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मिखाइल बुलगाकोव  के उपन्यास ‘मास्टर एंड मार्गारीटा’का अंश ‘मुर्ग़े की बदौलत’

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मिखाइल बुलगाकोव  के उपन्यास ‘मास्टर एंड मार्गारीटा’ का रूसी साहित्य में अलग स्थान रहा है। मूल रूसी से इस उपन्यास का अनुवाद करने वाली आ चारुमति रामदास ने ध्यान दिलाया कि दशकों पहले इन्हीं दिनों एक पत्रिका में इस उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन शुरू हुआ था। इसका एक अंश पढ़िए-

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मानसिक तनाव सहन न कर सका रीम्स्की और ‘शो’ समाप्त होने के बाद की औपचारिकताओं का इंतज़ार न करके अपने ऑफिस की ओर भागा. वह मेज़ पर बैठकर सूजी-सूजी आँखों से अपने सामने पड़े जादुई नोटों की ओर देखने लगा. वित्तीय-डाइरेक्टर की बुद्धि निर्बुद्धि तक पहुँच चुकी थी. बाहर से लगातार शोर सुनाई दे रहा था. लोगों के झुँड वेराइटी थियेटर से बाहर निकल रहे थे. वित्तीय-डाइरेक्टर के तीक्ष्ण कानों में अचानक पुलिस की सीटी की आवाज़ सुनाई दी. यह सीटी कभी भी किसी सुखद घटना की सूचक नहीं होती. मगर जब यह आवाज़ फिर से सुनाई पड़ी और उसकी मदद के लिए एक और ज़ोरदार, ज़्यादा ताकतवर, लम्बी सीटी आ गई, फिर सड़क से अजीब-सा शोर, ताने कसती , छेड़ती हुई आवाज़ें सुनाई पड़ीं तो वित्तीय डाइरेक्टर समझ गया कि फिर से कोई लफ़ड़ा हो गया है. न चाहते हुए भी रीम्स्की के दिमाग में ख़याल कौंध गया कि यह काले जादू के जादूगर और उसके साथियों द्वारा दिखाए गए घृणित कारनामों से ही सम्बन्धित है. तीखे कानों वाला वित्तीय डाइरेक्टर बिल्कुल भी गलत नहीं था.

जैसे ही उसने सादोवाया की ओर खुलती हुई खिड़की से बाहर देखा उसका चेहरा आड़ा-तिरछा हो गया और वह फुसफुसाहट के बदले फुफकार पड़ा, “मुझे मालूम था!”

सड़क की जगमगाती रोशनी में अपने ठीक नीचे फुटपाथ पर उसने एक महिला को देखा. वह केवल बैंगनी रंग के अंतर्वस्त्र पहने थी. बेशक, उसके सिर पर टोप और हाथों में छाता था.

इस महिला को चारों ओर से ठहाके लगाती, ताने कसती भीड़ ने घेर रखा था. महिला अपनी शर्मिन्दगी छुपाने के लिए या तो बैठ जाती, या भागने की कोशिश करती. ठहाके जारी रहे. इन ठहाकों से वित्तीय डाइरेक्टर ने रीढ़ की हड्डी में ठण्डी सिहरन महसूस की. महिला के निकट ही एक और आदमी डोल रहा था जो अपना कोट उतारने की कोशिश कर रहा था, मगर बदहवासी के कारण वह अपना आस्तीन में फँसा हाथ बाहर नहीं निकाल पा रहा था.

कहकहों और चीखों की आवाज़ें एक और जगह से भी आ रही थीं – बाईं ओर के प्रवेश-द्वार से. उधर मुँह घुमाकर देखने पर ग्रिगोरी दानिलोविच ने एक अन्य महिला को देखा – गुलाबी अंतर्वस्त्रों में. वह सड़क से उछलकर फुटपाथ पर आना चाह रही थी ताकि प्रवेशद्वार में शरण ले सके, मगर भीड़ उसका रास्ता रोक रही थी और लालच और फैशन की मारी, गरीब बेचारी…फ़ागोत की फर्म द्वारा ठगी गई महिला के दिल में इस समय सिर्फ एक ही ख़याल था कि धरती फट जाए तो उसमें समा जाऊँ. पुलिस वाला उस अभागी स्त्री के निकट जाने की कोशिश कर रहा था. सीटी बजाते हुए वह आगे बढ़ रहा था और उसके पीछे-पीछे थे कुछ मनचले. यही लोग तो ठहाके लगा रहे थे, सीटियाँ बजा रहे थे.

एक दुबला-पतला मूँछों वाला कोचवान पहली निर्वस्त्र महिला के पास लपकता हुआ आया. उसने झटके से अपने मरियल घोड़े को उसके निकट रोक लिया. मुच्छड़ का चेहरा खुशी से खिल उठा.

रीम्स्की ने अपने सिर पर हाथ मार लिया, घृणा से थूककर वह खिड़की से परे हट गया.

थोड़ी देर टेबुल के पास बैठकर वह सड़क से आती हुई आवाज़ें सुनता रहा. अब अनेक स्थानों से सीटियों की चीखें सुनाई पड़ रही थीं. फिर धीरे-धीरे उनका ज़ोर कम होता गया. रीम्स्की को ताज्जुब हुआ कि यह सब लफ़ड़ा अपेक्षाकृत काफ़ी कम समय में ख़त्म हो गया.

हाथ-पैर हिलाने की, ज़िम्मेदारी का कड़वा घूँट पीने की घड़ी आ पहुँची. तीसरे अंक के दौरान टेलिफोन ठीक कर दिए गए थे; टेलिफोन करना था, इस सारे झँझट की सूचना देनी थी, मदद माँगनी थी, इस झमेले से बाहर निकलना था, लिखादेयेव के सिर पर सारा दोष मढ़कर अपने आपको बचाना था वगैरह, वगैरह…थू…थू…शैतान! बदहवास डाइरेक्टर ने दो बार टेलिफोन के चोंगे की ओर हाथ बढ़ाकर पीछे खींच लिया. तभी ऑफ़िस की इस मृतप्राय ख़ामोशी में वित्तीय डाइरेक्टर के ठीक सामने टेलिफोन ख़ुद ही बजने लगा; वह काँपने लगा और मानो बर्फ हो गया. ‘मेरा दिमाग काफ़ी उलझ गया है,’ उसने सोचा और चोंगा उठा लिया. उठाते ही मानो उसे बिजली का झटका लगा और उसका चेहरा कागज़ से भी सफ़ेद हो गया. चोंगे से किसी महिला की शांत, मगर रहस्यमय, कामासक्त आवाज़ फुसफुसाई:

 “कहीं भी फोन न करना, रीम्स्की! अंजाम बुरा होगा!”

चोंगा ख़ामोश हो गया. रीम्स्की ने महसूस किया की रीढ़ की हड्डी में चींटियाँ रेंग रही हैं; चोंगा रखकर न जाने क्यों उसने अपनी पीछे की खिड़की से बाहर देखा. नन्ही-नन्ही कोपलों से अधढँकी मैपिल वृक्ष की टहनियों की ओट से, बादल के पारदर्शी घूँघट से झाँकता चाँद नज़र आया. न जाने क्यों रीम्स्की इन टहनियों से नज़र न हटा सका और जैसे-जैसे वह उन्हें देखता रहा, एक अनजान भय उसे जकड़ने लगा.

कोशिश करके उसने चाँद की रोशनी से प्रकाशित खिड़की से अपना चेहरा हटाया और कुर्सी पर से उठने लगा. फोन करने का अब सवाल ही नहीं था. इस समय वित्तीय डाइरेक्टर के दिमाग में बस एक ही ख़याल था, जल्दी से जल्दी इस थियेटर से बाहर जाना.

वह बाहर की आहट लेने लगा : थियेटर ख़ामोश था. रीम्स्की समझ गया कि काफ़ी देर से वह दूसरी मंज़िल पर एकदम अकेला है. इस ख़याल से उसे फिर से एक बचकाना, अदम्य भय महसूस हुआ. वह यह सोचकर काँपने लगा कि अब उसे खाली गलियारों से और सीढ़ियों पर से अकेले गुज़रना पड़ेगा. उसने उत्तेजना में टेबुल पर सामने पड़े जादुई नोट उठाकर अपने ब्रीफकेस में ठूँस लिए, खाँसकर अपना गला साफ़ किया, जिससे अपने आपको कुछ तो सँभाल सके, मगर खाँसी भी कमज़ोर-सी, भर्राई-सी निकली.

उसे महसूस हुआ कि ऑफिस के दरवाज़े के नीचे से एक सड़ी हुई, गीली-सी ठण्डक उसकी ओर बढ़ती चली आ रही है. वित्तीय डाइरेक्टर की पीठ पर सिहरन दौड़ गई. तभी अकस्मात् घड़ी ने बारह घण्टे बजाना शुरू कर दिया. घण्टॆ की आवाज़ ने भी वित्तीय डाइरेक्टर को कँपकँपा दिया. जब उसे बन्द दरवाज़े के चाबी के सुराख में विलायती चाबी घूमने की आवाज़ सुनाई दी, तब तो मानो उसके दिल ने भी धड़कना बन्द कर दिया. अपने गीले, ठण्डे हाथों से ब्रीफकेस को थामे रीम्स्की ने महसूस किया कि अगर यह सरसराहट कुछ देर और जारी रही तो वह अपने आप को रोक न पाएगा और चीख़ पड़ेगा.

आखिर दरवाज़ा खुल ही गया और धीमे क़दमों से अन्दर आया वारेनूखा. रीस्म्की जिस तरह खड़ा था, वैसे ही बैठ गया, क्योंकि उसके पैरों ने जवाब दे दिया. एक लम्बी साँस खींचकर वह चापलूसी के अन्दाज़ में मुस्कुराया और हौले से बोला, “हे भगवान, तुमने मुझे कितना डरा दिया!”

हाँ, उसके इस अचानक आ धमकने से कोई भी भयभीत हो सकता था, मगर साथ ही रीम्स्की को इससे बड़ी खुशी हुई. इस उलझन की कम से कम एक गुत्थी तो सुलझती दिखाई दी.

 “बोलो, बोलो, जल्दी बोलो!” रीम्स्की ने इस गुत्थी का सिरा पकड़ते हुए भर्राई आवाज़ में कहा, “इस सबका क्या मतलब है?”

 “माफ़ करना…” आगंतुक ने दरवाज़ा बन्द करते हुए गहरी आवाज़ में कहा, “मैं समझा कि तुम जा चुके हो,” और वारेनूखा टोपी उतारे बिना आकर रीम्स्की के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया.

वारेनूखा के जवाब में कुछ ऐसी लापरवाह विचित्रता थी जो रीम्स्की के संवेदनशील मन में, जो दुनिया के बेहतरीन सेस्मोग्राफ से भी टक्कर ले सकता था, चुभ गई. ऐसा क्यों? जब वारेनूखा यह समझ रहा था कि वित्तीय डाइरेक्टर जा चुका है, तब वह उसके ऑफिस में क्यों आया? उसका अपना कमरा भी तो है? यह हुई पहली बात. दूसरी यह कि चाहे वह किसी भी प्रवेश-द्वार से अन्दर घुसता, किसी न किसी चौकीदार से उसका सामना हो ही जाता, उन्हें तो आदेश दिया गया था कि ग्रिगोरी दानिलोविच कुछ और देर अपने ऑफ़िस में रुकेंगे.

मगर वह और अधिक देर इस विचित्रता के बारे में विचार नहीं कर सका. असल बात यह नहीं थी.

 “तुमने फोन क्यों नहीं किया? यह याल्टा वाली गड़बड़ क्या है?”

 “वही, जो मैं कह रहा था,” हलकी-सी कराह के साथ वारेनूखा ने कहा, मानो उसके दाँत में दर्द हो रहा हो, “उसे पूश्किनो के शराबखाने में पाया गया.”

 “पूश्किनो में? यानी मॉस्को के पास? और टेलिग्राम तो यालटा से आया था!”

”कहाँ का याल्टा? कैसा याल्टा? पूश्किनो के तार मास्टर को शराब पिला दी और दोनों मस्ती करने लगे, ‘याल्टा’ के नाम से तार भेजना भी ऐसी ही हरकत थी.”

 “ओ हो…ओ हो…ठीक है, ठीक है…” रीम्स्की बोल नहीं रहा था – गा रहा था. उसकी आँखें पीली रोशनी में चमक उठीं. आँखों के सामने बेशर्म स्त्योपा को नौकरी से अलग करने की रंगीन तस्वीर नाच उठी. मुक्ति! लिखादेयेव नाम की इस मुसीबत से छुटकारा पाने का सपना न जाने कब से वित्तीय डाइरेक्टर देख रहा था! शायद स्तेपान बोग्दानोविच बर्खास्तगी से भी ज़्यादा सज़ा पाए…

 “खुलकर कहो!” रीम्स्की पेपरवेट से खटखट करते हुए आगे बोला.

वारेनूखा ने खुलकर कहना आरम्भ किया. जैसे ही वह वहाँ पहुँचा, जहाँ उसे वित्तीय डाइरेक्टर ने भेजा था, उसे फ़ौरन बिठाकर उन्होंने ध्यान से उसकी बात सुनना आरम्भ किया. कोई भी, बेशक, यह मानने को तैयार नहीं था कि स्त्योपा याल्टा में हो सकता है. सभी ने वारेनूखा की इस बात को मान लिया कि वह पूश्किनो स्थित ‘याल्टा’ में हो सकता है.

 “मगर अभी वह कहाँ है?” परेशान वित्तीय डाइरेक्टर ने बीच में ही उसे टोकते हुए पूछा.

  “और कहाँ हो सकता है…” व्यवस्थापक ने तिरछा मुँह करके मुस्कुराते हुए कहा, “ज़ाहिर है, नशा उतारने वाले केंद्र में!”

 “अच्छा, अच्छा! ओह, धन्यवाद!”

वारेनूखा कहता रहा. जैसे-जैसे वह कहता गया, रीम्स्की की आँखों के सामने लिखादेयेव की बेतरतीब बेहूदगियों की लड़ी खुलती गई. हर कड़ी पिछली कड़ी से ज़्यादा बदतर. शराब पीकर पूश्किनो के टेलिग्राफ-ऑफिस के लॉन में तार बाबू के साथ डांस करना- फ़ालतू – से हार्मोनियम की धुन पर! और हँगामा भी कैसा किया! भय से काँपती महिलाओं के पीछे भागना! ‘याल्टा’ के वेटर से हाथापाई! ‘याल्टा’ के फर्श पर हरी प्याज़ बिखेर दी! सफ़ेद सूखी ‘आय दानिला’ शराब की आठ बोतलें तोड़ दीं! टैक्सी वाले का मीटर तोड़ दिया, क्योंकि उसने स्त्योपा को अपनी गाड़ी देने से इनकार कर दिया था. जिन नागरिकों ने बीच-बचाव करना चाहा, उन्हें पुलिस के हवाले करने की धमकी दी! सिर्फ शैतानी नाच!

स्त्योपा को मॉस्को में थियेटर से जुड़े सभी लोग जानते थे, और सभी को मालूम था कि वह अच्छा आदमी नहीं था. मगर वह, जो व्यवस्थापक उसके बारे में बता रहा था, वह तो स्त्योपा के लिए भी भयानक था. हाँ, भयानक! बहुत ही भयानक…!

रीम्स्की की चुभती हुई आँखें व्यवस्थापक के चेहरे में चुभने लगीं और जैसे-जैसे वह आगे बोलता गया, ये आँखें और उदास होने लगीं. जैसे-जैसे व्यवस्थापक की कहानी जवान और रंगीन होती गई…वित्तीय डाइरेक्टर का उस पर से विश्वास कम होता गया. जब वारेनूखा ने बताया कि बेहूदगी करते हुए स्त्योपा ने उन लोगों का भी मुकाबला किया जो उसे मॉस्को वापस ले जाने आए थे, तो वित्तीय डाइरेक्टर को पूरा विश्वास हो गया कि आधी रात को वापस आया व्यवस्थापक सरासर झूठ बोल रहा है! सफ़ेद झूठ! शुरू से आख़िर तक सिर्फ झूठ!

न तो वारेनूखा पूश्किनो गया था और न ही स्त्योपा वहाँ था. शराब में बहका तार भेजने वाला क्लर्क भी नहीं था; न तो शराबख़ाने में थीं टूटी बोतलें और न ही स्त्योपा को बाँधा गया रस्सियों से…ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था.

जैसे ही वित्तीय डाइरेक्टर इस नतीजे पर पहुँचा कि व्यवस्थापक झूठ बोल रहा है, उसके शरीर में सिर से पैर तक भय की लहर दौड़ गई. उसे दुबारा महसूस हुआ कि दुर्गन्धयुक्त सीलन कमरे में फैलती जा रही है. उसने व्यवस्थापक के चेहरे से एक पल को भी नज़र नहीं हटाई, जो अपनी ही कुर्सी में टेढ़ा-मेढ़ा हुआ जा रहा था, और लगातार कोशिश कर रहा था कि नीली रोशनी वाले लैम्प की छाया से बाहर न आए. एक अख़बार की सहायता से वह अपने आपको इस रोशनी से बचा रहा था, मानो वह उसे बहुत तंग कर रही हो. वित्तीय डाइरेक्टर सिर्फ यह सोच रहा था कि इस सबका मतलब क्या हो सकता है? सुनसान इमारत में इतनी देर से आकर वह सरासर झूठ क्यों बोल रहा है? एक अनजान दहशत ने वित्तीय डाइरेक्टर को धीरे-धीरे जकड़ लिया. रीम्स्की ने ऐसे दिखाया जैस वारेनूखा की हरकतों पर उसका बिल्कुल ध्यान नहीं है, मगर वह उसकी कहानी का एक भी शब्द सुने बिना सिर्फ उसके चेहरे पर नज़र गड़ाए रहा. कुछ ऐसी अजीब-सी बात थी, जो पूश्किनो वाली झूठी कहानी से भी अधिक अविश्वसनीय थी और यह बात थी व्यवस्थापक के चेहरे और तौर-तरीकों में परिवर्तन.

चाहे कितना ही वह अपनी टोपी का बत्तख जैसा किनारा अपने चेहरे पर खींचता रहे, जिससे चेहरे पर छाया पड़ती रहे, या लैम्प की रोशनी से अपने आप को बचाने की कोशिश करता रहे – मगर वित्तीय डाइरेक्टर को उसके चेहरे के दाहिने हिस्से में नाक के पास बड़ा-सा नीला दाग दिख ही गया. इसके अलावा हमेशा लाल दिखाई देने वाला व्यवस्थापक एकदम सफ़ेद पड़ गया था और न जाने क्यों इस उमस भरी रात में उसकी गर्दन पर एक पुराना धारियों वाला स्कार्फ लिपटा था. साथ ही सिसकारियाँ भरने और चटखारे लेने जैसी घृणित आदतें भी वह अपनी अनुपस्थिति के दौरान सीख गया था; उसकी आवाज़ भी बदल गई थी, पहले से भारी और भर्राई हुई, आँखों में चोरी और भय का अजीब मिश्रण मौजूद था – निश्चय ही इवान सावेल्येविच वारेनूखा बदल गया था.

कुछ और भी बात थी, जो वित्तीय डाइरेक्टर को परेशान कर रही थी. वह क्या बात थी यह अपना सुलगता दिमाग लड़ाने और लगातार वारेनूखा की ओर देखने के बाद भी वह नहीं समझ सका. वह सिर्फ यही समझ सका कि यह कुछ ऐसी अनदेखी, अप्राकृतिक बात थी, जो व्यवस्थापक को जानी-पहचानी जादुई कुर्सी से जोड़ती थी.

“तो उस पर आख़िरकार काबू पा लिया, और उसे गाड़ी में डाल दिया,” वारेनूखा की भिनभिनाहट जारी थी. वह अख़बार की ओट से देख रहा था और अपनी हथेली से नीला निशान छिपा रहा था.

रीम्स्की ने अपना हाथ बढ़ाया और यंत्रवत् उँगलियों को टेबुल पर नचाते हुए विद्युत घण्टी का बटन दबा दिया. उसका दिल धक् से रह गया. उस खाली इमारत में घण्टी की तेज़ आवाज़ सुनाई देनी चाहिए थी, मगर ऐसा नहीं हुआ. घण्टी का बटन निर्जीव-सा टेबुल में धँसता चला गया. बटन निर्जीव था और घण्टी बिगाड़ दी गई थी.

वित्तीय डाइरेक्टर की चालाकी वारेनूखा से छिप न सकी. उसने आँखों से आग बरसाते हुए लरज़कर पूछा, “घण्टी क्यों बजा रहे हो?”

 “यूँ ही बज गई,” दबी आवाज़ में वित्तीय डाइरेक्टर ने जवाब दिया और वहाँ से अपना हाथ हटाते हुए मरियल आवाज़ में पूछ लिया, “तुम्हारे चेहरे पर यह क्या है?”

 “कार फिसल गई, दरवाज़े के हैंडिल से टकरा गया,” वारेनूखा ने आँखें चुराते हुए कहा.

 “झूठ! झूठ बोल रहा है!” अपने ख़यालों में वित्तीय डाइरेक्टर बोला और उसकी आँखें फटी रह गईं, और वह कुर्सी की पीठ से चिपक गया.

कुर्सी के पीछे, फर्श पर एक-दूसरे से उलझी दो परछाइयाँ पड़ी थीं – एक काली और मोटी, दूसरी पतली और भूरी. कुर्सी की पीठ, और उसकी नुकीली टाँगों की परछाई साफ-साफ दिखाई दे रही थी, मगर पीठ के ऊपर वारेनूखा के सिर की परछाई नहीं थी. ठीक उसी तरह जैसे कुर्सी की टाँगों के नीचे व्यवस्थापक के पैर नहीं थे.

 “उसकी परछाईं नहीं पड़ती!” रीम्स्की अपने ख़यालों में मग्न बदहवासी से चिल्ला पड़ा. उसका बदन काँपने लगा.

वारेनूखा ने कनखियों से देखा, रीम्स्की की बदहवासी और कुर्सी के पीछे पड़ी उसकी नज़र देखकर वह समझ गया कि उसकी पोल खुल चुकी है.

वारेनूखा कुर्सी से उठा, वित्तीय डाइरेक्टर ने भी यही किया, और हाथों में ब्रीफकेस कसकर पकड़े हुए मेज़ से एक कदम दूर हटा.

 “पाजी ने पहचान लिया! हमेशा से ज़हीन रहा है,” गुस्से से दाँत भींचते हुए वित्तीय डाइरेक्टर के ठीक मुँह के पास वारेनूखा बड़बड़ाया और अचानक कुर्सी से कूदकर अंग्रेज़ी ताले की चाबी घुमा दी. वित्तीय डाइरेक्टर ने बेबसी से देखा, वह बगीचे की ओर खुलती हुई खिड़की के निकट सरका. चाँद की रोशनी में नहाई इस खिड़की से सटा एक नग्न लड़की का चेहरा और हाथ उसे दिखाई दिया. लड़की खिड़की की निचली सिटकनी खोलने की कोशिश कर रही थी. ऊपरी सिटकनी खुल चुकी थी.

रीम्स्की को महसूस हुआ कि टेबुल लैम्प की रोशनी मद्धिम होती जा रही है और टेबुल झुक रहा है. रीम्स्की को माने बर्फीली लहर ने दबोच लिया. उसने ख़ुद को सम्भाले रखा ताकि वह  गिर न पड़े. बची हुई ताकत से वह चिल्लाने के बजाय फुसफुसाहट के स्वर में बोला, “बचाओ…”

वारेनूखा दरवाज़े की निगरानी करते हुए उसके सामने कूद रहा था, हवा में देर तक झूल रहा था. टेढ़ी-मेढ़ी उँगलियों से वह रीम्स्की की तरफ इशारे कर रहा था, फुफकार रहा था, खिड़की में खड़ी लड़की को आँख मार रहा था.

लड़की ने झट से अपना लाल बालों वाला सिर रोशनदान में घुसा दिया और जितना सम्भव हो सका, अपने हाथ को लम्बा बनाकर खिड़की की निचली चौखट को खुरचने लगी. उसका हाथ रबड़ की तरह लम्बा होता गया और उस पर मुर्दनी हरापन छा गया. आख़िर हरी मुर्दनी उँगलियों ने सिटकनी का ऊपरी सिरा पकड़कर घुमा दिया, खिड़की खुलने लगी. रीम्स्की बड़ी कमज़ोरी से चीखा, दीवार से टिककर उसने ब्रीफकेस को अपने सामने ढाल की भाँति पकड़ लिया. वह समझ गया कि सामने मौत खड़ी है.

 खिड़की पूरी तरह खुल गई, मगर कमरे में रात की ताज़ी हवा और लिण्डन के वृक्षों की ख़ुशबू के स्थान पर तहख़ाने की बदबू घुस गई. मुर्दा औरत खिड़की की सिल पर चढ़ गई. रीम्स्की ने उसके सड़ते हुए वक्ष को साफ देखा.

इसी समय मुर्गे की अकस्मात् खुशगवार बाँग बगीचे से तैरती हुए आई. यह चाँदमारी वाली गैलरी के पीछे वाली उस निचली इमारत से आई थी, जहाँ कार्यक्रमों के लिए पाले गए पंछी रखे थे. कलगी वाला मुर्गा चिल्लाया यह सन्देश देते हुए कि मॉस्को में पूरब से उजाला आने वाला है.

लड़की के चेहरे पर गुस्सा छा गया, वह गुर्राई और वारेनूखा चीखते हुए, दरवाज़े के पास हवा से फर्श पर आ गया.

मुर्गे ने फिर बाँग दी; लड़की ने अपने होंठ काटे और उसके लाल बाल खड़े हो गए. मुर्गे की तीसरी बाँग के साथ ही वह मुड़ी और उड़कर गायब हो गई. उसके पीछे-पीछे वारेनूखा भी कूदकर और हवा में समतल होकर, उड़ते हुए क्यूपिड के समान, हवा में तैरते हुए धीरे-धीरे टेबुल के ऊपर से खिड़की से बाहर निकल गया.

बर्फ से सफ़ेद बालों वाला बूढ़ा, जो कुछ ही देर पहले तक रीम्स्की था, दरवाज़े की ओर भागा, चाबी घुमाकर, दरवाज़ा खोलकर अँधेरे गलियारे में भागने लगा. सीढ़ियों के मोड़ पर भय से कराहते हुए उसने बिजली का बटन टटोला और सीढ़ियाँ रोशनी में नहा गईं. सीढ़ियों पर यह काँपता हुआ बूढ़ा गिर पड़ा, क्योंकि उसे ऐसा लगा कि उस पर पीछे से वारेनूखा ने छलाँग लगाई है.

नीचे आने पर उसने लॉबी में स्टूल पर बैठे-बैठे सो गए चौकीदार के देखा. रीम्स्की दबे पाँव उसके निकट से गुज़रा और मुख्यद्वार से बाहर भागा. सड़क पर आकर उसे कुछे राहत महसूस हुई. वह इतना होश में आ गया कि दोनों हाथों से सिर पकड़ने पर महसूस कर सके कि अपनी टोपी ऑफिस में ही छोड़ आया है.

ज़ाहिर है कि वह टोपी लेने वापस नहीं गया मगर एक गहरी साँस लेकर पास के सिनेमा हॉल के कोने पर दिखाई दे रही लाल रोशनी की तरफ भागा. एक मिनट में ही वहाँ पहुँच गया. कोई भी कार रोक नहीं रहा था.

 “लेनिनग्राद वाली गाड़ी पर चलो, चाय के लिए दूँगा!” भारी-भारी साँस लेते हुए दिल पकड़कर बूढ़ा बोला.

 “गैरेज जा रहा हूँ…” तुच्छाता से ड्राइवर बोला और उसने गाड़ी मोड़ ली.

तब रीम्स्की ने ब्रीफकेस खोलकर पचास रूबल का नोट निकाला और ड्राइवर के सामने वाली खिड़की के पास नचाया.

कुछ ही क्षणों में गरगराहट के साथ कार बिजली की तरह सादोवाया रिंग रोड पर लपक पड़ी. बूढ़ा सीट पर सिर टिकाकर बैठ गया और ड्राइवर के निकट के शीशे में रीम्स्की ने देखी ड्राइवर की प्रसन्न चितवन और अपनी बदहवास नज़र.

स्टेशन की इमारत के सामने कार से कूदकर रीम्स्की ने जो सामने पड़ा उस सफ़ेद ड्रेस वाले आदमी से चिल्लाकर कहा, “फर्स्ट क्लास! एक! तीस दूँगा!” – उसने ब्रीफकेस से नोट निकाले, “प्रथम श्रेणी का, नहीं तो दूसरे दर्जे का दो! वह भी नहीं तो ऑर्डिनरी दो!”

उस आदमी ने चमकती हुई घड़ी पर नज़र दौड़ाकर रीम्स्की के हाथ से नोट खींच लिए.

ठीक पाँच मिनट बाद स्टेशन के शीशा जड़े गुम्बद के नीचे से लेनिनग्राद वाली गाड़ी निकली और अँधेरे में खो गई. उसी के साथ रीम्स्की भी खो गया.

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संतराम बी.ए. के बारे में आप कितना जानते हैं?

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सुरेश कुमार युवा शोधकर्ता हैं और 19वीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर 20वीं सदी के पूर्वार्ध के अनेक बहसतलाब मुद्दों, व्यकतियों के लेखन को अपने लेखों के माध्यम से उठाते रहे हैं। संतराम बीए पर उनका यह लेख बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक है-

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  हिन्दी के आलोचकों ने नवजागरण काल का मूल्यांकन करते हुए दलित नजरिया को छोड़ दिया है। इधर, कुछ इतिहासकार हिन्दी नवजागरण के दलित नजरिया को बेशक सामने लाए हैं। हिन्दी में छायावाद का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि छायावाद में सक्रिय जाति और वर्ण-व्यवस्था को चुनौती देने वाले अद्भुत और विलक्षण लेखक संतराम बी.ए. पर चर्चा देखने या सुनने को नहीं मिली है। जब छायावादी लेखक रहस्यवाद और स्वछन्दतावाद की गुत्थी में उलझे थे, उस संतराम बी.ए. अस्पृश्यता और वर्ण-व्यवस्था के विरु़द्ध की तीखी आलोचना प्रस्तुत कर इसे मिटाने की बात कर रहे थे।

 संतराम बी.ए. के चिंतन पर आने से पहले उनके व्यक्त्वि और कृतित्व के सम्बन्ध में जानना उचित होगा। संतराम बी.ए. का जन्म सन् 1887 में बसी नामक गांव होशियारपुर, पंजाब में हुआ था। इनके पिता नाम रामदास गोहिल और माता का नाम मालिनी देवी थी। रामदास गोहिल ने प्रथम पत्नी के देहांत के बाद पुनर्विवाह किया था। संतराम बी.ए. बताते हैं कि पहली माँ से दो सन्तान और दूसरी माता से पाँच सन्तानें थी। इस तरह संतराम बी.ए. सात भाई बहन थे। संतराम बी.ए. ब्रिटिश भारत के ग्रेजुएट थे। इनको विद्यार्थी जीवन में ही जातिवाद का दंश झेलना पड़ा था। जब संतराम बी.ए. पाँचवी कक्षा के विद्यार्थी थे तो उनके सहपाठी कुम्हार कह कर अपमानित किया करते थे। कुलीन वर्ग अपने बच्चो को जन्म से जातिवाद का पाठ पढ़ाकर उनके मन में दलितों और पिछड़ो के प्रति घृणा डाल देते हैं। संतराम बी.ए. ने ग्रेजुएट करने के बाद अमृतसर जिले के चभाल गांव के मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यपक नियुक्त किए गए लेकिन नौकरी में इनका विशेष मन नहीं लगा और सन्1913 में इन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी।

  संतराम बी. ए. की मातृभाषा गुरुमुखी थी और इन्होंने फारसी भाषा में ग्रेजुएट किया था। हिन्दी लेखक बनने की इनकी कहानी बड़ी दिलचस्प है। संतराम बी.ए. ने एक लेख हिन्दी भाषा में लिखकर ‘सरस्वती’ पत्रिका में भेजा था। ‘सरस्वती’ के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संतराम बी.ए. के लेख पर यह टिप्पणी करते हुए ‘आप के लेख को संशोधन करने में मुझे तीन दिन लगेंगे’ वापस लौटा दिया। संतराम बी.ए. इस मुगालते में थे कि मैं ग्रेजुएट हूँ तो मेरा लेख ‘सरस्वती’ में छप जायगा लेकिन ‘सरस्वती’ में लेख प्रकाशित न होने से काफी दुखी हुये। इस घटना के बाद संतराम बी.ए. ने महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को एक पत्र लिखकर पूछा कि मैं हिन्दी के कौन से व्याकरण और शब्दकोश पढ़ूँ जिससे मेरी हिन्दी भाषा ठीक हो जाए, क्योंकि पंजाब के किसी स्कूल में हिन्दी नहीं पढ़ाई जाती है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संतराम को पत्र लिखकर बताया कि आप को हिन्दी में लेख लिखने के लिए विशेष कोश और व्याकरण पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। हिन्दी में लेख लिखते समय बस इस बात का ध्यान रखना होगा कि वाक्य यथासम्भव छोटे और सरल हों, ऐसे शब्दों का प्रयोग करे जिसे एक बालक से लेकर विद्वान तक समझ जायें। और, लेख लिखते समय अप्रचलित शब्दों का प्रयोग बिल्कुल ही न करे।  आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की उक्त बातों पर संतराम बी.ए. ने जमकर अम़ल किया। इसके बाद संतराम बी.ए. के लेख ‘सरस्वती’ पत्रिका में छापने लगे थे। यह घटना बताती है कि एक संपादक का लेखक के जीवन में कितना बड़ा योगदान होता है।

संतराम बी.ए. के रचना संसार का फलक बहुत विस्तृत और व्यापक है। इन्होंने अपने जीवन काल में सतहत्तर किताबें सामाजिक और देश दशा के विषयों पर लिखी हैं। इनके साहित्यिक कद का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इनकी किताब ‘काम-कुंज’ (1929) का संपादन प्रेमचन्द ने किया था, जो  लखनऊ के मुंशी नवलकिशोर प्रेस से छपी थी। संतराम बी.ए. एक अच्छे अनुवादक भी थे। इन्होंने ‘अलबेरूनी का भारत’ का अनुवाद किया जिसे इन्डियन प्रेस, प्रयाग ने चार भागों में प्रकाशित किया था। इसके अलावा संतराम बी.ए. ने ‘गुरूदत्त लेखावाली’ (1918) ‘मानव जीवन का विधान’    (1923) ‘इत्सिंग की भारत यात्रा’(1925) ‘अतीत कथा’(1930) ‘बीरगाथा’(1927) ‘स्वदेश-विदेश-यात्रा’ (1940) ‘उद्बोधनी’ (1951 ) ‘पंजाब की कहानियाँ’ (1951) ‘महाजनों की कथा’ (1958)  पुस्तकों के अलावा ‘मेरे जीवन के अनुभव’(1963) नाम से आत्मकथा लिखी है। संतराम बी॰ ए॰ की आत्मकथा ‘मेरे जीवन के अनुभव’ कई मायने में महत्वपूर्ण हैं। यह आत्मकथा नवजागरण कालीन समाज के उस विमर्श को हमारे समाने रखती है जिसको हिन्दी लेखक अकसर छुपा लिया करते हैं। अस्मितावादी विमर्शों के दौर में यह आत्मकथा और महत्वपूर्ण लगने लगती है। हिन्दी साहित्य की यह एक अनूठी आत्मकथा है जिससे पता चलता है कि जातिवाद की मूल जड़ें कहाँ है?

 संतराम बी.ए. नवजागरण काल के अद्भुत लेखक और कुशल संपादक थे। इन्होंने पाँच पत्रिकाओं का संपादन किया-‘उषा’(1914, लाहौर), ‘भारती’ (1920,जलन्धर), ‘क्रांति’ (1928, उर्दू लाहौर), ‘युगान्तर’ (जनवरी 1932,लाहौर), और ‘विश्व ज्योति’(होशियारपुर)। ‘युगान्तर’ नवजागरण काल की बड़ी  क्रांतिकारी पत्रिका थी। इस पत्रिका में जाति और वर्णा-व्यवस्था पर बड़े ही तीखे और आलोचनात्क लेख लिखे जाते थे।

 संतराम बी.ए. ने हिन्दू मनोवृत्ति को बड़ी गहराई से परख लिया था। इन्होंने अस्पृश्यता और जाति की जड़ ‘वर्ण-व्यवस्था’ को माना था। इनकी दृष्टि में जाति और वर्ण-व्यवस्था एक सामाजिक बुराई थी, जिसने दलितों को अछूत और गुलाम के रुप में स्थापित कर दिया था। यह सही बात है कि उच्च वर्ण के हिन्दुओं ने वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय विधान का जामा पहनाने का काम किया है। संतराम बी.ए. ने इस सिंद्धात को नकार दिया था कि ‘वर्ण-व्यवस्था ईश्वरी विधान’ है। इनका प्रबल दावा था कि ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था को अपने स्वार्थपूर्ति के लिए गढ़ा और बनाया है। इस व्यवस्था का घोषित लक्ष्य ब्राह्मणों को अपना वर्चस्व स्थापित कर समाज को समाज को चौरंगा बना देना था।

  संतराम बी.ए. की स्थापना थी कि अस्पृश्यता का मुख्य कारण वर्ण-व्यवस्था है। जब तक वर्ण व्यवस्था का खात्मा नहीं हो जाता; तब तक दलितों और पिछड़ों को समाजिक प्रतिष्ठा और न्याय प्राप्त नहीं हो सकता है। संतराम बी.ए. ने ‘जात-पांत और अछूत प्रथा’ लेख में अस्यपृश्यता का कारण बताते हुए लिखा था :

‘‘इस अछूतपन का मूल कारण हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था या जात-पांत है। जब तक इस रजरोगी की जड़ नहीं कटती, अस्पृश्यता कदापि दूर नहीं हो सकती। जो लोग वर्ण-व्यवस्था को कायम रखते हुए अछूतपन को दूर करने का यत्न करते हैं वे ज्वर के रोगी का हाथ बर्फ में रखकर उसका ज्वर शान्त करने का उपाय करते हैं।’’1

 इस कथन से संतराम बी.ए तत्कालीन समय के सुधारवादियों को वर्ण-व्यवस्था के संबंध में दुरुस्त भी करते दिखाई देते हैं। संतराम बी.ए. ने वर्ण-व्यवस्था को समाज-विभाजित करने वाला कारक ही नहीं बल्कि बहुजनों के लिए मरण-व्यवस्था के तौर पर देखा था। इन्होंने वर्णवाद के रखवालों से प्रश्न किया था कि ‘यह वर्ण-व्यवस्था है या मरण व्यवस्था?’ इनकी नजर में वर्ण-व्यवस्था कोई ईश्वरीय नहीं थी जिस पर सवाल न उठाया जाए:

 ‘‘जन्म-मूलक वर्ण-व्यवस्था कोई ईश्वर नहीं, जिसके विरुद्ध आवाज उठाना घोर नास्तिकता समझी जाए। अपने समाज के कल्याण के लिए उसे हम एकदम ठुकरा सकते हैं। हमें इसमें किसी का भय नहीं है।’’2

 औपनिवेशिक दौर के सुधारक और लेखक जब सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते तो वर्ण-व्यवस्था के रक्षक उन्हें ‘दयानंद पंथी’, ‘विलायत पंथी’ और ‘नास्तिक पंथी’ का तमगा प्रदान करने में जरा भी देर नहीं लगाते थे। संतराम बी.ए. जाति और वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध जैसे ही कुछ लिखते वैसे ही उच्च श्रेणी के हिन्दू लेखक इनके खिलाफ पत्र-पत्रिकाओं में मोर्चा खोल देते थे। यह बड़ी दिलचस्प बात है कि हिन्दी के प्रसिद्ध भाषाविद् किशोरीदास बाजपेयी और हिन्दी साहित्य के मजबूत स्तंभ सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ संतराम बी.ए. का विरोध करते दिखाई देते हैं।

  किशोरीदास बाजपेयी ने संतराम बी.ए. द्वारा उठाया गया सवाल कि ‘वर्ण-व्यवस्था ही जातिवाद की जननी है’ का खण्डन कर वर्ण-व्यवस्था के मंडन में उतर आए थे। किशोरीदास बाजपेयी का स्पष्ट कहना था कि वर्ण-व्यवस्था अस्पृश्यता की जनक नहीं है। इस भाषाविद् ने लिखा था :

‘‘वर्ण-व्यवस्था अछूतपन की जननी है, यह केवल अज्ञान-प्रलाप है। कोई भी तर्क या अनुभव इसमें प्रमाण नहीं और न दिल ही मानता है। वर्ण-व्यवस्था से इस पाप का संपर्क बतलाना तो ऐसा ही है, जैसे सूर्य में अंधकार बतलाना।’’3

यह जानते हुए कि वर्ण मूलक व्यवस्था ने दलित-पिछड़ों और स्त्रियों पर कितना जुल्म और अत्याचार ढ़ाया है; इसके बावजूद इस भाषाविद् ने वर्ण-व्यवस्था को समाज के लिए कल्याणकारी व्यवस्था के तौर पर देखा था। इस भाषाविद् ने संतराम बी.ए. पर ‘पाश्चात्यवादी चश्मा’ का आरोप जड़कर भारतीय संस्कृति को जानने की नसीहत तक दे डाली थी।

अब सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की बात की जाए। जब संतराम बी.ए. ने ‘जात-पांत-तोड़क मण्डल’ बनाया और इस मण्ड़ल की चर्चा जोर पकड़ने लगी तब सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘वर्णाश्रम-धर्म की वर्तमान स्थिति’ लेख लिखकर संतराम बी.ए. और इनके ‘जात-पांत-तोड़क मण्डल’ के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। निराला की दृष्टि में यह मण्डल अप्रासंगिक था क्योंकि यह जात-पांत तोड़ने की बात करता था। इनकी दृष्टि में मण्डल की प्रासंगिकता तब होती जब यह ‘जात-पांत-तोड़क’ नहीं ‘जात-पांत-योजक’ होता। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ लिखते हैं :

‘‘जाति-पाँत-तोड़क मण्डल’’ मंत्री संतराम बी.ए. के करार देने से  इधर दो हजार वर्ष के अन्दर का संसार का सर्वश्रेष्ठ विद्वान् महामेधावी त्यागीश्वर शंकर शूद्रों के यथार्थ शत्रु सिद्ध हो सकते हैं। शूद्रों के प्रति उनके अनुशासन, कठोर-से-कठोर होने पर भी, अपने समय की मर्यादा से द्दढ संबद्ध हैं। खैर, वर्ण-व्यवस्था की रक्षा के लिए जिस ‘‘जायते वर्ण संकरः’’ की तरह के अनेकानेक प्रमाण उद्धृत किए गए हैं, उनकी सार्थकत इस समय मुझे तो कुछ भी नहीं देख पड़ती, ‘‘जाति-पाँत-तोड़क मण्डल’’ की ही विशेष कोई आवश्यकता प्रतीत होती है।‘‘जात-पाँत-तोड़क मण्डल’’ को मैं किसी हद तक सार्थक समझता, यदि वह जाति-पाँति-योजक मंडल’’होता।’’4

 निराला की चिंता थी कि संतराम बी.ए. जात-पांत-तोड़क मण्डल की स्थापना कर जाति तोड़ने का उद्यम क्यों रहे है? निराला चाहते थे कि संतराम बी.ए. ‘ब्रह्म समाज’ की शाखा लाहौर में स्थापित कर जाति जोड़ने का काम करना चाहिए था। इनके अनुसार हिन्दू सुधारकों का पिछलग्गू बनकर संतराम बी.ए.को समाज सुधार का कार्य करना चाहिए था।

  सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने संतराम बी.ए.की पढ़ाई के बहाने दलितों और पिछड़ों की शिक्षा का मजाक उड़ाया था। इस महाकवि की दृष्टि में अंग्रेजी शिक्षा पाकर शूद्र उद्दंड हो गए हैं। इस शिक्षा के बल पर भारतीय संस्कृति और वर्ण विधान को चौपट करने में लगे हुए हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने संतराम बी.ए. की शिक्षा का मजाक उड़ाते हुए लिखा था:

‘‘अंग्रेजी स्कूलों और कालेजों में जो शिक्षा मिलती है, उससे दैन्य ही बढ़ता है और अपना अस्तित्व भी खो जाता है। बी.ए. पास कर के धीवर, लोध अगर ब्राह्मणों को शिक्षा देने के लिए अग्रसर होंगे, तो संतराम बी.ए. की तरह हास्यास्पद होना पडे़गा।’’5

  यह निराला का उच्चवर्णीय दंभ नहीं तो और क्या है? यह तो वर्ण व्यवस्था के विधान के अनुकूल बात हो गई कि जिसमें कहा गया कि कोई ‘शूद्र ज्ञानवान’ होते हुए भी ब्राहाण को शिक्षा नहीं दे सकता है। गौरतलब है कि संतराम बी.ए. कुम्हार जाति के थे। वर्ण-विधान के अनुसार वे सबसे अंतिम पायदान पर आते है। पंडितों को यह बात शूल की तरह चुभ रही थी कि पिछड़े समाज का व्यक्ति ब्राहृाणों का गुरू कैसे बन गया है! यह वर्ण व्यवस्था का चमत्कार ही कहा जायगा कि दलितों, पिछड़ों और स्त्रियों को प्राणविहीन और उच्च वर्ण के हिन्दुओं को महाप्राण बनाने का काम किया है।

 हिन्दी के आलोचक ‘चतुरी चमार’ को बड़ी क्रांतिकारी कहानी बताते आ रहे हैं। मेरी दृष्टि में यह एक आत्मवृत है। इस कहानी का पाठ यदि दलित शिक्षा की दृष्टि से किया जाए तो पता चलेगा कि एक आठ-दस-साल का ब्राह्मण बच्चा चतुरी के बेटे अर्जुन की पढ़ाई का मजाक उड़ाता है। जब सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ अपने लेख में पिछड़ों की शिक्षा का मजाक उड़ा सकते हैं तो वे कहानी में कैसे चूक कर जाते !

 बात निराला ही की नहीं है छायावाद के प्रमुख कवि सुमित्रानंदन पंत ने ‘चमारों का नाच’ शीर्षक से एक कविता लिखी है। इस कविता की कुछ पंक्तियां देखिएयह चमार चैदस का ढंग’, ‘थिरक चमारिन रही छनाछन’, ‘मजलिस का मसखरा करिंगा’, ‘इठला रही चमारिन छन छन’, ‘ये समाज के नीच अधम जन’, ‘रंग दिखाता महुआ, भंग, यह चमार चैदस का ढंग!6 कविता में आई इन पंक्तियों पर मुझे कुछ भी नहीं कहना है लेकिन एक सवाल तो बनता ही है कि हिन्दी के लेखक शराब और भांग के बिना दलितों चित्रण क्यों नहीं कर पाते हैं?

 संतराम बी.ए.ने जाति को मिटाने का औजार ‘अंतरजातीय विवाह’ को बताया था। ध्यातव्य है कि जात-पांत-तोड़क मण्डल ने जाति व्यवस्था को मिटाने के लिए अंतरजातीय विवाह पर बल दिया था। संतराम बी.ए. का विश्वास था कि यदि उच्च श्रेणी के हिन्दू रोटी-बेटी की बेड़ियां तोड़ दें तो समाज से जाति व्यवस्था मिटाई जा सकती है। संतराम का सुझाया गया अंतरजातीय विवाह का नुस्खा उच्च वर्ण के लेखकों को रास नहीं आया था। दरअसल, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ तो अंतरजातीय विवाह के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे। अंतरजातीय विवाह को लेकर उनके विचार थे :

‘‘अछूतों के साथ रोटी-बेटी का संबंध स्थापित कर, उन्हें समाज में मिला लिया जाए या इसके न होने के कारण ही एक विशाल संख्या हिन्दू राष्ट्रीयता से अलग है, यह एक कल्पना के सिवा और कुछ नहीं। दो मनों की जो साम्य-स्थिति विवाह की बुनियाद है और प्रेम का कारण, इस तरह के विवाह में उसका सर्वथा अभाव ही रहेगा। और,जिस यूरोप की वैवाहिक प्रथा की अनुकूलता संतराम जी ने की है वहाँ भी यहीं की तरह वैषम्य का साम्राज्य है’’7

दरअसल उच्चवर्णीय तबका अंतरजातीय विवाह को लेकर उदार नहीं बल्कि कठोर रहा है। यदि ऐसी स्थिति में निराला अंतरजातीय विवाह के पक्ष में नहीं थे तो यह कोई ताज्जुब वाली बात नहीं है।

  यह ब्रिटिश भारत की ऐताहासिक घटना थी कि जात-पाँत तोड़क मण्डल ने सैकड़ों अंतरजातीय विवाह करवाये थे। इस तरह संतराम बी. ए. आधुनिकता से लैस सुधारक और विचारक के रुप में सामने आते हैं। इनके सिद्धांत और व्यवहार में अंतर नहीं था। इन्होंने पत्नी का देहांत हो जाने के बाद एक विधवा से अंतरजातीय विवाह कर समाज में मिसाल कायम की थी।

 संतराम बी.ए. की मंशा थी कि अंतरजातीय विवाह को कानूनी मान्यता मिले। इसके लिए इन्होंने बी.जे पटेल बिल का जमकर समर्थन किया था। सन् 1918 में बी.जे. पटेल ने अंतरजातीय विवाह को वैद्यता के लिए लेजिस्लेटिव असेम्बली में बिल पेश किया गया था। बिल में इस बात पर विशेष जोर दिया गया था कि जो लोग अंतरजातीय विवाह करते हैं उनके विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की जाए। इस बिल में एक बात और जोड़ी गई थी कि अंतरजातीय विवाह से उत्पन्न संतान को अपने बाप-दादा की पैतृक सम्पति में अधिकार दिया जाए। दरअसल, अंतरजातीय विवाह करने वाले लोगों की यह समस्या थी कि उनके अंतरजातीय विवाह को हिन्दू लॉ के अनुसार तत्कालीन समय में वैध नहीं माना जाता था। इस समस्या के समाधान के लिए ही ‘पटेल-बिल’ लाया गया था। इस बिल का तत्कालीन समाज में घोर विरोध हुआ था। सनातनधर्म-सभा, लाहौर ने पटेल-बिल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इसके आलावा अमृतराय जर्नलिस्ट ने अट्ठाईस पृष्ठों का अंग्रेजी में पैम्फलेट लिखकर लोगों में बंटवाया था। इस पैम्फलेट में अंतरजातीय विवाह के विरोध में अनेक दलीलें पेश की गई थीं और सरकार से यह अपील की गई थी कि हिन्दू जन भावनाओं का ध्यान रखते हुए इस बिल को पास न किया जाए।

 संतराम बी.ए. ने ‘अंतरजातीय विवाह’ लेख लिखकर अमृतराय की आपत्तियों का बड़ा ही तार्किक खण्डन किया था। अमृतराय की आपत्ति थी कि अंतरजातीय विवाह हिन्दू भावना के विरुद्ध है। संतराम बी.ए. ने इस आक्षेप के जवाब में लिखा था : ‘‘आपको देश की स्थिति का ठीक से ज्ञान नहीं जान पड़ता, नहीं तो आप ऐसा न कहते। लोग बिरादरियों के संकीर्ण क्षेत्रों से तंग हैं, पर आप जैसे कट्टर पौराणिकों ने उनको इतना भयभीत कर रखा है कि जाति के बाहर जाने का साहस ही नहीं रहा।’’8 पुरोहितों और पौराणिकों की इस समय तूती बोलती थी। इसके शिकार पंडित लक्ष्मीकांत भट्ट थे। इनका कसूर बस इतना था कि इन्होंने अपनी पुत्री का विवाह दूसरी जाति के लड़के से कर दिया था। इस घटना को लेकर हिन्दी की तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने बड़ा शोर मचाया। अपनी पुत्री का जाति से बाहर विवाह करने के कारण भट्ट जी को जाति से बहिष्कृत कर देने के फतवे दिए जाने लगे थे। दिलचस्प बात यह है कि पंडित लक्ष्मीकांत भट्ट महामना पंडित मदनमोहन मालवीय के समधी थे। इस घटना के बाद पंडित मदनमोहन मालवीय ने उनसे अपने संबंध तोड़ लिए। संतराम बी.ए. ने इसको लेकर पंडित मदनमोहन मालवीय की आलोचना की। संतराम बी.ए. ‘युगान्तर’ में पंडित मदनमोहन मालवीय की मानसिकता पर तीखा प्रहार करते रहते थे जिससे मालवीय जी तिलमिला उठते थे। संतराम बी.ए. को मालवीय जी का कटु आलोचक होने का खिताब तक मिल गया था। संतराम बी.ए ने मालवीय जी के संबंध में लिखा था :

‘‘एक मालवीय ब्राह्मण को, दूसरे मालवीय ब्राह्मण को देखकर जो प्रसन्नता होती है, वह जाट या कहार को देखकर नहीं होती। कारण यह कि कार्यत: मालवीय के लिए मालवीय ही हिन्दू हैं, शेष सब अहिन्दू हैं, क्योंकि मालवीय के यहां वह रोटी-बेटी का सम्बन्ध कर सकता है।’’9   

  संतराम बी.ए. हिन्दुओं की कथनी और करनी को लेकर सवाल उठाते थे। वे हिन्दुओं से पूछते थे कि आप चमारों और भंगियों से भेदभाव क्यों करते हैं? अछूतों को सर्वजानिक संपत्ति का उपयोग करने से क्यों वंचित कर रखा है? अछूतों को कुओं से पानी भरने का अधिकार क्यों नहीं दिया जा रहा हैं ? हिन्दू सुधारक अछूत मुद्दों पर अपनी चुप्पी क्यों साध लेते हैं? इन तीखे सवालों का जवाब वर्णवादियों के पास नहीं था। इसलिए संतराम बी.ए. की योग्यता पर सवाल उठाया गया इनको हिन्दू संस्कृति के विध्वंसक का खिताब दिया गया। इस से आगे बढ़कर इन्हें मिस मेयो कैथरीन का भाई बताया गया। गौरतलब है कि मिस मेयो कैथरीन ने ‘मदर इन्डिया’ नामक एक मारक किताब लिखी थी।

  संतराम बी.ए. का बाबा साहेब डा. आम्बेडकर से घनिष्ठ सम्बन्ध था। इन्होंने डा.आम्बेडकर को सन् 1936 में जात-पांत-तोड़क मण्डल के वार्षिक अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया था। जात-पांत-तोड़क मण्डल के वार्षिक अधिवेशन का उद्देश्य यह था कि जाति व्यवस्था को कैसे मिटाया जाए? जांत-पांत तोड़क मण्डल के वार्षिक अधिवेशन होने के कुछ दिन पहले ही डा़॰ आम्बेडकर ने जाति-व्यवस्था से तंग आकर यह घोषणा कर दी थी कि ‘यद्यपि मैं हिन्दू जन्मा हूँ लेकिन हिन्दू के रुप में मरूंगा नहीं’। डा. आम्बेडकर की इस घोषणा से पूरे देश में तहलका मच गया था। लाहौर के भद्रवर्ग समाज ने संतराम बी.ए. को धमकी दे डाली कि यदि डा.आम्बेड़कर मण्डल के वार्षिक अधिवेशन में आयेंगे तो हम काला झण्डा दिखाकर उनका विरोध करेंगे। संतराम बी.ए. ने अंत में डा.आम्बेडकर की गरिमा का ख्याल रखते हुए सन् 1936 में होने वाले जात-पांत-तोड़क मण्डल का वार्षिक अधिवेशन स्थगित कर दिया। संतराम बी.ए. ने इस प्रकरण पर अपनी आत्मकथा में लिखा है :

‘‘डा. आम्बेडकर को अध्यक्ष बनाने का मेरा एक उद्देश्य यह भी था कि जो बात हम डाक्टर साहब को तर्क से नहीं मनवा सके वह उनके हृदय को अपील करके प्रेम में मनवाने के यत्न करें। परन्तु जब मैंने देखा कि लाहौर के प्रतिष्ठित सज्जन काले झण्ड़े दिखाएंगे तो मैंने सम्मेलन को स्थगित कर देना ही उचित समझा।’’10

  हिन्दुओं की संकीर्ण मानसिकता के चलते यह सम्मेलन भले ही स्थगित हो गया था लेकिन सुखद पहलू यह था कि संतराम बी.ए. ने बाबा साहब के भाषण ‘जाति उच्छेद’ को जात-पांत-तोड़क मण्डल की ओर से प्रकाशित कर वितरित कर दिया था। यही भाषण बाद में ‘Annihilation of cast’ नाम से किताब के रूप में प्रकाशित हुआ। डा.अम्बेडकर से ‘एनिहिलेशन आफ कास्ट’ किताब लिखवाने का श्रेय संतराम बी.ए. को दिया जाना चाहिए।

  जब ‘एनिहिलेशन आफ कास्ट’ किताब छपी तो महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ पत्र के 11 और 18 जुलाई 1936 के अंक में आलोचना की। संतराम बी. ए. ने गांधी जी की आलोचना का जवाब ‘हरिजन’ पत्र में ही दिया था। संतराम बी.ए. ने गांधी के लेख पर कई सवाल भी उठाए थें। इन्होंने गांधी जी से पूछा था कि आप अस्पृश्यता को दूर करने का उपाय तो करते हैं लेकिन वर्ण-व्यवस्था का बचाव क्यों करते हैं? यह भी सवाल उठाया था कि जाति व्यवस्था का शास्त्रों में समाधान खोजना वैसा ही है जैसे कीचड़ को कीचड़ से धोना। संतराम बी.ए. के समकालीन हिन्दू लेखक और सुधारक वर्ण व्यवस्था को खत्म किए बिना ही अस्पृश्यता और जात-पांत को मिटाना चाहते थे। जबकि संतराम बी.ए. वर्ण-व्यवस्था ही को खत्म करने की बात कर रहे थे। इनका मानना था कि जब तक जाति व्यवस्था की जड़ वर्ण-व्यवस्था नहीं मिटेगी दलितों और पिछड़ों की समस्या का समाधान नहीं होगा।

  संतराम बी.ए जीवन भर जाति-व्यवस्था के भयंकर उत्पातों को सामने लाकर इसे मिटाने का संघर्ष करते रहे। संतराम बी.ए. ने समाज का समतल बनाने के लिए जिन सिद्धातों पर काम किया उनमें पहला सिद्धांत था कि वर्ण-व्यवस्था को खत्म कर दिया जाये। यदि वर्ण-व्यवस्था खत्म होती है तो स्वतः लोग समता और समतल का रास्ता अपने आप पकड़ कर चलाने लगेंगे। इनका दूसरा सिद्धांत था कि समाज में यदि अंतरजातीय विवाह का प्रचलन शुरु कर दिया जाए तो जाति-व्यवस्था की जड़ आपने आप सूख जायेगी। एक तरह से संतराम बी.ए. रोटी और बेटी की हंदबदी के एकदम खिलाफ थे। संतराम बी.ए. वर्णवादियों के सवालों से घबराते नहीं थे; अपने खिलाफ सवालों का बड़ा ही तार्किक जवाब दिया करते थे। हिन्दी नवजागरण की शायद ही कोई पत्रिका रही होगी जिसमें संतराम बी.ए. ने जाति व्यवस्था के खिलाफ लिखा न हो। संतराम बी.ए. ने जाति व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था की जड़ पर खुलकर प्रहार किया। अपने सिरहाने मनुस्मृति रखकर सोने वाले विद्वानों की मानसिकता पर मारक प्रहार किया। संतराम बी.ए. जाति और वर्ण-व्यवस्था के जानी दुश्मन थे। इस मानव विरोधी दुश्मन पर जितना मारक प्रहार इन्होंने किया शायद ही नवजागरण कालीन किसी हिन्दी लेखक ने किया था। ताज्जुब होता कि हिन्दी के आलोचकों ने उनके योगदान का नोटिस तक नहीं लिया।

सन्दर्भ

1.जात-पांत और अछूत प्रथा, श्री सन्तराम बी.ए. विश्वमित्र, जनवरी 1933,वर्ष 1,खण्ड, 1 भाग 1 पृ-29

2.यह वर्ण-व्यवस्था है या मरण-व्यवस्था ?,संतराम बी.ए., माधुरी अप्रैल 1928,  वर्ष 6, खण्ड 2, संख्या                     3, पृ-396

3.आर्यो की वर्ण-व्यवस्था,किशोरीदास बाजपेयी, माधुरी 1928, ,  वर्ष 6, खण्ड 2, संख्या 4, पृ-535

4.वर्णाश्रम-धर्म की वर्तमान स्थिति, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘‘निराला’’ माधुरी,माघशीर्ष 306तुलसी संवत 1986,वर्ष 8, खंड 1, संख्या 5, पृ-836-37

5.वर्णाश्रम-धर्म की वर्तमान स्थिति, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘‘निराला’’ माधुरी,माघशीर्ष 306तुलसी संवत 1986,वर्ष 8, खंड 1, संख्या 5, पृ-842

6.सुमित्रानंदन पंत ग्रन्थावाली, खण्ड: 2, राजकमल प्रकाशन, संस्करण:1993, पृ- 146-47

7.वर्णाश्रम-धर्म की वर्तमान स्थिति, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘‘निराला’’ माधुरी,माघशीर्ष 306तुलसी संवत 1986,वर्ष 8, खंड 1, संख्या 5, पृ-842

8.अंतरजातीय विवाह, संतराम बी.ए., सुधा जुलाई 1929, वर्ष 2, खंड 2,  संख्या 5, पृ-599

9.जात-पांत और अछूत प्रथा, श्री सन्तराम बी.ए. विश्वमित्र, जनवरी 1933,वर्ष 1,खण्ड, 1 भाग 1 पृ-31

10.मेरे जीवन के अनुभव,श्री संतराम बी.ए., हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी,  अक्तूबर 1963, पृ-219

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[कथाक्रम पत्रिका से साभार]

                                                        

(सुरेश कुमार नवजागरणकालीन साहित्य के गहन अध्येता हैं।)

 मो.8009824098

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कविता शुक्रवार 6: शिरीष ढोबले की कविताएँ

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इस बार ‘कविता शुक्रवार’ में अपनी अलग पहचान के कवि शिरीष ढोबले की नई कविताएं और प्रख्यात चित्रकार अखिलेश के रेखांकन।
शिरीष ढोबले का जन्म इंदौर में 1960 में हुआ था। वे पेशे से ह्रदय शल्य चिकित्सक हैं। पूर्वग्रह पत्रिका की अनुषंग पुस्तिका में उनका कविता संग्रह ‘रेत है मेरा नाम’ प्रकाशित हुआ था। सूर्य प्रकाशन मंदिर से ‘उच्चारण’ संग्रह प्रकाशित है। ‘पर यह तो विरह है’ उनका नया प्रकाशित कविता संग्रह है। कविताएं लिखने के साथ वे कहानियां और आलोचना भी लिखते रहे हैं। अनुवाद करने में भी रुचि रखते हैं। उनकी कविताओं का मराठी और अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है। उन्हें रजा पुरस्कार (1987), कथा पुरस्कार (1996) और भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1997) मिले हैं।
आइए पढ़ते हैं उनकी कुछ नई कविताएं- राकेश श्रीमाल

 

 

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परमहंस
 
पूर्वजन्म की किसी बेला
वचन था
देवता मिलेंगे
इस जन्म तक बह आयी प्रतीक्षा थी
आँखों में उतर आया मोतिया था।
 
आभास और स्मृति की तरह
सरोवर के जल पर उतरता था हंस।
 
एक अंधा पक्षी
आकाश पर तनी डोर टटोलता उड़ता था।
 
देवता अरण्य मार्ग से आए
अभी अभी उड़ चुके हंस की स्मृति और जल पर ठहरे उसके आभास के लिए
मोती ले कर की कविताएं
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माँ के लिए प्रार्थना
– – – –
 
ओ अन्नपूर्णा ! तुम्हारे पैरों की महावर न छूटे कभी
स्वर्ण मुद्रा सी जगमगाती पीतल की थाल
यदि छूटे भी हाथ से
तो किनार टेढ़ी न हो
बैठक तक आवाज़ न जाए
आँगन का गाछ
तुम्हें जैसा चाहिए
कच्चा या पका हुआ
वैसा आम दे प्रतिदिन
तुम्हारे वस्त्र की
केसरी काठ से
रसोई में केसर की सुगन्ध हो
चावल सीझने में विलम्ब न हो
दूध उतना ही तपे
रहे पात्र में
उस उच्श्रृंखल ग्वाले का मुँह न जले
द्वार पर सारे नक्षत्र
जो झोली पसारे
खड़े रहते हैं
थोड़ी प्रतीक्षा करेंगे
 
ओ माँ
तुम यदि
व्यस्त हो
चूल्हे की अग्नि को
देने उलाहना।
 
 
 
बेहद
– – – –
 
अनंत के नीले घड़े से
बूँद बूँद रिसती
नीली ओस
गाढ़ी मदिरा मस्तक पर गिरती
अनंत के आँगन में।
 
यह उस स्वप्न का क्षेत्र है
जहाँ सुनहरा गरूड़
उड़ता है
रुकता है
एक पैर सूर्य पर
दूसरा चन्द्रमा पर रख
कण्ठ में झूलती है पृथ्वी
स्वर्ण मुद्रा जैसी।
 
अरण्यों से
मलय गिरी से
समीर
देह ऐंठ कर, सुलझ कर
बनती है बाँसुरी
उसमें भरता है
एक अक्षर एक नाद।
 
भारहीन, शाश्वत, उज्जवल स्वप्न
किनारों पर नीला रह गया थोड़ा
 
 
 
परमेश्वर
(येहूदा अमिखाई को समर्पित)
 
देह पर घाव पड़े थे। प्रत्येक श्वास का आघात सहते थे।
पीड़ा की लहर मस्तक तक उठती थी।
एक भरता नहीं था।
हर सम्वत्सर पर दूसरा उभरता था।
सूखी त्वचा पर पूरे कुल की आयु गिनी जा सकती थी,
सकल सूर्योदयों की लिखा पढ़त थी।
कथा देवता जानते थे, उनके शस्त्र थे।
पीड़ा पृथ्वी जानती थी, दिठौना भी और हल्दी का लेप भी वह लगाती थी। मुझे गोद में लिए धैर्य से बैठी रहती थी।
नीली किनार के सूती वस्त्र से छाया करती थी।
वह मालकौंस की भाषा में बोलती रहती और मैं बेसुध पड़ा रहता था। सूर्यास्त होता था।
पंच और साक्ष्यदार आते नहीं थे।
ऊँचे आसन से उठ कर जाते देवताओं के मुख पर मंद हास होता था।
 
 
 
पूजन चली महादेव
 
आकांक्षा और आशंका से भारी मंथर देह को
एक एक पग ढकेलता अधीर मन
उसका चलना
एक क्लिष्ट नृत्य भंगिमा का
विलम्बित समय में अलसाया विन्यास
 
कामना से झुलसता रक्ताभ मुख
थाली में रखे सबसे लाल जास्वंद से
अधिक वैसा
 
माथे पर उभरते स्वेद कणों से
उपजता कस्तूरी का वास
पास फिरते समीर को करता शिथिल
उसके पैरों से लिथड़ने के लिए बाध्य
 
वह स्वयं हो सकती थी
अर्चना की शास्त्रोक्त विधि
हो सकती थी वह प्रार्थना
जो शरविद्ध मृग की करुण विशाल
आँखों में बदल सकती हो किसी क्षण
वह मन्त्र हो सकती थी सदेह
कि ग्रीष्म की मध्य रात्रि का चन्द्र
अपनी चंद्रिका का कण कण
उसके पथ पर बिखेरने लगे
 
महादेव
महादेव
तुम्हारे माथे पर यह चन्द्रमा
उस चन्द्रवदन मृगनयनी
के पथ का प्रकाश।
 
 
 
महाप्राण महाकवि की
अपर्याप्त छाया
– – – – – – –
 
रस रंग राग नृत्य
न्याय निरुक्त
कविता में व्याकरण का गुण दोष
देने पावने का लेखा
होता रहे
मैं यहाँ अनुपस्थित जैसे चिन्हित होकर
उठ जाना चाहता हूँ सभागार से
पोखर पर पानी पी
माथा, शिखा गीली कर
धोती से हाथ पोंछता
गीता दोहराता मन में
नीम की छाँव बैठकर
साँस ले कर जरा
घाट पर
आ जाना चाहता हूँ
आज तर्पण है
समय पर जाना वहाँ
या
आना वहाँ
सन्तोष होगा थोड़ा
क्या जाने कैसी छवि मेरी
स्मृति में उसके रही होगी
सँवार लिए केश, वेष भी
सँवार लिया मैंने
 
 
 
सूर
– – –
 
अपनी काया में प्रवेश से पहले
ईश्वर जब लिखता था इस का विधान
याचना थी एक
ऐसी दृष्टि दे
अपने जग को जानूँ जैसे जल में तेरी छाया।
 
वह मौन रहा।
मैं नयनहीन।
 
देह में लगता था भीतर अग्निशिखा का लाल कम्पन
आँख के कोयले पर सौ सूर्य हो एकाग्र।
 
हर स्पर्श से
वहीं पर खड़ा
देह में गड़ा
पारिजात
भीगता
वर्षा में लथपथ
सुगन्ध उलीचता था।
 
ताना
उलाहना कण्ठ की वीणा पर एक आघात
एक स्वर का मूल जागृत करता था।
 
इतना गाढ़ा सौंदर्य पसरा था यमुना तट
त्वचा पर गड़ता था।
 
इस थोड़े कटे फटे अंग- वस्त्र के बंद खोलते
अब लगता है
स्वीकार था
मौन नहीं था ।
 
 
 
प्रार्थना
– – – – –
काँसे का पात्र
आधा भरा हो
अन्न से
या करुणा से तो छलकता हो
 
दृष्टि में रहे
अभी अभी ढलके
अश्रु की पारदर्शी छाया
या मन में उपजते
आशीष की पदचाप हो
आँखों में
 
आर्द्र प्रार्थना का
अनुनाद निर्जन पथ पर
ओस की तरह पसरा हो
या काले मेघ की तरह
तो मंडलाये
 
मंद समीर की तरह
न उड़ता हो
न बहता हो
मंथर
क्षिप्रा की तरह
 
सूखे चावल
का अधिष्ठाता देवता
काँधे से उड़कर
लौट जाएगा
साधो
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अखिलेश : रेखांकनों में अनुभव-स्पर्श

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               उसे दुनिया भर के ऐसे किस्से याद रहते हैं, जो समय विशेष पर सुनते हुए चुटकुले की माफिक लगते हैं। लेकिन उनमें जीवन, कला और महत्वाकांक्षा को लेकर कई सारे तर्क और सवाल भी मौजूद रहते हैं। मसलन वह युवा चित्रकारों के समक्ष वरिष्ठतम कलाकारों के ऐसे वास्तविक मजाकिया किस्से सुनाता रहता है, जिनसे उन्हें कुछ नया जानने या सीखने को मिले। किस्सागोई की उसकी इस लय को उसके निकटवर्ती ही पकड़ पाते हैं। यह सब करते हुए उसके भीतर की खिलखिलाहट अखिल न रहते हुए, वास्तव में उसके हाव-भाव और चेहरे पर खिलखिलाने लगती है। ऐसे क्षणों में ही मुझे लगता कि अखिलेश सचमुच नहीं खिलने को नकारते हुए खिल रहा है।
            ठीक इसके विपरीत मुझे कई मर्तबा लगता रहा है कि अखिल ने कुछ बोलना चाहा था, लेकिन अगले ही पल वह ऐसे बैठे रहता, गोया वह वहाँ चुप बैठने के लिए ही बैठा है। मैं सोचता कि आखिर ऐसा क्या था, जो उसने बोलना उचित नहीं समझा। दरअसल अपने बोले जाने की तात्कालिक निरर्थकता को वह पहचानने लगा था और उसे लगता होगा कि यह समय वह सब बोलने के लिए नहीं है, जो उसने उसी वक्त सोचा था।
           उसे ऐसा गुस्सा करते हुए मैंने कभी नहीं देखा, जैसा गुस्सा करते हुए या नाराज होते हुए लोग अपने को ढाल लेते हैं। कैसी भी दुरूह या विरोधी स्थिति हो, वह गुस्से को अपने ऊपर हावी होने नहीं देता। शायद वह गुस्से में आकर अपना अपव्यय नहीं करना चाहता। या फिर सम्भवतः वह समय को इतना प्रेम करता है कि वह इस सहज मानवीय भाव को थोड़ा भी दिखाना नहीं चाहता।
           यह सब अनुभव-दृश्य इसलिए, कि इन्हीं से गुजरते हुए एक चित्रकार की कला-यात्रा और उसका ‘बनना’ निज दृष्टि से समझा जा सकता है। बहुत वर्षो तक अखिल के अंतर्मन में छिपी रचनात्मक बेचैनी को मैंने अनुभव किया है। पर वह यह अपने व्यवहार और बातों से किसी पर जाहिर नहीं होने देता था। उसने लंबे समय तक अपने उत्कृष्ट सृजन को केवल अपने भीतर ही रखा। जीवन में बिना विचलित हुए ऐसा धैर्य अमूमन सम्भव नहीं हो पाता। अब अखिल अपने मौन के पीछे छिपे असम्भव को बेहद सलीके से सबके समक्ष सम्भव कर रहा है। अब वह वही कर रहा है, जो उसकी इच्छा थी और जो वह कर सकता है। वह चित्र बना रहा है और हम सब उसे देख रहे हैं।
             वह प्रागेतिहासिक समय में जाकर चित्र बनाता है। वह भूल जाता है कि उसने चित्र बनाते हुए बीसवीं शताब्दी से इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर लिया है। हालांकि वह बीती शताब्दियों के कुछेक चित्रकारों का मुरीद है। अपनी विदेश यात्राओं में वह संग्रहालयों में जाकर, या जैसे भी सम्भव हो, उनके ‘ओरिजनल वर्क’ देखना नहीं भूलता। लेकिन खुद वह एक आदिम चित्रकार है। अपने ही द्वारा बार-बार वापरे गए रंगों से फिर-फिर परिचित होता। उन रंगों की काया, गंध, उपस्थिति और उनकी भाषा उसे हर बार अपरिचित लगती। इसलिए उसका बनाया हर नया चित्र खुद उसके लिए भी अपरिचित रहता। वह अपने ही चित्रों के अपरिचय में, अपने ही चित्रों का परिचय खोजने वाला चित्रकार है।
             वह अपने स्टूडियो में मित्रों से बतियाते हुए भी चित्र बना सकता है। उसके बने सभी चित्र कैनवास पर भरे हुए नहीं लगते। वह अपनी पूर्णता के खालीपन में कैनवास पर उभरे होते हैं। अखिल अपने चित्रों की पूर्णता में रिक्त होते रहता है। उसके लिए स्टूडियो में जाने का अर्थ ही अपने को रिक्त करते रहना है। फिर भी वह हमेशा भरा-पूरा शेष रहता है। वह अपनी रिक्तता में ही अपने को भर पाता है।
             अखिलेश की पहली प्रदर्शनी रेखांकन की ही थी। इंदौर ललित कला संस्थान में तीसरे वर्ष में पढ़ते हुए यह हुई थी। यह एक सौ दस फ़ीट का रेखांकन था। जिसकी शीट गैलरी में पहले लगा दी गई थी, बाद में उस पर रेखांकन किया गया था। अखिल के लिए रेखांकन करना चित्र की तैयारी या पूर्व रंग की तरह कभी नहीं रहा। वे रेखांकन को अपने में सम्पूर्ण विधा मानते हैं। जैसे नसरीन के रेखाचित्र किसी चित्र के लिए नहीं हैं। वे स्वतंत्र हैं और अपने आप में चित्र हैं। वे रेखांकन को चित्र बनाने के अभ्यास के तरीके को पश्चिमी विचार मानते हैं। वे कहते हैं- “चित्रकला की पढ़ाई के दौरान भी पोट्रेट या लाइफ स्टडी के लिए भी रेखांकन का अभ्यास नहीं किया। में सीधे रंग और ब्रश से बनाता था। यह अभ्यास या आधार उनके लिए जरूरी है, जो ‘देखना’ सीख रहे हैं। जिन्हें दिखता है, उन्हें इसका सहारा नहीं लेना पड़ता।”
             उनकी पहली प्रदर्शनी में दैनिक जीवन के रेखाचित्र थे। यानी उनके इर्द-गिर्द का संसार ही उनके विषय थे। बाद में वे अमूर्त रेखांकन करने लगे। किसी भी तरह की आकृति के बिना। वे इसके लिए काली स्याही का प्रयोग करते। काले में छिपे सफेद को जानने की यह उनकी प्रक्रिया रही। इससे उन्हें रंग के टोन समझने में मदद मिली। लेकिन वे इस बात को नकारते हैं कि रंग-स्वभाव समझने के लिए वे काला रंग लगा रहे थे। उनके अनुसार हर चित्रकार अपनी राह चुनता है, जिस पर वह आगे अपने सृजन को जारी रखता है।
             मुझे अखिल के चित्र अगर गद्य की तरह लगते रहे हैं, तो उनके रेखांकन सौम्य पद्य की तरह। अखिल के रेखांकन उनके कला संसार मे कविता की तरह है। शमशेर बहादुर सिंह की कविता “टूटी हुई बिखरी हुई” की तरह इन रेखांकनों का अनुभव-स्पर्श करने के लिए आँखों का अभ्यस्त होना आवश्यक है। ये रेखांकन अपने कहने में अपने को छिपाते हैं और अपने अदृश्य में अपनी कविता सुनाते हैं। यह संयोग मात्र नहीं है कि वे कविता से प्रेम करते हैं और कई सारे कवियों से उनके आत्मीय रिश्ते हैं। तीन दशक पहले श्रीकांत वर्मा के कविता संग्रह “मगध” की एक प्रयोगात्मक नाट्य प्रस्तुति अलखनन्दन ने अपने निर्देशन में भारत भवन के बहिरंग में की थी। जिसे श्रीकांत वर्मा ने निर्मल वर्मा के साथ बैठकर देखा था। अखिल के साथ यह प्रस्तुति देख कर हम दोनों ने कविताओं के नाट्य ट्रीटमेंट के बारे में कई दिनों तक बातें की थीं। अपने प्रिय कवियों को अखिल बार-बार पढ़ते हैं। मुझे हमेशा लगता रहा कि रेखांकन करते समय इन कविताओं की पाठ-स्मृति उनके मन-मस्तिष्क में जरूर रहती होगी।
         इस टिप्पणी का अंत एक शाम से। अखिल के दूसरे बेटे का जन्म क्रिटिकल अवस्था में हुआ था। डॉक्टरों ने 72 घन्टे का समय दिया था। उसके जन्म के तत्काल बाद उसे किसी प्रदर्शनी के सिलसिले में मुंबई आना पड़ा। मुंबई से जब भोपाल फोन लगाया, तब उसे पता चला कि अब सब ठीक है। बारिश हो रही थी। हमने छोटा सा जश्न मनाया। उस शाम अखिल भीगते हुए अतिरिक्त खुश था। एक नई जिम्मेदारी का अहसास उसे लबालब कर रहा था। हमने उस बच्चे के लिए चीयर्स किया था, जिसका नामकरण होना अभी बाकी था। वह खुश था, आखिर वह अपने नए बेटे का नया पिता था। उस शाम हमने क्या बातें की, यह तो याद नहीं, इतना जरूर याद है कि बारिश की उस शाम को मैं अखिल से नहीं, दूसरे बेटे के पिता से बातें कर रहा था। ठीक वैसे ही, जैसे जब भी अखिल से बात होती है, हमेशा यही लगता है कि नए चित्र के नए चित्रकार से बात कर रहा हूँ– राकेश श्रीमाल
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।

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पेरियार की दृष्टि में रामकथा

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पेरियार ई.वी. रामासामी की किताब ‘सच्ची रामायण’ का प्रकाशन हुआ है। लॉकडाउन के बाद पुस्तकों के प्रकाशन की शुरुआत उत्साहजनक खबर है। पेरियार की दो किताबों के प्रकाशन के साथ राजकमल प्रकाशन ने पाठकोपोयोगी कुछ घोषणाएँ भी की हैं। पहले ई.वी. रामासामी पेरियार की रामकथा पर यह टिप्पणी पढ़िए। अपने समय में तमिल में इस रामकथा के प्रकाशन के बाद बहुत हंगामा हुआ था। इस लेख में सब कुछ विस्तार से दिया गया है-

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पेरियार की दृष्टि में रामकथा

सुरेश पंडित

राम हिन्दुओं के सिर्फ आदर्श महापुरुष ही नहीं, परम पूजनीय देवता भी हैं। उनके जीवन को लेकर हिन्दी और संस्कृत के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में बड़ी संख्या में रामकाव्य लिखे गए हैं। ये महाकाव्य उनको अतिमानवीय तो प्रदर्शित करते ही हैं, उन्हें दुनियाभर के सारे अनुकरणीय गुणों से सम्पन्न भी दिखाते हैं। यदि कोई समस्त श्रेष्ठ विशेषणों से विभूषित धीरोदात्त नायक की छवि को अविकल रूप में देखना चाहता है, तो उसकी यह इच्छा राम पर लिखे किसी भी महाकाव्य को पढ़कर पूरी हो सकती है। इसलिए उन पर लिखे गए काव्यों को न केवल भक्तिभाव से पढ़ा व सुना जाता है, बल्कि उनके चरित्र की रंगमंच प्रस्तुति को भाव विभोर होकर देखा भी जाता है। लेकिन, ऐसे भी लोग हैं और उनकी संख्या निश्चय ही नगण्य नहीं है, जो राम के इस महिमामंडन से अभिभूत नहीं होते और उनकी सर्वश्रेष्ठता को चुनौती देते हैं। उन्हें लगता है कि राम को पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित करने की हठीली मनोवृत्ति ने जानबूझकर उनके आसपास विचरने वाले चरित्रों को बौना बनाया है। साथ ही उनका विरोध करने वालों को दुनिया की सारी बुराइयों का प्रतीक बनाकर लोगों की नजरों में घृणास्पद भी बना दिया जाता है।

ऐसे लोग जब पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों के जरिये अपनी बात रखने लगते हैं, तो उन्हें नास्तिक, धर्मद्रोही एवं बुराई के प्रतीक रावण का वंशज घोषित कर उनकी आवाज को दबाने की कोशिश की जाती है और अधिसंख्य हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की कुचेष्टा बताकर प्रतिबन्धित कर दिया जाता है। लेकिन, सारे खतरों का मुकाबला करते हुए भी लोग अपनी बात कहने से चूकते नहीं। राम के आदर्श चरित्र का गुणगान करने वाली सैकड़ों रामकथाओं के बरअक्स कई ऐसी किताबें आई हैं या आ रही हैं, जो रामायण की अपने ढंग से व्याख्या करती हैं और राम के विशालकाय व्यक्तित्व के सामने निरीह या दुष्ट बनाए गए चरित्रों की व्यथा-कथा कहती हैं। राम के चरित्रगत दोषों को उजागर कर वे इन उपेक्षित, उत्पीड़ित लोगों के प्रति हुए अन्यायों एवं अत्याचारों को सामने रखती हैं। ऐसी ही एक किताब का नाम है ‘सच्ची रामायण’; ‘द रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ का अनुवाद, जिसे 14 सितम्बर, 1969 को महज इस वजह से उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रतिबन्ध लगाकर जब्त कर लिया था; क्योंकि वह अन्य रामायणों की तरह राम के विश्ववन्द्य स्वरूप को ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत नहीं करती। इस रामायण के लेखक हैं—ई.वी. रामासामी पेरियार।

उन्होंने तमिल में एक पुस्तक लिखी; जिसमें वाल्मीकि द्वारा लिखित एवं उत्तर भारत में विशेष रूप से लोकप्रिय रामायण की इस आधार पर कटु आलोचना की कि इसमें उत्तर भारत की आर्य जातियों को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है और दक्षिण भारतीय द्रविड़ों को क्रूर, हिंसक, अत्याचारी जैसे विशेषण लगाकर न केवल अपमानित किया गया है; बल्कि राम-रावण कलह को केन्द्र बनाकर राम की रावण पर विजय को दैवी शक्ति की आसुरी शक्ति पर, सत्य की असत्य पर और अच्छाई की बुराई पर विजय के रूप में गौरवान्वित किया गया है।

इसका अंग्रजी अनुवाद ‘द रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ के नाम से वर्ष 1959 में किया गया। इस अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी में रूपान्तरण 1968 में ‘रामायण : एक अध्ययन’ के नाम से किया गया। उल्लेखनीय है कि ये तीनों ही संस्करण काफी लोकप्रिय हुए। क्योंकि, इसके माध्यम से पाठक अपने आदर्श नायक-नायिकाओं के उन पहलुओं से अवगत हुए, जो अब तक उनके लिए वर्जित एवं अज्ञात बने हुए थे। ध्यान देने योग्य तथ्य यह सामने आया कि इनकी मानवोचित कमजोरियों के प्रकटीकरण ने लोगों में किसी तरह का विक्षोभ या आक्रोश पैदा नहीं किया; बल्कि इन्हें अपने जैसा पाकर इनके प्रति उनकी आत्मीयता बढ़ी और अन्याय, उत्पीड़नग्रस्त पात्रों के प्रति सहानुभूति पैदा हुई।

लेकिन, जो लोग धर्म को व्यवसाय बना रामकथा को बेचकर अपना पेट पाल रहे थे, उनके लिए यह पुस्तक आंख की किरकिरी बन गई। क्योंकि, राम को अवतार बनाकर ही वे उनके चमत्कारों को मनोग्राह्य और कार्यों को श्रद्धास्पद बनाए रख सकते थे। यदि राम सामान्य मनुष्य बन जाते हैं और लोगों को कष्टों से मुक्त करने की क्षमता खो देते हैं, तो उनकी कथा भला कौन सुनेगा और कैसे उनकी व उन जैसों की आजीविका चलेगी? इसीलिए प्रचारित यह किया गया कि इससे सारी दुनिया में बसे करोड़ों राम-भक्तों की भावनाओं के आहत होने का खतरा पैदा हो गया है। इसलिए, इस पर पाबन्दी लगाई जानी जरूरी है; और पाबन्दी लगा भी दी गई। लेकिन, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बाद में प्रतिबन्ध हटा दिया और अपने फैसले में स्पष्ट कहा कि “हमें यह मानना सम्भव नहीं लग रहा है कि इसमें लिखी बातें आर्य लोगों के धर्म को अथवा धार्मिक विश्वासों को चोट पहुँचाएँगी। ध्यान देने लायक तथ्य यह है कि मूल पुस्तक तमिल में लिखी गई थी और इसका स्पष्ट उद्देश्य तमिल भाषी द्रविड़ों को यह बताना था कि रामायण में उत्तर भारत के आर्य—राम, सीता, लक्ष्मण आदि का उदात्त चरित्र और दक्षिण भारत के द्रविड़—रावण, कुंभकरण, शूर्पणखा आदि का घृणित चरित्र दिखाकर तमिलों का अपमान किया गया है। उनके आचरणों, रीति-रिवाजों को निन्दनीय दिखलाया गया है। लेखक का उद्देश्य जानबूझकर हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुँचाने की बजाय अपनी जाति के साथ हुए अन्याय को दिखलाना भी तो हो सकता है। निश्चय ही ऐसा करना असंवैधानिक नहीं माना जा सकता। ऐसा करके उसने उसी तरह अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का उपयोग किया है, जैसे रामकथा प्रेमी आर्यों को श्रेष्ठ बताकर ये सब करते आ रहे हैं। इस तरह तो कल दलितों का वह सारा साहित्य भी प्रतिबन्धित हो सकता है, जो दलितों के प्रति हुए अमानवीय व्यवहार के लिए खुल्लमखुल्ला सवर्ण लोगों को कठघरे में खड़ा करता है।

यह कैसे न्यायसंगत हो सकता है कि लोग रामायण, महाभारत, गीता आदि धार्मिक ग्रंथों को तो पढ़ते रहें, पर उनकी आलोचनाओं को पढ़ने से उन्हें रोक दिया जाए? जहाँ तक जनभावनाओं का सवाल है, तो इसका एकतरफा पक्ष नहीं हो सकता। यदि राम और सीता की आलोचना से लोगों को चोट लगती है तो शूद्रों, दलितों व स्त्रियों के बारे में जो कुछ हिन्दू धर्म ग्रंथों में लिखा गया है, क्या उससे वे आहत नहीं होते? क्या यह कम विचारणीय है?

वस्तुत: पेरियार की ‘सच्ची रामायण’ ऐसी अकेली रामायण नहीं है, जो लोक प्रचलित मिथकों को चुनौती देती है और रावण के बहाने द्रविड़ों के प्रति किए गए अन्याय का पर्दाफाश कर उनके साथ मानवोचित न्यायपूर्ण व्यवहार करने की माँग करती है।

दक्षिण से ही एक और रामायण अगस्त 2004 में आई है; जो उसकी अन्तर्वस्तु का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करती है और पूरी विश्वासोत्पादक तार्किकता के साथ प्रमाणित करती है कि राम में और अन्य राजाओं में चारित्रिक दृष्टि से कहीं कोई फर्क नहीं है। वह भी अन्य राजाओं की तरह प्रजाशोषक, साम्राज्य विस्तारक और स्वार्थ सिद्धि हेतु कुछ भी कर गुजरने के लिए सदा तत्पर दिखाई देते हैं। परन्तु, यहाँ हम पेरियार की नजरों से ही वाल्मीकि की रामायण को देखने की कोशिश करते हैं।

वाल्मीकि रामायण में अनेक प्रसंग ऐसे हैं, जो तर्क की कसौटी पर तो खरे उतरते ही नहीं। जैसे उसमें लिखा है कि दशरथ 60 हजार वर्ष तक जीवित रह चुकने पर भी कामवासना से मुक्त नहीं हो पाए। इसी तरह वह यह भी प्रकट करती है कि उनकी केवल तीन ही पत्नियाँ नहीं थीं। इन उद्धरणों के जरिये पेरियार दशरथ के कामुक चरित्र पर से तो पर्दा उठाते ही हैं, यह भी साबित करते हैं कि उस जमाने में स्त्रियाँ केवल भोग्या थीं। समाज में इससे अधिक उनका कोई महत्त्व नहीं था। दशरथ को अपनी किसी स्त्री से प्रेम नहीं था; क्योंकि यदि होता, तो अन्य स्त्रियों की उन्हें आवश्यकता ही नहीं होती। सच्चाई यह भी है कि कैकेयी से उनका विवाह ही इस शर्त पर हुआ था कि उससे पैदा होने वाला पुत्र उनका उत्तराधिकारी होगा। इस शर्त को नजरअन्दाज करते हुए उन्होंने राम को राजपाट देना चाहा, जो उनका गलत निर्णय था। राम को भी पता था कि असली राजगद्दी का हकदार भरत है, वह नहीं। यह जानते हुए भी वह राजा बनने को तैयार हो जाते हैं। पेरियार के मतानुसार यह उनके सत्तालोलुप/राज्यलोलुप होने का प्रमाण है।

कैकेयी जब अपनी शर्तें याद दिलाती हैं और राम को वन भेजने की जिद पर अड़ जाती हैं, तो दशरथ उसे मनाने के लिए कहते हैं—‘मैं तुम्हारे पैर पकड़ लेने को तैयार हूँ; यदि तुम राम को वन भेजने की जिद को छोड़ दो।’ पेरियार एक राजा के इस तरह के व्यवहार को बहुत निम्नकोटि का करार देते हैं और उन पर वचन भंग करने तथा राम के प्रति अन्धा मोह रखने का आरोप लगाते हैं।

राम के बारे में पेरियार का मत है कि वाल्मीकि के राम विचार और कर्म से धूर्त थे। झूठ, कृतघ्नता, दिखावटीपन, चालाकी, कठोरता, लोलुपता, निर्दोष लोगों को सताना और कुसंगति जैसे अवगुण उनमें कूट-कूटकर भरे थे। पेरियार कहते हैं कि जब राम ऐसे थे, तो फिर राम अच्छे और रावण बुरे कैसे हो गए?

उनका मत है कि चालाक ब्राह्मणों ने इस तरह के गैर-ईमानदार, निर्वीर्य, अयोग्य और चरित्रहीन व्यक्ति को देवता बना दिया और अब वे हमसे अपेक्षा करते हैं कि हम उनकी पूजा करें! जबकि, वाल्मीकि स्वयं मानते हैं कि राम न तो कोई देवता थे और न उनमें कोई दैवी विशेषताएँ थीं। लेकिन, रामायण तो आरम्भ ही इस प्रसंग से होती है कि राम में विष्णु के अंश विद्यमान थे। उनके अनेक कृत्य अतिमानवीय हैं। जैसे उनका लोगों को शापमुक्त करना, जगह-जगह दैवी शक्तियों से संवाद करना, आदि। क्या ये काम उनके अतिमानवीय गुणों से सम्पन्न होने को नहीं दर्शाते?

उचित प्यार और सम्मान न मिलने के कारण सुमित्रा और कौशल्या दशरथ की देखभाल पर विशेष ध्यान नहीं देती थीं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, जब दशरथ की मृत्यु हुई तब भी वे सो रही थीं और विलाप करती दासियों ने जब उन्हें यह दुखद खबर दी, तब भी वे बड़े आराम से उठकर खड़ी हुईं। इस प्रसंग को लेकर पेरियार की टिप्पणी है—‘इन आर्य महिलाओं को देखिए! अपने पति की देखभाल के प्रति भी वे कितनी लापरवाह थीं।’ फिर वे इस लापरवाही के औचित्य पर भी प्रकाश डालते हैं।

पेरियार राम में तो इतनी कमियाँ निकालते हैं, किन्तु रावण को वे सर्वथा दोषमुक्त मानते हैं। वे कहते हैं कि स्वयं वाल्मीकि रावण की प्रशंसा करते हैं और उनमें दस गुणों का होना स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार रावण महापंडित, महायोद्धा, सुन्दर, दयालु, तपस्वी और उदार हृदय जैसे गुणों से विभूषित था। जब हम वाल्मीकि के कथनानुसार राम को पुरुषोत्तम मानते हैं, तो उनके द्वारा दर्शाये इन गुणों से सम्पन्न रावण को उत्तम पुरुष क्यों नहीं मान सकते? सीताहरण के लिए रावण को दोषी ठहराया जाता है। लेकिन, पेरियार कहते हैं कि वह सीता को जबरदस्ती उठाकर नहीं ले गए थे; बल्कि सीता स्वेच्छा से उनके साथ गई थीं। इससे भी आगे पेरियार यहाँ तक कहते हैं कि सीता अन्य व्यक्ति के साथ इसलिए चली गई थीं, क्योंकि उनकी प्रकृति ही चंचला थी और उनके पुत्र लव और कुश रावण के संसर्ग से ही उत्पन्न हुए थे। सीता की प्रशंसा में पेरियार एक शब्द तक नहीं कहते।

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किताब का नाम – सच्ची रामायण

लेखक – पेरियार ई.वी. रामासामी

प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन

ऑनलाइन लिंक – www.rajkamalbooks.in 

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प्रेस रिलीज़ 

 

              रोशनी की ओर- नई किताबों का प्रकाशन शुरू

                       राजकमल अब लाएगा हर दसवें दिन दो नई किताबें!

हमारे आसपास चहल-पहल शुरू हो चुकी है। लॉकडाउन से अनलॉक की प्रक्रिया की ओर बढ़ते हुए हमारे आसपास का जीवन सक्रिय हो रहा है। दुकानों, दफ्तर, खाने-पीने की जगहों पर कम ही सही लेकिन लोगों की उपस्थिति उस स्थान को जीवंत बनाए रखने का प्रयास कर रही है। लेकिन बीमारी अपने डैने अभी फैलाए हुए है। आंकड़ों की दुनिया हमें बीमारी के इस घनघोर जाल से रोज़ कुछ नया बता रही है। हमें उम्मीद है कि इंसानी जिजीविषा इस जाल को चीरकर जल्द ही नए सवेरे की रोशनी से दुनिया को रोशन कर देगी।

लॉकडाउन के बाद के दौर में राजकमल प्रकाशन समूह ने पाठकों के साथ जुड़े रहने की हरसंभव कोशिश की। कई तरह की पहलकदमी की। फेसबुक लाइव और पाठ पुन: पाठ के जरिए परस्पर संवाद कायम किया। अब नई किताबों के प्रकाशन के नए दौर की शुरुआत करते हुए राजकमल सबसे पहले पेरियार ई. वी. रामासामी की दो किताबें आप सबके बीच ला रहा है। ये दो किताबें हैं : ‘धर्म और विश्वदृष्टि’ और ‘सच्ची रामायण’

यह दोनों किताबें 21 जुलाई से राजकमल प्रकाशन की वेबसाइट (www.rajkamalbooks.in) से आसानी से खरीदी जा सकती हैं। साथ ही पाठक फोन एवं राजकमल वाट्सएप्प नंबर (9311397733) पर संपर्क करके भी किताब खरीद सकते हैं। राजकमल प्रकाशन की वेबसाइट से पाठक किताबों के पहले सेट पर 40% प्रतिशत की विशेष छूट भी प्राप्त कर सकते हैं। यह सुविधा 31 जुलाई तक उपलब्ध होगी। 1 अगस्त को दूसरा सेट जारी किया जाएगा।

उत्तर भारत के लोग, दक्षिण भारत के इस महान सामाजिक क्रान्तिकारी, दार्शनिक और देश के एक बडे हिस्से में सामाजिक-सन्तुलन की विधियों और राजनीतिक संरचना में आमूलचूल परिवर्तन लाने वाले पेरियार के बौद्धिक योगदान के विविध आयामों से अपरिचित हैं। यह सुनने में अजीब है, लेकिन सच है। पेरियार ने विवाह संस्था, स्त्रियों की आज़ादी, साहित्य की महत्ता और उपयोग, भारतीय मार्क्सवाद की कमजोरियों, गांधीवाद और उदारवाद की असली मंशा और पाखंड आदि पर जिस मौलिकता से विचार किया है, उसकी आज हमें बहुत आवश्यकता है।

राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी का कहना है, “यह समय नए पाठ के साथ पुन: पाठ का भी है। यह संपूर्ण हिन्दी क्षेत्र के लिए चिंता का विषय था कि पेरियार जैसे समाज चिन्तक के विचार हिन्दी में कम ही पढ़ने को मिलते थे। बहुत समय से हमारी योजना थी कि उनके विचारों को किताब की शक्ल में एक जगह इकट्ठा करके प्रकाशित किया जाए। इस दौर में यह रोशनी की उम्मीद हैं। उनके इन विचारों को हम अपनी भाषा में पढ़ सकें यह हमारे लिए एक सुखद एहसास है। पिछले कुछ समय के घटनाक्रम में किताबों का छप कर आना नई उम्मीद पैदा करने जैसा है कि सबकुछ ठीक होने की तरफ बढ़ रहा है। इस नई पहल में हम हर दस दिन पर दो नई किताबें, विशेष छूट के साथ पाठक के लिए उपलब्ध होंगी। उम्मीद है पाठक हमारी इस पहल का दिल खोलकर स्वागत करेंगे।“

इस कठिन समय में राजकमल प्रकाशन समूह ने लोगों को जोड़े रखने का काम निरंतर जारी रखा है। पहली बार जब लॉकडाउन शब्द अपने साक्षात अवतार में हमारे सामने आय़ा तो किसी को अंदाजा नहीं था कि आगे क्या होगा। आभासी दुनिया के रास्ते हमने फेसबुक लाइव कार्यक्रमों की शुरुआत की। लाइव बातचीत में लेखकों और साहित्य प्रेमियों की बातचीत ने इस विश्वास को मजबूत किया कि घरवास के समय में हम सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। 230 लाइव कार्यक्रमों में 162 लेखकों एवं साहित्यप्रेमियों ने भाग लिया। यह सिलसिला अभी भी जारी है। इसके साथ ही हमने वाट्सएप्प पुस्तक के जरिए पाठकों को वाट्सएप्प पर पढ़ने की समाग्री उपलब्ध करवाने का काम किया। राजकमल वाट्सएप्प पर 30 हजार से भी अधिक पाठक रोज़ इसे पढ़ रहे हैं। वाट्सएप्प पुस्तिका पाठ-पुन:पाठ की 70वीं किस्त पाठकों से साझा की जा चुकी है।

किताबों का साथ बना रहे इसलिए हमने ई-बुक में किताबों की उपलब्धता को लगातार बढ़ाया है। लॉकडाउन के दौरान 100 से भी अधिक किताबों के ई-बुक संस्करण नए जुड़ें तथा किताबों की संक्षिप्त जानकारी एवं अंश भी हम लगातार पाठकों के साथ साझा किया।

इस कड़ी में नई किताबों का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन समूह की अगली पहल है। पेरियार की दो किताबों के बाद त्रिलोकनाथ पांडेय का उपन्यास ‘चाणक्य का जासूस’ औऱ ‘उत्तर हिमालय-चरित’ (यात्रा-कथा) प्रकाशित होकर जल्द ही पाठकों के लिए उपलब्ध होगी।

चाणक्य का जासूस त्रिलोकनाथ पांडेय का दूसरा अपन्यास है। इसमें जासूसी के एक अभिनव प्रयोग का प्रयास किया गया है क्योंकि यह सिर्फ जासूसी फंतासी नहीं, बल्कि अनुभवजनित मणियों से गुम्फित ऐतिहासिक कथा है।

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ठगिनी नैना क्यों झमकावै

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माताहारी का नाम हम सुनते आए हैं। उसकी संक्षिप्त कहानी लिखी है त्रिलोकनाथ पांडेय ने। त्रिलोकनाथ जी जासूसी महकमे के आला अधिकारी रह चुके हैं। अच्छे लेखक हैं। आइए उनके लिखे में माताहारी की कहानी पढ़ते हैं-

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साल 1917 की बात है. अक्टूबर महीने की 15वीं तारीख की अल-सुबह जब पेरिस शहर अभी अलसियाया हुआ सोया ही था,  एक बख्तरबंद गाड़ी ला सोंते जेल से शहर के बाहर बसे वनसेन नाम की एक बस्ती की ओर बड़ी तेजी से दौड़ी जा रही थी. गंतव्य पर पहुँचते ही गाड़ी से एक पादरी, दो नन, एक वकील और कुछ अन्य लोग उतरे. अंत में उतरी गहरा नीला ओवरकोट पहने और सिर पर हैट लगाए 41-वर्षीय एक खूबसूरत महिला.

बारह फ़्रांसीसी सैनिकों का एक दस्ता अपनी बंदूकें सम्हाले बड़ी मुस्तैदी से पंक्तिबद्ध वहां खड़ा था. पंक्ति के एक छोर पर उनका अफसर हाथ में एक नंगी तलवार लिए तैनात था. सब के सब बड़े तनाव में दिख रहे थे.

महिला एकदम निर्भय और निर्विकार थी. दोनों ननें उसके अगल-बगल खड़ी थीं. वे अलबत्ता बड़ी बेचैन दिख रही थीं. पादरी उस महिला से बहुत आदर और आहिस्ते से कुछ कह रहा था. महिला का ध्यान उसकी बात पर न होकर जैसे कहीं और ही था.

इसी बीच, सैनिकों की पंक्ति से एक वरिष्ठ सैनिक उनके पास पहुंचा और एक नन को सफेद कपड़े की एक पट्टी देते हुए बड़ी मुलायमियत से बोला, “मैडम की आँख पर बाँध दीजिये.”

“यह जरूरी है?” महिला ने दखल देते हुए धीरे से पूछा. यह पहली बार था जब महिला ने वहां अपना मुंह खोला था.

“आपकी मर्जी,” सहमे सैनिक ने हकलाते हुए कहा.

महिला ने फिर बोलने की जहमत न उठाई. हाथ के इशारे से मना कर दिया कि उसकी आँख पर पट्टी न बाँधी जाय. उसे अपनी बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों की जादुई शक्ति में हमेशा विश्वास था. जाते-जाते वह अपनी आँखों का आकर्षण कम न होने देना चाहती थी.

महिला के अदम्य साहस से सहमा सैनिक अपनी पंक्ति में चुपचाप लौट गया.

आगे-आगे पादरी, उसके पीछे वह महिला, महिला के अगल-बगल दोनों ननें और सबसे पीछे उस महिला का वकील चुपचाप कुछ ही दूरी पर गड़े एक खम्भे की ओर चले. घबडाया हुआ पादरी शांत दिखने की कोशिश कर रहा था, लेकिन ननों की घबराहट साफ़ दिख रही थी. महिला की चाल में गजब की गरिमा थी. वह सचमुच गजगामिनी थी. वह एकदम भावहीन थी. भावनाएं यदि उमड़ती रही होंगी तो बड़ी चुपके से उस महिला के मन जिसका कोई चिह्न उसके चेहरे पर परिलक्षित न हो रहा था.

खम्भे के पास पहुँचने पर एक सैनिक ने आगे बढ़ कर जब उस महिला के दोनों हाथ खम्भे से बाँधने चाहे तो उसने उन्हें सिर हिला कर मना कर दिया. अब तक चुप चला रहा वकील महिला की इच्छा का सम्मान करने का संकेत करते हुए सैनिक को वहां से हट जाने का संकेत किया. पादरी ने बुदबुदाते हुए कुछ पाठ किया; महिला ने पादरी के समक्ष सिर झुकाया जिस पर वह अपना हाथ रख कर कुछ बुदबुदाता रहा और फिर क्रॉस बनाते हुए पीछे खिसकना शुरू किया. खम्भे के पास उस महिला अकेला छोड़ कर सब के सब वापस अपने-अपने स्थान पर लौट गये.

अब अपने को नितांत अकेला पाकर उस महिला की आँखों में करुणा और सम्मोहन के मिश्रित भाव उभर आये. इन आँखों से जब उसने वहां पंक्तिबद्ध सैनिकों को एकटक निहारना शुरू किया तो उन पर जैसे सम्मोहन पसर गया. महिला की नजर जब सैनिकों के अफसर पर टिकी तो वह एकदम घबड़ा गया. उसके हाथ काँपने लगे. उस अधिकारी की दयनीय स्थिति देख कर उस महिला ने विदाई अभिवादन के तौर पर अपना एक हाथ हिलाते हुए उसकी ओर एक फ्लाइंग किस उछाल दिया.

     वह अधिकारी महिला के सम्मोहन में एक क्षण के लिए एकदम मुब्तिला हो गया, किन्तु अगले ही पल वह अपने कर्तव्य के प्रति सचेत हो गया. अब वह एक क्षण भी गंवाना नहीं चाहता था. वह समझ गया कि यदि वह अब चूका तो फिर महिला के सम्मोहन में गिरफ्त हो जायेगा. वह जोर से चिल्लाया, “निशाना”. उसके हाथ की तलवार हवा में तन गयी. उसके बारहो सैनिकों की बंदूकें एक साथ उठकर उस महिला को निशाने पर ले लीं. घबराहट में अफसर फिर चिल्लाया “फायर” और इसके साथ ही उसने तेजी से तलवार नीचे लटका दिया. बारहों बंदूकें एक साथ गरजीं और महिला अपने घुटनों के बल लुढ़क गयी.

     अफसर ने तलवार म्यान में रखी और एक सैनिक को साथ ले उस महिला की ओर लपका. महिला भूलुंठित हो चुकी थी, किन्तु उसका सिर आसमान की ओर तना हुआ था. जैसे उसने मृत्यु के सामने भी सिर झुकाने से इन्कार कर दिया हो. अफसर ने झुक कर उस महिला की हालात का जायजा लिया और यह जानते हुए भी कि वह महिला अब इस संसार से कूच कर गयी है उसने कांपते हुए हाथों से अपनी पिस्तौल का निशाना महिला के तने हुए सिर पर लेते हुए कई गोलिया दाग दीं. महिला का सिर उड़ गया.

     उगता सूरज दूर आसमान से इस पूरी घटना को देख रहा था.

                                            **

     उस महिला का नाम था माताहारी. माताहारी उसका असली नाम न था. उसका असली नाम था मार्गरेटा गीरट्रुइडा जेले. जन्म हुआ था 1876 में हॉलैंड में एक टोपियों के व्यवसायी के घर, जो बाद में तेल का व्यवसाय करके बड़ा धनी हो गया. लेकिन, अफ़सोस कि मार्गरेटा को 13 साल का होते-होते उसके बाप के तेल का व्यवसाय चौपट हो गया और परिवार गरीबी की चपेट में आ गया. दो साल बाद माँ भी गुजर गयी. मजबूरन, मार्गरेटा को एक स्कूल में किंडरगार्टन शिक्षिका बनने का प्रशिक्षण लेने के लिए जाना पड़ा. 16 साल की उम्र में वह उसी स्कूल में टीचर बन गयी, लेकिन स्कूल के हेडमास्टर के साथ नैन-मटक्का करने के आरोप में उसे स्कूल से निकाल दिया गया.

     स्कूल से निकाले जाने के बाद मार्गरेटा हेग भेज दी गयी अपने एक रिश्तेदार के यहाँ. वहां वह थोड़े ही दिनों रही. उसका का मन थिर न था. मौजमस्ती की चाहत मार्गरेटा के मन में गहरी समायी हुई थी. इस चाहत के चलते उसमें दुनिया घूमने की ललक जाग उठी और वह वहां से भी भाग निकली.

घूमते-घामते मार्गरेटा जावा (वर्तमान इंडोनेशिया का एक द्वीप) जा पहुंची, जिस पर उन दिनों डच लोगों का शासन था. बड़ी संख्या में डच रॉयल आर्मी इंडोनेशिया में तैनात रहती थी, जिसकी भिडंत जनजातीय विद्रोहियों, खासकर जावा वासियों, से होती रहती थी. जिस वक्त मार्गरेटा जावा पहुंची वह अठारह साल की जवान, सुंदर और आकर्षक युवती के रूप में विकसित हो चुकी थी.

एक दिन एक स्थानीय अखबार में छपे विज्ञापन के जवाब में मार्गरेटा ने शादी का प्रस्ताव भेजा. विज्ञापन था डच रॉयल आर्मी के एक 39-वर्षीय कैप्टेन का, जिसका नाम था रुडोल्फ मैकलोयड. मामला पट गया और 18 साल की मार्गरेटा 39 साल के रुडोल्फ के साथ शादी के बंधन में बंध गयी.

शादी के बंधन में बंधने के बावजूद मार्गरेटा एक व्यक्ति में बंधी न रह सकी. सेना के युवा अधिकारियों संग वह चटक-मटक करती रहती. इस दौरान उसे दो बातों का एहसास होने लगा. पहली बात तो यह कि उसकी सुन्दरता और जवानी में गजब का जादू है और यह जादू लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है. दूसरी बात यह कि वह इस जादू में अपार वृद्धि कर सकती है यदि वह नृत्यकला सीख कर लोगों को रिझाने में माहिर हो जाय. परिणामस्वरूप, वह स्थानीय जावा नृत्य सीखने लगी.

इधर, शुष्क और शक्की स्वाभाव के उसके पति को यह सब बिलकुल नापसंद था. वह उस पर कड़ी नजर रखता. इन सब बातों से बेपरवाह मार्गरेटा देर रात तक युवा फौजी अफसरों के साथ मौज-मस्ती करती और दिन में नृत्य सीखने के नाम पर इधर-उधर आवारागर्दी करती. यह उसके पति रुडोल्फ के पौरुष को खुली चुनौती थी. यद्यपि इस बीच इस जोड़े को दो बच्चे भी हो गये – एक बेटा और एक बेटी, लेकिन मार्गरेटा के चाल-चलन में कोई बदलाव न आया.

रुडोल्फ पहले से ही पियक्कड़ था. मार्गरेटा से चिढ़ कर अब वह और पीने लगा. साथ ही, गुस्से में वह मार्गरेटा से मारपीट भी करता था. धीरे-धीरे यह रोज की बात हो गयी. हद तो तब हो गयी जब रोज-रोज के किच-किच के बीच दो साल का बेटा एक दिन गुजर गया और छोटी बच्ची गंभीर रूप से बीमार पड़ गयी. मार्गरेटा इस शादी से एकदम परेशान हो गयी. अन्ततः, दोनों में तलाक हो गया.

तलाक मिलते ही मार्गरेटा भाग कर पेरिस पहुंची, जहाँ उसने वेश्यावृत्ति का धंधा अपना लिया. अब वह 27 साल की प्रौढ़ युवती बन चुकी थी. जल्दी ही उसे पेरिस के नाईटक्लबों में नाचने का अवसर मिल गया. इस अवसर का मार्गरेटा ने भरपूर फ़ायदा उठाया. उसने अपना नाम बदल कर माताहारी कर लिया और अपने बारे में तरह-तरह की कहानियाँ फैलाया.

माताहारी ने प्रचारित किया कि उसका जन्म एक हिन्दू राजपरिवार में हुआ था, लेकिन एक राजकुमारी के रूप में पालन-पोषण होने बजाय वह एक हिन्दू देवालय के पवित्र वातावरण में पली-बढ़ी. वहीं पर उसे मंदिर की पुजारिनों ने प्राचीन भारतीय नृत्य-शैली में प्रशिक्षित किया. मंदिर में एक बार एक गुप्त कर्मकांड का आयोजन हो रहा था. इस आयोजन के दौरान देवों को प्रसन्न करने के लिए एक रहस्यात्मक शास्त्रीय नृत्य चल रहा था. इस कार्यक्रम में नवप्रशिक्षित किशोरी के एकल नृत्य की दिव्यता को देख कर प्रधान पुजारी इतना अभिभूत हुआ कि वह थोड़ी देर के लिए समाधि में चला गया. समाधि टूटने पर पुजारी किशोर नर्तकी की ओर आविष्ट-सा एकटक देखता रहा और अंततः उसके मुंह से निकला – माताहारी. मलय भाषा का यह शब्द ही उस किशोरी नर्तकी को नाम के रूप में दिया गया, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है – दिन की आँख, अर्थात सूर्य. बाद में इस शब्द की व्यंजना स्वर्णमयी आभा वाली दिव्यता के रूप में की गयी. कहते हैं कि वह प्रधान पुजारी एक सिद्ध पुरुष था और उसने अपनी दिव्यदृष्टि से माताहारी के भीतर छुपी दिव्यता को पहचान लिया था. इन कहानियों से माताहारी ने पूरे यूरोप में अपने बारे में एक रहस्यमयी पवित्र आभामंडल रच देने में जबरदस्त सफलता पाई.

असल में माताहारी ने जावा की स्थानीय नृत्य शैली थोड़ी-बहुत सीखी थी. उसने उसी में व्यापक संशोधन कर उसे अत्यंत उत्तेजक बना दिया, और दावा किया कि वह नृत्यशैली पूर्व की अत्यंत पवित्र और प्राचीन नृत्यविधा है, जिसे गुप्त धार्मिक कर्मकांडों के दौरान सम्पन्न (परफॉर्म) किया जाता है.

चमचमाते मणि-माणिक्यों से जड़ी टीआरा (किरीट) सिर पर धारण कर, मोतियों से बनी कंचुकी (चोली) में अपने सुपुष्ट और सुडौल स्तनों को कसे और उत्तेजक ढंग से दोलायमान अपने प्रशस्त नितम्बों को सुनहरे  किन्तु संक्षिप्त वस्त्र में लपेटे माताहारी जब अपनी साथी नर्तकियों के साथ मंच पर अवतरित होती थी तो लगता था जैसे वह कोई प्राचीन भारतीय स्वप्नसुंदरी या स्वर्ग से उतारी कोई अप्सरा हो. प्राचीन भारतीय वाद्य-यंत्रों की मादक और रहस्यमय ध्वनि के बीच वह सखियों संग विचित्र नृत्य करती थी. नृत्य करते-करते वह अपने कपड़े उतारती जाती थी और अंततः एक दम नंगी हो जाती थी. इन नृत्यों को वह भारत का प्राचीन तांत्रिक नृत्य कहती थी और दावा करती थी कि उसका नृत्य अत्यंत पवित्र है.

माताहारी के नृत्य कार्यक्रमों में सबसे मशहूर और आकर्षक था नटराज की मूर्ति के समक्ष नृत्य. नटराज के समक्ष सिर झुका कर जब वह नाचना शुरू करती थी तो एक दिव्य दृश्य उत्पन्न हो जाता था. नृत्य शुरू करते समय जो दैवीय आभा माताहारी ओढ़े रहती थी, नृत्य ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता उसे उतारती जाती थी. लगता था जैसे किसी देवी का मानुषी रूप प्रकट हो रहा है. अंततः वह सारे आवरण उतर कर विशुद्ध प्राकृतिक रूप में नटराज के चरणों में प्रणिपात की मुद्रा में लोट जाती थी.

माताहारी अपने नृत्य को फ्रेंच, डच, जर्मन, अंग्रेजी और मलय भाषाओँ में व्याख्यित करती, “मेरा यह नृत्य एक पवित्र काव्य है. इसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की सृष्टि, पालन और संहार की आध्यात्मिकता का लय झंकृत होता है….” इससे वह अपनी नग्नता और कामुकता को अद्भुत आध्यात्मिक और कलात्मक मोड़ देने सफल हो जाती. प्राचीन मंदिरों के धार्मिक कर्मकांडों के दौरान किया जाने वाला नृत्य बता कर वह अपने कामुक क्रियाकलापों को तत्कालीन अश्लीलता क़ानून के दायरे में आने से साफ़ बचा ले जाती थी.

माताहारी का यह नृत्य और नंगापन देखने को, स्त्री-देह के लिए भूखे लोगों, खास कर फौजी अफसरों, की भीड़ लग जाती थी. माताहारी इन्हें बड़ी आसानी से बेवकूफ बना देती थी. ये वे लोग थे जिन्हें प्राचीन भारतीय नृत्यकला या रहस्यात्मक आध्यात्मिकता की कोई समझ न थी. वे माताहारी के सिर्फ सेक्स अपील से मदहोश थे.

बड़ी-बड़ी काली और कामुक आँखों वाली इस सुन्दरी के प्रेमियों की एक लम्बी जमात खड़ी हो गयी, जो उसकी मोहक मुस्कान और कटीले नैनों की मार पर कुछ भी न्यौछावर करने को तैयार थे. इनमें कुलीन परिवारों के लोग, राजनयिक, धनाढ्य बनिये, बड़े व्यापारी और उच्च फौजी अफसर थे. ये लोग माताहारी के वैभव और विलासता पूर्ण रहन-सहन, वस्त्राभूषण और धन का प्रबंध करते थे. वर्षों वह इन सुख-सुविधाओं का मजा लेती हुई, रति-सुख बांटती हुई, स्वैरिणी बन यूरोपीय देशों की राजधानियों में जगह-जगह अपने नृत्य-कार्यक्रम पेश करती हुई घूमती रही. पूरे यूरोप में उसने अपने नृत्य के डंके बजा दिए. रूस से लेकर फ़्रांस तक जहाँ भी वह जाती उसका नृत्य देखने के लिए भारी भीड़ टूट पड़ती.

धीरे-धीरे माताहारी की उम्र बढती गयी. ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती गयी, लोगों में माताहारी के नृत्यों की लोकप्रियता घटने लगी. लेकिन अभी भी वह धनी लोगों और उच्च अधिकारियों की चाहत बनी हुई थी. उसकी उमर लगभग 38 साल हो गयी थी, फिर भी उसमें देह-सुख खोजने वाले प्रेमियों की कोई कमी नहीं थी. उसके ऊपर अपार धन लुटाने वाले कम न हुए थे. लगभग उसी वक्त 1914 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया, जिसमें दुनिया के कई देश कूद पड़े. फ्रांस भी उनमें से एक था. युद्ध के कारण फ्रांस की साधारण जनता बड़े अभावों की जिन्दगी काटने पर मजबूर हो गयी. साधारण परिवारों के लोग सैनिक के रूप में युद्ध में कूदने को मजबूर हो गये. लेकिन, माताहारी के विलासतापूर्ण रहन-सहन और शान-शौकत में कहीं कोई कमी न आई. उच्च धनाढ्य वर्ग और शक्तिशाली अधिकारियों को लुभा कर वह अभी भी खूब कमा रही थी. जन सामान्य में माताहारी के वैभव और विलास के विरुद्ध रोष उत्पन्न होने लगा.

ऐसी दारुण स्थित से बच निकलने के लिए माताहारी एक धनी डच व्यापारी प्रेमी के संग फ्रांस से भाग कर हॉलैंड के शहर हेग पहुँच गयी. यहाँ उसके प्रेमी ने एक विशाल भवन में बहुत सारी सुख-सुविधाओं के बीच उसे ठहरा दिया. लेकिन, माताहारी एक जगह कहाँ टिक कर रहने वाली थी! वह एक बार फिर भाग खड़ी हुई – उन्मुक्त स्वैरिणी की भांति स्वच्छंद विचरण करने के लिए. उसने फिर से यूरोप के विभिन्न शहरों में अपने नृत्य-कार्यक्रम पेश करने शुरू किये.

यद्यपि प्रथम विश्व युद्ध छिड़ा हुआ था, लेकिन अपने नृत्य-कार्यक्रमों के सिलसिले में माताहारी यूरोप के विभिन्न देशों में बार-बार आती-जाती रहती थी. इनमे से कई देश इस युद्ध में संलग्न थे, लेकिन माताहारी का मूल देश हॉलैंड इस युद्ध में तटस्थ था. एक तटस्थ देश की नागरिक होने के नाते उसे किसी भी देश में आने-जाने में कोई रोक न थी.

यहीं माताहारी के जीवन में एक निर्णायक मोड़ आ गया जब हॉलैंड में स्थित जर्मन दूतावास का कार्ल क्रोमेर नाम का एक राजनयिक माताहारी के संपर्क में आया और चुपके से उसके समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि उसे वह भारी धनराशि देगा यदि वह अपने नृत्य-कार्यक्रमों के सिलसिले में भ्रमण के दौरान कुछ गुप्त सूचनाएं एकत्र कर उसे देगी. माताहारी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. उसके ग्राहकों में कई देशों के उच्च सरकारी और फौजी अधिकारी शामिल थे, जो उसका अश्लील नृत्य और नग्न शरीर देख कर उसके साथ सम्भोग के लिए उन्मत्त हो जाते थे. इन्हीं उन्मत्त अफसरों से सम्भोग के दौरान वह कई गुप्त खबरें पूछ लेती थी, और बाद में अपने जर्मन हैंडलर को बता देती थी.

अब माताहारी की उम्र 40 की हो गयी थी. उसके शरीर की लोच और चपलता की जगह अब स्थूलता ने लेना शुरू कर दिया था. उसके प्रेमीगण अब उसका नृत्य देखने के बजाय उसका शरीर भोगने में ज्यादा इच्छुक रहने लगे. ऐसे ही समय वह अपनी उमर से लगभग आधी उमर के एक रुसी फौजी अफसर को दिल दे बैठी, जो मित्र देशों की संयुक्त सेना में फ्रांस की ओर से लड़ने को नियुक्त था. दुर्भाग्य से, उस 21-वर्षीय रुसी कैप्टेन, जिसका नाम व्लादिमीर द मासलाव था, की तैनाती जल्दी ही सीमा पर हो गयी. युद्ध के दौरान मासलाव की एक आँख जाती रही और दूसरी आँख में भी गम्भीर चोट पहुंची थी. इस नौजवान अफसर को माताहारी इतना प्यार करने लगी थी कि उसके संग शादी रचा कर घर बसा लेने का मन बना लिया था. अपने घायल प्रेमी के विशेष इलाज के लिए माताहारी पैसे जुटाने में लग गयी.

इसकी भनक लग गयी जार्ज लडू को, जो फ्रांस के मिनिस्ट्री ऑफ़ वार के अंतर्गत नए-नए बने काउंटर-एस्पिओनेज यूनिट का चीफ था. माताहारी की पैसे की जरूरत का लाभ उठाने के लिए लडू ने चुपके से उससे संपर्क किया और पैसे के बदले जर्मनों की जासूसी करने को उससे कहा. मजबूरी में माताहारी तैयार हो गयी. अब वह चुपके से डबल एजेंट बन गयी.

माताहारी जर्मन उच्चाधिकारियों में पैठ बना कर उनसे गुप्त बातें पता करने और उन्हें फ्रांसीसियों को बताने की कोशिशें करने लगी. यह 1915 की बात है. उसी साल दिसम्बर में हॉलैंड से फ्रांस लौटते समय फोकस्टोन नामक ब्रिटिश बन्दरगाह पर यात्रियों की भीड़ में भी ब्रिटिश इंटेलिजेंस सर्विस के एक अधिकारी की नजर माताहारी पर पड़ी और उसके हाव-भाव से उसे शक हो गया. पूछताछ के लिए माताहारी लन्दन लायी गयी, जहाँ उसने स्वीकार किया कि वह फ्रांस के लिए जासूसी करती है.

वहां से छोड़े जाने पर वह पेरिस वापस लौट आई. इस बीच यह खबर फ्रांसीसी इंटेलिजेंस एजेंसी को मिल चुकी थी. फ्रांसीसियों को माताहारी पर शक होने लगा कि कहीं वह उन्हें बेवकूफ तो नहीं बना रही है और वास्तव में जर्मनों के लिए काम करती है. जार्ज लडू, जिसने माताहारी को जर्मनों की जासूसी के लिए लगाया था, अब अपने जासूस चुपके से उसके पीछे लगा दिया. ग्रैंड होटल, जहाँ माताहारी ठहरी थी, या रेस्तरां, पार्क, बुटिक, नाइटक्लब, जहाँ कहीं भी माताहारी जाती फ्रांसीसी जासूस उसका पीछा करते. माताहारी इन सबसे अनजान थी. उसे तो पुरुषों द्वारा घूर कर देखे जाने की आदत थी, तो फिर वह जासूसों की छुपी नजर को क्या ताड़ पाती! यही नहीं, लडू के जासूस माताहारी की डाक चुपके से खोल कर पढ़ लेते थे; छुप कर उसकी बातें सुनते थे; उससे मिलने आने-जाने वालों का रिकॉर्ड तैयार करते थे. इन सारे जासूसी तरीके अपनाने के बावजूद जासूसों को ऐसा कुछ न मिला जिसके आधार पर वे सबूत के साथ कह सकते कि माताहारी जर्मनों के लिए जासूसी करती थी.

     अन्ततः, फ्रांसीसियों के लिए खबर जुटाने की माताहारी की कोशिश ही उसके खिलाफ काम कर गयी. एक बार वह फ्रांसीसियों के इशारे पर खबरें जुटाने के चक्कर में स्पेन की राजधानी मेड्रिड में स्थित जर्मन राजदूतावास के मिलिटरी अटैशे से मिली और गपशप में उसे कुछ छोटी-मोटी ख़बरें देकर बदले में कुछ मूल्यवान खबरें निकाल लेने की कोशिश करने लगी. जर्मन अटैशे उसकी इस हरकत को ताड़ गया. जनवरी 1917 की बात है. अटैशे ने बर्लिन (जर्मनी)-स्थित अपने मुख्यालय में एक रेडियो सन्देश भेजा, जिसमें एच-21 कोड नाम वाले एक जर्मन जासूस की सराहनीय सेवाओं की चर्चा की गयी थी.

फ्रांस के जासूसों ने बीच में ही इस रेडियो सन्देश को चुपके से सुन (इन्टरसेप्ट) लिया. इस सन्देश का जब फ्रांसीसी जासूसी विशेषज्ञों और विश्लेषकों ने गहन विश्लेषण किया तो उनका शक यकीन में बदल गया. उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि डबल एजेंट का रोल प्ले करते हुए माताहारी वास्तव में जर्मनों के लिए ही काम कर रही थी. बर्लिन भेजे गए इस टेलिग्राम में माताहारी का पता, बैंक डिटेल्स के साथ-साथ उसकी भरोसेमंद नौकरानी का भी नाम शामिल था. इस टेलिग्राम को पढ़ने के बाद साफ हो गया कि माताहारी ही एजेंट H21 है.

     यही वह समय था जब विश्वयुद्ध में फ्रांस को शिकस्त मिल रही थी. फ्रांसीसी अधिकारियों ने इसका दोष माताहारी पर मढ़ दिया. फरवरी 1917 में फ़्रांस की सरकार ने माताहारी को गिरफ्तार कर लिया. उस पर आरोप लगाया गया कि उसने मित्र देशों के टैंकों के बारे में जर्मन सेना को बता दिया जिसके कारण मित्र देशों के हजारों सैनिक युद्ध में मारे गये. फ्रांस की फौजी अदालत में माताहारी पर मुकदमा चलाया गया. उसे दोषी पाया गया और मृत्युदण्ड की सजा सुनायी गयी.

     कहते हैं युद्ध में अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए फ्रांस ने माताहारी को बलि का बकरा बना दिया. कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जर्मनों ने जानबूझ कर माताहारी को इंगित करने वाले कोडनाम का प्रयोग किया और यह जानते हुए भी कि जर्मनी के कोडेड रेडियो संदेशों को फ्रांसीसी जासूस आसानी से तोड़ देते हैं  इस तरह का सन्देश भेजा. इससे साफ़ जाहिर होता है कि जर्मनों ने जानबूझ कर फ्रांसीसियों को बरगलाया और फ्रांसीसियों ने जानबूझ कर खुद को बरगलाया जाने दिया. सबके अपने-अपने फौजी और राजनीतिक स्वार्थ और निहितार्थ थे. पर, मारी गयी बेचारी माताहारी. वह मारी इसलिए गयी कि वह स्वयं मायाविनी थी, ठगिनी थी. नृत्य-कला के नाम पर उसने ठगी किया. पैसा बनाने के लिए उसने उच्चाधिकारियों को फांसा. पैसा बनाने और लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए उसने जासूसी का जाल फैलाया.

दोष किसको दें, जब यही अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है कि माताहारी वास्तव में किसके लिए जासूसी करती थी, और वह सचमुच जासूस थी भी कि नहीं! कई लोग कहते हैं कि माताहारी के जर्मन जासूस होने के पर्याप्त सबूत मिले थे, तो कुछ का कहना है कि वह फ्रांस के लिए काम करती थी. उसे दोनों के लिए काम करने वाले डबल एजेंट मानने वालों की भी कमी नहीं है. कहते हैं कि जर्मनों ने स्वीकार किया था कि वह उनके लिए काम करती थी, किन्तु उसकी उपयोगिता बहुत नहीं थी. इसलिए जासूस के तौर पर उसकी सेवाएं समाप्त कर दी गयी थीं. जर्मनों का कहना था कि माताहारी की खबरें अफसरों के साथ हमबिस्तर होते समय हांकी गई गप्पों और बेवकूफ बनाने की कोशिशों से ज्यादा कुछ न थीं. वहीँ, दूसरी ओर, फ्रांसीसियों का कहना था कि माताहारी ‘शताब्दी की सबसे खतरनाक महिला जासूस’ थी जिसने फ्रांसीसी सेना को भारी नुकसान पहुँचाया था.

पता नहीं कौन कितना सच बोल रहा था. पता नही खुद माताहारी किससे झूठ और किससे सच बोल रही थी. कौन जाने वह किसके लिए, या किस-किस के लिए, जासूसी कर रही थी! पक्की ठगिनी थी वह!! एकदम मायाविनी!!!

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सजाये-मौत मिलने के बाद माताहारी का मृतशरीर लेने कोई नहीं आया. उसके जीवित शरीर पर हजारों लोग लहालोट होते थे, लेकिन, आखिर में, वह एक एक गुमनाम लाश में तब्दील हो गयी. उसके शरीर को पेरिस के मेडिकल कॉलेज पहुंचा दिया गया, जहाँ उसे मेडिकल के छात्रों की पढाई में प्रयोग किया गया. उसके चेहरे को एनाटॉमी म्युजियम में स्मारिका के रूप में संग्रहित कर दिया गया. लेकिन, कुछ सालों बाद वह चेहरा ग़ायब हो गया. अभिलेखों में दर्ज किया गया कि माताहारी का चेहरा चोरी चला गया.

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(सत्य घटनाओं पर आधारित सत्यकथा है यह.)

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खीर: एक खरगोश और बगुलाभगत कथा: मृणाल पाण्डे

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प्रसिद्ध लेखिका मृणाल पाण्डे आजकल बच्चों को न सुनाने लायक़ बालकथाएँ लिख रही हैं। आज सातवीं कड़ी में जो कथा है उसको पढ़ते हुए समकालीन राजनीति का मंजर सामने आ जाता है। आप भी पढ़कर राय दें-

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एक बार की बात है, एक था बगुला, एक था खरगोश। दोनो के खानदान आपस में दोस्त। और ये दोनों बचपन के दोस्त। एक साथ खेतों में घुस कर हरी हरी बालियाँ चरते। एक दूजे को अपने अपने परिवारों की पुरानी कहानियाँ सुनते और सुनाते। खरगोश पक्का शाकाहारी था। पर बगुला तो बगुला भगत, मिल जाये तो मच्छी उच्छी खूब प्रेम से खा लेता था।

सावन का महीना था और पवन करे सोर। ठंडी ठंडी पुरवैया के झोंकों और सर पर पड रही झीसी फुहारों के बीच दोनो दोस्तों का मन बना, कि आज तौ डट कर खीर खाने का दिन है।

खीर से बगुले को याद आया कि उसकी नगड़ दादी ने उसकी दादी को, और उसकी दादी ने उसको एक कहानी सुनाई थी, कि बरसों पहले ऐसे ही मौसम में खरगोश के नगड़ दादा ने, बगुले के नगड़ दादा के साथ तरह तरह की तरकीबें अपना कर एक बनिये के घर से बासमती चावल, मेवा और चीनी लिया। फिर भैंस की खटाल की एक बूढी मालकिन से मटका भर दूध का जुगाड़ किया। और  फिर साथ साथ बडी मज़ेदार खीर बना कर उसे बड़े पिरेम से पत्तों पर खीर खाई थी।

खरगोश बोला, ‘तूने याद दिलाया तौ मुझे भी याद आया। मेरे बचपन में हमारी अजिया ने भी अपनी अजिया से सुनी यही कहानी हमको भी सुनाई थी। उनसे  मैंने पूछा कि खीर का माल जुटाने को उन्ने क्या क्या दांव पेंच साधै अजिया?’ अजिया बिगड़ खडी हुईं। मेरी अम्मा से बोलीं, ‘री तेरा बालक अपने ननिहालवालों पर गया है। पुरखन पर लांछन लगाता है? जानता नहीं हमारे खरगोश पुरखे इतने नेकनीयत ऐसे नेम धरम के पक्के होते थे कि कलियुग से पहिले तौ उनके सर पर सींग हुआ करै थे सींग! हाँ।

‘उनके दोस्त बगुला तौ ठहरे ही सदा के भगत। तौ सुन, मुफतखोर वे ना थे। चावल, चीनी अरु मेवों की एवज में उन्ने दिन भर उस बनिये का गोदाम साफ किया और उसकी दूकान की यहाँ से वहां तक खूब सफाई करी। फिर दूध लेने वो खटालवाली के ठौर गये। वाने कही, ‘ऐ खरगोश लला और बगुला भगत, दूध तौ मैं दे दूंगी, पर पहिले मोरी खटाल की सफाई करो। गोबर उठा कर उपले थापो, फिर भीतर बाहर सारा फरश साफ करो। तब हाथ पैर धोय के हमरी भैंसियन की नाँद का पानी बदल कर उसमें ताजा पानी डारो और चारा काट के धरो।’

उन दोनो दोस्तन ने सब करो। जब तमाम काम सपड़ गयो, तब जाके बुढिया ने उनको बालटी भरके दूध थमायो। सेंतमेंत में नहीं, रगड़ाई पूरी करवाने के बाद।’

‘इंटरेस्टिंग’, बगुला भगत बोला!

भगत उड़-उड़ कर बाहर हर जाड़े में देस परदेस जाता रहता था और तरैयां तरैयां की बोली सुनता-बोलता था। बोला: ‘चल हम दोनो भी ट्राय मारते हैं। बाहर टीवी पर हमने जे सुनी कि दुग्ध क्रांति हरित क्रांति से देस में दूध दही की नदियाँ बह रही हैं। धान पान सरकार के बखारन में इतनो भरो पड़ो है कि चूहे तलक खा खा के मुटा रहे हैं।

‘चल, पहले बनिये के पास जाकर जिनिस जमा कर लें, फिर दूध लेने को माई की खटाल चलते हैं। साम तलक माल जुट ही जावेगा तब पकायेंगे गाढी खीर और गपागप खावेंगे।’

दोनो दोस्त ठुमकते हुए चले। बनिये की दूकान पर गये तो यह क्या? कस्बे की किराने की पुरानी दूकान खुली थी पर बाहर लिखा था, ‘रामभरोसे ऑनलाइन किराना कोचिंग स्टोर’। बाहिर लाला बैठा था। सामने कुछ गोल गोल खड़िया के घेरे बने थे।

पान मसाला थूक के बनिये ने हाथ से विनको गोलों पर खड़े होके दूर से बात करने का इसारा किया।

बगुला भगत ने गला साफ कर कहा कि वे लाला जी की दुकान की दिन भर हर तरह की सफाई तसल्लीबख्श ढंग से कर सकते हैं। उसकी एवज में वे रुपये पैसे के बदले कुछ चावल, कुछ चीनी और कुछ मेवा भर चाहते हैं। बस।

लाला मुड़िया हिलाय हंसै लगा। उसकी तोंद फुदकने लगी मेंढक जस, फुद्द, फुद्द। ‘अरे खरगोश लला औ’ बगुला भगत, वो दुकानदारी तौ निपट चुकी। अब सगरो माल ई पेमेंट से ऑन लाइन बिकता हैगा। सो गाहक अब जाके सीधे ऑनलाइन नेट पर ऑर्डर करते हैं। दाम भी चुकाते हैं, ई-अकाउंट से। समझे?

‘माल टाल तौ गोदामन से सीधो डलीवर होवै है इब तौ। भीतर हमारे बेटों ने कंपूटर कोचिंग कच्छायें लगा दी हैं। ठीक ठाकै चल रई हैंगी।’

फिर उसने ॐ कह के लंबी डकार भरी और बोला, ‘दूकान पर आये बिना मन नहीं मानता, सो रोजीना हम आ तौ जाते हैं गद्दी पर, लेकिन ससुर दिन भर बइठे बइठे गैस बहुत बनती है।’

बगुला और खरगोश चुपचाप खिसक लिये।

‘इधर में तौ अब दाल ना गलैगी। अब के करें?’ खरगोश ने बगुला भगत से पूछा।

बगुला भगत ठहरा अक्कास से सहर गांव तक सैर करनेवाला दुनियादार पंछी।  बोला, ‘यार तू टेंशन मती ले। इस मुलुक में खीर खाना तौ कोई जात छोड़ नहीं सकती। खीर की जिनिस इधर न भी मिली तो क्या? कहीं और खोज लेंगे। दूध चीनी भर भी मिल जाये, तौ उसे औंटाय के अपुन उससे लच्छेदार रबड़ी भी बनाय सकते हैं न? चल खटाल वाली माई के घर।’

‘चलो’, आदतन पिछलग्गू खरगोश ने बगुला भगत से कहा।

अब दोनो चले गांव की ओर जहाँ खटाल हुआ करती थी।

पर यह क्या? अब वहाँ तौ खटाल की जगह पक्का तिमंजिला रंग रोगन किया मकान खडा था। जे ब्बडा लोहे का फाटक, अगल बगल खड़े दो बाहुबली गनर और दोनों की पेटी में खुंसी थे तमंचे।

जभी खरगोश और बगुला भगत क्या देखते हैं, कि एक काला चश्मा लगाये सर पर गमछा बाँधे फटफटियावाला फर्राटे से कच्चे सडक पर उधर आया। चर्र चूं करते हुए पुलिया के पास उसने वाहन रोका, ‘जे पंचायत की सरपंच को घर हैगो?’ जब उसने पुलिया पर लंबी थूक की प्रतियोगिता कर रहे आवारागर्द बालकन से पूछा तो सरपतों के बीच छुप कर कान लगाये कर सुन रहे इन दोनों को पता चला कि फटफटिया सवार का नाम बिरजू भैया था। और वह पास के दूधवालों के पाँचेक गाँव का प्रतिनिधि बाहुबली था।

‘बरस जात नहिं लागत बारा,’ फटफटियावाला बालकन से कह रहा था, ‘बखत बखत की बात है। एक जमाने में इधर हमारे वालन की तूती बोलती थी। जे खटाल चलानेवाली बूढ़ा माई किसी गिनती में ना थी। अब उसकी बहू आरक्षित कोटे का टिकट पाय के सूबे की राजधानी में बहुत बड़ी विधायक बन बैठी है। और बात की बात में वाने अपने गाँव की पंचायत में भी महिला कोटे से अपनी बहू को टिकट दिलवा के सरपंच का चुनाव जितवाय दिया।

‘को ना जानै कि नामै की सरपंच हैं दीपिका देबी। असल लगाम तौ कुसुम कुमारी विधायक के बेटे लल्लू भैया के हाथ है, जो इलाके का दूध कोऑपरेटिव चला रिया है। सरऊ आज उस घराने के दोनो हाथों में लड्डू हैं, जो कभी हमारे यहाँ हाथ गोड़  जोड़ के मुसकिल बखत में चारा कुट्टी लई जाते थे।

‘तालाबंदी के बाद से चार माह से लल्लू भैया हमरे गांव के दूधवालन की पावती नहीं चुकाये हैं। हम आज आर पार की बात करने आये हैं। पैसा देना है तौ चुकाओ, वरना हम पाँच गांव के लोग अपना सारा माल उनको देने की बजाय सडक पर उलट देंगे। हाँ।’

‘कक्का पैले हकला भाई टकला भाई से ही निबट लो।’ थूकना थाम कर आवारागर्दन का लीडर फाटक की तरफ जाते हुए बिरजू भैया से बोला। फिर उसके चेले चाँटी हँसने लगे खी खी…

ओहो, बगुला और खरगोश समझे, कि उधर जो दो कमरपेटी में तमंचा खोंसे हुए बाहुबली खडे हैं सोई हैं: हकला अऊ टकला। कहानी में नया मोड़?

अब तक उनकी उत्सुकता जाग चुकी थी, सो दोनों मित्र अब चोरी-चोरी चुपके चुपके घासम घास चलते हुए कोठी के पिछवाड़े से भीतर घुस कर खिड़की तले आ कर ऊंची घास के बीच छुप कर भीतर की बात सुन लगे। भीतर कमरे में पूरा सरपंची दरबार, कमान दीपिका कुमारी सरपंच के पति लल्लू भाई के हाथ।

पांयलागी वगैरे के बाद लल्लू भैया ने बिरजू से साफ कह दिया कि सरकार से कोऑपरेटिव की पावती की पर्ची कट के बंक में जमा होने तलक वे कुछ नहीं कर सकते। बिरजू ने कई कि दूध तौ सरकारी परची कटने का इंतिजार कैसे करेगो? अगर यहां से भी जे बात न सलटी, तौ उनके बुजुर्गन ने हुक्के की बैठक बुला कर तै कर लिया है कि वे फिर उम्मीद छोड़ के सारा दूध जो है सो मीडिया के आगे सडकों पर बहाने को मजबूर हो जांगेगे।

लल्लू भाई कुछ ऐसा कहा कि इतनी गरमा-गरमी जात बिरादरी के भाई भाई में ठीक नहीं। सुनो, तनिक चा पी लो। हम माताजी को फून लगाते हैं।

पर धड़ाम से पता चला के बिरजू जो थे, तैस में बाहर निकस गये।

उनका निकलना था कि लल्लू अपनी महतारी को फून लगाये। थोड़ी देर बाद उन्ने हकला टकला को बुलाया और कई कि माताजी कहती हैं, बिरजुवा के लोग साले दूध बहायें तो बहायें, पर हमको हर कीमत पर मीडिया को उनके गांव तक जाने से रोकना होगा। बात बाहिर न जाये। इसलिये पिल्लू से कहो कि अब्भी के अब्भी टरैक्टर टराली में अपने हथियारबंद लेके चले, तुम दोनो निकलो मोटरसैकल पे!

जाने की ध्वनियाँ आईं। फटफटियाँ इस्टाट्ट हुईं।

मित्रों ने सोचा कहाँ खीर खाने निकले थे नाहक इधर उलझ रहे हैं।

भैया, खरगोश बोला, भाई जे गलत है।

बगुला भगत बोला। ‘हमको उससे क्या? ऐसा करते हैं कि अपुन हकले टकले से पहले वहाँ जा पहुंचें और जब सारा दूध सड़कन पर फेंको जाये उस बखत एकाध बालटी अपनी खीर के लिये उनसे मांग लें।’

सो खरगोश को पीठ पर बिठ कर बगुला उड़ चला।

जब वे गांव के भीतर हाँफते उतरे तौ देखा गाँव से सटे राजमारग पर टरैक्टरों की कतार से रास्ता बंद करा धरा है। जभी दोनो बिरजू के बाहुबलियन से घिर गये। ‘कौन हो कहाँ से आये हो? किसके आदमी हो?’

खरगोश के तौ पसीने छूट गये, पर बगुला भगत ठहरा निपुण पंछी। तुरत बोला, ‘जीते रहो जिजमान। जान पर खतरा मोल लेके इधर हम आये हैं। बाह्मन जात के बगुला भगत हैं। जे खरगोस हमारो चेला हैगो। सबको पता है कि आजकल ग्रह तनिक उल्टे चल रहे हैं। आज पत्रा देख के पता चलो कि चंद्रमा में राहु घुस रयो है सो सफेद जिनिस के व्यापार वालन पर पूरब दिसा से ह और ट नाम के प्रथमाक्षर वाले कुछ बाहुबलियों के घात लगा कर हमला करने का खतरा है। हमने सोचा हमारी जान को खतरा होवे तो होवे, हम आप दूध वालन को समय पर आगाह कर दें।’

सब सन्न भये। ये तो जोतिसी महाराज हैं। साच्छात् बसिस्ठ बामदेव!

तुरत बिरजू भैया को इत्तला दी गई। उन्ने भगत को परनाम किया फिर कहा कि महाराज जी और उनके चेले को जो है सो बड़ी बैठक में मीडियावालों के संग बिठवा के नास्ता पानी दिया जावे। और हां दूध तुरत उलटा जावे, मीडिया वालान को कहो कैमरा लगा लें साइट पे।

अब बिरजू भैया का इसारा मिलना था कि तुरत सगरे पाँच गांवन से आये दूधवालन ने मीडिया वालन के सामने जोर जोर से ‘तानासाही नहीं चलैगी’, ‘ग्रामीण एकता जिन्दाबाद’ का नारा लगाते हुए संगी साथियन समेत भर भर कनिस्तर दूध राजमारग पर बहाना चालू कर दिया।

कैमरे भी तुरत चालू भये । हाथ में माइक थामे एक छोकरी बतावन लागी कि किस तरह सरकारी दूध वितरकों की उपेच्छा के कारण इस छेत्र के गरीब दूध विक्रेता सड़क पर अपना सारा दूध बहाने को मजबूर हैं। महामारी के बीच इन गरीब पिछड़े दूधवालन के माल की ऐसी दुर्गत सगरे सूबे के लिये पाल्टी के लिये भारी सरम की बात है। खासकर काय कि इसी इलाके की कुसुमिया देबी इस समय राजधानी में कोऑपरेटिव विभाग की मुखिया हैं।’

मामिला फिट रहा।

खबर आई कि हकला टकला के आधे रस्ते से वापिस बुला लिया गया है। बिरजू भैया को भीतर खुद्द माताजी का राजधानी से फून आ गया, कि बेटा धीरज रक्खो। तुम तौ अपने ठहरे सो तुमसे का शुपाना। बगल के सूबे के बिधायकन की फसल कटने को तैयार खड़ी है। खरीदी में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर पेंच अटक गया था, सो हमारी कमेटी ने बडी कठिनाई से सुलझाय लियो। जभी हाथ भी तनिक तंग था। पर वो फसल कट के इधर आई नहीं, कि सगरा पैसा रिलीज हो जायेगो। और साथे तुमको जे माताजी का आस्वासन है कि अगले विधानसभा चुनाव में हमरे बिरजू का बिसेस खियाल रक्खा जायेगा।

बस, फिर क्या था? बिरजू भैया ने भी वापिस बुला कर मीडिया को बाइट दे दई, कि ‘हम माताजी के कथन से खुस हैं। और राजमारग से अवरोध हटा रहे हैं। हमको उम्मीद है मामला हमारी वरिष्ठ मातृतुल्य कुसुमिया देबी के सही समै पर हस्तच्छेप करने से जल्द ही किसानों के पच्छ में सुलझा लिया जायेगो।’

उस रात पाँचों गांवन में खूब खीर पकी। खरगोश और बगुला भगत को रोक कर बहुत प्रेम से थाली भर भर खीर और मालपुए परोसे गये। बिरजू भैया की अगल बगल बइठ कर दोनो ने खीर पुए खूब छक के खाये।

उपरोक्त बोधकथा से हमको निम्नलिखित नसीहत मिलती है:

खीर खाय को दिल करै, कभी न राँधो खीर,

पकडो बस इक मोटा नेता आरोप सहित गंभीर।

खीर पुआ दोनो मिलैं, बाहुबलियन संग खायें,

भगत जनन के संकट वे सब छन में दूर करायें ।।

सब कुछ दाता देता।

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वैद प्रश्न, प्रतिवाद और प्रति-प्रतिवाद के लेखक हैं

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आज अनूठे लेखक कृष्ण बलदेव वैद की जयंती है। जीवित होते तो 92 साल के होते। उनके लेखन पर एक सूक्ष्म अंतर्दृष्टि वाला लेख लिखा है आशुतोष भारद्वाज ने। उनका यह लेख ‘मधुमती’ पत्रिका के नए अंक में प्रकाशित उनके लेखक का विस्तारित रूप है। आशुतोष जाने माने पत्रकार-लेखक हैं और हाल में ही हार्पर कॉलिंस प्रकाशन से उनकी किताब प्रकाशित हुई है डेथ स्क्रिप्ट’, जो देश के नक्सल आंदोलन पर एक ज़रूरी और पठनीय किताब है। फ़िलहाल यह लेख पढ़िए-

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विलोम-कथा

किसी कलाकृति की पहचान उस स्थान से हो सकती है जो वह कृति उस सत्ता को देती है जिसे वह अपना अन्य या विलोम मानती है। जब कोई कलाकार अपने से इतर संसार में प्रवेश करता है, उसके निवासियों से संवादरत होता है, तब उस कृति के भीतर दुविधा और अर्थ-बाहुल्य की संभावना जन्म लेती है। यह इतर संसार लेखक के सामने एक रचनात्मक चुनौती खड़ा करता है कि वह अपने पूर्वाग्रहों को नकार इस अन्य को स्वीकार पाता है या उसे स्वतंत्र स्पेस देने से इंकार कर देता है। मसलन नाइपॉल की कई किताबों में इस्लाम एक विलोम सत्ता की तरह आता है जिस पर वह निर्णय सुनाने की हड़बड़ी में नज़र आते हैं। अनंतमूर्ति के ‘संस्कार’ में स्त्री चंद्री नायक प्राणेशाचार्य के लिए अन्य हो जाती है। ब्रह्मचारी रहे आए आचार्य दैहिक अनुभव और जीवन में स्त्री के महत्व को स्वीकारते हैं।

एक अबूझे और अनजान अन्य से हुआ संवाद, उसे खोलने-टटोलने की छटपटाहट, उसकी असंभाव्यता को डीकोड करने का प्रयास किसी कृति को समृद्ध करता है। इस संवाद की भूमि पर प्रेम, उन्माद, चाहना, ईर्ष्या, हिंसा इत्यादि भाव जन्म लेते हैं। भाषा पर संशय की परछाईं गिरती है, निश्चित अर्थ धुँधला जाते हैं।

यह निबंध कृष्ण बलदेव वैद के कृतित्व में अन्य के स्वरूप को परखता है, साथ ही उन उपकरणों को भी जिनके ज़रिए इसके साथ संवाद दर्ज होता है। वैद के गल्प की एक प्रमुख उपस्थिति है एक डॉपलगैंगर सरीखा प्रेत जो नायक के ऊपर हमेशा मँडराता रहता है, कथा का आख्यायिक और तात्विक दोनों स्तरों पर विस्तार करता है। यह प्रेत कथा-नायक का निरंतर पीछा करता, उसे प्रश्नांकित, कभी ख़ारिज करता है। यह प्रति-छवि नायक को कोई मोहलत या रियायत नहीं देती, वैद का नायक ख़ुद अपना ही विलोम बन जाता है। इस हमज़ाद को विभाजित आत्मा का आधुनिक रूपक भी कह सकते हैं। आधुनिक अनास्थावान सर्जक आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं पाता, लेकिन हरदम इसे अपने दरवाज़े पर दस्तक देता पाता है। चेतना को गिरफ्त में लिये काफ्का के सिपाही (कॉप इन द हैड) जैसा चिरंतन प्रहरी, नायक की प्रत्येक हरकत की तफ़तीश करता, उसे दुत्कारता, कभी फुसलाता और बहलाता।

यह विलोम वैद के शुरुआती लेखन में ही दिखने लगता है जिसकी उपस्थिति उत्तरोत्तर तीव्र होती जाती है। उनकी आरम्भिक कहानी ‘मेरा दुश्मन’ का नायक इस हमज़ाद के साथ चिर-द्वंद्व में लिपटा है।

वह इस समय दूसरे कमरे में बेहोश पड़ा है। आज मैंने उसकी शराब में कुछ मिला दिया था … आज मैं उसे बेहोश करने में कामयाब हो गया हूँ। अब मेरे सामने दो ही रास्ते हैं। एक यह कि होश आने से पहले उसे जान से मार डालूँ और दूसरा यह कि अपना जरूरी सामान बॉंधकर तैयार हो जाऊँ, और ज्यूँ ही उसे होश आये, हम दोनों फिर उसी रास्ते पर चल दें जिससे भागकर कुछ बरस पहले मैंने माला की गोद में पनाह ली थी।

(मेरा दुश्मन)

अपनी असहनीय अपूर्णता से जूझता यह नायक अपने विलोम द्वारा ही संयोजित, सहवासित व सम्पूरित हो सकता था। वैद पर आरोप लगता रहा है कि उनके लेखन में बाह्य जगत ग़ायब है। यह विकट तथ्यात्मक भूल कोई अनपढ़ समीक्षक ही करेगा जिसने ‘उसका बचपन’, ‘गुज़रा हुआ ज़माना’ या ‘एक नौकरानी की डायरी’ जैसे उपन्यास नहीं पढ़े हों। वह आत्मोन्मुख हैं, आत्मग्रस्त नहीं। मनुष्य चेतना के चितेरे हैं। उनकी कथाएँ मानव अस्तित्व का उत्खनन करती हैं। वैद का नायक किसी बन्द कमरे में या सुनसान सड़क अपने विलोम से जूझता है. यही विलोम इस गल्प की लीला सम्भव करता है।

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वैद प्रश्न, प्रतिवाद और प्रति-प्रतिवाद के लेखक हैं। वह हर क्रिया-व्यापार, दृश्य-अदृश्य, ज्ञात-अज्ञात, संज्ञा-सर्वनाम, विशेषण-क्रियाविशेषण को प्रश्नांकित करते हैं, और ज्यों कोई उत्तर दिखने लगता है, उसे नकारता एक और प्रश्न खड़ा हो जाता है। यदि यहाँ नेति नेति है जब साधक हरेक चीज को नकारते हुए सत्य की ओर बढ़ता है, तो वैज्ञानिक का अनुसंधान भी जो अपने पुराने निष्कर्षों को खारिज करने से परहेज़ नहीं करता।

वैद निषेध का इस्तेमाल न सिर्फ ज्ञानमीमांसीय बल्कि आख्यायकीय औजार बतौर भी करते हैं। नायक द्वारा दी गयी प्रस्तावना विलोम प्रश्नांकित करता है। कथा विकसित होती है, उपन्यास शब्दमीमांसीय एडवैंचर में परिणत होता है। वैद के उपन्यास संशय और प्रश्नाकुलता का उत्कर्ष है जो आधुनिकता के बुनियादी मूल्य माने जाते हैं. वैद प्रश्न को उस जगह ले जाते हैं जहाँ खुद प्रश्न प्रश्नांकित हो जाता है, कागज पर उतरते ही शब्द संशयग्रस्त हो जाता है.

इसलिए वैद के पास (दर्द की) कोई दवा नहीं। नायक सवाल उठता है, लेकिन समाधान तक पहुँचने के सुख से महरूम है। हर वाक्य अपना विलोम रचता चलता है।

मुझे लगता है कि शब्द मेरे दुश्मन नहीं कि शब्द मेरा दुश्मन नहीं कि शब्द ही मेरा असली दुश्मन नहीं कि मैं जो कहूँगा जो भी कहूँगा कि मैं जो कह सकता हूँ कि मैं जो भी कह सकता हूँ कि मैं कुछ नहीं कुछ भी नहीं कह सकता नहीं यह भी ग़लत है बिल्कुल ग़लत है नहीं यह भी ग़लत है नहीं….।

(दर्द ला दवा)

आत्म-संशय अन्य लेखकों का भी गुण है, लेकिन वैद-लोक में यह शब्दमीमांसा में परिणत हो जाता है — अनुभव और दृश्य का अनुवाद कर पाने में मनुष्य की अक्षमता, शब्द व उसके जरिये अभिव्यक्त होते ज्ञान की सीमा। उनका नायक जो बता सकता है, उससे कहीं अधिक जानता है। आधुनिक मनुष्य की विडम्बना का वर्णन ऐसे आख्यायक के ज़रिए ही सम्भव होता जो न सिर्फ यह जानता है कि वह क्या जानता है और क्या नहीं जानता और नहीं जान सकता, लेकिन यह भी जानता है कि वह ज्ञात को अभिव्यक्त नहीं कर सकता, और इस वजह से घुटता तड़पता है.

उसकी एकमात्र आकांक्षा अपने अनुभव को निर्विकल्प शब्दों में व्यक्त कर पुनर्हासिल करना है। लुडविग विट्गेन्सटाइन की तरह वैद का रचना कर्म मूलतः भाषायी अन्वीक्षा है। यदि सम्पूर्ण दर्शन भाषा की प्रत्यालोचना है, तो वैद के लिये लेखन सृष्टि को संपूर्णता में अभिव्यक्त करती भाषा का संधान है।

 

इस पसरे हुये पिशाच में आ पड़े हुये सदियॉं बीत चुकी होंगी क्योंकि महसूस होता है मैं कई मौतें मर चुका हूँ। लेकिन यहॉं आने से पहले की यादें बीमार और बूढ़े कुत्तों की तरह बैठी बू छोड़ती रहती हैं। शुरु शुरु में उस बू पर कभी कभी ख़ुशबू का शुबह भी हो जाया करता था। कुत्तों की उम्र ज्यादा लंबी नहीं होती। यादों के लिये कुत्तों की उपमा अनुचित है।

(दूसरा न कोई)

वक्रोक्ति उनके व्याकरण का महत्वपूर्ण औजार है। हर मोड़ पर वह आपके बोध को चुनौती देते हैं, अस्तित्वगत प्रश्नों से जूझते वक़्त भी शरारती उपमाओं की क्रीड़ा रचते हैं। यह आख्यायक रसिक औघड़ है, न कोई वैरागी भिक्षुक। हमेशा किसी हरकत, फितूर, शगल में लिप्त। एक दृश्य की तरह वह पाठक के समक्ष अपनी वासना, खब्त, निराशा, ऊब के साथ उद्घाटित होता है. अपने एकांत पर इतराता, इठलाता यह नायक अपने अस्तित्व को अंतिम बूंद तक निचोड़ लेना चाहता है.

महाकाव्यात्मक उपमाओं की लड़ियों से वाक्य पैराग्राफ फिर पृष्ठ में तब्दील होते हैं, प्रत्येक वाक्य पूर्ववर्ती से कहीं बिफरता-बदहवास। उनके सवाल अनपेक्षित मोड़ लेते हैं, दृश्य व उसके अर्थ का अलगाव रेखांकित करती अपनी ही दुम निगलती विडंबना सर्वभक्षी होती जाती है।  यह कथावाचक हर कैफियत और कोशिश की निस्सारता से वाकिफ है, फिर भी उपयुक्त शब्द की अंतहीन और असंभव तलाश में जीता है।

सवाल किया जा सकता है — आह! बहुत मुद्दत बाद यह वाहियात वाक्यांश अनायास वापस लौट आया है। इसे इस वापसी की सजा दूँगा इसे बार-बार दोहराकर। पुराने जुमले या मुहावरे जब मुझे गाफिल देख कुछ देर के लिये मेरी कलम पर काबिज हो जाते हैं तो महसूस होता है मरखप चुके दोस्त अचानक आ गलने मिलना चाह रहे हों। मैं इन वफादार मुहावरों पर मुसकराता भी हूँ और मितलाता भी हूँ और उनसे कलम छुड़ाने के लिये बार-बार उन्हें दोहराता हूँ, झूठे जोश और तपाक का सहारा लेता हूँ। वैसे जुबान के चटखारे से इंकार नहीं। मेरी उम्र के बूढ़े आमतौर पर भगवान से चिपटने पर मजबूर हो जाते हैं। मैं भाषा से चिपटा हुआ हूँ, या शायद चिपटा हुआ होने का अभिनय कर रहा हूँ, क्योंकि मेरी असली और अन्दरूनी ख्वाहिश यही है कि मैं हर ख्वाहिश से आजाद होकर — कम-अज़-अज़ एक बार — उड़ूँ। क्योंकि यह ख्वाहिश है इसीलिये आजाद नहीं हो सकता। मैं इस विडंबना से वाक़िफ हूँ।

(दूसरा न कोई)

प्रयत्न की असम्भाव्यता का संज्ञान होते हुये भी समस्त बंधन तोड़ शब्द में कालातीत हो जाने की आकांक्षा। क्या यह कथा दुर्लभ लम्हों में इल्हाम तक पहुँच पाती है या शब्द उस छाया की तरह रहा आता है जिसके पीछे सिर्फ भागा जा सकता है, उसे छू पाना असंभव है? इस प्रश्न का जवाब तो ज़ाहिर है हर पाठक का व्यक्तिगत ही होगा लेकिन कल्पना करें उन लम्हों की जब ये शब्द सर्जक की कलम पर उतरे होंगे — “मेरी असली और अन्दरूनी ख्वाहिश यही है कि मैं हर ख्वाहिश से आजाद होकर — कम-अज़-अज़ एक बार — उड़ूँ।”

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यह विलोम कभी स्त्री का स्वरूप ले लेता है। स्त्री अनेक पुरुष कथाकारों का स्थायी अन्य रही है। संस्कार का ज़िक्र हमने ऊपर किया था। लेकिन वैद-कथा में हम ऐसी स्त्री को पाते हैं जो भारतीय उपन्यास में अमूमन दिखाई नहीं देती. यह कथा स्त्री को नायक की चेतना में बिठा देती है जो उसके इर्द-गिर्द एक हमज़ाद की तरह मंडराती है. मसलन एक बूढ़ा लेखक (दूसरा न कोई) एक ढहते हुए मकान में अकेला मर रहा है, एक महान कृति रच देने की ख्वाहिश लिए. एक एकाकी कर्म जो वैद की प्रिय कहानियोंद मडोना ऑफ़ द फ्यूचर’ (हेनरी जेम्स) औरद अननोन मास्टरपीस’ (बाल्ज़ाक) की याद दिलाता है। रूपक और अनुप्रास के शैदाई इस नायक की कल्पना अक्सर बगल के मकान में रहती एक बूढ़ी औरत पर आकर ठहर जाती है जो उसकी ही मानस-संतान लगती है.

पसरे हुये पिशाच सा यह मकान। इसमें मेरा अकेला मर रहा होना यहाँ के दस्तूर के हिसाब से कोई अजीब बात नहीं। यहाँ इस उम्र के सभी लोग अकेले ही मरते हैं। मिसाल के तौर पर साथ वाले मकान वाली बुढ़िया। बढ़िया बुढ़िया। मुझसे उम्र में बड़ी है और कद में छोटी…मैं जब कुछ और नहीं कर पा रहा होता तो उन तीन खिडकियों में से बुढ़िया की रोज की जिंदगी या मौत में झाँक रहा होता हूँ…हमने कभी एक दूसरे को ताकते झांकते पकड़ा नहीं..वह उम्र में मुझे बहुत बड़ी नजर आती है. शायद दुगनी या तिगनी. या कम-अज़-कम इतनी बड़ी कि यकीनन मेरी माँ हो सके और शायद मेरी नानी या दादी. यह बात दूसरी है कि देखने में शायद मैं अगर उसका बाप नहीं तो कम-अज़-कम बड़ा भाई या बूढ़ा पति या प्रेमी ही नजर आता हूँ…पूछना चाहिये बुढ़िया का ज़िक्र क्यों ज़रूरी है। पूछ रहा हॅूं। जवाब मिलता है कि ज़रूरी कुछ भी नहीं। मुझे मालूम था यही जवाब मिलेगा। मुझे अब अपने किसी सवाल या जवाब पर कोई हैरानी नहीं होती। इस उम्र में हैरानियों की हवस हरामियों को ही होती है। बस अब यहीं रुक जाना चाहिये। हर जुमले की जान निकाल लेने की पुरानी लत में अब कोई लुत्फ नहीं रहा। वह कभी भी नहीं था।

(दूसरा न कोई)

बूढ़ी औरत आख्यायक की चेतना पर काबिज एक प्रेत है जिससे वह मुक्त नहीं हो पा रहा. यह स्त्री ऊपरी तौर से नायक का अन्य प्रतीत होते हुए भी उसका ही विस्तार है, और नायक उससे अनभिज्ञ नहीं है। वह स्व का अतिक्रमण कर उसे अपने में समाहित कर लेना चाहता है। उसकी एकमात्र आकांक्षा ‘दूसरा न कोई’ अवस्था में पहुँचना है, जहाँ उसकी और उसके रचना कर्म की चेतना में अन्य का बोध मिट जाता है। उसके लिए अन्य ‘नर्क’ नहीं है (हेल इज अदर)।

अनाम स्त्री वैद के गल्प की एक प्रमुख थीम है. पुरुष किरदार अक्सर इन बेचेहरा स्त्रियों को डीकोड करते नजर आते हैं. आत्म-कथात्मक प्रतीत होती वैद की किताब उसके बयान के ‘उसकी औरतें’ अध्याय के आइने से हम इस रचनाकार की स्त्री को देख सकते हैं।

कुछ औरतों को मुझसे इतना तेज प्यार और मेरे काम से इतनी तुन्द अदावत रही है कि हैरान होता हॅू कि उनके साथ मैं कैसे इतनी-इतनी देर के लिये निभा ले गया। यह बात नहीं कि किसी ताजा तन्दरुस्त लड़की को देख उसे अपनी औरत में बदल देने की कभी-कभी काम से उकता जाने पर अपने तमाम बुतों की बाजी किसी बेनजीर औरत के लिये न लगा देने की ललक अब बिल्कुल न उठती हो या यह पश्चाताप न होता हो कि अगर मैंने अपनी तमाम औरतों को किसी न किसी तरीके से अपने काम में इस्तेमाल कर उनसे किसी न किसी हद तक निजात न हासिल कर ली होती तो इस वक्त ऐसी तन्हाई और तुर्शी न होती।

(उसके बयान)

वैद के गल्प में स्त्री कोई सामाजिक प्राणी नहीं है जिसे मुक्त कराना है या सशक्त करना है। इसका यह अर्थ नहीं कि उनके स्त्री किरदार की आवाज़ दबी हुई है, बल्कि उनके गल्प की चेतना स्त्री को स्वर देने की राजनैतिक आकांक्षा से मुक्त है। उनके जन्म के दौरान स्त्री लेखन ने भारत में आकार लेना शुरू कर दिया था, गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन में स्त्री की प्रमुख भूमिका थी। उनके समकालीन रचनाकारों के उपन्यासों में स्त्री एक प्रमुख सामाजिक मुद्दा बनी हुई थी। इस परिदृश्य में वह उन चंद लेखकों में थे जिनके स्त्री किरदार, और पुरुष किरदार भी, किसी सामाजिक या पारिवारिक मसले से नहीं जूझ रहे थे, बल्कि आंतरिक संघर्ष को दर्ज कर रहे थे। उनके उपन्यास की स्त्री जिस प्रश्न को पुरुष के समक्ष खड़ा करती थी वह अन्य लेखकों की रचनाओं से बुनियादी तौर पर भिन्न था। उनके प्रश्न राजनैतिक नहीं, बल्कि वे मूलभूत प्रश्न हैं जिन्हें एक पुरुष स्त्री से, स्त्री पुरुष से मानव सम्बन्धों के सबसे नाज़ुक और अंतरंग क्षण में पूछती है, प्रश्न जो तात्कालिकता से परे निकल जाते हैं।

शायद इसलिए वैद का गल्प जीवन के तमाम उन्माद व उत्कंठाओं का उन्मुक्त उत्सव है। यह एकांतवासी साधक ज्ञान की तलाश में है लेकिन निमंग भौतिक प्रतीत होते दुनियावी सुख त्याग नहीं देता। उसके सरोकार आध्यात्मिक हैं, लेकिन उन्हें अभिव्यक्ति देते अलंकार सांगीतिक व दैहिक। रियाज़ लगाता यह नायक अक्सर अपने अंगों से ठिठोली करता दिखाई देता है, अपनी हरकतों का बखान करने के लिए रूपकों के शरारती शरारे बुनता है।

कभी कभी किसी उलझी हुई उपमा को कंघा करना या किसी रूठे हुये रंग को मनाना या किसी जिद्दी जंग को दूर करना — कमोबेश एक ही बात को कम-अज़-कम तीन नाक़िस तरीकों से कहने की पुरानी आदत भी अभी नहीं छूटी, कब छूटेगी, अब क्या छूटेगी — जब ज़रूरी हो जाता है तो खोपड़ी खुरचने या पांव घसीटने के बजाय एक हाथ को रानों के बीच के उस जंगल में ले जाता हूँ जो बेशक अब काफी उजड़ चुका है और जहॉं घूमने से अब न हाथ को कोई खुशी हासिल होती है न हथियार को। लेकिन फिर भी उन चान्दी के तारों को अंगुलियों पर लपेटते लपेटते अगर अचानक उस इलाक़े में किसी धीमी सी हरकत या हैरानी का आभास मिल जाये तो ऑंखों में एक मरियल सी मचल आ जाती है और अंगुलियों में कसाव और ज़रा सा भी जोर लगाने से एक गुच्छा उखड़ आता है और मैं सोचने लगता हूँ कि किसी दिन हाथ लगाते ही वह सारा जंगल उखड़ आयेगा और सर की तरह मेरा सरदार भी गंजा हो जायेगा। इस खयाल से होंठों में एक हरामी सी हरकत आ जाती है।

अगर आगाही के लिये दर्द की जरूरत है तो क्यों नहीं अपने उस सुराख में अंगुली या अंगूठा घुसेड़ कर चिचिला लेता? जवाब है कि यह सवाल वही साला कर सकता है जो यह न जानता हो कि एक हद के बाद अंगुली या अंगूठा तो एक तरफ उसमें कोई कील ठोकने से भी कुछ महसूस नहीं होता। और तो और बवासीर के बेर भी एक हद के बाद झड़ जाते हैं और किसी कौंच से नहीं झनझनाते।

(दूसरा न कोई)

इस लेखन को अज्ञानवश अश्लील कहा गया है। वह दरअसल उत्तर-मैथुनिक व उत्तर-कामुक संसार रचते हैं, जहाँ नायक अपनी ऊब (वैद के कृतित्व का एक अन्य प्रमुख विषय) से उबरने के लिये अपनी देह से खेलता है — अपने तमाम अनुप्रास, यमक, रूपक व उपमाओं समेत। आदर्श स्त्री की आकांक्षा करते हिन्दी उपन्यासकार की यह अद्भुत पैरॉडी भाषा को प्रत्यावर्तित कर दोहराचार और यौनिक राजनीति उघाड़ती है:

इसी स्थिति को हमारे होनहार उपन्यासकार ने यूँ बयान किया हैः लड़की सुशील होनी चाहिये। और असली। मूतों फले दूधों फले। आज्ञाकार ऐसी कि अगर आदेश हो भरी सभा में सिर के बल खड़ी हो तो मूतो धार बहा दे। बवासीरहीन। चाल से चालाकी टपके, ढाल से ढीलापन। गुढ़ी से ज्यादा गठी हुई। हिंदी कहानी की तरह। भाभी की तरह भड़कीली। खुजली भी करे तो खिलकर। भोगे हुये यथार्थ से भागे नहीं। भावबोध में भीगी हुई हो। नीचे लंगोट पहने उपर ओवरकोट। जिसकी जीभ की एक जुंबिश से जोंक में जान। जो नोके नश्तर पर नौका टिकाकर नृत्य कर सके।

(बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ)

यह विवरण उकसाते या उत्तेजित नहीं करते। नायक संसार का अतिक्रमण कर उत्तर-मैथुनिक सृष्टि में प्रवेश करता है। यह नायक खुद से ही खेलता है, नसरीन जैसे कुछेक प्रसंगों को छोड़ विरला ही सम्भोगरत दिखलाई देता है। दूसरा न कोई की बुढ़िया के साथ दैहिक क्रीड़ा आत्म-केंद्रित प्रतीत होती है, और जैसा पहले लिखा यह कहना मुश्किल है कि बुढ़िया वास्तविक किरदार है या खुद को बहलाने के लिये नायक का दिमागी फितूर। वह स्त्री को तमाम रंगों में लिखता ज़रूर है, लेकिन संसर्ग की निस्सारता से अपरिचित नहीं है।

वैद की डायरियों में भी स्त्री विविध रूपों में आती है। वह पिकासो के प्रति ईर्ष्यालु हैं क्योंकि उनकी “इतनी सारी औरतें” थीं, हालिया ब्याहे अपने मित्र से जलन होती है क्योंकि: “नई बीवियॉं अक्सर सुंदर होती हैं।” जब वह सत्ताइस-अठ्ठाइस की उम्र में उसका बचपन लिखने के लिए रानीखेत गए थे, अपनी पत्नी की याद इस तरह डायरी में दर्ज की थी: “अगर चंपा साथ होती तो इस जंगल के हर कोने में मंगल होता।”

लेकिन इसके बावजूद विडम्बना पीछा नहीं छोड़ती. ‘उसकी औरतें’ में यह वाक्य दर्ज होता है: “कई बार किसी एक ही औरत में दुनिया भर की औरतों को और दुनिया भर की औरतों में एक ही औरत को पा लेने की कोशिश में कट-फट चुका हूँ और इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि ये दोनो कोशिशें भी दूसरी बेशुमार कोशिशों की मानिन्द बेकार हैं।”

यह कथा-नायक अक्सर एक आप्तकामी अस्तित्व की तलाश में जीता नज़र आता है।

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यह तलाश वैद के दार्शनिक संदर्भों को भी उजागर करती है। वैद पर विदेशी होने का आरोप लगता रहा है। उन पर सबसे विस्तार से प्रहार शायद जयदेव ने किया है जब उन्होंने लिखा कि कि वैद “भारतीय संस्कृति” के प्रति “बैर भाव” रखते हैं, उनका गल्प “भारत की प्रत्येक सामाजिक रीति पर तीखा प्रहार है”।[1] जयदेव लिखते हैं कि वैद का लेखन अनेक पश्चिमी लेखकों की नकल है, “पेस्टीच हासिल करने के फेर में कलात्मक ऊर्जा के ज़बरदस्त अपव्यय का उदाहरण है”।

यहाँ जयदेव की आलोचना के विश्लेषण का अवकाश नहीं है, लेकिन अगर जयदेव किसी भारतीय दर्शन की वैद-लोक में उपस्थिति देखना चाह रहे हैं तो दूसरा न कोई अद्वैत दर्शन का आधुनिक रूपक है. बूढ़ा लेखक अस्तित्व की ऐसी अवस्था की तलाश में है जहाँ बाह्य आंतरिक में समाहित हो जाता है। उसकी चेतना दूसरा न कोई अर्थात एक अद्वैत अनुभव की तलाश में है, जहाँ सभी अन्य मिट जाते हैं। आख़िरी अध्याय में जब नायक दुनिया छोड़ रहा है और उसके पास सिवाय अपने कुछ प्रिय शब्दों के कुछ भी नहीं है, उस क्षण उसका समूचा जीवन एक आध्यात्मिक साधना का रूप ले लेता है।

भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में शब्द ब्रह्म प्रस्तावित किया था। उनसे पहले याज्ञवल्क्य बृहदारण्यक उपनिषद में कह चुके थे कि अक्षर, जिसका क्षय न हो, ही अंतिम सत्ता है। दूसरा न कोई इस सत्ता तक शब्द के ज़रिए पहुँच जाना चाहता है। अगर जयदेव इसी भारतीयता को खोज रहे हैं, तो यह एक भारतीय उपन्यास ही है।

पचास के दशक में जब हिंदी गल्प-साहित्य में आत्म-निर्वासन और मोहभंग जैसी थीम दिखाई देने लगीं थीं, कई आलोचकों ने इसे पश्चिमी प्रभाव बतलाया था. वे भूल गए थे कि मोहभंग और वैराग तमाम संस्कृत कथाओं का प्रमुख विषय रहा है. वैद ने भी अपने उपन्यासों की भारतीयता पर लिखते वक़्त यह रेखांकित किया था.

इन उपन्यासों को आधुनिकता और अस्तित्ववाद की रोशनी में पढ़ना अपनी परम्परा के उस पक्ष से अनजान रहना है जहाँ आत्म-निर्वासन — जिसे हमारे यहाँ विरक्ति या वैराग्य कहा जाता है — उस साधन का एक अनिवार्य अंग है जो आत्म-बोध तक ले जा सकती है। हमारे सूफ़ी संत और भक्त कवि इस आत्म-निर्वासन की अनेक अवस्थाओं से गुज़र कर संत बनते थे.[2]

यह भी गौर करें कि युद्ध से पहले अपने सम्बन्धियों पर तीर चलाने से पहले अर्जुन के भीतर जिस घनघोर आत्म-संशय का जन्म हुआ वह आत्म-निर्वासन की एक सघन अवस्था थी। खुद पश्चिम में भी किरदारों के भीतर मोहभंग आधुनिक साहित्य से बहुत पहले दिखने लगता है। जब हेमलेट अपने चाचा पर तलवार उठाते वक्त ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’ के विराट प्रश्न से जूझते हैं, हम उनके भीतर अर्जुन के संशय को देख सकते हैं। यह संशय मानव सभ्यता की बुनियादी अवस्था रहा है। गौतम बुद्ध सरीखी भारतीय संस्कृति की अनेक विभूतियाँ इसी मोहभंग से गुज़र कर आत्म तक पहुँचती आयीं हैं, जहाँ मैं व अन्य का अंतराल मिट जाता है। वैद का लेखन इसी अंतराल से संघर्ष की साधना है।

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लेकिन कथा यहीं ख़त्म नहीं होती। जो गल्पकार ‘दूसरा न कोई’ के रचनात्मक आदर्श को हासिल करना चाहता है, उसकी डायरी में निर्मल वर्मा का उल्लेख अक्सर एक असम्भव हमज़ाद की तरह आता है। अपनी डायरियों में वैद निर्मल के साथ ऐसे द्वंद्व में दिखाई देते हैं, जहाँ प्रेम, स्नेह और दुलार हैं, तो तल्ख़ी, झगड़े और ईर्ष्या भी। मसलन तीन नवम्बर दो हजार चार की यह डायरी जिसमें वैद अपने स्वप्न को दर्ज करते हैं।

“कल रात के स्वप्न में निर्मल और मैं कहीं एक साथ थे। आमने-सामने बैठे हुए। निर्मल ने अंग्रेजी में कहा: यू नो दैट माई एंटायर रायटिंग इज़ डायरेक्टिद ऐट यू? इससे पहले कि मैं कुछ कहता उसने कह दिया: आई नो दैट यूअर एंटायर रायटिंग इज़ डायरेक्टिद ऐट मी. जब वह यह कह रहा था तो मुझे काफ़्का का अपने पिता के नाम के नाम वह मशहूर लम्बा ख़त याद आ रहा था को इस वाक्य से शुरू होता है और जो काफ़्का की मृत्यु के बाद ही प्रकाश में आ सका था और जिसे काफ़्का ने अपने पिता को भेजा नहीं था. और साथ ही अनाइस नीन की डायरी में लिखी यह बात कि उसका सारा लेखन उसके पिता को संबोधित एक लम्बा ख़त ही था.”

एक रचनाकार के स्वप्न में दूसरा लेखक आकर कहता है कि हम दोनों का लेखन मूलतः और अंततः एक दूसरे को ही संबोधित है, हम एक दूसरे के लिए ही लिखते हैं। वह रचनाकार सुबह उठ इस सपने को डायरी में दर्ज करता है, उसे प्रकाशित कर सार्वजनिक भी कर देता है। क्या वैद के गल्प का अद्वैत आदर्श डायरियों में आ दरक जाता है?

ग़ौरतलब यह भी है कि डायरियाँ निर्मल ने भी लिखी हैं, लेकिन हैरानी की बात कि जो इंसान उनकी मौत में अपनी मौत देख रहा था, जिसके साथ निर्मल ने तमाम चीज़ें साझा की थीं, शायद प्रेम भी, जिसके साथ वह जवानी के दिनों में एक लड़की को ट्यूशन पढ़ाने जाते थे, जो उनका “हमकलम, हमनवा, हमराज़, हमग़म, हमजौक़, हममज़ाक़” था, उसका ज़िक्र निर्मल की डायरी में कहीं नहीं आता। कहीं भी नहीं।

इस विलोम की कथा के लिए एक अन्य निबंध की दरकार है।

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[1] जयदेव, द कल्चर अव पेस्टीच, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, १९९३, पृष्ठ १३२.

[2] कृष्ण बलदेव वैद, ‘द इंडियन कॉंटेक्स्ट्स एंड सबटेक्स्ट्स अव माई टेक्स्ट’, संकलित: इमैजिनिंग इंडियननेस: कल्चरल आयडेंटिटी एंड कल्चर, (सम्पादन) डायऐना दिमित्रोवा एंड टामस दे बृजन, पालग्रेव मैक्मिलन, चैम, २०१७, पृष्ठ १०५-६.

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आज भी तुलसी दास एक पहेली हैं

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कल महाकवि तुलसीदास की जयंती मनाई जा रही थी। प्रेम कुमार मणि का यह लेख कल पढ़ने को मिला। प्रमोद रंजन ने एक ग्रुप मेल में साझा किया था। आप भी पढ़िए। प्रेम कुमार मणि के लेखन का मैं पहले से ही क़ायल रहा हूँ और क़ायल हो गया-

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कवि तुलसीदास का जन्म,जीवन,जन्मस्थान,वय और यहां तक कि उनकी जाति आज भी एक पहेली है. पहेली बने रहने के कुछ लाभ हैं. और ये लाभ उस निहित स्वार्थ वाले तबके को ही मिल सकते हैं, जो तुलसी और उनके साहित्य के मनमाने अर्थ सम्प्रेषित करता आ रहा है. तुलसी -विषयक वैज्ञानिक अध्ययन की जरुरत इसलिए भी है कि इस से भक्ति -काव्य विषयक अनेक भ्रांतियां ख़त्म हो सकती हैं. विमर्श और सोच के नए गवाक्ष खुल सकते हैं. इसलिए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि इस विषय पर समुचित ध्यान दिया जाय.

भक्ति -आंदोलन के प्रथम महत्वपूर्ण कवि कबीर पर संतोषजनक कार्य हुए हैं,और निरंतर हो भी रहे हैं. अनेक विदेशी विद्वानों, जिन में यूरोपीय विद्वानों की संख्या अधिक है, ने कबीर पर उल्लेखनीय कार्य किये हैं. मेरी जानकारी के अनुसार तुलसीदास पर इस तरह से कार्य नहीं हुए हैं. इसका कारण यह भी है कि वैचारिक स्तर पर कबीर के सरोकार अधिक मानवीय और व्यापक हैं, और इस कारण उन्होंने पूरी दुनिया को प्रभावित किया है. यह हकीकत है कि भारत क्षेत्र से व्यक्ति रूप में बुद्ध के बाद सबसे अधिक कबीर ने पश्चिमी जगत को आकर्षित किया है. लेकिन इस लेख में मुझे तुलसीदास की चर्चा करनी है. विशेष कर उनके जीवन से जुड़े तथ्यों की, जिनमें प्रथमद्रष्टया गहरे अंतर्विरोध दिखते हैं. अंतर्विरोध कबीर विषयक अध्ययन में भी थे, लेकिन उसे पूर्णतः तो नहीं, लेकिन बहुत अंशों तक देशी -विदेशी शोधार्थियों ने स्पष्ट कर दिया है,सुलझा लिया है. जैसे कबीर के जीवन को लेकर अब किसी को भ्रम नहीं है कि वह एक सौ बीस साल जिए. नयी जानकारियों (लिंडा हेस और सुकदेव सिंह – बीजक ऑफ़ कबीर ,ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ) के अनुसार उनका जीवन काल बहुत संक्षिप्त (जन्म 1398 ई. और मृत्यु 1448 ; यानी कुल पचास साल ) था. इसी तरह उनके जीवन के अन्य पहलुओं के विषय में अधिक शोध पूर्ण और विश्वसनीय जानकारी हमारे पास उपलब्ध है.

लेकिन तुलसीदास के जीवन को लेकर आज भी बहुत अस्पष्टता ,उधेड़ -बुन और अटकलबाजियां हैं. जैसे उनकी आयु को ही लीजिए. ऐसी मान्यता है कि वह एक सौ छब्बीस (126) वर्ष जीवित रहे. उन पर काम करने वाले अधिकांश विद्वानों ने इसे स्वीकार लिया है. इसके समर्थन में दलीलें भी दी गयी हैं. वे नहीं समझते इससे तुलसी को देवत्व तो मिल जाता है, लेकिन उनकी विश्वसनीयता कमजोर हो जाती है. तुलसी इस रूप में अभागे हैं कि उन्हें विद्वान शोधार्थी और आलोचक कम, भक्त अधिक मिले. भक्त अपने इष्ट में दैवी आभा आरोपित करते रहते हैं. भक्तों से बहस नहीं की जानी चाहिए; लेकिन किसी भी वैज्ञानिक-दृष्टि -संपन्न अध्येता को यह क्या अटपटा नहीं लगता? शायद ही आने वाली पीढ़ियां इन अनाप -शनाप और गड्ड -मड्ड ब्योरों पर यकीन करे. इसलिए मेरी समझ से यह जरुरी लगता है कि शीघ्रताशीघ्र इन बिंदुओं पर शोध और अध्ययन से एक विश्वसनीय स्थिति बनाई जाय. अन्यथा आने वाला समय हमें शायद मुआफ नहीं करेगा.

तुलसीदास के जटिल जीवन की निश्चय ही एक जटिल कहानी होगी. सामान्य रूप से जो प्रचलित मान्यता है उसके अनुसार उनका जन्म विक्रम सम्वत 1554 और मृत्यु विक्रम सम्वत 1680 में हुआ था. यह अवधि 126 वर्ष की है. उनका जन्मस्थान उत्तरप्रदेश के चित्रकूट जिले का राजापुर गाँव माना गया है. लेकिन एक अन्य मान्यता के अनुसार तुलसीदास का जन्मस्थान वर्तमान कासगंज के पास (जिला एटा ) का सोरों गाँव है, जिसे सूकरखेत या शूकरक्षेत्र भी कहा गया है. एक सोरों या शूकर क्षेत्र गोंडा जिले में भी है, और इसमें राजापुर गाँव भी अवस्थित है. इन सब के बीच यह तय करना मुश्किल है कि इनमें तुलसी का जन्म -ग्राम कौन -सा है. जन्म वर्ष के बारे में भी एक और मान्यता सम्वत 1511 -1623 की है. इसके अनुसार भी उनकी आयु 112 वर्ष बनती है. हाँ ,ग्रियर्सन का अनुमान अधिक विश्वसनीय है, जिसमे उनका जन्मवर्ष सम्वत 1589 माना गया है. मृत्यु सम्वत 1680 में हुई है, तो इसके अनुसार उनकी आयु 91 साल बनती है. मृत्यु -वर्ष तो नहीं, लेकिन मृत्यु -स्थल के बारे में सब एकमत हैं कि उनकी मृत्यु वाराणसी के अस्सी मोहल्ले में हुई.

तुलसीदास विषयक अध्ययन का पारम्परिक आधार नाभादास ( सम्वत 1583 -1639 ) विरचित भक्तमाल पुस्तक है, जिनमें तुलसीदास के सम्बन्ध में छह पंक्तियाँ हैं. सम्वत 1712 में किसी प्रियादास ने भक्तमाल की एक टीका लिखी – ‘भक्तिरासबोधिनी’. प्रियादास का समय तुलसीदास का समय नहीं है. लेकिन उन्होने नाभादास की छह पंक्तियों को बढ़ा कर ग्यारह कर दिया. पिछली सदी में 1920 ई. के इर्द -गिर्द दो किताबें और प्रकट हुईं. बेनीमाधवदास की एक किताब आयी -‘ मूल गोसाईं चरित ‘, जिसे सम्वत 1620 की रचना बतलाया गया.दूसरी किताब दसानी या भवानीदास लिखित ‘गोसाईं चरित ‘ है. इसी तरह 1950 ई. में एक किताब मिलती है -‘गौतम चन्द्रिका’ ,जिसके लेखक कृष्णदत्त मिश्र हैं , यह किताब सम्वत 1624 की लिखी बतलायी गयी. यह कहा गया कि लेखक कृष्णदत्त के पिता तुलसी दास के मित्र थे .

उपरोक्त तमाम पुस्तकों ने कोई नयी विश्वसनीय जानकारी नहीं दी, एक दूसरे का मौन समर्थन किया और साथ ही कुछ नए वितंडे खड़ा किये. इससे इन सब के बीच किसी कुटिल घालमेल का भी ख्याल बनता है. इन सब कारणों से तुलसीदास विषयक अध्ययन पर कोई नया निष्कर्ष नहीं आ सका. जो नया होता था, वह उनके बारे में अतिशय-उक्तियाँ होती थीं. कुल मिला कर उस कवि का जीवन अचरजों का एक ऐसा पिटारा बना दिया गया कि अविश्वसनीयता उसकी पहली पहचान हो गयी. राजापुर के एक गृहस्थ हुलसी -आत्माराम दुबे के घर सम्वत 1554 के श्रावण शुक्ल पक्ष की सातवीं तारीख, जो अभुक्तमूल नक्षत्र है, को एक पुत्र का जन्म होता है. तीन रोज बाद यानि दशमी को हुलसी, यानी उस नवजात की माँ अपनी दासी चुनिया को उस बच्चे को दे देती है कि वह इसे ले कर अपने मायके चली जाय. कथा बनती है कि बालक का जन्म बारहवें महीने में हुआ है . आम तौर पर मानव शिशुओं का जन्म नौ माह पूरा होने पर होता है. जन्म से रहस्य पर रहस्य. बच्चे के मुंह में जन्म से ही बत्तीसों दांत हैं. इतना ही नहीं जन्म लेते ही बच्चा रोता नहीं, राम का नाम लेता है. सचमुच इतना रहस्य और आश्चर्यों की आतिशबाज़ी तो उस राम के जन्म में भी नहीं हुई, जिसका ‘गुलाम ‘ तुलसी ने स्वयं को माना है. रहस्य का दायरा बढ़ता ही जा रहा है. बालक तुलसी, जो तब रामबोला था, साढ़े पांच साल का ही था तब अचानक धर्ममाता चुनिया का भी निधन हो जाता है. बालक रामबोला अब पूरी तरह अनाथ है. ऐसे में नरहर्यानंद इस बालक को मिलते हैं. वे उसे बनारस लाते हैं. रामबोला की शिक्षा -दीक्षा, यज्ञोपवीत, विवाह सब होता है. कब वह रामबोला से तुलसी बनते हैं, यह स्पष्ट नहीं होता. लेकिन ऐसा लगता है रामबोला नाम विद्यार्थी काल में ही तिरोहित हो गया था. एक नाटकीय घटना के साथ तुलसी का विवाह सम्बन्ध टूट जाता है. हताश-निराश तुलसी से हनुमान की मुलाकात होती है और उनकी प्रेरणा से वह चित्रकूट जाते है, जहाँ राम और लक्ष्मण ( आश्चर्य कि सीता नहीं ) से उनका दर्शन होता है. इस दर्शन से अभिभूत तुलसीदास सम्वत 1631 की राम नवमी के दिन से अपने मुख्य काव्य -ग्रंथ रामचरित मानस की रचना करने में जुट जाते हैं. यह रचना दो वर्ष सात महीने और छब्बीस दिनों में पूरी होती है.

स्मरणीय है इस रचना का आरम्भ तुलसीदास ने सतहत्तर वर्ष की वयोवृद्धता में किया था. क्या इस उम्र में इतना व्यवस्थित कार्य किया जा सकता है? फिर इस मानस को लेकर जो किंवदंतियां हैं, उनका अलग ब्यौरा है. यह क्या आश्चर्यजनक नहीं है कि हिंदी साहित्य के किसी भी विद्वान और अध्येता ने उनके जीवन के इन झाड़ -झंकारों से उन्हें मुक्त करने की कोशिश नहीं की!

सर्वाधिक विभ्रम उनकी जाति को लेकर है. सामान्य तौर पर यह स्वीकार लिया गया है कि वह सरयूपारी ब्राह्मण थे. उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और गाँव राजापुर बतलाया गया. हद तो यह है कि जन्म के तीसरे रोज ही माता उसे त्याग देती है. तुलसी ने स्वयं लिखा है -‘मातु -पिता जग जाए तज्यो, विधिहि न लिख्यो कछु भाल -भलाई’ . इतनी घनीभूत पीड़ा का बयान शायद ही किसी कवि ने किसी भी ज़माने में किया हो. आत्माराम -हुलसी का कोई अता -पता फिर कभी नहीं मिलता. एक साधु ने मुझे तुलसी की व्यथा का बयान किया था. उनके अनुसार तुलसी कभी अपने गाँव नहीं जाना चाहते थे. उक्त साधु ने तुलसी के नाम से दो पंक्तियाँ सुनाई थीं. मुझे यह तुलसी काव्य में कभी नहीं मिली. लेकिन फिर भी वह देखने लायक है.

तुलसी वहाँ न जाइये, जहाँ जनम का गाँव

गुण -अवगुण परखै नहीं,धरै पुरानो नाँव

( तुलसी कहते हैं, अपने जन्म गाँव में कभी नहीं जाना चाहिए . लोग गुण -अवगुण तो देखते नहीं, पुरानी पहचान का मज़ाक उड़ाते हैं.)

क्यों तुलसी अपने गाँव नहीं जाना चाहता? गाँव में उसकी कोई इज्जत नहीं है. न उसकी प्रतिष्ठित आर्थिक स्थिति है, न ही कुल -परिवार और न ही जाति. इनमें से किसी भी एक की उपस्थिति होती तो तुलसी क्या वहाँ अपमानित होता! तुलसी की ही तरह कोई दलित भी अपने जन्मगाँव नहीं जाना चाहता. वहाँ उसे अपमान, उपहास और उपेक्षा के सिवा क्या मिल सकता है! अपने जन्मगाँव से ऐसी अरुचि या मोहभंग अकारण नहीं है. इसकी पृष्ठभूमि में एक गहरी मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल है, जिसका हमारे विद्वानों ने कभी संधान नहीं करना चाहा.

तुलसीदास पर एक उल्लेखनीय कार्य अंग्रेजी में माता प्रसाद गुप्त द्वारा जरूर हुआ है, जिसका हिंदी अनुवाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग ने प्रकाशित किया है. लोकभारती इसका वितरक है. यह किताब निश्चित ही रेखांकित करने योग्य है. लेकिन यहाँ भी दिलचस्प उदाहरणों की भरमार है. बाद में इस बात की खूब शिनाख्त हुई कि उनका जन्म राजापुर में हुआ अथवा सोरों में ,जो एटा जिले का एक गांव है. मेरी जानकारी के अनुसार उत्तरप्रदेश सरकार ने चित्रकूट के राजापुर के बजाय इटावा के सोरों को ही उनका जन्मस्थान माना है. माता प्रसाद गुप्त की किताब में ही किन्ही भद्रदत्त शर्मा के एक लेख का उल्लेख है, जिसके अनुसार तुलसी सरयूपारी नहीं,सनाढ्य ब्राह्मण थे. शर्मा जी ने सोरों के योगमार्ग मोहल्ले में कवि का मकान भी ढूँढ लिया. उनके अनुसार तुलसी के गुरु का नाम भी नरहर्यानंद नहीं, नरसिंह चौधरी है. तुलसीदास के एक भाई नंददास भी मिल गए. उनकी ससुराल बदरिया गाँव बतलाया गया. इन सब उद्धरणों से एक ही बात स्पष्ट होती है कि तुलसी का जीवन उथल -पुथल से भरा है और वहाँ कुछ भी स्थिर नहीं है. कभी वह चित्रकूट के राजापुर के हो जाते हैं, तो कभी एटा के सोरों के हो जाते हैं, किन्ही लोगों के लिए वह सरयूपारी -कुल -वल्लभ हैं; तो किन्ही के लिए सनाढ्य कुल के.

मेरी मान्यता है,और इसके आधार हैं कि कुछ मायनों में तुलसी की जीवन -कथा कबीर से अधिक करुण और जटिल है. बनारस के जिन ‘विद्वानों’ ने कबीर को ‘ब्राह्मणी -जाया’ बतलाया उन्होंने ही तुलसी के लिए भी कथा गढ़ी . तुलसी को ब्राह्मण बनाना अधिक आसान था, इसलिए कि उन्होंने अपने काव्य रामचरित मानस में वर्णधर्म की प्रतिष्ठा की है. हालांकि वर्णधर्म का समर्थक होना ब्राह्मण होने की पहचान नहीं हो सकती. हमारे ज़माने में गांधी ( मोहनदास ) ब्राह्मण नहीं थे,लेकिन उन्होंने वर्णधर्म का समर्थन किया था . इसके मुकाबले रवीन्द्रनाथ टैगोर ब्राह्मण थे ,किन्तु वर्णधर्म विरोधी थे . (वर्णधर्म पर गाँधी और टैगोर की वैचारिक टक्कर अलग से एक दिलचस्प प्रसंग है .) तुलसीदास के सभी काव्य -ग्रंथ में नहीं,केवल रामचरित मानस में यह वर्णधर्म समर्थन मुखर रूप में है. और जिस जोरदार ढंग से वहाँ वर्ण-धर्म की प्रतिष्ठा की गयी है, उस से उसके प्रक्षिप्त होने (बाद में जोड़े जाने ) की संभावना अधिक है. लेकिन इस पर इस लेख में विमर्श करना विषयांतर होना होगा.

इस कथा में कोई दम नहीं है कि तुलसी आत्माराम दुबे की संतान थे. यह पूरी कथा मन-गढ़न्त और बे -सिर पैर की प्रतीत होती है. आत्माराम दुबे और तुलसी के पास कौन -सा कारण था कि उसे अपने नवजात स्वस्थ शिशु को त्याग देने की स्थिति आ गयी? केवल अभुक्तमूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण कोई अपने ऐसे बेटे को फेंक या त्याग देगा भला, जिसने जन्मते ही राम का नाम लिया हो और जिसके बत्तीसों दाँत हों? और उस आत्माराम के क्या और कोई रिश्तेदार नहीं थे कि उसने एक निम्न जाति दासी को अपने बेटे को सौंपा? मुझे कोई आपत्ति नहीं है कि उनका लालन-पालन एक तथाकथित निम्न कुल या जाति वाले परिवार में हुआ; लेकिन उस ज़माने के हिसाब से यह कुछ अटपटा लगता है. क्या निम्न कुल में पले -पुसे बालक को किसी उच्चकुलीन गुरु (नरसिंह चौधरी या नरहर्यानंद ) का मिल जाना इतना सहज था? कथा पर सवाल यह भी हो सकता है कि क्या उस पूरे अभुक्तमूल में केवल इस बच्चे का ही जन्म हुआ था, जो इसे त्यागने की मजबूरी आत्माराम को हुई. क्या आत्माराम कोई सेठ या सामंत था जिसकी शु -लाभ वाली गद्दी सँभालने के लिए शुभ नक्षत्र में जन्म हुआ बालक चाहिए था उसे? भीख मांगने केलिए क्या शुभ -अशुभ नक्षत्र!

तुलसी यदि दुबे परिवार की संतान होते तो अपने नाम के साथ निश्चय ही इसे जोड़ते. रामबोला दुबे या तुलसी दुबे होते. क्योंकि मानस के अनुसार उनकी मानसिकता वर्णवादी है. उनकी पत्नी जब उन्हें ताने दे रही थी, तब अवश्य ही अपने इस कुलनाम और उसके धौंस का उपयोग करते. लेकिन पत्नी के पहले ही आघात पर वह बिखर गए. तुलसी तो उस पर अपनी जान न्योछावर कर रहे थे,लेकिन रत्ना को अपने पति की जाति और बुलंद आर्थिक स्थिति चाहिए थी. रत्ना के मन में एक कुलीन और धनवान -सामर्थ्यवान है. रावण राजा भी है और ब्राह्मण भी. तुलसी तो ठहरा भिखमंगा गुसाईं. उसने चुपचाप अपनी राह अलग कर ली. मानस बहुत अंशों में राम कथा से अधिक तुलसी की आत्मकथा है.

तुलसी अपनी संज्ञा में बस तुलसी रहे हैं. ज़माने ने उनमे जोड़ा है तो इसके आगे गोस्वामी और पीछे दास. गोस्वामी तुलसीदास. तुलसीदास को उनके ज़माने ने गुसाई कहा है. लोगों ने इस गुसाईं की पड़ताल करने की कभी कोई कोशिश नहीं की. यह हमारी विद्वत मंडली का बौद्धिक दारिद्र्य ही कहा जायेगा कि इस पर भी विचार नहीं किया कि बेनीमाधवदास और भवानीदास की तुलसीगाथा का नाम ‘मूल गोसाईं चरित ‘ और ‘ गोसाई चरित ‘ ही क्यों है?

गोस्वामी और गुसाईं पर मेरा ध्यान पहली दफा तब गया था, जब 1990 में आरक्षण को लेकर हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक हिंसक कोहराम खड़ा हुआ. जिन लोगों को उस ज़माने का स्मरण होगा वे ख्याल कर सकते हैं कि पहले ही दौर में एक अत्यंत पीड़ादायक लोमहर्षक घटना घटी जब राजीव गोस्वामी नाम के एक नौजवान ने इसके विरोध में आत्मदाह कर लिया. उसकी दर्दनाक मौत हुई. बाद में मुझे पता चला कि राजीव गोस्वामी को खुद पता नहीं था कि वह अन्य पिछड़े वर्ग का सदस्य है और यह मंडल-प्रसंग उसके जीवन में भी थोड़ा बदलाव ला सकता है. यह घटना मेरे मन अथवा अवचेतन में बैठी रही. कुछ साल बाद मुझे गोस्वामी समाज के कुछ लोग मिले और उनसे यह जानकारी मिली कि तुलसी दास ब्राह्मण नहीं, गोस्वामी थे. मेरे लिए यह नई सूचना थी. उसके कई वर्ष पूर्व मैंने तुलसी के जीवन को लेकर एक कहानी लिखी थी,जो आत्मालाप शैली में थी,और जिस में तुलसी अपने विकट जीवन को याद कर रहे हैं. मेरे गुसाई (तुलसी ) को काशी के ब्राह्मणों से काफी संघर्ष करना पड़ा था. उस समय भी मेरी समझ थी कि जीवनानुभवों ने उन्हें पूरी तरह बदल दिया था,और उन्हें इस बात का अफ़सोस था कि अपने मानस में उन्होंने वर्ण धर्म का समर्थन क्यों किया. लेकिन यह कहानी थी. उस समय मेरे मन में यह नहीं था कि गुसाईं एक अलग जाति है, जो ब्राह्मणों से भिन्न ह .

मैंने दसनामी गुसाइयों के इतिहास पर एक किताब पढ़ी. यह कोई खास किताब नहीं थी. हर जाति -बिरादरी के लोग ऐसी किताबें लिखते -छपवाते रहे हैं, जिसमें उनका अपना महिमा -मंडन होता है. लेकिन उनसे यह तो पता चला कि गोस्वामी एक ऐसी बिरादरी है जो पंजाब और हिमाचल प्रदेश को छोड़ कर पूरे भारत में अन्य पिछड़े वर्ग में शुमार किये गए हैं. मैंने उत्तरप्रदेश की केंद्रीय और प्रांतीय सरकार वाली अन्य पिछड़े वर्ग वाली अनुसूची देखी. बारहवें नंबर पर गोस्वामी या गुसाईं थे. तुलसीदास इसी समाज से आते थ ,जैसे जुलाहों के समाज से कबीर.

हर जाति की कुछ खासियत और कमियां होती हैं. मेरा लक्ष्य फिलहाल इसका संधान करना नहीं है. मैंने दशनामियों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का एक सामान्य अध्ययन किया. यह मिहनतक़श जाति समाज नहीं है, अर्थात आय या जीवन -यापन के लिए किसी ऐसे पेशे से नहीं जुडी है, जिस में शारीरिक श्रम लगता हो. गुसाईं मुसलमानों में भी होते हैं और वहाँ भी इनका काम यही है, जो हिन्दुओं के बीच है. जब कोई व्यक्ति अपने श्रम के बूते खाने की स्थिति में नहीं रहता,यानी जब वह परजीवी हो जाता है,दूसरों के श्रम पर खाने की स्थिति में हो जाता है, तब वह समाज के बीच स्वतंत्र रूप से विचार रखने की स्थिति में भी नहीं रह जाता. यही स्थिति तुलसी के साथ हुई. कबीर और रैदास जैसे कवियों की स्थिति भिन्न थी. वे मिहनतक़श थे. चादर बुन कर या जूते गाँठ कर कमाते थे और अपनी रोटी जुटाते थे. तुलसी मांग कर खाने वाले थे. कबीर -रैदास की तरह चाह कर भी मस्त -मौला नहीं हो सकते थे. उस तरह से आज़ाद ख्याल नहीं हो सकते थे. लेकिन तुलसी में एक जबरदस्त कसमसाहट है. मुझे यह भी प्रतीत होता है कि निर्गुण-निराकार राम की जगह एक सामंतवादी राम के गुणगान की अपनी सीमाओं को तोड़ने के लिए अपने आखिरी समय में वह बेचैन थे. ‘कवितावली’ मानस के मुकाबले एक छोटी रचना है. लेकिन तुलसी का वहाँ एक भिन्न रूप है. तुलसी का आत्मसंघर्ष कबीर से कहीं जटिल है. काश, इस पर विमर्श करने का सामर्थ्य हमारे पास होता. बावजूद कोशिश तो करूँगा. लेकिन, अभी बस इतना ही.

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 प्रेमकुमार मणि  हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान  से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास, और पांच निबंध संकलन प्रकाशित।  उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं।  बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे। मोबाइल +91 9431662211 

 

 

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खुल्लमखुल्ला खुफियागीरी

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जाने माने लेखक त्रिलोकनाथ पांडेय का यह लेख उनके प्रिय विषय खुफियागिरी पर है। वे गुप्तचर सेवा के उच्च अधिकारी रहे और आजकल पूर्णरूप से लेखन कार्य में जुटे हैं।

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पिछली सदी उतर रही थी और नई चढ़ रही थी. लगभग एक साल बाद जनवरी-फरवरी 2001 में प्रयागराज में महाकुम्भ मेला लगने वाला था. हमारे दिल्ली मुख्यालय ने अपनी वार्षिक योजना (एनुअल इंटेलिजेंस प्लान) के तहत कई लक्ष्यों में से एक लक्ष्य रखा था ‘अखाड़ा पॉलिटिक्स’ पर एरिया स्टडी कराने का.

     कुम्भ मेलों में साधुओं के आपसी संघर्ष का इतिहास काफी पुराना रहा है. ऐसे में साधु-सन्यासियों के अखाड़ों के अंतर्द्वंद्व, गुटबंदी और आपसी राजनीति को गहराई से समझने की आवश्यकता थी. सरकार की चिंता थी कुम्भ मेला सकुशल सम्पन्न हो.

     उन दिनों वाराणसी परिक्षेत्र के मुख्यालय में मैं तैनात था. एरिया स्टडी का कार्य मेरे डेस्क पर आया. मैंने वह कार्य फील्ड इनपुट के लिए वाराणसी, इलाहबाद और अयोध्या के क्षेत्र-प्रभारियों को सौंप दिया. नियत समय के बाद तीनों क्षेत्रों से जो विवरण आये वे कंकाल मात्र थे. उन्हें समझ कर कुछ विवेचना और विश्लेषण कर पाना मुश्किल था. रिपोर्टें उन अधिकारियों को वापस लौटा दी गयीं इस निवेदन के साथ कि उन पर फिर से कार्य किया जाय और बोधगम्य रूप में उन्हें पुनः प्रस्तुत किया जाय.

     इस बीच, एक पुस्तकालय में चक्कर काटते समय एक पतली-सी किताब मेरे हाथ लगी – सर जदुनाथ सरकार की ‘हिस्ट्री ऑफ़ दशनामी सन्यसीज’. उस किताब को पढने में मैंने देर न की. साथ ही, कुछ सामग्री इधर-उधर की लाइब्रेरी से भी इकट्ठी कर लिया. अब मुझे सन्यासियों के अखाड़ों की अच्छी समझ हो गयी. तब तक फील्ड रिपोर्टें भी पहुँच आयीं. अब मेरा काम एकदम आसान हो गया. खुले स्रोतों (ओपन सोर्सेज) से प्राप्त ज्ञान और हमारे गुप्त स्रोतों (क्लोज्ड सोर्सेज) से प्राप्त इनपुट्स के आधार पर एकदम एक बढ़िया विश्लेष्णात्मक रिपोर्ट बनी, जिसकी काफी प्रशंसा हुई.

            जरूरी खबर जुटाने का जो तरीका हमने अपनाया उसे गुप्तचरों की भाषा में ओपन सोर्स इंटेलिजेंस (OSINT, मुक्त-स्रोत आसूचना) कहते हैं. इसे आप ‘खुल्लमखुल्ला खुफियागीरी’ भी कह सकते हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में  सार्वजानिक क्षेत्र (पब्लिक डोमेन) में खुलेआम उपलब्ध स्रोतों से सूचनाएं दूह कर गोपनीय कार्यों को पोषित किया जाता है.

     गोपनीय कार्यों के लिए सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सूचनाओं का उपयोग एक जमाने से होता रहा है. परम्परागत रूप से इसे लाइब्रेरियों में उपलब्ध पुस्तकों व शोध पत्र-पत्रिकाओं, सेमिनारों और सम्मेलनों की कार्यवाहियों, विभिन्न अध्ययनों (स्टडीज), सरकारी गजर्टों, आकड़ों. नक्शों और चित्रों, श्वेत-पत्रों, तथा व्यापारिक उद्देश्यों से फैलाई गयी प्रचार-सामग्रियों (ब्रोश्योर्स) और पेशेवर विश्लेषकों द्वारा किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान के बारे प्रस्तुत की गयी प्रगति-रिपोर्टों में खोजा जाता रहा है. साथ ही, रेडियो और टेलीविज़न जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम भी ख़ुफ़िया सूचना के स्रोत के रूप में अपनाए जाते रहे हैं. खुले आम उपलब्ध ये स्रोत जासूसी के काम में खूब उपयोगी सिद्ध होते रहे हैं या यूँ कहिये कि अपने काम की काफी सूचनाएं खुले स्रोतों से ही मिल जाती हैं. भूतपूर्व सीआईए अधिकारी आर्थर हलनिक ने एक बार आकलन किया था कि ख़ुफ़िया खबरों का लगभग 80% खुले आम उपलब्ध स्रोतों से मिल जाता है और इस प्रकार खुले स्रोतों से प्राप्त खबरों का ख़ुफ़िया ख़बरों के साथ तालमेल बैठाते चलना चाहिए ताकि ख़ुफ़िया खबरें और भी पुश्त और सशक्त बन जाएँ. “खुले स्रोतों से प्राप्त सूचनाएँ भले ही जोखिमभरी और चित्ताकर्षक न लगें, लेकिन खुफियागीरी के लिए नीव के पत्थर के तौर पर यही काम आती हैं.”[1]

     डिजिटल युग आ जाने से आजकल जबरदस्त सूचना-विस्फोट हुआ है. सूचनाओं का मुक्त प्रवाह अब चारो ओर हो रहा है. इसका दोहन मित्र और शत्रु दोनों ओर के गुप्तचर और विध्वंसक लोग खूब कर रहे हैं. इसका उपयोग कर शत्रु पक्ष के लोग सेना और सुरक्षाबलों के लिए जबरदस्त खतरा बने हुए हैं. यही नहीं, सूचना-संसार में सक्रिय शत्रुओं द्वारा एक नये तरह के युद्ध की शुरुआत की गयी है. इसका एक ज्वलंत उदहारण है इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट (आतंकवादी संगठन) की आतंकी गतिविधिया. इस्लामिक स्टेट ने अपने लिए रिक्रूटों का चयन करने, अपने दुश्मनों पर निशाना साधने, धन जुटाने और यहाँ तक कि आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने में सोशल मीडिया का खूब उपयोग किया.

     खुले स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं का आतंकवादियों द्वारा लाभ उठा लेने का एक दूसरा ज्वलंत उदहारण भारत में मिलता है, जब 26/11 मुंबई अटैक के दौरान ज्यादातर भारतीय टीवी समाचार चैनलों ने अनजाने में आतंकवादियों को सूचनायें उपलब्ध कराने की बेवकूफी की थी. टीवी चैनलों के गैरजिम्मेदाराना लाइव कवरेज से हमारे सुरक्षाबलों की पोजीशन और उनके हथियारों के बारे में जानकारी सीमा पार बैठे आतंकवादियों के आकाओं को तुरंत मिल रही थी जिससे वे छुपे हुए आतंकवादियों को सॅटॅलाइट फोन पर सटीक निर्देश दे रहे थे. इससे आतंकवादियों को छुपने और सटीक फायर करने में मदद मिल रही थी तो दूसरी ओर हमारे सुरक्षाबलों को छुपे हुए आतंकवादियों के लोकेशन की ठीक जानकारी नहीं मिल पा रही थी.

     एक अन्य उदहारण है ‘बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक’ और उसके बाद भारत व पाकिस्तान के विमानों के बीच ‘डॉगफाइट’ (26-27 फरवरी, 2019) का. इस सम्बन्ध में लेफ्टिनेंट जनरल(सेवानिवृत्त) एच एस पनाग अपने एक लेख[2] में बताते हैं कि कुछ व्यापारिक वेबसाइटों पर भारतीय लड़ाकू विमानों की गतिविधियों के बारे में उपलब्ध संवेदनशील सूचनाओं को शत्रुपक्ष द्वारा उपयोग कर लिए जाने की आशंका थी. भारत के आग्रह पर ट्विटर ने ऐसे संवेदनशील सूचनाओं को वहन करने वाले कई वेबसाइट्स को अस्थाई रूप से हटा दिया था.

     अपने उसी लेख में पनाग साहब एक और उदहारण देते हुए कहते हैं कि सेना के कमांडर को प्राप्त विशेष वित्तीय अधिकारों के अंतर्गत नोर्थन कमांड को आकस्मिक खरीदारियों के लिए 300 करोड़ रूपये का बजट मिला हुआ है. सेना को हथियारों की खरीददारी के मामले में सरकारी प्रक्रिया का पालन करना होता है, जिसके अंतर्गत टेंडर इन्टरनेट पर प्रकाशित किया जाता है. इन टेंडर नोटिसों में दी गयी सूचनाओं का विश्लेषण करके कोई भी आसानी से जान सकता है कि नोर्थन कमांड को किन-किन चीजों की कमी है और वह कौन-कौन से विशिष्ट हथियार और साजो-सामान खरीद रहा है.

     पर्वतीय क्षेत्रों में, पहाड़ों की भौगोलिक स्थिति के कारण सेना चोटियों और अन्य ऊंचे स्थानों पर स्थित होती है और वहीँ पर उनकी तोपें और अन्य साजो-सामान भी रखे होते हैं. ऐसी स्थिति में कोई भी सेना विशेषज्ञ Google Maps और Google Earth के द्वारा इनके ठिकानों का आसानी से पता लगा सकता है. इसके बाद तो अन्य बातें जैसे वहां स्थित सेना की यूनिट और उनकी संख्या, उनके हथियारों की गुणवत्ता और मारक क्षमता इत्यादि गूगल पर बड़े आराम से जाना जा सकता है. ऐसे में फिर गुप्त ढंग से जासूसी करने की जरूरत क्या रह जाती है!

     यही स्थिति वायुसेना और नौसेना की भी है. वायुसेना के जहाजों और नौसेना के समुद्री जहाजों की जानकारी सामान्य परिस्थिति में पब्लिक डोमेन में सहज रूप से उपलब्ध रहती है. यह बात अलग है कि ऑपरेशन्स के समय ये जहाज कोड भाषा में संवाद एवं संचार करते हैं. पब्लिक डोमेन में उपलब्ध जानकारियों के आधार पर शत्रु हमारे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण जहाजों के बारे में बहुत-सी जानकारियां हासिल कर लेता है.

     इस खतरनाक स्थिति से बचने के लिए सामरिक रूप से संवेदनशील स्थानों, हथियारों और अन्य उपकरणों को छुपा कर और ढँक कर रखा जा सकता है. सेना की टुकड़ियों को खंदकों और खाइंयों में छुपा कर तैनात किया जा सकता है. साथ ही, गूगल से आग्रह किया जा सकता है कि ऐसे संवेदनशील मामलों में चित्रों को थोडा धुंधला (blur) कर दिया करे ताकि उनकी सटीक पहचान न हो सके. नौसेना और वायुसेना के जहाजों की लोकेशन को छुपाने के लिए छल (डिसेप्शन) के उपायों को भी अपनाया जा सकता है.

     इन सबके बावजूद, इन्टरनेट पर संवेदनशील सूचनाओं को बड़े आराम से ढूंढ निकला जा सकता है. वास्तव में, हम जब भी इन्टरनेट का प्रयोग करते हैं हमारी पहचान उस पर दर्ज होती जाती है. चाहे सोशल मीडिया पर हमारी टिप्पणियाँ हों, स्काईपी काल पर बातचीत हो, किसी एप्प का प्रयोग हो या ईमेल पर कोई सन्देश भेज रहे हों. सब पर इन्टरनेट की नजर है. इन्टरनेट पर किसी की गतिविधियों को आसानी से जाना जा सकता है और उन सूचनाओं का उपयोग/दुरुपयोग शोषण और ब्लैकमेल में किया जा सकता है.

     यही कारण है कि कई संगठनों और संस्थानों में इन्टरनेट के प्रयोग के समय आतंरिक सुरक्षा नियन्त्रण के उपाय अपनाए जाते हैं. गुप्तचर संगठनों में प्रयोग होने वाले कंप्यूटरों में तो इन्टरनेट कनेक्शन ही नहीं कभी जोड़ा जाता है. यही नहीं, ऐसे कंप्यूटरों का बीच-बीच में सिक्यूरिटी ऑडिट भी होता रहता है ताकि उनमें किसी भी प्रकार की सेंध को पकड़ा/रोका जा सके. सेंध लगने के डर से तो कई गुप्तचर संस्थान कुछ मामलों में टाइपराइटर के पुराने युग की ओर लौट पड़े हैं और टाइप की हुई प्रतियों की संख्या का बकायदे हिसाब रखा जाता है और कार्बनों कागजों को जिम्मेदार अधिकारियों की देख-रेख में तुरंत जला कर नष्ट कर दिया जाता है.

     लगभग सभी गुप्तचर संगठनों में खुले स्रोतों से सूचना एकत्र करने की विशिष्ट इकाइयाँ होती हैं. इन इकाइयों में विशिष्ट रूप से प्रशिक्षित लोग होते हैं जो जरूरी सूचनाओं के संकलन का कार्य करते हैं. इनके अलावा दूसरे प्रशिक्षित लोग भी होते हैं जो इस प्रकार एकत्र की हुई सूचनाओं का विश्लेषण और मूल्यांकन कर उन्हें आसूचना में परिवर्तित करते हैं ताकि वे ख़ुफ़िया अभियानों के काम आ सकें.

     गुप्तचर संगठनों के अलावा कई अन्य संसथान या समुदाय होते हैं जो खुले स्रोतों से सूचनाएं संकलित करने को सक्रिय रहते हैं. इनमे से मुख्य हैं सेना और अर्धसैन्य बलों के लोग, आतंरिक सुरक्षा को संभालने वाली सशस्त्र पुलिस बल, कानून-व्यवस्था सुनिश्चित करने वाली सिविल पुलिस, व्यापारिक प्रतिष्ठान और निजी तौर पर विशिष्टता प्राप्त किये हुए पेशेवर लोग. यही नहीं, खुले स्रोतों से सूचनाएं एकत्र करने के लिए इन्टरनेट पर कई टूल्स, एप्स और तकनीक उपलब्ध हैं. कुछ डिजिटल टूल्स के नाम हैं – Maltego, Shodan,            The Harvester , Metagoofil , The Operative Framework , और Paliscopeis. कई ऐसे निजी संस्थान भी हैं जो इच्छुक व्यक्तियों को इस विद्या में प्रशिक्षण देने का कार्य करते हैं. ये अपने प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रायः ऑनलाइन चलाते हैं.

     खुले स्रोतों से सूचनाएं एकत्र करने की तकनीकों को मोटे तौर पर दो वर्गों में बांटा जाता है. पहले वर्ग में सक्रिय तकनीकें आती हैं जिनके द्वारा संकलनकर्ता स्रोत के संचालक के सीधे सम्पर्क में आ जाता है. सक्रिय तकनीकों का फायदा यह है कि आप स्रोत के संचालक से चालाकी से कुछ सवाल भी पूछ सकते हैं जिसके जवाब में आपके काम की सूचना मिल सकती है. किन्तु, इसका एक नुकसान यह है कि संचालक अगर आपकी गतिविधि भांप लेता है तो वह उस स्रोत को सील कर देगा. ऐसी हालत में वह स्रोत एक दम सूख जायेगा और सूचना का प्रवाह रुक जायेगा. दूसरी श्रेणी है निष्क्रिय तकनीकों की, जिसमें आप संचालक के सीधे संपर्क में न आकर किसी डाटाबेस से चुपके-चुपके सूचनाएं लेते रहते हैं. इस तकनीक में कमी यह है कि डाटाबेस में जो सूचना उपलब्ध होगी वहीं तक आपकी पहुँच है. इसमें कोई नई बात जानने या पूछने की सुविधा नहीं होती. हाँ, इसमें फायदा यह है कि इसमें पकडे जाने का डर कम होता है.

     इस प्रकार, हम देखते हैं कि खुले स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं के कई फायदे हैं. एक तो ये सूचनायें आसानी से और सस्ते में उपलब्ध हो जाती हैं. इन्हें पाने के लिए परम्परागत जासूसी के जोखिम और जटिलताओं से गुजरने की जरूरत नहीं होती. दूसरे, ये सूचनाएं कानूनी रूप से वैध और सामाजिक रूप से स्वीकृत होती हैं. इन्हें किसी के साथ साझा करने में न तो कोई अड़चन है और न ही किसी प्रकार की सुरक्षा सम्बन्धी स्पष्टीकरण देने की जरूरत है. तीसरे, जासूसी तरीकों से प्राप्त सूचनाएँ कई बार बड़ी अस्पष्ट और अपर्याप्त होती हैं. ऐसी स्थिति में खुले स्रोतों से सूचनाएं जुटा कर ख़ुफ़िया सूचनाओं को संवर्धित और संपुष्ट किया जा सकता है. कई बार टुकड़े-टुकड़े में प्राप्त ख़ुफ़िया सूचनाओं के रिक्त स्थानों को भरने में भी ऐसी सूचनाएं बड़ी काम करती हैं. कई खतरनाक स्थानों जैसे अफगानिस्तान, इराक, भारत में नक्सल-प्रभावित जंगली क्षेत्रों इत्यादि में, जहाँ परम्परागत जासूसी करना बहुत कठिन और जोखिम-भरा होता है, खुले स्रोतों, खासकर इन्टरनेट, से सूचनाएं एकत्र करना एक अच्छा विकल्प होता है. यही नहीं, यही विकल्प ही सुरक्षित और मुफीद भी होता है.

     खुले स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं की कठिनाइयाँ भी काफी हैं. सूचनाओं के संसार में क्षण-प्रतिक्षण नयी सूचनाओं के शामिल होने से सूचनाओं का ऐसा शोरगुल और हलचल मचा रहता है कि उनमें से अपने काम की सूचना खोज पाना समुद्र से मोती निकालने के बराबर है. यद्यपि इस कार्य के लिए कई एप्स और टूल्स उपलब्ध हैं, फिर भी काम की खबरें छांट कर निकालने में बहुत समय और मेहनत लग जाता है. इसके लिए बार-बार छानने और विश्लेष्ण करने की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है. फिर भी, झूठी, भ्रामक और तथ्यहीन ख़बरों के जखीरे में से सत्य, सत्यापित और वैध सूचनाएँ ढूंढ निकालना भूसे के ढेर में से सुई खोजने जैसा है.

     खुले और बंद (गुप्त) स्रोतों से सूचनाएं एकत्र करने के अपने-अपने फायदे और नुकसान हैं. समझदारी इसमें है कि दोनों तरह के स्रोतों का सामंजस्य बैठा कर काम निकाला जाय. कुछ खुले से कुछ ढंके से, जहाँ से जो मिल जाय, उन्हें हथिया कर और फिर समझदारी से उनका विश्लेष्ण और मूल्यांकन कर उन्हें इस्तेमाल लायक बनाया जाय. यह समन्वित मार्ग ही श्रेयस्कर है.

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[1] Stephen C. Mercado, CIA “Sailing the Sea of OSINT in the Information Age” (2007)

[2] लेफ्टिनेंट जनरल(सेवानिवृत्त) एच एस पनाग द्वारा लिखित और दी प्रिंट में प्रकाशित (10 अक्टूबर, 2019) यह लेख “Balakot, China ‘incursions’ prove OSINT images are new threat for democracies and military” https://theprint.in/opinion/balakot-china-incursions-osint-images-new-threat-democracies-military/303565/

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साधु समाज और राष्ट्रीयता का अंतर्द्वंद्व

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साधु समाज पर इतनी गहरी अंतर्दृष्टि वाला लेख पहली बार पढ़ा। आम तौर पर इस विषय को इतिहास, साहित्य में कम ही छेड़ा जाता है। इसको लिखा है नितिन सिन्हा ने। नितिन सिन्हा Leibniz-Zentrum Moderner Orient, बर्लिन में सीनियर रिसर्चर हैं- जानकी पुल।

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1930 में, एक साधु जिनका नाम धूर्तानंद था, एक रईस सेठ लालाजी के यहाँ पधारे. उन्होंने लालाजी को वचन दिया कि एक तपस्या अनुष्ठान करने के बाद उनका धन दोगुना हो जाएगा. दूसरे दिन सुबह लालाजी को पुलिस स्टेशन जाना पड़ा. मालूम हुआ, विगत रात की तपस्या के बाद साधु फ़रार थे और लालाजी का धन भी ग़ायब था. पुलिस ने बताया कि उस शहर में क़रीब पच्चीस और घरों में ऐसे अनुष्ठान हो चुके थे. ‘गेरुआ डाकू’ नाम से प्रकाशित यह लेख यह बतलाता है कि बीसवीं सदी के शुरूवात में हिन्दी प्रिंट जगत में साधु समाज को लेकर काफ़ी गहरी चिंता बन गयी थी. चूँकि ये लेख एक कहकहा सम्वाद में प्रकाशित हुआ था, इसलिए यह भी दर्शाता है कि आम जगत में साधु एक परिहास और व्यंग्य का चरित्र बन गया था. धूर्तानंद नाम ही काफ़ी था पाठकों को गुदगुदाने के लिए.

समय के परतों को लांघते हुए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि जहां तक भेस-भूषा बदल कर छलने की बात है, शायद ही भारतीय समाज में कोई ऐसा प्रतीकात्मक चरित्र होगा जो ‘साधु’ के क़रीब भी आ सके. इतिहास और साहित्य में इसका एक प्राचीन उदाहरण भी मिलता है. रामायण को ही अगर ले लें, सीता हरण के लिए रावण ने साधु का ही भेस धरा था. और दूसरी तरफ़ अगर सबसे तत्कालीन उदाहरण को उठायें, जो पलघर में मॉब लिंचिंग की घटना में परिणित हुई, उसमें भी साधुओं को यह समझा गया था कि वे भेस बदल कर बच्चों का अपहरण करने वाले किसी गैंग से जुड़े हुए थे और उसी मक़सद से गाँव में आए थे.

भारतीय समाज में साधुओं के साथ छलावे का चरित्रांकन हमेशा से जुटा रहा है. दोनों ही भावनाएँ – विश्वास और अविश्वास – एक डोर से बंधी है कि वे छलावा करते हैं या कर सकते हैं.

यह बात ख़ुद में कोई बीस-तीस साल की नयी अभिव्यक्ति की उपज नहीं है. हालाँकि विगत कुछ वर्षों में बहुत से ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें काफ़ी ‘उत्कृष्ट’ साधुओं को सलाख़ों के पीछे जाना पड़ा है. हत्या, बलात्कार, यौन शोषण, हथियार संग्रह, आर्थिक हेराफेरी के मामलों में ऐसे केसेज अधिकांशत घटित हुए हैं। इसी मद्देनज़र, 2017 में, साधुओं के एक संगठन – अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद – ने 14 ‘ढोंगियों’ (charlatans) के नाम की एक सूची प्रकाशित की थी. संगठन के अनुसार, इन ढोंगियों ने साधु समाज के नाम पर कलंक लगाने का काम किया है.

छद्मवेशियों का नाम उजागर हो ये बात तो ठीक है लेकिन छद्मवेश को ख़ुद ही थोड़ा और समझने की ज़रूरत है कि कैसे वो हमारे सामाजिक और राजनैतिक पहलुओं से जुड़कर हमारे रोज़मर्रे की ज़िंदगी का एक अभिन्न अंग बन जाता है.

बचपन से शायद सब ने सुना होगा, अंधेरे में बाहर मत जाओ नहीं तो कोई साधु बाबा पकड़ कर ले जाएगा. सुबह या दिन के समय जो परिवार साधु का आव-भगत करे, शायद उसी परिवार का कोई सदस्य शाम होते घर के छोटे बच्चे-बच्चियों को ये नसीहत देते जाए कि बाहर साधु या बूढ़ा बाबा ताक लगाए बैठा है.

विश्वास और छद्मवेश एक ही सोच के जुड़े हुए दो पहलू हैं. दोनों एक ही सामाजिक तनाव और धारणा के मिश्रण से विकसित होते हैं. हम अपने अनुभव के मुताबिक़ किसी एक या दूसरे पहलू के तरफ़ झुकते चले जाते हैं. साधुओं के संदर्भ में ऐसा कहा जा सकता है कि उनके प्रति करिज़्मा और विस्मय उनके अपरिचिकत्ता से जुड़ी हुई होती है. इसके मेल से, कभी उनपर विश्वास पुख्ता होता चला जाता है, और कभी घोर अविश्वास घर कर लेता है.

अवश्य ही, इसका एक राजनैतिक पहलू भी है. भारतीय इतिहास में, राजनीति और धर्म के बीच आँख मिचौली चलती आयी है. कुछ एक दफ़ा, ‘मामलों’ ने ‘कांडों’ का रूप धारण कर लिया है. नब्बे के दशक में चंद्रास्वामी ने सनसनी फैलायी थी. उसके बाद बहुतेरे साधु आए जिनके साथ उच्च राजनैतिक लोगों का संसर्ग रहा. कुछ एक भारत छोड़ कर भाग भी गए, एक नए राष्ट्र की स्थापना के लिए. छोड़ना इसीलिए पड़ा क्यूँकि बलात्कार का मामला दर्ज हो गया था.

वर्तमान में, राष्ट्रीयता के उबाल में साधुओं की चंचलता थोड़ी प्रखर दिखती लगती है लेकिन बीसवीं सदी के शुरुआत में भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी.

बीसवीं सदी के प्रारम्भ में हिन्दी जगत ‘कलियुगी साधु’ के प्रकोप से त्रस्त था. कुछ आज के ढोंगी बाबाओं के प्रकोप के ही तरह. जैसे, 1928 के मई अंक में चाँद में छपे इस पत्र को लें. पत्र काल्पनिक है, एक शकुंतला द्वारा अपनी बुआ को लिखा हुआ, जिसमें हिंदू तीर्थस्थानों की गिरते स्थिति पर चिंता व्यक्त की गयी थी. बतौर कारण यह निकल कर आया कि आज कल हिंदू तीर्थ ‘पाँखडियों का साम्राज्य’ बन गया है.

इसी तरह का एक और पत्र लगभग दो साल बाद छपा था जिसमें यह बतलाया गया था कि साधु समाज तामस, अविद्या, और अर्थ-संचार के ग़ुलाम बन गए हैं. १९१६ में, Times of India में एक लेख छपा था ‘A Sadhu’s Wealth’. कलकत्ते के भवानीपुर इलाक़े में एक ‘राजपूत’ ने एक साधु का रूप धारण कर मोटर चोरी का एक गैंग बना लिया था. सी॰आइ॰डी के छापे से ये अनुमान लगा कि सरग़ना का लीडर काफ़ी गोरे रंग का था और वो पाश्चात्य वस्त्र पहन कर मोटर की दुकान में गया था और उसके साथ के चेलों को गाड़ी चलानी आती थी.

अंग्रेज़ी के अख़बारों में और हिन्दी के तमाम लोकप्रिय पत्रिकाओं जैसे चाँद, स्त्री दर्पण, लक्ष्मी, और गंगा में बहुत से लेख इस वक्त में छपे हैं जो साधुओं में आए नैतिक पतन और व्यभिचार पर चिंता या कटाक्ष व्यक्त करते हैं. ‘पहले’ के उत्कृष्ट और पुण्य साधु विलोप हो चुके थे, और आज के नए वाले अधिकतर गेरुआ डाकू थे, ऐसा बहुत से लेखों का सम्मति था. इन लेखों का शीर्षक ही गौरतलब है: ‘भारतवर्ष के साधु’, ‘साधुओं का संगठन’, ‘राष्ट्र का उठ्ठान और साधु समाज’, ‘साधुओं की शिक्षा’, ‘भारत की भावी उन्नति’ इत्यादि. यह मत जड़ ले चुका था कि लोभ और भ्रष्टता को छोड़ उन्हें ‘धर्म सैनिक’ बनाने का ज़रूरत था और इसका रास्ता राष्ट्रीयता से होकर गुजरता था.

‘कलियुग’ विकृतियों के बढ़ने का समय माना गया है. ये ‘पारम्परिक’ सामाजिक स्थिरता के उथल पुथल होने का काल माना गया है. प्रसिद्ध इतिहासकार सुमित सरकार ने बतलाया है कि उन्नीसवी सदी के अंत तक, कलियुग के परिकल्पना की एक बार फिर से वापसी होती है. औपनिवेशीकरण द्वारा लाए गए अधकचरे आधुनिकता की अंकुश में बनती हुई नयी सामाजिक संरचना कलियुग के आने का द्योतक बन जाती है. साधुओं की क्षीण होती गरिमा इसके एक प्रमाण के रूप में उभरती है।

1926 का छपी यह कविता साधुओं के बढ़ते व्यभिचार और राष्ट्र के प्रति उनकी ग़ैर मौजूदा सोच को भलीभाँति दिखाती है:

कंचन और कामिनियों पर, रहती इनकी दृष्टि सदा,

बात बात में ये करते हैं, स्वर्ग नर्क की सृष्टि सदा,

रहे राष्ट्र कंगाल, यहाँ तो, होती धन की वृष्टि सदा,

जनता भूखों मरे, यहाँ तो, रहती भोग समस्ती सदा,

अड्डे और अखाड़े तीर्थ, लमपटियों के बने हुवे,

क्या देंगे उठ्ठान हमें जो, स्वयं पाप में सने हुवे.

 है नहीं जिनको ज़रा भी ध्यान अपने देश का,

जिनके दिल कुछ भी असर होता नही उपदेश का,

 एक अक्षर भी पढ़े लिक्खे नहीं होते हैं जो,

आजकल घरबार तज कर साधु बन जाते हैं वो,

रंग लिए कपड़े कमंडल भी लिया एक हाथ में,

बांध लगोंटी जटा सिर भस्म सारे गाट में.

(1916 में बनारस से प्रकाशित ‘नक़ली साधु’ की पंक्तियाँ)

दूसरी तरफ़, ये कलियुग की परिकल्पना अपने उन्नीसवी और बीसवीं सदी के संदर्भ में ही पैदा होती है. एक तरफ़ उपनिवेशवाद था और दूसरी तरफ़ राष्ट्रवाद की उभरती अनुभूति. साधुओं की नैतिक गिरावट की बात व्यक्त तो होती थी धार्मिक और उनके व्यक्तिगत या सामूहिक संदर्भ में लेकिन उनके सुधार का कार्यक्रम, जो इस वक्त तक लोक बहस में प्रखर रूप से सामने निकल कर आया, राजनैतिक था. ये माना गया कि साधुओं का उत्थान राष्ट्रीयता के पारस पत्थर से ही निखरेग़ा. आज के ‘सेक्युलर’ परिपाटी से शायद ये बात अटपटी लगे लेकिन बीसवीं सदी के शुरूआती दौर में राष्ट्रीयता की परिकल्पना में साधु-समाज का उत्थान सम्मिलित था.

दो बातें यहाँ स्पष्ट कर देनी ज़रूरी है. पहला, राष्ट्र निर्माण में योगदान देने से साधु समाज का भी आवश्यक सुधार होगा, ये बात तभी प्रखर हुई जब हिन्दी प्रिंट जगत में इस बात को माना गया की उनकी मौजूदा स्थिति भ्रष्ट है और उसमें सुधार की ज़रूरत है. साधु समाज के आलोचना के दायरे के अंदर थे, ना कि उससे बाहर. उनकी आलोचना किसी प्रकार की ‘ऐंटी-नैशनल’ गतिविधि नहीं थी, बल्कि उसके ठीक विपरीत, राष्ट्र हित की बात थी.

दूसरी बात, संदर्भ के बाहिर जाकर बीसवीं सदी के पूर्वाध के इस ऐतिहासिक क्षण को देखना इतिहास को थोड़ा रंगहीन करना होगा. दुर्भाग्यवश, ऐसा आजकल अमूमन किया जाता है. साधुओं पर व्यक्त कटाक्ष और चिंता उपनिवेशवाद और जन-आंदोलन पर आधारित राष्ट्रवाद के उद्भव से जुड़े हुए थे. साथ ही, जनगणना की प्रणाली ने एक नया आयाम जोड़ दिया था. अक्सर ये बात इन लेखों में कहा जाता था कि 1911 की जनगणना के बाद ये पाया गया कि भारतवर्ष में क़रीब 50 से 70 लाख साधु थे जिन्हें राष्ट्र निर्माण में प्रयोग में लाया जा सकता था. सवाल फिर यह खड़ा हुआ कि इतनी बड़ी तादाद में मौजूद साधु लोग, जिन्हें मान लिया गया था कि कि वो दूसरों के सहारे ही अपना जीवन यापन कर रहे थे, उन्हें राष्ट्रहित के कार्य से किस प्रकार जोड़ा जाए. एक लेख ने ये भी कह डाला की जर्मनी के कबूतर भारत के साधुओं से ज़्यादा राष्ट्र कार्य में मददगार पाए गए हैं. इतनी बड़ी संख्या में उपस्थित साधुओं का राजनीतिकरण समाज और राष्ट्र के हित के लिए सोचा गया था न कि धर्म के नाम पर उन्माद या विभाजन फैलाने के लिए.

बात दिसम्बर 1920 की है. कांग्रेस पार्टी का सालाना अधिवेशन था, नागपुर में. यह अधिवेशन दो कारणों से महत्वपूर्ण माना जाता है. पहला, इस अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ था. दूसरा, आधिकारिक तौर पर कांग्रेस ने मज़दूरों की हिमायत की स्वीकृति दी थी. लेकिन एक और भी कारण था.

106 साधुओं ने इस अधिवेशन में हिस्सा लिया था. उन्हें स्वराज के संदेश को दूर छोटे शहरों और गावों में फैलाने वाले गांधीवादी दूत के तौर पर देखा गया था. एक साधु संघ की भी स्थापना की गयी थी. 1921 के अप्रैल में All India Political Sadhu Sabha का निर्माण हुवा था. 15 लोगों की एक कमिटी गठित हुई थी. प्रचार के नियम और क़ानून तैयार होने थे.

ब्रिटिश हुकूमत ने अक्सरहाँ भारत के यथार्थ को रहस्य की दृष्टि से समझा है. उसके इस दृष्टिकोण में रोमांच भी है और थोड़ी कल्पना भी. थोड़ा डर की अनुभूति भी है और अत्यधिक हिंसा का प्रयोग भी. साधु और फ़क़ीर जैसे किरदार सदा से भारतीय राजनैतिक रंगमंच के एक अहम हिस्सा बन कर रहे हैं और उसी प्रकार देखे भी जाते रहे हैं.

याद होगा, 1857 पर बनी फ़िल्म जुनून का वह शुरुआती दृश्य. एक पागल फ़क़ीर ब्रिटिश राज के अंत का संकेत दे रहा है. चाहे वो 1830 का ‘ठगी’ का इतिहास हो या ग़दर में फ़क़ीर की भविष्यवाणी और रोटी का प्रसार, ब्रिटिश राज साधु, औघड़, फ़क़ीर के किरदार से सदा सहमे रहे थे. एक कारण यह था कि ये लोग एक जगह कम देर टिकते थे. घूम-घूम पर यापन करना इनका आम ज़रिया था और ब्रिटिश हुकूमत को ‘बेमतलबी’ घुमंतू जीवनशैली से घोर परेशानी थी.

ये साधु संस्थागत तौर पर कांग्रेस के लोकल मंचों या गुरुकुल काँगरी से जुड़े थे. संस्था की जड़ कितनी मज़बूत थी ये आकलन और ज़्यादा शोध माँगता है. विभिन्न कारणों से बहुत से लोग ‘साधु’ यकायक बन जाते थे. आर्थिक विपदा, घर से विक्षोभ, पश्चाताप, इत्यादि इनमें से कुछ कारण थे. इस पर और शोध की ज़रूरत है लेकिन दिलचस्प ये भी बात है कि तत्कालीन सरकारी दस्तावेज़ों में इन्हें ‘बोल्शेविक एजेंट्स’ के रूप में देखा जा रहा था.

बहुत से साधु असहयोग आंदोलन के समय काफ़ी सक्रिय थे. ख़ास कर के, मज़दूर और किसान वर्ग के बीच ये घूम-घूम कर विभिन्न मसलों पर उत्तेजनापूर्ण भाषण देते थे. अक्सर, इनकी सभाओं में ख़ुफ़िया पुलिस जाया करती थी. इनके भाषणों की अंग्रेज़ी में प्रतिलिपियाँ तैयार होती थीं. इनका चार्ज़शीट तैयार होता था जिसमें इनके घर का ठिकाना, पूर्व पेशा, और मौजूदा स्थिति की रपट होती थी. ब्रिटिश हुकूमत समझती थी कि ये भारत में क्रांति लाने का काम कर रहे थे. झरिया, आसनसोल, जमालपुर, लिलुआ, जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में ये तीखे स्वर में भारत की ग़ुलामी को ख़त्म करने का भाषण देते थे. हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करते थे और साथ ही गाय-वध पर रोक लगाने की भी.

इतिहासकारों ने ये काफ़ी पुख़्ते तरीक़े से दिखाया है कि ‘गांधी बाबा’ के नाम पर या उनकी जय बोल कर ठीक गांधी के बताए हुए तरीक़ों के विपरीत भी बहुत  बार जन आंदोलन का स्थानीय सक्रियता मोड़ ले लेता था. साधुओं की सक्रियता पर भी ये बात लागू होती है.

आंशिक लेकिन महत्वपूर्ण पहलू इनका ‘बहुरूपिया’ होना भी था. ये इनकी छद्मवेशी का ही एक पहलू था कि ये इतने सक्रिय हो पाए.

तत्कालीन राजनीति, समाज, और सरकार ने इस छद्मवेशी को अलग-अलग चश्मे से देखा. राजनीति को लगा की ये 50 लाख साधु गांधी के दूत बन सकते हैं, गाँव और क़स्बों में स्वराज का अभियान तेज कर सकते हैं. समाज ने समझा कि सच्चे धर्म के पथ से ये विमुख व्यभिचारी लोग फिर से अपने और समाज के नैतिक उत्थान में भागीदार हो सकते हैं लेकिन उसके लिए पहले उन्हें राष्ट्र के उत्थान के कार्य से जुड़ना होगा. हुकूमत ने समझा कि गेरुए वस्त्र के अंदर इनमें एक लाल क्रांतिकारी छुपा है.

इतिहासकर भी ज़्यादा इन्हें छूते नहीं हैं. साधुओं के क्रांति और धर्म के समन्वय  के बीच उनकी ख़ुद की प्रगतिवादी आधुनिक विचारधारा आड़े आ जाती हैं.

शायद, कुछ असली और कुछ नकली साधु हमेशा बने रहेंगे. रोज़मर्रे की ज़िंदगी में लोग ख़ुद उनसे कैसे रफ़्त रखना है, इसका तरीक़ा ढूँढ लेंगे. साधुओं का राजनीति से जुड़ाव भी कोई नयी बात नहीं है. इतिहास में भी हुआ और आज भी हो रहा है.

पहले, राष्ट्रीयता को एक ज़रिये के रूप में देखा गया था जिससे उनका सुधार हो सके. आज के वक्त, उनके नाम पर ‘हिंदू समाज’ का एकीकृत रूप गढ़ कर अलगाववादी सोच और राजनीति को बढ़ावा दिया जा रहा है. मूल बात यह है कि आज से लगभग 100 साल पहले भी उनके आचरण पर सवाल उठा था, उनके सुधार की बात लोक बहस का हिस्सा बनी थी. हिन्दी ‘public sphere’ को शायद ये आज भी करने की ज़रूरत है.

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इस लेख का थोड़ा लम्बा संस्करण अंग्रेज़ी में यहाँ मौजूद हैं.

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कविता शुक्रवार 7: अरुण आदित्य की कविताएं और कमलकांत के रेखांकन

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अरुण आदित्य का जन्म 1965 में प्रतापगढ़, उत्तरप्रदेश में हुआ।
अवध विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद विधि की पढ़ाई करने इलाहाबाद विश्वविद्यालय का रुख किया, लेकिन इलाहाबाद ने कानून का ‘क’ पढ़ाने के बजाय कविता के ‘क’ में उलझा दिया। सो कानून की पढ़ाई अधूरी छोड़ पत्रकारिता में हाथ आजमाने इंदौर पहुंच गए। इंदौर, चंडीगढ़, भोपाल, दिल्ली की खाक छानते हुए आजकल ताला और तालीम की नगरी अलीगढ़ में ठिकाना ।
कविता-संग्रह ‘रोज ही होता था यह सब’ 1995 में प्रकाशित। इसी संग्रह के लिए मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा दुष्यंत पुरस्कार से सम्मानित।
उपन्यास ‘उत्तर वनवास’ आधार प्रकाशन से 2010 में प्रकाशित। 2011 में दूसरा संस्करण।
पहल, हंस, वसुधा, पल-प्रतिपल, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, साक्षात्कार, कथादेश, वर्तमान साहित्य, बया आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
असद जैदी द्वारा संपादित ‘दस बरस’ और कर्मेंदु शिशिर द्वारा संपादित ‘समय की आवाज’ में कविताएं संकलित। कुछ कविताएं पंजाबी, मराठी और अंग्रेजी में अनूदित।  सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी। नब्बे के दशक में कवि मित्र प्रदीप मिश्र के साथ मिलकर इंदौर से ‘भोर’ नामक साहित्यिक पत्रिका का संपादन किया, जिसका युवा कवियों पर केंद्रित विशेषांक ‘अंतिम दशक के कवि’ काफी चर्चित रहा था।
इन दिनों वे अमर उजाला अखबार में अलीगढ़ संस्करण के संपादक हैं। आइए पढ़ते हैं अरुण आदित्य की नई कविताएं- राकेश श्रीमाल

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दु:स्वप्न
 
रात का दूसरा या तीसरा प्रहर था
निगाह अचानक दीवार घड़ी पर पड़ी
उल्टी दिशा में चल रही थीं उसकी सुइयां
 
कोने में रखे गमले में भी उग आया था विस्मय
वहां पत्तियों से हरा रंग गायब था
और फूलों से लाल
 
बच्चे के खिलौनों से भी हुआ था खिलवाड़
हैंड ग्रेनेड जैसी दिख रही थी क्रिकेट की गेंद
तमंचे की नाल में तब्दील हो गई थी बांसुरी
 
हिम्मत करके बुकशेल्फ की तरफ देखा
किताबें सिर झुकाए पंक्तिबद्ध
जा रही थीं कबाड़खाने की ओर
अचानक किसी शरारती किताब ने धक्का दिया
जमीन पर गिर गई बच्चे की ड्राइंग बुक
खुल गया वह पन्ना जिसमें उसने बनाया था
जंगल में भटक गए आदमी का चित्र
मगर ताज्जुब कि उस दृश्य से
अदृश्य हो चुका था आदमी
दृश्यमान था सिर्फ और सिर्फ जंगल
 
कमरे में बहुत अंधेरा था
पर उस बहुत अंधेरे में भी
बहुत साफ साफ दिख रहा था ये सारा उलटफेर
 
उजाले के लिए बल्ब का स्विच दबाना चाहा
कि लगा 220 वोल्ट का झटका
और इस झटके ने ला पटका मुझे
नींद और स्वप्न से बाहर
 
घबराहट में टटोलने लगा अपना दिल
वह धड़क रहा था बदस्तूर
सीने में बायीं तरफ
मैंने राहत की सांस ली
कुछ तो है जो अपनी सही जगह पर है।
 
………………..
 
 
 
 
चांदनी रात में लांग ड्राइव
 
 
तुम्हारे साथ लांग ड्राइव पर न जाता
तो पता ही न चलता
कि तुम कितने प्यारे दोस्त हो चांद भाऊ
 
गजब का है तुम्हारा सहकार
कि जिस गति से चलती है मेरी कार
उसी के मुताबिक घटती बढ़ती है तुम्हारी रफ्तार
 
एक्सीलरेटर पर थके पैर ने जब भी सोचा
कि रुककर ले लूं थोड़ा दम
तुमने भी तुरंत रोक लिए अपने कदम।
 
गति अवरोधक पर
या सड़क के किसी गड्ढे में
जब भी लगा मुझे झटका
तुम्हें भी हिचकोले खाते देखा मैंने।
 
नहीं, ये छोटी मोटी बातें नहीं हैं चांद भाऊ
तुम्हें क्या पता कि हमारी दुनिया में
हमेशा इस फिराक मैं रहते हैं दोस्त
कि कब आपके पांव थकें
और वे आपको पछाड़ सकें
 
आपदा-विपदा तक को
अवसर में बदलने को छटपटाते लोग
ताड़ते रहते हैं कि कब आप खाएं झटके
और वे आपकी तमाम संभावनाएं लपकें
 
इसीलिए मैं अक्सर इस दुनिया को ठेंगा दिखा
तुम्हारे साथ निकल जाता था लांग ड्राइव पर
लेकिन अाजकल पेट्रोल बहुत महंगा है चांद भाऊ
और लांग ड्राइव एक सपना
 
क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि किसी दिन मेरी कार को अपनी किरणों से बांधकर
झूले की तरह झुलाते हुए लांग ड्राइव पर पर ले चलो
और झूलते-झूलते, झूलते-झूलते
किसी बच्चे की तरह थोड़ी देर सो जाऊं मैं।
 
………….
 
 
 
 
कब्र में कसमसाती है नीरो की आत्मा
 
 
हर बात का विरोध करना विरोधियों का धर्म है
वरना एक महान हीरो था नीरो
 
लोग लानत भेजते हैं कि जब रोम जल रहा था
नीरो बजा रहा था बांसुरी
ऐसे लोग न सिर्फ संगीत का अपमान करते हैं
पारंपरिक ज्ञान विज्ञान का भी करते हैं उपहास
 
जुपिटर और अपोलो जैसे देवता भी
नहीं समझा सकते इन्हें
कि कितना संवेदनशील कला रसिक था नीरो
कि रोम के भले के लिए ही वह बजा रहा था बांसुरी
 
संगीतकारों, ज्योतिषियों और वैज्ञानिकों की
संयुक्त समिति ने दिया था परामर्श
कि राजा बजाएगा बाजा तो आकर्षित होंगे बादल
और बारिश होगी ऐसी झमाझम
कि बिन बुझाए बुझ जाएगी रोम की आग ।
 
समाजशास्त्रियों ने भी कहा था कि
बांसुरी की मधुर धुन
रोमवासियों में करेगी एकता और उत्साह का संचार
और एकजुट होकर आपदा से लड़ सकेंगे लोग।
 
शर्त सिर्फ और सिर्फ इतनी थी कि
आपदा प्रबंधन की इस सांस्कृतिक पहल पर
सबको बजानी होगी ताली
पर विरोधियों के बहकावे में कुछ लोग देने लगे गाली
 
इस तरह कुछ रोमद्रोही लोगों के असहयोग से
असफल हुआ एक महान प्रयोग
 
कब्र में कसमसाती है नीरो की आत्मा
काश उस समय ही हो गया होता
खबरी चैनलों का आविष्कार ।
 
…………….
 
 
 
 
आश्रय
 
 
एक ठूंठ के नीचे दो पल के लिए रुके वे
फूल-पत्तों से लदकर झूमने लगा ठूंठ
 
अरसे से सूखी नदी के तट पर बैठे ही थे
कि लहरें उछल-उछलकर मचाने लगीं शोर
 
सदियों पुराने एक खंडहर में शरण ली
और उस वीराने में गूंजने लगे मंगलगान
 
भटक जाने के लिए वे रेगिस्तान में भागे
पर अपने पैरों के पीछे छोड़ते गए
हरी-हरी दूब के निशान
 
थक-हारकर वे एक अंधेरी सुरंग में घुस गए
और हजारों सूर्यों की रोशनी से नहा उठी सुरंग
 
प्रेम एक चमत्कार है या तपस्या
पर अब उनके लिए एक समस्या है
कि एक गांव बन चुकी इस दुनिया में
कहां और कैसे छुपाएं अपना प्रेम ?
 
……………….
 
 
 
 
चुप रहना, बहुत कुछ कहना
 
 
चुप हूं इसका मतलब यह नहीं है
कि बोलने को कुछ है ही नहीं मेरे पास
या कि बोलने से लगता है डर
चुप हूं कि किसके सामने गाऊं या चिल्लाऊं
किस तबेले में जाकर बीन बजाऊं
 
जिन्हें नहीं सुनाई देती
पेड़ से पत्ते के टूटकर गिरने की आवाज
जिनके कानों तक नहीं पहुंच पा रही
नदियों की डूबती लहरों से आती
बचाओ-बचाओ की कातर पुकार
जिन्हें नहीं चकित करती
अभी-अभी जन्मे गौरैया के बच्चे की चींची-चूंचूं
 
भूख से बिलख रहे किसी बच्चे की आवाज
जिनके हृदय को नहीं कर जाती तार-तार
उनके लिए क्या राग भैरव और क्या मेघ मल्हार
 
जहां सहमति में हो इतना शोर
कि असहमति में चिल्लाना
सबको मनोरंजक गाना लगे
वहां चुप रहना, बहुत कुछ कहना है ।
 
………………
 
 
 
 
डायरी में बारिश
एक
 
सोलहवीं बारिश के बाद
आदमी किसी बारिश में नहीं
बारिश की स्मृति में नहाता है।
 
 
दो
 
हर आदमी अपनी बारिश में
अकेले नहाता है
 
बारिश में नहाते हुए
कोई अकेला कहां रह पाता है
कितने ही किस्से भीगते हैं
अकेले आदमी के साथ।
 
 
तीन
 
तुम्हारी आंखों में घुमड़ रहे
बादल के भीतर जो भाप है
मुझे पता है, उसमें कितना ताप है?
 
 
चार
 
धरती के तपते चेहरे पर
ठंडे छींटे मार रहा जो बादल
वह समुद्र के खौलने से बना है
 
पर हुक्म है हाकिम का
कि ठंडी ठंडी फुहारों के बीच
खौलने की बात भी करना मना है।
 
 
पांच
 
सपनों के बादल न सपनों की बूंदें
सपनों के झूले, न सपनों के मीत
 
पर सपने की माया
कि स्वप्न-भर नहाया ।
 
 
छह
 
बारिश जो लाती थी खुशियों के खत
कभी-कभी क्यों लेकर आती है आफत
जानते हैं सब
पर मानते हैं कब?
 
 
सात
 
रात भर मेघ झरा है
धरा का स्वप्न हरा है
हरे-भरे में भूल गया मैं
मेरा सपना कहां धरा है?

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कमलकांत : यायावर का एकांत

                                  – राकेश श्रीमाल
        (दृश्य एक : उज्जैन) एक युवा चित्रकार अपने किराए के स्टूडियो में मुझे ले जाता है। सब कुछ बिखरा है। चित्र भी बेतरतीब रखे हैं। पूरे कमरे का परिवेश चित्रों से अधिक ध्यान खींचता है। पता चलता है कि वह चित्र बनाते हुए और अपने स्टूडियो में अकेले रहते हुए निवस्त्र ही रहता है।
          (दृश्य दो : भोपाल) मैं उन दिनों भोपाल में ‘कलावार्ता’ का सम्पादन कर रहा था। वह चित्रकार भोपाल के एम एल बी कॉलेज में ड्रॉइंग पढ़ा रहा था।  गाहे-बगाहे शाम की झड़प भरी गीली बैठकें होती रहती। ‘कलावार्ता’ के लिए उसने एक बार मेरे कहने से 12 पृष्ठ का एक आलेख मेरे कमरे में एक रात में लिख दिया था। वह शायद आलोक चटर्जी के रंगकर्म पर था, जो इन दिनों मध्यप्रदेश नाट्य स्कूल के निदेशक हैं।
           (दृश्य तीन : मुंबई) ब्रिटिश हुकूमत में आला अफसरों के लिए बने लोअर परेल स्थित घर के मेरे कमरे के वुड फ्लोर पर हर तरफ सीमेंट बिखरा हुआ है। वही चित्रकार अब मुंबई में मेरे साथ रहते हुए सीमेंट माध्यम में काम कर रहा है।
            यह कमलकांत हैं। उज्जैन से भोपाल, फिर वहाँ से दिल्ली आए। पत्रकारिता करने लगे। बाकायदा पाँच-छह वर्ष। शादी कर घर बसा लिया। पत्रकारिता भी अपने अंदाज में की। कई अखबारों और साहित्यिक पत्रिकाओं में। उदयप्रकाश के साथ सन्डे मेल में काम किया। शानी ने जब ‘कहानी’ पत्रिका का सम्पादन किया तो उसमें सारा राय के साथ सह सम्पादक रहे। शानी को जब किडनी की समस्या आई, तब अपना रक्त दिया। अरुण प्रकाश के साथ हमप्याला का याराना रहा। इस दौरान ही मकबूल फिदा हुसैन, निर्मल वर्मा, नामवर सिंह जैसे कई दिग्गजों का साक्षात्कार लिया। ललित कला अकादमी में हरिप्रकाश त्यागी के साथ चित्र प्रदर्शनी लगाई, जिसका उद्धघाटन कृष्ण बलदेव वेद ने किया। तब वेद साहब ने कहा था कि कमलकांत खतरनाक आदमी है, यह व्यक्ति के भीतर के व्यक्ति को पकड़ लेता है। इसी प्रदर्शनी के बाद फिर से कला में कुछ कर गुजरने की तड़फ होने लगी। उदयप्रकाश भी उन्हें कला में ही काम करने का मशविरा देते थे। फिर अचानक अकेले मुंबई आ गए। यह जून 1995 की बात है। नई दिल्ली स्टेशन से मुंबई का सफर। साथ में कुछ रेखांकन और सीमेंट में किए कुछ रिलीफ वर्क। स्टेशन पर रंग-निर्देशक अरविंद गौड़ छोड़ने आए थे। मुंबई आकर एक-दो दिन उन अपरिचितों के यहाँ रुके, जिनके लिए वे किसी की सिफारशी चिठ्ठी लेकर आए थे। मैं उन दिनों जनसत्ता मुंबई में कार्यरत था। मेरी मुलाकात नरीमन पॉइंट के एक्सप्रेस टॉवर में हुई। वह एड कम्पनी ‘लिंटास’ में किसी से मिलने के बाद सिगरेट पी रहा था। हम अचानक मिले और तय किया कि वह मेरे साथ ही रहेगा। उसका सामान लेकर हम लोअर परेल के मेरे कमरे में आए और वर्षो बाद मिलने का जश्न देर रात तक मनाया गया।
           यह घर रेलवे के लोको शेड की कॉलोनी में था। कार्नर पर ही रद्दी की एक दुकान थी। कमलकांत वहाँ से ‘इनसाइड आउटसाइड’ पत्रिका के पुराने अंक खरीदता और उसमें दिए आर्किटेक्ट के पते और लैंडलाइन नम्बर पत्रिका के ही एक पन्ने में लिखता रहता। फिर पब्लिक फोन बूथ पर जाकर सम्पर्क करने की कोशिश करता। कुछ दिनों में ही उसे हफ़ीज कॉन्ट्रेक्टर जैसे बड़े आर्किटेक्ट से काम मिला। प्लायवुड पर मोजाइक से एक डिजाइन बनाना थी। 15 हजार रुपए का काम था। आधे पैसे एडवांस मिल गए। वह खुश था और मेरे साथ किसी अच्छी जगह सेलिब्रेट करना चाह रहा था। हमने मकान मालिक के इकलौते बेटे राजीव उपाध्याय को भी साथ में लिया और उसे कलाकार की आवारगी के पाठ पढ़ाना शुरू कर दिए।
          चूँकि अंग्रेजों के जमाने की उस बिल्डिंग के फ्लैट में घर की छत और फर्श दोनों लकड़ी के थे, तो टाइल्स तोड़ने के लिए वह पास के खेल मैदान की बाउंड्री पर जाता और कमरे में आकर उसे प्लायवुड पर चिपकाता। काम मिलने का यह सिलसिला चल निकला। वह एक रुपए के सिक्के इसलिए इकट्ठे करने लगा कि उससे फोन करना है। उस समय तक न मोबाईल फोन आया था और न ही पेजर। मशहूर आर्किटेक्ट उत्तम जैन ने एक बार उसे अपने ऑफिस बुलाया। उस दिन वे उसे वालकेश्वर स्थित अपने घर ले गए। वहाँ एक खाली दीवार दिखाकर कहा कि मुझे इस पर एक आर्ट वर्क चाहिए और उसमें नो चेहरे होना चाहिए। आधा पैसा एडवांस मिला और काम शुरू हो गया।
            हम दोनों ही अपने-अपने काम में व्यस्त रहते हुए, एक-दूसरे के रचनात्मक एकांत और प्राइवेसी का ध्यान रखते हुए, बिना कहे-सुने परस्पर आवश्यकताओं को समझ जाते थे। मेरी निजी भाव-विहल गतिविधियों से वह भलीभांति परिचित होते हुए भी प्रतिक्रिया से बचता था। कभी-कभार उत्सुकता वश यूँ ही परोक्ष रूप में वह टटोलने का प्रयास करता, तब मैं अपने जवाब से उसकी जिज्ञासा को और अधिक उलझा देता। वह जीवन में होने वाले इस सहज मानवीय-भावुक खेल से बहुत दूर अपनी अलग महत्वाकांक्षाओं में चुपचाप जीने वाला शख्स है।
           सेफरान आर्ट के मालिक दिनेश वजीरानी ने गैलरी खोलने से पहले कमलकांत के काम खरीदे थे। जब गैलरी खुली, वहाँ ड्रॉइंग का एक शो हुआ। काम बिके। विभु कपूर ने भी गैलरी बियांड खोलने से पहले उसके सात-आठ काम खरीदे। सीमेंट के काम की एकल प्रदर्शनी वर्ष 1999 में जहांगीर आर्ट गैलरी में लगाई। उसमें सभी काम बिक गए। रिलायंस सेंटर के लिए टीना अम्बानी ने भी उसका काम लिया। इसी दौरान कमलकांत ने अंधेरी में अपनी आर्ट गैलरी खोली। उद्घघाटन के दिन मूसलाधार बारिश हुई। दिल्ली से विनोद भारद्वाज और नरेंद्रपाल सिंह आए थे। स्विट्जरलैंड के एम्बेसेडर मैक्स हैलर ने उद्धघाटन किया था। गैलरी भरी हुई थी। कई बड़े आर्किटेक्ट भी थे, जैसे नितिन किल्लावाला, शिरीष सुख़ात्मे, राजीव कासर इत्यादि। उस शाम मेरी जिम्मेदारी रसरंजन की पर्याप्त व्यवस्था करने की थी।
          कुछ समय बाद कमलकांत की मुलाकात आर्किटेक्ट रेज़ा काबुल से हुई। उन्होंने देश की सबसे पहली ऊंची बिल्डिंग (45 माला) ग्रान्ट रोड पर बनाई थी। उसकी लॉबी के लिए कमलकांत ने म्यूरल डिजाइन किए। अब वह पूरी तरह आर्किटेक्ट और इंटेरियर डिजाइनर की दुनिया में रम गया था। यह वह समय था, जब मैं मुंबई को अलविदा कहने की तैयारी कर रहा था। हम एक-दूसरे की खोज-खबर लेते रहते। मैं मुंबई जाता तो उसके खरीदे फ्लेट में ही रहता था। ऐसे समय मुंबई के पुराने दिनों की याद करना हम दोनों की ही कमजोरी होती। उसने कई क्लब हाऊस, लॉबी, स्वीमिंग पुल, स्कूल और बार के अलावा रेसिडेंशियल और कमर्शियल प्रोजेक्ट में काम किया। वह उसे “पब्लिक आर्ट” कहता है। रहेजा बिल्डर्स से लेकर अडानी ग्रुप में उसने कई प्रोजेक्ट किए।
            कुछ वर्ष बाद उसके भीतर का कलाकार छटपटाने लगा और वर्ष 2007 से उसने कला की असल दुनिया में वापसी की। तब से अब तक वह कई एकल प्रदर्शनियां कर चुका है। उसने कला और कमर्शियल आर्ट में तालमेल बिठाना सीख लिया। बड़ोदा में खरीदे अपने नए घर में वह इन दिनों पत्थर में स्कल्पचर बना रहा है। इस लाकडाउन में उसने अपने एक बड़े शो के लायक काम कर लिया है। अक्सर शिल्पकार मकराना, बेंसराना, ब्लैक मार्बल या साउथ के ग्रेनाइट में काम करते हैं। लेकिन पिछले कुछ महीनों में कमलकांत ने इटालियन मार्बल में काम किए हैं। सिल्वासा के समुद्री तट पर जहाजों से यह मार्बल आता है। उसके बड़े-बड़े ब्लॉक को कंटेनर से क्रेन से उतारा जाता है। वहीं इसे काटने की फैक्ट्री हैं। मार्बल की कटिंग में जो छोटे पीस बच जाते हैं, उन्हें ही कमलकांत लाकडाउन के पहले ले आया था। यह छोटे-छोटे टुकड़े एक-डेढ़ फीट के होते हैं। इन पर काम करते हुए कमलकांत को नया अनुभव मिला। बड़ोदा में ही उसने अपना एक बड़ा स्टूडियो बनाया है, जो किसी गैलरी से कम नहीं लगता। लेकिन कमलकांत के भीतरी यायावर कलाकार के लिए यह स्टूडियो ही उसका एकांत है। उसने अन्य कलाकारों के काफी काम खरीदे भी हैं जो इसी स्टूडियो में देखे जा सकते हैं।
          कमलकांत ने अपने काम के लिए सीमेंट, लकड़ी, पत्थर, टाइल्स, फेब्रिक, रंग, चारकोल, पेस्टल इत्यादि का समय-समय पर उपयोग किया है। वह कवि नहीं है, लेकिन उसने एक तुकबन्दी जरूर बनाई है– “कोई ऐसा माध्यम बचा नहीं, जिसमें मैंने रचा नहीं।”
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
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प्रेमचंद का पत्र जयशंकर प्रसाद के नाम

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आज प्रेमचंद की जयंती पर उनका यह पत्र पढ़िए जयशंकर प्रसाद के नाम है। उन दिनों प्रेमचंद मुंबई में थे और फ़िल्मों के लिए लेखन कर रहे थे-

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अजंता सिनेटोन लि.

बम्बई-12

1-10-1934

 

प्रिय भाई साहब,

वन्दे!

मैं कुशल से हूँ और आशा करता हूँ आप भी स्वस्थ हैं और बाल-बच्चे मज़े में हैं। जुलाई के अंत में बनारस गया था, दो दिन घर से चला कि आपसे मिलूँ, पर दोनों ही दिन ऐसा पानी बरसा कि रुकना पड़ा। जिस दिन बम्बई आया हूँ, सारे रास्ते भर भीगता आया और उसका फल यह हुआ कि कई दिन खाँसी आती रही।

मैं जब से यहाँ आया हूँ, मेरी केवल एक तस्वीर फ़िल्म हुई है। वह अब तैयार हो गई है और शायद 15 अक्टूबर तक दिखायी जाय। तब दूसरी तस्वीर शुरू होगी। यहाँ की फ़िल्म-दुनिया देखकर चित्त प्रसन्न नहीं हुआ। सब रुपए कमाने की धुन में हैं, चाहे तस्वीर कितनी ही गंदी और भ्रष्ट हो। सब इस काम को सोलहो आना व्यवसाय की दृष्टि से देखते हैं, और जन-रुचि के पीछे दौड़ते हैं। किसी का कोई आदर्श, कोई सिद्धांत नहीं है। मैं तो किसी तरह यह साल पूरा करके भाग आऊँगा। शिक्षित रुचि की कोई परवाह नहीं करता। वही औरतों का उठा ले जाना, बलात्कार, हत्या, नक़ली और हास्यजनक लड़ाइयाँ सभी तस्वीरों में आ जाती हैं। जो लोग बड़े सफल समझे जाते हैं वे भी इसके सिवा कुछ नहीं करते कि अंग्रेज़ी फ़िल्मों के सीन नक़ल कर लें और कोई अंट-संट कथा गढ़कर उन सभी सीनों को उसमें खीच लायें।

कई दिन हुए मि. हिमांशु राय से मुलाक़ात हुई। वह मुझे कुछ समझदार आदमी मालूम हुए। फ़िल्मों के विषय में देर तक उनसे बातें होती रही। वह सीता पर कोई नई फ़िल्म बनाना चाहते हैं। उनकी एक कम्पनी क़ायम हो गई और शायद दिसम्बर में काम शुरू कर दें। सीता पर दो-एक चित्र बन चुके हैं, लेकिन उनके ख़्याल में अभी इस विषय पर अच्छे चित्र की माँग है। कलकत्ता वालों की ‘सीता’ कुछ चली नही। मैंने तो नहीं देखा, लेकिन जिन लोगों ने देखा है उनके ख़्याल से चित्र असफल रहा। अगर आप सीता पर कोई फ़िल्म लिखना चाहते हैं तो मैं हिमांशु राय से ज़िक्र करूँ ! मेरे ख़्याल में सीता का जितना सुंदर चित्र आप खींच सकते हैं, दूसरा नहीं खींच सकता। आपने तो ‘सीता’ देखी होगी। उसमें जो कमी रह गई गयी है, उस पर भी आपने विचार किया होगा। आप उसका कोई उससे सुंदर रूप खींच सकते हैं तो खींचिए। उसका स्वागत होगा।

प्रेस का हाल आपको मालूम ही है। मैंने ‘जागरण’ बन्द कर दिया। घाटा तो मेरे सामने ही कम न था, पर इधर उसकी बिक्री बहुत घट गयी थी। अब मैं ‘हंस’ को सुधारना चाहता हूँ। जैसी कि आपसे कई बार बातचीत हो चुकी है, इसका दाम 5 रु. कर देना चाहता हूँ और 100 पृष्ठ का मैटर देना चाहता हूँ। मगर अभी साल भर पाबंदी के साथ वक़्त पर निकालकर पाठकों में विश्वास पैदा करना पड़ेगा। ‘जागरण’ के कारण इसकी ओर ध्यान देने का अवसर ही न मिलता था। अब कोशिश करूँगा कि इसकी सामग्री इससे अच्छी रहे, कहानियों की संख्या अधिक हो और बराबर वक़्त पर निकले। आप अक्टूबर के लिए एक कहानी लिखने की अवश्य कृपा कीजिए। हाँ, मैंने ‘तितली’ नहीं देखी। उसकी एक प्रति भिजवा दीजियेगा।

मेरा स्वास्थ्य तो कभी अच्छा न था, अब और ख़राब हो रहा है। क़ब्ज़ की शिकायत बढ़ती जाती है। सुबह सोकर उठता हूँ तो कमर बिल्कुल अकड़ी रहती है, जब दो-तीन मील चल लेता हूँ तो वायु कम हो जाती है, कमर सीधी होती है और तब शौच जाता हूँ। मेरा विश्वास होम्योपैथी पर ही है, पर यहाँ होम्योपैथी कोई नहीं जानता। दो-एक डॉक्टर हैं तो वे मेरे घर से छः मील पर रहते हैं, जहाँ जाना मुश्किल है। यदि आप डॉक्टर सिन्हा से कोई चीज़ तजबीज कराके मेरे पास वीपीपी द्वारा भिजवा दें तो आपका थोड़ा-सा एहसान मानूँगा, अगर आपकी इच्छा होगी। अपनी जो तरकीबें थी, उनको आज़मा कर हार गया। वज़न भी दो पौंड घट गया है। जो देखता है पूछ बैठता है – आप बीमार हैं क्या? एक बड़े डॉक्टर से कंसल्ट किया। उसने कोयले का बिस्कुट खाने की सलाह दी। एक टिन खा गया, कोई लाभ न हुआ। हींग, अजवाइन, सौंठ सब देख चुका हूँ। कभी-कभी तो रात को नींद खुलती है तो क़मर में दर्द होता पाता हूँ और लेटना तकलीफ़देह हो जाता है। तब कमर पकड़कर धीरे धीरे टहलता हूँ। आप डॉक्टर साहब से ज़रूर कुछ भिजवाइये।

और क्या लिखूँ? बम्बई सुंदर है, अगर स्वास्थ्य ठीक हो, ज़्यादा महँगा भी नहीं, बहुत-सी चीज़ें तो वहाँ से भी सस्ती हैं। चमड़े की चीज़ें, कम्बल, विलायती सामान वहाँ से बहुत सस्ता। बिजली 4 आने यूनिट। खाने-पीने की चीज़ों में भी घी और मक्खन ख़राब, दूध बुरा नहीं, शाक-भाजी सस्ती और अफ़रात। आप चार पैसे में मीठा अभी तक ले लीजिए। संतरे रुपए के बीस-पच्चीस, केले बहुत सस्ते, मटर वहाँ के सेर से 4 आने सेर। यहाँ सेर केवल सात गंठे का है।

शेष कुशल है। गौड़ जी से मेरा आदाब अर्ज़ कहिएगा। चक्कर तो लगते ही होंगे। और मेरी तरफ़ से और अपनी तरफ़ से भी ‘हंस’ के अक्टूबर-नवंबर के लिए कोई हँसाने वाली चीज़ लिखने के लिए आग्रह –

भवदीय

धनपतराय

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हंस प्रकाशन राजकमल प्रकाशन परिवार का हिस्सा बना

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प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय द्वारा 1948 में स्थापित हंस प्रकाशन आज से राजकमल प्रकाशन समूह का हिस्सा हो गया है। प्रेमचंद की जयंती के दिन की यह उल्लेखनीय घटना है। हंस प्रकाशन का ऐतिहासिक महत्व रहा है और इसकी अपनी समृद्ध विरासत है। आशा है अब हम नए सिरे से उनको पढ़ पाएँगे, प्रेमचंद की रचनाओं के भी प्रामाणिक पाठ एक बार फिर से देख पाएँगे। नीचे पूरी खबर पढ़िए-

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मनुष्य हमेशा से विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी भविष्य की पीढ़ी के लिए अतीत और वर्तमान के सुंदर और सार्थक को संरक्षित करने का काम नहीं भूलता. राजकमल प्रकाशन समूह ने कोविड-19 के इस मुश्किल दौर में भी किताबों की दुनिया में विरासत के संरक्षण का ऐसा ही एक उल्लेखनीय काम किया है.

31 जुलाई हिंदी-उर्दू की दुनिया में एक बहुत ख़ास तारीख़ है। आज के दिन 140 साल पहले प्रेमचंद का जन्म हुआ था। यह सर्वविदित है कि प्रेमचन्द ने ‘हंस’ नाम की एक पत्रिका शुरू की थी, जिसका पहला अंक मार्च 1930 में निकला था. जिसका ध्येय था “आज़ादी की जंग में योग देना” और “साहित्य और समाज में गुणों का परिचय” देना.  अक्टूबर 1935 से हंस का एक और ध्येय निश्चित किया गया—“प्रांतीय भाषाओं के साहित्य में समन्वय.” इस नई शुरुआत को महात्मा गांधी ने “हिंदुस्तान भर में अनोखा प्रयत्न” बताया था. इस ‘हंस’ पत्रिका को प्रेमचन्द के जीवनीकार मदन गोपाल ने उनका तीसरा बेटा भी बताया है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि जब प्रेमचन्द के छोटे यानी दूसरे बेटे अमृतराय ने 1948 में अपने प्रकाशन की शुरुआत की तो उसका नाम रखा—हंस प्रकाशन. और उसके जरिये उन्होंने भरसक उन आदर्शों और हिन्दुस्तानी ज़बान को आगे बढ़ाने की कोशिश की जो पत्रिका के जरिये पहले से हो रहा था.

आज 72 वर्षों बाद प्रेमचन्द की  140 वीं जयंती के दिन हंस प्रकाशन हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशन समूह—राजकमल प्रकाशन समूह—में शामिल हो गया है. ज्ञात हो कि राजकमल प्रकाशन की स्थापना 1947 में हुई थी और इन दोनों प्रकाशनों की प्रकाशन-नीति की बुनियाद प्रगतिशीलता ही रही है. ऐसे में यह ख़बर हिन्दी के प्रबुद्ध समाज के लिए ख़ुशी और सुकून की ख़बर है कि एक महान विरासत वाला प्रकाशन इतिहास का एक विगत अध्याय बनते-बनते पुन: भविष्य के रास्ते पर लौट आया है.

प्रगतिशील साहित्यकारों में एक प्रमुख नाम अमृतराय ने हंस प्रकाशन से प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य के प्रकाशन के साथ-साथ सुभद्रा कुमारी चौहान (समग्र लेखन), कृश्न चंदर, पाकिस्तान के मशहूर नाटककार इम्तियाज़ अली ‘ताज’ (बेहद लोकप्रिय कृति ‘चचा छक्कन’), गिरिजाकुमार माथुर, केदारनाथ सिंह, सुधा चौहान जैसे लेखकों के साथ ही शेक्सपियर, हार्वर्ड फ़ास्ट, जॉन रीड, जूलियस फ़्यूचिक और बर्तोल्त ब्रेख़्त की महत्वपूर्ण कृतियों के सुंदर अनुवाद भी प्रकाशित किये. बाद के दिनों में अरुंधति रॉय की भी एक किताब आलोक राय के अनुवाद में यहाँ से प्रकाशित हुई. लगभग 4 दशकों तक अमृतराय और उनकी पत्नी सुधा चौहान ने हंस प्रकाशन का कार्यभार बखूबी निभाया और बाल साहित्य को भी प्रमुखता दी. यह भी एक संयोग है कि इस महत्वपूर्ण विलय के 15 दिनों बाद ही अमृतराय का जन्मशती वर्ष शुरू हो रहा है.

हंस प्रकाशन के राजकमल प्रकाशन समहू में विलय की घटना पर अमृतराय के सुपुत्र और विद्वान आलोचक-लेखक आलोक राय ने कहा कि “सन 1948 में जब अमृतराय ने हंस प्रकाशन की स्थापना की तो उनकी उम्र कुल सत्ताइस थी। रगों में आंदोलन की गर्मी थी, आँखों में इंक़लाब का सपना था। हाँ, व्यावसायिकता की थोड़ी कमी जरूर थी, सो उसकी पूर्ति प्रेमचंद के कॉपीराइट ने की। और यूँ, कोई चालीस-पचास साल में, हंस प्रकाशन ने अपनी एक पहचान बना ली। प्रामाणिक पाठ, दाम सामान्य पाठकोचित। 1986 में एक धक्का ज़रूर लगा, लेकिन फिर भी दस साल तक, मेरे माँ-बाप ने हंस प्रकाशन को चलाया—लेकिन उनका ये स्पष्ट मत था कि इसको चलाना हमारे बस का नहीं, सो ठीक ही समझा था…उनके जाने के बाद कई साल व्यवसाय ढलान पर था। पुराने लोगों के सहारे चलता रहा—महेन्द्र पाल सिंह, ननकू लाल पाल—फिर एक-एक कर वो भी नहीं रहे। अब संयोग से, श्री अशोक महेश्वरी के सहयोग से, और राजकमल प्रकाशन समूह में शामिल होकर, उम्मीद यही है कि हम हंस प्रकाशन को इस नए संस्करण में जीवित रख सकेंगे, और फिर से फलते-फूलते देखेंगे।“

राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी का कहना है, “हाल के वर्षों में हमने हिंदी प्रकाशनों की विविधतापूर्ण विरासत को सहेजने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए हैं. यह विलय उसी दिशा में बढ़ा एक और महत्वपूर्ण कदम है. समानधर्मा प्रकाशनों का संरक्षण बहुत सारी महत्वपूर्ण कृतियों को भावी पीढ़ी के लिए उपलब्ध कराने का उद्यम तो है ही, साथ ही यह उन गुणग्राही प्रकाशकों के कार्यों का सम्मान भी है जिन्होंने अपने समय के विशिष्ट लेखन को चिन्हित और प्रकाशित किया. यह कई लेखकों की पाठक-समाज में पुन:वापसी का समय है. प्रेमचन्द की रचनाएँ जब 1986 में कॉपीराईट फ्री हुईं तो उनकी कहानियों और सुप्रसिद्ध उपन्यासों को छापने के लिए बहुतेरे प्रकाशन आगे आए. लेकिन प्रेमचन्द के वैचारिक लेखन को कितने लोगों ने प्रकाशित किया, यह भी देखने की बात है. हंस प्रकाशन के जरिये अब वह सब पुन: प्रकाशित हो सकेगा, यह अभी के समय में बहुत जरूरी है. अमृतराय द्वारा स्थापित हंस प्रकाशन के राजमकमल प्रकाशन समूह में शामिल होने पर हमें गर्व है. हम आलोक राय जी के इस सुचिंतित निर्णय और भरोसे का सम्मान करते हैं. ऐसे अवसर हमें अपने लेखकों और पाठकों के प्रति और अधिक जिम्मेदारी का अहसास कराते हैं.”

राजकमल प्रकाशन समूह के मुख्य कार्यकारी अधिकारी आमोद महेश्वरी ने आगे की योजना के बारे में कहा कि बाजार में ‘गोदान’ के कई तरह के पाठ देखने को मिलते हैं। इनमें से अधिकांश पाठ अशुद्ध और अप्रामाणिक हैं. यह दुख की बात है कि हिन्दी साहित्य में ऐसी सर्वकालिक महान कृति ‘गोदान’ का ग़लत पाठ पाठकों को पढ़ने को मिल रहा है। हंस प्रकाशन ने ही सबसे पहले ‘गोदान’ का मूल और शुद्ध पाठ हिंदी में प्रकाशित किया था। इसे सुसम्पादित करने का काम अमृतराय जी ने किया था. अब अमृतराय जी के जन्मशती वर्ष में यह जल्द ही पुनःप्रकाशित होगा. प्रेमचन्द जी और अमृतराय जी दोनों के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी. हमें विश्वास है कि पाठक हमारे साथ हमारी कोशिशों में हमेशा शामिल हैं।“

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निधि अग्रवाल की कहानी ‘सड़क पार की खिड़कियाँ’

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निधि अग्रवाल पेशे से चिकित्सक हैं और बहुत अच्छी गद्यकार हैं। मैत्रेयी देवी के उपन्यास ‘न हन्यते’ पर उनका लिखा पाठकों को याद होगा। यह कहानी है जो सम्मोहक भाषा में अपने साथ बहाए ले जाती है। पढ़िएगा-

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ज्यों दुनिया के अधिकतर देशों में सेकंड स्ट्रीट होती है, ज्यों हर हिल स्टेशन पर मॉल रोड, वैसे ही यह एक चमचमाती नई सड़क है जो लगभग हर गाँव, हर शहर, हर देश में उपस्थित है। अनजानी राहों पर चलने के लिए हौसला चाहिए। शुरू में झिझक हुई लेकिन अब इसका अजनबीपन मुझे सुहाता है। यह सड़क ज्यों एक अलग ही दुनिया में ले जाती है। जगमगाती हुई सुंदर, स्वप्निल, परीलोक सी! यूँ भी कह सकते हैं कि इस सड़क पर आ, आप पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैद कर सकते हैं। हर शाम मैं यहाँ दूर तक निकल जाती हूँ। कोई मुझे जज नहीं करता, मैं भी किसी को नहीं पहचानती। यहाँ अनगिनत जगमगाते घरों में, असंख्य खिड़कियाँ हैं जो अपनी सुविधानुसार खुलती, बंद होती रहती हैं। कब कौन सी खिड़की खुलेगी… कौन सी बंद होगी इसका कोई नियम न होने पर भी पिछले कुछ महीनों की अपने वॉक में कुछ खिड़कियों का पैटर्न मैं समझ पाई हूँ। अब मैं उनके सामने से गुज़रती हूँ तो कई खिड़कियाँ मुस्करा देती हैं…एक औपचारिक मुस्कान जिसके कोई मायने नहीं होते हुए भी कई मायने होते हैं। कभी यह मुस्कान हम परिचय बढ़ाने के लिए देते हैं… कभी आगंतुक से अपना भय छुपाने… कभी उसकी औचक उपस्थिति से अचकचाकर …तो कभी इस भाव के साथ कि चलो, अब आ ही गए हो तो हँस कर ही झेल लिया जाए।

इस सड़क की चकाचौंध और शोरगुल से निस्पृह गुज़र जाना किसी साधना जैसा लगता है… ज्यों एक आत्मिक संतुष्टि! अब इस सड़क से मेरा परिचय बढ़ता जा रहा है और मैं बंद आँखों से भी इस पर चलना सीख गई हूँ तब मैं यहाँ की चहल-पहल और अधिक स्पष्ट देख पा रही हूँ। आजकल पीले गुलाबों वाली खिड़की पर खड़ी महिला मुझे आत्मीय मुस्कान देती है। उसे देखते ही मेरा भी हाथ स्वतः ही अभिवादन में उठने लगा है। गुलमोहर के पेड़ के नीचे खुलने वाली खिड़की किसी गायक की है। एक वेदना है उसकी आवाज़ में। उसकी आवाज़ के साथ बहते मैं निर्वात में पहुँच जाती हूँ। जहाँ अंदर-बाहर का सब शोर शिथिल पड़ जाता है। मैं प्रायः इसी गुलमोहर तले सो जाती हूँ। उससे कोई संवाद कर मैं उसके एकांत में बाधा नहीं डालना चाहती।

आज एक नई खिड़की खुली है। लुभावनी मुस्कान लिए एक हमउम्र पुकारती है। मैं पलट कर देखती हूँ लेकिन पीछे कोई नहीं है, वह मुझे ही बुला रही है। मैं झिझकते हुए पास जाती हूँ। भूरी आँखों वाली लड़की मासूम अदा से अपने बाल झटकती है और कहती है-

 ‘मैं आपको प्रतिदिन यहाँ से गुज़रते देखती हूँ।’

किसी का यूँ मेरी उपस्थिति का संज्ञान लेना हर्षित कम शंकित अधिक करता है। मैं उसे पढ़ने की कोशिश करती हूँ। एक निष्कलुष मुस्कान उसके चेहरे पर खिली है। उसके उजास की किरणें मेरे अँधेरों को स्पर्श कर रही हैं। मैं तेज कदम बढ़ा वहाँ से दूर जाना चाहती हूँ। आज मैं और आगे निकल आई हूँ। यहाँ अपेक्षाकृत शांति है। मकान हैं लेकिन अधिकतर खिड़कियाँ बन्द। कुछ जो खुली हैं वह मुझे नहीं देख रहे।। कोई चिंता नहीं। मैंने आँखे बंद कीं, एक गहरी साँस ली। कई चेहरे और घटनाएँ आँखों के सामने घूम रही हैं। सब चेहरे गड्डमड्ड हैं।

मेरे बॉस की शक्ल मेरे पापा से मिल रही है। मैं उसे देख मुस्कराती हूँ। वह भी मुस्कराता है और शैतान में बदल जाता है। लिफ्ट अचानक रुक गई है।

माँ का चेहरा निकुंज दीदी का हो गया है। कपड़े वह दादी जैसे पहने है। सिलाई मशीन पर झुकी वह हम सब के लिए दीवाली की नई पोशाकें सिल रही है। मैं पास जाती हूँ। कहती हूँ बहुत देर हुई अब सो जाओ। माँ उठती है। सिर पर लिया पल्लू सरकता है। मैं चीख पड़ती हूँ। माँ कहाँ गई? यह तो कंकाल है।

सफेद छींटदार फ्रॉक में मैं हूँ लेकिन शक्ल गौरी की। मैं भाग रही हूँ…. तनु और लीना भी…. हमें पकड़ने चिंकी हमारे पीछे भाग रही है। भागते-भागते हम पार्क के अलग-अलग कोनों में निकल गए हैं। बड़े लोग हमारे नाम पुकार रहे हैं। वापस लौटते हैं। लीना  वापस नहीं लौटी। कहाँ गई? वह तनु के साथ थी लेकिन बस फव्वारे तक। वहाँ से वह अलग ओर भागी थी। पार्क के कोने में बने गार्ड रूम की दीवार के पीछे झाड़ियों में लीना सोई है। लेकिन क्यों? थकी थी तो घर क्यों नहीं गई। मैं पास जाती हूँ जगाने। लीना गौरी बन जाती है। मैं सहम कर आँखें खोल लेती हूँ। गौरी अकेली है घर पर। मुझे लौटना ही होगा। मैं दौड़ रही हूँ। मैं यह सब किसी से साझा नहीं कर सकती। मुझे सब अपने तक ही रखना होगा। बताने से कोई करेगा भी क्या? खिड़कियों पर काले पर्दे लगाने वाले कई हाथ स्वयं भी दागदार हैं। लौटकर गौरी के कमरे में झाँका। वह सोई है… अपनी गुड़िया को साथ सुलाए है। गुड़िया को हटा मैं उस से सट कर सो जाती हूँ। वह अपनी नन्ही बाहों में मुझे भर लेती है।

2

मुझे लगता है कुछ निर्णय लेना ज़रूरी है। उलझनें बढ़ती जा रही हैं। उपाय दिखाई नहीं देते। गौरी कोई बार्बी मूवी देख रही है। मेरे पास एक घण्टा तो आराम से है। बाहर आकर एक सिगरेट जलाई। पिछले चार महीने में यह सातवीं बार मैं सिगरेट छोड़ने में नाकामयाब हुई हूँ। मैं बुरी माँ नहीं हूँ… चाहती हूँ सिगरेट छोड़ना… लेकिन नहीं छोड़ पाती। नहीं छूटतीं कुछ चीज़ें जीवन में… हम स्वीकार क्यों नहीं लेते! सिगरेट के कुछ लम्बे कश खींच मैंने उसे फेंक दिया। बूट्स से उसे रगड़ते मैंने देखा कि सिगरेट बॉस जैसी दिखती है… धीरे धीरे मुझे लीलती हुई।

मैं फिर जगमगाती सड़क पर बढ़ चली। पीले गुलाबों वाली खिड़की मुझे पुकार रही है। मैं नहीं रुकती। नई खिड़की वाली लड़की मेरे पीछे-पीछे आई। मैंने गति और बढ़ा दी। मैं गुलमोहर के पीछे छुप गई। यह खिड़की आज बन्द क्यों है। खुलती क्यों नहीं। मैंने खिड़की खटखटा दी शायद। वह अचानक से खुल गई। मैं घबरा गई लेकिन कहती हूँ- आप कुछ गाते क्यों नहीं? वह अचरज से मुझे देखता है  फिर गाने लगता है। उसकी स्वरलहरियों की थपक से मैं सो जाती हूँ। सुबह आँख खुली तो देखती हूँ वहाँ मैं अकेली नहीं हूँ। एक बड़ा समूह इसी छाँव तले सो रहा है। यह भीड़ मुझे पहले क्यों नहीं दिखी? यह कैसा मायाजाल है? मुझे लौटना है।

3

आज मौसम सुहावना है। ऑफिस की भी छुट्टी। गौरी और मैं उसकी फ्रेंड कियारा के फार्म पर जन्मदिन की पार्टी में गए। खूबसूरत दिन जल्दी ढल जाया करते हैं। शाम भी आज जल्दी ही चली आई है। गौरी रिटर्न गिफ्ट देख रही है। उसने दो गेम भी जीते, वह खुश है। मुझे उस बच्चे का चेहरा भी याद है जो कोई भी गेम नहीं जीत पाया था। हमनें उत्सवों को भी प्रतियोगिता बना दिया है… जीत को खुशी का पर्याय। हर सुख की नींव में किसी का दुख दबा है। हर हँसी किसी के आँसुओं से तर। सांझ की लालिमा बढ़ रही है। कियारा और गौरी का गलबहियाँ करते, मुस्कराता हुआ फोटो मेरे सामने है। मुझे लगता है इस खुशनुमा मन से घूमना अच्छा रहेगा। मैं सड़क पर निकल चली हूँ। आज मेरी चाल धीमी है। मैं चारों ओर देख रही हूँ। किसी से नज़रें नहीं चुरा रही। मैंने जाना यह चोर बाज़ार है…कई बेशकीमती नगीने छुपाए। कभी समय हुआ तो तलाशने पर बहुत कुछ पाया जा सकता है। पीले गुलाब वाली खिड़की मेरे हाथ में फोटो को देख चिल्लाई है-

‘तुम्हारी बेटी?’

मैंने ‘हाँ’ में सिर हिलाया।

‘तुम जैसी ही सुंदर है।’

अपनी प्रशंसा सुने मानो युग बीत गए हैं। मुझे अच्छा लगा। तभी कई खिड़कियाँ तेजी से खुली हैं। वह सब कह रहे हैं कि बच्चियाँ कितनी प्यारी हैं। वह दोनों को दुआएँ दे रहे हैं। दुआओं की मुझे ज़रूरत है। मैं सहेज ले रही हूँ। मैं उन्हें गँवा नहीं सकती। मैं नई खिड़कियों की पहचान याद रखने का प्रयास कर रही हूँ। अपने शुभचिंतकों को याद न रखना अनुचित होगा। आज मैं आगे नहीं जा पाई। यहीं ठहरी रह गई। मुझे अहसास हुआ कि इस सड़क पर अनुरागी लोगों के घर हैं। किसी अपरिचित पर इतना स्नेह कौन लुटाता है? मुझे अपने खोल से निकलना होगा। मैं घर लौट रही हूँ लेकिन कल पुनः आने की एक बेताबी है।

4

डिवोर्स की पहली डेट थी। प्रसून नहीं आया। अगली डेट दो महीने बाद की मिली है। जब हम मिलना चाहते थे… शादी करना चाहते थे तब परिवार साथ नहीं था… कोर्ट ने हाथ बढ़ाया, विवाह कराया। अब हम अलग होना चाहते हैं, परिवार साथ है पर कोर्ट अड़चनें लगा रहा है। समर्थन की नदी कभी भी अपना रुख बदल लेती है। तान्या का फोन आया था वह कह रही थी-

 “प्रसून गौरी की कस्टडी चाहता है।”

मैं हँस पड़ी। मैंने कहा-

“कोई चिंता नहीं। मैं किसी भी बच्ची को गौरी कह, उसके सामने खड़ा कर दूँगी। वह उसे ही गौरी मान लेगा। वह गौरी की शक्ल भी पहचानता है क्या?”

मैं देर तक हँसती रही।

वह बोली- “ऐसे क्यों हँसती हो? तुम्हारी चिंता हो रही है। अपना ध्यान रखो।”

फोन रख दिया था पर भय ने मुझ पर क़ब्ज़ा कर लिया। मैं गौरी को नहीं खो सकती। मैं प्रसून को खो सकती हूँ क्या? नहीं, प्रश्न यह है कि मैं प्रसून को पा सकती हूँ क्या? प्रसून को कभी मैंने पाया भी था क्या?

मैं लिख रही हूँ-

‘हम दुख के नहीं सुखद स्मृतियों के सताए हुए हैं।’

खिड़की पर दस्तक हुई है। मैं आगे नहीं लिख पाती। अपने घर की इस खिड़की से मैं अनजान थी। कभी खोली ही नहीं। दस्तक बढ़ती जाती है। खिड़की खोलती हूँ-

‘स्मृतियों को दंश न बनाओ। उन्हें प्रसून सा महकने दो।’

‘…और दंश प्रसून के ही दिए हों तब?’

‘तब घास बन जाओ। सब पर छा जाओ,’

वे मुस्करा रहे हैं।

मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा।

‘आपको मेरा पता किसने दिया।’

‘आत्मा अपना पता स्वयं तलाश लेती है।’

मैं इस कथन का अर्थ नहीं जानती पर अनुभूति सुखद है।

‘शुभरात्रि। keep smiling …. मुस्कान सौंदर्य निखारती है।’

मैं यह खिड़की खुली रखना चाहती हूँ। यहाँ से आती हवा में एक ख़ुशबू है।

सुबह किसी आवाज़ से नींद उचटी है। मैंने समय देखा। अभी छह ही बजे हैं। गौरी निश्चिन्त सोई है मेरे हाथ पर। भ्रम हुआ होगा। मैं आँखे मूँद लेती हूँ लेकिन फिर कोई आवाज़ है। मैं उठती हूँ। रात को खुली छोड़ी खिड़की के पल्ले हवा से हिल रहे हैं। मैं उनींदी आँखों से चली आती हूँ खिड़की पर। यहाँ से सनराइज़ दिखता है।

‘तुम मुस्करा दो तो सुबह खिले

जो अटक गई थी तुम्हारे जाने से

जो लौट आओ तो

ठहरी हुई वह साँस मिले’

‘गुड मॉर्निंग’, मैं कहती हूँ। हालाँकि मेरे लिए यह रात ही है।

‘अहा, एक कली खिली।’

मैं क्या कहूँ? बस एक मौन।

 ‘तुम्हारे साथ रहकर

अकसर मुझे महसूस हुआ है

कि हर बात का एक मतलब होता है,

यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,

हवा का खिड़की से आने का,

और धूप का दीवार पर

चढ़कर चले जाने का।’

मैं खिड़की से आती हवा की गिरफ़्त में हूँ।

‘आप कवि हैं?’, पूछे बिना नहीं रह पाती।

‘कुछ भले मानस ऐसा मानते हैं,’

 वे मुस्कराते हैं। आगे कहते हैं-

‘मैंने कब कहा

कोई मेरे साथ चले

चाहा ज़रूर’

क्या वे मेरा मन पढ़ रहे हैं?

‘आप सुंदर लिखते हैं’ ,मैं कहती हूँ।

‘सर्वेश्वरदयाल को जानती हो?’

मैं अपने आस-पास सभी चेहरों को याद करते कहती हूँ – ‘नहीं’

‘पढ़ना इन्हें।’

वे स्नेह छोड़ चले गए हैं। मैं दूसरी खिड़की खोल ‘सर्वेश्वरदयाल’ तलाश रही हूँ।

5

गौरी के लिए उसके पसंदीदा पेनकेक्स बनाकर उसे जगाती हूँ। वह चहकी- ‘मम्मी आप कितना प्यारा गाती हो’, तब अहसास हुआ कि अरसे बाद मैं गुनगुना रही हूँ। यह गुनगुनाहट पूरे दिन तारी रही। पिछले दिनों चार जॉब्स के लिए अप्लाई किया था एक से इंटरव्यू की कॉल आई है। मेरी कैरियर कंसलटेंट का कहना है कि इंटरव्यू बस फॉर्मेलिटी है। नई जॉब के लिए शहर बदलना होगा और केस इस शहर में चलेगा। मुक्ति का मार्ग सरल नहीं होता पर आज मैं इन सब के बारे में नहीं सोच रही। मैं आज को जीना चाहती हूँ।

लंचब्रेक में मैंने आज एकांत नहीं तलाशा… सबके साथ ही लंच किया। बॉस वहाँ से गुज़रा पर मेरी हँसी नहीं छीन पाया। मैं सुरुचि का हाथ पकड़े रही। शायद उसी समय अमन ने भी मेरे कान में शलभ का कोई सीक्रेट बताया था और शलभ उसे मारने दौड़ा था। अमन वहीं बैठा रहा लेकिन बॉस डर कर भाग गया।

जाने क्यों ऑफिस में मैंने कई बार वह सड़क तलाशी। मुझे लगता है कि यहीं-कहीं आस-पास है पर काम की अधिकता से मैं तलाश नहीं पाई। आज दिन और शाम के बीच दूरी कुछ ज़्यादा ही है। मैं अपनी बेताबी पर हैरान भी हूँ और खुश भी।

6

यह सड़क अब सड़क भर नहीं है। मेरा दूसरा घर बन चुकी है। क्या हैरानी है? जिनके अपने घर नहीं होते सड़कें सदा ही से उनका घर बनी हैं। भले ही वह बुरे मौसम से आपकी रक्षा न कर पाए… भले ही किसी अनियंत्रित गाड़ी के नीचे आप कुचल दिए जाओ… भले ही अपेक्षित निजता यहाँ अप्राप्य है लेकिन हर प्रकार की दरिद्रता का विकल्प सड़कें ही हैं। सड़कों ने कभी किसी के लिए भी अपनी बाहें नहीं सिकोड़ी।

पीले गुलाब वाली खिड़की पर आजकल मोगरा खिला है। मैं उसे देख मुस्कराती हूँ। वह खिड़की मेरे मुँह पर ही बन्द कर देती है। मैं हतप्रभ खड़ी हूँ। बराबर वाली खिड़की से नीली आँखों वाली लड़की कहती है- वह तुमसे नाराज़ है। तुम आजकल उसके पास रुकती जो नहीं।

मैं नहीं रुकती यह सच है क्या? हो भी सकता है। एक लंबे समय से मैं अपने पास भी नहीं रुकती।

मैं किसी अपराधिनी की तरह नज़रें झुकाए आगे बढ़ जाती हूँ। प्रेम की अभिव्यक्ति न हो तब वह प्रेम नहीं कहलाता पर अप्रेम व्यक्त न करने पर भी उसकी तरंगें द्रुत गति से संदेश सम्प्रेषित कर देती हैं। कवि की खिड़की पर चिनार की पत्तियां  बिखरी हैं। चिनार..विरह का सुनहरा रंग!

‘इन सूखे पत्तों में इतना आकर्षण किसने भर दिया?’,

मैं पूछती हूँ।

कवि के चेहरे पर एक रहस्यमयी  मुस्कान पल में जन्मी और क्षण में ही बिखर गई।

‘साहित्य और कला में दुख का रूप मोहना है। जो अनिश्चितताएँ जीवन में डराती हैं, गल्प में वही लुभाती हैं। ‘

वे मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करते हैं। न मिलने पर आगे कहते हैं-

‘अधिकतर प्रसिद्व उपन्यास दुखांत हैं- हेमलेट, जूलियस सीज़र, निर्मला….,’

‘न न! दुख की मार्केटिंग नहीं होनी चाहिए,’

मैं उन्हें बीच में ही टोक देती हूँ।

‘सुख की शॉर्टेज है… सुख की डिमांड है …वही क्यों न सप्लाई किया जाए ? सुख क्यों नहीं बिक सकता?’, मैं पूछती हूँ।

‘औरों का सुख हमें और दुखी जो करता है। अपने से अधिक दुखी पात्रों से गुज़रते अवचेतन में हमारा अहम् तुष्ट होता है, चेतन में हम इसे संवेदना कहते हैं…हम किताबें पढ़… फिल्में देख रोते हैं। ज्यों सच ही विकल होते तब क्या अपने आस-पास दुख हरने का प्रयास न करते?’

‘हम्म’,

शायद वे सही थे।

‘जो तुम कहो तो मैं लिखूँ एक सुखांत कहानी?’,

यह कहते उनके स्वर से उम्र झर गई। यह स्वर कैसा मीठा है।

‘फिर कौन पढ़ेगा उसे?’, मैं पूछती हूँ।

‘जिसके लिए लिखी जाए क्या उसका ही पढ़ लेना काफी न होगा?’

कवि को अधिक समझ न पाने के बावजूद भी मैं उन्हें सुनना चाहती हूँ पर रहस्यों का एक झुरमुट उन्हें घेरे रहता है। मैं सहजता की तलाश में हूँ।

लौटते हुए नीली आँखों वाली लड़की से पुनः भेंट हो गई। वह मुझे पुकारती है। फिर क्षण भर रुकती है ज्यों कुछ निर्णय करना चाहती हो फिर ससंकोच कहती है-

‘क्या सच ही सफेद केशधारी वृद्ध कवि तुम्हारे प्रेम में हैं?’

मेरा समूचा बदन काँप रहा है। इतना निर्बल मैंने अपने बॉस के समक्ष भी स्वयं को नहीं पाया। मैं लौट रही हूँ… लौट रही हूँ और सोच रही हूँ कि इस सड़क की विलक्षणता छद्म थी क्या? यहाँ भी वैसी ही ईर्ष्या है… द्वेष है… जजमेंट्स हैं।

मैं घर पहुँच पाती उससे पहले ही किसी ने पुकारा है। आज मैंने पहली बार संज्ञान लिया उनके केशों में कहीं-कहीं चाँदी झलकती है।

‘मुझसे बचना चाह रही थी न,’

इस स्वर में अधिकार अधिक है, उलाहना या प्यार? मैं निर्धारित नहीं कर पाती लेकिन मैं रुक गई हूँ। शायद मेरी आँखें भीगी हैं।

वे कह रहे हैं कि मैं रो सकती हूँ। मन हल्का होगा। मैं सच ही रो रही हूँ। रोते-रोते जाने कब सो भी गई। देर रात आँख खुली तो जाना कि वह अभी तक ठहरे हैं। वह कहते हैं कि मैं किसी शिशु की तरह रोती हूँ। मैं वही बन जाना चाहती हूँ। मैं माँ का आँचल चाहती हूँ… मैं पिता का संरक्षण चाहती हूँ। मैं एक गोद में सिमट इस दुनिया से छुप जाना चाहती हूँ।

वे कह रहे हैं-

‘दुनिया से छुपो नहीं, उससे मिलो… मेरी नज़र से मिलो… दुनिया खूबसूरत लगेगी।’

मैं उनकी नज़र उधार ले लेना चाहती हूँ।

वे कह रहे हैं-

‘मेरी नज़र ही नहीं मेरे मन-प्राण भी तुम्हारे लिए हाज़िर हैं।’

मैं सच में किसी पर इतना अधिकार चाहती हूँ। लेकिन नहीं… उनसे मेरा रिश्ता ही क्या है? मैं पूछती हूँ-

‘लेकिन क्यों?’

‘कुछ क्यों के उत्तर दिए नहीं जा सकते केवल महसूस किए जा सकते हैं।’

मैं मौन उन्हें देख रही हूँ। हमारे चेहरों पर क़िरदार जाने कौन सी लिपि में लिखे जाते हैं, मैं पढ़ नहीं पाती हूँ।

‘उत्तर तलाशना। प्रतीक्षा करूँगा।’

वे लौट गए हैं। मैं भी लौट आई हूँ। सुबह की गुनगुनाहट दम तोड़ चुकी है। एक सन्नाटा साँय-साँय कर रहा है। गौरी का माथा चूम उसे देखती रही। उसके कमरे से बाहर आ कर आखिरी सिगरेट सुलगा, मैं फिर इस नई खिड़की पर बैठी हूँ। न कोई दिख रहा है… न किसी की प्रतीक्षा है। रात की नीरवता को चीरती पंखों की फड़फड़ाहट सुनाई दे रही है। छोटे-छोटे कई चमगादड़ मेरे चारों ओर घूम रहे हैं। कुछ के चेहरे मैं पहचानती हूँ कुछ से पूर्णतः अनभिज्ञ। अचानक वे सब मिलकर एक बड़ा चेहरा बन गए हैं। मुझे निगल जाना चाहते हैं। गौरी को भी निगल सकते हैं। मुझे जीतना होगा। मैं हिम्मत करके उन्हें बाहर धकेलती हूँ। खिड़की बन्द करती हूँ।

7

एक भयावह रात की सुबह मोहक भी हो सकती है। यह कल्पनातीत लगता है किन्तु सत्य यही है। सुबह अंशुकिरणों ने हौले से मुझे छुआ है। उठ कर देखती हूँ तो खिड़की पर हरसिंगार गमक रहा है। मैं अंजुली में भर लेती हूँ। काश कुछ लम्हों को,जीवन को भी यूँ ही सहेजा जा सकता।

‘बेहद खूबसूरत’

बिना किसी पदचाप चला आया कवि का यह स्वर मुझे चौंका देता है।

‘न, न! आप नहीं आपके पीछे लगी वह चिनार की पेंटिंग। आपने बनाई है?’

‘जी’,

मैं सकुचा कर जवाब देती हूँ। मेरे एकांत पर उनका यह अतिक्रमण मुझे इस पल भला नहीं लग रहा।

‘चिनार ने फिर बिखरा दी है

एक सुनहरी चादर…..

पत्तों के बदलते रंग जैसी

ख़्वाहिशें भी कुछ और

अमीर हो गयी हैं.

पेड़ो से छनकर आती किरणों ने

छितरा दिए हैं

यादों के इंद्रधनुष……

पलाश के दोने में

एक सुर्ख़ नाम सहेज रखा है मैंने’

कविता वे अपनी जेब में लिए ही चलते हैं शायद।

‘तुम जानती हो हम सब कोई न कोई नाम सहेजे हैं। हम अपने दोने के नाम में खोए रह जाते हैं यही दुख का कारण है। हमें तलाशना उसको है जो हमारे नाम का दोना लिए हो’,

वे कह रहे हैं मैं उन्हें मौन सुन रही हूँ। अचानक मुझे एहसास हुआ कि उन्हें सुनना मुझे अच्छा लगने लगा है। मैं चाहती हूँ कि आज दिन रुका रहे। वे यूँ ही बोलते रहें…मैं यूँ ही सुनती रहूँ।

‘कब लौटोगी?’,

वे पूछ रहे हैं।

ओहो, यह इशारा है कि वक्त थम नहीं सकता। मुझे ऑफिस जाना होगा… गौरी को स्कूल।

‘वही शाम तक। मैं कहती हूँ’

‘मैं इंतज़ार करुँगा। बाय’

‘बाय’

मैं उन्हें पुकारना चाहती हूँ पर पुकार नहीं पाती। एक सन्देश छोड़ती हूँ।

‘आपके साथ रहकर

अकसर मुझे लगा है

कि मैं असमर्थताओं से नहीं

सम्भावनाओं से घिरी हूँ।’

वे मुड़ते है और मुस्कराते हुए पर्ची उठा लेते है ज्यों वे जानते हों कि मैं पुकारना चाहूँगी।

‘तो जान ही लिया सर्वेश्वरदयाल को तुमने। अब उनके प्रेम में मुझे न भूल जाना।’

वे मुस्करा रहें हैं। उनकी मुस्कराहट का संक्रमण मुझे भी छू रहा है।

8

आज गौरी को बुखार हुआ। सुबह वह बिल्कुल ठीक थी। करीब दस बजे स्कूल से फोन आया। ग्यारह बजे क्लाइंट से मेरी इम्पोर्टेन्ट मीटिंग थी। बॉस से कहती तो दिक्कत होती। मैंने शलभ और सुरुचि को बताया और चली आई। गौरी को सीधे डॉक्टर चेतन को दिखाया। वह बोले कोई चिंता की बात नहीं। मौसमी बुखार है। कुछ दवाइयाँ लिखी हैं। गौरी का बदन गीले कपड़े से पोंछ उसे दवाई दी। वह मेरी गोदी में ही सो गई। मैं उसके बाल सहला रही हूँ। मेरे कुछ आँसू उसके बालों में उलझे हैं। मैं कहना चाहती हूँ कि मैं थक गई हूँ…. मैं रोना चाहती हूँ…. मैं रोने के लिए एक कंधा चाहती हूँ।

जाने वह कौन सा पल था जब मैंने स्वयं को पुनः इस सड़क पर पाया। आज मैं अदृश्य होकर यहाँ से गुज़रना चाहती हूँ। पीले फूलों वाली खिड़की की महिला से राह में कई जगह सामना हुआ। शायद यह उसके वॉक का समय है। मन में एक टीस ज़रूर उठी पर मैं वहाँ से बिना पदचाप आगे बढ़ गई। गुलमोहर के पेड़ के नीचे गीत की कोई पंक्ति बढ़कर मेरी राह रोकती है लेकिन मैं नहीं रुकती। मेरी आँखें कवि को तलाश रही हैं। उन्हें उनकी खिड़की पर न पाकर मैं मायूस हो जाती हूँ। पुकारती हूँ पर कोई उत्तर नहीं। मैं निरुद्देश्य आगे बढ़ गई हूँ। अनजान खिड़कियाँ मेरे चारों ओर हैं। एक खिड़की के बाहर कवि को देख मैं ठिठक जाती हूँ। यह किसी कॉलेज गर्ल की खिड़की है। वह लज्जाकर कवि को सुन रही है। उसके चेहरे के सुर्ख़ रंग को देख मेरे चेहरे का रंग सफेद पड़ गया है। कवि जाने के लिए मुड़ते हैं। मैंने देखा उनका चेहरा बॉस से मिलता है। चेहरे पर वही विद्रुप मुस्कान है।

 वे उस खिड़की से दूसरी खिड़की पर जा पहुँचे है। उन्होंने चिनार के कुछ पत्ते हर खिड़की पर छितरा दिए है। हर खिड़की का रंग सुनहरा होता जाता है। एक डोर इन सुनहरी खिड़कियों से उनकी खिड़की तक बँधती जाती है। उन्हें बस डोर खींचनी है। हर खिड़की पर एक कठपुतली है। वे काला जादू जानते हैं? वे मुझे भी कठपुतली बना देंगे?

भीड़ में अकेलापन और तीता हो जाता है। मैं अपने अकेलेपन को समेट लौट आई हूँ। गौरी की दवाई का भी समय हो गया है। पहले दलिया देकर तब उसे दवाई खिलानी है।

 “हाऊ आर यू फीलिंग नाउ?”,

मैं उसका माथा छूते हुए पूछती हूँ। वह मुस्कराती है। कमरा फूलों से भर जाता है।

“मम्मी मैं खेल लूँ?” वह पूछती है।

मैं उसका डॉल सेट उसे पलंग पर ही दे देती हूँ।

बॉस की कॉल है। मैं नहीं उठाती। फोन स्विच ऑफ कर मैं लैपटॉप खोल लेती हूँ। चिनार की पत्तियाँ खिड़की से अंदर आ रही हैं। मुझे खिड़की बन्द कर देनी चाहिए थी। अब देर हो चुकी। वे कह रहे हैं-

‘बहारों में टेसू हो तुम

खिली-खिली सुर्ख अंगार

पतझड़ में चिनार हो तुम

झरती बन कंचन हर द्वार’

पत्तों का पूरा गलीचा बिछ गया है। न मैं खिड़की बन्द करती हूँ और न ही उत्तर देती हूँ। अनकहे को पढ़ना कठिन होगा क्या?

9

हमारी पसन्द-नापसंद महत्वहीन हो जाती है जब कोई चुपके से हमारी आदतों में शामिल हो जाता है।

हर शाम मन आतुर हो जाता है जगमगाती सड़क की ओर। मैं सप्रयास स्वयं को रोकती हूँ। वहाँ की हवाओं में अवश्य ही अफ़ीम घुली है।

ऑफिस और गौरी … गौरी और ऑफिस के बीच कहीं एक रिक्तता है। मैं इसे भरना चाहती हूँ। कभी मंज़िल दिखती है, राह नहीं। कभी राहें अनेक खुल जाती है पर मंज़िल नदारद। यह सड़क कहाँ जाती है? कितने मोड़ हैं? अंत कहाँ?

खिड़की पर आज सहसा चाँद उगा है-

‘चाँद की चाँदनी सा तेरा साथ
हौले हौले कुछ यूँ ही
पसरा है ज़िंदगी में
बिना कोई शोर बिना कोई पदचाप
जैसे चाँदनी बिखर जाती है
हर शाम आँगन में
तारो की कुछ सरगोशी
और मद्धिम-सी दीपक की लौ
निष्काम…निर्लिप्त

बस शीतल सा सुकून भरा

एक अहसास!

‘मेरे सुख की मार्केटिंग कर दोगी क्या?’

स्वर मासूम है। मैं अपने द्वंद से स्वयं ही आहत। सपने भी हमें रुला सकते हैं। आभासी दुनिया यथार्थ से अधिक करीबी हो सकती है। हर ज़हीन व्यक्ति का अनदेखा एक क्रूर चेहरा होता है। कई क्रूर आँखोंं के आँसूओं ने धोए हैं धरती के दाग। कुरूप सच या मोहक झूठ किस का चुनाव सुखकर है? जो दुनिया को नहीं छल पाते, वह स्वयं को छलते हैं। वह निष्काम प्रेम में विश्वास करते हैं। हर रिश्ते में एक विक्टिम है, एक कलप्रिट। कुछ लोग हर रिश्ते में ही विक्टिम का रोल पाते हैं। क्या मैं एक और रिश्ते में विक्टिम होने के लिए तैयार हूँ? मेरे पास कभी ‘राजा’ की पर्ची क्यों नहीं आती? मैं थक रही हूँ। मैं सुकून चाहती हूँ। किसी बेखुदी में मैं गुलमोहर के पेड़ वाली खिड़की पर झाँक कर आती हूँ। वह अभी भी गा रहा है। भीड़ पहले से भी अधिक है। मैं आँखें बंद कर गीत सुनना चाहती हूँ। कभी कभी लगता है कि मैं गीत पर अपना नाम चाहती हूँ। किसी और के नाम का गीत मुझे नहीं मोहता।

10

बॉस नाराज़ है। बिना बताए नहीं जाना चाहिए था। बताने पर वह उलझा देता। वह कह रहा है-

“ओवरटाइम करो। आज डेडलाइन है।”

बॉस के पीछे खड़ा अमन मुझे शांत रहने का इशारा कर रहा है। मैंने गौरी की आया को देर तक रुकने के लिए फोन कर दिया। अमन, शलभ और सुरुचि तीनों मेरे साथ ऑफिस में रुके हैं। बॉस ने दो- तीन चक्कर लगाए और फिर अपना बैग उठा चला गया। शलभ उसकी झल्लाहट की नक़ल उतार रहा है। अमन ने पिज़्ज़ा आर्डर किया। सुरुचि से मैं बहुत कुछ टिप्स सीख रही हूँ। काम खत्म होते-होते आठ बज गए थे। गौरी की चिंता न हो तो यूँ दोस्तों के साथ समय बिताया जा सकता है। प्रसून को गौरी की कस्टडी मिल जाए तो क्या बुरा है?

घर पहुँचते नौ बज गए। गौरी ने खाना नहीं खाया। वह मेरा इंतज़ार कर रही है। पिज़्ज़ा खाते हुए क्या मैंने गौरी को याद किया था? शायद किया था… हाँ पक्का किया था। मैंने सोचा था गौरी होती तो चोकोलावा केक मँगाने की भी ज़िद करती। मैं अपनी नज़रों में गिरने से बच गई हूँ। मैंने गौरी को गले लगा लिया। उसे अपने हाथों से खाना खिलाया।

“गौरी आई कान्ट लिव विदआउट यु। यु आर माइ लाइफ शोना”,

कहते हुए मैं उसका माथा चूम रही हूँ। वह नन्ही अँगुलियों से मेरे आँसू पोंछ रही है। जब तक वह सो नहीं जाती मैं उसके साथ हूँ। वह जल्द ही सो गई। मैं आदतन जाग रही हूँ। दिन की गतिविधियाँ सुनने-सुनाने वाला कोई पास न हो तो रातों का क्या औचित्य? साइड स्टूल की ड्रावर से दवाई की बोतल निकालती हूँ। बोतल की आखिरी गोली खाते हुए मैं खिड़की पर फड़फड़ाती हुई पर्ची पढ़ रही हूँ-

‘आँगन में हौले हौले पाँव पसारती
सुरमयी सी शाम,
जानती हो जैसे कि

आज भी तुम नहीं आओगी,
तुम तो नहीं….लेकिन वो कुछ
शर्मिंदा सी लगती है
तुम्हें बिना लिए आने का

खुद को दोष देती

पंछियों ने भी मौन रह

मानो शाम का ही समर्थन किया है,
उन्हें कैसे समझाऊँ? तुम ही बतलाओ
धुंधलका बाहर नहीं, मेरे भीतर अधिक है

बाहर तो फैली है दूर तलक नीरवता
पर भीतर का कोलाहल
कई रातों से मुझे जगाए है..!’

यह नीरवता… यह कोलाहल दोनों मेरे भीतर एकरूप  रहते हैं। मैं दोनों से डरती हूँ। मैं इनसे एक मुलाकात चाहती हूँ। मैं इनसे लड़ना चाहती हूँ। मैं एक साथी चाहती हूँ जिसके कहकहे इस नीरवता को भंग करे… मैं एक साथी चाहती हूँ जिसके मृदुल स्वर से सब कोलाहल शांत हो जाए।

‘मुझे अकेला छोड़ दीजिए’, मैं कह उठती हूँ।

‘I am here… with you… for you!’

वे वही क्यों कह देते हैं जो मैं सुनना चाहती हूँ।

खिड़की की चौखट आँसूओं से भीगी है।

11

रात ही रात में खिड़की की नमी आकाश तक फैल गई। दो स्याह दुखों का साझा रंग इंद्रधनुषी होता है। इंद्रधनुष क्या है? अधूरी धूप और अधूरी बूंदों के

प्रेम भरे साझा हस्ताक्षर! किसी एक के हस्ताक्षर से कोई कॉन्ट्रैक्ट पूरा नहीं होता। कवि के हस्ताक्षर खिड़की पर छूटे हुए है। क्या मैं भी अपने हस्ताक्षर कर दूँ?

कवि की तलाश में मैं सड़क पर हूँ। मैं यह देख कर हैरान हूँ कि कवि के हस्ताक्षर कई खिड़कियों पर हैं। लेखक ऑटोग्राफ देने में अभ्यस्त होते हैं। लेखकों के ऑटोग्राफ पा, लोग गर्वित होते हैं। मैं क्यों उदास हूँ? मुझे कवि नहीं चाहिए… कविता भी नहीं… मैं एक दोस्त चाहती हूँ। मैं दोस्ती में विश्वास चाहती हूँ। मैं दोस्तों की भीड़ नहीं चाहती। मैं एकनिष्ठता चाहती हूँ। कवि पुकार रहे हैं पर मैं भाग रही हूँ। मैं अपनी क्षमता से भी तेज भाग रही हूँ। मैं अपनी आत्मा पर एक और आघात नहीं चाहती। वे पीछे छूट गए है। मैं वह  खिड़की बन्द कर देती हूँ जिससे वे मुझ तक पहुँच न सकें।

मैं गौरी को जगा रही हूँ। आज हम साथ रहेंगे। नो ऑफिस? वह हैरान है। यस, नो ऑफिस। मम्मा- गौरी टाइम ओनली। मैं उसे आश्वस्त करती हूँ। वह मेरे गले में बाँह डाल कर फिर सो गई है। जब ऑफिस नहीं जाना तब घड़ी से क्यों दौड़ लगानी। मैं भी कुछ और देर सो सकती हूँ।

तान्या का फोन आया है। वह कह रही है कि प्रसून मिलना चाहता है। घर का दरवाज़ा अचानक खुल गया है। मैं गौरी को पूछ रही हूँ-

‘क्या मम्मा-गौरी टाइम में एक नाम और शामिल किया जा सकता है?’,

प्रश्न खत्म होने से पहले ही गौरी ‘पापा’ कहते हुए हाथ फैलाकर दरवाज़े की ओर दौड़ गई। प्रसून उसे गोदी में लिए मुस्करा रहा है। वह प्रसून को देख मुस्करा रही है। वह पापा को किस्सी दे रही है। पापा उसके लिए खिलौने लाए हैं। हर मूवी में पापा से बच्चियाँ यूँ ही मिलती हैं। बस मूवी के अंत में मम्मी-पापा एक हो जाया करते हैं लेकिन यह तो जीवन है… नहीं यह सपना है…. भयानक सपना…. आँख खुलती है…. शरीर पसीने से भीगा है… गौरी मेरे बराबर गहरी नींद सोई है। समय देखा सुबह के सात। सुबह का सपना सच होता है…. माँ कहती है… है नहीं, कहती थी जब कहने लायक थी। अस्थिपंजर कब बोलते हैं? माँ के अस्थिपंजर होने का तो सपना नहीं आया था। वह अस्थिपंजर कैसे बन गई? पहले माँ की आवाज़ बदली फिर खाना फँसा और फिर पानी भी। आवाज़ बदलने को कौन पहचानता, माँ इन सालों में पूरी ही बदल गई थी कोई देख पाया था क्या? वह स्वयं भी तो नहीं। और गले में तो औरतों के जाने क्या-क्या फँसा ही रहता है। जो बातें वह कभी बोल नहीं पाईं, उपेक्षा से ऊब, उन बातों ने बगावत की … यूनियन बनाई और एकत्र हो, एक गाँठ बनकर फँस गईं। चीरा लगा… दवाइयाँ दी गईं… मशीन से जलाया गया…. लेकिन यह माँ थी … जो बातें मन में दफना ली वह कभी पिघलने ही नहीं दी फिर। पिघली तो माँ के शरीर की वसा..  गाँठ ज्यों की त्यों। बाती के अनवरत तिल-तिल जलने पर वसा का उपभोग कोई आश्चर्य नहीं।

मिले हो तुम मुझको बड़े नसीबों से… मिला नहीं कोई बस मेरे फोन की रिंगटोन है जो अनजान नम्बर से बज उठा है।

“हैलो”, मैंने कहा।

“गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले”

“कौन?”

“चार दिन की ज़िंदगी में नाराज़गी अच्छी नहीं

अपनों से पूछे हो ‘कौन’ यह अदायगी अच्छी नहीं”

फोन रखने ही वाली थी जब आवाज़ आई-

“यशोवर्धन प्रताप… नाम तो सुना ही होगा!”

“अरे आप…”, उफ्फ! एक खिड़की खुली ही छुटी थी पर मन का कोई ईमान ही नहीं। इस भूल पर भी हज़ार तर्क ठुकरा कर उछल पड़ा।

“नम्बर कैसे मिला?”

“जहाँ चाह वहाँ राह।”

मुझे लगा मैं रो पडूँगी।

“आई क्यों नहीं?”

“पता नहीं था कि कोई इंतज़ार करेगा।”

“तुम्हारा मन तो जानता था। तुम न स्वीकारो चाहे।”

मेरी सिसकियाँ उन तक पहुँच रहीं थीं शायद।

वे बोले-

“न न रोते नहीं।खुश रहो। मुस्कराती रहो। आज कुछ लिखूँगा तुम्हारे लिए। आओगी न?”

मैंने ‘हाँ’ में सिर हिलाया।

“बोलो? आओगी न?”

“जी”, मैंने आँसुओंं को रोकते, भरे गले से बमुश्किल कहा।

भुरभुरी मिट्टी के पुतले है हम। कोई छूता है और बिखर जाते हैं। सबके साथ रहते भी जाने कैसे एक निर्वात हमारे अंदर बन जाता है। चारों ओर से हवा उसे भरने दौड़ पड़ती है। द्वंद का बवंडर हमें घेर लेता है। आँखों में धूल भर जाती है। कुछ स्पष्ट नहीं दिखता।

12

गौरी को जगाया। दोनों तैयार होकर ‘फ्रोजेन-2’ का मॉर्निंग शो देखने गए। गौरी को कुछ झूलों पर बिठाया। शॉपिंग की। barbeque nation में लंच किया। गौरी ने कहा-

“काश! आज मेरा बर्थडे होता।”

मैंने कहा-

“मान लो कि आज ही है।”

बर्थ डे कैप लगाकर केक काटती गौरी के चेहरे पर निर्दोष हँसी खिल उठी। तालियों की गूँज के साथ ‘हैप्पी बर्थडे टू यू’ के स्वर हवा में तैर गए। कुछ मासूम झूठ सच मान लेने भर से खुशियाँ यूँ ही सहज मिल जाया करती हैं क्या? मन में सोचा-

‘Give me the beautiful lie and you can keep your ugly truth. What you don’t know won’t hurt you.’

(Anonymous)

मॉल की दुनिया उस जगमगाती सड़क जैसी ही खूबसूरत प्रतीत होती है पर यहाँ खुशी की कीमत बहुत अधिक है हम बाहर आ जाते हैं।

“गौरी, घर या पार्क?”, मैंने पूछा।

गौरी ने पार्क चुना। वह पार्क में स्लाइड पर दौड़ गई। बच्चों के लिए नीचे गिरना भी कैसा रोचक है। हम जाने क्यों ऊँचाइयों में ही उलझे रहते हैं। गौरी जल्द ही दूसरे झूले पर दौड़ गई। वह पार्क के हर झूले पर बैठेगी। मैं पास ही बेंच पर बैठ उसे देख रही हूँ। मैं उसके आस-पास खेलते और बच्चों को भी देख रही हूँ। मैं उन बच्चों के साथ आए उनके मम्मी और पापा को भी देख रही हूँ। मैं गौरी के पास भी उसके पापा चाहती हूँ। नहीं, मैं एक इरेज़र उठा इस तस्वीर से सब पापा मिटा देना चाहती हूँ। मैं अपने पापा को अपने पास चाहती हूँ। मैं कवि में अपने पापा चाहती हूँ?

एक यायावर दिन का अंत कर हम घर लौट आए हैं। पिछले कुछ सालों में गौरी के लिए ऐसे कम ही दिन जुटा पाई हूँ मैं। मै उसका निर्मल मुख चूम लेती हूँ। ऐसे खूबसूरत दिन का अंत भी मीठा ही होना चाहिए। पिज़्ज़ा और चोकोलावा केक आर्डर किया गया। गौरी डिलीवरी बॉय के डोरबेल बजाने का इंतज़ार करती ‘माशा एन बेयर’ देखने लगी। दरवाज़े से पहले ही खिड़की पर दस्तक हो गई। मैंने झाँका-

‘कुछ सीले से हर्फ़ लिखे थे….. पढ़े थे किया?’

मैंने पूरी खिड़की की तलाशी ली। कहीं कुछ नया नहीं था। कहा-

‘कैसे पढ़ती मिले ही नहीं’

वे बोले- ‘जाने क्यों तुम मेरा मन पढ़ नहीं पाती?’

‘मन पढ़ने को ज़रूरी है मन की आँखें

मन ही मर जाने पर कैसे पढूँ मन की बातें’

‘देखो, तुम तो कवि बन गई’, वे मुस्कराए।

मैं स्वयं अचंभित थी। यह क्या हो रहा था? क्या चाहती हूँ मैं? वे क्या चाहते हैं?

‘आप शायद मुझे गलत समझ रहे हैं’, मेरे शब्द सच ही सीले थे।

‘विश्वास रखो, किसी कामनावश तुमसे बात नहीं करता’, उन्होंने कहा।

‘आज थका हूँ। जल्दी सोऊँगा’, आगे कहा।

‘जी’

‘बस तुम्हारी एक मुस्कान के लिए रुका था। मुस्करा दो तो जाऊँ’,

कहीं दूर बेला महका और हवा के संग खिड़की से भीतर चला आया।वह चले गए। मैं उनकी जाने की दिशा में देखती रही।

सुख पर शंका का परछाया है।  विश्वास का टीका लगाना चाहती हूँ। नेह की कुछ बूँद और मन गीली मिट्टी-सा गलता जाता है।

मैं पुकारती हूँ- ‘सुनिए’

वे दूर जा चुके थे पर लौट आए। इस पुकार की अनुगूंज उनके चेहरे पर मुस्कान बन थिरक रही है।

‘आप न आया करिए। मैं पहले ही टूटी हुई हूँ’

वे स्तब्ध खड़े हैं।

‘नहीं, आऊँगा। पर सज़ा गुनाह पर ही मिलनी चाहिए न। कोई गुनाह किया है क्या?’

प्रेम सबसे बड़ा गुनाह है। भीतर तक तोड़ देता है। मैं कहना चाहती हूँ। पर नहीं कहती। उन्होंने कब कहा वह मुझसे प्रेम करते हैं। मैं ही कब उनसे प्रेम करती हूँ। दो टूटे हुए साज़ है जो साथ होने पर एक दूजे के अधूरेपन की तसल्ली बन जाते हैं।

‘यकीन करो। मैं कभी तुम्हें दुख नहीं पहुँचा सकता। जब पुकारोगी आ जाऊँगा। जब उकता जाओगी चला जाऊँगा।’

 ‘और उकताहट आपकी तरफ से हुई तब?’

‘कभी भी आज़मा लेना। मैं यहीं हूँ सदा तुम्हारे पास। खुश रहो।’

आशीष दुखों को साध लिया करते हैं। कितने दिनों बाद मैं बिना गोली खाए भी सो सकी।

आजकल दिन खुद को दोहराने लगे हैं। दोहराव प्रतिक्रिया को कुंद कर देता है। अवसन्नता अब निस्पृहता में बदल रही है। ज़िंदगी हाथ पकड़ जिधर ले जा रही है उधर बढ़ जाती हूँ। जहाँ बिठा देती है बैठ जाती हूँ। मैं तर्क करते थक गई हूँ।

ऑफिस में जो उकताहट बढ़ जाती है। खिड़की पर आकर झर जाती है। खिड़की के फूलों की महक दिन भर मन महकाती है। मैंने ऑफिस से रास्ता तलाश लिया है। अब शलभ, सुरुचि और अमन के साथ होते हुए भी मन कहीं और अटका रहता है। वह कोई प्लान बनाते भी हैं तो मैं गौरी का बहाना बना मना कर देती हूँ। उनके अपने भरे-पूरे परिवार हैं। उनकी पूर्णता मुझे मेरी अपूर्णता का अहसास कराती है। मैं सड़क पर भी और कहीं नहीं निकलती। मेरी दुनिया ऑफिस और खिड़की तक ही सीमित हो गई है। इस जड़ता को तोड़ते कभी-कभी फोन की घंटी ज़रूर बज जाती है। जिसकी आवृत्ति बढ़ती जा रही है और अवधि भी।

13

गौरी का सातवाँ जन्मदिन है। सात फेरे और सात वचनों के पश्चात भी प्रसून नहीं आया है और न ही कोई सन्देश। मैंने गौरी की सभी सहेलियों को ‘कैफे पामेरा’ में बुलाया। गौरी ने ‘ऐलजा’ के जैसा नीला गाऊन पहना। लगता है परियाँ आज धरा पर उतर आई हैं। मैं नहीं चाहती गौरी को प्रसून की ज़रा भी कमी महसूस हो। उसने जो भी चाहा मैंने वह सब किया। फ़ोटो खींचते हुए सुरुचि कह रही है कि मुझे अब अपने बारे में भी सोचना चाहिए। जन्मदिन की तस्वीरें देखते मैं सोच रही हूँ कि इतनी भीड़ में एक जन की अनुपस्थिति से तस्वीरें कैसे अपूर्ण दिखने लगती हैं। मैंने उन तस्वीरों को अलग कर दिया जिनमें मैं भी हूँ। माँ की उपस्थिति में पिता की अनुपस्थिति बड़ा प्रश्न बन सकती है। केवल बच्चों वाली तस्वीरें ही अपरिचितों से साझा करना उचित है। साझा करना क्या ज़रूरी है? पर और कौन है मेरे पास मेरे सुख-दुख बाँटने। ज़रा-सी खुशी मिलती है तो सम्भाल नहीं पाती। छलक जाती है उसी सड़क पर। मैं जानती हूँ जन्मदिन यहाँ बड़ा उत्सव हैं। सब खिड़कियों पर आ गए हैं। वे सब खुशी से चिल्ला रहे हैं-

‘Happy birthday Gauri!’

कहीं न कहीं एक ग्लानि मुझे घेर रही है। उनके बच्चों के जन्मदिन पर पता नहीं मैंने आशीष दिया था कि नहीं! अन्यमनस्कता आजकल हावी हुई रहती है।

गौरी अपने उपहारों से खुश है। हम दोनों ने डॉल हाउस बनाया। बार्बी के साथ आईं नई ड्रेसेस पुरानी बॉर्बी को भी पहनाई गईं। खेलते-खेलते ही गौरी वहीं सोफे पर ही सो गई। उसे पलंग पर लिटा मैं सड़क निहारने लगी। हैप्पी बर्थडे का शोर अभी थमा नहीं है। कई नई आवाज़ें मेरी खिड़की पर दस्तक दे रहीं है पर मैं  खिड़की नहीं खोलती। जिसकी दस्तक का मुझे इंतजार है वह जाने क्यों आज अनुपस्थित है। दिन का अधूरापन कुछ और बढ़ गया। सोते हुए आँखे गीली हैं।

सुबह देखा आशीषों से झोली भरी है। सोती हुई गौरी को चूम लिया। उसे जगाया स्कूल के लिए तैयार किया। खिड़की पर दस्तक हो रही है। मन खिड़की पर अटका है। आँखें सड़क के ट्रैफिक पर।

ऑफिस पहुँच कर सबसे पहले खिड़की ही खोली। छोड़ी गई चिट पढ़ी-

‘सदा कैमरे के पीछे ही रहना ज़रूरी है क्या? कभी आगे भी आना चाहिए। फ्रंट कैमरा भी इस्तेमाल किया जा सकता है।’

एक गुलाबी मुस्कान चली आई। दिन को कहा आज पाँव ज़रा तेज़ बढ़ाओ। बॉस ने किसी न किसी बहाने चार बार अपने चैम्बर में बुलाया लेकिन अब जाते हुए मेरा मन नहीं काँपता। मैं उसकी आँख में आँख डालकर बात करती हूँ तो वह अपनी नज़र झुका लेता है।

दिन जितनी आहिस्ता से रात की ओर बढ़ा मेरा मन उतनी ही तेज़ी से खिड़की की ओर। आज गौरी की बातें और खेल बचकाने लग रहे हैं। उसके साथ होते हुए भी मन दूर निकल जाता है। खिड़की पर पहली दस्तक के साथ ही मैं गौरी को कहती हूँ कि वह कुछ देर कार्टून देख सकती है। वह रिमोट उठाती है और मैं खिड़की खोलती हूँ।

‘कैसी हो?’

मैं बस मुस्करा भर दी।

‘मुझे मिस किया?’

मैं चुप। कुछ सच चाह कर भी कहे नहीं जा सकते।

‘तुम न भी करो मेरा इंतज़ार। मैं करता रहूँगा… उम्र भर।’

‘मैं किसी वादे पर विश्वास नहीं कर पाती।’

कुछ सच कैसे दयनीय होते हैं।

‘न न आँसू नहीं। मुस्कराओ।’

यहाँ अनुभूतियाँ पोस्टरों में सिमटी हैं। मैं मुस्कान का पोस्टर उन्हें पकड़ा देती हूँ। वह प्रत्युत्तर में आशीर्वाद का।

‘अपनी कोई मुस्कराती हुई तस्वीर देना।’

‘मुस्कान जीवन से ही रूठी है। तस्वीर में कैसे उतरेगी?’

‘आज एक सेल्फी लेना।मुस्कराना। इतना कर सकती हो न मेरे लिए?’

मेरा स्वयं से कभी औपचारिक परिचय कराया नहीं गया है। मैं मेरे लिए नितांत अजनबी हूँ। क्या कर सकती हूँ क्या नहीं, कब जानती हूँ! पर हाँ, उनके जाने के बाद खिड़की बन्द करके सबसे पहले मैंने सेल्फी कैमरा ही खोला। मुस्करा नहीं पाई, उदासी एक क्लिक के साथ कैद हो गई। मैं मुस्कान तलाशने सड़क पर निकली हूँ। यहाँ कभी सन्नाटा नहीं होता। कुछ तो रात्रिचर ही हैं, दिन में कभी नहीं दिखते। कई नई खिड़कियों को निहारती मैं आगे बढ़ी हूँ। कवि ने अपनी एक खिड़की भूलवश खुली छोड़ी है। इस जगमगाते जग की यही खासियत है। आप जब चाहें भीड़ चुन लें, जब चाहें अकेले हो जाएँ, जब चाहें भीड़ में से किसी एक या कुछ को चुन लें। जीवन चयन की यह सहूलियत कब देता है? उन्होंने बेध्यानी में कॉलेज गर्ल के संवाद में मुझे भी चुन लिया। वह लड़की से कह रहे हैं- मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ। उन्होंने उसे भी आशीर्वाद दिया है और उसकी भी आँखें छलछला उठी हैं। दुख कब उम्र के मोहताज़ है! मैं इस लड़की को गले लगाना चाहती हूँ पर अनामंत्रित मेहमान अपनी उपस्थिति कैसे उजागर करे? मैं उस लड़की के जाने की अपनी खिड़की पर प्रतीक्षा करती हूँ। खिड़की पर हुई असमय दस्तक से कवि हैरान हैं।

‘आपने कहा था कभी भी पुकार सकती हूँ’, मैं कहती हूँ।

उन्हें सयंत होने का समय मिल गया।

‘क्यों नहीं, कभी भी। एक आवाज़ पर सदा पास पाओगी।’

‘क्यों?’, मैं अवरुद्ध कंठ से बमुश्किल कह पाती हूँ।

एक दम घोंटू चुप्पी।

‘कुछ रिश्ते आत्मिक होते हैं। आत्माओं के कोटरों में हमारे स्थायी पते लिखे हैं। वहीं लौटते हैं… ठहरते हैं।

मैं स्वयं भी नहीं जानता

किस जन्म तुम्हारे

मन वृक्ष के कोटर में,

मैंने बनाया था अपना नीड़

सुधियों की पगडंडिया तलाशता

हर जन्म….

मैं तुम तक पहुँचता हूँ

अवचेतन की स्मृतियों में

गहरे लिखे हैं हम सब के

स्थायी आवासों के पते’

‘और भी कोई है जिससे यह आत्मिक लगाव आप महसूस करते हैं?’, सच की भयावहता मुझे डरा रही है। भ्रम का सुंदर किला सीलन से चरमरा गया है।

‘और कौन हो सकता है। बस तुम!’

‘Hurt me with the Truth, but Never comfort me with a Lie.’ मैं चाह कर भी नहीं कह पाई। बस चली आई।

एक आस थी कि वे पुकारेंगे पर नहीं, कोई पुकार नहीं। खिड़की पर भी कोई दस्तक नहीं।

तारीख़े बदलती गईं पर ज़िंदगी एक पुकार के इंतज़ार में थमी रही। कभी लगता सपना सुखद हो तो क्या अनवरत नहीं चल सकता? आज चुपचाप काँपते कदमों से सड़क पर निकली। देखा, कवि कोई नई कविता सुना रहे हैं। नीली आँखों वाली, कॉलेज गर्ल, गुलाब के फूलों वाली महिला सभी तो मोहित हो सुन रही हैं। कवि ने सबको गुलाब बाँटे पर जाने कैसे दूर खड़े ही काँटे मेरे हाथ में चुभे हैं। सबके जाने के बाद मैं उनके सामने जा खड़ी हुई।

‘एक फूल मेरे लिए भी बचा लेते’, स्वर की विकलता पर मैं स्वयं लज्जित हूँ।

‘तुम्हें फूल देने वाले बहुत हैं’, वे तल्ख़ी से कह पलट चले।

अपमान और क्षोभ से छलनी मन आँखों के रास्ते छलक उठा।

हम रात भर जागकर अपना विद्रोह दर्ज करा सकते है पर सूरज को जाने से नहीं रोक सकते और मुझमें तो  नियति के निर्णयों से विद्रोह की ताकत भी अब शेष नहीं। मैंने सिरहाने रखी शीशी उठाई उसका ढक्कन खोल पूरा मुँह में उड़ेल लिया। आँधी का तेज झोंका आया। सारी खिड़कियाँ आपस में टकराईं और किरचनें फैल गईं। काँच के महीन टुकड़े मेरे पूरे शरीर में धँसने लगे। जानलेवा दर्द रगों में दौड़ने लगा और फिर सब शांत हो गया। हमारी चीत्कार कोई नहीं सुनता लेकिन चुप होने का निर्णय खबर बन जाती है। मेरी देह भी अब एक खबर थी और मन अतृप्त आत्मा!

माँ का कंकाल हिचकी ले लेकर रो रहा है। रोने से हाथ मे लगी ड्रिप निकल गई, खून बह रहा है। प्रसून कह रहा है कि गौरी को किसी बोर्डिंग में भेजना होगा। वह अपने साथ नहीं रख सकता। बॉस व्यथित हो, सबको बता रहा है कि मैं उसका साथ चाहती थी किन्तु वह अपनी पत्नी से दगा नहीं कर सकता था। कवि ने अपनी एक खिड़की पर मेरी तस्वीर लगाई है। लिखा है कि कोई दुख साझा करने वाला होता तो मैं बच सकती थी।

ओहो! दुख से नहीं मरता कोई, दुख की नुमाइश कर मर जाता है। मैं चिल्लाना चाहती हूँ। शायद चिल्ला ही पड़ती हूँ-

‘एक क़त्ल है हुआ इधर पर क़ातिल कोई नहीं

ख़ंजर है सबके हाथ में पर शामिल कोई नहीं’

गौरी, मम्मी! मम्मी! पुकारती, रुआंसी हो मेरा हाथ खींच रही है। अकबका कर मैं उठ बैठी। सिरहाने रखी दवाई की शीशी वैसी ही भरी है। मैं पसीने से भीगी हूँ।  पानी पीते हुए मैं गौरी को गले लगा लेती हूँ। मैंने गौरी को एक बार ही जन्म दिया है पर वह जाने मुझे कितने जन्म दे चुकी है।

गौरी मेरी गोदी में मुझे कस कर पकड़े सो रही है। चिंता की कुछ रेखाएँ उसके चेहरे पर बनी हैं। कहीं दूर कोई गा रहा है-

ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है

हद-ए-निगाह तक जहाँ गुबार ही गुबार है।

दूर नहीं मेरे बेहद क़रीब मेरा अंतर्मन ही गा रहा है। मैंने अपनी अँगुलियों से गौरी के माथे की सलवटों को सहलाया। स्पर्श की सुखद अनुभूति स्मित बन झलकी। मैंने आहिस्ता से मोबाइल उठाया और हर उस खिड़की को सदा के लिए बंद कर दिया जिनसे इस स्मित के खो जाने का ज़रा सा भी अंदेशा हो।

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टॉल्स्टॉय, गोर्की और प्रेमचन्द: एक त्रिकोण

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प्रेमचंद जयंती कल थी। आज आ. चारुमति रामदास का यह लेख पढ़िए। वह हैदराबाद में रूसी भाषा की प्रोफ़ेसर थीं। अनेक श्रेष्ठ पुस्तकों का रूसी से हिंदी अनुवाद कर चुकी हैं। इस लेख में उन्होंने प्रेमचंद को रूसी लेखकों के संदर्भ में समझने का प्रयास किया है-

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पूरब के देशों में भारत ने ल्येव निकलायेविच टॉल्स्टॉय (1828–1910) का ध्यान सबसे अधिक आकृष्ट किया. इसका कारण थीं यहाँ के धर्म की, दर्शन की, लोक सृजन की विशेषताएँ जो टॉल्स्टॉय के अपने विचारों के काफ़ी नज़दीक थीं. उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों ने भी अनेक भारतीय कार्यकर्ताओं को सहायता एवम् नैतिक आधार हेतु ल्येव निकलायेविच से मुख़ातिब होने के लिए प्रेरित किया.

सन् 1857 की क्रांति की ओर टॉल्स्टॉय का ध्यान आकृष्ट हुआ. इस घटना ने पूरे विश्व को, विशेषत: रूस को काफ़ी प्रभावित किया, क्योंकि इसी समय वहाँ बंधुआ प्रथा के ख़िलाफ़ अभियान तीव्र होता जा रहा था.

रूसी पत्र-पत्रिकाओं में भारतीय क्रांति के पक्ष तथा विपक्ष में काफ़ी कुछ लिखा जा रहा था. युवा टॉल्सटॉय बड़ी उद्विग्नता से भारतीयों के अपने सदियों के दुश्मन से संघर्ष को देख रहे थे. और, जब इस क्रांति के कुचल दिए जाने की तथा 94 देशभक्तों को गोली मार दिये जाने की ख़बर पीटर्सबुर्ग पहुँची तो उन्होंने अपनी डायरी में लिखा: “हे भगवान! कितने आराम से 94 लोगों को गोली मार दी!”

जब सन् 1908 में टॉल्स्टॉय का पर्चा – “मैं ख़ामोश नहीं रह सकता!” प्रकाशित हुआ तो कई भारतीयों ने, जो रूसी त्सारशाही के अत्याचारों के विरुद्ध टॉल्स्टॉय के इस मत प्रदर्शन से काफ़ी प्रभावित हुए थे, उनसे प्रार्थना की कि वे भारत के अंग्रेज़ी शासकों के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाएँ, अमेरिका के सियेटल स्थित तारकनाथ दास द्वारा 24 मई 1908 को लिखे गए एक पत्र के जवाब में टॉल्स्टॉय ने भारतीय जनता के नाम एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने खुल्लमखुल्ला भारत में अंग्रेज़ों के कार्यकलापों की भर्त्सना की, पूरी दुनिया के सामने उनका पर्दाफ़ाश किया. साथ ही उन्होंने भारतीय जनता को भी पश्चिमी बुर्जुआ सभ्यता से सावधान रहने के लिए कहा, उनकी राय में भारतीय जनता की दयनीय परिस्थिति का यह भी एक कारण था.

टॉल्स्टॉय ने “भारतीय के नाम पत्र” 7 जून 1908 को आरंभ किया मगर वह समाप्त हुआ लगभग छह महीनों बाद. इस पत्र के 29 विभिन्न रूप, जो करीब 413 पृष्ठों में फैले हैं टॉल्स्टॉय के अभिलेखागार में सुरक्षित हैं. प्रस्तुत हैं इस पत्र के कुछ अति महत्वपूर्ण अंश:

“कुछ लोगों द्वारा दूसरे लोगों का, विशेषतः अल्पसंख्यकों द्वारा बहुसंख्यकों का शोषण और उन पर अत्याचार, इस पर मैं पिछले कुछ समय से विचार कर रहा हूँ.

“भारत के संदर्भ में यह बड़ा विचित्र प्रतीत होता है कि यहाँ श्रेष्ठ, शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ्य 20 करोड़ लोग मुट्ठीभर एकदम अपरिचित, धार्मिक-नैतिक दृष्टि से उनसे कहीं हीन लोगों द्वारा गुलाम बनाए गए हैं.

एक व्यापारी कम्पनी ने 20 करोड़ लोगों को गुलाम बना लिया! – यह बात किसी से कहकर तो देखिए – वह समझ ही नहीं पायेगा कि इसका मतलब क्या है?”

पत्र में टॉल्स्टॉय ने विस्तार से भारतीयों की दयनीय दशा के लिए ज़िम्मेदार कारणों का ज़िक्र किया और अपनी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर का अनुसरण करने और अत्याचारियों के सामने न झुकने की सलाह देते हुए लिखा:

“बुराई का विरोध न करो, मगर ख़ुद भी बुराई में भाग न लो, शासन के, न्याय प्रक्रिया के अत्याचारों में, रिश्वतखोरी में, फ़ौज में हिस्सा न लो और तब कोई भी तुम्हें गुलाम न बना पायेगा,”

धीरे धीरे टॉल्स्टॉय भारत में लोकप्रिय होने लगे. उनकी रचनाओं के अनुवाद भारतीय भाषाओं में पाठकों तक पहुँचने लगे. उनके बारे में पत्र पत्रिकाओं में लिखा जाने लगा. यह थी उन्नीसवीं शताब्दी के 20 के दशक की बात. धीरे धीरे अनुवादों की संख्या बढ़ने लगी, साथ ही उनकी रचनाओं के संक्षिप्त रूप , पुनर्र्चनाएँ आदि भी प्रकाशित होते रहे.

चूँकि प्रेमचन्द अपने प्रकाशनों को सामान्य पाठक के लिए निकालते थे, उन्होंने इन कहानियों को भारतीय परिवेश में प्रस्तुत किया, पात्रों के नाम, उनकी वेशभूषा, जीवन शैली आदि में भी परिवर्तन किया, जिससे वे भारतीय प्रतीत हों. कहानियों के शीर्षकों में परिवर्तन किया गया है. उदा. “ईश्वर सत्य को देखता है, मगर शीघ्र कहता नहीं है” का शीर्षक बदलकर “दयालु” कर दिया है. “कॉकेशस का कैदी” बन गया है – “राजपूत कैदी”, “शिकार गुलामी से कम नहीं” के स्थान पर “रीछ का शिकार”, “आग को छोड़ोगे – बुझा न पाओगे” के स्थान पर “एक चिंगारी पूरे घर को जला देती है”, “इवान मूरख” के स्थान पर “सुमन्त मूरख” आदि. कुछ कहानियों को उनके द्वारा प्रदर्शित संदेश के आधार पर भारतीय शीर्षक दिये गये.

प्रेमचन्द ने रूसी पाठ का सीधा सीधा अनुवाद नहीं किया, बल्कि उसे अपने ढंग से कहा है, जिससे कभी कभी नई कहानियाँ बन गई हैं, ताकि भारतीय पाठक उन्हें आसानी से समझ सकें.

प्रेमचन्द तथा टॉल्स्टॉय के सृजन एवम् विचारों में काफी साम्य दिखाई देता है. प्रेमचन्द ने 4 मार्च 1924 को अपने एक मित्र को लिखा” “हाल ही में मैंने टॉल्स्टॉय की कहानियाँ पढ़ीं और मुझे यूँ प्रतीत कि उनका मुझ पर एक विशेष प्रभाव पड़ा है.” श्री अमृतराय के अनुसार प्रेमचन्द की कहानियों “सावन”, “पूस की रात” और “सवा सेर गेंहूँ” में टॉल्स्टॉय से काफ़ी निकटता दिखाई देती है.

प्रेमचन्द के उपन्यास “सेवासदन” तथा “प्रेमाश्रम” में टॉल्स्टॉय के उपन्यास “पुरुत्थान (रिसरेक्शन)” से काफ़ी समानता दिखाई देती है. “पुनरुत्थान” कहानी है नायिका कत्यूशा मास्लवा के पतन एवम् राजकुमार नेख्ल्यूदव के नैतिक पुनरुत्थान की. फ़ौज में जाने से पहले नेख्ल्यूदव अपनी बुआ के घर गाँव में जाता है, कत्यूशा यहीं पर रहती है और बुआ जी के घर में काम करती है. युवा नेख्ल्यूदव, प्रेमवश ही सही, मगर कत्यूशा को भ्रष्ट कर देता है और बाद में उसे भूल भी जाता है. कत्यूशा को उसकी मालकिन घर से निकाल देती है, वह एक मृत बालक को जन्म देती है, कई स्थानों पर नौकरी करके हर बार उसे यह एहसास होता है कि पुरुष उसे छोड़ेंगे नहीं – अतः वह शहर में आकर वेश्या व्यवसाय अपना लेती है. एक बार होटल में एक ग्राहक की संदिग्धावस्था में मृत्यु हो जाती है, कत्यूशा पर आरोप लगाया जाता है कि उसने चाय में ज़हर देकर उसे मार डाला और उसका धन ले लिया.

कत्यूशा पर मुकदमा चलता है, जूरी का सदस्य है नेख्ल्यूदव. वह कत्यूशा को पहचान लेता है और डर जाता है कि बरसों पहले नादानी में किया गया उसका अपराध खुल न जाए. कत्यूशा उसे नहीं पहचानती, मगर उस रात नेख्ल्यूदव का अपराध बोध उसे सोने नहीं देता, सुबह वह एक परिवर्तित आदमी के रूप में कत्यूशा से मिलने जाता है. वह उससे विवाह का प्रस्ताव भी रखता है, जिसे स्वाभिमानी कात्या ठुकरा देती है. कत्यूशा को सज़ा हो जाती है, मगर नेख्ल्यूदव यह इंतज़ाम कर देता है कि वह राजनैतिक कैदियों के साथ रहे, वह स्वयम् भी अपनी तमाम ज़मीन जायदाद किसानों में बाँटकर कत्यूशा के साथ साइबेरिया चला जाता है, जबकि कत्यूशा किसी अन्य राजनैतिक कैदी में दिलचस्पी लेती दिखाई देती है, मगर अब यह बात भी नेख्ल्यूदव को परेशान नहीं करती.

ध्यान से देखें तो प्रेमचन्द का “सेवासदन” कत्यूशा मास्लवा की समस्या को उठाता है, और उनके “प्रेमाश्रम” के पात्र प्रेमशंकर को टॉल्स्टॉय के उपन्यासों – “पुनरुत्थान” के नेख्ल्यूदव एवम् “आन्ना करेनिना” के पात्र लेविन का मिला जुला रूप माना जा सकता है.

प्रेमचन्द के लेखों में और उनकी रचनाओं में जहाँ तहाँ ऐसे अनेक अंश और टिप्पणियाँ मिलती हैं, जिनमें उन्होंने रूसी साहित्य की बहुत अच्छी जानकारी, उसकी श्रेष्ठता और यूरोप की अन्य भाषाओं के साथ उसके तुलनात्मक महत्व का बढ़िया परिचय दिया है. “रूसी साहित्य और हिन्दी साहित्य” नामक अपनी टिप्पणी में रूसी साहित्य की प्रगति का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है : “उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में, जो गद्य के मूलभूत अंग हैं, सारे संसार ने रूस के प्रभाव को स्वीकार कर लिया है और फ्रान्स को छोड़कर एक भी देश उसकी बराबरी नहीं कर सकता.”

प्रेमचन्द का रूसी साहित्य का ज्ञान उन्नीसवीं शताब्दी के महान लेखकों की रचनाओं तक ही सीमीत नहीं था. वह बीसवीं शताब्दी के लेखकों के कृतित्व से भी भली भाँति परिचित थे, जिनमें ज़ाहिर है, गोर्की (1868-1936) भी शामिल थे.

“गोदान” के रूसी अनुवाद की भूमिका में प्रेमचन्द के सुपुत्र श्रीपत राय का हवाला देते हुए इ. कम्पान्त्सेव ने लिखा है, “पश्चिमी लेखकों की रचनाओं के साथ साथ प्रेमचन्द ने रूसी लेखकों की वे सभी रचनाएँ पढ़ी थीं जो उस समय भारत में मिल सकती थीं. टॉल्स्टॉय, चेखव, तुर्गेनेव और दस्तायेव्स्की की रचनाओं से वे भली भाँति परिचित थे और उन्हें प्यार करते थे तथा गोर्की के प्रति उनका विशेष स्नेह भाव था.”

सन् 1929 के दिसम्बर में अंग्रेज़ी सरकार द्वारा किए जाने वाले कुछ वैज्ञानिक सुधारों पर अपनी राय ज़ाहिर करते हुए उन्होंने ‘ज़माना’ पत्रिका के संपादक को लिखा था, “इन सुधारों में अगर कोई ख़ूबी है, तो सिर्फ यह कि तालीमयाफ़्ता ज़माअत को कुछ ज़्यादा सहूलियतें मिल जायेंगी और जिस तरह यह ज़माअत वकील बनकर रिआया का ख़ून पी रही है, उसी तरह यह आइन्दा हाकिम बनकर रिआया का गला काटेगी. मैं बोल्शेविस्ट उसूलों का करीब करीब कायल हो गया हूँ…” लगभग इसी समय लिखे जा रहे और सन् 1921 में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ में कुछ इसी तरह की बात प्रकट होती है, जब बलराज कहता है, “मेरे पास जो पत्र आता है, उसमें लिखा है कि रूस देश में काश्तकारों का ही राज है. वे जो चाहते हैं, करते हैं.” अगले कुछ वर्षों में तो रूसी क्रांति में उनकी आस्था और भी बढ़ी.

सन् 1928 में प्रेमचन्द की अपनी पत्नी शिवरानी देवी से हुई बातचीत से यह स्पष्ट हो जाता है. अपनी पुस्तक “प्रेमचन्द घर में” में शिवरानी देवी लिखती हैं – मैंने पूछा ,”जब स्वराज हो जायेगा तब क्या चूसना बंद हो जायेगा?” – आप बोले, “चूसा तो थोड़ा बहुत हर जगह जाता है…हाँ, रूस है, जहाँ पर कि बड़ों को मार मार कर दुरुस्त कर दिया गया, अब वहाँ गरीबों का आनन्द है. शायद यहाँ भी कुछ दिनों बाद रूस जैसा ही हो.” – मैं बोली, “क्या आशा है कुछ?” – आप बोले, “अभी जल्दी उसकी कोई आशा नहीं.” – मैं बोली, “मान लो कि जल्दी ही हो जाए, तब आप किसका साथ देंगे?” – आप बोले, “मज़दूरों और काश्तकारों का. मैं पहले ही सबसे कह दूँगा कि मैं तो मज़दूर हूँ. तुम फ़ावड़ा चलाते हो, मैं कलम चलाता हूँ. हम दोनों बराबर ही हैं…मैं तो उस दिन के लिए मनाता हूँ कि वह दिन जल्दी ही आये.” – मैं बोली, “तो क्या रूस वाले यहाँ भी आयेंगे?” – वह बोले, “रूस वाले यहाँ नहीं आयेंगे, बल्कि रूस वालों की शक्ति हम लोगों में आयेगी…वह हमारे लिये सुख का दिन होगा जब यहाँ काश्तकारों और मज़दूरों का राज होगा.”

प्रेमचन्द पर गोर्की की विचारधारा का अधिकाधिक प्रभाव पड़ रहा था. जहाँ गोर्की तलछटी लोगों और साधारण मज़दूरों को साहित्य में ला रहे थे, वहीं प्रेमचन्द फ़टेहाल, निर्धन, अनपढ़, किसानों, अछूतों के बारे में लिख रहे थे. “प्रेमाश्रम” में किसान मनोहर, उसकी पत्नी विलासी और बेटे बलराज का चित्रण गोर्की के उपन्यास “माँ” की याद दिलाता है.

गोर्की की रचनाओं में एक निश्चित ‘फ़ार्मूले’ के अनुसार कथानक का विस्तार होता है : पहले मुख्य पात्रों को अपने साथ और अपने समान लोगों पर हो रहे अन्याय का ज्ञान होता है. ऐसा किन्हीं पढ़े लिखे, सामाजिक रूप से जागृत, मज़दूरों के नेताओं के सम्पर्क में आने के कारण होता है. फिर ये पात्र अन्य लोगों में भी जागृति फ़ैलाने का कार्य करते हैं, अपने उद्देश्य की प्राप्ति में जी जान से जुट जाते हैं. यह पहली बार “माँ” में दिखाया गया था. प्रेमचन्द की अनेक रचनाओं में कथानक के विस्तार का यह क्रम दिखाई देता है.

“प्रेमाश्रम” का बलराज भारत का नया, जागृत नौजवान, किसानों का प्रतिनिधि है. वह अख़बार भी पढ़ता है और किसानों की शक्ति की भी उसे चेतना है. वह एक किसान को, जो मज़ाक करते हुए यह कहता है कि बलराज से कहो कि वह सरकार के पास हमारी ओर से फ़रियाद कर आये, यह उसका काम है.”

“तुम लोग तो ऐसे हँसी उड़ाते हो, मानो काश्तकार कुछ होता ही नहीं. वह ज़मीन्दार की बेगार ही भरने के लिए बनाया गया है. लेकिन मेरे पास जो पत्र आता है, उसमें लिखा है कि रूस में काश्तकारों का राज है, वह जो चाहते हैं – करते हैं.” यह पात्र “माँ” के पावेल व्लासव के समान है, और विलासी में झलक है पावेल की अनपढ़, बूढ़ी, चुपचाप पति का अत्याचार सहने वाली पिलागेया  नीलव्ना  की जो अपने बेटे और उसके साथियों की बातें सुन-सुनकर सामाजिक अन्याय का कारण समझने योग्य हो जाती है. इतना ही नहीं, जब पावेल तथा उसके साथियों को जेल में बंद कर दिया जाता है तो नीलव्ना  उनके कार्य को यथाशक्ति आगे बढ़ाती है, अन्त में उसे भी गिरफ़्तार कर लिया जाता है.

विलासी भी किसानों के अधिकारों के बारे में सजग नारी है. जब उससे कहा जाता है, कि सरकारी हुक्म से पंचायती ज़मीन पर किसानों का कोई अधिकार नहीं रहा, तो वह तनकर कहती है, “कैसा सरकारी हुक्म? सरकार की ज़मीन नहीं है….हमारे मवेशी सदा से यहाँ चरते आये हैं और सदा यहीं चरेंगे. अच्छा सरकारी हुक्म है, आज कह दिया चरागाह छोड़ दो, कल कहेंगे अपना-अपना घर छोड़ दो, पेड़ तले जाकर रहो. ऐसा कोई अन्धेर है?”

“कर्मभूमि” में प्रेमचन्द सामाजिक यथार्थवाद के अधिक निकट प्रतीत होते हैं. “समर यात्रा” की नोहरी भी “माँ” की पिलागेया नीलव्ना के अधिक करीब है. उसकी आत्मा का भी वैसे ही कायाकल्प हो जाता है, जैसे नीलव्ना का हुआ था.

यदि विस्तार से इन कुछ रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो प्रतीत होगा कि 20के दशक तक प्रेमचन्द पर टॉल्स्टॉय की विचारधारा का प्रभाव रहा, रूस में उन्हें उस काल का भारतीय टॉल्स्टॉय कहा जाता है. मगर जैसे जैसे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम तीव्र होता गया, प्रेमचन्द के साहित्य एवम् उनके विचारों पर गोर्की का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा. रूस में प्रेमचन्द को उस समय का गोर्की कहा जाता है.

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मृणाल पाण्डे की कथा ‘राजा की खोपड़ी उर्फ अग्रे किं किं भविष्यति?’        

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प्रसिद्ध लेखिका, संपादक मृणाल पाण्डे आजकल प्रत्येक सप्ताह एक बोध कथा लिख रही हैं जो बच्चों को न सुनाने लायक़ हैं। यह आठवीं कड़ी है। इन पारम्परिक बोधकथाओं को पढ़ते हुए समकालीन समाज की विडंबनाओं का तीखा बोध होता है। जैसे यह कहानी देखिए इनमें किस भविष्य की आहट है-

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बच्चों को न सुनाने लायक बालकथा-8

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एक गांव में एक बहुत विद्वान् ज्योतिषी रहता था।बडा ही शांतसुभाव, सुशील और खानदानी तौर से गरीब।वजह यह, कि उसके पुरखे भी अपनी किताबों की दुनिया में ही डूबे रहनेवाले गरीब थे।

खैर! जैसा कि गरीबों में अक्सर होता है, ज्योतिषी की एक झगड़ालू  पत्नी थी।और उसके अक्लमंद होते हुए भी अनियमित शिक्षकोंवाली गांव की शाला में पढने को मजबूर दो बेटे भी मां की ही तरह ज्योतिषी से नाखुश रहते थे।पत्नी हमेशा से ऐसी नहीं थी,पर शादी के बाद लगातार अपनी गरीबी और बेटों की पढाई लिखाई पर मायकेवालों के ताने सुन सुन कर वह अपने वर्तमान और अपने बेटों के भविष्य को लेकर पति को मौके बेमौके खरी खोटी सुनाती रहती थी।मां की बड़बड़ाहट सुन सुन कर बड़े हुए बेटे भी बाप से कटे कटे रहते।

एक बार बाहर गांव से ज्योतिषी को किसी बहुत बडे मंदिर के निर्माण के भूमिपूजन की सही साइत निकालने के लिये न्योता आया।परिवार खुश हुआ जब घर पर ही चिंतन मनन करनेवाले ज्योतिषी महाराज काँख में पोथी पत्रा दबा के निकल पड़े।

‘अपने काम की एवज में उन लोगन से जरा देखभाल के अच्छा सा सीधा मांग लाइयो’, कह कर पत्नी ने किवाड़ बंद किये।भीतर से पिता को जाते देख रहे बेटे बोले, तू समझती है के पिताजी मुंह खोल के कुछ भी मांगेगे?

माँ ने एक लंबी उसांस भर कर सिर हिला कर कहा, ‘ना। पर कहनो तौ मोर धरम थोई।’

फिर वह बाहर जा कर गोबर थापने लगी।

मंदिर बनवानेवाला गाँव पुराना तीरथ था और पास में वाके और ज्योतिषी जी के गाँव के पास एक, बड़ी जो है सो एक नामी नदी बहती थी।बताया जाता था पुराने समय में उधर रिषियन देवतन को वास भी रहा हैगा।

चलो, ज्योतिषी की पत्नी ने अपने आप से कहा, जिजमान लोग तौ खाते पीते हैंगे।और कुछ नहीं तो कम से कम शाम की रोटी लायक अनाज और एकाध जोड़ी कपड़े और छाता तो उनसे इस बार मिल ही जायेगा।हे ईश्वर तू ही तारणहार’, कह कर उसने हाथ धोये और पुरानी पिचकी गगरी उठा कर पानी लाने चली गई।

साइत विचारते, पुजारियों से जिरह करते, सामग्री की फेहरिस्त बनवाते  ज्योतिषी को शाम हो गई।गाँव वालन से जो कुछ दान दक्षिणा मिली उसे देखे बिना आशीर्वचन कहि के, आदतन अपने फटे झोले में सब सामान समेट लयो और सूरज डूबे से पहिले घर को चल पड़े।

जल्दी की वजह ये, कि उन दोनो गाँवों के बीच रास्ते में नदी के किनारे एक मसान भी पड़ता था।वहाँ एक बहुतै पुरानो पीपल को पेड़ हतो।कहते थे उस पर एक किसी मुनकट्टा भूत का बासा था जो कभी कभार वहाँ से गुज़रते लोगन को रोक के कहतो, ‘ला मेरा मुंड!’

भुतहा पेड़ देख कर ज्योतिषी महाराज का मन छन भर को पीपल पात की तरह डर से डोला, तौ उन्ने उसे हाथ जोडे और इष्ट देव को याद किया।अचानक उनको वहाँ पीपल की जड़ों के बीच मिट्टी में लथपथ खोपड़िया पड़ी नज़र आई।उनको लगी कि शायद हाल में जब नदी चढी हुई थी तौ कहीं से ये खोपड़ी नदी की धार में बह कर आई हो और पानी उतरने पर पीपल की जड़ों में अटकी रह गई हो।जो हो, जिस बेचारे की हो, वे ही क्यों न जलांजलि देके उसे नदी में प्रवाहित कर दें।फिर न जाने क्यों उनके मन ने कहा, कि खोपड़िया तौ नदी माता ही यहाँ धर दीन है, तनी देख तौ मूरख है किसकी ?

ज्योतिषी को अपने पुरखों से जातकों के ललाट पर विधाता की लिखी लिपि पढ सकने का एक दुर्लभ ज्ञान हासिल था।सो उसने पास जा कर आस्तीन से तनिक पोंछ कर खोपड़ी को ऊठा कर पास जलती चिता की रोशनी में ललाट लिपि पढनी शुरू की।

यह क्या? खोपड़ी  के ललाट पर विधाता की लिखी लिपि की कुल्ल दो तीन लाइनें ही पढ कर वह चौंक पडा।यह तो किसी ऐसे वैसे नहीं, पुराने वक्त के एक बहुत प्रसिद्ध योद्धा की खोपड़ी थी, जिसका राजपाट सात नदियों, चौदह भुवनों तक फैला हुआ था।इस ललाट की इबारत तो ठीक से पढनी ही होगी,ज्योतिषी ने सोचा।और फिर खोपड़ी  को नदी के पानी में धो पोंछ कर ज्योतिषी ने अपने जिजमान से अभी अभी मिले कोरे रेशमी गमछे में सादर लपेट कर खूब एहतियात से अपनी थैली में डाल लिया |

घर पहुंचा तो दोनों बच्चे और पत्नी आदतन दरवाज़े पर ही उसकी वापसी के इंतज़ार में खडे थे।

‘क्या क्या मिला सीधे में वहाँ से?’ पत्नी ने पूछा।बच्चों ने टटोलने को हाथ बढाया कि कछु मिठाइयाँ भी मिलीं हैं क्या? सबके सवाल टालते हुए ज्योतिषी ने पहले थैली से गमछे में लपेटी खोपड़ी निकाली और उनको थैला थमा कर यह कहता हुआ अपने पूजा पाठ के कमरे में घुस गया, कि वे लोग खाने के लिये उसकी प्रतीक्षा न करें, वह खा कर आया है।

पत्नी ने बेटों को देख कर कहा, चलो फिर।इनका के? कोई किताब लेके रात भर दिया जलाके पढेंगे।तेल जल्दी खतम होगा तो क्या इनके पुरखों के पिरेत देंगे? सोचा था कि एक रेशमी गमछा मिला तो अपने लिये सलूका सिल लूंगी, उसमें जाने का लपेट लाये हैं।

भडास निकाल कर पत्नी और बच्चे शेष थैली टटोल कर चीज़ बस्त धरने के बाद अपनी रूखी सूखी खाने में लग गये।

ज्योतिषी आतशी शीशा लगा कर रातभर राजखोपड़ी  के ललाट पर विधाता के लिखे राजा के जीवन की कथा बाँचता रहा।

अहा, कैसे कैसे तो उतार चढाव, कैसे अद्भुत रहस्य उकेर रखे थे विधाता की कलम ने! कैसा रहा होगा वैसा जीवन! ज्योतिषी ने उसांस भर कर सोचा। अंत का एक वाक्य लेकिन ज्योतिषी के पल्ले भी नहीं पडा जहाँ विधाता ने लिखा था:  ‘अग्रे किं किं भविष्यति?’ यानी इसके आगे और भी जाने क्या क्या होना है!

दयालु ज्योतिषी ने सोचा, हो न हो, यही उस मुनकट्टा भूत की खोपड़ी  है जिसकी तलाश में उसका पिरेत जो है सो पीपल पर बासा डाले पड़ा है।कल से पितृपक्ष शुरू हो रहा है।सर्व पितृ अमावास्या के दिन इस बेचारे के मुंड़ का ठीक से तर्पण कर करा के इसे नदी में विसर्जित कर दूंगा तो अंत: उस बेचारे की प्रेतमुक्ति हो जायेगी।मेरा ध्यान उस पेड़ की ओर दिला कर शायद दयामय विधाता ने इसी तरफ इशारा भी किया हो।

अगली सुबह जब ज्योतिषी अपने पूजा पाठ के कमरे से बाहर आया तो उसकी आंखें गुड़हल के फूल की तरह लाल लाल थीं, जैसे रात भर न सोया हो! चुपचाप उसने गमछा उठाया और नहाने के लिये तालाब को चलने को उद्धत हुआ।

‘सुन,’ उसने पत्नी से कहा,’ मेरे पूजा कक्ष के आले में एक बहुत कीमती चीज़ मेरे गमछे में लिपटी हुई धरी है।उसको न तू हाथ लगईयो न बालकन को उधर जाने दीजो।बस हलके हाथन से साफ सफाई भर कर दीजो।’

यह कह कर पति तो निकल गया, पर पत्नी की अंतड़ियाँ  कुलबुलाने लगीं।

कीमती चीज़ माने? हो सकता है कुछ सोना चाँदी मिला हो जिसे यह मुझसे छुपाना चाहता हो? कहीं कछु और चक्कर तो नाँय है? मरद जात! अरे जब मुनि रिषी भी भ्रष्ट हो चुके हों तौ किसका भरोसा? यह सोच कर जब उसके बच्चे पाठशाला में थे, उसने इधर उधर ताक कर झाडू से पूजाघर की सफाई शुरू की। आले पर एक वह अजीब गोलाकार चीज़ थी ज्योतिषी के नये गमछे में लिपटी हुई, जो पति ने उसे झोला देने से पहिले निकार लई थी।उसकी उत्सुकता रोके न रुकी तो उसने भीतर से कुंड़ी  लगाई और गमछा हटाया।

यह क्या? गमछे में तो किसी मुर्दे की खोपड़ी धरी थी।

क्या मसान साध कर आया होगा उसका पति?

लेकिन काहे? वह तो तंत्र मंत्र और काले जादू टोने, वामाचार इन सबके खिलाफ था वरना मूंठ मारण या वशीकरण से और कईयों की तरह अब तक लाखों का मालिक बन चुका होता!

हो न हो यह खोपड़ी उसकी किसी गुप्त प्रेमिका की होगी जो चल बसी।कर्कशा ने तय किया।उसी अफसोस में मेरे मरद ने न रात को खाना खाया, न सोया।रात भर खोपडिया के साथ बैठा रहा।

हुंह! मेरी बला! सौतन मर गई तौ मेरा पिंड छूटा।पत्नी ने सोचा और उस नामुराद खोपड़ी को, जैसी वह लपेटी गई थी, ठीक उसी तरह लपेट कर वापिस आले पर धर दिया। कमरा साफ कर दरवज्जे को उसने ओढा तो दिया पर मन ही मन वह पति पर और उस खोपड़िया पर कुढती रही।

ज्योतिषी भी अपनी वजह से दिन रात उसी खोपड़ी  के बारे में सोचता रहता।न वह ठीक से सोता, न खाता।न बच्चों से बतियाता।कभी अचानक उठ कर कमरे के किवाड़ मूंद लेता और देर देर भीतर बैठा रहता।

एक दिन पत्नी ने बच्चों से कहा तनिक ताक झाँक करें, कि भीतर होता क्या है? बच्चे खबर लाये कि बाबा किसी खोपडिया को हाथ में लिये आतशी शीशे से उसे बडे ध्यान से देख रहे हैं और बुदबुदाये जा रहे हैं |

पत्नी का थमा पारा फिर क्रमश: चढ चला।

आखिर एक दिन जब बेटे घर पर थे और उनका बाप कर्मकांड के सिलसिले में बाहर गांव गया हुआ था, पत्नी ने वह खोपड़ी बाहर निकाली और उस पर थूक कर अपने बेटों को गेंद कह कर खेलने के लिये दे दी।

बेटे तुरत हो हो कर भागे और आंगन में उसे मिट्टी में लथेडते लतियाते खेल में मगन हो गये। खोपड़ी को उनकी लात खाते देख कर पत्नी की छाती कुछ ठंड़ी  हुई।

पर पुरानी खोपड़ी बेचारी कितनी देर लतियाई जा सकती थी, आखिरकार कई टुकडों में फूट गई।

‘अम्मा, गेंद तो फूट गई’, बड़ा बेटा चिल्लाया तो पत्नी बाहर आई और खोपड़ी के टुकडे बटोर कर बुदबुदाती हुई उनको एक चीथडे में बाँध कर पोटली दरवज्जे के बाहिर धर आई।जा सुसरी, अब ना दलियो सुहागन की छाती पे मूंग!

शाम को ज्योतिषी लौटे तो दरवज्जे पर धरी वह अजीब पोटली देख कर चौंके।खोला तो उसमें खोपड़ी के टुकडे।समझ गये कि यह किसका किया धरा है।

‘अरी गंवार औरत, क्या इससे लडकों ने गेंद खेली है?’ उन्होने गुस्से से पत्नी से पूछा, तो वह भरी भराई दुनाली बंदूक की तरह फट पड़ी।बोली, ‘मुझे मूर्खा समझते हो? अपनी प्रेमिका की खोपड़ी पूजाघर में लाके इतने दिन उसे अपवित्र करते रहे, तौ भी तुम पंडित के पंडित और मैं गंवार? हाँ हाँ मैने उस पर थूका भी और फिर दे दी उस कुलटा की खोपड़ी  अपने बेटों को गेंद बना कर लतियाने को!’

ज्योतिषी पल भर सकते में हो रहा।फिर खुद से बोला, ‘सही लिखा विधाता ने, कि अग्रे किं किं भविष्यति? हाय रे महायोद्धा, तूने जाने भी क्या क्या न देखा! ठीक कहा है कि औरत का चरित्र और पुरुष का भाग्य तौ विधाता भी नहीं जानते।हम मानुख किस गिनती में आते हैं?

‘चलो सब जनी भीतर।आज मैं सोने से पहले तुम तीनों को एक कथा सुनाता हूं जो इस खोपड़ी  से जुड़ी  है’, वह बोला।सब चुपचाप भीतर हो लिये।

उस रात ज्योतिषी ने अपने परिवार को जो भाग्य कथा उसने ललाट पर विधाता की लिपि में बांची थी, जस की तस सुनानी शुरू की:

यह ललाट, विधाता कहते हैं उस जातक का है, जो बड़ा होकर एक साथ महावीर, महाक्रूर और महा अन्यायी होगा।जातक विश्व में परम प्रतापी योद्धा राजा वीरेंद्र जू देव के नाम से दिगदिगंत तक अपनी वीरता, क्रूरता और अन्याय के लिये याद रखा जायेगा।

स्वभाववश यह एकाकी रहेगा, न इसका कोई सच्चा मित्र होगा न शत्रु।उसकी इकलौती प्यास होगी साम दाम दंड भेद जैसे भी हो, अपने सारे शत्रुओं का सर्वनाश करके संपूर्ण शक्ति पा लेने की।एक समय आयेगा भी जब सारी शक्ति इसके हाथों में होगी।सूरज इसकी करै रसोई, समंदर इसकी धोती धोई, चांद इसका मशालची होगा और पवन इसके द्वार पर झाडू लगायेगा।बाहर यह हर पल एक ऐसे सुरक्षा कवच से घिरा रहेगा जिसका भेद सुर नर मुनि तक नहीं कर सकैं।हर बार लडाई में जाते हुए यह यम को अपनी पाटी पर बाँध जायेगा ताकि हर युद्ध में यही जीत कर लौटे इसके दुश्मन नहीं।

प्रौढ़ होने तक इसकी टक्कर का देश भर में न कोई योद्धा बचेगा, न ही सारी परजा को भेड़ों की तरह हांकनेवाला नृपति।सारे देश उसकी कठोर ताड़ना और अन्याय के डंडे से थर थर काँपेंगे।प्रसिद्ध हो जायेगा कि, ‘चंद्र टरै, सुरज टरै, टरै जगत व्योपार, पर राजा वीरेंद्र को घटै न नाम, न अन्याय- अत्याचार!’

परंतु ऐसा महाबली अपने ही महल में अपने ही पुत्र और अपनी रखैल के हाथों मारा जायेगा।

कारण यह, कि इस परम निष्ठुर जातक के भाग्य में प्रौढावस्था में सारा  संयम भुला कर एक अपरूप सुंदरी राजनर्तकी के प्रति आकर्षित होना लिखा है।आकर्षण इतना गहरा होगा कि राजा राजनर्तकी को तो राजमहल में रख लेगा और अपने पुत्र की माता, राजमहिषी को बेबुनियाद लांछन लगा कर उसके बाप के घर पठा देगा।

पर यही नर्तकी होगी जो बाद को उसके अंत का कारण बनेगी जिसे रणक्षेत्र में बडे बडे योद्धा भी न हरा सके।

इसके अंत की पटकथा इस तरह बनेगी कि कुट्टनी की पुत्री राजनर्तकी बुढाते राजा वीरेंद्र को तो रिझायेगी ही, लेकिन उसके पुत्र सुरेंद्र पर अपने रूप का पांसा फेंक कर उसे भी मोहित कर लेगी।यह युवक अपनी माता के देशनिकाले से अपने पिता के प्रति शत्रुता भाव रखता आया होगा, और नर्तकी उसको कंधे पर सिर रख कर अपना दु:ख सुनाने को कह कर धीमे धीमे उसके साथ भी गुप्त प्रेम व्यापार शुरू कर देगी।

कुछ समय बाद प्रेमविवश राजा वीरेंद्र नर्तकी के जन्मदिन पर उसे भेंट में देने के लिये एक अनमोल रत्नजटित कमरपेटी बनवायेगा।पर वह गहना ऐन समय पर गायब हो जायेगा।और एक दिन वह देखेगा कि वही कमरपेटी नर्तकी की कमर की शोभा बढा रही है।‘तुझे यह किसने दी?’ पूछने पर नर्तकी हंस कर महायोद्धा वीरेंद्र से कहेगी, ‘यह तो मुझे युवराज ने दी है।आप दें कि युवराज, क्या अंतर पडना है? बंधना इसे मेरी ही कमर पर था न?

इस पर बिफर कर जब परमप्रतापी राजा वीरेंद्र जब उसे मारने को अपनी प्रसिद्ध तलवार उठाने जायेगा, तो उसका अपना पुत्र अचानक खंभे के पीछे से बाहर आ कर उसे उसी तलवार से यह कहते हुए मार डालेगा कि ‘तूने मेरी माता को देश निकाला दिया, अब मेरी प्रेमिका को मारना चाहता है?’

इसके बाद दोनों प्रेमी उस महायोद्धा की लाश को घसीट कर उसकी छाती पर पत्थर बाँध कर महल की छत से रातोंरात नदी में डुबो देंगे।और फिर उसकी खोपड़ी को दूर भंवर में फेंक कर सुख से महल के भीतर लौट जायेंगे।

कई सदी बाद जब इसका शरीर सड़ गल गया होगा, तो भारी बाढ आयेगी।और उसमें बहता हुआ राजा वीरेंद्र का कटा हुआ मुंड एक पेड़ की जडों में अटका रह जायेगा।

इसके बाद विधाता ने अंत में रहस्यमय वाक्य लिखा था, ‘अग्रे किं किं भविष्यति? देखो अब आगे और क्या क्या होता है?’

कथा सुना कर ज्योतिषी बोले यही होना था जो हुआ।अभिशप्त खोपड़ी  की कपाल क्रिया तो तुम्हारे पुत्रों ने लातों से कर ही दी है, अब यही हो सकता है कि कल सर्वपितृ अमावास्या को इस मुंड के अवशेषों को गंगाजल से धोकर कर मैं इसका विधिवत् तर्पण कर दूं।अब कभी मुझ पर शक मत करना |’

अगले दिन पूरे परिवार ने शर्मिंदा हो कर ज्योतिषी के बताये अनुसार मुंड के टुकडों को पवित्र जल से धोया, हाथ जोड़ कर क्षमा मांगी और ज्योतिषी उसे रेशमी गमछे में लपेट कर अस्थि विसर्जन को ले चले।

पर यह क्या? ज्योतिषी शमशान पहुंचने को ही थे, तभी जाने कहाँ से एक चील आई और झपट्टा मार कर वह पोटली भी ले उड़ी।

खाली हाथ घर वापिस आकर ज्योतिषी ने अपने दोनो बेटों और पत्नी को बुलाया और चील का किस्सा बता कर उनसे पूछा, अब बोलो कि बोलो इस विचित्र कथा से किसने क्या सीखा?

बडा लडका बोला, ‘यही कि ससुर कितना ही बडा योद्धा फोद्धा हो, कभी न कभी मर ही जाता है।और फिर निडरता से उसकी खोपड़िया को लतियाया जा सकता है।’

‘तू फौज में भरती होने की तैयारी कर!’ ज्योतिषी ने उससे कहा।

छोटा बेटा बोला, ‘जातक का जीवन अंत में जाकर ललाट लिपि से ही नहीं उसके कर्मों से चालित होगा यह जाननेवाले विधाता उसके कर्मफलों के लिये हाशिये पर जगह छोड़ कर लिखते हैं, अग्रे किं किं भविष्यति?’

ज्योतिषी प्रसन्न हो कर बोले, तुझे तो मैं स्वयं ज्योतिष सिखाऊंगा।’

फिर ज्योतिषी पत्नी की तरफ देखने लगे।

पत्नी बोली, ‘साफ कहूं तौ वे कितने ही कर्कश और बूढे हों तब भी एक मंजे हुए संगीतकार का गाना और पुरानी पत्नी का बड़बड़ाना विद्वानों को निरंतर सुनते रहना चाहिये।

न जाने कब कैसा मोती हाथ लग जायेगी?’

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प्रीति प्रकाश की कहानी ‘पिपराहा  बाबा की जय’

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इस बार हंस कथा सम्मान दो लेखकों को संयुक्त रूप से दिया गया है, जिनमें एक प्रीति प्रकाश हैं। प्रीति प्रकाश तेजपुर विश्वविद्यालय की शोधार्थी हैं और जानकी पुल पर पहले भी लिखती रही हैं। जानकी पुल की तरफ़ से उनको बधाई और आप उनकी नई कहानी पढ़िए-

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इस कहानी में कहानी जैसा कुछ नहीं है। न कुछ तड़का है, न कुछ छौंक है। इश्क़ का नमक भी नहीं और बदले की आग तो बिलकुल भी नहीं। यह कहानी तो शुद्ध सात्विक कहानी है। जिसमे धर्म और भक्ति इतनी है कि पढने के बाद अगर सावन में सात बार चिकन खाने का पाप भी कर लिया तो माफ़ हो जायेगा।

     छोटा शहर है हमारा, और उस पर भी और छोटा टोला। खटिक मोहल्ला, यही नाम दिया था शहरवालों ने इस टोले को। यहाँ रहने वाले अधिकतर लोग फल बेचने के काम में लगे हैं। कुछ लोगों की पान की गुमटी है, तो कुछ छोटे मोटे होटल या फिर दुकान में काम करते हैं। यहाँ “लोग” मतलब मरदाना जानना सब।  बस स्टैंड से एकदम सटे गैरमजरुआ जमीन पर बसा है हमर ई टोला, छोटी जात के लोग का छोटा सा टोला।

  तो क्या, भगवान् तो बड़ा- छोटा नहीं देखते। उनके लिए तो सब बराबर। कब, कहाँ, किस रूप में दर्शन दे दे कोई नहीं जानता। अब कौन जानता था कि उस पीपल के पेड़ में उतना महातम था। कहाँ तो सरकारी स्कूल के बच्चे उसके नीचे बैठे दू का दू, दू दुनी चार पढ़ते रहते, छुट्टी के बाद यही बच्चे उसी पेड़ से पकुआ तोड़ तोड़ खाते। आते जाते लोग गर्मी में वही गमछा बिछा लेट जाते। लुका छिपी में शायद ही कोई बच्चा होगा जो उसके पीछे न छुपा होगा। बच्चे, भर गर्मी उसके पत्तो से कभी पान, कभी नाव, कभी ताला बनाते। कहाँ तो वहां जुआरियों शराबियों का अड्डा लगता और  दोपहरी से शाम तक ताश का खेल चलता। रोज रात कोई दारु पी के टुन्न होकर वहीं सो जाता और सुबह मेहरारू के झनर झनर से नींद खुलती। और ये  रोजमर्रा के सारे पाप  हो रहे थे उसी पीपल पेड़  के नीचे और किसी को खबर ही न थी उनके महातम की। वो तो भला हो रजुआ की माँ का जो सब तरफ से हार कर उनकी शरण में जा बैठी। लाइब्रेरी के बाहर कांसेस में बैंकिंग का सेट बना बनकर जब हमरे ‘ही मैन’ रजुआ की हिम्मत भी जवाब देने लगी थी और जब हर परीक्षा में एक, दू नंबर से वो फेल हो जा रहा था तो उसकी माँ ने पिपराहा  बाबा की शरण गही। पिपरहा बाबा मने वही पीपल का पेड़।

नया पीयर साडी पहन के और मांग तक सिंदूर टीक के जब हाथ में फुलडाली लिए एक दिन रजुआ के माँ वहां पहुँची और पेड़ के चारों तरफ रक्षा का धागा बाँधने लगी तो लोग भकुआ के देखने लगे।

“बाबा, अब कौनो देवता मून बाकि नहीं रह गए। अब आप ही संभाले हमारी नाव। हमरे रजुआ को नौकरी मिल जाये तो अष्टजाम करवाउंगी इसी पीपल पेड़ के नीचे।”

 रजुआ की माँ ने भाखा। जाने उन्हें किस ज्योतिष ने कह दिया था कि पीपल पेड़ की पूजा करे। लेकिन अब तो लोग कहते हैं कि पिपराहा  बाबा ने  रजुआ की माँ के माथा पर सवार होकर भखवाया। रजुआ की माँ भी कहती हैं कि उनके भाखते ही पीपल पेड़ के पत्ते खूब जोर जोर से हिलने लगे जैसे असीस रहे हो। विश्वास नहीं करने की कोई वजह नहीं है  क्योंकि जो रजुआ पिछले तीन साल से बैंकिंग का सेट बना रहा था, उसकी नौकरी लग गयी। बैंक क्लर्क बन गया वो। फिर शादी की और एक साथ गाड़ी, फर्नीचर, इनवर्टर, फ्रीज, टीवी, और घरवाली सबका मालिक बन गया। फिर तो राजू बाबु की माँ ने बड़ी धूम धाम से अष्टजाम जग कराया उसी पीपल के पेड़ के नीचे। शामियाना लगा, लाउडस्पीकर में तीन दिन हरे रामा, हरे कृष्णा बजता रहा। भर मोहल्ला के लोग को पूड़ी, जलेबी और सब्जी का भोज मिला। तीन दिन बाद जब शामियाना हटा तो पीपल की कई शाखें टूट गयी थी, लेकिन इससे क्या फरक पड़ना था, लाउडस्पीकर से उसका महातम कई टोलो तक फ़ैल चुका था। बोलो पिपराहा  बाबा की जय।

     फिर तो आये दिन, कभी कोई पूजा तो कभी कोई जग वही पीपल के नीचे होने लगे। शनिचर के सबेरे तो अँधेरे में ही लाइन लग जाती थी पूजा करने वालों की। शाम को कई दिए जल रहे होते। दिन भर अगरबत्ती की महक से गमकने लगा उ अथान। सुहागिनों ने सेंदुर से टीक टीक कर औरी जगता कर दिया उस जगह को। कोई परीक्षा देने जाये तो उहे से टीका उठा के माथे पर लगा ले। कोई लडकी के लिए वर खोजने निकले तो वही अगरबत्ती की राख और फूल उठा के गाठ बाँध ले। बोलो पिपराहा  बाबा की जय।

जब सत्रोहना का बेटा, झंदीला की बेटी को भगा के लाया और कहा कि पिपराहा  बाबा को साक्षी मानकर उनके ही गाछ से सेंदुर उठा के मांग भरा है तब सत्रोहना को मानना ही पड़ा उस शादी को। फिर तो टोले की कोई शादी पूरी न होए जब तक वर- वधु पिपराहा बाबा का आशीर्वाद न ले ले। सावन में महादेव स्थापित करा के पूजा बाद वही लोग पीपल के नीचे रखने लगे माटी के महादेव को। धीरे-धीरे भक्तन की भीड़ भी बढ़ने लगी। वार्ड पार्षद की चार बेटी थी, दुल्हिन चौथी बार पेट से थी। भाखा कि पिपराहा बाबा एक बेटा दे दे तो वो टाइल्स पिटवा देंगे। बाबा ने सुन ली। आठ  महीने बाद लोगो ने देखा, पार्षद पति  मारे टाइल्स पिटवा रहे थे पीपल के चबूतरे पर। टाइल्स भी ऐरू गैरु नहीं, सब देवी देवता बनल टाइल्स। किसी पर महादेव जी माता पारवती साथै गणेश भगवान् को गोद में लिए बैठे है, तो किसी पर राधा- कृष्ण अशीस रहे हैं। किसी पर राम सीता लच्छमन वन जा रहे हैं तो किसी पर विष्णु भगवान् मगर को दर्शन दे रहे हैं। कुछे दिन में साफ़ शकल-सूरत बदल गया जगह का। सबने देखा कैसा चकाचक हो गया उ अथान। बोलो पिपराहा  बाबा की जय।

लेकिन धीरे धीरे पीपल सूखने लगा। उस पर बने सारे घोंसले जाने कहाँ गायब हो गए। जैसे अब चिरई चुनमुन को भी पता चल गया हो कि वो कोई आम पेड़ नहीं पिपराहा  बाबा है जिन के माथे पर घोसला बनाना मतलब बैकुंठ का कन्फर्म टिकेट कैंसिल करना। पीपल की जड़ के पास बनी चीटियों की बीब तो उसी दिन साफ़ कर दी गयी थी जब टाइल लगा। पर इन छोटी-छोटी चीजों की परवाह कौन करे जब साक्षात् एक ब्राह्मण पुरुष वहां आसन जमाने लगे। एक सुबह टोले वालों ने देखा – लाल चन्दन लगाये, गेरुआ कपड़े पहने, चेहरे पर भव्य ओज वाले कोई साधु वही बैठे हैं। पहले तो आते जाते लोगो ने उन्हें पूरी सरधा से परनाम किया। मंगरू जरा निठ्ठला आदमी था। अक्सर सुबह वही बैठ कर दतुअन करता और एने ओने ताक झाँक करता रहता। अब कहते हैं न खाली दिमाग शैतान का डेरा। तो उस शैतान ने ही बाबा जी से सवाल करने शुरू कर दिए।

“ कहाँ से हो बाबाजी?”

“ हम तो इस पूरे संसार के हैं बच्चा। ये पूरा संसार हमारा है।” बाबा जी ने अपने अंगोछे से अथान साफ़ करते हुए कहा।

“तो फिर इहाँ कैसे? राह चलते ठहर गए हो क्या? कहीं और जाने वाले हो क्या?” बेहूदा मंगरुआ दतुअन फिर से मुंह में डालने के पहले सारे सवाल पूछ लेना चाहता था।

“किसको कहाँ जाना है, ये तो भोलेनाथ तय करते हैं बच्चा। कल रात मेरे सपने में पिपराहा बाबा आये। मुझसे कहा तू कहाँ भटक रहा है। जा खटिक मोहल्ला में, वही मैं तेरी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। बस, नींद खुल गयी। अब बाबा का आदेश था, तो मुझे मानना ही था। सो यहाँ हूँ।”

“ सो तो ठीक है, लेकिन पिपराहा  बाबा ने सपने में और कुछ नहीं बताया? खाओगे क्या, रहोगे कहाँ?”

“जिस विधि राखे राम, उस विधि रहिये” बस इतना कह कर बाबा जी चुप हो गए। उनके चेहरे से साफ़ नज़र आ रहा था कि बाबा जी को अब उस निठ्ठले की सवालो में कोई रस नहीं आ रहा था। वो तो पूजा की थाल सजाने में लगे थे।

मंगरुआ को समझ नहीं आया कि पिपराहा  बाबा और राम जी में कौने कनेक्शन है का। हो भी सकता है, आखिर दुनो तो भगवान् ही है न। वह और सवाल पूछता लेकिन तभी उसे बबिता की मतारी हाथ में फूल डाली लिए आते दिखी। बबिता और मंगरुआ साथ ही पढ़े थे। मंगरुआ ने कितनी बार उसे पकुआ तोड़ तोड़ के दिया था। उसके बदले सर पर लालमी( तरबूज) रख कर बेच आया था, और पूरी इमानदारी से सारे पैसे उसे दे दिए थे। अब बड़े होने पर जब बबिता की मतारी उसके लिए वर खोज रही थी तो मंगरुआ की पूरी कोशिश रहती कि वो उन्हें नजर आ जाये। इसलिए झट मुंह से दातुन निकाल पिपराहा बाबा के सामने हाथ जोड़ खड़ा हो गया।

     शायद बबिता की मतारी ने ही नए पधारे बाबाजी के बारे में सबको बताया। जिसने सुना हतप्रभ हुआ। अरे इतना होश तो हमें रहा ही नहीं कि पिपराहा  बाबा की सेवा के लिए किसी बाबा जी को ले आये। अब पिपराहा  बाबा ने स्वयं जब इसका इन्तेजाम कर दिया है तो हमसे इतना न हो पायेगा कि बाह्मण के रहने खाने का इन्तेजाम कर दे। तय हुआ हर घर महिना में सौ रुपये चंदा देगा बाबाजी को। रहने के लिए बबिता की महतारी के घर में ही एक कमरा दे दिया जाएगा। उहे चूल्हा जला लेंगे बाबाजी, और दू गो रोटी सेक लेंगे। बोलो पिपराहा  बाबा की जय।

     बस उ दिन से विधिवत पिपराहा  बाबा की पूजा शुरू हो गयी। आये दिन पूजा पाठ, जग परयोजन। आये दिन भोपा लाउडस्पीकर। अब त उ अथान का महातम दूर दूर तक फ़ैल गया है। लोग कहाँ कहाँ से आते हैं मनौती  माँगने। बड़ी भीड़ लगती है हर शनीचर को। मेला ठेला लग गया है। एक दान पेटी रख दी है बाबाजी ने। वही भक्त लोग दान पुन्य भी कर लेते हैं। अगल बगल की जमीन छेक के बाबाजी ने कुटी बना ली है। कुछ अधर्मी लोग कहते हैं कि वही रात में दारू कबाब का दौर भी चलता है। लेकिन अगर अईसा होता तो भसम न कर देते पिपराहा  बाबा। वही अब एगो छोटी चुकी मन्दिर भी बन गया है। आगे जाके बड़का मन्दिर बनाने का परयास चल रहा है। बस एक बात है- “पीपल का पेड अब कहीं नहीं दिखता। जाने वो कहाँ चल गया। लेकिन उ दिन बाबा कथा कह रहे थे विद्यापति और भगवान् शंकर का। भगवान् शिव, शुगना बनके विद्यापति के यहाँ काम करते थे। लेकिन जिस दिन विद्यापति ने उन्हें पहचान लिया उसी दिन से अंतर्ध्यान हो गए। शायद पीपल का पेड़ भी वैसे ही अंतर्ध्यान हो गया हो। बाकि महातम बहुत है उस अथान का अब। सब जानते हैं बड़ी जगता हैं पिपराहा  बाबा। बोलो पिपराहा  बाबा की जय।

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प्रमोद द्विवेदी की कहानी ‘कामरेड श्रीमान समस्या प्रधान’

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प्रमोद द्विवेदी जनसत्ता के फ़ीचर एडिटर रह चुके हैं। संगीत के रसिया हैं और व्यंग्य भाषा में कहानियाँ लिखने में उनका कोई सानी नहीं। यह उनकी नई कहानी पढ़िए-

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कामरेड का यह अद्भुत और जिज्ञासापूर्ण नाम दरअसल युवा पत्रकार चंद्रकेश सिन्हा की कथाकार-कवयित्री पत्नी रागिनी सिन्हा तापसे ने रखा था। हुआ यह कि एक दिन उसांसे भरे सुबह-सुबह वे प्रगट हुए। आते ही दो बार पांच नंबरी चश्मा पोंछा और बिना भूमिका के बोले, ‘भाईसाहेब अपने आसपास गाइने की अच्छी लेडी डॉक्टर है कौनो?’ चंद्रकेश चकराया, क्योंकि कभी इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। दोनों बच्चे ननिहाल में हुए इसलिए उसे कोई समस्या लगी ही नहीं। यह तो जैसे पूरी तरह बीवी का डिपार्टमेंट था।

 बेबाक और दुनियादार रागिनी ने कहा, ‘अचानक आपको क्या समस्या आ गई?’ कामरेड टिल्लन ने सकुचाते हुए कहा, ‘समस्या वाइफ की है। फाइनल चेकअप करवाना है।’ चंद्रकेश ने कहा, ‘गुरु यह कहो घर में किलकारी के आसार बन पड़े हैं।’ कामरेड बोले, ‘सर आप को खेलबकड़ी सूझी है। वाइफ बड़े मेंटल ट्रॉमा में गुजर रही हैं। थायरायड के कारण कुछ हार्मोनल दिक्कतें आ रही हैं…। पहला मामला भी है ना…।’ कामरेड का चेहरा उदास था। क्रांति के कई विकट पड़ावों में भी ऐसी उदासी और चुनौती से उनका पाला नहीं पड़ा था।

खैर, उनकी समस्या तो सुलझानी ही थी। रागिनी ने अपने वाट्स ग्रुप में मैसेज डाल दिया। साथ ही कहा, ‘टिल्लन भाई आप टेंशन बहुत लेते हो। आप तो गूगल से भी नंबर निकाल सकते हो ?’ कामरेड टिल्लन ने बेहद मंद, मिठुआ सुर में कहा, ‘गूगल की सूचनाएं भरोसे लायक नहीं होतीं…।’

रागिनी के पास दो मिनट में निर्माण विहार की लंदन रिटर्न डाक्टर तृप्ता रोहतगी का नाम और नंबर आ गया। वे उनकी सहेली की ननद थीं। कामरेड यह नंबर लेकर चले गए।

 उनके जाते ही रागिनी ने चंद्रकेश के कान खींचते हुए कहा, ‘ऐ भाई तुम तो कह रहे थे कि ये महान बमबाज क्रांतिकारी हैं। वरवर राव के चेले हैं। छत्तीसगढ़ में एक्शन कर चुके हैं। हमें तो एकदम खिसकूदीन लगे, बल्कि इन्हें तो श्रीमान समस्या प्रधान कहना चाहिए। काहे के कामरेड टिल्लन।’ यह नया नाम सुनकर चंद्रकेश खूब हंसा और रागिनी से कहा, ‘अरे भाई यह भाजपाइयों जैसी बातें मत करो। कोई हमसे हेल्प मांग रहा है तो कुछ सोचकर ही।’

इसके बाद तो बहस ही छिड़ गई।

रागिनी बरस रही थी, ‘अरे भाई मदद का कोई लेवल भी तो हो। याद करो, कड़ाके की सर्दियों में ये भाईजान रात में पूछने आ गए थे कि अपने इलाके में एयरटेल की सर्विस अच्छी है कि बीएसएनएल की। एक बार डुप्लीकेट चाभी वाले को ढूंढ़ने के लिए स्कूटर ले गए और खंभे में भेड़ मारा, कभी पूछेंगे- होम लोन पीएनबी से लें कि एचडीएफसी बैंक से… अति कर दी! अरे भाई, यहां इंक्वायरी दफ्तर खुला है या हम एरिया अफसर हैं…ऐसे ही ढिलुवा किसिम के कामरेडों ने क्रांति का कचूमर निकाला होगा।’

चंद्रकेश मुस्कराया, ‘तुम इन पर एक कहानी लिख डालो, ‘कामरेड का कोट’ जैसी। नहीं तो कहानी का आइडिया अपने गुरुजी उदय प्रकाश जी को भेज दो। आजकल यहीं गाजियाबाद के वैशाली में रह रहे हैं।’

‘इन पर ही नहीं, तुम पर भी लिखूंगी कि कैसी निखट्टू मंडली जुटाई है।’

‘ठीक है।’ चंद्रकेश ने बाखुशी समर्पण कर दिया।

 अब बेचारे कामरेड टिल्लन करते भी क्या! जीवन के महान कष्टों, जनवादी तप के बाद उन्होंने कुछ सालों से कुर्ता-पायजामा छोड़कर ब्रांडेड जींस और शर्ट पहननी शुरू की थी। और कई बार किसी ना किसी बहाने सामने वाले बुर्जुआ को बता देते कि ‘बताइए क्या जमाना  गया है कि बारह सौ की कमीज मिल रही है। इतने में तो हमने अपने मिर्जापुर में एक खुन्नी भैंसिया खरीद ली थी।’

असल में वे पूरे अनोखे लाल थे। जीवन में एक बार भी प्रेम पर कविता नहीं लिखी, ना किसी दिलकश कन्या को कोहनियाया, पर लखनऊ में जनवादी गुटका अखबार विप्लवधारा में काम करने के दौरान ही उन्हें प्रेम हो गया। उन्होंने भगत सिंह के साथी कामरेड यशपाल और प्रकाशवती की प्रेमकहानी पढ़ रखी थी। कुछ इसी अंदाज में उनका प्रेम फर्राटेदार हुआ। उन्होंने नासिर काजमी के कुछ शेर याद कर डाले। एक दिन कामरेड टिल्लन ने सांवली-सलोनी, कजरारे नैनों वाली, निचले होठ पर तिल वाली कामरेड युक्ता पाणिग्रही से कहा, ‘ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि कामरेडों को प्रेम नहीं करना चाहिए।’ और एक दिन संसार की मुख्याधारा में शामिल होने के लिए वे लखनऊ के चारबाग से बस पकड़कर सीधे दिल्ली आ गए। कामरेड ने कनपुरिया मालिक वाला एक पूंजीवादी अखबार ज्वाइन किया और युक्ता एक पूर्व आइएएस संपत छिब्बर के एनजीओ में काम करने लगी। आजकल वह तिहाड़ के कैदियों के बीच काम कर रही थी।

 नोएडा के जिस अखबार में कामरेड वरिष्ठ उपसंपादक बनकर आए, वहां चंद्रकेश सहायक संपादक था और एडिट पेज उसके हवाले था। कामरेड को वह मिर्जापुर से ही जानता था। दोनों के पिता दोस्त थे। गाने-बजाने की बैठक में एक मंजीरा बजाते थे, दूसरे नाल पर कमाल दिखाते थे। लेकिन समय की गति ऐसी कि चंद्रकेश और कामरेड की मुलाकात पंद्रह साल बाद सीधे यहीं हुई। चंद्रकेश ने चाय-वाय पिलाकर पहले यही पूछा कि अनुवाद कैसा है। कामरेड ने अकड़कर कहा, ‘मैं अनुवादक थोड़ी ही हूं। पत्रकार हूं।’

 चंद्रकेश ने समझाया, ‘पहलवान यह लाला का अखबार है। यहां अनुवाद की जरूरत पड़ जाती है। इसे तौहीनी काहे मान रहे हो। आप टैस्ट दिए थे तो अंग्रेजी के एक पीस का अनुवाद किए थे कि नहीं…।’

कामरेड सब समझ गए। चंद्रकेश ने अपने शानदार, नीले मोबाइल में उसका नंबर फीड करते हुए, यह शेर भी सुना दिया-

हम अय्याम जमाना देखे हैं, हम वक्त पर नजरें रखते हैं,

कुछ मजबूरन कुछ मसलहतन कातिल को मसीहा कहते हैं।

कामरेड मन मारकर बोल गए- ‘ठीक बात भाईसाहेब, पापी पेटवा जो ना कराए…।’

चंद्रकेश की शान देखकर वे अभिभूत भी हुए। शक हुआ कि यह बनिया के अखबार में रहकर पक्का भाजपाई तो नहीं हो गया।

बहरहाल विचारधारा के टकराव के बावजूद चंद्रकेश ने उनकी काफी मदद की। मयूर विहार फेज 1 में घर के पास ही एक फ्लैट दिलवा दिया। कामरेड दंपति सुखद और शोषणमुक्त भारत की कल्पना करते हुए जीवन बिताने लगे। वे साथ-साथ सैर करते और आम दिल्ली वाले की तरह मदर डेयरी का दूध-दही लेकर लौटते। इंस्टाग्राम, ट्वीटर और फेसबुक ने उनकी जनप्रियता बुलंद की। कामरेड ने ठान लिया था कि बनिया के ब्राह्मणवादी अखबार में भले ही वे मोदी सरकार के खिलाफ कुछ ना लिख पाएं। पर सोशल मीडिया पर खयाली कुल्हाड़ा चलाते रहेंगे। हालांकि चंद्रकेश ने इशारा कर दिया था कि कोई टिप्पणी करने से पहले विचार कर लेना, आजकल नौकरियां जल्दी मिलती नहीं…और यह सरकार रहम एक सीमा तक ही करेगी।

कामरेड ने उपहास में ‘जी जनाब’ कहकर बात टाल दी तो चंद्रकेश समझ गया कि सरऊ जल्दी अपने पांव में कुल्हाड़ी मारने वाले हैं।

अब कामरेड टिल्लन करते भी क्या। एक शेर उन्हें भी याद था-

आदत ही बना ली है तुमने तो मुनीर अपनी,

जिस शहर मे भी रहना उकताए हुए रहना

                  —————————-

 चंद्रकेश ने रागिनी को सही बताया था। सचमुच कामरेड टिल्लन जन्मजात क्रांतिकारी थे। मिर्जापुर में अपना अभावों भरा बचपन गुजारने के दौरान ही वे अपने समाज सुधारक, ट्रेड यूनियन वाले पिताजी रामआसरे (उपाध्याय) की विरासत में छोड़ी रूसी-चीनी किताबें (हिंदी में) पढ़ने लगे। यहीं से क्रांति करने का इच्छा कुकुआने लगी। एकदम झिल्ला हो चुका ‘चांद का फांसी अंक’ उन्होंने कई बार पढ़ लिया और खुदीराम बोस बनने की इच्छा इतनी फड़फड़ाती कि सपने में किसी ना किसी को बम मार देते। कल्पना करते कि लेनिन की जीवनी गले में लटका कर तिहाड़ जेल में फांसी पर चढ़ गए हैं।

अभी वे सिर्फ सोलह साल के थे। अखबार में मुख्यमंत्री के नगर आगमन की खबर पढ़ते ही उन्होंने खुदीराम बनने की ठान ली। कछियाने के लौंडों से एक बम का जुगाड़ किया। सोमवार के दिन देवी दर्शन को आए मुख्यमंत्री के काफिले पर दूर से देसी बम चला दिया था। बम फटा नहीं, क्योंकि अनाड़ी हाथों ने बनाया था। माल सही था नहीं। पर बम बम ही होता है। चाहे वह सुतली वाला ही क्यों ना हो। मौके पर ही छिटंकी से दिख रहे कामरेड को पुलिस ने पकड़ लिया। कामरेड होशियार था। उसने चिल्लाकर कह दिया, ‘हम नाबालिग हैं. चाहे मेडिकल करा ल्यो।’ रिसियाई पुलिस तब तक नितंब भंजन कर चुकी थी। नाबालिग वाली बात पर दरोगा हूसेलाल यादव संभल गया।

उसने सबसे काबिल सिपाही से कहा, ‘अबे जात पूछो, नाम पूछो…’

सिपाही सिद्धनाथ मिश्रा ने पूछताछ शुरू की।

‘क्या नाम है तुम्हारा?’

‘आजाद!’

‘अबे आगे पीछे कुछ और?’

‘बस आजाद, कामरेड टिल्लन आजाद।’

हूसेलाल झल्लाया, ‘साला चंद्रशेखर आजाद की आत्मकथा पढ़कर आया है।’

‘बाप का नाम?’

‘गुलामदीन’ (वह झूठ बोला)

‘रहवास?’

…………..(चुप्पी)

‘बम काहे फेंके?’

‘क्रांति करनी है।’

‘काहे?’

‘देश बदलना है…।’

‘क्रांति और बमबाजी से पेट भर जाएगा सरऊ?’

‘हां, भर जाएगा। शोषकों का, फासिस्टों का सर्वनाश जरूरी है।’

सिद्धनाथ चकराया, ‘यादव जी, शोषक तो सुने रहे, ई फासिस्ट कौन सी जाति है?’

यादव की भी खोपड़ी घूम गई। कहने लगा, ‘इसकी मेडिकल जांच जरूरी है। पर नाबालिग लगता नहीं। चल बे पेंट उतार। तेरी नुन्नी चेक करते हैं।’

कामरेड ने कहा, ‘उतार दूंगा, ध्यान रहे लौंडेबाजी का आरोप लगाकर नौकरी खा जाऊंगा। बोलो उतारें…।’

पुलिस वाले घबड़ा गए।

सिदधनाथ ने खोपड़ी खुजाते हुए कहा, ‘सर कौन सी दफा लगेगी इस पर। 307 लगाएं कि 323…। साला सुधारगृह जाकर दुई साल में छूट जाएगा।’

 दरोगा को दया भी आई क्योंकि कामरेड चिकना था। ठीक से रेख तक नहीं आई थी। उसे पता था कि चार दिन जेल में रह गया तो छीछालेदर करवा के आएगा। जेल में कौन पूछता है चिरकुट बमबाजों, लौंडियाबाजों को।

 उसने सीओ भानुप्रताप सिंह से बात की। भानुप्रताप ने कप्तान साहब से। कप्तान साहब उदयवीर सहारन मेडिकल ग्राउंड वाले आइपीएस थे। उन्होंने बताया कि लखनऊ में गृह मंत्रालय ने इस घटना को कोई तूल ही नहीं दिया है। उन्हें लग रहा है कि टायर फटने की घटना हुई है। ड्राइवर पर ही सारी बात आ गई है, इसलिए बमकांड नाम की चर्चा ही नहीं की जाए। शाम को विज्ञिप्त भेजकर अखबारों को बता दें कि बम धमाके की कोई घटना ही नहीं हुई है।

इस तरह किशोर कामरेड से पुलिस ने मुक्ति पाई। सीओ साहब खुद भी बरेली प्रवास के दौरान छात्र जीवन में नेशनल पब्लिशिंग हाउस से दस रुपए वाली ‘दास कैपिटल’ लेकर पढ़ चुके थे। पैसे जोड़कर, दैनिक जागरण और जनसत्ता की रद्दी बेचकर उन्होंने मार्क्स-एंगेल्स की रचनाएं खरीदी थीं। उन्हें अंदाज था कि जरा-सा मन रपट जाए तो क्रांति करने का मन करने लगता है। उन्होंने नवोदित किशोर कामरेड टिल्लन को बुलाकर कहा, ‘बउवा हमने पता कर लिया है कि कोई बम धमाका नहीं हुआ। किसी ने तुम्हें फंसाने के लिए नाम ले लिया था। तुम तो भले लग रहे हो। बाभन-ठाकुर लगते हो सकल से….। कौन जात के हो?’ टिल्लन ने कहा, ‘जात ना पूछो क्रांतिकारी की…हमने जाति लगाना छोड़ दिया है। बाबा हमारे उपधिया लिखते रहे….पिता जी ने छोड़ दिया था।’

 सीओ साहब ने रहम दिखाते हुए कहा, ‘वैरी गुड लोहिया जी भी यही चाहते थे…पर जांच से पता चल गया है कि एंबुलेंस का पिछला टायर फटने से धमाके हुआ। तुमको गलत पकड़े हैं…।’

इस बयान से कामरेड को झटका लगा, ‘क्या कह रहे हैं साहब। हम क्रांति की शुरुआत किए हैं। हमें जेल भेजो चाहे, चाहे बच्चों वाली जेल में डाल दो…। हमें क्रांतिकारी बनना है। खुदीराम बोस की तरह उन्नीस साल से पहले फांसी पर चढ़ना है।’

सीओ साहब धीरे से यादव के कान में बोले, ‘यह पंडितवा बड़ा जड़ीला साइक्लॉजिकल केस है। साला मंगल पांडे बनना चाहता है…. मार-मार कर इसकी गुरिया-गुरिया ढीली करो और इसको जीप में बैठालकर रात में डाला सीमेंट फैक्टरी के आगे तक छोड़कर आओ। भुसड़िया वाला लंगड़ाते हुए पैदल लौटकर आएगा तो सारी क्रांति गंड़िहाने में घुस जाएगी।’

  इस फरमान पर बाकायदा अमल हुआ। नवोदित कामरेड टिल्लन जब घर पहुंचे तो अम्मा सुल्हर पंडित को पतरा दिखाकर पूछ रही थीं कि लड़कऊ कौन दिशा की ओर गए हैं। पंडित सबको चूतिया बनाते हुए बता रहा था, ‘एक गौर वर्ण की सुंदर, नाटी महिला, जिसने पीले वस्त्र पहने रखें हैं, उसे दक्खिन दिशा की ओर ले गई है…।’ लेकिन टिल्लन को देखते ही उसने झोला समेटा और कहा- बाकी यही बताएंगे।

 टिल्लन ने जो बताया, उसे सुनकर घर वालों के तो प्राण सूख गए। घर पर ही सेवा हुई। रात में पहरुआ का काम करने वाले भगवानदीन खटिक ने चुपचाप च्यवनप्राश के डिब्बे में भरकर सुउर की चर्बी लाकर दी। दिन में दो बार आंगन में बैठकर मालिश करती थीं अम्मा। रोती जाती थीं, ‘पुलिस का नाश हुई जाय…।’ चार महीने लग गए पुरानी काया पाने में। लेकिन चलते समय पउली अब भी किट्ट-किट्ट करती थी।

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 तो इस तरह कामरेड टिल्लन देश के सबसे युवा क्रांतिकारी बनने से बच गए। वे चाहते थे सोलह साल की उम्र में दुनिया उन्हें चारू मजूमदर, कानू सन्याल और विनोद मिश्र जैसी हस्ती माने। पर भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। वे कइयों को बताए कि मुख्यमंत्री के काफिले पर उन्होंने ही देसी बम फेंका था। पर पुलिस मानी ही नहीं। बल्कि समझदार पड़ोसियों ने कहा, ‘बेटा बहुत बड़ी अलप कट गई समझो, जो बच गए नहीं तो पुलिस जिंदगी भर सड़वा देती। तुम ई नहीं सोचे कि इस घटना से अम्मा, भाई-बहन पर क्या बीत रही होगी।’

कामरेड टिल्लन को यह तो समझ में आ गया कि यह पाजी सिस्टम उसे खुदीराम बोस नहीं बनने देगा। विचार बना, चलो पहले कम से कम बीए कर लेते हैं। इस बीच पूरा जनवादी साहित्य भी पढ़ लेंगे और अवसर मिला तो शरीर बनाकर, बंदूक लेकर बिहार या छत्तीसगढ़ की तरफ निकल लेंगे…पर क्रांति तो करनी ही है। वैसे अभी उन्होंने घर वालों से यही वादा किया कि फिलहाल छह-सात साल तक कोई उत्पात नहीं करना।

 तो ये कामरेड के किशोरावस्था के उथल-पुथल भरे दिन थे। लेकिन कुछ साल तक शांत और अध्ययनरत रहने की उन्होंने जो शपथ ली, उससे उनकी विप्लवी लपट ठंडी पड़ गई थी। किसी बड़े नेता की हत्या कर पूरी दुनिया में मशहूर होने की महान तमन्ना भी दुबला गई थी। एक दिन उन्हें लगा कि किशोरावस्था में उन्होंने जो हरकत की थी, सचमुच बड़ी खतरनाक थी। रूसी साहित्य पढ़ चुके सीओ साहब भले आदमी थे, जो सस्ते में निपटा दिए। सोचते-सोचते वह कई बार डर जाता। यहां वह भाग्य को मानने लगता, शायद किस्मत को यही मंजूर था।

यह तो अच्छा ही हुआ कि उनका चित्त शांत हो गया और वे मानने लगे कि कच्ची उमर में ज्यादा क्रांतिकारी किताब पढ़ लो, तो भगत सिंह की तरह असेंबली में बम फेंकने की इच्छा होने लगती है। खैर, पचपन प्रतिशत नंबर से वे इंटर पास हो गए और अपने पीएसी वाले मौसिया रामकृष्ण त्रिवेदी के प्रयास से इलाहाबाद के सीएमपी डिग्री कालेज में उन्हें एडमिशन मिल गया। यहीं से इतिहास, फिलासफी, हिंदी पढ़ते पहले बीए किया। एमए हिंदी में किया। राहुल सांस्कृत्यायन पर पीएचडी करना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने उन्हें नेतागीरी में उतार दिया और यहां भी फेल हो गए। पीएसओ के मछंदर सिंह के चेले बनकर प्रकाशन मंत्री का चुनाव भी लड़े। लेकिन ब्राह्मण-ठाकुर राजनीति के कारण उन्हें सौ वोट भी नहीं मिल पाए। हारकर वे पत्रकारिता की ओर उन्मुख हो गए और कुछ दिन दैनिक आज में काम करने के बाद पार्टी के पत्र में काम करने लगे। वे समझ गए कि उनकी प्रतिभा पत्रकारिता में ही निखर सकती है। या कहें कि उनकी समझ में आ गया कि जो कहीं कुछ ना कर पाए वह हिंदी पत्रकार तो बन ही जाता है।

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 बहरहाल विख्यात मोदी युग में कामरेड भले ही जनवाद, सामूहिकतावाद के उत्कट उपासक थे। पर मोहल्ले में वे नितांत एकांतवादी थे। समस्या यह भी थी कि उनके गली में सपनीले जनवाद ने प्रवेश ही नहीं किया था। ज्यादातर घरों में केसरिया पताका दिखती थीं और सामने के नगर निगम वाले पार्क में शाखा लगती थी। शाखा बिहार के औरंगाबाद से आए आईटी इंजीनियर शरदेंदु शांडिल्य नामक सज्जन लगवाते थे। किसी ना किसी आयोजन पर बूंदी के लड्डू बंट जाते, पर कामरेड टिल्लन के लिए शाखा वालों या मोदी भक्तों के लडडू खाना हराम था। उनका मानना था कि सांप्रदायिक ताकतों का अन्न क्या, नमक क्या, कुछ नहीं खाना चाहिए।

उन्हें सबसे खराब तब लगता, जब नाम पूछने वाला बनिया-कायस्थ पड़ोसी उनसे मिलते ही जिज्ञासु हो जाता, ‘टिल्लन आजाद के आगे तो कुछ होगा…।’ वे चिढ़ जाते, ‘आधार कार्ड दिखा दें?’

‘हमारा मतलब, पंडित, ठाकुर बनिया…?’

‘जी नहीं, हम इंसान हैं। जातिविहीन समाज बनाना है।’ कामरेड की सांस फूलने लगती।

‘वो तो ठीक है, पर पिता जी कुछ तो लिखते होंगे?’

‘अरे पिता जी गए सरग, उनको छोड़िए।’ टिल्लन तिलमिला जाते।

बात यहीं खत्म हो जाती। पर मोहल्ले में यह मशहूर गया कि ‘यह कामरेड अलग ग्रह का प्राणी है। मौका पड़ा तो कभी किसी की कटी छिंगुलिया पर नहीं मूतने वाला…।’

 इसका अंजाम कामरेड को भुगतना भी पड़ा। एक दिन युक्ता को घर लौटने में देरी हो गई। वे जल बिन मीन की तरह तड़पते हुए मोबाइल में घंटी मारते रहे। हारकर रात बारह बजे चंद्रकेश को फोन करके रुआंसे से बोले, ‘युक्ता जी का कुछ पता नहीं चल रहा। मोबाइल भी नहीं उठ रहा, आप देख लीजिए।’

रागिनी की नजर बचाकर चंद्रकेश निकलने को हुआ कि लैपटाप छोड़ रागिनी पीछे आ गई, ‘इत्ती रात कहां निकल पड़े बाबा आमटे?’

डरते-डरते चंद्रकेश ने कहा, ‘अरे भाई कामरेड टिल्लन का फोन आया था। बीवी घर नहीं पहुंची…।’

‘तो आप ढूंढने जा रहे हो?’

‘नहीं भाई, घर जाकर देख तो लूं…।’

‘चलिए मैं भी चलती हूं।’ भुनभुनाते हुए रागिनी ने कहा, ‘धरती पर बोझ ऐसे ही लोगों को कहा जाता है। अरे भाई, पहले पड़ोसी को फोन करते…।’

‘पड़ोसी से कोई वास्ता ही नहीं रखते ये लोग।’

‘ओ माई गॉड….! कैसे जिएंगे ये संसार में…?’

 खैर, वही हुआ। खोदा पहाड़ निकली चुहिया। युक्ता आखिरी मैट्रो से घर आ गई थी। असल में रास्ते में किसी ने बटुआ मार दिया, मोबाइल, आधार कार्ड और दूसरे सारे कार्ड भी चले गए। किसी तरह घर पहुंची और मातम के मारे, रो-धोकर बिना खाए, कपड़े बदले सोफे पर पसर गई। सोचा भी नहीं कि उधर उनके कामरेड पति विरह में घुल गए होंगे….।

 समस्या का हल यह निकला कि चंद्रकेश ने फौरन मोबाइल से पति-पत्नी की बात कराई। कामरेड को जैसे नया जीवन मिल गया। पर काम इतना ही नहीं बचा था। अपने मोबाइल से युक्ता का नंबर ब्लाक करवाया। बैंक के कार्ड ब्लाक करवाए। पुलिस में ऑनलाइन कंप्लेन कराईं। अपने क्राइम रिपोर्टर एके वर्मा को केस सौंपा। रागिनी ने बस इतना ही कहा, ‘अरे भाई एकआध पड़ोसी का नंबर तो शेयर करो…पड़ोसी पहले ही काम आता है।’ युक्ता ‘जी-जी’ कहकर ज्ञान को अंगीकार करती रही। खैर इस घटना का असर यह हुआ कि कामरेड टिल्लन ने ऊपर वाले पंजाबी किराएदार वरुण बधावन और उनकी पत्नी सुदेश से बात करनी शुरू कर दी। बल्कि युक्ता का उचका पेट देखकर सुदेश ने कह भी दिया, ‘सब ठीकठाक है ना…। कोई दिक्कत हो तो बतइयो….।’

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 ऐसे माहौल में कामरेड टिल्लन इतिहास में दर्ज होने वाले महान पिता बनने जा रहे थे। क्रांति की सारी किताबें पढ़ने के बाद आजकल वे उदय प्रकाश का कथा संग्रह ‘और अंत में प्रार्थना’ पढ़ रहे थे। लेकिन पत्नी ने फ्लिपकार्ट से बेबी केयर की किताबें मंगाकर उन्हें सलाह दी कि ‘कुछ दिन यह भी पढ़ लो मेरे प्रभु। हमें ही बच्चे को देखना है। अम्मा तुम्हारी गांव से आने वाली नहीं और हमारी अम्मा कटक में बैठी हैं। उनका तो आने का सवाल ही नहीं उठता।’

वैसे तो कामरेड की दो बहनें भी थीं। मगर जब घर से चले थे तो यह कहकर कि ‘आजीवन अविवाहित रहूंगा।’ बहनों ने थोड़ा हुसकाया भी, ‘भइया हमारी जरूरत तो पड़ेगी। उन्होंने कहा, रत्ती भर नहीं…। हम क्रांति के पुजारी हैं, ऐसे डिगने वाले नहीं कि कोई मोहनी चल जाए हम पर…। हमें बिस्मिल और आजाद समझो, कोई क्रांतिकारी आत्मा भटक कर हमरे भीतर आ गई है…।’

 पुरानी बात सोचकर वे बड़ा शर्माए। एक दिन युक्ता ने कहा भी कि ‘बहनें कर क्या रही हैं। शादी-वादी तो हो नहीं रही, यही ले आइए एक को। थोड़ा केयर करेगी। यहीं उसे कोई कोर्स करवा देंगे।’

 पर कामरेड नहीं माने। किस मुंह से बहनों को बुलाते। कभी राखी, भइया दूज पर याद नहीं किया। आज याद करेंगे तो हंसेंगी और।

 फिर वही कहानी दोहराई गई। कामरेड टिल्लन अपनी नई नवेली स्कूटी के साथ, जिसमें शनि मंदिर के अज्ञानी पंडित ने केसरिया स्वास्तिक बना दिया था, चंद्रकेश के घर आ धमके। रागिनी अपनी नई कहानी के अंत को लेकर चिंतामग्न थी। कामरेड को देखते ही बुदबुदाई, ‘लो आ गए आपके समस्या प्रधान जी।’ चंद्रकेश ने परेशानहाल जीव को देखते ही पहले पानी पिलाया, फिर पूछा, ‘कोई खुशखबरी!’

कामरेड बेहद धीमे स्वर में बोले, ‘युक्ता जी का थायरायड कंट्रोल हो गया है। अगले नवंबर महीने की 15 तारीख बताई है डाक्टर ने।’

‘वैरी गुड!’ चंद्रकेश ने आदतन हिम्मत बढ़ाई।

रागिनी फौरन मुद्दे पर आ गई, ‘हमारे लायक कोई सेवा हो बताइएगा।’

अब कामरेड शुरू हुए, ‘भाभी जी यहां बेबी सिटर कहां मिलेगा यानी मिलेगी…। समझ नहीं आता, युक्ताजी सर्विस कर पाएंगी कि नहीं..।’

रागिनी ने उन्हें टोका, ‘भाईसाहब अभी तो सेफ डिलिवरी की सोचिए, अच्छे नर्सिंग होम के बारे में सोचिए…आप तो काफी आगे चले गए।’

‘नहीं भाभी जी, सब पहले से ही सोचकर रखना पड़ता है…एडवांस प्लानिंग। वरवर राव जी हमेशा कहते रहे हमसे कि हर काम के लिए एडवांस प्लानिंग करनी चाहिए…।’

‘ओह माइ गॉड, यह एडवांस प्लानिंग नहीं है, आपकी यूजलेस चिंता है…तो इसका मतलब आप बच्चे का नाम, स्कूल का नाम भी सोच लिए होंगे…।’

‘हां, सोच लिए हैं, हम तथागत नाम सोच लिए हैं…।’

‘क्या आप कन्फर्म हैं, लड़का होगा…? मतलब आपने टैस्ट कराया होगा…?’

 कामरेड फंस गए। चश्मे से घुग्घू जैसी आंख नचाकर बोले,

‘नहीं, हमारी अंतरात्मा कह रही है। बोले तो इलहाम हुआ है…।’

‘आप तो आत्मा को मानते नहीं, तो अंतरात्मा कहां से आ गई? ये इलहाम और झंडूबाम अपने पास रखिए…कितनी दोहरी बात करते हैं आप लोग।’

कामरेड निरुत्तर।

‘चलिए छोड़िए। लड़की होगी तो क्या उसका नाम रखेंगे।’

‘यह तो अभी सोचे नहीं…पर आप सही कहे हैं। हर संभावना को लेकर चलना चाहिए।’

‘खैर, उनको परेशान देखकर रागिनी ने कहा, आप परेशान मत हो। उन्हें अच्छी डाइट दो, मेहनत करने दो। डिलीवरी के दिन मैं रहूंगी आपके साथ।’ कामरेड संतुष्ट होकर चले गए।

कामरेड टिल्लन भले ही युगांतरकारी परिवर्तन के हिमायती थे। पर प्रसव के मामले में प्राचीनता के संग थे। वे सीजेरियन और बेबी मिल्क पाउडर के खिलाफ थे। स्तनपान पर तो उन्होंने कई लेख पढ़ डाले। कुदरती प्रसव के बारे में तो वे साफ कहते थे कि हमारी गभनी गइया-भैंसिया तो घूमते-घूमते जाती थीं, शाम को बियां जातीं। सीजेरियन तो एक अंतरराष्ट्रीय साजिश है। यह तो डॉक्टरों का धंधा है…..।

 कामरेड की बात पूरी तरह सच्ची थी। पर जिस तरह लिंग निर्धारण और नर्सिंग होम का धंधा चला, उसमें कोई क्रांतिकारी भी कुछ नहीं कर सकता था। डॉक्टर ने समझा दिया था कि नार्मल डिलीवरी हो जाए इससे अच्छा तो कुछ भी नहीं। फिर भी, पचास साठ हजार का इंतजाम तो करके रखिए ही। मैक्स में जाकर देख लो, चीरकर रख देंगे…।

 वे तन-मन से लग गए। बैंक से कैश भी निकाल लाए। नर्सिंग होम तय किया। उसका नाम था हिंदुस्तान नर्सिंग होम। हालांकि यह किसी जैनी का था। पर कामरेड को हिंदुस्तान नाम ने आकर्षित किया। कामरेड को लगा, यह नर्सिंग होम अपने नाम की इज्जत तो रख लेगा।

 वह ऐतिहासिक तारीख भी आ गई- पंद्रह नवंबर। चाचा नेहरू के जन्मदिन के एक दिन बाद। अब चूंकि वे नेहरू से चिढ़ते थे, इसलिए संसार की अनजानी ताकत को धन्यवाद दिया कि एक दिन बाद उनके लाल धरती पर प्रगटेंगे..।

 रागिनी ने अपने दोनों बच्चों के पुराने कपड़े संभाल कर रखे थे। उन्हें धोकर रख लिया। दोनों लड़के वाले कपड़े। कामरेड की चलखुर बढ़ती जा रही थी। दिन में दो बार जूस निकलने के लिए घर से निकलते। रागिनी को फोन करके पूछ लेते कि डिलीवरी के एक दिन पहले खाली पेट होना चाहिए या भरा। वह हंसकर कहती, ‘सब नार्मल चलने दो…। बस टेंशन नहीं लेने का। उन्हें बढ़िया गाने सुनाओ। कोई अच्छी-सी धुन लगा दो। गायत्री मंत्री लगा दो, वाइब्रेशन का असर होता है।’ गायत्री मंत्र नाम पर वे कुछ नहीं बोलते…। मंत्र-संत्र पर उनकी कोई आस्था नहीं थी। इन्हें वे पंडितों का धंधा मानते थे।

लेकिन तकदीर भी कई बार अजीबोगरीब मजाक करती है। या कहें संयोग विचित्र होते हैं। उदाहरण के लिए उनके पिता रामआसरे गांधी जी को हमेशा गरियाते रहते थे। पर कामरेड टिल्लन का जन्म एकदम दो अक्तूबर को हुआ। अम्मा का पेट पिराए जा रहा था, पछाड़ें खा रही थीं और उपाध्याय जी कहे जा रहे थे, ‘बिनती जी कल तक कंट्रोल कर लो। आज रात बारह के बाद जन्म दे देना…।’ अम्मा  रोती जा रही थीं, ‘तोहार नाश होय…हमरे प्रान जा रहे हैं और…।’ उपाध्याय जी हार गए और दो अक्तूबर को शाम सात बजे ढाई किलो के  टिल्लन अवतरित हो गए। यानी  गांधी जी और शास्त्री जी के बाद वे तीसरे महान प्राणी थे जिनका जन्म आर्यावर्त में दो अक्तूबर को हुआ। यह अलग बात कि पिताजी ने कभी मन से उनकी सालगिरह नहीं मनाई। अम्मा जरूर गुलगुले बना देती थीं।

 वही कहानी फिर घटित होने जा रही थी। चौदह नवंबर की सुबह से ही युक्ता की बेचैनी बढ़ गई। उसने कहा, ‘हमें एडमिट करा दीजिए। नीचे से पानी छूटता सा लग रहा है…।’

कामरेड हिल गए, ‘अरे भाई ऐसा मत करो। कल की डेट तय है।’

युक्ता चीख पड़ी, ‘बेवकूफ हैं क्या आप… यह कोई टैस्ट मैच है जो डेट पहले से ही फिक्स थी….।’

कामरेड टिल्लन के सामने बड़ा धर्मसंकट। नेहरू वाले बाल दिवस पर बालक का जन्म…सोचा ही नहीं था। उन्हें लगा कि वक्त भी उनके साथ साजिश रच रहा है।

घबड़ाकर उन्होंने रागिनी को फोन किया, ‘भाभी जी गाड़ी लेकर आ जाइए। युक्ता को लेकर अस्पताल जाना है।’ आज रागिनी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। आज तो मदद के लिए वह पहले से तैयार थी।

 उसने चंद्रकेश को भी फोन करके नर्सिंग होम पहुंचने को कहा। वह कामरेड के घर पहुंची तो वे स्थायी उदासी के साथ हाथ बांधे खड़े थे। युक्ता का चेहरा पीड़ा से भरा हुआ था। सहारा देकर उसे पहली मंजिल से नीचे लाया गया। कामरेड अब भी इस बात पर टिके थे कि डेट तो पंद्रह की दी गई है।

रागिनी ने समझाया, ‘अरे भाई वह डेट तो नौ महीने के हिसाब से गिनकर दे दी जाती है। इसे पत्थर की लकीर क्यों मान रहे हो। बेबी तो प्रीमेच्योर भी पैदा हो जाते हैं।’

‘मेरा मतलब है कि कल डिलेवरी होती तो अच्छा होता।’

 ‘क्यों भई?’

कामरेड असली बात को गोल कर गए। चश्मे में छिपी अपनी छोटी आंखों को और छोटी करते हुए इतना ही कहा, ‘आज आने वाले को हम रोक थोड़ी लेंगे।’

‘आप क्या कह रहे हैं, हमारी समझ में नहीं आ रहा।’ रागिनी अबूझ होकर बोली।

                   ——————

  दुनिया जानती है कि नर्सिंग होम की कहानी तो सेट होती है।

 युक्ता को लेकर अंदर ले जाने वाली स्थूल नर्स ने दस मिनट बाद ही लौटकर पेशेवर फिक्र के साथ कह दिया कि ‘नाल बच्चे के गले में फंस गई है। सीजेरियन करना पड़ेगा…। और कोई ऑप्शन नही है…।’

इतना सुनते ही जन्मजात कामरेड ने बगावत कर दी, ‘गांव मे कहीं नाल फंसती है। हमारी अम्मा के भी चार बच्चे हुए, कहीं नाल नहीं फंसी। आप लूटते हो..पूरा सिस्टम ही चुरकट है…मन करता है बम फेंक दें…।’

हल्ला सुनकर मरदाने कद वाली डॉक्टर मालती गर्ग बाहर आ गई।

 ‘ बेबी की लाइफ का सवाल है, हम नेचुरल ही ट्राई कर रहे हैं। लेकिन टाइम गुजरने के साथ बच्चे की धड़कन कम पड़ती जा रही है। आपकी च्वाइस है….। एक घंटे आप इंतजार कर लो…। लेकिन लिखकर दे दीजिए कि किसी भी इंसीडेंट के लिए आप ही जिम्मेदार होंगे।’

 कामरेड माथा पकड़कर रो पड़े, ‘अरे बपई रे… कैसी डेमोक्रेसी है…’ उनकी असहायता देखकर रागिनी ने कहा, ‘थोड़ा विश्वास करना पड़ेगा। वक्त मत बरबाद कीजिए अपनी कंसेंट दीजिए।’

 काउंटर में अदालती स्टाइल में उनकी पुकार हुई- ‘सर आप पैसे जमा कर दीजिए।’

 हारे हुए योद्धा की तरह कामरेड टिल्लन ने कलेजे के टुकड़े जैसे चालीस हजार जमा किए। नैनों में नीर भरे, एक फार्म पर दस्तखत किए। रागिनी ने उनकी हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘आप हिम्मत रखिए। डाक्टरों के आगे हम कुछ नहीं कर सकते…।’

 इतने में चंद्रकेश भी आ गया। कामरेड की रुआंसी सूरत देखकर वह भी थोड़ा उदास हो गया। पर रागिनी ने कहा, ‘डोंट वरी, इतना तो होता है। आप भी अपने को याद करो।’

                   ————————————

इतिहास बनने में सिर्फ आधे घंटे लगे। सबकी नजरें उस बड़े से शीशे वाले दरवाजे की ओर टिकी थी, जहां से सिर्फ डाक्टर और नर्स ही जा रहे थे। कामरेड मन ही मन गिनती गिन रहे थे, जैसा कि अक्सर वे मैट्रो का इंतजार करते हुए गिनते थे। एक से हजार तक वे गिन चुके थे। ग्यारह सौ के पहले ही हंसमुख-सी मलयाली नर्स सफेद तौलिए में लिपटे बच्चे को लिए निकली। कामरेड की जान में जान आ गई। नर्स ने कांग्रेचुलेशन कहते हुए बच्चा रागिनी की ओर बढ़ाया तो उसने कहा, ‘ इनकी गोद में दो।’ रागिनी ने हंसकर इतना जरूर पूछा, ‘लड़का है या लड़की?’

नर्स मुस्कराई ‘प्यारा सा जापानी गोलू है, ब्वाय…।’

कामरेड उत्साहित होकर बोले, ‘हमें मालूम था लड़का होगा। ’

रागिनी ने भौहें चढ़ाईं, ‘कैसे मालूम था? आपने बेईमानी की इसका मतलब?’

कामरेड पकड़े गए। शर्माते हुए बोले, ‘एक ही बच्चा चाहिए था। तभी तो नाम भी तथागत पहले ही रख दिए थे।’

नर्स ने हंसकर कहा, ‘अब जाइए बच्चे को फीड करने का इंतजाम कीजिए। मैम आप ही बता दीजिए इन्हें….।’

 कामरेड चकराए से इधर-उधर देखने लगे, ‘बच्चे की मां कैसी है…? वही ना फीड कराएगी…?’

रागिनी ने कहा, ‘मां तो अभी एनेस्थीसिया के असर में है ना। टांके लगे हैं….। जाइए बोतल वाले वाले दूध का इंतजाम कीजिए। अभी तो आपको ही मां का रोल करना होगा…।’

दस मिनट पहले धरती पर आए तथागत को गोद में लिए कामरेड टिल्लन आजाद पहली बार पूरे सफेद दांत दिखाकर ऐसे मुस्कराए जैसे जीवन का पहला और सबसे बड़ा मोर्चा फतह करके आए हों।

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बारिशगर स्त्री के ख्वाबों , खयालों, उम्मीदों और उपलब्धियों की दास्तां है!

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प्रत्यक्षा के उपन्यास ‘बारिशगर’ में किसी पहाड़ी क़स्बे सी शांति है तो पहाड़ी जैसी बेचैनी भी। इस उपन्यास की विस्तृत समीक्षा की है राजीव कुमार ने-

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प्रत्यक्षा का उपन्यास “बारिशगर” वैयक्तिक संबंधों के उलझे हुए अनुभव जगत का आख्यान है। विभिन्न कथा युक्तियों द्वारा उपन्यास की कहानी में ऐसे स्पेस का सृजन हुआ है जो प्रेम का आंतरिक रूप या बाह्य का बिखरा हुआ एक रेखकीय रूप ही पेश नहीं करता बल्कि बहुआयामी व्यापक शक्ल अख्तियार कर लेता है। स्त्री और उसकी चरित्र निर्मिति के जितने व्यापक आयाम हो सकते हैं प्रेम की विशद दुनिया में, उन सबों को समेटने और अद्वितीय भाषा में उसे प्रस्तुत करने का सफल प्रयास हुआ है। भाषा और कथ्य में अतिरंजना से बचने का लेखिका का सायास उपाय परिलक्षित है और कहने के रागात्मक शिल्प में लय और कथा के सुर को प्राथमिकता दी गई है।

स्त्रियों की स्वतंत्र अस्मिता के लिए कोई ज़िद नहीं यहां, न ही बरक्स कोई पुरुष पात्र या व्यवस्था खलनायक है, न ही किसी मुक्ति स्वप्न की भ्रामक स्थिति है यहां स्त्री पात्र ही अपना संसार रचती हैं और उसे चलाने के लिए श्रम और स्वतव का त्याग करती हैं । तीनों स्त्री पात्रों, इरा और उसकी दो बेटियां दीवा और सरन की कथाओं की अलग अलग गतियां और स्थितियां पुष्पित होती हैं, संवेदनात्मक विस्तार भी पाती हैं, परन्तु इस तरह मिली हुई हैं कि कब कहां किसकी संवेदना किसी दूसरे की कहानी में उतर जाती हैं और विन्यस्त हो जाती हैं पता ही नहीं चलता।  हर कोई अपनी प्रकृति, अपनी वेदना अपना सौन्दर्य लिए दूसरे की ज़िन्दगी में बहुत तेज़ आवा जाही करती हैं, नए और रिस रहे इल्जामों के साथ । सिसकियां दबे पांव आंखों में से होकर  हूक होती हुई दिल में उतरती हैं , पद चाप  नहीं सुनाई देते;  पात्रों के चेहरे पर उनके कदमों के निशान होते हैं।

सहरा में, रेत पर, बियाबान में जीवन की उम्मीद बची रहती है। नए पौधों को बढ़ने के लिए नमी चाहिए, बादल बहुत ऊंचे न जाएं ज़मीन छोड़कर  तो बूंदें बरसेंगी  और जीवन हरित होगा।  सब ओर पत्तियां लहलहा उठेंगी।  सब ओर पीले फूल खिलने हैं । घर को होना है फिर से आबाद।   असाध्य और अनवरत श्रम और संघर्ष  को जीवन बना चुकी स्त्रियां बारिशगर हैं यहां। दूर देश की सहयोगी को तमाम उलझनों के बाद भी जीवन साथी बना लेनेवाला विदेशी बारिशगर है यहां।  बरीशगर हैं कर्नल और बिलास।  कर्नल अपनी मृत्यु के बाद भी घर के रूप  में ढलकर वक़्त बदलने नहीं देता और बिलास सूक्ष्म प्यार की डोर थामे शनै: – शनै: मंज़िल तक पहुंचता है।

बारिशगर की सफल किस्सागोई में बेटियां मां को अपने संताप का गुनहगार कभी – कभी मानती हैं,   फिर सोच के ही स्तर पर भाव बदलते हैं। स्मृतियों के प्रसंग बदलते ही कभी उन्हें लगता है मैं मां के लिए बहुत अनुदार हूं।  लेखिका ने इस बारीकी को अभूतपूर्व तरीके से उपन्यास में जिया है। घटनाएं कभी बहुत तेज़ी से कभी बहुत ठहरकर व्यक्तित्व की संगति बैठाती हैं जीवन से ।  उनको भी मुख्य धारा में रखती है जो सब कुछ खो चुकीं, उन्हें भी जिन्होंने जीवन पर पकड़ ढीली नहीं होने दी है। एक अति सामान्य जीवन जी  रहे पात्रों के मनोविज्ञान से जुड़ी संवेदनाओं और प्रवृत्तियों से बेहतरीन कहानी का सृजन करती हैं लेखिका।

नायिका : अस्तित्व और ख्वाब की खोज

दीवा  उपन्यास बारिशगर की नायिका है। ज़िन्दगी और कहानी के हर उतार चढ़ाव की भोक्ता। घर छोड़ती है बुरा होने के बाद अपने को संभालते हुए, लौटती है बुरा को पीछे छोड़ने के बाद। गुजार दिए गए बुरे समय को अतीत में डाल देने के बाद दीवा घर लौटती है, जहां वह उन पन्नों को पलट सके, कुछ साक्ष्य के साथ, जहां सब कुछ है उसके बीते हुए समय के लिए, उसके लिए । दो पीढ़ियां उसका इंतज़ार कर रही हैं।   वह सब कुछ, जो छोड़कर वह अपना भविष्य खोजने गई थी, वर्षों से मुन्तजिर हो जैसे।  एक रहस्य और यूटोपिया बन गया घर, आदमी और वजह खो देने के बाद भी बची हुई है आस। मैंने घर बदला, जुबेदा आंटी छूटीं, शहर छूटा। मैंने नौकरी बदली। पुराने सब तालुकात छूटे। नए शहर में मैं लापता लिफाफा थी जिसका कोई ठौर नहीं ।  दीवा ने दिनों में अपने को संभाला है, शाम ढलते ही बिखरना शुरू होती है और देर रात तक बिखरकर ढेर हो जाती है।

दीवा की यह यात्रा लेखिका प्रत्यक्षा  की सृजन यात्रा के साथ है। ऐसा किरदार जिसके साथ लेखिका सफर पर हो जैसे और आप वृत्त चित्र देख रहे हों। प्रत्यक्ष नरेटर नहीं, भोक्ता की तरह दिखती हैं, जैसे कि वही थी जिसके साथ बूझ गई नीली रोशनी और गंध से भरा कमरा है।

अब मैं कुछ नहीं थी, बस एक अकेली लड़की, एक टूटी बिखरी हुई आत्मा। सड़कों पर भटकती दीवारों से सिर पटकती। एक बिखरा हुआ, टूटा हुआ  यायावर दुनिया में अपना खो चुका वजूद खोज रहा हो जैसे। मेरी दुनिया सरल नहीं थी , उसमें ढेर सी गांठे थीं,  एक सुलझाती दूसरी उलझ जाती।  मैं अपने मन में नहीं थी, अपने आपे में नहीं थी । मेरा समय ठहर गया था।

बारिशगर स्त्री के ख्वाबों , खयालों, उम्मीदों और उपलब्धियों की दास्तां है, जहां स्त्री होने की दबी टीस से बड़ी प्रवंचना है अपनी शर्त पर नहीं जी पाने और अपने जैसा सब कुछ नहीं रच पाने का यथार्थ – बोध । दौर है आईडेंटिटी को प्रमुखता देनेवाला और भंगिमा है नायिकाओं की फिसलती ज़िन्दगी में स्वयं की अस्मिता बचा लेने वाली। लेखिका के पास कथानक की दुहरी चुनौती है पर उतनी ही मुस्तैदी से उसका निर्वहन होता है । प्रत्यक्षा सारी लेखकीय चुनौती का सामना सफलतापूर्वक करती हैं। बारिशगर  के स्त्री पात्र अपने परिवेश को अपने निजी अनुभवों के मानकों पर ग्रहण करते हैं और उन्हीं अनुभवों के आधार पर  अन्य पात्रों और परिस्थितियों से रिएक्ट भी करते हैं।

ये  पात्र जैसे हैं, वैसा इनका होना आत्मकेंद्रित लग सकता है, समष्टि से अपने हितार्थ अभीष्ट खोजते हुए दिख सकते हैं, पर जलती बुझती जिजीविषा से सामर्थ्य ढूंढ़ लेना, अंदर तक घुस आई प्रकृति से प्राणवायु खींच लेना रेजा – रेजा;  प्रत्यक्षा के किरदार बखूबी जानते हैं। जो देर तक बेकरारी में  छत देखता खो गई नींद ढूंढ रहा हो किरदार  ; अगले ही पल बाल नायक बाबुन में ज़िन्दगी  ढूंढ लेता है।

दीवा कहती जाते है। सामने पर्दे पर एक फिल्म चलती हो जैसे। जिसका स्क्रिप्ट  सालों के परिश्रम से मढ़ा हुआ हो जैसे। लेखिका अभी अभी एक फिल्म देखकर लौटी हो जैसे । और उसने दृश्य बताना शुरू किया हो जैसे। लोगों की आंखें चुभती थी।  एवरीबॉडी थॉट आई वास अवेलेबल। एवरीबॉडी थॉट दे कुड स्लीप विद मी । यह बड़ा शहर था जिसकी चमक दमक में मैंने सोचा था कि मोरल पुलिसिंग नहीं होगी।  मैं गलत थी । सारा लिबरलिज्म सुपरफिशियल था।  जरा खरोंचों तो भीतर का पुरातन पाखंड बल बल आता हुआ बाहर आता एवरीवन जस्ट मी।  एक बहुत छोटी सकरी सी दुनिया थी जहां यह फ्री ओपेननेस था। इस बुलबुले के परे दुनिया वही सौ हज़ार साल पुरानी दुनिया थी।  मैं ही गफलत में थी, मैंने ही ज्यादा उम्मीद पाल ली थी। मुझे ही लगता था यह सब मेरी व्यक्तिगत स्पेस की बात। दूसरे कौन इसमें ताक झांक करने वाले।  लेकिन यहां सब को पड़ी थी।

प्रेम और मृत्यु की उपत्यका

पूरे उपन्यास में कर्नल की मृत्यु की प्रतिध्वनि है प्लेन क्रैश करने और कर्नल के मृत्यु के सांघातिक हाथों से छिन जाने की अनुगूंज है तो मां बेटी के रिश्तों और उचाट मौसमों में घर से बाहर देख रही आंखों और चेहरों पर उसका स्पष्ट  और प्रत्यक्ष प्रभाव।

इस मृत्यु की उपत्यका में किरदारों के घने पेड़ सृजित हैं। इस मृत्यु ने इरा को बेहद कमजोर किया है तो सरन जो मातृ गर्भ में थी उसे अपने होने और उपादेय बने रहने की बौद्धिक ज़मीन दी है। दीवा पिता की मृत्यु और उसके जीवन की उलझनों को दार्शनिक स्तर पर डील करती है, प्राणवायु ग्रहण करती है। लेखिका इस मृत्यु के कई रूपक रचती हैं, मृत्यु के बाद पिता कैसे घर में तब्दील हो जाता है, अपने आस पास होने का उम्र भर अहसास कराता है यह विलक्षण प्रतिमान उपन्यास का शिल्प संबंधी बड़ा हासिल है।

उपन्यास की सशक्त नायिका इरा मृत्यु के इस मानवीकृत और  एहसासों में पुनर्जीवित हुए स्वरूप से बार बार टकराती है, संवाद करती है।  उसे भान कराती है अगर तुम अपने  पहले स्वरूप में होते तो तुम्हें मेरी ज़िम्मेदारियों को याद दिलाते रहने का एक काम करना होता। अपने हारते जाने का अहसास है उसे, उसका संघर्ष बड़ा हो जाता है इन एहसासों की समीक्षा बीच बीच में करते रहने से और मृत्यु के बाद भी आसपास जीवित हो गए अस्तित्व से टकराकर। दीवा को इंगित करते हुए वह कहती है मैं किसी के लिए पूरी न पड़ी। न तुम्हारे लिए, न सरन के लिए। आप फेल्ड एवरी बॉडी। इरा के कंधे हिल रहे हैं आवेग से। कर्नल, मैं हार गई। कोई जिम्मेदारी ढंग से संभाल नहीं पाई।

सरन के चरित्र की उलझन कथा का सौन्दर्य भी है, मजबूत पक्ष भी। मां बेटी का प्रेम, विलास और सरन का प्रेम उलझनों के चरम बिन्दु हैं, कथा जिसे प्रवाह देती है। इरा जाने किस दुनिया में रहती है।  इरा के पास सरन के लिए कहां समय। सरन रात में सोचती है,  मैं दीवा की तरह सुंदर होती तो मां मुझे प्यार करती शायद।  मेरा रंग इतना दबा हुआ है, मैं इतनी दुबली हूं, मेरे नक्श इतने साधारण । अपने सौंदर्य को लेकर अतिशय संवेदनशीलता को सरन के चरित्र में शामिल करके लेखिका ने उसके किरदार को और अधिक निखारा है। मैं कभी इरा की तरह और दीवा की तरह सुंदर नहीं होऊंगी।

प्रेम सबसे ज्यादा जटिल, संशलिष्ट और कठिन पहेली है, जिसे सुलझाना बहुत ही मुश्किल रहा है सभ्यता की यात्रा में। इस गुत्थी को जितना सुलझाने की कोशिश करो , यह उतना ही उलझती जाती है। प्रेम अधिकार मांगता है, ज़्यादा और ज़्यादा प्रेम किए जाने का। आवेग भंग कर देता है सहृदयता और सहनशीलता को। एक प्रेम से निकलकर दूसरे प्रेम में जाना दुरूह है,  इन रास्तों पर हर जगह बिछा हुआ चक्रव्यूह है। प्रत्यक्षा की नायिका दीवा “बारिशगर” में इस चक्रव्यूह का सामना करती है। विलक्षण उलझनों और चरित्र एवम पात्रों की जटिल संरचनाओं से गुजरते हुए इस नायिका का अलग जीवन परिचय होता है।

प्रकृति का चित्रण

बारिशगर में पेड़, नमी, पत्तों का व्यक्तियों से संभाषण एक साथ है। प्रकृति उलझती है चरित्रों से और फिर सिमट कर अपने आयाम ढूंढ लेती है। घास अपने मिथकीय स्वरूप में नहीं हैं बल्कि कभी कभी कोई भूमिका अख्तियार कर लेते हैं।  घास की जमीन पर नन्हे फूलों की बरसात है। लंबे चीड़,  देवदार, बलूत चिनार, विलो और सनोबर के पेड़ हैं कुछ साल के भी । उनकी बड़े छायादार पत्तियों पर धूप बरसती है । उनके रूखे तने पर उम्र के गोल घेरे हैं,  कहीं-कहीं तने और शासकों के बीच उनका रस रिसता है। भूरे पारदर्शी बुलबुले जैसी बूंदे जिनमें मीठी कसी महक होती है। जंगल अपने में स्थिर खड़ा है।  पेड़ बोलते हैं आपस में, उनकी पत्तियां छूती हैं एक दूसरे को।  उनकी सरसराहट में एक गीत है।  पार्श्व में बजता कोई सांगीतिक धुन।  चित्तियों सी धूप घास की जमीन पर गिरती है।  समय ठहर जाता है ।  ठहरा हुआ समय निरापद नहीं करता आगे के लिए एक गति या प्रवृत्ति को जन्म देता है।

गति और आवेग प्रकृति की पूर्णता को भी रेखांकित करते हैं और सूक्ष्म स्तर पर पात्रों की सोच को भी। दूर कहीं से पानी बहने की आवाज आती है, लगातार । एक छोटा पहाड़ी झरना है जिससे सफेद झागदार पानी बहता है कल कल।  फिर इकट्ठा होता है छोटे से बंद लगभग गोलाकार घेरे में और फिर वहां नाचता घूमता एक तरफ से बाहर निकलता है। उस गहरे पानी की दुनिया में नीचे चिकने गोल पत्थर हैं पानी वाली वनस्पति है, मछलियां है , कभी-कभी  मछलियां भी पानी की सतह पर धूप और आदमी  से अठखेलियां करती हैं , पानी के गिर्द लंबी घास और जंगली फूलों की झाड़ियां हैं।  कुछ जंगली झाड़ियों के पौधे हैं जिन पर तांबे पीलापन लिए लाल के बेर लटके हैं तितलियां पतंगे और भंवरों की बकराहट से दिन नशे में धीमे डोलता है।

प्रकृति उस घर में अपना अस्तित्व बनाती है जिस घर ने अपना रूप बदला है गृह स्वामी की मृत्यु के बाद। किरदार पेड़ों और शाखों को अपने अस्तित्व में गूंथा पाते हैं और चांद को अपनी दुनिया में झांकते हुए। कहानी के कहन को प्रकृति आवश्यक रूप से प्रभावित करती है। बाहर ठंडी हवा चल रही है। चांद जरा झुककर खिड़की से झांकता है । बिस्तर पर इरा और बाबून एक दूसरे को पकड़े नींद में है। घर जरा सा शिफ्ट होता है इतने धीमे कि उनकी नींद में खलल न पड़े।  फिर उसांस भरता है कि जिम्मेदारी से घर के लोगों की हिफाजत में है ।

बारिश थम चुकी है । सिर्फ पत्तों से बूंदें अभी टप टप गिरती हैं जैसे कमरे में उदासी गिरती है। प्रकृति संगीत है यहां, उसकी आवृति धुनों का सृजन  करती है और उसके अनुपस्थित होने पर किरदारों की मनःस्थिति प्रकृति की जगह घेर लेती है। सब कुछ प्राकृतिक रूप  से चलता रहता है।

शिल्प : लयबद्ध कथ्य

पूरे उपन्यास में हर पात्र खिड़की से बाहर कुछ देखता है। यह देखना यांत्रिकी नहीं, महज एक दृश्य देखना नहीं है। दृश्यों की अवली चल रही है। श्रव्य दृश्य बिम्ब हैं, एक वॉयलिन सा बजता हुआ प्रकृति का संगीत। दृश्य बिम्ब के जरिए कथा के उस हिस्से को लेखिका अचानक सघन कर जाती हैं और बहुत सधे हुए चालाक कदमों से कहानी को गति भी देती हैं।

नए उपन्यासों में हिंदी उपन्यास का शैल्पिक संभार पूरी तरह बदला हुआ है। नवीन कथा – युक्तियों का प्रयोग करहिंदी उपन्यास की बनत को पूरी तरह बदला है। प्रत्यक्षा ने बारिशगर में नए शिल्प प्रयोगों से उपन्यास शिल्प को नूतनता प्रदान की है। उपन्यास की कथन शैली में बड़ा परिवर्तन किया है।

भाषा यहां महज मानवीय संबंध और संवाद का माध्यम नहीं, वह पात्रों की चेतना और उसकी गतिविधियों का भी माध्यम बानी है। उसकी लय कथा के लिए अनुराग उत्पन्न  करती है और पाठक इस अनुराग और उसकी अन्विती में  नम होता रहता है।

स्मृतियों की अन्विति लय में होती है। सुर और राग अपनी  पकड़ ढीली नहीं करते। संध्या और परिवेश के पेड़ इस लय को साधते हैं पात्रों के मस्तिष्क में। प्रत्यक्षा संगीत की बारीकियों से रू ब रू हैं। पाश्चात्य संगीत का भी उन्हें तह तक ज्ञान है। संगीत का अकस्मात गहन मानसिक उद्वेलन में विशेषताओं के साथ कई बार आना  कहानी को बल देता है, जैसे श्रव्य दृश्य सामग्री में संगीत पिरोया हुआ हो। संगीत के भाव पक्ष का शिरा पात्रों की संवेदना से जुड़कर पाठक की आंतरिक दुनिया से जुड़ जाता है।

उपन्यास में अपनाई गई प्रस्तुतियों, प्रविधियों और नव शिल्प की संरचना को भाषा संबल नहीं दे तो उत्कृष्टता  का संकल्प स्खलित होता है।   भाषा संकल्प  और उत्कृष्टता के आग्रह को जीवित रखती है आद्योपरांत। “दीवा की आवाज कमरे में घुल रही है, अंधेरे को ओढ़ती, कभी कांपती, कभी गहराती, कभी बारिश, कभी धुआं,  कभी भीगे शाख पर कुकुरमुत्ता, कभी तेज  भूख में ऐंठती,   कभी हल्की सेमल सी उड़ जाती, कभी बरछी सी चोट लगाती, कभी हंसी की खिलखिलाहट छुपाती खुश, कभी वेदना से टूटती। यह रात किसी सम्मोहन की रात है।  एक तिलिस्म है। घर चुप डोलता है दुख में, यह तो होना ही था। कर्नल भी सुनते होंगे आसमान से, कहीं से या इसी घर के किसी कोने सांधी से या फिर इरा और दीवा के दिल के भीतर से।”

दरअसल घर ही कर्नल है।  कर्नल कहानी में मर जाने के बाद ज़्यादा है। हर संवेदना पर जागृत , हर कोलाहल को काम करता हुआ, अंधेरा होता दिख नहीं की सीढ़ियों के अस्तित्व को एक सांगीतिक उपस्थिति देता हुआ।  इरा नहीं जानती या शायद जानती हुई नहीं जानती है । इसका ज्ञान उसकी स्मृति की तहों में दबा है । जैसे सांस लेते आपको जाहिर नहीं होता कि आप सांस लेते हैं वैसे ही।  घर इरा के साथ होता है हर दुख में हर सुख में, बिना शोर-शराबे के, बिना गाजे-बाजे के, एक शांत ठहरी हुई आश्वस्ति में।

स्मृति, अस्मिता और प्रकृति का प्रत्यक्षा ने रचनात्मक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है, जिसके साथ कहानी  स्त्री पात्रों का दामन पकड़े उस इलाके में प्रवेश करती है जहां का नक्शा उसकी बौद्धिक संरचना की व्यापकता और गहनतम स्तर पर महसूस की जाने वाली संवेदनशील अनुभूतियों को मिलाकर बना है।

अध्याय विभाजन का सहारा लिया गया है। हर अध्याय का शीर्षक उसके केन्द्रीय संवेदन का प्रकटीकरण है। कथा प्रवेश  की अधुनातन बिम्ब – विधान प्रणाली और छूट गई शिराओं का अन्वेषण नए अध्याय में होता है। जो बिम्ब  पूर्ववर्ती आख्यानों में सिरजे गए उसका विधान कहानी की गति में बातों दूसरे बिंबों और कथा उपकरणों को देते हैं। जैसे आप एक लंबे काव्य – प्रबंधन का आस्वाद लेे रहे हों।

खिड़की से बाहर किसी दृश्य के किरदार अतीत से कुछ लेकर अपनी आंखें नम कर लेते हैं, आंसू  आंखों से ढलक कर खिड़की से बाहर पेड़ पर चढ़ जाते हैं, पत्तियों से होते हुए थोड़ी और नमी लेकर दूसरे छोर पर खड़े पात्र के सीने में उतरकर जम जाते हैं, इस पूरी प्रक्रिया में दूर से आती हुई रागों की ध्वनियां गुंथी होती हैं, लेखिका इस वाचन पद्धति  के उत्कर्ष पर हैं “बारिशगर” में। बगान में उतरकर जाते हुए किरदार बात करते हैं, बारिश के आसार , हवा सिली सिली थोड़ी नम होती हुई , पाठक भींगता जाता है अंतस तक। कथा चलती रहती है। दुख का लय सांगीतिक उपस्थिति मात्र नहीं है, प्रतीक्षा इस लय का शिरा किरदारों को पकड़ाकर दूर खड़ी होती हुई संगीत निर्देशन करती हैं,   इस अचूक पार्श्व संगीत निर्देशन का क्राफ्ट कहीं लय को बाधित नहीं होने देता।

अब तक का साहित्यिक परिदृश्य यही बताता है कि पुरुष  लार्जर दैन लाइफ के रोल में जब हों तो स्त्री पात्र को उसके बरक्स खड़ा करके कंट्रास्ट रच कर  कहानी को लेखक उत्कर्ष तक लेे जा सकता है। यहां पुरुष या स्त्री कोई पात्र लार्जर दैन लाइफ नहीं पर कहानी का ताना बाना, प्रतिक्षण नवीन और संवेदी घटनाक्रम, पात्र से संबद्ध अंतर्वस्तु और  नाटकीयता को उत्कर्ष देता है। इरा, दीवा और सरन तीनों स्त्री पात्र कहीं – कहीं  अचानक कमजोर स्त्रीयोचित भावनात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व करती दिखती हैं ,  भेद्य और भावनात्मक हिंसा का शिकार भी दिखती हैं परन्तु अगले ही क्षण उनका विराट संघर्ष का मानस, उनका आंतरिक सौन्दर्य, उद्दाम साहस कहानी  में अपनी ज़मीन पकड़ लेता है और कथ्य और मजबूत होकर उभरता है। प्रत्यक्षा स्त्री मनोविज्ञान की साधक बन कर फिसलती ज़मीन पर उपन्यास का रास थामे चलती हैं।

बिलास, कुमुद और सरन : पहेली

बिलास भी एक बारिशगर है। उसे उजड़े हुए दयारों में खुशियों की बारिश करनी है, जीवनकाल सकता है इतने के बाद भी उसका अहसास कराना है। कर्नल जो मृत्यु के बाद घर में परिवर्तित हो गए हैं, उस घर में आया किरायेदार है  बिलास । घर बिलास में सुकून तलाश करता है। सरन भी बिलास में जीवन देखती है। कुमुद एक स्मृति के जरिए बिलास को झकझोरने अाती है। वह अतीत है, जो वर्तमान सरन को विलास के जीवनमें प्रवेश की गुंजाइश देती है। कुमुद के लिए जब सोचता है तो उसमें अतीत से विलग हो जाने का खुमार है, वह आसानी से उस खुमार से अलग नहीं होता। सारे जुनून, सारा वहशीपन, सारी बेचैनियां तुम्हारे हिस्से की थीं। सारी ठहराई ,सब इत्मीनान मेरे तरफ की थीं । कई बार तुम्हारे पागलपन पर मैं खुश होता, कई बार इतना बेजार कि भाग निकलने की इच्छा होती। ठहरना उसे था, तेजी से निस्पृह भाव से निकल जाना कुमुद को था। और तुम गई। मैं रह गया – बचा हुआ, बिखरा हुआ, टूटा हुआ। तुम मेरी दुनिया से गायब थी। और यकबयक मेरी दुनिया मुझसे गायब हुई। और फिर सरन बांहों में ले जाती है। बिस्तर पर लेटाती है, पांव से जूते खोलती है।

लेखिका बिलास और सरन के प्यार को होता हुआ खुद भी महसूस करती हैं । पाठक लेखिका की इस अनुभूति को जज़्ब करता है। विलक्षण प्रेम की अनुक्रमणिका निर्मित होती है। यह प्यार उन्हें मुकम्मल कहानी के लिए तैयार भी करता है, लेकिन अंत तक यह कहानी अवांतर  दिशा लेे लेती है। कोई  मुकम्मल बयान नहीं बन पाती है और कहानी चलते चलते मुख्य नाईका के आख्यान का हिस्सा हो जाती। है। एक  संभावना भरे प्यार की छाया पूरी कहानी में हर जगह रहती है लेकिन अपनी जगह नहीं बना पाती। उसके अब्स्ट्रैक्ट्स और छोटे कंस्ट्रक्ट कहानी को गति देते हैं, जटिलता को समझने का रास्ता आसान करते हैं।

प्रेम अव्यक्त प्रसंगों का समाहार करता है। स्पष्ट कुछ भी नहीं, और जो छुपा है वह भी दोनों को मालूम है कि हमारे बीच क्या छुपा है। रात में बीच-बीच में सरन उठ कर बिलास के कमरे में झांक आती है। कभी रजाई नीचे गिरी है और बिलास सिकुड़ कर सोया है, कभी सिर तक रजाई ताने पसीने में डूबा है, सरन उसका पसीना पोंछ देती है, चादर बदल देती है, पानी पिलाती है, फिर अपने बिस्तर में दुबक कर गहरी नींद सो जाती है।

बिलास कोशिश करता है जितना बाहर रहे । जितना सरन से दूर रहे। सरन की आंखें उसे देखती कैसी उदास आंखें हो जाती हैं। सरन मुझ तक न आओ। मुझसे कोई उम्मीद न रखो।  मैं खुद से भी कोई उम्मीद न रखता । आई एम ए नो व्हेयर मैन।

घर जैसा घर था वैसा नहीं था जो भीतर से था वही बाहर से नहीं था । भीतर वाला घर कर्नल था बाहर वाला घर विलास, अव्यक्त, अतीतजीवी, प्रेम को छुपाते हुए सहमा हुआ। बाहर से दिखने वाला घर अलग था, थोड़ा थोड़ा पहाड़ों के घर जैसा। भीतर रहकर दिखता घर कुछ और था।  जैसे सरन थी। बाहर से पतली सांवली कटे बाल वाली । भीतर से बड़ी बड़ी, बहुत बड़ी, बहुत उदार बहुत सब कुछ । इतना सब कि उसकी सांस रुक जाती सोचते।

सरन हमेशा पीछे छूट जाती है।  छूट जाना चाहती है। कपड़े के झोले में फुर्ती से सामान भरती सरन पक्की गृहस्थिन बन जाती है। सरन घर को चलाती है। अपनी मां का आधा हिस्सा है वो। मां को अपने अतीत में विचरने देती है  और भविष्य की बेहतरी का आवाहन करते करते अपनी उम्र से अधिक  की हो जाती है। अरसे बाद  धूप का निकलना शरीर में फुर्ती भर देता है बाहर नाश्ते की खटपट की जानी पहचानी आवाज़ है। कुछ ऐसी आवाजें सरन के किरदार में विन्यस्त हैं। लेखिका इन आवाज़ों को कभी कभी जीवंत किरदार बनाकर छोड़ती हैं फिर समेट लेती हैं।  आवाज को पतंग बनाती  हैं लेखिका । सरन जानती है जब तक उसका हाथ न लगे इरा दस चीजों की शुरुआत करेगी, खत्म कोई न होगा।

सरन और मां का रिश्ता बुनने में लेखिका ने नए टूल्स इस्तेमाल किए हैं। प्रतिद्वंदिता और हमेशा व्यक्तित्व को स्कैन करते रहने की कोशिश। अद्भुत प्रसंगों से सरन के किरदार को गुजारती हैं लेखिका प्रत्यक्षा । सरन एक नजर में सब देख लेती है। “उसने अब तक कोई मर्द ऐसे नहीं देखा है । उसने अब तक कोई औरत तक ऐसे नहीं देखी है । इरा चाहे जितनी बेफिक्र अलमस्त हो,  सरन ने अब तक उसके घुटने नहीं देखे हैं, उसकी नंगी बाल नहीं देखी है,  उसकी छाती नहीं देखी है।  सरन ने अब तक सिर्फ बाबुन देखा है। उसकी मीठी महक सूंघी है, उसके बचकाने सेव से नन्हे गोल-गोल मुलायम बम्स देखे हैं उसकी छोटी भोली पिप्पी देखी है । अब बाबुन भी देखने कहां देता है। इसरार करता है कि नहलाते वक्त  तौलिया लपेटे रहे। सरन को हंसी आती है । बित्ते भर का छोकरा और इतना नखरा।”

कपड़ों से ढका बिलास हरियल दुबला लगता है ।  सरन बिलास  को प्रेमी रूप में भी देखने लगी है और हमदर्द भी,  जिस पर भरोसा हो। कपड़े उसके कंधों से ऐसे गिरते हैं जैसे उनके भीतर ठोस कुछ न हो । उसके चेहरे पर दो दिन की दाढ़ी, उसकी लंबी  उंगलियां , उसका लंबा कुछ झुका  कद,  उसके बड़े बड़े डग जैसे कहीं जल्दी पहुंच जाने की बेचैनी हो,  उसका लंबे समय तक बिना बोले बिना हिले स्थिर बैठना जैसे जहां हो वहां सांस रोके इसलिए बैठा हो एक सांस भर की हलचल अगर हुई तो उसकी हड़बड़ बेचैनी उसका दम तोड़ देगी।  इन सब में सरन को वह किसी और समय का प्राणी लगता था।  जैसे उसका होना भी न होना था।  कि वह रहकर भी कहीं और का था। एल्सव्हेयर ऑलवेज। उसका शरीर उसके चेहरे के मुकाबले आश्चर्यजनक रूप से जवान था। सरन उस एक पल की हैरानी में अपने भीतर की किसी और लड़की को भी देख रही थी।

सरन की हथेली गर्म है। मुलायम है।  अपनी गरम हथेलियों से नरम पड़ गए जीवन को स्पंदित रखना चाहती है सरन।  सरन का किरदार दीवा के बरक्स एक गंभीर शख्सियत खड़ा करने की कोशिश है। शायद जीवन ऐसा ही होता होगा, नरम मुलायम शायद विलास का जीवन हमेशा रुखड़ा रहा है। ऐसी नरमी उसकी किस्मत में कम रही है।  अचानक से कुमुद के अनुपस्थित चरित्र की आवाजाही। कुमुद के दिनों में भी नहीं।  फार्म पर उसे आभास है सरन के दुलार का। कुमुद के साथ दुलार कभी नहीं था। एक आग थी, एक जुनून था, शरीर की तीखी भूख थी और उसके चले जाने के बाद आहत अहम था, रिजेक्शन की तकलीफ थी।  बिलास सोचता है – मैं इतना बर्बाद क्यों हुआ आखिर। जब कुमुद थी उसे परे हटाता,  उसकी बेकद्री करता। जब गई तो मेरे भीतर कौन सी जगह में बिना जाने सेंध लगा अाई थी । उस जगह का खालीपन भरता नहीं।

इरा : मां का सनातन संघर्ष

इरा  जिस्म नहीं देखती, रूह की यात्रा पर अकेली होती है, उसे कर्नल को घर के रूप में जीना है, उसी  घर में जीते जाना है।। बेटी केअच्छे समय की प्रतीक्षा करनी है। इरा नहीं देखती सरन को । इरा जीवन को देखती है। जीवन के विभिन्न रूपों को और मंज़िल तक के इंतजार को। इस खिड़की के बाहर आसमान के टुकड़े को देखती है, जहां बादल के फाहे हैं, चिड़ियों का कोई झुंड है, किसी बकरी का मिमियाना है। एक जीवन है जो सब तबाह हो गया है। उसमें सुख की कोई उम्मीद नहीं है, असम के जलते जंगल हैं , एक जलता विमान है जिस के टुकड़े जाने मीलों तक फैले हैं और उन सब के बीच कहीं इरा यो भटकती है, पागलों सी। जब जब स्थिर बैठी होती है, तब तब भटकती होती है।  इतना की तलुए फट जाते हैं, शरीर क्लांत हो जाता है, दिमाग सुन्न।

मां बेटी के सह जीवन की, इस दारुण दुख के सायों में, अलोम हर्षक अभिव्यक्ति हुई है बारिशगर में। मां बेटी के बीच स्वत: पैदा हो गई है एक अतिरिक्त पोजिशनिंग की मनःस्थिति। एक के व्यवहार के आकलन से दूसरी अपने को संयत करती है। सरन होती है तो मालूम नहीं होता सरन है। जब अलबत्ता नहीं होती,  तब उसके होने की कितनी अहमियत होती है। छाती में एक चीत्कार उठती है। लगता है बदन से सारी शक्ति चूक गई। सरन होती है तब एक एक्सटीरियर बनाए रखना होता है सरन के जाते ही सारे प्रिटेंस खत्म हो जाते हैं ।

इरा के भीतर का सब गुमान खत्म हो गया है। इस घर में ऐसे रहती है जैसे पूरा घर एक इंतजार हो। और बेचारी सरन जिसने बाप को सिर्फ तस्वीरों में देखा या दीवा जिसने देखा पाया और फिर जो उसके जीवन से खो गया – किसकी तकलीफ ज्यादा है ? उसकी जिसने प्यार का स्वाद ही न चखा या उसकी जो जानता है कि उसने क्या खोया। इरा लेखिका की सहानुभूति पर काबिज है पूरी कथा में।

नशा और नायिका

घर सब जानता है । घबराता है । किसे बताए? कैसे बताए? कि उस ऊपर वाले कमरे में रात को नशीला धुआं भरता है मीठा, कसा। दीवा स्कूल के दिनों से ही नशे के फिक्र में पड़ जाती है जीवन का  नशे का पहला पाठ वह स्कूल में ही सीखती है और इसे पापा के गुजर जाने के बाद के लोनलीनेस में जोड़कर देखती है।

नैतिकता को तिलांजलि नहीं देती दीवा, न ही मूल्यों को ताक पर रखती है। मूल्यों का विघटन, लड़कियों को मिली आजादी इतनी औचक और आकस्मिक है कि वे उसे संभाल नहीं पा रही हैं और उस आजादी के बहाव में बही चली जा रही हैं।

स्त्री अपनी मानसिक और दैहिक स्मृतियों को अपने चेतना तंत्र से चाहने भर से समाप्त नहीं कर सकती। जो संताप देह की विरुदा वलियां हैं, उनका परिमार्जन देश, परिस्थिति या परिवेश बदल जाने मात्र से नहीं होगा। दीवा अपना दैहिक ताप शमन करने की कोशिश में घर लौट नहीं सकी। नशे की लत ने व्यक्तित्व पर चोट पहुंचाई और फिर आकस्मिक मातृत्व ने  घर लौट सकने के रास्ते बंद कर दिए।

मानव समाज का इतिहास गवाह है कि प्रेम विभिन्न प्रकार की रूढ़ियों और वर्जना उसे मुक्ति का एक महत्वपूर्ण माध्यम पहले भी रहा है और आज भी है। इसलिए सभी समाज व्यवस्था में कलाकार प्रेम को स्वतंत्रता और सुख की खोज का माध्यम बनाते रहे हैं। साहित्य में प्रेम के वायवीय और अशरीरी रूप की अभिव्यक्ति को सब स्वीकार करते हैं उसे आत्मिक प्रेम कहते हैं लेकिन प्रेम में जहां शरीर आता है वहीं से उसका विरोध शुरू हो जाता है। ऐसा विरोध केवल आत्मवादी ही नहीं करते कुछ यथार्थवादी भी करते हैं ।  दीवा नैतिक वर्जनाओं को तोड़ती है। न सिर्फ प्रेम शरीरी है, बल्कि नशे के उन्माद में लिया गया फैसला है, मातृत्व इसका प्रतिफल। स्खलन के इन कथानक  विपर्यय वाच्यानुभूती के बाद भी नायिका का फिर से सफल जीवन को पाने का साहस  उपन्यास का हासिल है।

लेखिका स्त्री की निजी और सौन्दर्य मूलक विशिष्टताओं का लोप नहीं होने देना चाहती हैं। रिमोर्स का कंस्ट्रक्ट स्वछंद यौनिकता में शामिल है। नायिका का पश्चाताप दरअसल लेखिका का सघन मानसिक विश्लेषण  के लिए खड़ा किया गया अवरोध है, जो  अपने आप में कहानी के बड़े हितार्थ की तरफ इंगित भी है।

देह की स्वछंदता, नशे में होने का मर्दाना अंदाज़ , बेखौफ  गाली गलौज की भाषा पर अगले हो क्षण अपने प्यार को कस कर पकड़े रहने कि इच्छा वास्तविक शहरी उद्धत जीवन का चित्र पेश करती है। यह जद्दोजहद और संगीतमय प्रवाह उपन्यास का हासिल भी है।

नैतिकता और एकनिष्ठता अगर मूल्य रूप में नहीं हैं तो संकोच और संवेदना नहीं रह जाएगी। संवेदन हीनता अवरोध और रुकावटें खत्म कर देंगी। मल्टिपल लव कंस्ट्रक्ट खड़े हो जाएंगे फिर। दीवा एक रिश्ते के असफल हो जाने के बाद दूसरे रिश्ते में जीवन तलाश लेती है।

इरा दीवा से मुखातिब है। इतनी तकलीफ में भी तुझे मेरी याद नहीं आई यह मेरी कमी हुई दीवा।  दारोश तुझे छोड़ गया तब तुम मेरे पास आ जाती बच्ची।  मैं तुझे प्यार से सहेज लेती तुझे जज न करती।  मारियुआना की लत नहीं लगती। दीवा दोस्तों में बोस्ट करती। मैं कभी कभार लेती हूं, मेरा दिमाग शांत रहता है में क्रिएटिव बनी रहती हूं।

इरा की आवाज आंसुओं की आवाज है । दीवा उसमें भींगती है । जब दारोश छोड़ गया तब मैंने आपका मन समझा जब बाबुन पैदा हुआ मैंने आपका मन समझा लेकिन अपना मन समझने के लिए मुझे बहुत दूर जाना पड़ा …..बहुत दूर।

नशे का यौवन को अपने जाल में जकड़ लेना और एक नवयौवना का उस दुनिया में प्रवेश के चित्रण में उपन्यासकार प्रत्यक्षा  अद्वितीय हैं। बाथरूम में बंद लंबे समय तक उसकी नसें नृत्य करतीं। लूसी इन द स्काई विद डायमंड्स। जब सारी तकलीफें खत्म हो जाती,  जीवन एक चिड़िया का नाम होता। मन बादल का फाहा होता, एकदम हल्का, एकदम रंग भरा। कैसे गोल चौकोर घेरे दिखते , क्या रंगीन समां होता। शरीर शरीर ही होता, लेकिन कोई दर्द न होता।  इरा न होती उसका बिलगाव न होता, डैड का जलता विमान न होता, सपने में उनके शरीर के झुलसे टुकड़े न होते, दहशत न होती, सिर्फ प्यार होता।

“कमरे में अंधेरा है,  कमरे में खट्टा सा स्वाद है।  कमरे में नशा है। कमरे में उत्तेजना है । कमरे में कुछ इलिसिट सा तैर रहा है । कमरा कुछ पागलपने से भरा है। कमरे में इतनी साफगोई है । कमरे में बहुत सा सच है, लेकिन बहुत सा झूठ भी है। दीवा किसी के साथ नहीं सोई अभी तक। किस किया है लेकिन कभी सोई नहीं?”

बारिशगर ने लड़कियों की आभासी नाकामी और नशे में लिप्त होने की प्रक्रिया का सुंदर  और बहुआयामी चित्र पेश किया है।

हर दो मिनट पर दीवा यही कहती है। हर दो मिनट बाद सब ऐसे ही हंसते हैं । हर अगली हंसी उनकी पिछली हंसी से ज्यादा हिस्टेरिकल है। एक के बाद एक वह कश लगाते हैं, सिगरेट एक हाथ से दूसरे बढ़ती जाती है । कमरे में धुआं है मीठा । दीवा की इच्छा होती है सब कसी हुई चीजें उतार फेंके। शरीर उसका उड़ रहा है यह बंधन उसे रोक रहे हैं। दीवा कहीं उड़ रही है। दीवा कहीं समंदर के तल में भारी भारी पैठ रही है।

नायिका की घर वापसी: पुनरावलोकन

दीवा का घर लौटना कथा का नाटकीय मोड़ है। उसका लौटना कथा को इतिवृत्तात्मकता भी देता है। कहानी खुद पिछले बीते हुए सालों का बयान करने लगती है। दीवा सिर्फ घर ही नहीं लौटती बल्कि अपनी मां और बहन के जीवन में भी प्रवेश करती है। दरवाज़े से अंदर क्रिटिकल होकर वह  सधे  हुए कदम रखती है पर धीरे धीरे इरा और सरन के चरित्रों में उसका प्रवेश होता है। उसमें खुद को चस्पा करके देखती है। उपन्यास की लेखिका इन प्रसंगों के वर्णन में सिद्धहस्त हैं। उपन्यास दीवा की घर वापसी के बाद अपने शिखर की तरफ बढ़ने लगता है।

दीवा ने तेरह साल की उम्र में पिता खोया।  पिता का चले जाना उसकी जान का चले जाना था। यह कोई नहीं जानता था।   दीवा की निर्मितियों में इस प्रारंभिक गहरी घटनाओं का बहुत बड़ा योगदान है। इरा तक नहीं जानती क्या चल रहा था दीवा के मस्तिष्क में। इरा अपने दुख में थी । फिर सरन हुई तो इरा सरन में थी इरा घर संभालने की , सब बिखरे हुए को समेटने में थी। अपने दुख को कलेजे से लगाए वह दबंग होती गई ।उसे सरन  फूटी आंखों न सुहाती। उसे इरा का बर्ताव पिता के प्रति बिट्रायल लगता है।

प्रत्यक्षा एक धीरे धीरे पुष्पित हुई जीवन पद्धति को प्रेम और घर के बीट्रयल के रूप में भी लाती हैं। आपकी आसक्ति छूटी  अगर प्रेम के अपरिहार्य  तत्त्वों से तो यह अनायास नहीं हुआ सबकोंसस  माइंड  ने इसे स्वीकृति दी। आप ऐसा चाहते थे शायद। भौंचक वो इरा को देखती, हंसते गाते सरन से बचकाने तोतले स्वर में लड़ीयाते। इसे जरा दुख नहीं, वो नफरत से सोचती।

इक्कीस साल हो गए थे इस घर से कर्नल साहब को गए। इरा इक्कीस साल से कर्नल का इंतजार कर रही थी। सरन ने कर्नल को देखा नहीं था वह तब मां के पेट में थी दीवा ने पिता को देखा था पर पिता का साया बहुत देर तक रहा नहीं उस पर । इस तरह दोनों अपने पिता को लेकर एक अलग मानसिक दुनिया में जीते थे एक इरा और एक यह घर जो कर्नल को जानते थे, कर्नल को जीते रहे, कर्नल के जाने के बाद भी हर कोने में , हर लफ्ज़ में, हर सांस में कर्नल जीता है यहां, मरने के बहुत दिनों के बाद भी।

दीवा के मन में सरन के लिए उठता है कि सरन कितनी ठहरी हुई है इतनी कम उम्र में ऐसी सादगी कितना अनछुआपन । मैं अपने अंदर जीवन में उसकी सादगी का फायदा कैसे उठाऊं? लेकिन यह पल कितना सुकून वाला पल है। इस छुअन में कैसी निस्बत है।  एक पल में बहन, जो कि दीवा के बच्चे को मां की तरह पाली है, पर संदेह भी है और दूसरे ही पल उससे असीम सौहार्द। इन दो परस्परविरोधी आनुषंगिक भावों को लेखिका सहयात्री बनाती हैं।  “कितना शीतल, कितना उष्म, कितना ठहरा हुआ अपने से निस्पृह। इस होने से दूर। जैसे यह तारे आसमान में जो टंगे हैं, सिर्फ चमकते हैं, न रोशनी देते न गर्मी, सिर्फ अपनी चमकान की आश्वस्ति देते हैं । सरन भी आश्वस्ति है। इस दुनिया में होने की मीठी आश्वस्ति।”

बिलास कहता है दीवा को इरा के प्यार की जरूरत है सरन। और मुझे?  सरन की आवाज़ इन प्रसंगों को व्यक्त करने में लड़खड़ा जाती है। अबंडंड चाइल्ड होने का भाव बचपन से उसके साथ चलता है। फॉर्सेड डिजेक्शन कभी कभी सेल्फ डिनायल का रूप  ले लेता है।  लेकिन अभी दीवा का समय है। मेरा समय कब होगा? सरन का चेहरा आंसू में डूबा चेहरा है बिलास उसे धीमे खींच सटा लेता है। उसकी उंगलियां सरन के बालों में गुजरती हैं। बिलास की आवाज रेशा रेशा सरन पढ़ती है। कितना धुआं है इसकी आवाज जैसे जलते कुंदे पर झमाझम बारिश। ये प्रसंग बारिशगर को अपनी समकालीन गद्य  परंपरा में महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाते हैं।

दारोश और ब्लेन मिलर: उलझनें

दारोश ही नशे में डूबी दीवा को  उसकी जहालत से नि कालता है। वह उस बुरे वक़्त का साथी है जहां से दीवा का ज़िन्दगी में वापस लौटना संभव नहीं था।  दारोश दीवा की ज़िन्दगी में कई बार आता है , जाता है। वह अविश्वास में है। वह यह भी पूछता है तुम मुझसे शादी करोगी। दीवा का नशा सही जवाब नहीं दे पाता। वह ये भी कहता है दीवा हमेशा मेरे साथ रहो।

दारोश लेकिन आशंकित रहता है, टटोलता है, उसकी कलाइयां देखता है। क्या देखते हो? कि मैं फिर नशा तो नहीं कर रही ? आओ मेरी दराजें चेक कर लो, मेरे पर्स खंगाल लो, मेरे दोस्तों से मेरा पता पूछ लो? नहीं मुझे तुम पर विश्वास है । मैं तुम पर भरोसा करता हूं दीवा।  उसका यह भरोसा टूटता है वह भरोसा जो नशे ने और नशे की लत ने कभी बनने नहीं दिया । वह भरोसा जिसमें प्रेमी की आंखें प्रेमिका, दोस्त, पत्नी, जीवन साथी में बहुत कुछ खोजती हैं ।

वो कब गया मुझे मालूम नहीं। सिर्फ उसकी एक बात याद रही – मैं तुम्हारा दोस्त हमेशा था, हमेशा रहूंगा। तुम्हें जब मदद की ज़रूरत थी, मैं था तुम्हारे पास। आगे भी दीवा। तुम बहादुर हो, अपनी हिफाजत कर लोगी। सुनयना बहादुर नहीं है। सुनयना के मिलते ही दारोश दीवा की ज़िन्दगी से निकल जाता है। दर्द के हर आवेग पर उसने दारोश को बद्दुआ दी। दर्द के हर आवेग पर दारोश को शिद्दत से याद किया। दर्द के हर आवेग पर दीवा एकदम अकेली थी।

दीवा को चेक रिपब्लिक से काम का ऑफर आता है। वह अपने दुख से भौगोलिक दूरी अपनाने को बाध्य होती है ताकि उसे अपने आपको सॉर्ट आउट करने का मौका मिल सके । “प्राग मेरे लिए स्केप था। प्राग मेरे लिए सैनिटी स्पेस था। यहां लैंड करते ही जो पहली सांस मैंने ली,  उसने मेरे भीतर के मैं को बदल दिया । पुरानी दीवा वहीं भारत में छूट गई। यह कोई और दीवा थी। नई दुनिया में अपने स्पेस को खोजने और आईडेंटिफाई करने की जद्दोजहद में लड़ती अडती एक अदना सी लड़की।”

प्रत्यक्षा निजी तौर पर यूरोप से बेहतर एक्सपोज्ड रही हैं। उनका विदेश भ्रमण और प्रवास ने नायिका के विदेश में संघर्ष  की गाथा को जीवंत कर दिया है। एक एक डिटेल जो बहुत विस्तार भी नहीं लेता या कहीं उबाऊ नहीं होता, बल्कि कथानक को उत्कृष्ट बनाने का काम करता है और नायिका के संघर्ष कों नया कंट्रास्ट  देने का भी। बारिशगार की एक प्रमुख सफलता है कि असंबद्ध घटनाएं और स्थूल  वस्तु और आलसी शिल्प भी उब पैदा नहीं करते।  भाषिक संगीत उसे खींच कर गंतव्य तक लेे जाता है।

दीवा यहां रिकंस्ट्रकट करती है अपने को। नायिका अपने आप को जलालत की पुरानी ज़िन्दगी से निकालती भी है। बड़े और कालजयी उपन्यासों की खूबी होती है कि पात्र स्थान परिवर्तन के साथ कई बार व्यक्तित्व परिवर्तन का आयाम स्वातः जोड़ लेते हैं। यह उनका मानसिक तौर पर हिजरत होता है और जिस कहानी का दारोमदार वह अपने कंधे पर ढोता है उसमें गुणात्मक परिवर्तन भी लेे आता है।  “जानते हैं बिलास साहब, ये बहुत बाद में पता चला कि उस जगह की हवा आपके मन को भांपकर अपने आप को उसके मुआफिक धाल थी। जैसे कुछ कुछ हमारा ये घर। कभी लगा आपको? जैसे सब घर हो गए हों और हम सबको महफूज़ रखना सबसे ज़िम्मेदारी का काम हो घर का? ”

फिर ब्लेन मिलर अमेरिकी का आगमन होता है दीवा की ज़िन्दगी में। तब तक दुख और संताप का रेशा रेशा निकाल चुकी है दीवा और जीवन की नई चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गई है। ब्लेन मिलर जो कि बो है दीवा का , आगे की जिंदगी बड़ी बारीकियों से करीब आकर गुजारने का निश्चय करता है। “उसका दिल बहुत बड़ा था और अपने आसपास, अपने इकोसिस्टम और प्रकृति के साथ जो उसका तारतम्य था, वो मैंने बहुत कम लोगों में देखा था।” बो के साथ उसका साथ एक उष्मा और ताप भरा संगत था।कभी उसने अपनी उपस्थिति उस पर नहीं थोपी।

छूट गए प्रेमियों का किस्सा तभी यकीन से बयान होता है जब कहानी आगे बढ़कर किसी सुख को लपक लेनेवाली हो।  कोई नया प्रेमी लार्जर देन लाइफ सा दिखता हुआ आए और जो कुछ जहां जैसा  भी टूटा फूटा है  सब  जोड़कर आगे बढ़ जाए। ज़िन्दगी एकदम नए सिरे से संवार देने की जुगत में लग जाए।

दीवा तीन महीने पहले  देश लौट कर  घर लौटने की हिम्मत जुटाई है। घर आकर भी एकदम सबको गले लगा ले ऐसे हो नहीं पाया।   घर पहले पूरा का पूरा लौटता है दीवा में। घर आज भी उन्हीं उम्मीदों और आत्मीयता से देखता है दीवा को।  मेरी बेवकूफियों को बर्दाश्त करते रहे, मुझे प्यार करते रहे। और शुक्रिया बिलास साहब । आपने इस घर को एक जमीन दे दी उसे फिर जिंदगी में रूट कर दिया जैसे डैड करते थे।

याद रहते हैं गुजरते हुए निराशा के पल, याद रहती हैं सिर  धुनती कचोटती यादें, पेड़ों से रिस रही पत्तियों के छोर से दर्द की बूंदें, बगान में थका हुआ आधे मन से काम करते अलसाए दिन, इंतजार कर रही पथराई आंखें, सूखे हुए संघर्षरत चेहरे, आस का दामन पकड़े किरदार,  अधूरी रह गई प्रेम की किताबें  और नहीं देखी गईं सब फिल्में, मिले हुए सब लोग, भोगा हुआ हर एक पल, घूमे हुए सब शहर, छतनार पत्तियों वाले पेड़ों से ढकी गलियां, सुने हुए सब गीत, उनकी उठान । बारिशगर इन्हें याद रखते हैं क्योंकि तपती मिट्टी को बूंदें चाहिए, सोंधी खुशबू बारिश की अंदर तक भिगाती है।  इनके याद रखने में  अपने दायित्व को याद रखना है जीवन जीते हुए खुद को  भी याद रखना है।

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त्रिलोकनाथ पांडेय के उपन्यास ‘चाणक्य के जासूस’का एक अंश

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लेखक त्रिलोकनाथ पांडेय का नया उपन्यास ‘चाणक्य के जासूस’ जासूसी की कला को लेकर लिखा गया एक रोचक उपन्यास है। कथा मगध साम्राज्य के के उस काल की है जब घननंद की शक्तिशाली सत्ता को चाणक्य और चंद्रगुप्त ने बिना किसी रक्तपात के पलट दिया था। आप एक अंश पढ़िए। उपन्यास राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है-

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चाणक्य के गुप्तचर पूरे पाटलिपुत्र नगर में अफवाह चक्र चला रहे थे. वे चारो ओर फैले हुए थे – सड़कों पर, गलियों में और चौराहों पर. वे सर्वत्र सक्रिय थे – बाजारों, वेश्यालयों, मदिरालयों, जुआघरों, विद्वत्परिषद के सम्मेलनों और यहाँ तक कि राजकर्मचारियों की बैठकों और विचार-विमर्शों में भी. सब जगह एक ही चर्चा. सब जगह एक ही बात वे पूछते थे अपने बगल वाले व्यक्ति से – “सुना है कात्यायन द्वारा नंदवंश का छुपा कर रखा गया राजकोष चाणक्य ने खोज निकाला है. क्या यह सच है?”

एक गुरुकुल में एक बटुक ने अपनी कक्षा में आचार्य से यही प्रश्न पूछ लिया. पूरी कक्षा उस बटुक की बात को बेवकूफी-भरा मान कर हँस पड़ी. आचार्य को इस प्रश्न का उत्तर मालूम न था तो उन्होंने चुप्पी साध लिया. लेकिन, बाद में उन्होंने अपने अन्य सह-आचार्यों से यह प्रश्न पूछा. उत्तर किसी के पास नहीं. आचार्यों ने जिज्ञासावश अन्यों से यही पूछा. घर लौटने पर बटुकों ने अपने परिवार में यह प्रश्न पूछा. उत्तर कहीं न था.

कलावती महालय के रूपजीवा बाजार में एक ग्राहक ने एक गणिका से सम्भोग के चरम पर पहुँचते-पहुँचते अचानक यही बात उसके कान में फुसफुसा कर पूछी. गणिका ने इसे ग्राहक की उत्तेजनावस्था का प्रलाप समझ कर टाल दिया. किन्तु, उसके मन में भी जिज्ञासा जाग चुकी थी. ग्राहक से जान छूटते ही वह अपनी सखी गणिकाओं के पास दौड़ी गयी यह प्रश्न पूछने, पर उत्तर उनके पास भी न था. अपनी-अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए उन सबों ने अपने-अपने ग्राहकों की काम-पिपासा बुझाते समय यह बात पूछ ली. उत्तर उन्हें भी कहाँ पता था! बल्कि, उन्होंने वापस लौटने पर अपने परिचितों से यह बात जाननी चाही. सब एक-दूसरे से पूछ रहे थे. उत्तर किसी के पास न था.

एक मदिरालय में एक मद्यप ने दूसरे मद्यप से यही प्रश्न पूछा तो दूसरे वाले ने पहले वाले को मूर्ख कह कर उपहास करना चाहा. इससे दोनों में कलह शुरू हो गया – एक कात्यायन की ओर से तो दूसरा चाणक्य की ओर से. पूरा मदिरालय वहां इकठ्ठा हो गया और सारे मद्यप मिलकर छुपे राजकोष के बारे में जोर-जोर से बहस करने और झगड़ने लगे.

मधुयामिनी अतिथिगृह में चतुरंग खेल रहे चारों खिलाड़ियों में से एक अचानक पूछ पड़ा, “सुना है कात्यायन द्वारा नंदवंश का छुपा कर रखा गया राजकोष चाणक्य ने खोज निकाला है. क्या यह सच है?” चाल चलने की जिस खिलाड़ी की बारी थी वह मुंह उठाकर प्रश्न सुनने लगा. उसके रुक जाने से दो अन्य खिलाड़ी भी प्रश्न की ओर आकर्षित हुए. प्रश्न इतना रोचक था कि उसका उत्तर खोजने में चारों खिलाड़ी बहस करने लगे. बहस इतनी मजेदार लगी कि उन्होंने चित्रपट (बिसात) और गोटियाँ एक तरफ खिसका दिया और पूरी तरह बहस में लीन हो गये.

इस प्रकार, छुपे राजकोष के पाए जाने की चर्चा चारों तरफ होने लगी. बात कात्यायन तक भी पहुंची – पहले अफवाह के रूप में, बाद में उसके गुप्तचरों ने इस खबर का अनुमोदन भी किया.

***

छुपाये हुए राजकोष की सुरक्षा के बारे में कात्यायन अत्यंत चिंतित हो उठा. वह बहुत व्यथित था कि नंदवंश का विशाल कोश बड़ी आसानी से चाणक्य और चन्द्रगुप्त के हाथ लग गया. उसे गहरा सदमा लगा कि अपने स्वामी की इतनी मेहनत से एकत्र की गयी संपत्ति की वह रक्षा न कर सका.

“लेकिन, ऐसा कैसे हो सकता है!” कात्यायन बड़े आश्चर्य में था. “राजकोष के छिपाने का स्थान तो मात्र दो ही लागों को ज्ञात था – एक तो सम्राट धननन्द और दूसरा वह स्वयं. सम्राट धननन्द तो अब रहे नहीं और स्वयं उसने यह बात किसी को बतायी नहीं. यही नहीं, खजाने को छुपाने की असली जगह किसी को पता न लग जाय इसके लिए उसने बड़ी चतुराई से यह झूठी खबर चारों ओर फैलवा दी थी कि नंदवंश का सारा धन गंगा नदी की तलहटी में रातों-रात बनाये गए गुप्त कोष्ठ में सुरक्षित रख दिया गया है.”

खजाने के खोने का इतना गहरा सदमा कात्यायन को लगा कि उसकी रातों की नींद गायब हो गयी. वह बड़ा असहाय और अकेला महसूस कर रहा था. उसे शक हो रहा था कि खजाना खोज लिए जाने की झूठी खबर जान बूझ कर शत्रु द्वारा फैलाई जा रही थी. उसे डर था कि ऐसे में अगर वह अपनी चिंता किसी के साथ साझा करता है तब तो खजाने की पोल अपने-आप खुल जायेगी. यही उसकी बेचैनी का कारण था. यही सब बातें सोच-सोच कर उसकी नींद गायब थी और वह मलय के शिविर-स्थित अपने आवास में बेचैनी से चहलकदमी कर रहा था.

इस बीच, चाणक्य की ओर से दक्षलोचन और वंशलोचन को गोपनीय निर्देश मिला था कि कात्यायन के कार्यकलापों पर सतत दृष्टि रखी जाय. अगर वह अपना आवास छोड़ कर कहीं बाहर जाता है तो तुरंत गुप्त रूप से उसका पीछा किया जाये और दिन-प्रतिदिन का सारा विवरण चाणक्य के पास सावधानी से भेजा जाय.

लगभग आधी रात हो चली थी. चिंता में डूबा कात्यायन लगातार टहल रहा था. अचानक उसने अपने अश्वपालक को आवाज दी कि शीघ्र उसका अश्व तैयार किया जाय. यह बात चुपके से दक्षलोचन ने सुन ली, जो वहीँ अँधेरे में छुप कर कात्यायन के कार्यकलापों पर नजर रखे हुए था. दक्षलोचन ने तुरंत वंशलोचन को सजग किया कि कात्यायन कहीं बाहर निकलने वाला है.

***

 कात्यायन अपने घोड़े पर पाटलिपुत्र नगर की ओर सरपट भागा जा रहा था. चांदनी खिली हुई थी. रात कोई बाधा न प्रतीत हो रही थी क्योंकि लगता था उसका घोड़ा रात में चलने का अभ्यस्त था.

     वंशलोचन अपने घोड़े पर कात्यायन के पीछे-पीछे चुपके से चला जा रहा था. कात्यायन खोये हुए खजाने के खयालातों में इतना खोया हुआ था कि उसे सुध ही नहीं रही कि कोई उसका पीछा कर रहा है. उसने जासूसी नजर से बचने के उपायों को भी नजर अंदाज कर दिया. उसने यह भी परवाह नहीं किया कि गुप्त रूप से पीछा किये जाने की सम्भावना को जांचने के जो नियम बनाये गए हैं उसका तो पालन करे. बस वह अपनी ही धुन में भागा जा रहा था.

     थोड़ी देर तक पाटलिपुत्र की ओर घोड़ा दौड़ाने के बाद नगर के सिंहद्वार की ओर जाने वाले मार्ग को छोड़ कर कात्यायन अचानक बायीं ओर मुड़ गया. घने जंगल में एक पतली-सी पगडण्डी पकड़ कात्यायन वृक्षों से बचता और लताओं के झुरमुटों को हटाता बड़ी मुश्किल से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था. वंशलोचन के लिए जंगल से बड़ी सुविधा थी. पेड़ों और लताओं की आड़ में उसे पीछा करते देख लिए जाने का डर न था. वह बड़े आराम से छुपते-छुपाते पीछा करते आगे बढ़ रहा था.

     पाटलिपुत्र नगर की सुरक्षा के लिए चारों तरफ खोदी गयी खाई में पानी लबालब भरा था. उसके किनारे-किनारे घने जंगल में घुसता कात्यायन अपनी तलवार से लताओं और झुरमुटों को काटता-हटाता धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था. वह बहुत चौकन्ना होकर दाहिनी ओर बह रही नहर को देखता चल रहा था मानों वह किसी खास जगह को पहचानने की कोशिश कर रहा हो.

     वंशलोचन भी चुपचाप उसके पीछे लगा था. वह बड़ी सावधानी से आगे बढ़ रहा था ताकि कात्यायन को कहीं आभास न हो जाय कि उसका पीछा किया जा रहा है. दो-तीन बार खतरा आ उपस्थित हुआ था जब कात्यायन किसी खास जगह को पहचानने और खोजने के चक्कर में अचानक रुक पड़ा था और वंशलोचन रुकते-रुकते भी उसके एकदम निकट पहुँच गया था. लेकिन, कात्यायन अपनी धुन में इतना खोया हुआ था कि उसे किसी को अपने निकट होने का कोई आभास न हो पा रहा था.

     अन्ततः, कात्यायन को दाहिनी ओर एक ऐसा वृक्ष दिख गया जिसकी एक घुमावदार डाल कई घुमाव के बाद आखिर दक्षिण दिशा में घूम गयी थी. कात्यायन वहीं रुक गया; अपने घोड़े से उतरा और उसी वृक्ष के तने से अपने घोड़े को बाँध दिया. तत्पश्चात, वह उसी डाल की दिशा में लताओं और झुरमुटों को हटाता पैदल आगे बढ़ा और कुछ ही कदम की दूरी पर बह रही नहर पर बने एक पुराने जर्जर लकड़ी के पुल तक पहुँच गया. लगता था कात्यायन को पुल की पहले से जानकारी थी नहीं तो उस घने जंगल में पुल तक किसी अजनबी का पहुंचना असम्भव था. और, पुल का प्रवेश-स्थल भी घने झुरमुट की ओट में था. यद्यपि सामान्यतः देखने पर वह झुरमुट अपने आप उग आया लगता था, लेकिन कात्यायन जानता था कि पुल की पहचान छुपाने के लिए उस झुरमुट को खास तौर पर उगाया गया था.

     झुरमुट की टहनियों और लताओं को अपनी तलवार से काटता-छांटता रास्ता बनाता कात्यायन लकड़ी के पुल पर पहुँच गया और पुल पार कर लकड़ी की शहतीरों से बनी ऊंची चहारदीवारी तक पहुँच गया. चहारदीवारी के पुल के ठीक सामने पड़ने वाले हिस्से में छोटे-छोटे ताखे बनाये गए थे जिन पर अपने पैरों और हाथों को टिकाता कात्यायन फुर्ती से दीवार पर चढ़ गया.

***

     वंशलोचन ने अपना घोड़ा एक झाड़ी के पीछे छुपा दिया और कात्यायन का पीछा करते हुए पुल पर पहुँच गया. ताखों का उपयोग करते हुए वह भी दीवार पर चढ़ गया. लेकिन, उसने देखा चहारदीवारी से लगी हुई एक बहुत बड़ी झील थी और कात्यायन उस झील में एक छोटी सी नौका खेते हुए बड़ी तेजी से झील के उस पार जा रहा था. दीवार से झील तक लटकी हुई एक मजबूत रस्सी भी वहां वंशलोचन को दिखाई पड़ी और उसने अनुमान लगाया कि इसी रस्सी के सहारे कात्यायन झील में उतरा होगा और वहां पहले से रखी हुई नौका लेकर आगे बढ़ गया.

     रस्सी के सहारे झील में उतरना वंशलोचन को खतरे से खाली न लगा. वह समझ रहा था कि ऐसा दुस्साहस उसकी पोल खोल देगा. झील को तैर कर पार करने के अलावा और कोई उपाय न था. ऐसे में वह पीछा करता हुआ पकड़ा जायेगा, जिसमें जान जाने का भी खतरा है. यही सब सोच कर वह दीवार पर चिपक कर लेट गया और वहीं से कात्यायन की गतिविधियाँ देखने लगा.

***

     झील के उस पार पत्थर की सीढियां थीं जहाँ पहुँच कर कात्यायन ने अपनी नाव बाँध दी और सीढ़ियों से चढ़ कर ऊपर तक गया. सीढ़ियों के अंत में ऊपर एक छोटा सा दरवाजा था जो उस समय बंद था. यह दरवाजा राजभवन परिसर की चहारदीवारी में था.

     कात्यायन उस दरवाजे को न खोला, बल्कि वहीँ पहली सीढ़ी पर घुटनों के बल बैठ गया और अपने दोनों हाथों से कुछ टटोलने लगा. अलग-अलग कोणों से बैठकर वह टटोलने का कार्य कुछ देर तक करता रहा. आखिर में, संतुष्ट होकर वह अपनी नाव पर लौट आया. फिर नाव को खेते हुए वापस लौटने लगा.

     वंशलोचन समझ गया कि काम ख़त्म हो गया. वह शीघ्रता से दीवार से उतर कर एक झाड़ी में छुप गया और दम साधे कात्यायन को पुल पार करते और अपने घोड़े पर बैठ कर वापस जाते चुपचाप देखता रहा.

     कात्यायन के काफी दूर चले जाने के बाद ही वंशलोचन झाड़ी में से बाहर निकला. वह समझ गया कि कात्यायन अब अपने आवास वापस लौट रहा था. कात्यायन का पीछा करने की अब उसे जरूरत न थी. वह वहां से अपने घोड़े पर सीधे पाटलिपुत्र नगर में स्थित गुप्तचरों के सुरक्षित गृह पहुँच गया जहाँ उसने चाणक्य को सारा विवरण कह सुनाया. सुनकर चाणक्य के मुंह से एकबारगी निकल गया, “ओह, तो यह महोदधि में है.”

“महोदधि?” वंशलोचन ने आश्चर्य से पूछा.

“महोदधि उस झील का नाम है. तुम्हें आगे समझने की जरूरत नहीं है.” वंशलोचन समझ गया कि आगे की बात चाणक्य उसे नहीं बताना चाहता. उसकी इस आदत से उसके सभी गुप्तचर परिचित थे. अतः कोई भी चाणक्य की इच्छा के बिना कोई अतिरिक्त सूचना जानने की जिद न करता था. इसी बीच चाणक्य फिर बोल पड़ा, “अच्छा, अब तुम जाओ और कात्यायन के आवास पर अपने कार्य-स्थल पर शीघ्र पहुँच जाओ. कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी अनुपस्थिति के कारण कात्यायन को संदेह हो जाय.”

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The post त्रिलोकनाथ पांडेय के उपन्यास ‘चाणक्य के जासूस’ का एक अंश appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..

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