द्वीप पर रहने के बाद 29 मई, 1800 ई. को वह देशी पैदल फ़ौज की 14वीं रेजिमेंट में लेफ्टिनेंट नियुक्त हुआ। 1801 ई. में दिल्ली में नियुक्ति के दौरान उसे एक पुरानी नहर के सर्वेक्षण का महत्त्वपूर्ण दायित्व दिया गया। उसके चाचा का मित्र ग्रीम मर्सर 1805 ई. में जब दौलतराव सिंधिया के दरबार में रेजिडेंट होकर गया,  तो उसे भी अपने साथ ले गया। यहीं से उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की शुरुआत हुई। उसने आगरा, जयपुर और उदयपुर के अब तक अज्ञात मार्गों की खोज और सर्वेक्षण का कार्य शुरू किया और अपने प्रयत्नों से इसे पूर्ण कर लिया। उसके इस कार्य की बहुत सराहना हुई। इस दौरान वह राजपूताना के भूगोल से भी अच्छी तरह परिचित हो गया। मर्सर के भारत छोड़ने के बाद सिंधिया के दरबार में जब रिचार्ड स्ट्रेची रेजिडेंट नियुक्त हुआ, तो टॉड की कैप्टन के रूप में पदोन्नति हुई। स्ट्रेची के दरबार छोड़ने के बाद उसे रेजिडेंट द्वितीय के सहायक का दायित्व दिया गया। इस दौरान उसने अपना अधिकांश समय सिंधु और बुंदेलखंड तथा यमुना और नर्मदा के बीच के प्रदेशों से संबद्ध भौगोलिक सामग्री एकत्र करने में लगाया। राजपूताना के संपर्क में वह इसी दौरान आया। उसने अपने इतिहास में इस दौरान राजपूताना में भय, आतंक और विनाश के माहौल का भावपूर्ण और चामत्कारिक भाषा में वर्णन किया है। मराठों ने यहाँ बहुत पहले से अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी और अब वे यहाँ के आंतरिक झगड़ों का लाभ उठाकर लूट-खसोट में लगे हुए थे। पिंडारियों और उनके संरक्षणकर्ता मराठों ने टिड्डी दल के तरह फैल कर लगभग संपूर्ण राजपूताना को उजाड़ में तब्दील कर दिया था। मेवाड़ की दुर्दशा के संबंध में उसने अपने इतिहास में लिखा कि “मेवाड़ बरबादी की ओर तेज़ी से बढ़ रहा था, सभ्यता का प्रत्येक चिह्न जल्दी से लुप्त होता जाता था, खेत पड़त पड़े थे, शहर बरबाद हो गए थे, प्रजा मारी-मारी फिर रही थी, ठाकुरों और जागीरदारों की नीयतें बिगड़ गई थीं और महाराणा व उसके परिवार को जीवन की साधारण से साधारण सुविधा भी सुलभ नहीं थी।”1 1817 ई. में मार्कुइस हेस्टिंग्ज़ के पिंडारियों को समाप्त करने के निर्णय से टॉड को पिंडारियों और उनके संरक्षणकर्ता मराठों के साथ युद्ध में संलग्न होना पड़ा। इस युद्ध में उसके भौगोलिक ज्ञान, दूरदर्शिता और सूझ-बूझ का कंपनी सरकार ने ख़ूब फ़ायदा उठाया।2 उसने इस सैन्य अभियान में निर्णायक भूमिका निभाई और सभी सैन्य कमांडरों से उसे सराहना पत्र मिले। राजपूताना पिंडारी-मराठा आतंककारियों से जब मुक्त हो गया तो यहाँ की लगभग सभी रियासतों ने 1817-18 ई. में कंपनी सरकार के साथ संधिया कर लीं। गवर्नर जनरल ने टॉड को इन सभी के लिए अपना राजनीतिक प्रतिनिधि नियुक्त किया। उदयपुर पहुँच कर टॉड ने पिंडारियों-मराठाओं द्वारा तहस-नहस कर दी गईं राजपूताना की रियासतों के पुनर्निमाण पर अपना ध्यान एकाग्र किया। उसकी पहल पर इन रियासतों में कई सुधार लागू किए गए। उसने 1819 ई. में जोधपुर और 1820 ई. में कोटा और बूंदी रियासतों की यात्राएँ कीं। राजपूताना के सामंतों से वह बहुत प्रभावित हुआ। यहाँ के ‘राजपूत अपने महान कार्यों से संसार के सामने आ जाएं’3 इसके लिए उसने उनका इतिहास लिखने का निर्णय किया। यहाँ रहकर उसने राजपूतों से संबंधित शिलालेख, ख्यात, बही, वंशावली, ताम्रपत्र, सिक्के आदि एकत्र किए। उसने यहाँ के चारण-भाटों और ब्राह्मणों से वृत्तांत-कथाएँ आदि सुने और उनको लिपिबद्ध किया। यहाँ के सामंतों से उसके रिश्ते बहुत आत्मीय हो गए थे। उसकी सामंतों से निकटता की जानकारी कंपनी सरकार को भी हुई और उच्चाधिकारी उस पर संदेह करने लगे। निरंतर परिश्रम और यात्राओं से उसका स्वास्थ्य भी बहुत बिगड़ गया था। अंततः जून, 1822 ई. में इस पद से त्यागपत्र देकर वह उदयपुर से विदा हुआ और गोगूंदा, रणकपुर, सिरोही, माउंट आबू, चंद्रावती, सिद्धपुर, पाटण, बड़ौदा, भावनगर, पालीताना, जूनागढ़, द्वारिका, सोमनाथ और कच्छ होता हुआ मुंबई गया। वहाँ से वह 1823 ई. में इंग्लैंड रवाना हो गया। यहाँ पहुँच कर उसने केन्द्रीय भारत और राजपूताना संबंधी अपनी अब तक एकत्र शोध सामग्री को व्यवस्थित कर उसका अध्ययन शुरू किया। पाँच-छह वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद उसने राजपूताना का पहला विस्तृत इतिहास एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान लिखा, जिसका पहला भाग 1829 ई. और दूसरा भाग 1832 ई. में प्रकाशित हुए। यह कार्य संपूर्ण कर लेने के बाद उसने अपनी अंतिम पश्चिमी भारतीय यात्रा का वृत्तांत लिखना शुरू किया। इसके प्रकाशन से पूर्व ही 1835 ई. में उसका आकस्मिक निधन हो गया। यह यात्रा वृत्तांत उसके मरणोपरांत ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इंडिया के नाम से 1839 ई. में प्रकाशित हुआ।

टॉड में अन्वेषण और संग्रह की नैसर्गिक प्रवृत्ति थी। उसने अपने इस स्वभाव के संबंध में एक जगह लिखा है कि “ये खोजबीन की बातें जो किसी निरुद्योगी पुरुष को यकायक थका देने वाली और भयावह प्रतीत होंगी, मेरे लिए राजकाज से अवकाश के समय मन बहलाव के सौदे बन जाती हैं।”4 उसने अपने कार्यकाल के दौरान यहाँ से कई शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, पांडुलिपियाँ आदि अपना धन व्यय करके एकत्र किए और वह इनको इकतालीस बक्सों में भर कर इंग्लैंड ले गया। अपना इतिहास ग्रंथ पूरा करने के बाद यह सामग्री उसने इंडिया हाऊस और रॉय़ल एशियाटिक सोसायटी मे जमा करा दी। टॉड को यूरोपीय इतिहास और क्लासिकल साहित्य का भी विस्तृत ज्ञान था। उसका जन्म फ्रांस की राज्य क्रांति से तत्काल पहले हुआ था, इसलिए वह मोंटेस्क्यू, ह्यूम, गिबन आदि के विचारों से प्रभावित था।5 कॉलरिज़ और वर्ड्सवर्थ की कविताएँ भी उसके मन-मष्तिष्क में थीं। वह रोम, ग्रीस, सीरिया, इजिप्ट आदि के इतिहास से भी बख़ूबी वाक़िफ़ था। उसने उसमें वर्णित आख्यानों, चरित्रों आदि की तुलना यहाँ से उपलब्ध ऐसी ही सामग्री से करने की कोशिश की। उसके व्यक्तित्व का सबसे उल्लेखनीय पहलू यह था कि उसे राजपूताना और यहाँ के सामंतों से गहरा लगाव था। वह उनमें घुल-मिल गया था। उसके सौहार्दपूर्ण व्यवहार और सहयोगात्मक रुख़ के कारण सामंतों का नज़रिया भी उसके प्रति स्नेह और सम्मान का था। इस कारण एक बार तो उसने यहीं बस जाने का विचार भी किया। राजपूताना के सामंतों के शौर्य, पराक्रम, त्याग आदि  से वह लगभग अभिभूत था। उसके अनुसार “नैतिकता के मूलभूत सौंदर्य के प्रति कोई भी मानव राजपूत के बराबर सजग नहीं है; और कदाचित् वह स्वभाववश अपने आप इसका पालन नहीं कर पाता है तो कोई भी अनुभवी सूत्र उसको मार्गदर्शन कराता रहता है।”6 राजपूताना में भी ख़ास तौर पर मेवाड़ के शासकों के बारे में उस की राय बहुत ऊंची थी। 1806 ई. में दौलतराव सिन्धिया के साथ एक युवा अधिकारी के रूप में जब वह मेवाड़ के महाराणा से मिला, तो उसकी शान और सद्व्यवहार ने उसी समय उसके मन में गहरी जगह बना ली थी।

2.

पवित्रात्मा संत-भक्त और असाधारण रहस्यवादी-रूमानी कवयित्री के रूप में मीरां के कैननाइजेशन और छवि निर्माण करने वाली टॉड की मीरां विषयक टिप्पणियां टॉड के ग्रंथों, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान और ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इन वेस्टर्न इंडिया में आई हैं। टॉड के समय तक राजस्थान के इतिहास से संबंधित बहुत सारी सामग्री उपलब्ध नहीं थी। रासो, ख्यात, वंशावली आदि कुछ उपलब्ध ग्रंथों का सहयोग लेने के अलावा टॉड ने भाट, चारण, यति, ब्राह्मण आदि लोगों से सुन-सुन कर ही अपना इतिहास लिखा था। मीरां का उल्लेख मेवाड़ की किसी भी ख्यात, बही, वंशावली आदि में नहीं था, इसलिए टॉड को इसके लिए धार्मिक चरित्र-आख्यानों और जनश्रुतियों पर ही निर्भर रहना पड़ा होगा। यही कारण है कि मीरां विषयक उसकी टिप्पणियों में तथ्यात्मक भूलें रह गई हैं। उसने अपने इतिहास में मीरां को राणा कुंभा (1433 ई.) की पत्नी लिखा है, जबकि यात्रा वृत्तांत में वह उसे राणा लाखा (1382 ई.) की पत्नी बताता है। इस संबंध में वह गहरी उलझन में था। उसने अपने इतिहास में इस उल्लेख से संबंधित पाद टिप्पणी में यह लिखा कि यह ग़लत भी हो सकता, क्योंकि मेवाड़ का इतिहास अभी अनिश्चित है। परवर्ती इतिहासकारों ने नवीन शोधों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि मीरां राठौड़वंशी राव जोधा के मेड़ता के संस्थापक पुत्र राव दूदा के चौथे पुत्र रत्नसिंह की पुत्री थी, जिसका विवाह राणा सांगा (1482-1528 ई.) के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। टॉड की ये टिप्पणियाँ मीरां के जन्म, विवाह आदि की तथ्यात्मक जानकारियों के लिए तो उपयोगी नहीं है, लेकिन इनका इतर महत्त्व बहुत है। इनसे इतिहास में मीरां की प्रतिष्ठा एक असाधारण संत-भक्त और रूमानी और रहस्यवादी कवयित्री के रूप में हो गई। टॉड के इतिहास के पहले भाग के मेवाड़ का इतिहास अध्याय में मीरां विषयक टिप्पणी इस प्रकार है:

“कुंभा ने मारवाड़ के श्रेष्ठतम में से एक, मेड़ता के राठौड़ कुल की पुत्री से विवाह किया। मीरांबाई सौंदर्य और रूमानी भक्ति की दृष्टि से अपने समय की सर्वाधिक यशस्वी राजकुमारी थी। उसके द्वारा रचित पद फक्कड़ चारणों की तुलना में कृष्ण भक्तों में अधिक प्रचलित हैं। कृष्ण को संबोधित और उसकी स्तुति में रचित उसके कुछ पद सुरक्षित हैं तथा सराहे जाते हैं। हम यह निश्चपूर्वक नहीं कह सकते कि मीरां ने अपने पति से काव्यात्मक भक्ति प्राप्त की या उनके पति ने उनसे वह अनुभूति प्राप्त की, जिससे वह गीत गोविंद और उत्तर कथा  रच सके। मीरां का इतिहास एक प्रेमाख्यान है और यमुना से लेकर दुनिया के छोर (द्वारिका) तक पूरे भारत में हर मंदिर में उसके आराध्य के प्रति भक्ति की अतिशयता ने अनेक प्रवादों को जन्म दिया।”7

मीरां विषयक टॉड की दूसरी टिप्पणी उसके यात्रा वृत्तांत ट्रेल्वस इन वेस्टर्न इंडिया में है। इस वृत्तांत के बीसवें प्रकरण में वेरावल, आरमरा, गुरेजा, बेट, समुद्री लुटेरों के दुर्ग, विष्णु मंदिर सहित मीरां निर्मित कृष्ण मंदिर का वर्णन आते हैं। टॉड यहाँ भक्त और कवयित्री राजपूत रानी मीरां संबंधी अपनी धारणाएँ इस प्रकार रखता है:

“परन्तु जो देवालय मेरे लिए सबसे अधिक आकर्षण की वस्तु सिद्ध हुआ, वह था मेरी भूमि मेवाड़ की रानी लाखा की स्त्री सुप्रसिद्ध मीरांबाई का बनवाया हुआ सौरसेन के गोपाल देवता का मंदिर, जिसमें वह नौ (आठ पटरानियाँ और नवीं मीरांबाई) का प्रेमी अपने मूल स्वरूप में विराजमान था, और निस्संदेह यह राजपूत रानी उसकी सबसे बड़ी भक्त थी। कहते हैं कि उसके कवित्वमय उदगारों से किसी भी समकालीन भाट (कवि) की कविता बराबरी नहीं कर सकती थी। यह भी कल्पना की जाती है कि यदि गीत गोविंद या कन्हैया के विषय में लिखे गए गीतों की टीका की जाए तो ये भजन जयदेव की मूल कृति की टक्कर के सिद्ध होंगे। उसके और अन्य लोगों के बनाए भजन, जो उसके उत्कृष्ट भगवत् प्रेम के विषय में अब तक प्रचलित हैं, इतने भावपूर्ण और वासनात्मक (Sypphi) हैं कि संभवत: अपर गीत उसकी प्रसिद्धि के प्रतिस्पर्धी वंशानुगत गीत पुत्रों के ईर्ष्यापूर्ण आविष्कार हों, जो किसी महान कलंक का विषय बनने के लिए रचे गए हों। परन्तु यह तथ्य प्रमाणित है कि उसने सब पद प्रतिष्ठा छोड़कर उन सभी तीर्थ स्थानों की यात्रा में जीवन बिताया जहाँ मंदिरों में विष्णु के विग्रह विराजमान थे और वह अपने देवता की मूर्ति के सामने रहस्यमय रासमंडल की एक स्वर्गीय अप्सरा के रूप में नृत्य किया करती थी इसलिए लोगों को बदनामी करने का कुछ कारण मिल जाता था। उसके पति और राजा ने भी उसके प्रति कभी कोई ईर्ष्या अथवा संदेह व्यक्त नहीं किया यद्यपि एक बार ऐसे भक्ति के भावावेश में मुरलीधर ने सिंहासन से उत्तर पर अपनी भक्त का आलिंगन भी किया था। इन सब बातों से अनुमान किया जा सकता है कि (मीरां के प्रति संदेह करने का) कोई उचित कारण नहीं था।”8

इस तरह कुल मिलाकर टॉड ने मीरां के संबंध में धारणा बनाई कि (1) असाधारण सौंदर्य और रूमानी भक्ति के कारण वह अपने समय की सर्वाधिक यशस्वी राजकुमारी थी, (2) उसका इतिहास एक प्रेमाख्यान है, (3) वह उत्कृष्ट कोटि की कवयित्री थी और उसकी कविता जनसाधारण में लोकप्रिय थी, (4) उसने पद-प्रतिष्ठा छोड़ कर कृष्ण के मंदिरों की यात्राएँ कीं, (5) अतिशय भक्ति, नृत्य और देशाटन के कारण समाज में उसके संबंध में कुछ लोकावाद भी चले और (6) उसके पति और राणा ने उस पर कभी संदेह नहीं किया। जाहिर है, टॉड ने मीरां के जागतिक स्त्री अस्तित्व के संघर्ष और अनुभव से जाने-अनजाने परहेज करते हुए अपने संस्कार, रुचि और ज़रूरत के अनुसार उसका एक अमूर्त रहस्यवादी और रूमानी संत-भक्त और कवयित्री रूप गढ़ दिया।

जेम्स टॉड के इस कैननाइजेशन के दूरगामी नतीज़े निकले। राजवंशों के ख्यात, बही, वंशावली आदि पारंपरिक इतिहास रूपों में लगभग बहिष्कृत मीरां को अब राज्याश्रय में लिखे जाने वाले इतिहासों में भी जगह मिलने लगी। श्यामलदास ने मेवाड़ के राज्याश्रय में 1886 ई. में लिखे गए अपने इतिहास वीर विनोद (मेवाड़ का इतिहास) में मीरां का उल्लेख बहुत सम्मानपूर्वक किया है। उन्होंने मीरां के राणा कुम्भा से विवाह की कर्नल टॉड की तथ्यात्मक भूल को दुरुस्त करते हुए लिखा कि “मीरांबाई बड़ी धार्मिक और साधु-संतों का सम्मान करने वाली थी। यह विराग के गीत बनाती और गाती, इससे उनका नाम बड़ा प्रसिद्ध है।”9 स्पष्ट है कि मीरां का यह रूप कर्नल टॉड की मीरां संबंधी कैननाइजेशन से प्रभावित है और इसमें भक्ति और वैराग्य को ख़ास महत्त्व दिया गया है। अलबत्ता श्यामलदास ने पाद टिप्पणी में यह उल्लेख ज़रूर किया है कि “मीरां महाराणा विक्रमादित्य व उदयसिंह के समय तक जीती रही, और महाराणा ने उसको जो दुःख दिया, वह उसकी कविता से स्पष्ट है।”10 श्यामलदास का वीर विनोद मेवाड़ के समग्र इतिहास पर एकाग्र था और उसमें मीरां विषयक केवल कुछ पंक्तियाँ और पाद टिप्पणियाँ  ही थीं। वीर विनोद के प्रकाशन के कुछ वर्षों बाद ही 1898 ई. में जोधपुर रियासत के मुहकमें तवारीख़ (इतिहास विभाग) से संबद्ध मुंशी देवीप्रसाद ने एक पुस्तकाकार विनिबंध मीरां का जीवन चरित्र लिखा। उन्होंने और भी कई इतिहास पुरुषों पर भी इसी तरह के शोधपूण विनिबन्ध लिखे। मुंशी देवीप्रसाद ने दावा किया कि उनकी जानकारियाँ भक्तमालों और कर्नल टॉड कृत इतिहास से ज़्यादा सही और प्रामाणिक हैं। उनके अनुसार मध्यकालीन ग्रंथो की मीरां विषयक जानकारियाँ ‘तवारीख़ी सबूत और तवारीख़ी दुनिया से बहुत दूर’ और ‘अटकलपच्छू और सुनी-सुनाई बातों’ पर आधारित हैं।11 मीरां  के जीवन से जुड़ी कुछ बहु प्रचारित घटनाओं; जैसे अकबर और तानसेन की मीरां से भेंट और मीरां का तुलसीदास से पत्राचार को मुंशी देवीप्रसाद ने ‘भोले-भाले भक्तों की मीठी गप्पें’ कहा।12 उनके अनुसार “भक्तों ने मीरंबाई के सलूक और अहसानों का बदला ऐसी-ऐसी मनोरंजन कथाओं के फैलाने से दिया।”13 इस विनिबन्ध से मीरां के पति, पिता ससुर, जन्म, विवाह आदि से जुड़ी कुछ भ्रांतियों का निराकरण हुआ। उसके पीहर के राठौड़ और ससुराल के सिसोदिया वंश के संबंध में कुछ नई जानकारियाँ सामने आईं। मुशी देवीप्रसाद ने दावा तो यह किया था कि वे मीरां विषयक वर्णन में भक्तमाल और कर्नल टॉड से ‘ज़्यादा सही‘ हैं, लेकिन यथार्थ में ऐसा था नहीं। उनके इस विनिबंध ने भी मीरां के संत-भक्त रूप को ही पुष्ट और विस्तृत किया। उन्होंने भी सहारा तथ्यों के बजाय जनश्रुतियों का ही लिया। इतिहास पर निर्भर रहने के दावे के बावजूद उनकी कुछ सीमाएँ थीं। एक तो वे सामंतों के यहाँ आश्रित थे, इसलिए उनके अतीत के संबध में कोई अप्रसन्नकारी टिप्पणी करने का साहस उनमें नहीं था और दूसरे, मीरां संबधी अपनी अधिकांश जानकारियाँ उन्होंने श्यामलदास और इतिहासकार गौरीशंकर ओझा से पत्राचार कर जुटाई थीं14, जिनका नज़रिया सामंती अतीत से अभिभूत कर्नल टॉड से प्रभावित था। मुंशी देवीप्रसाद ने अपने इस निबंध में मीरां से संबंधित कुछ घटनाओं को गप्पें कहकर खरिज कर दिया, लेकिन दूसरी तरफ उससे संबंधित कुछ अपुष्ट संकेतों को बढा-चढ़ा कर इसमें शामिल भी कर लिया। उनके द्वारा अतिरंजित ये संकेत इस प्रकार हैं:

  1. “मीरांबाई को भी बचपन से ही गिरिधरलाल जी का इष्ट हो गया था और वे उनकी मुरति से दिल लगा बैठी थीं और ससुराल में गई जब भी उसको अपने साथ इष्टदेव की तरह ले गई थीं और अब जो विधवा हुईं तो रात-दिन उसी मूरति की सेवा पूजा जी जान से करने लगीं।”15
  2. (पति भोजराज की मृत्यु के बाद) “मीरांबाई ने इस तरह ठीक तरुणावस्था से संसार के सुखों से शून्य हो कर अपनी बदक़िस्मती का कुछ ज़्यादा संताप और विलाप नहीं किया, बल्कि परलोक के दिव्यभोग और विलासों की प्राप्ति के लिए भगवत् भगति में एकचित्त रत होकर इस असार संसार को स्वप्न तदवत संपति का ध्यान एकदम से छोड़ दिया।”16
  3. (चितौड़ से लौटकर) “मीरांबाई का क्या परिणाम हुआ यह तवरीख़ी वृत्तांत की तरह तो कुछ मालूम नहीं लेकिन भगत लोग ऐसा कहते हैं कि वे द्वारिका जी के दर्शन करने को गईं थीं, वहाँ एक दिन ब्राह्मणों के धरना देने से जिन्हें राणा ने उनको लौटा लाने के वास्ते भेजा था, यह पद गाया- मीरां के प्रभु मिल बिछड़न नहीं कीजे– और रणछोड़ जी की मूरति में समा गई।”17

मीरां विषयक इन उल्लेखों का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं था। मुंशी देवीप्रसाद इनकी पुष्टि केवल ‘ऐसा कहते हैं’ से करते हैं। इस तरह कमोबेश वे भी उन्हीं जनश्रुतियों का सहारा लेते हैं, जिनको पहले वे ‘अटकलपच्छू और सुनी-सुनाई बातें’ कहकर ख़ारिज कर देते हैं। स्पष्ट है कि ऐतिहासिक होने के दावे के साथ प्रस्तुत इन अनैतिहासिक जानकारियों से मीरां के संत-भक्त रूप के विस्तार और पुष्टि में ही मदद मिली। सत्ता के साथ मीरां के तनावपूर्ण संबंधों पर भी मुंशी देवीप्रसाद कोई नई रोशनी नहीं डालते। इस संबंध में वे भी टॉड की तरह दोष मीरां के साधु-संतों से अत्यधिक मेलजोल को देते हैं। वे लिखते हैं कि “राणाजी ने मीरांबाई को तक़लीफ़ दी, क्योंकि उनकी भगति देखकर साधु-संत उनके पास बहुत आया करते थे। यह बात राणा जी को बुरी लगती थी और ये बदनामी के ख़याल से उन लोगों का आना-जाना रोकने के वास्ते मीरांबाई के ऊपर सख़्ती किया करते थे।”18

मेवाड़ के इतिहास कार्यालय के मंत्री गौरीशंकर हीराचंद ओझा भी 1928 ई. में मेवाड़ के राज्याश्रय में लिखे गए अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में टॉड की धारणा को ही दोहराते हैं। मीरां की लोकप्रियता का उल्लेख जेम्स टॉड ने भी किया था और लगभग इसे ही दोहराते हुए ओझा लिखते हैं कि “हिन्दुस्तान में बिरला ही ऐसा गाँव होगा जहाँ भगवद् भक्त हिंदू स्त्रियाँ या पुरुष मीरांबाई के नाम से परिचित न हों और बिरला ही ऐसा मंदिर होगा जहाँ उनके बनाए भजन न गाए जाते हों।”19 ओझा मेवाड़ राजवंश की मीरां से नाराज़गी की बात तो स्वीकार करते हैं, लेकिन वे भी कर्नल टॉड, श्यामलदास और मुंशी देवीप्रसाद की तरह इसके लिए दोष मीरां के संत-भक्तों से अत्याधिक मेलजोल को देते हैं। वे लिखते हैं कि “मीरांबाई के भजनों की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी और सुदूर स्थानों से साधु-संत उससे मिलने आया करते थे। इसी कारण विक्रमादित्य उससे अप्रसन्न रहता था और उसको तरह-तरह की तक़लीफ़ें देता था।”20 उन्नीसवीं सदी में टॉड और उनके अनुकरण पर श्यामलदास और मुंशी देवीप्रसाद और बीसवीं सदी के आरंभ में गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इतिहास में मीरां की जो लोकप्रिय संत-भक्त स्त्री छवि निर्मित की, कालांतर में साहित्य सहित दूसरे प्रचार माध्यमों में यही छवि चल निकली।

4.

मीरां की असाधारण और पवित्रात्मा स्त्री संत-भक्त और रूमानी-रहस्यवादी कवयित्री छवि के निर्माण में जाने-अनजाने टॉड के भारतीय इतिहास विषयक ख़ास यूरोपीय नज़रिये और तत्कालीन राजपूताना के मेवाड़-मारवाड़ के सामंतों के संबंध में उसके वैयक्तिक पूर्वाग्रहों की निर्णायक और महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय इतिहास और समाज को जानने-समझने के उपक्रम उन्नीसवीं सदी के आरंभ में यूरोपीयन विद्वानों ने शुरू किए। इन विद्वानों में से अधिकांश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत के विभिन्न भूभागों ऊँचे पदों पर नियुक्त अधिकारी थे, जिन्होंने अपने अधीनस्थ क्षेत्रों को अच्छी तरह से जानने-समझने के लिए के वहाँ के इतिहास, समाज, धर्म, कानून आदि का विस्तृत अध्ययन किया। इसी दौरान यूरोपीय विश्वविद्यालयों में भी भारतीय इतिहास, समाज और संस्कृति के अन्वेषण की शुरूआत हुई। उन्नीसवीं सदी में हुए इन विभिन्न अध्ययनों की विश्लेषण विधियों को अमर्त्य सेन ने विदेश प्रेमी, दंडाधिकारी और संग्रहाध्यक्षीय नाम से वर्गीकृत किया है।21 विदेश प्रेमी विश्लेषण विधि में ज़ोर भारत की अलग और विस्मयकारी गैर भौतिक बातों पर था। इसके अंतर्गत आने वाले फ्रीडरिख, श्लेगल, शेलिंग आदि विद्वानों ने यूरोप में भारत की अद्भुत और विस्मयकारी धार्मिक-आध्यात्मिक तस्वीर पेश की। दंडाधिकारी विश्लेषण विधि में यूरोपीय विद्वानों ने अपना अधीनस्थ और शासित क्षेत्र मानकर श्रेष्ठता और स्वामित्व के भाव से भारत को समझा और परखा। जेम्स मिल जैसे विद्वान इस विश्लेषण विधि से इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत एक आदिम और असभ्य देश है, इसलिए इस पर ब्रिटिश साम्राज्य की सुधारवादी और उदारमना छत्रछाया अपेक्षित है। संग्रहाध्यक्षीय विश्लेषण विधि में बौद्धिक जिज्ञासा के तहत भारतीय इतिहास, समाज और संस्कृति को देख-समझकर उसके विश्लेषण और ‘प्रदर्शन’ पर बल दिया गया था। इस विधि में विदेश प्रेमी विश्लेषण विधि की तरह केवल अद्भुत और असाधारण का आग्रह नहीं था और यह दंडाधिकारी विश्लेषण विधि की तरह अधीनस्थ क्षेत्र की प्रशासनिक ज़रूरतों से भी प्रेरित नहीं थी, इसलिए अपेक्षाकृत निष्पक्ष थी। टॉड राजपूताना के इतिहास और समाज को जानने-समझने के लिए बौद्धिक जिज्ञासा के कारण ही आकृष्ट हुआ था, उसका नज़रिया  भी यहाँ से गहरे लगाव और सहानुभूति का था इसलिए उसकी विश्लेषण विधि को संग्रहाध्यक्षीय के अंतर्गत ही रखा जाएगा। इस विधि के अंतर्गत आने वाले विलियम जोन्स, थामस कोलब्रुक आदि अन्य विद्वानों की तुलना में यहाँ के संबंध में टॉड की धारणाएँ और निष्कर्ष कई बार ज़्यादा युक्तिसंगत थे। इनमें से कुछ धारणाएँ बाद में भारतीय शोधों से भी सही साबित हुई हैं। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में उसने अपने राजपूताना विषयक शोध कार्यों से सिद्ध किया कि भारतीय अनैतिहासिक नहीं है और उनके पास अपने इतिहास से संबंधित पर्याप्त सामग्री है, जबकि उसके समकालीन अधिकांश यूरोपीय इतिहासकार मानते थे कि भारतीयों की अपना इतिहास लिखने में कभी दिलचस्पी नहीं रही। उसने एक जगह लिखा है कि “कुछ लोग आँख मींच कर यह मान बैठे हैं कि हिंदुओं के पास ऐतिहासिक ग्रंथों जैसी कोई चीज़ नहीं है।….मैं फिर कहूँगा कि इस प्रकार के अर्थहीन अनुमान लगाने में प्रवृत्त होने से पहिले हमें जैसलमेर और अणहिलवाड़ा (पाटण) के जैन ग्रंथ भंडारों और राजपूताना के राजाओं और ठिकानेदारों के अनेक निजी संग्रहों का अवलोकन का लेना चाहिए।”22 अन्य अधिकांश यूरोपीय इतिहासकारों से भिन्न टॉड की यह भी धारणा थी कि भारतीय सामंत प्रथा ठीक वैसी ही है जैसी यूरोप में पाई जाती थी। यूरोपीय इतिहासकार मानते थे कि भारत में भूमि का स्वामी राजा होता है, जबकि टॉड का निष्कर्ष इससे एकदम अलग था। उसके अनुसार राजस्थान में रैयत अथवा किसान ही भूमि का असली मालिक होता है।23 बाद में रोमिला थापर आदि भारतीय इतिहासकार भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे।24 टॉड की संग्रहाध्यक्षीय विश्लेषण विधि कुछ हद तक युक्तिसंगत और निष्पक्ष थी, लेकिन यह विदेश प्रेमी और दंडाधिकारी व्याख्याओं से पूरी तरह अप्रभावित नहीं रह पाई। यह बात टॉड सहित सभी संग्रहाध्यक्षीय विश्लेषणों पर लागू होती है। अमर्त्य सेन के शब्दों में “ये विश्लेषण पूरी तरह निष्पक्ष नहीं रह पाए, उनमें किसी न किसी तरह के रुझान अवश्य प्रभावी हुए।”25 विदेश प्रेमी विश्लेषकों की तरह कुछ हद तक टॉड का आग्रह भी यहाँ के ‘परम अद्भुत’26, धार्मिक-आध्यात्मिक, रहस्यमय और गैरभौतिक के प्रति ज़्यादा है। इसी तरह दंडाधिकारी विश्लेषकों की तरह टॉड भी यूरोपीय जाति को भारतीयों से श्रेष्ठ मानता था। कवि चंदरबरदाई के काव्यानुवाद से संबंधित एक हस्तलिखित टिप्पणी में उसने लिखा कि “मैंने इन लोगों के साथ हिलमिल कर इनकी भावनाओं को ग्रहण किया, यद्यपि उत्तमता में ये हमारी श्रेणी तक नहीं पहुँच सकते, परंतु यह ज्ञात कर लिया जाए कि अत्याचार और दमन से पूर्व ये कैसे रहे होंगे तो ग्राह्य प्रतीत होंगे।”27

मीरां के छवि निर्माण में टॉड का नज़रिया जाने-अनजाने विदेशी प्रेमी और दंडाधिकारी रुझानों से प्रभावित रहा है। टॉड मीरां के भौतिक स्त्री अस्तित्व के जागतिक संघर्ष और अनुभव से अपरिचित नहीं था। सत्ता से मीरां के कटु और तनावपूर्ण संबंध की जानकारी भी उसको धार्मिक-सांप्रदायिक चरित्र-आख्यानों और जनश्रुतियों के माध्यम से थी। उसकी मीरां विषयक दोनों टिप्पणियों में इसके संकेत विद्यमान हैं। पहली में वह लिखता है कि “भक्ति की अतिशयता ने उसके संबंध में अनेक प्रवादों को जन्म दिया।”28 दूसरी में वह लिखता है कि “वह अपने देवता की मूर्ति के सामने रहस्यमय रासमंडल की अप्सरा की तरह नृत्य किया करती थी इसलिए लोगों को कुछ बदनामी करने का कुछ कारण मिल जाता था। इसी टिप्पणी में वह आगे लिखता है कि “(मीरां के प्रति संदेह करने का) कोई उचित कारण नहीं था।”29 टॉड मीरां के जागतिक सरोकार और संघर्ष के इन संकेतों को विस्तृत नहीं करता। वह विदेश प्रेमी व्याख्याओं के प्रभाव में उसके व्यक्तित्व से संबद्ध गैर भौतिक, रोमांटिक और धार्मिक-आध्यात्मिक संकेतों को आधार बनाकर अपनी कल्पनाशीलता से उसकी सर्वथा नयी और असाधारण छवि गढ़ता है। संग्रहाध्यक्षीय विश्लेषण विधि दंडाधिकारी विश्लेषण विधि से अलग थी, लेकिन उससे एकदम अछूती नहीं थी। अनजाने ही मीरां की यह गैरभौतिक, रहस्यवादी और रूमानी छवि गढ़ने में टॉड इससे भी प्रभावित हुआ। दंडाधिकारी विश्लेषण भारतीय समाज को गतानुगतिक और अपरिवर्तनशील मानकर यहाँ पर ब्रिटिश साम्राज्य की उपयोगिता का तर्क देते थे। यह धारणा सही नहीं थी। दरअसल यहाँ जब भी वर्चस्ववादी ताकतों का ज़ोर बढ़ा तो उनके विरुद्ध प्रतिरोध के स्वर भी मुखर हुए हैं। मध्यकालीन सामंती और पितृसत्तात्मक विचारधारा के अधीन अपने लैंगिक दमन ओर शोषण के विरुद्ध मीरां का आजीवन संघर्ष यहाँ की निरंतर सामाजिक गतिशीलता और द्वंद्व का ही एक रूप था, लेकिन दंडाधिकारी रूझान के प्रभाव में टॉड ने जाने-अनजाने इसकी अनदेखी की।

मीरां के छवि निर्माण में राजपूताना और यहाँ के सामंतों के संबंध में टॉड के वैयक्तिक पूर्वाग्रहों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। टॉड की राजपूताना के सामंतों से अंतरंगता थी और वह उनमें घुलमिल गया था। वह यहाँ के सामंतों को ‘अपने राजपूत’30 और मेवाड़ को ‘मेरी भूमि’31 कहता था। पोलिटिकल एजेंट के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान मिले अपार स्नेह और सम्मान के कारण यहाँ के सामंतों के प्रति उसके मन में गहरी कृतज्ञता थी। उसके इतिहास ग्रंथ के संपादक विलियम क्रूक के शब्दों में “वह राजस्थान के राजपूत राजाओं और उनमें भी ख़ास तौर पर मेवाड़-मारवाड़ का कुख्यात पक्षधर था।”32 वह यहाँ के सामंतों के शौर्य, पराक्रम, त्याग और निष्ठा से लगभग अभिभूत था। अपने इतिहास ग्रंथ की भूमिका में उनके संबंध में उसने एक जगह लिखा कि “अनेक शताब्दियों तक एक वीर जाति का अपनी स्वतंत्रता के लिए लगातार युद्ध करते रहना, अपने पूर्वजों के सिद्धांतों की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करना और अपनी मान-मर्यादा के लिए बलिदान हो जाने की भावना रखना, मनुष्य के जीवन की ऐसी अवस्था है, जिसको देखकर और सुनकर शरीर में रोमांच हो जाता है।”33 मीरां मारवाड़ की बेटी और मेवाड़ की बहु थी और उसका स्वेच्छाचार और विद्रोही तेवर इन दोनों राजवंशों के लिए निरंतर चुमने वाली कील की तरह असुविधा बन गया था। मीरां जनसाधारण में लोकप्रिय थी, इसलिए टॉड उसकी अनदेखी तो नहीं कर पाया, लेकिन उसने उसकी छवि इस तरह से गढ़ी कि सामंतों को असुविधा लगने वाली उसकी चारित्रिक विशेषताएं गौण होकर ध्यानाकर्षक नहीं रह गईं। उसने मीरां के संपूर्ण जीवन को एक रूमानी और रहस्यमय प्रेमाख्यान में बदल दिया। मीरां सामंती इतिहास और स्मृति में अब तक वर्जित थी, लेकिन उसका यह रूप अब इनमें स्वीकार्य हो गया। इतिहास और मीरां की कविता में इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि मीरां तत्कालीन सत्ता की कोप भाजन रही और उसे बार-बार प्रताड़ित भी किया गया लेकिन टॉड इसके लिए सामंतों पर दोषारोपण करने से साफ़ बच गया। उसने अपने यात्रा वृत्तांत में किंतु-परंतु के साथ यह लिखा कि “उसके पति और राजा ने भी उसके प्रति कभी कोई ईर्ष्या अथवा संदेह व्यक्त नहीं किया यद्यपि एक बार ऐसे भक्ति के भावावंश में मुरलीधर ने सिंहासन से उतरकर अपनी भक्त का आलिंगन भी किया था- इन सब बातों से अनुमान किया जा सकता है कि (मीरां के प्रति संदेह करने का) कोई कारण नहीं था।”34 टॉड ने यह तो स्वीकार किया कि समाज में मीरां के संबंध में लोकापवाद प्रचलित थे, लेकिन उसने इसके लिए दोषी सामंतों को नहीं माना। उसने इसकी ज़िम्मेदारी भी मीरां की भक्ति और देशाटन की अतिशयता पर डाल दी।

मीरां के विद्रोही तेवर की टॉड द्वारा की गई अनदेखी का एक कारण और था। दरअसल टॉड के मन में राजपूत स्त्री की जो छवि थी वो यथार्थ के बजाय चारण-भाटों के अंतिरंजनापूर्ण वृत्तांतों पर आधारित थी। राजपूताना के इतिहास में उसका सामना ऐसी स्त्रियों से हुआ था, जो अपने पति के प्रति निष्ठावान, समर्पित और अपने कुल-वंश के मान-सम्मान के लिए त्याग और बलिदान करनेवाली थीं। इन स्त्रियों ने अपने पिता या पति की मान-मर्यादा की रक्षा के लिए अवसर आने पर सती होना, जोहर करना या जहर पीना स्वीकार किया था। टॉड ने अपने इतिहास में राजपूत स्त्री की जमकर सराहना की है। उसने उसका वर्णन एक सच्चरित्र, स्नेहशील, समर्पित, घर-परिवार के निर्णयों में भागीदारी करने वाली, युद्ध और संकट में अपने पति का साथ देने वाली और कायर पति को प्रताड़ित करने वाली स्त्री के रूप में किया है।35 चारण-भाटों के वृत्तांतों के अलावा राजपूत स्त्री की यह छवि टॉड के मन में मेवाड़ की राजकुमारी कृष्णा के अमानुषिक बलिदान से मजबूत हुई, जिसका 1806 ई. में एक युवा अंग्रेज़ अधिकारी के रूप में वह स्वयं साक्षी था।36 आदर्श राजपूत स्त्री की यह छवि उसके मन में इतनी गहरी और मजबूत थी कि उसने अपने समय की राजपूत स्त्रियों की असली हैसियत और हालत के तमाम विवरणों को नज़रअंदाज़ कर दिया। पितृसत्तात्मक विधि निषेधों के अधीन उनका शोषण और दमन आम था, बहु विवाह के कारण वे औपचारिक दांपत्य जीवन व्यतीत करती थीं, उनके विवाह कूटनीतिक गठबंधन के लिए होते थे और उनमें उनकी इच्छा और उम्र को ध्यान में नहीं रखा जाता था, कन्या भ्रूण हत्याएँ भी होती थीं, लेकिन टॉड ने अपने इतिहास में कहीं भी इन पर विचार नहीं किया है। उसके इतिहास ग्रंथ के संपादक विलियम क्रूक के अनुसार वह राजवंशों में विवाह, इसके नियमन, और उत्सव आदि के वर्णन से परहेज़ करता है।37 ई.एम. केले के अनुसार उस समय एक वर्षीय पुरुष शिशुओं की तुलना में स्त्री शिशुओं की संख्या कम थी38, लेकिन टॉड इस तरह विवरणों में जाने से बचता है। मीरां का टॉड की इस आदर्श राजपूत स्त्री से कोई मेल नहीं था। निष्ठा, समर्पण और त्याग जैसे आदर्श राजपूत स्त्री के गुण उसमें नहीं थे। अवज्ञा और स्वेच्छाचार उसके व्यक्तित्व की विशेषताएँ थी और कुल-वंश की मान मर्यादा के लिए उसने सती होकर बलिदान भी नहीं दिया। देशाटन और सभी तरह के लोगों से मेलजोल के कारण उसने सामंती मान-मर्यादा का भी उल्लंघन किया था। सामंत समाज में उसकी चर्चा और उल्लेख भी कुछ हद तक वर्जित थे। वह राजपूत स्त्रियों में अपवाद थी और उसका यह रूप टॉड के मन में जमी आदर्श राजपूत स्त्री छवि के प्रतिकूल था, इसलिए उसने उसको अपनी निगाह में नहीं लिया। टॉड यूरोपीय साहित्य की क्लासिकल परंपरा से परिचित था। प्रेम और रोमांस इस परंपरा में ख़ूब थे, इसलिए उसने मीरां के जीवन और चरित्र के इन्हीं पहलुओं को उसकी छवि में सर्वोपरि कर दिया। इस तरह मीरां का जीवन संघर्ष के आख्यान के बजाय प्रेम, रोमांस और भक्ति का आख्यान बन गया।

इस तरह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इतिहास में मीरां का प्रचलित और लोकप्रिय रूप पूरी तरह टॉड की निर्मिति है। इस निर्मिति में भारतीय इतिहास की यूरोपीय व्याख्याओं और विश्लेषणों की अलग-अलग विधियों के रुझानों के साझा प्रभाव के साथ टॉड के राजपूताना और यहाँ के सामंतों विषयक व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों का भी निर्णायक योगदान है। तत्कालीन राजपूताना में टॉड की वर्चस्वकारी हैसियत और वैदुष्य का ही प्रभाव था कि पारंपरिक इतिहास रूपों से लगभग बहिष्कृत मीरां आधुनिक इतिहास में रूमानी और रहस्यवादी संत-भक्त और कवयित्री के रूप मे मान्य हो गई। निरंतर स्वेच्छाचार और अवज्ञा के कारण मीरां के सत्ता से संबंध कटु और तनावपूर्ण थे और इस कारण उसका जागतिक अनुभव बहुत कष्टमय और त्रासपूर्ण था, लेकिन अपने वैयक्तिक पूर्वाग्रहों के कारण टॉड को उसका यह रूप स्वीकार्य नहीं हुआ। उसने अपने यूरोपीय संस्कार, ज्ञान और रुचि के अनुसार प्रेम, रोमांस और भक्ति के मेल से उसका नया स्त्री संत-भक्त और कवयित्री रूप गढ़ दिया। टॉड के बाद में हुए देशी इतिहासकारों ने मीरां के जीवन के संबंध में टॉड की कुछ तथ्यात्मक भूलों को तो ठीक किया, लेकिन उसकी छवि में बुनियादी रद्दोबदल की पहल उनकी तरफ़ से आज तक नहीं हुई।

संदर्भ और टिप्पणियाँ:

  1. एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, (संपादन: विलियम क्रूक) मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली (लंदन: प्रथम संस्करण, 1920), पुनर्मुद्रण, 1994, पृ.546
  2. ‘ग्रंथकर्ता विषयक संस्मरण’, पश्चिमी भारत की यात्रा (हिंदी अनुवाद: गोपालनारायण बहुरा) प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर (विलियम एच. एलन एंड कंपनी, लंदन: प्रथम संस्करण, 1839), द्वितीय संस्करण, 1996, पृ.11
  3. पश्चिमी भारत की यात्रा के विज्ञापन की पाद टिप्पणी में दिए गए टॉड के एक पत्रांश से उद्धृत। यह विज्ञापन हिंदी अनुवाद के आरंभिक पृष्ठों में सम्मिलित किया गया है।
  4. गोपीनाथ शर्मा: इतिहासकार जेम्स टॉड: व्यक्तित्व एवं कृतित्व (सं. हुकमसिंह भाटी), प्रताप शोध प्रतिष्ठान, उदयपुर, 1992, पृ.185
  5. ‘ग्रंथकर्ता विषयक संस्मरण’, पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ.4
  6. एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ राजस्थान, खंड-1, पृ.337
  7. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ.442
  8. 9. वीर विनोद (मेवाड़ का इतिहास), प्रथम भाग, (राज यंत्रालय़, उदयपुर, प्रथम संस्करण, 1886) , मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पुनर्मुद्रण, 1986, पृ.371
  9. 10. वही, पृ. 371
  10. मुंशी देवीप्रसाद: मीरांबाई का जन्म चरित्र, बंगीय साहित्य परिषद, कोलकाता, 1954 (प्रथम संस्करण, 1898), पृ.1
  11. वही, पृ.28
  12. वही, पृ.28
  13. वही, पृ.10
  14. वही, पृ.11
  15. वही, पृ.10
  16. वही, पृ.26
  17. वही, पृ.12
  18. 19. उदयपुर राज्य का इतिहास, (प्रथम संस्करण, 1928), राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, पुनर्मुद्रण, 1996-97, पृ.359
  19. 20. वही, पृ.360
  20. भारतीय अर्थतंत्र, इतिहास और संस्कृति (आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन का हिंदी रूपांतर), राजपाल एंड संस, दिल्ली, 2005, पृ.134
  21. एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, पृ.268
  22. ग्रंथकर्ता विषयक संस्मरण, पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ.39
  23. 24. आदिकालीन भारत की व्याख्या (हिन्दी अनुवाद: मंगलनाथ), ग्रंथ शिल्पी, नई दिल्ली, 1998, पृ.11
  24. 25. भारतीय अर्थतंत्र, इतिहास और संस्कृति, पृ.141
  25. ग्रंथकर्ता विषयक संस्मरण, पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ. 37
  26. पाद टिप्पणी, वही, पृ. 18
  27. एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, पृ.337
  28. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ. 442
  29. ग्रंथकर्ता विषयक संस्मरण, वही, पृ.32
  30. वही, पृ.442
  31. संपादकीय, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, पृ. XXVII
  32. लेखक का पूर्व कथन, वही, पृ. IXIII
  33. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ. 443
  34. ‘संपादकीय’, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, पृ. XXXVIII
  35. यह घटना उस समय हुई जब फूट, आपसी प्रतिद्वन्द्विता और मराठों-पिंडारियों की निरंतर लूटपाट के कारण राजस्थान की अधिकांश रियासतों की हालत बहुत खराब थी। कृष्णाकुमारी मेवाड़ रियासत के महाराणा भीमसिंह की राजकुमारी थी, जिसका संबंध जोधपुर रियासत के महाराजा भीमसिंह के साथ हुआ था। भीमसिंह के देहांत के बाद उसका संबंध जयपुर के महाराजा जगतसिंह के साथ कर दिया गया। जयपुर से नाराज़ चल रहे ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया को यह बात नागवार गुजरी। उसने विवाह का प्रस्ताव लेकर आए जयपुर के प्रतिनिधि को उदयपुर से बाहर निकाल देने का आग्रह किया, जो महाराणा भीमसिंह ने नहीं माना। नाराज़ सिंधिया ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। विवश होकर भीमसिंह को उसकी बात माननी पड़ी। कृष्णाकुमारी का पहला संबंध जोधपुर में हुआ था, इसलिए वहाँ के महाराजा मानसिंह ने उसके जगतसिंह से संबंध को अपना अपमान समझा। नतीज़ा यह हुआ कि जोधपुर और जयपुर की सेनाएँ एक-दूसरे से भिड़ गईं। पिंडारी नवाब अमीर ख़ां ने इस लड़ाई मे जयपुर का साथ दिया, जिससे मानसिंह पराजित होकर जोधपुर लौट गया। जगतसिंह ने जोधपुर को घेर लिया, लेकिन इस बार मानसिंह ने घूस देकर अमीर ख़ां को अपनी तरफ़ मिला लिया। जगतसिंह पराजित होकर जयपुर लौट गया। अमीर खां ने मानसिंह की तरफ से उदयपुर पहुंच कर महाराणा भीमसिंह के सामने यह प्रस्ताव रखा कि कृष्णाकुमारी मानसिंह से विवाह करे या जहर पीकर मर जाए। असहाय भीमसिंह ने अपने राज्य को उपद्रव से बचाने के लिए यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। कृष्णाकुमारी ने अपने पिता की इच्छा के अनुसार जहर पीकर अपने प्राण दे दिए। टॉड ने अपने इतिहास में इस घटना का वर्णन बहुत भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी भाषा में किया है। उसने कृष्णाकुमारी की तुलना रोम के योद्धा वियूसियस की बेटी वर्जिनिया से की है। कहते हैं कि वियूसियस ने अपनी बेटी की हत्या उसके सतीत्व की रक्षा के लिए सबके सामने कर दी थी।
  36. ‘संपादकीय’, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, पृ. XXXVIII
  37. वही, पृ. XXXVIII

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हिमांशु सिंह की कहानी ‘मार्जार’

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आज पढ़िए युवा लेखक हिमांशु सिंह की कहानी। हिमांशु सिंह सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी करते हैं और हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं. दृष्टि संस्थान से जुड़े हैं और स्वतंत्र लेखन भी करते हैं. ‘मार्जार’ आधुनिक रत्नाकर के वाल्मीकीकरण का वृत्तान्त है-

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भाग 1

सद्गृहस्थों की चिन्ता का कारण बने रहना दाढ़ी रखने वालों की नियति है. दढ़ियल चाहे साधु हों या असाधु, सद्गृहस्थों का मुस्कानयुक्त झूठा अभिवादन उनके दैनिक जीवन का हिस्सा होता है. ये कहानी ऐसे ही एक दढ़ियल असाधु रत्नाकर पाण्डे की है.

रत्नाकर पाण्डे बलिया वाले चंद्रशेखर सिंह की तरह दिखते थे. खिचड़ी दाढ़ी, जिसे विचारमग्न होने पर वो सहलाते-खुजाते रहते थे, उनकी पहचान थी.

यहाँ तुकबंदी के लालच में मैंने उन्हें भले ही असाधु कहा हो, पर असल जीवन में वो इससे कहीं ज्यादा थे. स्थानीय लोग उन्हें पाँड़े बाबा कहते थे, और प्रशासन उन्हें बाहुबली कहता था.

पूरे इलाके के बाभन उनसे रिश्तेदारी के दावे करते थे, और चतुर राजनीतिज्ञ की तरह वे सभी दावों से सहर्ष सहमति जताते थे. नब्बे का दशक उनका दशक था. प्रदेश भर में दबंगई और सरकार में दखल ऐसी थी कि कोई आज तक न पा सका.

क्षेत्र के लोग आज भी याद करते हैं. बताते हैं कि रत्नाकर के पिता भवानी पाण्डे पंडिताई करते थे. भले आदमी थे. पट्टीदारी के झगड़े में उनकी बल्लम मारकर हत्या कर दी गयी थी. रत्नाकर भी पुत्रधर्म से पीछे नहीं हटे थे. तीन हत्याओं के आरोप में जेल गए, छूटे, और उसके बाद तो सब कहानी है.

रत्नाकर पाण्डे का गांव दुबौली था. शहर से सटा हुआ गांव था जो बाद में नगर पालिका की सीमा में आने लगा था. वहीं उनका बड़े अहाते वाला घर था. ऊंची बाउंड्री और बड़ा फाटक. शायद इसीलिए स्थानीय लोग उनके घर को ‘फाटक’ कहते थे. फाटक स्थानीय उद्दंड लड़कों का रोजगार केन्द्र भी था. शरीर मजबूत हो और लड़का ‘दबता’ न हो, तो बाप-दादा को लेकर फाटक जाओ, और 10 हज़ार रुपया महीना के आदमी बन जाओ.

पाण्डे जी कितने रुपयों के मालिक थे, या उनकी आमदनी का ज़रिया क्या था, ये आज भी शहर में चाय की दुकानों पर चर्चा का विषय रहता है. गरीब-गुरबा से लेकर उभरते छुटभैये तक, सभी पाण्डे जी की सम्पत्ति का आकलन करके सुख पाते हैं.

बतौर लेखक, अपने पाठकों की इस आकलन में सहायता करना मेरा कर्तव्य है, तो जान लीजिए कि उस दौर में राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आधे शराब के ठेकों पर पाण्डे जी का स्वामित्त्व था. बालू खुदाई के तमाम टेंडर पाण्डे जी कच्चा चबा जाते थे, और राज्य का कोई भी हाइवे पाण्डे जी की सहमति ‘खरीदे’ बगैर शुरू नहीं होता था.

खैर, वापस चलते हैं; तो पाण्डे जी सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करते थे. शाम होते ही बाउंड्री के कंटीले तारों में बिजली दौड़ने लगती थी. घर के भीतर से लेकर फाटक तक कुल पचास बंदूकधारी हमेशा मौजूद रहते थे, और विदेशी नस्ल के छः कुत्ते पाले गए थे, जो रात भर बाउंड्री के भीतर खुला घूमते थे.

दो-दो विदेशी पिस्तौलें कमर में खोंसने वाले रत्नाकर पाण्डे कभी कहीं बिना काफिले के गए हों, याद नहीं आता. नारायण दूबे ने जब उन पर हमला करवाया था, तो तीन गोलियाँ लगने के बावजूद अगले दिन वो अपने अहाते में बैठे चाय पी रहे थे. ये उनकी बुलेटप्रूफ जैकेट का कमाल था. किस्सा है कि उसी शाम इस हमले की मुखबिरी करने वाले अपने गनर को उन्होंने अपने सभी आदमियों के सामने अपने घर में ही फांसी दे दी थी, और दोबारा ऐसी गलती करने वाले को ‘अंडा-बच्चा समेत’ मारने की धमकी दी थी.

मुख्यमंत्री जी द्वारा रत्नाकर और नारायण के बीच समझौता करवाने के बावजूद नारायण दूबे की उसी साल सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी थी. नारायण दूबे के दोनों लड़के भी उसी दुर्घटना में मारे गए थे. निष्कर्ष यही कि रत्नाकर अपनी ज़बान के पक्के थे.

रत्नाकर अपने जीवन में एक सौ से अधिक मौतों के जिम्मेदार थे. तमाम अपनों को भी खोया था, पर उनकी सजल आंखें देखने का दावा कभी कोई नहीं कर सका.

कभी किसी बात का मलाल नहीं रहा उन्हें. पर एक घटना, जो उन्हें हमेशा सालती थी, और जिसे वो तमाम दिनों तक अपनी भूल मानते रहे, वो अशोक बाबू के इकलौते बेटे की हत्या थी.

गलती उनकी भी नहीं थी. अशोक बाबू का लड़का जिस तरह से उद्दंडता करता हुआ उनके काफिले को ओवरटेक कर रहा था, वो और क्या करते! नई उम्र का लड़का, बेअंदाजी से बुलेट आगे-पीछे कर रहा था. तीसरी मर्तबा जैसे ही उसने बगल से उनकी गाड़ी ओवरटेक की, उन्होंने गोली चला दी. बाद में पता चला अपने अशोक बाबू का लड़का था.

अशोक और रत्नाकर बचपन के साथी थे. रत्नाकर के पिता भवानी महाराज अशोक के घर कथा बांचा करते थे. रत्नाकर अशोक से माफी मांगने भी गए थे, और अशोक ने वहीं ऐलानियाँ कहा था कि वो रत्नाकर की हत्या अपने हाथों से करेंगे. रत्नाकर ने कोई जवाब नहीं दिया था, और इसे पुत्रशोक में डूबे पिता की चीत्कार समझ चुपचाप दल-बल समेत लौट आये थे. व्यावहारिक बात ये थी कि अशोक बाबू जैसा रिटायर्ड मास्टर उनका कुछ बिगाड़ सकने की हालत में था भी नहीं, और ये बात रत्नाकर बाकायदा समझते थे. फिर भी एहतियातन अशोक बाबू पर नज़र रखी जाने लगी थी.

*********

भाग 2

रत्नाकर पाण्डे की चार संतानें थीं. दो बेटे और दो बेटियाँ. सभी के ब्याह से फ़ारिग हो चुके थे. बड़ा बेटा नॉर्वे में डॉक्टर था, और छोटा पिता की विरासत संभाल रहा था.

रत्नाकर अपने जीवन में कभी नहीं झुके, पर पोते विवान के लिए वो कभी घोड़ा बन जाते तो कभी पालकी. जितने समय तक वो घर में होते, विवान उनकी गोद मे चढ़ा रहता. इतना वात्सल्य तो रत्नाकर को कभी अपने बच्चों के लिए भी नहीं आया था. सच ही है; मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है.

रत्नाकर अपने जीवन का सारा अर्जित ज्ञान विवान को दे देना चाहते थे. विवान के पास भी सवालों की कमी न रहती.

“बाबा बाबा… वो देखो बंदर.

बाबा बंदर का बच्चा अपनी माँ को क्यों पकड़े रहता है?”

“क्योंकि उसकी माँ उसे नहीं पकड़ती.”

“उसकी माँ उसे क्यों नहीं पकड़ती?”

“क्योंकि उसकी माँ को दूसरे काम रहते हैं.”

“उसकी माँ को क्या काम रहता है?”

“उसके लिए केला लाना होता है.”

“अच्छा!”

जिस संयम से रत्नाकर पोते को सुनते और जवाब देते, वो देखने लायक होता था. उनकी करीने से कटी दाढ़ी, जो विरोधियों पर उनका अतिरिक्त भय कायम करती थी, उस वक़्त किसी साधु की दाढ़ी सरीखी लगती थी, और विवान की हर नई बात बाबा की दाढ़ी के स्पर्श के साथ शुरू होती थी. घर के नौकर रत्नाकर का ये रूप देखने का लालच नहीं छोड़ पाते थे, और उनकी वृद्धलीला देखने के लिए आस-पास जमा हो जाते थे.

अपने बाबा की तरह ही विवान को भी जानवरों से खूब लगाव था. वो सभी जानवरों को अचरज से देखता था और दिन भर के सवाल बाबा के आने तक समेटे रहता था.

“बाबा बिल्ली को मौसी क्यों कहते हैं?”

“क्योंकि वो शेर की मौसी होती है.”

“जैसे मेरी शालू मौसी?”

“हा हा हा हा… हाँ जैसे तुम्हारी शालू मौसी.”

“बाबा आज बिल्ली अपने बच्चे को मुँह में पकड़कर ले जा रही थी. बाबा क्या बिल्ली अपने बच्चे को खाती है?”

“नहीं बच्चा, बिल्ली अपने बच्चे को दूसरे घर ले जा रही थी.”

“पर बाबा, बिल्ली का बच्चा अपनी माँ को खुद क्यों नहीं पकड़ता?”

“क्योंकि उसे जरूरत नहीं पड़ती. बिल्ली खुद उसे पकड़े रहती है.”

“तो बन्दर की मम्मी बन्दर को प्यार क्यों नहीं करती?”

“करती तो है!”

“तो वो अपने बच्चे को खुद क्यों नहीं पकड़ती?”

“क्योंकि उसके पास बहुत काम रहता है.”

“लेकिन बाबा… बिल्ली मौसी के पास भी तो बहुत काम रहता है न!”

“हा हा हा हा… बन्दर और बिल्ली अलग-अलग होते हैं न! इसीलिए.”

“अच्छा बाबा अगर बन्दर का बच्चा अपनी मम्मी को नहीं पकड़ेगा तो क्या उसकी मम्मी उसे छोड़ देगी?”

“अरे नहीं! क्यों छोड़ देगी? वो तो माँ है न उसकी!”

“तो बाबा बन्दर का बच्चा तो छोटा होता है न! वो गिर गया तो!”

“अरे नहीं भाई! बन्दर का बच्चा कभी नहीं गिरता. उसकी पकड़, उसके हाथ बहुत मजबूत होते हैं.”

सद्गृहस्थ लोग जैसा सुख पाने और ज्ञानविभोर होने का स्वांग करने के लिए प्रवचन सुनने जाते हैं, वही सुख अब रत्नाकर-विवान संवाद में रत्नाकर को मिलने लगा था.

“बाबा बिल्ली की माँ अपने बच्चे को ज्यादा प्यार करती है न!”

“नहीं बच्चा, दोनों अपने बच्चों को बराबर प्यार करती हैं. जैसे तुम्हारी मम्मी तुमको प्यार करती हैं.”

ऐसी बातें सुनकर विवान अपने बाबा को अचरज से देखता था.

एक दिन रत्नाकर जैसे ही अपनी गाड़ी से नीचे उतरे, विवान उनके पास दौड़ता हुआ आया. एक नज़र उनको देखा, फिर जोर-जोर से रोने लगा.

“बाबा आपने तो कहा था कि बन्दर का बच्चा कभी नीचे नहीं गिरता! लेकिन आज बन्दर का बच्चा नीचे गिर गया और शेरू ने उसे काट लिया. वो मर गया.”

ये बोलकर विवान और जोर-जोर से रोने लगा. रत्नाकर से कुछ बोलते न बना. वो देर तक विवान को चुप कराते रहे. ऐसी जाने कितनी ही घटनाएँ रोज घटती हैं. पर उस शाम रत्नाकर विवान के सो जाने के बाद भी उसे देर तक गोद मे लिए बैठे रहे थे. फिर विवान की माँ को बुलाकर बच्चा माँ के सुपुर्द कर दिया.

रत्नाकर-विवान संवाद पूर्व की भांति जारी रहा, पर अब रत्नाकर खुद भी विवान से प्रश्न करने लगे थे, और पूरी उत्सुकता से जवाब सुना करते थे.

“विवान बिल्ली अच्छी होती है या बन्दर?”

“बिल्ली.”

“क्यों?”

“क्योंकि वो अपना बच्चा खुद पकड़ती है, और बिल्ली के बच्चे को कोई काम नहीं करना पड़ता.”

बिल्ली और बन्दर रत्नाकर-विवान संवाद का प्रमुख विषय था.

एक शाम जब दादा-पोता अहाते में बैठकर ‘गंभीर’ चर्चा कर रहे थे, तभी विवान जोर से चीखा- “बाबा… बिल्ली”

बिल्ली अपने बच्चे को मुंह मे दबाकर ले जा रही थी. विवान कि इस चीख ने कुत्तों को सतर्क कर दिया था. कुत्ते बिल्ली की ओर झपटे, पर बिल्ली एक झटके में बच्चे को मुँह में दबाए, पहले गाड़ी पर फिर चारदीवारी पर जा खड़ी हुई. वहां से उसने रुककर एक नज़र रत्नाकर को देखा, और फिर चली गयी.

रत्नाकर अवाक रह गए. काटो तो खून नहीं. जैसे सांप सूंघ गया हो.

विवान को नीचे उतार दिया, और चुपचाप अपने कमरे में जाने लगे. विवान पीछे से पुकारता रहा, पर रत्नाकर नहीं रुके.

बुद्ध जर्जर बूढ़े को देख चुका था.

***********

भाग 3

कोबरा या नाग भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाने वाला सबसे जहरीला सांप है. इसके काटने पर आदमी के शरीर पर विषदंश उभर आते हैं, पर आदमी तुरंत नहीं मरता. सर्पदंश से मरना एक चरणबद्ध प्रक्रिया है. सर्पदंश अगर अंधेरे में हुआ है, तो व्यक्ति पहले पुष्टि करता है कि सांप ने ही काटा है या कुछ और था! जब तक अनुभवी लोग मठाधीशी करते हैं, तब तक ज़हर शरीर में फैल जाता है, और सूजन आनी शुरू हो जाती है. मदहोशी छाना, नींद आना और झाग उगलते हुए मर जाना इसके अगले चरण हैं.

रत्नाकर पाण्डे को ज्ञान ने डस लिया था. वो ज्ञानदंश के निशान मन में लिए फिर रहे थे. हालांकि नियमित गतिविधियों में कोई कमी नहीं आयी थी, पर उनका रत्नाकरपन कम होता जा रहा था. विरोधियों को कंपाने वाला उनका अट्टहास मंद पड़ता जा रहा था. अक्सर दाढ़ी छंटवाना भूल जाते थे, और अपनी प्रिय विदेशी पिस्तौलें आलमारी में रख छोड़ी थीं. विवान से बतियाना भी बन्द हो गया था, पर उनकी बालिश्त भर बढ़ चुकी दाढ़ी अभी भी विवान के खेल का सामान थी. घर के लोग उनके व्यवहार में आये इस बदलाव को उनकी उम्र का असर मान रहे थे, और सहज थे.

सुरक्षा कारणों से शादी-ब्याह के आयोजनों में जाने से बचने वाले रत्नाकर अब अपने सामाजिक दायित्त्वों को लेकर एकाएक सजग हो उठे थे. ज्ञानदंश का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. असर ऐसा था कि बाज़ार से सब्जी लाने भी खुद ही जाया करते. शुरुआत में नौकर झोला लेकर साथ जाता था, पर बाद के दिनों में किसी सेवानिवृत्त सज्जन की तरह रत्नाकर खुद ही जाने लगे थे.

लोग ताज्जुब करते थे और परिवार के लोग चिन्ता. पर रत्नाकर को टोकने का पौरुष अब भी किसी मे नहीं था.

पीठ पीछे लोग कहते, “बभनवा पगला गया है.” पर ये सही नहीं था.

उनके माथे पर हर वक़्त नुमायाँ होने वाली रेखाएँ अदृश्य हो गयी थीं. फकीरों की तरह वो कभी अपने अहाते में सो जाते, कभी बरामदे में पड़े रहते.

एक शाम रत्नाकर घर से सब्जी लेने निकले, और फिर कभी लौटकर नहीं आये.

**********

भाग 4

अशोक बाबू प्राइमरी के रिटायर्ड मास्टर थे. सीधे, सरल और सिद्धान्तवादी. ज़ुबान के पक्के. एकदम हिन्दी फिल्मों में दिखाए जाने वाले टिपिकल मास्टर सरीखे.

सालों पहले हादसे में जवान बेटा खो चुके थे, और महीने भर पुत्रशोक मनाकर पत्नी भी चल बसी थीं. तो अशोक बाबू इन दोनों मौतों का जिम्मेदार रत्नाकर पाण्डे को मानते थे.

शहर से थोड़ा हटकर, तीन कमरों का अपना मकान था. अकेले रहते थे. कभी-कभार बेटी आकर देखभाल कर जाती थी. खुद बनाते-खाते थे, और मन में रत्नाकर पाण्डे की हत्या करने की अलभ्य इच्छा रखते थे.

रत्नाकर कभी उनके बालसखा हुआ करते थे. दोनों साथ-साथ बड़े हुए थे. खैर…

उस दिन शाम के नौ बजे होंगे, किसी ने अशोक बाबू का दरवाजा खटखटाया. दरवाजा खोला तो सामने कुर्ता-पाजामा और हवाई चप्पल पहले एक बूढ़ा खड़ा था. अस्त-व्यस्त बाल और लंबी दाढ़ी. अशोक पहचान ही नहीं पाए.

“जी कहिये!”

तभी अचानक उन्हें आभास हुआ कि रत्नाकर हैं. देखते ही रह गए. सालों बाद चौंके थे. एकदम किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रहे. रत्नाकर खुद ही भीतर चले आये.

“अशोक, पानी पिलाओ.”

रत्नाकर ऐसे बोले, जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो. अशोक अवाक थे. पानी पिलाया. रत्नाकर तख्त पर बैठे थे. अशोक परिस्थिति समझने की कोशिश कर रहे थे.

“मैं थोड़ा सब्जी लेने निकला था, सोचा मिलता चलूँ.”

अशोक रत्नाकर के इस ढीठपने पर हैरान थे. कुछ बोले नहीं, बस भीतर चले गए. दो घंटे बाद जब अशोक बाहर आये तो देखा रत्नाकर तख्त पर लेटे खर्राटे भर रहे थे.

उनका खून खौल उठा. अपनी कसम याद आने लगी. भुकुटियाँ तन गयीं. तेज कदमों से भीतर की ओर लपके, और कुछ ढूंढने लगे. पर कुछ भी ‘काम लायक’ नहीं मिला. क्या मिलता! अशोक जैसों के यहाँ कहाँ कुछ मिलता है!

सुबह तीन बजे तय किया कि हत्या गला दबाकर की जाएगी. दृढ़ निश्चय करके बाहर आये तो रत्नाकर को तख्त पर बैठा हुआ पाया. दांत पीसते हुए भीतर लौट गए.

ऐसा नहीं था कि रत्नाकर को अशोक के इरादों का अनुमान नहीं था. रत्नाकर की जिंदगी बीत गयी थी इन कामों में. पर आज वो अशोक बाबू का कर्ज चुकाने पर आमादा थे. वो अशोक को बदला दिलाने में किसी जिगरी दोस्त की तरह पूरे मन से जुटे थे. अशोक के जाने के बाद वो तख्त पर मुंह फेरकर लेट गए.

किसी अशोकनुमा सज्जन के लिए हत्या कर पाना कितना कठिन होता है, रत्नाकर इसे खूब समझते थे. तो वे बिना हिले-डुले पड़े रहे, और आने वाली मृत्यु का इंतज़ार करते रहे.

लगभग आधे घण्टे बाद अशोक हाथ में मसाला कूटने वाला खरल लेकर निकले. रत्नाकर को आहट मिली, पर पड़े रहे. अगर ये सिनेमा का कोई दृश्य होता तो दर्शकों की धड़कन बढ़ गयी होती. अशोक खरल हाथ में थामे तख्त के पास खड़े थे और रत्नाकर को घूर रहे थे. रत्नाकर आंखें बंद होने पर भी इस घूरे जाने को महसूस कर रहे थे. और फिर वही हुआ जिसका रत्नाकर को डर था.

खरल अशोक के हाथ से छूटकर जमीन पर गिर गया और वो धम्म से कुर्सी पर बैठ गए. रत्नाकर ने आंखें खोल दीं, पर लेटे रहे.

अशोक सुबक रहे थे. आंसुओं से चेहरा भीगा हुआ था. रत्नाकर चुपचाप बैठे हुए थे. समय था कि आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहा था. तभी अशोक बाबू ने रत्नाकर की ओर देखा…

“काहे मरला हो?” ( क्यों मारे? )

पुराना रत्नाकर होता तो जवाबों के ढेर लगा देता. सफाई देता. गलती मान लेता. माफी मांग लेता. कुछ भी करता, पर पल्ला झाड़ लेता. लेकिन रत्नाकर चुप रहे.

पांच बज गया था. उजाला होने लगा था. दोनों सज्जन चुपचाप बैठे थे.

“अशोक कुछ खाना बचा है?”

अशोक उठे और रसोई से बासी रोटियों पर सब्जी रखकर ले आये. रत्नाकर किसी भूखे साधु की तरह खाते रहे, और अशोक उनका मुंह ताकते रहे.

खाने के बाद रत्नाकर ने पानी मांगा, और पानी पीकर बाहर निकल गए. अशोक रत्नाकर को आंखों से ओझल होने तक देखते रहे.

ये अंतिम बार था जब किसी परिचित ने रत्नाकर पाण्डे को देखा था.

कुछ लोग कहते हैं कि अशोक बाबू का घर छोड़ने के बाद रत्नाकर पाण्डे ने अयोध्या जाकर जल-समाधि ले ली थी. पर पिछले साल सुनने में आया कि रत्नाकर पाण्डे जैसा दिखने वाला एक साधु कलकत्ता में देखा गया है.

मुझे नहीं पता कि रत्नाकर अब कहाँ और किस रूप में हैं. पर मैं ये जरूर जानता हूँ कि सालों पहले मेरे शहर में रत्नाकर पाण्डे नाम के एक आदमी की ज्ञानदंश से मुक्ति हुई थी।

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कलिंगा लिटेरेरी फ़ेस्टिवल का भाव संवाद: आगामी चर्चाएँ

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कलिंगा लिटेरेरी फ़ेस्टिवल का भाव संवाद इस लॉकडाउन के दौरान बहुत सक्रिय रहा और उसने ऑनलाइन बौद्धिक चर्चाओं का एक अलग ही स्तम्भ खड़ा किया है। आगामी चर्चाओं के बारे में पढ़िए-

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केएलएफ भाव संवाद बनेगा रेबेलियस लॉर्ड, ‘महाभारत सीरीज, बिकाउज इंडिया कम्स फर्स्ट, ‘द अवस्थीस ऑफ अम्नागिरी, रेबेल्स विद आ कॉज’ जैसी पुस्तकों पर विमर्श का साक्षी।

भुबनेश्वर: कलिंगा लिटररी फेस्टिवल दिसंबर के आगामी विशिष्ट सत्रों में करेगा कुछ ख्यातिलब्ध लेखक, अर्थशास्त्री, निति-निर्माता, और विचारकों की मेजबानी। कलिंगा लिटररी फेस्टिवल के भाव संवाद में शामिल होंगे, विचारक राम माधव, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मेघनाद देसाई, डॉ. बिबेक देबरॉय, तमाल बंदोपाध्याय, प्रो. टीटी राम मोहन, आईएएस सुभा शर्मा और अन्य।

10 दिसंबर को शाम 7 बजे, प्रख्यात विचारक और लेखक राम माधव (सदस्य, बोर्ड ऑफ गवर्नर्स, इंडिया फाउंडेशन) से उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक “बिकाज इंडिया कम्स फर्स्ट” पर वार्तालाप करेंगी ‘द हिंदू’ की राजनीतिक संपादक निस्तुला हेब्बार।

12 दिसंबर को शाम 8 बजे, सुविख्यात लेखक प्रभात रंजन जी से उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक “कोठागोई” पर वार्तालाप करेंगे अंग्रेजी भाषा के बेहतरीन उपन्यासकर अब्दुल्लाह खान।

13 दिसंबर, शाम 7 बजे, महान अर्थशास्त्री और लेखक लॉर्ड मेघनाद देसाई से उनकी नयी किताब ‘रेबेलियस लॉर्ड – एन ऑटोबायोग्रफी’ पर बातचीत करेंगे इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के सहनिदेशक डॉ. अजय सिंह।

17 दिसंबर को रात 8 बजे, मशहूर आर्थिक पत्रकार और लेखक तमाल बंद्योपाध्याय से उनकी किताब ‘पंडेमोनियम: द ग्रेट इंडियन बैंकिंग ट्रेजडी’ पर बात करेंगे स्तंभकार अतुल के ठाकुर। 23 दिसंबर को शाम 5 बजे, अर्थशास्त्री और लेखक डॉ. बिबेक देबरॉय से उनकी नयी किताब पर बातचीत करेंगी साई स्वरूपा अय्यर। 12 और 13 दिसंबर को केएलएफ के मंच पर होंगे प्रो. टीटी राम मोहन, आईएएस सुभा शर्मा, त्रिशा डे नियोगी।

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सरताज-ए-मौसीक़ी नौशाद

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आज  संगीतकार नौशाद साहब की जयंती है। उनकी जयंती पर पढ़ते हैं मनोहर नोतानी का लिखा यह लेख। लेखक, अनुवादक मनोहर नोतानी। इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में स्नातक और इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग व उत्पादकता में स्नातकोत्तर अध्ययन व अध्यवसाय। फिलवक्त भोपाल में रहना।

25 दिसंबर को नौशाद साहब की 101वीं जयंती है। नौशाद साहब को हिंदुस्‍तानी फिल्‍म संगीत का सरताज-ए-मौसीक़ी कहा जा सकता है। शास्‍त्रीय संगीत से लेकर लोक गीत-संगीत और पश्चिमी स्‍वरलिपि पर उनकी समझ और पकड़ इतनी थी कि कोई बाईस बरस तक जिस शायर, गीतकार से वे अनन्‍य रूप से जुड़े रहे उन्‍हीं शकील बदायूंनी सरीखे उर्दू-रसज्ञ से उन्‍होंने बैजू बावरा  की आवाज़ मोहम्‍मद रफी के लिए कथानक-भाषा में लिखवा लिया, और वह भी गीतों की काव्‍यात्‍मकता से कोई समझौता किये बग़ैर। नौशाद-शकील की जोड़ी ने हमें संगीत का ऐसा अद्भुत खज़ाना दिया है जिसे ‘आपके कानों के लिए ही’ के बतौर सहेजा जा सकता है। 1952 की ‘बैजू बावरा’ के नौशाद-शकील-रफी की त्रयी के भजन ओ दुनिया के रखवाले … और हरि ओम … इस देश की समन्‍वयी गंगा-जमुनी संस्‍कृति के सर्वश्रेष्‍ठ नहीं तो श्रेष्‍ठ उदाहरण हैं (यह अलग बात है कि हमारी ही कुसंस्‍कृति के चलते गंगा और जमुना प्रदूषित हो चुकीं हैं)। मन तरपत हरि दर्शन को आज … के लिए पं. जसराज कहते हैं, “हम शास्‍त्रीय गायक तो राग मालकौंस गाते रहे हैं लेकिन जब मोहम्‍मद ने यह भजन गाया तो जन-जन ने जाना कि राग मालकौंस क्‍या होता है।” खुद लता जी के शब्‍दों में, “नौशाद का बैजू बावरा  संगीत अद्भुत है। इसमें हर सिचुएशन पर एक राग है – मालकौंस, तोड़ी, देसी, पूरिया धनश्री, भैरवी, भैरव – और हर राग अपने आप में परिपूर्ण। नौशाद न केवल संगीत के उस्‍ताद थे बल्कि उन्‍हें संबंधित विषयों, यथा कथा, सेटिंग, संपादन, साउंड रिकॉर्डिंग, म्‍यूजि़क रिकॉर्डिंग और री-रिकॉर्डिंग का भी ज्ञान था। वे एक निपुण पिआनोवादक भी थे। वे पश्चिमी स्‍वरलिपि (नोटेशन) भी जानते थे। बांसुरी और क्‍लेरिनेट; सितार व मैंडोलिन की संगत पेश करने वाले वे सबसे पहले संगीतकार थे। यही नहीं, अकॉर्डिअन, बीन, डफ और जलतरंग वग़ैरह भी फिल्‍म संगीत में वे ही लाये थे।”

1940 में 40 रुपये मासिक की तनख्‍़वाह पर एक बजैये की तरह आये नौशाद 1950 आते-आते एक फिल्‍म के संगीत का मेहनताना एक लाख रुपये लेने लगे थे। निरक्षर महबूब खान नौशाद को हमेशा उनका सही मूल्‍य चुकाते रहे, जबकि पढ़े-लिखे, कला मर्मज्ञ ए.आर. कारदार (1904-1989) के लिए नौशाद को काफी पापड़ बेलने पड़े। 1942-49 के दौरान नौशाद ने ए.आर. कारदार के लिए इन 14 फिल्‍मों का संगीत दिया और हरेक के लिए उन्‍हें फेंकन ही मिली – शारदा, कानून, नमस्‍ते, संजोग, गीत, जीवन, पहले आप, सन्‍यासी, कीमत, शाहजहां, दर्द, नाटक, दुलारी  और ‍दिल्‍लगी ।

1940 में शुरू हुए अपने कॅरिअर में 1970 तक बनीं तीन सबसे बड़ी फिल्‍मों में नौशाद के संगीत में पिरोये शकील के बोलों का होना उनके महान होने का प्रमाण है। ये तीन फिल्‍में हैं – मुग़ले आज़म, मदर इंडिया और गंगा जमुना। मौसीक़ार होने के बावजूद नौशाद खामोशी को बखूबी समझते थे और इसीलिए बैकग्राउंड म्‍यूजि़क के भी वे उस्‍ताद रहे आये। यह मौसीक़ार-ए-आज़म नौशाद का मेयार ही था कि बड़े ग़ुलाम अली खां साहब, अमीर खां साहब, और पंडित डीवी पलुस्‍कर जैसे दिग्‍गज शास्‍त्रीय गायक उनकी धुनों को अपने सुर देने को राज़ी हुए। 1950 के दशक में नौशाद का संगीत होना फिल्‍म की कमोबेश शर्तिया कामयाबी होता था।

नौशाद ने अपने संगीत से उर्दू को गीतों के दीवाने हिंदुस्‍तान की जनभाषा बना दिया। हिंदुस्‍तानी फिल्‍मों में लोक और शास्‍त्रीय संगीत के इस्‍तेमाल के पुरोधा माने जाने वाले नौशाद साहब ही भारतीय फिल्‍मों में वेस्‍टर्न ऑर्केस्‍ट्रेशन लाये थे। अपने पहले प्‍यार मौसिक़ी के लिए लखनऊ में जन्‍मे नौशाद अपना घर छोड़ उस वक्‍़त के बंबई चले गये थे। आगे चल कर नौशाद ने जब अपना एक स्‍तर हासिल किया तो उनके रूठे घर वालों ने उन्‍हें बुला भेजा कि उनकी शादी तय कर दी गयी है सो वे लखनऊ पधारें। लखनऊ पहुंचने पर जब उनने अपनी मां से पूछा कि लड़की वालों को क्‍या बताया है कि नौशाह (दूल्‍हा) बंबई में क्‍या काम करता है, मां ने जवाब दिया, “दर्ज़ी!” इसे कहते हैं सुयोग। अब मां को भला क्‍या पता था कि उसका यह बरायनाम ‘दर्ज़ी’ बेटा आगे चलकर के. आसिफ़ नाम के बड़े-बड़े ख्‍़वाबों वाले एक असल दर्ज़ी के साथ एक अमर शाहकार रचेगा – मु़ग़ले आज़म । और मज़े की बात यह है कि इस नौशाह की बारात में बैंड वाले उन्‍हीं नौशाद की ‘रतन’ धुनें बजा रहे थे।

1946 में ‘शाहजहां’ फिल्‍म में नौशाद साहब ने अमर गायक के.एल. सहगल की आवाज़ में एक-से-बढ़कर-एक अमर गीत दिये। सहगल साहब ने कहा, “तुम मुझे इतनी देर से क्‍यों मिले।” शाहजहां के एक गीत मेरे सपनों की रानी रूही रूही … के कोरस में नौशाद साहब ने एक नये गायक का परिचय हमसे कराया – मोहम्‍मद रफी। इसके बाद तो एक तरह से रफी नौशाद की धुनों की मेल वॉइस बन गये। जहां तक फीमेल वॉइस की बात है तो 1949 की फिल्‍म अंदाज़  से नौशाद के संगीत की फीमेल वॉइस बनीं लता। लता के तलफ्फुज़, अदायगी और आलाप की त्रयी को उन्‍होंने इतना मांजा कि वह निखर-निखर गयी। नौशाद के संगीत निर्देशन में 167 चिरंजीवी ‘लता’ गीत इस जोड़ी के 47 साला लंबे सफर की अनूठी स्‍वरलिपि हैं। इतनी अनूठी कि यह बहस और अचरज का विषय है कि एक ही फिल्‍म अमर (1954) की राग यमन में तराशीं दो शकील-नौशाद बंदिशों जाने वाले से मुलाकात ना होने पायी …  और ना मिलता ग़म तो बर्बादी के अफसाने कहां जाते … में से श्रेष्‍ठ कौनसी है। अब शुद्धतावादियों को लड़ने दें कि यह राग, यमन कल्‍याण है या शुद्ध कल्‍याण; अपन तो गीतों का आनंद उठाएं। 1954 की फिल्‍म ‘शबाब’ में एक से बढ़ कर एक गाने हैं, पर लता का यह गीत अप्रतिम है – जो मैं जानती बिसरत है सैंया … फिल्‍म के दूसरे लता गाने भी कम नहीं हैं – दो-रंगी इस सुंदर गीत को सुनें जोगन बन जाऊंगी सैंया तोरे कारन … जोगन बन आयी हूं सैंया तोरे कारन … फिर लता-रफी का यह बेजोड़ जोड़ीदार गाना मन की बीन मतवारी बाजे … तिस पर मरना तेरी गली में … फिर लता का एक और रफी के दो सोलो क्रमश: मर गये हम जीते जी मालिक तेरे संसार में … यही अरमान लेकर … आये न बालम वादा करके … । मेरे ख़याल से फिल्‍म ‘शबाब’ में नौशाद का संगीत अपने उरूज़ पर है।

नौशाद का संगीत तो अपनी जगह है ही, उनका कॅरीअर भी कम प्रेरणास्‍पद नहीं। उनकी शख्सियत और उनका जुनून उन लाखों, करोड़ों नौजवानों के लिए अपना कॅरीअर बनाने और संवारने की एक उम्‍दा मिसाल है। 1940 में ‘प्रेम नगर’ से 1970 के आसपास तक के तीसेक बरस में फैले अपने पेशेवर जीवन में एकबारगी हिंदुस्‍तानी फिल्‍म संगीत का न्‍यूमरो ऊनो  की हैसियत पा लेने के बाद उस शिखर पर बने रहने के लिए वे ऊद बिलाव की मानिंद लगातार जुटे रहे। अपनी मौसीक़ी ही नहीं, अपनी जीवन-वृत्ति पर भी वे अपनी धुन में एकाग्र रहे आये। लेकिन शिखर पर बने रहने की अपनी लगन में भी उन्‍होंने करुणा और विनय का दामन न छोड़ा। भारतीय फिल्‍मों में शास्‍त्रीय संगीत का पुरजोश संरक्षक होने के बावजूद लचीलापन नौशाद के संगीत का स्‍थायी राग था। प्रयोग करने के लिए वे हर दम तैयार रहते और उनकी शानदार कामयाबी का राज़ उनका यही राग रहा। नौशाद साहब के संगीत का सुर इतना ऊंचा लगा कि मई 2008 में, उनकी दूसरी पु‍ण्‍यतिथि पर, मुंबई के बांद्रा उपनगर में अरब सागर की पश्चिमी समुद्ररेखा के जिस कार्टर रोड पर नौशाद साहब अपने बंगले ‘आशियाना’ में रहते थे, उस सड़क का नाम संगीत सम्राट नौशाद अली मार्ग रखा गया। इसी आशियाने में नौशाद साहब का अपना एक संगीत कक्ष होता था जहां वे अपनी रागदारी  बैठकें किया करते, जिनमें मोहम्‍मद रफी, शकील बदायूंनी, लता मंगेशकर और आशा भोसले जैसी सुरीली हस्तियां शिरकत और रिहर्सल करने आतीं थीं। उसी कक्ष के एक कोने में रखा पिआनो इस बात का गवाह था कि नौशाद मियां बतौर एक साजि़ंदे फिल्‍म जगत में शामिल हुए थे। उसी म्‍यूजि़क रूम में 1966 में नौशाद साहब ने लता जी से इस कदर रियाज़ करवायी कि राग मांड में बना दिल दिया दर्द लिया  का वह क्‍लासिक गाना फिर तेरी कहानी याद आयी … फिल्‍म संगीत के इतिहास में अमर हो गया।

मुग़ले आज़म  में मधुबाला पर फिल्‍माये गये गाने बेकस पे करम कीजिये  बनाने की रचना प्रक्रिया को लेकर नौशाद साहब बताते हैं, “यह गीत राग केदार पर आधारित था। मैं बस इतना जानता था कि अगर मेरी धुन पर्दे पर दिख रही मधुबाला की पीड़ा व्‍यक्‍त करती है, तो देखने-सुनने वाले उसे ज़रूर कुबूलेंगे; फिर चाहे वे राग केदार जानते हों, न जानते हों। अव्‍वल तो, संगीत निर्देशक होने के नाते आपको हमारी शास्‍त्रीय परंपरा के ख़ज़ाने के पास जाना ही पड़ता है। लेकिन फिर आपको, हमेशा, अपना संगीत बद्ध करते समय समूचे कथानक के तानेबाने में, उस दृश्‍यावली को ध्‍यान में रखना होता है ताकि उस किरदार के मूड को ‘बांधा’ जा सके। मसलन, मुग़ले आज़म के दौरान हर कोई मुझसे पूछता कि क्‍या मैं मधुबाला पर भी वही असर ला सकता हूं जो सी. रामचंद्र अनारकली  में ये जि़ंदगी उसी की है … के ज़रिये बीना राय पर ले आये थे। लेकिन मेरी ‘अनारकली’ सदा के लिए अपने ‘सलीम’ से दूर जा रही मधुबाला थी। एकबारगी जो ‘मधुबाला’ मेरे ज़ेह्न में बस गयी फिर उसे राग यमन का चोगा पहनाना मेरे लिए मुश्किल न हुआ – ख़ुदा निगहबान हो तुम्‍हारा । ऐसे में कोई अगर यह कहे कि राग यमन में मेरी यह बंदिश यहां बेमौज़ूं है तो वह हमारी शास्‍त्रीयता की कशिश को ही सिरे से नकार रहा होगा।”

1960 की मुग़ले आज़म  के उस ऐतिहासिक दृश्‍य में जहां एक तरफ अकबर (पृथ्‍वीराज कपूर) विराजमान हैं और दूसरी तरफ सलीम (दिलीपकुमार) वहीं उनके बीच, यहां, वहां, रुपहले पर्दे पर बेल्जियमी कांच से बने शीश महल में हर कहीं, जब राग मेघ में पगे प्‍यार किया तो डरना क्‍या  का तिलिस्‍म बुनती अनारकली ही अनारकली नज़र आती है तो हमें अनारकली के जमाल को उसके फलक तक उठाती नौशाद की उस्‍तादी भी ‘दिखायी’ देती है। इसी मुग़ले आज़म में मग़रिबी बुर्ज़ के उस अलौकिक दृश्‍य को याद कीजिये। इधर शहज़ादा सलीम अनारकली के गालों को मोरपंख से सहला रहा है, उधर राग-सम्राट तानसेन (अभिनेता सुरेंद्र) गा रहे हैं तभी अभिनय भावप्रवणता में मधुबाला के दिलीपकुमार के पासंग होने का इलहाम होते ही राग सोहनी में सजे बड़े ग़ुलाम अली खां साहेब की स्‍वरलहरी में प्रेम जोगन बनके  बोलों के ज़रिये पस-मंज़र (पृष्‍ठभूमि) में चल रहा नौशाद साहब का जादू हमें छू जाता है।

नौशाद साहब ने दिलीपकुमार को पहली बार मुग़ले आज़म  में गीत-रहित नहीं रखा, बल्कि उससे कोई छह साल पहले, मेहबूब की फिल्‍म अमर में भी उन्‍होंने दिलीपकुमार से पर्दे पर कोई गीत न गवाया था। हालांकि उस वक्‍़त नौशाद साहब ने अपने प्रिय गायक मोहम्‍मद रफी से अपने चहीते राग भैरवी  में कोई साढ़े सात मिनट लंबा भजन इंसाफ का मंदिर है ये … दिलीपकुमार के ऊपर बैकग्राउंड में गवाकर उस भजन को ऑॅडियो-विज़ुअली ‘अमर’ बना दिया। मुग़ले आज़म  के जन्‍माष्‍टमी गीत मोहे पनघट पे नंदलाल  (राग गारा) में पन्नालाल घोष की बांसुरी की दिव्‍य तान हमें अदेर ही आलक्षित करती है।

नौशाद पहले ऐसे फिल्‍म संगीतकार थे जो न सिर्फ बहुगुणी ऑर्केस्‍ट्रेशन फिल्‍मों में लाये बल्कि गीतों में शामिल अपने तमाम वाद्यों का बेमिसाल इस्‍तेमाल करते हुए साज़ और आवाज़ के परस्‍पर-संचालन का एक नया आयाम भी उन्‍होंने स्‍थापित किया। मिसाल के लिए अगस्‍त 1952 की फिल्‍म आन  के गीत आज मेरे मन में सखी बांसुरी बजाये कोई  में लता और कोरस को वे इस मदमाते ढंग से सजाते-संवारते हैं कि शायद पहली बार हमारे सिने संगीत में ध्‍वनि-वियोजन का अभूतपूर्व रस उत्‍पन्न हुआ। अब तक हमारे रिकॉर्डिंग रूम में गायकी और ऑर्केस्‍ट्रा को परस्‍पर-अलगाने  की कोई जुगत न होती थी। लेकिन अब नौशाद ने एक शत प्रतिशत वैज्ञानिक शैली विकसित कर ली थी जिसमें स्‍वरलिपि के विभिन्न घटकों की जुदा-जुदा  रिकॉर्डिंग हो जाती थी। नतीजतन, नौशाद के संगीत का ‘साउंड इफेक्‍ट’ एकदम स्‍पष्‍ट सुनायी पड़ता था।

यही नहीं, नौशाद अपने संगीत की हर इकाई के नोटेशन बड़े करीने से रखने वाले पहले संगीतज्ञ बने। अपने इसी कौशल के बूते वे भारतीय सिनेमा में बैकग्राउंड म्‍यूजि़क के प्रवर्तक बने।

5 मई 2006 को नौशाद साहब इस फानी दुनिया को अलविदा कह गये पर उनकी सांगीतिक परछाईं कभी कमतर न हुई।

manoharnotani@gmail.com

मनोहर नोतानी

9893864460

 

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