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मिथिलेश कुमार राय का उपन्यास-अंश ‘करिया कक्का की आत्मकथा’

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मिथिलेश कुमार राय ग्रामीण जीवन को लेकर बहुत जीवंत लेखन करते हैं. उसकी राजनीति से अलग उसके जीवन को सहज रूप में देखने की कोशिश करते हैं. वे आजकल उपन्यास लिख रहे हैं ‘करिया कक्का की आत्मकथा’. उसी का एक अंश- मॉडरेटर

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‘काकी, कक्का हैं? जरा दरवाजे पर भेज दो.’

‘हैं कहाँ वे आँगन में.’

‘काहे, कहाँ गए इतने भोरे-भोर?’

‘का बताएं, बच्चू को कब से कह रहा था पम्प सेट के लिए. आज चार बजे जाकर लगाया खेत में. राजमा के पौधे पीले पड़ते जा रहे थे. उसी की सिंचाई में लगे हुए हैं.’

‘आज तो मौसम बहुते ख़राब है। इसी मौसम में उन्हें यह सब करना था.’

हाँ. आज दोपहर से पहले धूप क्या निकलेगी. लेकिन बच्चू को अगर आज ना कह देते तो अब पौधे मरणासन्न हो जाते. क्या करोगे. ऐसे ही चलती है. यह जिंदगी.’

‘हाँ. सो तो है. तुम कक्का को चाय पहुँचा दो. सर्दी बहुत है. उन्हें थोड़ी राहत मिलेगी.’

‘हाँ. मैं भी खेत की तरफ ही निकल रही हूँ. लेकिन पहले इन बकरियों को कुछ चारा डाल दूँ. नहीं तो बेचारी मिमियाती रहेंगी.’

‘क्या खिलाओगी बकरियों को?’

‘पीछे से जलेबी का एक डंठल तोड़ लाती हूँ. उसी के पत्ते में लटकी रहेंगी.’

‘ओ.’

‘तुम सुनाओ. कैसे आये?’

‘आज इतवार है काकी. सोचा था कि इतनी सर्दी है तो कक्का बड़ा सा घूरा लगा के बैठे होंगे. मैं भी बैठ जाऊंगा. गप्पें करेंगे. तुम अदरक वाली चाय जरूर पिलाओगी.’

‘चाय पीना है तो क्षणिक बैठो. अभी बना देती हूँ.’

‘नहीं काकी. रहने दो. तू ना, बकरी को चारा डालकर कक्का को चाय पहुंचा दो. मैं फिर आ जाऊंगा. शाम को.’

‘जरूर आना. दोपहर तक सिंचाई का काम भी ख़त्म हो जायेगा. फिर तो कक्का घूरे के पास ही जमे रहेंगे.’

जरूर आऊंगा काकी.

बारह बजे के लगभग सूरज देव ने सबको दर्शन दिया था. लेकिन दो बजते न बजते पछिया ने जोर लगा दी तो फिर वे कुहासे की ओट में पता नहीं कहाँ छिप गए. अभी चार भी नहीं बजे थे और ऐसा लग रहा था कि रात होने वाली है. सर्दी के दिनों में जब भी इस तरह का खराब मौसम होता है, लोग अपने-अपने घरों में ही दुबके रहते हैं. लेकिन कक्का अब तक नहीं लौटे थे. खेत से. दरवाजे पर घूरा सुलग रहा था. सूखे गोबर, गोबर से बने उपले और बाँस की जड़ से जोड़ा गया यह घूरा आज पहले से ज्यादा मजबूत लग रहा था. नहीं तो काकी घूरे में उपले कहाँ देतीं हैं. कहती हैं कि उपले तो भोजन बनाने के लिए होता है. घूरे के लिए कक्का पहले ही सूखे गोबर और कटे बाँस की जगह से उसकी जड़ उखाड़ कर ढेर लगा देते हैं. सर्दी खत्म हो जाती है लेकिन घूरे की सामग्री खत्म नहीं होती.

काकी बकरियों को घर के अंदर ले जा रही थीं. फिर उन्होंने गाय की पीठ पर जूट से बने बोरे को सी कर बनाया गया झूल रख दिया.

‘कक्का अभी तक नहीं लौटे हैं?’

‘लौटने ही वाले हैं.’

‘बड़ी देर हो गई?’

‘अरे, आफत आती है तो दो चार आ जाती है.’

‘क्यों, क्या हुआ?’

‘मौसम को नहीं देख रहे!’

‘हाँ. सो तो है. बहुत बिगड़ा हुआ है.’

‘ऊपर से आधे खेत की सिंचाई भी नहीं हुई कि मशीन का डीजल खत्म हो गया.’

‘लेकिन डीजल तो किरतु के यहाँ मिलता है न?’

‘आज नहीं था. खत्म था. मशीन खेत से चला जाता तो फिर खींच के लाने में कितनी परेशानी होती है.’

‘तब?’

‘तब क्या. कक्का तुम्हारे छतरपुर गए. डीजल लाए. अब जाकर काम खत्म हुआ है. लो, आ गए.’

‘चाय बना दो.’

कक्का ट्यूबेल के पास चले गए.

‘अरे कक्का, पहले हाथ-पांव सेंक लो.’

‘आता हूं. आता हूँ. घूरे के पास ही आता हूँ. पहले देह पर एक बाल्टी पानी उढेल लूं.’

‘मैं कहती हूँ कि इस बखत स्नान करने का क्या तुक है. सिर्फ देह-हाथ पोंछ लो.’

‘हाँ कक्का, समय नहीं देख रहे.’

‘कुछ नहीं होगा.’

कक्का ने देह पर पानी उढेल ही लिया-हर-हर गंगे… हर-हर गंगे!

‘कभी किसी की सुने तब न!’

‘तू चाय बनाकर घूरे के पास लेती आ. शाम को भुनभुना मत. लक्ष्मी बुरा मान जाती है.’

‘काकी घूरे के पास पीढ़ा रख गई. कक्का जब लौटे, घूरा पूरा सुलग चुका था. इससे पहले उससे कुछ-कुछ धुआं निकल रहा था. जिस गोबर से धुआं निकल रहा था, अब वह सूख गया था और लुहार की भट्ठी की तरह अंगार की शक्ल में आ गया था.’

‘ठीक हो?’

‘हाँ कक्का.’

‘और बाल-बच्चा?’

‘सब ठीक है.’

‘सर्दी बढ़ गई है. सबको ध्यान से रहना पड़ेगा. नहीं तो यह दबोच लेती है.’

‘जैसे आप रहते हैं कक्का!’ मुझे हँसी आ गई.

‘अरे, यह जो देह है न, इसका सब पचाया हुआ है. अब के लोगों की बात दूसरी है. फिर हमारा क्या है. हम तो पके आम ठहरे. जब टपक जाएं. जिस विधि से टपक जाएं.’

काकी दो गिलास में चाय लेती आई. काकी के हाथ का चाय पीकर मजा आ जाता है. पता नहीं किस मात्रा में क्या मिलाती है कि स्वाद इतना दिव्य हो जाता है. फिर आज कल तो अदरक भी मिलाती है. आह! अदरक सर्दी के मौसम को कितना स्वादिष्ट बना देता है.

‘तू भी अपनी चाय यहीं ले आ.’

‘और चूल्हा-चौका कौन करेगा?’

‘अरे, सब हो जाएगा. हड़बड़-हड़बड़ में चूल्हा पर कुछ पकाएगी तो स्वाद बिगड़ जाएगा. ले आ. अपनी चाय यहीं ले आ. देख तो, घूरे की आग कितना सुख दे रही है. आह!’

‘काकी अपना गिलास ले आई.’

‘कहो तो, सर्दी के मौसम में हाथ में चाय का गिलास हो और आदमी घूरे के पास बैठा हो तो उसे कितना सुख मिलता है!’

‘हाँ कक्का, आप सच कहते हैं. कितना अच्छा लग रहा है.’

‘हाँ. घूरे की आँच जब देह में सर्दी के स्थान पर गर्मी रोपने लगती है न, मन आनंद से भर उठता है. इस पर तुम क्या कहती हो लक्ष्मी?’

‘जेठ की गर्मी में कभी चूल्हे के पास घंटा-दो घंटा बैठो तो सही बात पता चले.’

‘यह भी तुमने खूब कही.’

‘अच्छा बता. खाने में क्या बनाओगी?’

‘तुम कहो, क्या बना दूँ?’

‘ज्यादा ताम-झाम मत करना. रोटी बना लो और लहसून की चटनी. दूध तो है ही.’

‘ठीक है.’ काकी जूठे गिलास समेट कर निकल गईं.

‘लहसून की चटनी का स्वाद भी बड़ा दिव्य होता है कक्का.’

‘हाँ नहीं तो क्या. जाड़े का यह मौसम और लहसून की चटनी. आह! हमारे पूर्वजों ने कितने दिव्य स्वाद का उपहार दिए हैं हमें!’

‘काकी तो और जबरदस्त बनाती होंगी?’

‘हां। यह तो है. तेरी काकी के हाथों में कोई जादू है जैसे. बड़ी तन्मय हो कर खाना बनाती हैं. फिर लहसून की चटनी बनाना भी कोई बच्चों का खेल नहीं है.’

‘हाँ कक्का.’

‘लहसून और हरी मिर्च को आग में ठीक से भूनो. गर लहसून थोड़ा सा भी कच्चा रह गया तो वो स्वाद नहीं आ पाएगा. फिर उसमें सरसों का कच्चा तेल डालो. नमक और आम का अचार सही मात्रा में मिलाओ. फिर देखो स्वाद.’

‘बंद करो कक्का.’

‘काहे, मुँह में पानी आ गया!’

गाय चुप लेटी पगुरा रही थीं. कक्का के ठहाके से वह चौंक उठीं. मेरी भी खिलखिलाहट निकल गई. हम देर तक हँसते रहे.


सुशील कुमार भारद्वाज की कहानी ‘मंझधार’

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सुशील कुमार भारद्वाज युवा लेखक हैं, हाल में उन्होंने कुछ अच्छी कहानियां लिखी हैं. उनकी कहानियों का एक संकलन किन्डल पर ईबुक में उपलब्ध है. यह उनकी एक नई कहानी है- मॉडरेटर

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चाहकर भी मैं खुश नहीं रह पाता हूँ. हंसता हूँ पर आत्मा से एक ही आवाज आती- “क्या मैं सच में खुश हूँ? मैं क्यों जानबूझकर दूसरों की खुशी के लिए खुद को उलझा के रखना चाहता हूँ? क्यों किसी के हाथों का खिलौना बना रहना चाहता हूँ? आखिर इससे किसका भला होने वाला है?” जब वो मेरे मनोभावों को समझती है तो वह सामने आकर साफ़ साफ़ कुछ कहती क्यों नहीं? मेरे लिए वो परेशान रहती है या उसे मेरी भावनाओं से खेलने में मजा आ रहा है? अगर ऐसा है भी तो मैं स्वयं क्या कर रहा हूँ? यदि मैं उसे नहीं चाहता तो क्या मैं उससे मिलना चाहता? मेरे पास किसका नम्बर नहीं है? लेकिन कहाँ मैं कभी किसी से बात करता हूँ, उसी के नंबर पर क्यों अटका हूँ?

मैं सच्चाई को क्यों नहीं स्वीकार करता कि ये सारी समस्याएं मेरी खुद की खड़ी की हुई है? साफ़ साफ़ शब्दों में उससे सुनना चाहता हूँ लेकिन यह भी तय है कि अगर वह ‘नहीं’ बोल दी तो, उससे जितना नजदीक रहना मुश्किल होगा उतना ही दूर रहना भी. तो क्या करूँ इस उलझन में पिसते हुए खुद को बर्बाद कर लूँ? क्या मेरे माता–पिता की मुझसे यही उम्मीदें होगीं कि अपना जीवन बनाने, आगे बढ़ने, समाज और देश के किसी काम आ सकने की बजाय एक लड़की के लिए खुद को बर्बाद कर लूँ? क्या वो प्रगतिशील सोच की नहीं हैं? क्या वो खुद नौकरी करके अपने घर परिवार को आगे नहीं बढ़ाना चाह रही है? नहीं…नहीं अब मुझसे नहीं होगा? मैं अब राफ-साफ़ करके ही रहूँगा. निश्चय तो अब हो ही चुका है बस सही समय के तलाश में दिन गुजर रहे हैं.

 और उस दिन जब मैं उसके दफ्तर पहुंचा तो उस समय वह बाहर में चहलकदमी कर रही थी. मेरे पहुंचने पर, अपनी कुर्सी में तो वह बैठ गई लेकिन मुझे इग्नोर करने का नाटक करते हुए संजय से बोली –“पूछे नहीं? किससे मिलना है?”

उसके इस सवाल से मैं थोड़ा चौंक गया. लगा इतना बड़ा अपमान? क्या उसे नहीं मालूम कि मैं यहां किससे मिलने आता हूँ? क्या मैं यहां किसी दफ्तरी काम से आता हूँ? तुरत उल्टे पांव लौटने की इच्छा हुई लेकिन कुछ सोचकर रूक गया. सोचा शायद कल वाली बात से बहुत आहत हो गई हो, उसी की प्रतिक्रिया हो! वैसे भी प्यार में गुस्सा और नफ़रत ठहरता ही कितनी देर है? यदि जो कहीं बात बढ़ भी गई तो कोई बुरा नहीं है. मैं भी तो मौके की ही ताक में हूँ. इसलिए चुपचाप सोफा पर जाकर धम्म से बैठ गया. चुप्पी लंबी खींचती जा रही थी. शायद  उसके अंदर गुस्सा पूरा उबाल खा रहा था. वास्तव में कहीं कुछ जबरस्त अटका हुआ है उसके अंदर. मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूँ? बगैर पूरी बात समझे उसके गुस्से को आग देना भी तो सही बात नहीं है. कहीं मेरे शब्द उसके जख्मों पर लग गए तो पता नहीं क्या नज़ारा प्रस्तुत होगा? लेकिन चुप्पी तो तोडनी ही होगी. उसका गुस्सा जायज है तो मैं कहां नाजायज हूँ? सारा खेल तो भावना का ही है. फिर मैंने हिम्मत बटोर कर कहा –‘प्यास लगी है.’

मेरे बोलते ही वह उठी और एक गिलास पानी लाकर सामने खड़ी हों गई. मैं उसके चेहरे की ओर देखने लगा. दोनों की नज़रें तो मिली लेकिन वे नज़रें कुछ बात कर पातीं उससे पहले ही वो दरवाजे की ओर देखने लगी. मुझे गुदगुदी होने लगी. आखिर, नखरा दिखाने का हक उसे भी तो है. अगर जो सच में गुस्से में होती तो सामने में पानी लेकर क्यों आती? वो दफ्तर की चपरासी थोड़े ही न है जो सबको पानी पिलाती? ये तो हमलोगों का रिश्ता है जिसकी वजह से वो मेरी सारी बात सुनती है. मुझे छोड़कर किसी की मजाल भी है जो उससे कोई पानी माँग ले? लेकिन इस गंभीर परिस्थिति में भी यदि वो अपनत्व दिखा रही है तो यक़ीनन अभी भी बहुत कुछ शेष है. मैं चुपचाप गिलास लिया और सारा पानी गटक गया. लेकिन समझ में ही नहीं आ रहा था कि बोलूं तो क्या? कहीं ऐसा न हो कि ये नखरा कहीं नासूर बन जाए. रिश्तों में तकरार यदि कभी कभी सहजता लाती है. भावनाओं को प्रगाढ़ बनाती हैं. तो थोड़ी-सी असावधानी, भाषाई लापरवाही और अहम का प्रदर्शन रिश्तों के बीच खाई को चौड़ा भी करती है.   

लेकिन आज उसकी लम्बी चुप्पी डरावनी तस्वीर भी प्रस्तुत कर रही है. संवादों का होना निहायत ही जरूरी होता है वर्ना भ्रम भी रिश्तों के बीच अपना जगह बनाने लगती है. कई बार चीजों को शांति से झेल जाना भी कारगर होता है. कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूँ? इस चुप्पी और व्यवहार से तो बस इतना ही लग रहा है कि आईना दो हिस्से में बंट चुका है. एक कोने में उसकी तस्वीर झलक रही है तो दूजे में धुंधली होती मेरी तस्वीर. और बींच में खींची है एक लंबी रेखा. अब पता नहीं यही हाल दिल का भी है या कुछ और? लेकिन इतना तो तय है कि ये दरार बन चुका है. भले ही दरार की गहराई का एहसास किसी को ना हो.

अचानक होठों पर अजीब-सी मुस्कुराहट फ़ैल गई. आखिरकार ये दिन भी आ ही गया. अच्छा ही हुआ. सच भी है कि जिस प्यार का कोई उद्देश्य नहीं – वह कितने दिन चलेगा? भावनाएं जब टूटने लगती हैं, तो शब्दों के अर्थ भी बदलने लगते हैं. चुभन का एहसास भी अलग हो जाता है. शांति चारों ओर पसरी थी. और वह चुपचाप कुर्सी पर बैठी लाफिंग बुद्धा की मूर्ति को अपनी मुट्ठी में कभी दबाती तो कभी टेबल पर नचाती रही. संजय भी लगभग सभी फाइलों को अलग कर अखबार के पन्नों में उलझने का नाटक करता रहा. बॉस की कुर्सी अब भी यूँ ही खाली पड़ी थी. बगल की खुली खिडकी से आसमान में चमकते सूरज की रौशनी आग बरसाने में लगी थी.

“सोफिया सच कहती थी – आप जाति–धर्म में विश्वास करते हैं.”- संजय की आवाज पहली बार कान से टकरायी तो सुनते ही मैं चौंक गया. लेकिन संभलते हुए पूछा- “आपको ऐसा क्यों लगा?”

– “तो कल आप सोफिया के साथ क्यों नही खाएं?” सवाल सुनते ही दरार की गहराई का कुछ भान हो गया तो बीज का भी. सुनते ही आश्वस्त हो लिया कि मतलब किसी के साथ नहीं खाने से भी लोग जाति- धर्म और भेदभाव की बात सोचने लगते हैं. ये तो असहिष्णुता का जबर्दस्त उदाहरण बन गया न? कितने अजीब इंसान होते हैं? बाज़ारों में ऐसे लोग क्या सोचते होंगें?

 

कुछ सोचकर मैंने संजय को कहा -“संजय जी, आपको इन फालतू कचड़ों को अपने दिमाग से निकाल देना चाहिए. यदि ऐसा होता तो मैं पहले भी कभी नहीं खाता. और ये तो मुझे आज से नही, वर्षों से जानती है.” ज्योंहि मैं सोफिया की ओर मुखातिब हुआ, लगा जैसे कि वह मौके की ही ताक में थी और छूटते ही टूट पड़ी– “कब खाएं हैं? आज खाए हैं? कल खाए थे?”

उसकी इन बातों को सुनकर अंदर –ही-अंदर गुदगुदी होने लगी लेकिन अपने शब्दों पर टिकते हुए सख्ती से कहा– “कह तो दिया. ऐसा होता तो पहले भी नही खाता.”

“क्या सबूत है कि आपने खाया है?”- लगा जैसे आज वो अलग ही मुड बनाकर बैठी है और मैं भी उसी के लय में बोल दिया -“और क्या सबूत है कि मैंने नहीं खाया है?”

“आपका सूखा हुआ मुँह”- अपनी हाजिरजवाब प्रतिभा का सबूत वो दे दी. लेकिन अच्छा लगा कि आज पहली बार उसके चेहरे पर रौनक वापस आई वर्ना सुबह से तो कुछ कहना ही नहीं था. उसकी ऐसी बातों का क्या जबाब दिया जा सकता था लेकिन कुछ देर पहले तक बरकरार वहां का तनावपूर्ण माहौल छूमंतर हो चुका था.

और मन में मैं कहने लगा- ‘आपसे तो हार कर भी खुशी ही मिलती है लेकिन क्या बताऊँ कि कल मैंने आपके साथ क्यों नही खाया? क्या आप वाकई में कुछ नहीं समझ रही हैं? क्या आप नहीं समझ रहीं हैं कि मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दीं, इसलिए मैं नाराज़ हो गया था? क्या आप नहीं समझ रहीं हैं कि मैं भावनात्मक स्तर पर बिखर रहा हूँ? मैं खिलौना बनकर रह गया हूँ. वाह! आपने भी क्या सन्देश दे दिया संजय जी को? ये भी अच्छा ही है. लोग भी सोचेंगें कि जाति-धर्म के चक्कर में इनका प्रेम परवान ही नहीं चढ़ सका. क्योंकि हमलोग एक नहीं हो सकते थे!

वैसे भी अपनी छोटी-सी खुशी की खातिर न तो मैं अपने परिवार को परेशान करना चाहता हूँ ना आप. ना मैं जाति–धर्म बनाने वाले से पूछ सकता हूँ कि प्यार को किस धर्म में रखना चाहिए न ही जिहाद और लव-जिहाद का राजनीति करने वाले नौटंकीबाजों से. समय इतना बदल गया है कि अपनी दाल-रोटी जुटाने के लिए सुबह से शाम तक हड्डी रगड़नी पड़ती है, उसमें भी कम्पनी का टार्गेट पूरा नहीं हुआ तो खुद कब टारगेट बन फिर से बेरोजगारों की लिस्ट में शामिल हों जाऊंगा पता ही नहीं चलता और कहां से फालतू के इन झंझटों में पड़ते रहूँगा. मैं तो शांति से जीवन जीना चाहता हूँ. इन दंगा –फसादों से दूर कहीं कुछ मानवता के काम आ सका तो वही बहुत होगा. और जब अलग ही होना हमारी नियति में है तो वैसे पलों को क्यों यादगार बनाऊं जो आपके बगैर, कल को काटने दौड़े? आखिर क्या है इस रिश्ते का भविष्य? कब तक इस तरह हमलोग मिलते रहेंगें? क्यों नही अब धीरे-धीरे हमलोगों को अलग हो ही जाना चाहिए?

 

“आप अपना धर्म बदल लीजिए.” सोफिया की इस आवाज से मेरी तन्द्रा टूटी तो मैं बुरी तरह से चौंक कर उसे देखने लगा. मैं सोचने लगा कि सोफिया के इन शब्दों का मतलब क्या है? इतने दिनों की चुप्पी का यही राज था? लगा जैसे कि मैं जीत गया. मेरे प्रश्नों का जबाब मिल गया. हमारा प्रेम जीत गया. हम एक हो सकते हैं. अब गेंद बस मेरे पाले में है. मेरे सिर्फ एक हां से सारा नज़ारा ही बदल जाएगा. वैसे भी प्यार किसी को यूँ ही तो नहीं मिल जाता? आखिर वो भी एक सामाजिक और समझदार लड़की है जो अपने पैरों पर खड़ी है. दुनियादारी की उसे भी समझ है क्योंकर वह सिर्फ अपना ही त्याग करें? खुशी से मन में गुदगुदी हो रही थी लेकिन अगले ही पल दिमाग दिल पर भारी पड़ने लगा. आखिर मैं धर्म क्यों बदलूं? क्या अपने-अपने धर्म के दायरे में रहकर हम एक बंधन में नहीं बंध सकते? धर्म का प्रेम से क्या है वास्ता? और क्या जरुरी है कि धर्म बदलने के बाद हमारी शादी हो ही जाएगी? घरवाले मान ही जाएंगें? कहीं धर्म बदलने के बाद यही मुकर गई तो? नहीं.नहीं. क्या एक लड़का को इतना स्वार्थी हो जाना चाहिए कि महज अपने प्यार को पाने के लिए अपने घर–परिवार और समाज के साथ-साथ धर्म को भी छोड़ दे? आज जो लड़की धर्म बदलने की बात कह सकती है, वो कल माता–पिता को भी छोड़ने की बात कह सकती है? आखिर उसके लिए क्या-क्या बदलूँगा? भाई-बहन? रिश्ते-नाते सबकुछ?  क्या कोई किसी दिन अपनी आत्मा को भी बदल लेगा?”

संजय कुछ बोलता उससे पहले ही मैं बोला – “मैं सभी धर्मों को मानता हूँ और उसकी इज्जत करता हूँ.”

सोफिया तपाक से बोली –“मानने और होने में फर्क है.”

–“मैं जो हूँ, उससे मैं खुश हूँ. मुझे किसी चीज को बदलने की कोई जरुरत नहीं है.”- बेबाक मैं बोल पड़ा.

फिर चुप्पी लंबी खींच गई. लगा जैसे कि उम्मीद की दिखने वाली किरण फिर से कहीं अंधेरे में खो गई है. अचानक घड़ी पर नज़र पड़ते ही मैं लंबी साँस छोड़ते हुए चलने की गरज से बोला –“काफी समय हो गया है. मैं जा रहा हूँ.”

-“कल आएंगें ना?” सोफिया की आवाज आई.

-“कल दफ्तर में कुछ काम अधिक है. कह नहीं सकता, वैसे कोशिश करूँगा.”

“आइएगा जरूर, किसी बात को दिल पर लेकर सोचने मत लगिएगा.” सोफिया कुछ सोचकर बोली.

मैंने कहा- “आज तक क्या सोचा हूँ जो अब सोचूंगा? जो जिंदगी में होना होगा वही होगा.”

-“अपना फिलोसोफी बंद कीजिए. कल बस आपको आना है तो आना है.”

-“मैं श्योर नहीं कर सकता.”

-“प्लीज़! मैं आपका इंतज़ार करूंगी.” जब  भावनात्मक अपील की तो उसकी आँखों में देखे बगैर रह ना सका. खोजता रहा उसकी आँखों में भावों को. कोशिश करता रहा उसकी आँखों से आत्मा में उतरने का. और जब लगा कि उसकी अथाह आँखों में डूबता जा रहा हूँ तो सिर को झटक दिया.

और वहां से चुपचाप मैं चला आया. उस दिन के बाद उससे फिर मिल न सका. मोबाइल पर भी औपचारिक बातचीत ही हो पाती थी. न मैं उसकी भावना को छेड़ना चाहता था न ही वो मेरी भावना को. बस दोनों अपने-अपने दायरे में सिमटने की कोशिश करते रहे. धीरे-धीरे मोबाइल पर भी दूरी बनती चली गई. और एक दिन अचानक खबर मिली कि तनाव में आकर, वह काम छोड़ घर में बैठ गई है. उसे बहुत कन्विंस करने की कोशिश की कि अपनी पेशेवर जिंदगी को यूं बर्बाद मत करो. लेकिन वह अवसाद में घिरती जा रही थी.

जब एक परिचित के कंपनी में वैकेंसी की खबर मिली तो दिमाग में आया कि शायद उसे यह नौकरी पसंद आए, और तुरंत मोबाइल घुमा दिया. बात हुई तो सीधे मिलने की बात करने लगी. 

अच्छी तरह से याद है लगभग छः महीने के बाद हमलोग मिलने जा रहे थे. उस दिन दिमाग में था कि पता नहीं अब कैसी दिखती होगी? इन महीनों में कितनी बदल गयी होगी? मैं उससे क्या बात करूँगा? – सिर्फ काम की बातें या दिल की भी? नहीं, दिल की बात पूछनी अच्छी बात नहीं? हम लोग प्रोफेशनल हैं. प्योर प्रोफेशनल. आज के लोग दिल और दिमाग को अलग रखकर काम करते हैं. एक लक्ष्मण रेखा है- जिसे कभी नहीं पार करनी चाहिए. मनुष्य बने रहने की एक कोशिश होनी चाहिए. स्वार्थी बनकर तो सब जीते हैं निःस्वार्थ भाव से भी कार्य करना चाहिए. कुछ भी ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक रिश्ते की वजह से किसी की जिंदगी परवान ही नहीं चढ़े. प्रेम किसी के मार्ग की बाधा नहीं, उन्नति की सीढ़ी होनी चाहिए. प्रेम का मतलब सिर्फ किसी को अपने अधीन करना नहीं होना चाहिए.

फिर मन सशंकित हुआ. कहीं जो भावना में कुछ बह गया तो वह क्या सोचेगी? वो उन हसीन पलों को शायद भूल भी गई हो. नहीं…नहीं भावना में बिल्कुल नहीं बहना. मदद करने का ये मतलब थोड़े ही न है कि पुरानी बात छेड़ दो? खुद को फिर से समझाने लगा. कहीं उसे ये न लग जाए कि मैं उसे झुकाने के लिए या अपने स्वार्थ में उसकी मदद कर रहा हूँ? वैसे भी मैं मिलना ही कहां चाह रहा था? वो तो स्वयं मिलने की बात कही. मैंने तो मोबाइल पर ही कह दिया था –“मिलने की क्या जरुरत है .. आप ऑफिस में जाइए, आपका काम हो जाएगा” तो अपने पुराने ही अंदाज में बोली “क्यों? आप मुझसे मिल लीजिएगा तो, छोटे हो जाएंगें?”

उसके सवालों का तो मेरे पास कोई जबाब ही नहीं था. शायद देना भी नहीं चाहता था. लेकिन इतना जरूर दिमाग में अटक गया कि एक छोटे से काम के लिए मिलना क्या जरूरी है? कहीं एक अरसे बाद मिलने की चाहत तो नहीं है? जो इस काम के बहाने मिलना चाहती है? यह भी संभव है कि अपने स्वार्थपूर्ति के लिए मुझे चाहने का दिखावा करना चाहती हो? सच तो उसके सिवा कोई नहीं जानता.

कहे के अनुसार, ग्यारह बजे ही गंगा किनारे काली घाट पहुंच गया. लेकिन उसे न देख मंदिर में सिर टेकने चला गया. काली घाट आज से नहीं ज़माने से प्रेमी युगल के लिए मनोरम जगह रहा है. जब कभी किसी युगल को पत्थर पर बैठ गंगा के जलधारा में अठखेली करते देखता था तो जी मचल उठता था, लेकिन फिर यह सोचकर शांत हो जाता था कि ये सब चीजें सबके नसीब में नहीं होती. नहीं तो क्या वजहें हो सकती थीं कि दरभंगा हाउस के राजा ब्लाक से मैं जलधाराओं को देखता था और रानी ब्लाक में वो. फिर भी कभी पता भी नहीं चल सका कि ये जलधाराएं कभी मेरे एहसासों और दिल के अरमानों को भी कभी उस तक पहुंचा पाई कि नहीं? और जब डिग्री लेकर अरसे पहले कॉलेज छोड़ चुका तब आज वो मुझे यहाँ मिलने को बुलाई है.

“मैं तुमसे मिलने आई मंदिर जाने के बहाने..” की आवाज से मेरी तन्द्रा टूटी. आज मेरे मोबाइल के इस रिंगटोन ने मेरे दिल के धड़कन को बढ़ा दिया. स्क्रीन पर उसी का नाम था और मुस्कुराते हुए –“हल्लो, कहां हैं? …. अरे मैं तो मंदिर में ही बैठ गया था.. अच्छा आप रानी ब्लाक में ही रुकिए, मैं वहीं पहुंचता हूँ.”

वो गेट पर ही खड़ी थी लाल सलवार समीज में, पीछे गुंथी हुई लंबीचोटी. उसके गोरे रंग के चेहरे में सबकुछ नज़र आ रहा था सिवाय उसके स्वाभाविक खिलखिलाहट के. शायद परेशानी ने अपना असर दिखाया हों. खैर, मुस्कुराहट के अभिवादन के साथ हमलोग बरामदे की ओर बढे. होली की छुट्टी की वजह से वीरानी यहाँ नाच रही है वर्ना यहाँ तो आदमी और बाइक के बीच से निकलने में ही पसीना छूट जाता है. कहां विश्विद्यालय के इस भवन को हेरिटेज में शामिल कराने की बात होती है और कहां विद्यार्थियों को इसमें मूलभूत सुविधाओं के लिए भी नारेबाजी करनी पड़ती है. अजीब तमाशा है.

बरामदें में पहुंचते के साथ ही उपर की ओर जाने वाली लकड़ी के बने पायदान पर की गंदगी साफ़ करके वह बैठ गयी और मुझे भी बगल में बैठने का इशारा करने लगी. मैं बोला –‘ऐसे ही ठीक हूँ’. बार-बार कहती रही –‘आइए ना…. हम जानते हैं आप बदलने वाले नहीं हैं. लेकिन अभी तो कम से कम बैठने में परेशानी नहीं होनी चाहिए… अच्छा… और सब बताएं कैसा चल रहा है?’

-‘कुछ खास नहीं, बस खाना, सोना और थोड़ा बहुत पढ़-लिख लेता हूँ?’

-‘और पढाना?’-मुस्कुराते हुए पूछी.

बात घुमाते हुए मैं पूछ बैठा –‘आप क्या कर रहीं हैं?

-‘मैं क्या करुँगी? खाती हूँ और सोती हूँ. आपका ही ठीक है पढ़ा लेते हैं…. कुछ पैसे भी आ जाते हैं, और पढाई –लिखाई से जुड़े भी रहते हैं. दो पैसे के लिए किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाना पड़ता है कि मोबाइल रिचार्ज कराना है या स्टेशनरी का सामान लेना है. मैं तो सिर्फ खा खा कर मोटी हो रहीं हूँ.’

बोला तो कुछ नहीं लेकिन बात चुभ जरूर गई. अपना दर्द बयां कर रही है या मुझ पर तंज कस रही है. मैं सीधे मुद्दे पर आते हुए बोला –‘आप एक बायोडाटा, आवेदन पत्र और सर्टिफिकेट का ओरिजनल और जेरोक्स लेकर ऑफिस में मिल लीजिएगा. जैसा होगा वे लोग आपको बता ही देंगें.’

-‘आप ही आवेदन लिख दीजिए ना, आपका लिखा रहेगा तो वे लोग भी आसानी से पहचान लेंगें और मुझे विशेष कुछ कहना भी नहीं पड़ेगा.” – बोलते हुए वह फाइल से कागज निकालने लगी. और मैं चोरी–छिपे उसके चेहरे को देखने की कोशिश करता और नज़र मिलते ही झुका लेता था. कैसी दुबली हो गई है? लग रहा है जैसे दो–तीन दिन से सोई नहीं है या खूब रोई है. लेकिन मुझमें कहां हिम्मत थी जो कुछ पूछ पाता? कागज बढ़ाते हुए खड़ी हो गई. मुझे लिखने के लिए इधर- उधर जगह तलाशते देखी, तो बोली- ‘आप यहीं बैठ जाएं’ और अपने दुपप्टे से ज्योंहि जगह साफ़ करने लगी कि मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और किताब वाले पोलिथिन को ही वहां रख दिया. थोड़ी देर तक यूँ ही उसकी आंखों में देखता रह गया. फिर धीरे से उसका हाथ छोड़ लिखने के लिए बैठ गया. मैंने महसूस किया कि लिखने के क्रम में वो मुझे देखती रहती थी और मेरे नज़र मिलते ही इधर –उधर देखने लगती थी. काम हो जाने के बाद हमलोग वहां से घर की ओर चल दिए. बातचीत में खुद ही बताते चली गई कि अभी तक दोनों भाई बेरोजगार ही हैं और अब अब्बू भी रिटायर कर गए हैं. उसकी शादी को लेकर घर में पहले से ही सब परेशान थे और अब घर की माली हालत भी बिगड़ने लगी है. आगे सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा नज़र आता है. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था. सिर्फ सुनता रहा और सामान्य बने रहने की कोशिश करता रहा. हां रास्ते में जिस फासले से चल रहें थे वो फासले कई बार मिटते जा रहे थे. दोनों बातचीत के क्रम में बार- बार एक दूसरे के काफी करीब होते जा रहे  थे. मन में एक ही बात आती थी कि यहीं इसे सीने से लगा लूँ. और कहूँ -बस अब बहुत हो गया नाटक. चलो थामता हूँ तुम्हारा हाथ और टकरा जाता हूँ सारी दुनियां से. यूं टुकड़ा-टुकड़ा जिंदगी जीने से तो बेहतर है एक हो जाना. और मेरा हाथ उसके हाथ के करीब चला गया. अचानक हुए स्पर्श से वो मेरी ओर देखने लगी और अपने दोनों हाथों से मेरी हथेली को कसकर पकड़ ली. न मेरे मुंह से कोई शब्द निकल रहे थे न उसके मुंह से. लेकिन हमारी आँखें बात कर रही थी. जिसमें एक अजीब-सी खुशी थी.

सम्पर्क :- sushilkumarbhardwaj8@gmail.com

‘बहत्तर धडकनें तिहत्तर अरमान’ और एक समीक्षा

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समकालीन पीढ़ी की सिद्धहस्त लेखिका आकांक्षा पारे काशिव का कहानी संग्रह आया है ‘बहत्तर धडकनें तिहत्तर अरमान’. आकांक्षा चुपचाप अपना काम करती हैं, बिना किसी शोर शराबे के. उनकी कहानियों में जो ‘विट’ होता है वह किसी समकालीन लेखक की रचनाओं में नहीं है. आज उनके इस संग्रह की समीक्षा सुरेश कुमार की लिखी हुई- मॉडरेटर

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युवा लेखिकाओं ने हिन्दी कहानी को बड़े करीने से संवारा हैं। एक लंबी यात्रा के बाद हिन्दी कहानी का स्वरुप और  कथ्य बदला है। अभी हाल में ही प्रकाशित युवा लेखिका आकांक्षा पारे काशिव का कहानी संग्रह ‘बहत्तर धड़कनें तिहत्तर अरमान’ साधारण जीवन के असाधारण अनुभव और रोजमर्रा के यथार्थ का आख्यान कहा जा सकता है। इस कहानी संकलन को पढ़ते समय आंकाक्षाओं, महात्वकांक्षाओं, नागरिक जीवन के बनते बिगड़ते सम्बन्ध, व्यवाहारिक जीवन की दुविधाओं और संवेदनाओं की छटपटाहट का स्वर स्पष्ट तौर पर सुनाई देता है। अधिकांश कहानियों के मूल में ‘प्रेम’ है और उससे उपजा प्रतिरोध भी शामिल है। ‘बहत्तर धड़कनें तिहत्तर अरमान’ कहानी के पात्र अभय शुक्ला और नौरीन दोनों मार्डन फैमली से हैं। दोनों के धर्म अलग है। इसके बावजूद दोनों विवाह करने का फैसला करते हैं। परिवार की थोड़ी अहसमति के बाद शादी कर भी लेते हैं। इसके बाद उनके जीवन में चढ़ाव -उतार आता हैं जिसके चलते उनके प्रेम की परिणति तलाक में होती है। दरअसल, बात यह है कि जिसे हम आधुनिक समाज कहते हैं वह तमाम तरह की पुरातनपंथी ग्रन्थियों की जकड़बन्दी में धंसा हुआ है। कथनी, करनी में अंतर आधुनिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरने देता हैं। इधर, अभय शुक्ला का परिवार चहता है कि नौरीन उन रीति रिवात और परम्पराओं का पालन करें जिन्हे स्त्री गुलामी का प्रतीक माना जाता हैं। विडबंना देखिए नौरीन स्त्री विरोधी परम्पराओं को तो नकार देती हैं लेकिन वह धर्म की जकड़न से मुक्त नहीं हो पाती है। मशीनरी यन्त्रों ने हमारी संवेदनाओं को कुंद किया है। इनकी गिरफ्त में इस कदर है कि हम रिश्तों को भी कम तरजीह देने लगे है। कंट्रोल ए  डिलीट कहानी यंत्रिक उपकरण से  हमारे मानस पर पड़ दुष्प्रभाव को उजागर करती है। इस कहानी का पात्र सुदीप मलिक जो कमप्यूटर का अच्छा जानकार है। एक तरह से वह गेम का मास्टर है। उससे कोई भी गेम नहीं जीत पता है। वह कमप्यूटर में इस कदर खो गया है कि उसे किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं है। खेल के चलते वह अपनी पत्नी अनुरीता को मौत के घाट उतार देता है। इस बात का उसे दुख तक नही है कि उसने अपनी पत्नी को मारा है। वह मशीन की तरह असंवेदनशील हो गया हैं। दिल की रानी, सपनों का शहजादा दो प्रेम करने वाले जज्बात और संवेदना से मुकर जाने वाले प्रेमियों की कहानी हैं। कहानी के दोनों पात्र विशाल और मंजु अपने प्रेम का इजहार पत्रों के द्वारा करते हैं। एक दुसरे को प्रेम पत्र लिखकर अपनी भावनाओं और भविष्य में  एक दुसरे के साथ जीने मरने की कसमें खाते है। इस कहानी में गजब का मोड़ तब आता है, जब मंजू की शादी किसी और लड़के के साथ तय हो जाती है। जिसके चलते प्रेमी अपने आप का छला से महसूस करता है। प्यार की परिणति इस में तब्दील हो जा कि  एक दूसरे  को ब्लैकमेल भी करते है। मंजू अपने अखिरी पत्र में लिखती हैं, ‘तुम तो बड़े खराब निकले। तुमने संजू को ये सब बता दिया और मेरे को चिट्ठी में भी लिखकर धमका रहे हो। संजू सबको बताता फिर रहा है कि में  तुम्हारे संग  कां-कां गयी थी। में तो परिवार के दबाव में शादी कर रही हूं, पर तुम तो अपने प्यार को ऐसे रुसवा कर रहे हो। अगर मेरी बदनामी हो गयी तो मे कहीं की नी  रहूंगी’। यह समाज का कैसा चलन है कि  हर तरह सके स्त्री को ही गलत ठहरता हैं। हिन्दी साहित्य में प्रेम को लेकर काफी लिखा गया। लेखकों नें अपने अपने तरीके से प्रेम को अभिव्यक्त किया हैं। कठिन इश्क की आसान दास्तान कहानी का ताना -बाना लेखिका ने  प्रेम संबन्धों इर्दगिर्द बुना है। इस कहानी के पात्र अरुणाभ चौहान सु़श्री पालीवाल दोनों एक सरकारी स्कूल में अध्यापक है। सुश्री पालीवाल की उम्र चालीस साल है लेकिन उन्होंने अब तक शादी नहीं की है। इधर, अरुणाभ चौहान उनसे  उम्र में काफी छोटा है। एक दिन दोनों शादी कर लेते है। यह देखकर स्कूल के और अध्यापक बड़े अचंभित रह जाते हैं / इस कहानी का सार यही है कि प्रेम में उम्र माइने नहीं रखती हैं। कहानी का कथ्य और शिल्प गजब का है।

 आकांक्षा पारे काशिव सिद्धहस्त कथाकार हैं. मौन को मुखर करना जानती हैं। पाठक को यह पता ही नहीं चलता है कि कब वह प्रेम की अनकही दास्तान में खो गया है। फूलों वाली खिड़की एक मर्मिक प्रेम को व्यक्त करने वाली कहानी है। इस कहानी की शुरुआती पंक्तियां दिमाग में एक तरह की झनझनाहट पैदा करती है। कुछ इस तरह हैं,‘ वे दिन औंधे लेटकर  प्रेम कहानियां पढ़ने और सीधे बैठकर प्रेम कविताएं लिखने के थे। वे दिन उतने ही सच्चे थे ,जितने प्रेम के रतजगे और उतने ही झूठे जितने प्रेम के वादे।’ रिश्ता वही,सोच नयी कहानी स्त्री मन के परतों को खोलने वाली कहानी है। दरअसल, पुरुषवादी मानसिकता से लैस पुरुष स्त्री को अपने सांचे में ढालकर उसका उपयोग करना चाहते है। प्रभजोत जैसी स्त्रिया अब पुरुषों की मानसिकता को बड़ी गहराई से समझने लगी है। वे नहीं चाहती है की प्रेम के नाम पर बार- बार छली और ठगा महसूस करें। कैम्पस लव, मध्यांतर, प्यार-व्यार,निगहबानी आदि कहानियों में समाज में हो रहे छल और प्रपंच को उजागर किया गया हैं। आकांक्षा पारे काशिव की कहानियां में व्यक्ति के समाजिक और भौतिक जीवन में चल रही बेचैनी और उथल पुथल की आहट को महसूस किया जा सकता है। इतना ही नहीं आकांक्षा पारे कहानियों में स्त्री मन के स्वप्न, प्रेम, यथार्थ और उसकी अकुलाहट को  समझने  में हमारी मदद करती है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से कहानियां बेजोड़ हैं।

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कहानी संग्रह -बहत्तर धड़कनें  तिहत्तर अरमान

लेखिका- आकांक्षा पारे काशिव

प्रकाशक-सामयिक प्रकाशन

मूल्य- 125

संस्करण -2018

mob 8009824098

‘ब्रह्मभोज’पर उपासना झा की टिप्पणी

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सच्चिदानंद सिन्हा के कहानी संग्रह ‘ब्रह्मभोज’ पर युवा लेखिका उपासना झा की टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर

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हिंदी-साहित्य में लगातार बिना शोर-शराबे और सनसनी के भी लेखन होता रहा है। सच्चिदानद सिंह का पहला कहानी संग्रह ‘ब्रह्मभोज’ इसी कड़ी में रखा जा सकता है। जीवन के अनुभवों और लेखकीय निरपेक्षता को समेटे यह संग्रह लेखक की जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में गहरे लगाव और गहन अध्ययन का द्योतक है।

संग्रह में कुल सत्रह कहानियाँ हैं, जिनके पात्र काल्पनिक नहीं लगते। बिहारी आँचलिकता इन कहानियों के कथ्य और भाषा में गुंथी हुई है लेकिन ये कहानियाँ सर्वकालिक, सारभौमिक हैं। भाषा परिष्कृत है लेकिन साधारण बोलचाल के अनेक शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। ये कहानियाँ जीवन के समृद्ध अनुभवों से उपजी हैं, लेखक को जीवन के सभी पक्षों की गहरी समझ है। संग्रह की पहली कहानी ‘पकड़वा’ बिहार में अब भी प्रचलित पकडुवा ब्याह का मार्मिक चित्र खींचता है, वहीं ‘जलेबी’ कहानी में गरीबी का त्रास है। ‘ब्रह्मभोज’ कहानी जिसपर संग्रह का नामकरण हुआ है और ख्यात पेंटर देबाशीष मुखर्जी ने कवर बनाया है, एक विशिष्ट कहानी है। ब्राह्मणों की जातिगत अहमन्यता और परंपराओं में जकड़े होने की विवशता और उसके दोष जानते हुए भी उसे अपनाए रखना बहुत बारीकी से परिलक्षित होता है। ‘रीमा’ बचपन के बिछड़े प्रेम की कहानी है जो देह पर आकर खत्म हो जाती है। ‘सुलछनि’ और ‘पुरुष’ में स्त्री-पुरुष मनोविज्ञान है वहीं ‘दंगा’ और ‘रामनौमी’ में धर्म की विकृतियाँ।

इन कहानियों में भय है, भूख है, गरीबी है, जातिगत अहम् है, कुरीतियाँ हैं, पाखण्ड है, पारिवारिक नोक-झोंक है, बिछड़े प्रेम की टीस है और सबसे बढ़कर है सहज, सरल मानवीयता। कहानियों में जीवन के गम्भीर प्रश्नों का समाधान नहीं है लेकिन लेखक बहुत कौशल के साथ पाठक पर एक ऐसा प्रभाव छोड़ता है कि कुछ देर तक पाठक समाधानों की संभावना पर सोचता रहता है। हर कहानी के केंद्र में कोई  सम्वेदनशील भावना है  लेकिन लेखक किसी निष्कर्ष को पाठक पर थोपना नहीं चाहता।

ये कहानियाँ अलग-अलग कालखंड में लिखी गयी हैं, जिनपर परिवेश का भी प्रभाव दिखता है। आधुनिक भावबोध की ये कहानियाँ शिल्प में परंपरागत हैं।

यह संग्रह पठनीय है और संग्रहनीय भी। साथ ही लेखक से भविष्य में और अच्छे काम की उम्मीद जगाता है।

उपासना झा की कहानी ‘सारा आकाश’

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इधर युवा लेखिका उपासना झा की रचनाओं ने सबका ध्यान आकर्षित किया है. विषय, भाषा, संतुलन, भाषा का संयम. उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए यह लगता ही नहीं है कि किसी युवा लेखक को पढ़ रहे हों. जैसे यह कहानी- मॉडरेटर

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रात भर तेज़ बारिश हुई थी। आँगन में, लान में, छत पर हर जगह पानी ही दिख रहा था। उसे हैरानी हो रही थी कि उसकी नींद कैसे नहीं टूटी आवाज़ से, उसकी नींद तो बड़ी हल्की है, ज़रा से खटपट से टूट जाती है। फ्रीज़ खुलने की आवाज़ से, लाइट ऑन-ऑफ होने से, यहाँ तक कि कभी कभी अदिति के करवट लेने भर से ही। फिर कल रात इतनी गहरी, गाढ़ी नींद कैसे आयी। नींद की गोली से, नहीं वो तो हर रोज़ ही लेता रहा है पिछले कुछ सालों से। याद करने की कोशिश करता रहा कि कल उसने डिनर में क्या खाया था। बस खीर ध्यान में आयी, अच्छा तो ये इतनी गहरी नींद खीर खाने की वजह से आयी। उसे हँसी आ गयी खुद पर, क्या बच्चों सी बातें सोच रहा है। ब्रश करते हुए पूरे घर में घूम रहा था और सोच रहा था कि अदिति क्यों नहीं जगी अबतक। रोज़ उसके जगने से पहले अदिति जाग चुकी होती थी और कभी किचन में नाश्ता बनाती, कभी बच्चों को तैयार करती दिख जाती थी। लिविंग रूम की दीवाल घड़ी पर नज़र गयी तो पता चला 5:30 ही बजे हैं। उसे हैरानी हो आयी। रोज़ अदिति उसे कितनी आवाज़ देकर जगाती थी  फिर भी उठते-उठते 7 बज ही जाते थे। उसने बच्चों के कमरे में झांक कर देखा, दोनों बहनें आराम से सो रही थीं। थोड़ी देर वही खड़े-खड़े  उनको देखता रहा, कितना समय बीत गया कितनी जल्दी। बच्चे कब इतने बड़े हो गए। बिना आवाज़ किये बाहर चला आया वो। किचन में पहुँचकर चाय बनाने लगा तो याद आया की जाने कितने बरस बीत गए, उसने कभी कुछ बनाया ही नहीं। आज आखिर हुआ क्या है, रोज़ की तरह सर भी भारी नहीं लग रहा और नींद भी अच्छी आयी। अदिति क लिएे चाय लेकर कमरे में आया तो वह कुनमुना रही थी। नींद से उठते हुए उसको देखता रहा वो। अदिति की उसपर नज़र पड़ी तो चौंक उठी।

-तुम! आज इतनी जल्दी? ठीक तो हो ना? ब्लड प्रेशर तो नहीं बढ़ गया ना?

-अरे, मैं बिलकुल ठीक हूँ। बस नींद जल्दी खुल गयी। तबियत भी ठीक। रोज़ की तरह सरदर्द भी नहीं हो रहा।

-चाय! तुमने चाय भी बनाई! क्या बात है आकाश, जाने कितने समय बाद तुम्हारे हाथ की चाय नसीब हुई। अदिति की आवाज़ में ख़ुशी और हैरानी के साथ बरसों की शिकायत की झलक भी थी।

तभी बेल की आवाज़ हुई और अदिति उठती हुई बोली लगता है बाई आ गयी। तुम चाय पियो मैं दरवाज़ा खोलता हूँ, कहता हुआ आकाश दरवाज़े की तरफ बढ़ा। बाई के चेहरे पर भी उसे देखकर हैरानी आ गयी।

अदिति उठकर रोज़ के तरह किचन और बच्चों को स्कूल भेजने की तैयारी में लग गयी और वह बच्चों को उठाने उनके कमरे में आ गया।

-सोने दो ना मम्मी, बस पाँच मिनट और

बड़ी बेटी बोलती हुई मुँह तकिये में छिपाने लगी।

-मम्मी, मुझे आज स्कूल नहीं जाना

छोटी बेटी नींद में ही बिसूरते हुए बोली। आकाश दोनों बच्चियों को देखकर मुस्कुराया। ये कब इतनी बड़ी हो गईं। बड़ी आठ साल की और छोटी पाँच साल की। उसने दोनों का माथा प्यार से सहलाया और चूम लिया।

-अब उठ जाओ, देर होगी तो मम्मी डाँटेगी।

उसकी आवाज़ सुन दोनों की नींद खुल गयी। दोनों बेटियों की आँखों में उसे देखके ख़ुशी भी थी और हैरानी भी।

-पापा! आप हमसे पहले उठ गए।

-पापा, आप हमारे हमारे में आये

छोटी बेटी चहकती हुई बोली

आकाश को जवाब न सूझा तो बोल उठा

-आज जल्दी उठ गया तो गुड मॉर्निंग कहने आ गया।

– गुड मॉर्निंग पापा, दोनों बच्चियाँ चहकती हुई बोलीं। तभी अदिति आ गयी और दोनों को बाहर ले गयी।

आकाश अपनी स्टडी में न्यूज़पेपर पढ़ने लगा और अपने ईमेल्स भी चेक करने लगा। हॉल से बच्चों और अदिति की बातचीत की आवाज़ आ रही थी।

-मम्मी, आज पेरेंट्स मीटिंग है आपको याद है न!

-हाँ मौली! याद है। तुम्हारा साइंस प्रोजेक्ट कब तक सबमिट करना है?

-मम्मी, 3 दिन के अंदर।

-ठीक है, आज स्कूल से आकर बना लेना, मैं सामान लेती आउंगी।

-मम्मी, पापा भी आएंगे क्या पेरेंट्स मीटिंग में?

छोटी बेटी ध्वनि ने हिचकते हुए पूछा

-नहीं बेटा, पापा को काम होगा।

अख़बार के पन्ने  पलटते हुए आकाश के हाथ रुक गए। उसे याद आया कि वो आजतक किसी पेरेंट्स मीटिंग में नहीं गया। न बच्चों के होमवर्क, न प्रोजेक्ट्स किसी काम में कोई मदद नहीं की कभी। न उनकी बीमारी में कभी बैठा उनके पास। सबकुछ अकेली अदिति करती आ रही है। बिना किसी शिकायत के, चुपचाप। और बच्चे भी उसकी उपेक्षा और काम में डूबे रहने को उसकी व्यस्तता समझते रहे। उसकी आँखों के आगे सब घूम गया। आकाश सोचने लगा कि आखिर उसके ये बरस कहाँ चले गये। जवाब भी अंदर से ही आ गयी कि उसने खुद खोये हैं ये साल। अपना गुस्सा, अपनी कुंठा उसने उपेक्षा बनाकर अदिति और बच्चों पर निकाली है। उसे अपनेआप पर गुस्सा, ग्लानि और दया तीनों आ रही थी। सालोंसाल उसने चुप्पी ओढ़े हुए और खुद को काम में डुबाकर निकाल दिए हैं। बच्चे तैयार हुए, उनकी स्कूल बस आयी और वे चले गए। आकाश वहीँ बैठकर जीवन की बीती घटनाओं का लेखा-जोखा निकालता रहा। अदिति ने आकर पर्दे खींचे और लाइट बन्द की और पूछा

-यहाँ क्यों बैठे हो? ऑफिस नहीं जाना क्या?

-सोच रहा हूं कि आज न जाऊं।

-अरे, ऐसे नहीं जाओगे तो दिक्कत नहीं होगी क्या

बुखार में भी ऑफिस जानेवाला आकाश आज यूँ ही बिना बात छुट्टी कर रहा है, अदिति को अजीब लग रहा था। डरते-डरते कुछ सोचकर उसने पूछ ही लिया।

-बात क्या है आकाश? कल तुम ऑफिस से बहुत देर से आये थे और बहुत पीकर आये थे। तुम्हारे साथ तरुण भैया भी थे। सब ठीक तो है न?

हमेशा की तरह जवाब में चुप्पी या झिड़की की जगह आकाश ने आश्चर्य से उल्टा पूछा

-तरुण! तरुण मेरे साथ आया था, लेकिन वो तो मुझे ऑफिस के बाद मिला था और फिर वापिस होटल चला गया था।

अब उसे सबकुछ ध्यान आया। कल ऑफिस में ही था, जब तरुण का मैसेज आया था कि उसने घर से उसका नंबर लिया है और बात करना चाहता है। कुछ काम से उसके शहर आया हुआ था। तरुण, उसके बचपन का साथी और जवानी के दिनों का जिगरी। वही तरुण जिससे उसने बारह साल बात नहीं की। उसकी शादी से कुछ पहले ही तरुण अमेरिका चला गया था। तो ये अब अचानक। उसने मैसेज का रिप्लाई कर दिया की उसे फ़ुरसत नहीं है। ऑफिस से निकलते समय तरुण की आवाज़ ने उसे चौंका दिया।

-कैसा है यार!

अपनी आँखों के सामने उसे देखकर आकाश खुद पर काबू नहीं कर सका और उसके गले लग गया। बारह सालों का गुस्सा, अबोला सब उस एक पल में बह गया।

-तू बिलकुल नहीं बदला तरुण! जैसा गया था अब भी वैसा ही हैं।

-तू बहुत बदल गया आकाश! उसे गौर से देखते हुए तरुण बोला। आँखों पर चढ़ा नम्बर वाला चश्मा, ग्रे सूट और खिचड़ी बालों में आकाश उम्र से भी बड़ा लग रहा था।

-कैसा है सब! बाबूजी बताते रहते थे तेरे बारे में।

तरुण उसके माँ-बाबूजी से भी बेहद अपनत्व रखता था और वे भी उसे अपना बच्चा ही समझते थे।

-अच्छा हूँ मैं! अमेरिका से इसी महीने वापिस आया हूँ। अब नहीं जाऊंगा। माँ-पापा की उम्र हो गयी है अब उनसे दूर नहीं रहा जाता। और निशा भी अपने देश को बहुत मिस करती है।

-जया से बात होती है?

तरुण के इस सवाल ने आकाश को बारह साल पहले के भोपाल में जा पटका। जया चौधुरी और आकाश तिवारी। पढ़ाकू बंगाली जया और मस्तमौला मलंग आकाश। मुँहफट और बेबाक आकाश और शर्मीली सौम्य जया। शिउली फूल जैसी सुंदर जया। दोनों की जोड़ी कॉलेज की हर एक्टिविटी में पार्टिसिपेट करती और बहुत पॉपुलर भी थी। हर कोई उन्हें रश्क़ से देखता था। दोनों ही अच्छे परिवार से आते थे और उन्हें उम्मीद भी थी कि शादी के लिए भी पेरेंट्स मान जायेंगे। थोड़ा-बहुत दोनों ने बता भी रखा था। वैसे भी आखिरी सेमेस्टर था और प्लेसमेंट के शोर-शराबे में ये बातें दब गयीं थी। आख़िरकार आकाश की अच्छी कम्पनी में प्लेसमेंट हो गयी और जया रिसर्च के लिए अच्छी यूनिवर्सिटी का पता करने में लग गयी। उसके पिता डॉक्टर शिरीष चौधुरी चाहते थे जया पहले पीएचडी कर ले उसके बाद नौकरी करे। आकाश के माँ-बाबूजी उसके और तरुण के बहुत समझाने से मान से गये थे लेकिन मन ही मन उन्हें लग रहा था कि जया उनके परिवार और रिश्ते-नातों में रच-बस पायेगी क्या। आकाश की माँ अक्सर उसके बाबूजी को कहती और सब तो मैं सह लूंगी लेकिन मांस-मच्छी खाना तो इस घर में नहीं चलेगा। आकाश के बाबूजी हँसकर कहते    -कोई बात नहीं, उनका किचन अलग कर देना।

-अरे, लोग क्या कहेंगे कि नई बहू के आते ही चूल्हा अलग कर दिया।

-लोगों को इतनी फ़ुरसत है क्या कि दूसरों के घरों में झाँकते रहें!

-लोगों को तो मौका चाहिए बस.. मुझे तो घबराहट हो रही है कि शादी में नाते-रिश्तेदार कोई झँझट न खड़ी कर दें।

-आकाश की ख़ुशी से बढ़कर ये सब नहीं है। और थोड़ा-बहुत तो हर शादी में होता रहता है।

आकाश में माँ-बाबूजी तो मान गए थे लेकिन जया के माँ-बाबा मान ही नहीं रहे थे। जया के भाई ने भी अपनी पसंद से शादी की थी लेकिन वो लड़की उनके परिवार में एडजस्ट नहीं हो सकी थी और कम ही आती जाती थी। ईधर उनदोनों की आपस में भी नहीं बन रही थी और बात शादी टूटने तक पहुँच गयी थी।डॉक्टर चौधुरी को आधुनिक होने के बावजूद लगने लगा था कि अगर उनके लड़के ने अपनी जाति में शादी की होती तो सुखी रहता। जया बहुत टेंशन में रहती, उसकी इस मुद्दे पर अपने बाबा से एकाध बार बहस भी हो गयी, जो वो खुद नहीं चाहती थी। उसके बाबा की भी तबियत कुछ ठीक नहीं चल रही थी। एक दिन उनका हाल-चाल पूछने और उनको इसी बहाने समझाने भी बाबूजी और तरुण जया के घर गए। उनलोगों ने अपने भर उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन बात कुछ बनती नहीं दिखी। उसी रात जया का फोन आया कि उनकी तबियत अचानक बिगड़ गयी है और उनको हॉस्पिटल में एडमिट करवाया जा रहा है। सबलोग वहाँ पहुँच गये, ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ जाने के कारण उनको ब्रेन-हेमरेज हो गया था और बहुत कोशिश के बाद भी उनको बचाया नहीं जा सका। जया की माँ तो रोते-रोते बेसुध हो गयी थी। जया का भी हाल बहुत बुरा था। उसका भाई और बाकी रिश्तेदार भी सुबह होते-होते पहुँचने लगे थे। संस्कार के बाद सबलोग कलकत्ता चले गए। इस बीच जया से आकाश की बात ही नहीं हो पाई। करीब महीने भर बाद आई जया यहाँ का घर खाली करने और अपने बाबा के कॉलेज में कागज-पत्तर जमा करने। आकाश को जैसे ही पता चला वो मिलने पहुंचा लेकिन जया ने ठीक से बात नहीं की। जाने से पहले उसने तरुण के हाथ चिट्ठी भिजवा दी।

आकाश,

मुझे स्कालरशिप मिल गयी है। मैं कुछ दिनों में पीएचडी के लिए बाहर चली जाऊंगी। मेरी माँ को लगता है कि तरुण और तुम्हारे पापा उसदिन घर नहीं आये होते और पापा को टेंशन न हुआ होता तो वे इस तरह अचानक जाते नहीं। मैं अपनी माँ को दुःखी करके तुमसे शादी नहीं कर सकती। तुम अपना ध्यान रखना।

और मुझे कॉन्टैक्ट करने की कोशिश मत करना, कोई फ़ायदा नहीं होगा।

बाय

जया।

आकाश की तो दुनिया ही बदल गयी। हँसमुख और मस्तमौला आकाश चुप रहने लगा। मन ही मन वो अपने बाबूजी और तरुण को इन सबके लिए दोषी समझता था। तरुण ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन आकाश समझता ही नहीं था। तरुण जया से मिलने कलकत्ता भी गया लेकिन उसके भाई ने मना कर दिया। 5 साल के प्यार का ऐसा अंत होगा आकाश बरदाश्त नहीं कर पा रहा था। बहुत कोशिश की लेकिन जया से कोई सम्पर्क नहीं हो पाया।

आकाश ने दूसरे शहर में ट्रांसफर करवा लिया। ऑफिस से आता और चुपचाप घर में पड़ा रहता। न किसी से बातचीत न कहीं आना-जाना। माँ से कभी-कभी बात कर लेता। तरुण ने बहुत कोशिश की उससे बात करने की लेकिन उसने उसे साफ़ मना कर दिया। 2 साल ऐसे ही बीत गए। माँ उसे हर रोज़ उसे शादी के लिए कहती एकदिन उसने बेमन से हाँ कर दी। बेमन से शादी हुई, अदिति उसकी जिंदगी में आ गयी। आकाश ने उसे कभी स्वीकार ही नहीं किया पूरे मन से। शुरू में अदिति को बहुत चुभता था उसका व्यवहार लेकिन धीरे-धीरे आदत पर गयी। समय बीता, मौली का जन्म हुआ तो अदिति की लगा कि शायद आकाश में कोई परिवर्तन आये लेकिन आकाश वैसा ही रहा। काम में डूबा रहता, बस जितनी जरूरत हो उतना ही बोलता। बाबूजी से अब भी बहुत काम बात करता था। अदिति ने सबकुछ संभाल लिया था, बच्चों की जिम्मेदारी, घर और सब रिश्ते-नाते भी। तीज-त्यौहार में बच्चों के साथ माँ-बाबूजी से मिल आती। उसका बहुत मन होता था  कि वे लोग भी यहाँ आयें और साथ रहें। एक दो बार आकाश से पूछा भी उसकी झिड़की सुनकर फिर हिम्मत नहीं की।

तरुण की आवाज़ उसे लौटा लायी वर्तमान में। तेरी बेटियाँ बहुत प्यारी हैं, मैंने उनकी फोटो देखी भोपाल गया था तब। बोल ना, जया से बात होती है?

-नहीं तरुण, कोशिश की थी लेकिन वो नहीं चाहती थी तो..

-मेरी बात होती है कभी-कभी। खुश है वो पीएचडी पूरी करके जॉब कर रही है। वहीँ शादी भी कर ली उसने। उसकी माँ भी साथ ही रहती है।

-अच्छा…

-तू बात करेगा? बोल, बात करेगा तो अभी करवाऊं?

-नहीं तरुण.. बात नहीं कर पाऊंगा अभी.. नंबर देदे कभी कर लूँगा।

-ठीक है। ये मैंने तुझे भेज दिया उसका कॉन्टैक्ट। बात कर लेना जब मन हो।

-तू घर आ ना तरुण कभी। कितना समय बीत गया।

-आऊंगा, इस बार नहीं अगली बार, निशा और बेटे के साथ आऊँगा।

-चल तुझे छोड़ दूँ होटल तक, कहाँ रुका हुआ है तू?

-यहीं, रीजेंट में।

दोनों रास्ते भर बात करते रहे। सालों की इकट्ठा बातें। जाने कितनी और क्या-क्या। होटल पहुँचकर तरुण में कहा।

-आजा यार! सालों बाद मिले हैं। एक-एक ड्रिंक तो हो जाये।

दोनों बार में जा बैठे। दो पैग पीकर तरुण को कोई जरूरी फोन आ गया तो वो अपने कमरे में चला गया। आकाश ने जाने क्या सोचकर तरुण का दिया हुआ नंबर मिला दिया। कुछ रिंग्स के बाद किसी ने फोन उठा लिया।

-हेलो! कौन?

फोन पर जया ही थी। आवाज़ थोड़ी भारी सी लग रही थी लेकिन जया ही थी। उसकी आवाज़ तो वो शोर में भी पहचान सकता था।

-हेलो, कौन है? बोलो भी

-जया, मैं आकाश। आकाश तिवारी। तरुण ने नम्बर दिया तुम्हारा।

कुछ सेकण्ड्स की चुप्पी के बाद उसकी आवाज़ में ख़ुशी कौंधी।

-आकाश, कैसे हो तुम? तरुण से मिली थी, उसने बताया था तुम्हारे बारे में। अच्छे हो न.. बच्चे कैसे हैं और माँ-बाबूजी।

-सब ठीक है, तुम कैसी हो?

अपनी आवाज़ की बेचैनी छिपाता हुआ आकाश बोला।

-मैं खुश हूँ, पीएचडी पूरी की फिर यही जॉब मिल गयी।माँ भी यहीं मेरे पास हैं।

-शादी?

-हाँ, शादी भी हो गयी। चार साल हुए, मेरे साथ रिसर्च कर रहा था। अमेरिकन है। अच्छा, अभी रखती हूं, मुझे काम है कुछ। यूनिवर्सिटी भी जाना है।

-ओह हाँ। ठीक है। टाइम-जोन का अंतर ध्यान आया उसे।

-और हाँ आकाश, सॉरी। पापा की डेथ के बाद घर का माहौल अजीब हो गया था। उनकी डेथ की वजह माँ ने तरुण और बाबूजी को समझ लिया था और उस समय दुःख में मैंने भी गलत व्यवहार किया। उन्हें सालों से ब्लडप्रेशर और हाइपरटेंशन था। उनकी डेथ कोई हादसा नहीं थी। उन्हें ऐसे ही जाना था शायद।

उसने फोन रखते हुए बोला था। और आकाश के माथे पर रखा हुआ बोझ जैसे उतर गया था। सालों से मन में दबी गाँठ जैसे पिघल गयी थी। जया कितने सहज भाव से कह गयी और उसने क्या किया था? बाबूजी का चेहरा उसके सामने घूम गया। अदिति और बच्चों के साथ उसने क्या किया। गुस्सा, ग्लानि, अपराधबोध उसकी आँखों से बहता रहा। तरुण अपने फोन कॉल्स निपटाकर जब आया तो आकाश काफी पी चुका था। उसके फोन से नंबर लेकर उसने अदिति को फोन किया और रास्ता पूछा। उसे घर छोड़कर फिर आने का कहकर चला गया।

आकाश को अब समझ में आ रहा था उसका मन हल्का क्यों था, सालों बाद उसे अच्छी नींद कैसे आ गयी थी। गुजरे हुए साल उसकी आँखों के आगे घूम रहे थे। अपने बच्चों और अदिति को उसने कभी वह प्यार नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। उसने मन ही मन प्रण किया कि जितना हो सकेगा वो उससे ज्यादा करेगा उनके लिए। और बाबूजी, उन्हें भी तो इतने बरस उसने खुद से दूर रखा, उपेक्षित रखा। अदिति की आवाज़ से उसका सोचना रुका

-आकाश, ऑफिस नहीं जाना? तुम अबतक यहीं बैठे हो?

बुखार में भी ऑफिस जाने वाला आकाश आज घर में क्यों है, अदिति को समझ में नहीं आ रहा था।

-मैंने एक हफ्ते की छुट्टी लेली है अदिति। चलो कल माँ-बाबूजी से मिल आयें और उनको साथ ही लेते आएं उधर से। और तुम भी तैयार हो जाओ, बच्चों के स्कूल भी चलना है पेरेंट्स मीटिंग के लिए।

अदिति को समझ नहीं आ रहा था कि वो जोर से हँसे, कुछ पूछे या फूट-फूट के रोये। खुद को संयत कर बाथरूम की तरफ आयी तो उसके चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान थी। उसके हिस्से का आकाश आज सारा आकाश बन गया था।

ललित लवंगलतापरिशीलन कोमल मलय शरीरे!

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आज वसंतपंचमी है. इस मौके पर युवा लेखक विमलेन्दु का यह लेख- मॉडरेटर

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गीता के सातवे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में श्रीकृष्ण उद्घोषणा कर रहे हैं कि मैं धर्म के अविरुद्ध काम हूँ. मेरे भीतर कृष्ण का यह उद्घोष उसी दिन से धीरे-धीरे बजने लगा है, जिस दिन से फगुनहटी हवा चलने लगी. यह वसन्त के आने की मुनादी थी जो हवाओं में बज रही थी. यह मदनोत्सव की ऋतु है, जो सरसो के खेतों में उतर आयी है. यह सृजन का अनुनाद था जो आम और अशोक के पेड़ों में गूँज रहा है. जैसे-जैसे होली नजदीक आने लगी , मन कुछ और का और होने लगा. सिर्फ मेरा ही नहीं, प्रकृति के सभी चर-अचर कुछ और ही रंग में दिखने लगते हैं—

                                       औरैं भाँति कोकिल, चकोर ठौर-ठौर बोले,

                                       औरैं भाँति सबद पपीहन के  बै गए ।

                                       औरैं रति, औरैं रंग, औरैं साज, औरैं संग,

                                       औरैं बन, औरैं छन, औरैं मन ह्वै गए  ।।

वसन्त की यही असली पहचान है कि हम कुछ और का और हो जाते हैं. यह और हो जाना, जितना बाहर दिखता है, उससे भी ज़्यादा भीतर होता है. इस बदलाव की ठीक-ठीक पहचान भी कहां हो पाती है. बस अभिलाषाओं, आकांक्षाओं का एक ज्वार उमड़ता रहता है गहरे कहीं. कालिदास कहते हैं कि वसन्त आता है तो सुखित जन्तु (चैन से रहने वाला आदमी) भी न जाने किसके लिए पर्युत्सुक (बेचैन ) हो उठता है. जहां भी कुछ सुन्दर दिखा, मन बहक जाता है.

                   वसन्त ‘काम’ की ऋतु है और होली उद्दाम काम का उत्सव.  प्राचीन भारत में वसन्त उत्सव काम-पूजा का उत्सव था. भारतीय सन्दर्भ में ‘काम ‘,  फ्रायड-युंग आदि के ‘ लिबिडो ‘ से अलग है. हमारे यहां काम सिर्फ ऐंद्रिक संवेदन नहीं है. हमारा काम दमित वासना की तुष्टि से आगे एक सर्जनात्मक आवेग है. यह हमारे जीवन का केन्द्रीय तत्व है. हमारे काम में थोड़ा मान, थोड़ा अभिमान, थोड़ा समर्पण, विपुल आकर्षण और सर्वस्व दान का भाव है. हमारी समस्त कलाएँ, राग-विराग, ग्रहण-दान, हमारे ‘काम’ से ही संचालित होते हैं.

                   हमारे धार्मिक ग्रन्थों में काम को परब्रह्म की एक विधायी शक्ति के रूप में माना गया है. यह परब्रह्म की उस मानसिक इच्छा का मूर्त रूप है, जो संसार की सृष्टि में प्रवृत्त होती है. इसीलिए कृष्ण कहते हैं—” धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । “—मैं जीवमात्र में धर्म के अविरुद्ध रहने वाला ‘काम’ हूँ. साफ है कि जो इच्छा धर्म के विरुद्ध जाए वह काम का विकृत रूप है. शास्त्र इसे अपदेवता कहते हैं. ब्रह्मसंहिता कहती है कि धर्म के अविरुद्ध रहने वाला काम साक्षात् विष्णुस्वरूप है. यह प्राणिमात्र के मन में  ‘स्मर ‘ या काम के रूप में रहता है. काम का यह रूप हमारे भीतर सत्-चित्-आनन्द पैदा करता है.

                    काम का दूसरा रूप है जो धर्म के विरुद्ध जाता है. यह रूप व्यक्ति के विवेक को हर लेता है और उसे उद्दण्ड बना देता है. पश्चिम में काम के देवता ‘ किउपिद्’  माने जाते हैं, जो अन्धे हैं. यह प्रतीक है पश्चिम के उस विचार का जिसमें माना जाता है कि काम मनुष्य को अन्धा बना देता है. हमारे यहाँ इसी कोटि के मदन देवता हैं जो व्यक्ति को इतना कामातुर कर देते हैं कि अन्धा हो जाता है. शिव ने इसी मादक मदन देवता को भस्म कर दिया था. काम को  ‘मनसिज’  भी कहा जाता है. यह काम का भावात्मक रूप है. इसे पार्वती ने बचा लिया था. मनसिज,  उद्दण्ड नहीं है. इसका स्वरूप सृजनात्मक है. यह सृष्टि का कारक है. यह हमारी शक्ति का स्रोत है. हमारे आनन्द की गंगोत्री है. हमारा काम देह की सीमाओं  का अतिक्रमण कर जाता है. हमारा काम प्रीति का, आह्लाद का, पारस्परिकता का, रसिकता का शिखर है.

                    वसन्त को कामदेव का सखा माना जाता है. हिन्दुस्तान में वसन्त की कोई निश्चित तारीख नही  होती. कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं–” झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की…”  नीम के पत्ते जब झड़ने लगें, आम बौरा जाएँ, पलाश पर जब अंगारे दहकने लगें और अशोक के कंधे से जब फूल फूट उठें तो समझिए वसन्त आ गया. प्राचीन ग्रंथों में अशोक में फूल खिला देने के बहुत रोचक अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है. अशोक के फूलों का खिलना मतलब वसन्त का आना होता था. कालिदास के ‘ मालविकाग्नि मित्र’  और हर्ष की ‘ रत्नावली-नाटिका’  से पता चलता है कि मदन देवता की पूजा के बाद अशोक में फूल खिला देने का अनुष्ठान होता था. कोई सुन्दरी शरीर में गहने धारण करके,  पैरों में महावर लगाकर नूपुर सहित अपने बांयें पैर से अशोक वृक्ष पर मृदु आघात करती थी.  इधर नूपुरों की हल्की झनझनाहट होती और उधर अशोक उल्लास में कंधे पर से फूट उठता. आमतौर पर यह अनुष्ठान रानी करती थी.

                    हमारा कोई प्राचीन काव्य बिना वसन्त के वर्णन पूरा ही नहीं होता. दरअसल हमारा जीवन ही वसन्त के बिना निरर्थक है. विशेष रूप से संस्कृत का कोई काव्य या नाटक उठाइए,

किसी न किसी बहाने उसमें वसन्त आ ही जाएगा. ग़ज़ब तो तब हो गया जब कालिदास ने वर्षा ऋतु के काव्य ‘ मेघदूत ‘ में भी वसन्त को नहीं छोड़ा. उसमें भी यक्षप्रिया के उद्यान का वर्णन करते हुए, प्रिया के नूपुरयुक्त वामचरणों के मृदुल आघात से कंधे पर से फूट उठनेवाले अशोक और मुख मदिरा से सिंच कर उठने को लालायित वकुल की चर्चा कर ही दी. कालिदास सौन्दर्य और प्रेम के विलक्षण चितेरे हैं.

                    प्राचीन काव्य ग्रन्थों में वसन्त की महिमा का अक्सर अतिरंजन हो जाता है. वसन्त के प्रति कवियों का मोह इस कदर है कि जयदेव के ‘ गीत गोविन्दम् ‘ की पहली ही अष्टपदी वसन्त को समर्पित है—-

                                                           ललित लवंगलतापरिशीलन, कोमल मलय शरीरे ।

                                                            मधुकरनिकरकरंबि कोकिल कूजित कुंज  कुटीरे ।।

                                                            विहरति हरिरिह  सरस  वसन्ते  ।

                                                            नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहिजनस्य दुरंते ।।

( सखी राधा से कहती है—राधे ! सुन्दर दिखने वाले पुष्पों से लदी बेलों के स्पर्श से मादक बनी, मंद प्रवाहित होते मलय समीर के साथ, भौंरों की पंक्तियों से गुंजित तथा कोयलों के संगीत से कूजित कुंजों वाले तथा वियोगियों को संतप्त करनेवाली इस वसन्त ऋतु में प्रियतम श्रीकृष्ण, तरुणी गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं. )

                    यह नृत्य वसन्त का रास है. इसमें समर्पण और यौवन के आत्मदान का भाव है. इसीलिए सखी ऱाधा को समझाती है कि मान छोड़कर, सब कुछ कृष्ण को अर्पण कर दो…..श्रीकृष्ण रसराज भी हैं. उनकी लय,ताल,यति-गति और मति से एकात्म हो जाओ….यह समय फूलने-फलने का है. यह समय भीतर-बाहर कुछ नया रचने का है. यह नृत्य आत्मोत्सर्ग का नृत्य है. यह समय हवा का हो जाने का है, फूलों का हो जाने का है….यह समय निसर्ग में खो जाने का है.

                    इसीलिए वसन्त ऋतु प्राचीन भारत में उत्सवों का समय होती थी. वात्स्यायन के कामसूत्र में इस समय कई उत्सवों का उल्लेख है. उनमें दो उत्सव सर्वाधिक प्रसिद्ध थे—सुवसन्तक और मदनोत्सव . सुवसन्तक आज का वसन्तपंचमी है, और मदनोत्सव आज की होली. होली का त्यौहार विशुद्ध रूप से उद्दाम काम का त्यौहार है. यह उस मायनों में भारत का त्यौहार है. भारत की संस्कृति से मेल खाता हुआ. यह हर भारतवासी का त्यौहार है. होली की इस व्यापक स्वीकृति का एक कारण यह है कि इसके साथ कोई धार्मिक परंपरा उस तरह से नहीं जु़ड़ी है,  जैसी दूसरे भारतीय त्यौहारों के साथ. होलिका दहन की धार्मिक परंपरा अगर है भी तो वह रंग वाली होली के एक दिन पहले हो जाती है, और उसका कोई प्रभाव रंगों पर नहीं पड़ता.

                    प्राचीन भारत में फागुन से लेकर चैत के महीने तक वसन्त के उत्सव कई तरह से मनाये जाते रहे हैं. एक उत्सव सार्वजनिक तौर पर मनाया जाता था तो एक दूसरा रूप कामदेव के पूजन का था. सम्राट हर्ष की ‘ रत्नावली-नाटिका ‘  में इस सार्वजनिक उत्सव का बड़ा मोहक चित्र है. मदनोत्सव वाले दिन पूरे नगर को सजाया जाता. नगर की गलियां, चौराहे और राजभवन का प्रांगण नगरवासियों की करतल ध्वनि, संगीत और मृदंग की थापों से गूँज उठते. नगर वासी वसन्त के नशे में मस्त हो जाते. राजा अपने महल की सबसे ऊँची चन्द्रशाला में बैठकर , नागरिकों के आमोद-प्रमोद का रस लेते. यौवन से भरपूर युवतियां,  जो भी पुरुष सामने पड़ जाता उसे श्रृंगक (पिचकारी ) के रंगीन जल से सराबोर कर देतीं. राजमार्गों के चौराहों पर चर्चरी गीत और मर्दल नाम के ढोल गूँज उठते. दिशाएँ सुगंधित पिष्टातक (अबीर) से रंगीन हो जातीं. अबीर के उड़ने से राजमार्ग और महल के आसपास ऐसी धुंध छा जाती कि प्रातःकाल का भ्रम हो जाता है. ऐसा लगता  मानो अपने वैभव से कुबेर को भी पराजित करने वाली कौशाम्बी नगरी सुनहरे रंग में डुबा दी गई हो.

                     दूसरा विधान था कामदेव के पूजन का. इसका एक चित्र भवभूति के मालती-माधव प्रकरण में मिलता है. इसका केन्द्र होता था –मदनोद्यान, जो मुख्यरूप से इसी उत्सव के लिए तैयार किया जाता था. यहां कामदेव का मंदिर होता था. नगर के स्त्री-पुरुष इकट्ठे होकर यहां कन्दर्प (कामदेव ) की पूजा और आपस में मनोविनोद करते थे. शिल्परत्न और विष्णुधर्मोत्तर पुराण आदि ग्रंथों में कामदेव की प्रतिमा बनाने की विधियां भी बतायी गयी हैं. कामदेव के बायीं ओर पत्नी रति, और दाहिनी ओर दूसरी पत्नी प्रीति की प्रतिमा बनायी जाती थी. शास्त्रों में काम के बाण और धनुष फूलों के बताए गये हैं. अरविन्द, अशोक, आम, नवमल्लिका और नीलोत्पल–ये उसके पांच बाण हैं. इन्हें क्रमशः  उन्मादन, तापन, शोषण, स्तंभन और सम्मोहन भी कहा गया है.

                     हम भारतवासियों के लिए, कृष्ण को याद किए बिना, न तो वसन्त का कोई अर्थ है और न ही होली का. होली का सर्वाधिक मनभावन चित्र , कृष्ण-कथा में ही मिलता है. कृष्ण के प्रेम में आसक्त गोपियां हर क्षण कृष्ण को अपने पास लाने की जुगत में रहतीं . होली का उत्सव उन्हें यह अवसर देता है. गोपियां कृष्ण का प्रेम चाहती हैं. राधा जलती-भुनती रहती हैं……” भरि देहु गगरिया हमारी, कहे ब्रजनारी ….”—कृष्ण कहते हैं कि पहले पूरा खाली करो ! प्रेम की ऐसी ही गति-मति है…..प्रेम पाना है तो गगरिया पूरी खाली करके जाना पड़ेगा……..प्रेम मनसिज है..प्रेम सृजन है..प्रेम उद्दाम है..प्रेम काम है, और काम धर्म के अविरुद्ध है !!

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रहस्य-अपराध की दुनिया और हिन्दी जगत का औपनिवेशिक दौर

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इतिहासकर अविनाश कुमार का यह लेख हिंदी के लोकप्रिय परिदृश्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का बहुत बढ़िया आकलन है. अविनाश जी ने बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दो दशकों के हिंदी साहित्य के सार्वजनिक परिदृश्य विषय पर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से पीएचडी की थी. डेवलपमेंट के क्षेत्र में बरसों से काम कर रहे हैं और देश विदेश के प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में अंग्रेजी में लिखते रहते हैं. यह लेख उन्होंने मूलतः हिंदी में ही लिखा है- मॉडरेटर

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श्रीलाल शुक्ल की क्लासिक कृति ‘राग दरबारी’ में शिवपालगंज गांव के थाने का जिक्र कुछ यूँ है:

 ‘यहां बैठकर अगर कोई चारों और निगाह दौड़ाता तो उसे मालूम होता, वह इतिहास के किसी कोने में खड़ा है। अभी इस थाने के लिए फाउंटेनपेन नहीं बना था, उस दिशा में कुल इतनी तरक्की हुई थी कि कलम सरकण्डे का नही था. यहां के लिए अभी टेलीफ़ोन की ईज़ाद नहीं हुई थी. हथियारों में कुछ प्राचीन राइफलें थीं, जो लगता था, ग़दर के दिनों में इस्तेमाल हुई होंगी……. थाने के अंदर आते ही आदमी को लगता था कि उसे किसी ने उठाकर कई सौ साल पहले फ़ेंक दिया है. अगर उसने अमरीकी जासूसी उपन्यास पढ़े हों, तो वह बिलबिलाकर देखना चाहता कि उँगलियों का निशान देखनेवाले शीशे, कैमरे, वायरलेस लगी हुई गाड़ियां—-ये सब कहाँ हैं? बदले में उसे सिर्फ वह दिखता जिसका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है’. (पृ. १३-१४, राग दरबारी, पेपरबैक, २०१६)

‘राग दरबारी’ १९६८ में प्रकाशित हुई थी और हालिया आज़ाद हुए भारत की तस्वीर बयान करने का प्रयास कर रही थी. वह भारत जो नेहरू की आधुनिकता से प्रेरित हो कर पश्चिम की व्यक्तिवादी आधुनिकता से संवाद भी कर रहा था और उससे कहीं प्रेरणा लेकर उस नक़्शे कदम पर चलने की कोशिश भी. पर राग दरबारी इसी को विद्रूप में बदल देता है. एक ऐसा समाज जो सदियों से पारंपरिक रूढ़ियों में जकड़ा, गरीबी और शोषण का कैरीकेचर है, उसमे राज्य द्वारा आयातित आधुनिकता की गुंजाईश भी नहीं रह जाती. आधुनिकता की इस परिभाषा में राज्य का एक अंग, पुलिस थाना जिसे उस नयी आधुनिकता का संवाहक होना था, कहीं भी खरा नहीं उतरता. और यह मात्र भौतिक परिभाषा तक नहीं सीमित रह जाता, बल्कि इसके मूल में एक आधुनिक समाज के उस व्यक्ति की आकांक्षाएं हैं, जो अपनी व्यक्ति होने की पहचान, तर्क और विज्ञान के औज़ारों से लैस होकर उस नए भारत का हिस्सा बनना चाहता है. इस उत्तरी भारत में अपराध तो हैं, पर एक वैज्ञानिक पहेली की तरह नहीं, बल्कि ऐसे अपराध जिनके रहस्य सबके सामने खुले हुए हैं और उन अपराधों से निबटने के संस्थागत हथियार उन्ही देसी सन्दर्भों से निकले हैं,

पर इन सबके बावजूद यह दिलचस्प है कि रहस्य और जासूसी उपन्यासों की विधा जब १९वी सदी  के आखरी दशकों में हिंदी में बराए बांगला उपन्यासों के आयी तो ऐसी लोकप्रिय हुई कि वह साहित्य के अंडरवर्ल्ड तक सीमित नहीं रह गयी, बल्कि कई लेखकों ने इसके माध्यम से न सिर्फ अकूत संपत्ति अर्जित की, उनमें से कइयों को सांस्थानिक वैधता भी मिली. वह भी एक ऐसे दौर में, जब महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल जैसे लोग ‘साहित्य’ की परिभाषा गढ़ रहे थे. पर इस मुद्दे पर आने से पहले रहस्य और अपराध का जो साहित्य हिंदी में निकल कर आया उसके कुछ मुख्य लक्षणों पर ध्यान देना ज़रूरी है.

हिंदी अपराध और जासूसी साहित्य बंगला से अनूदित हो कर या सीधे अंग्रेजी उपन्यासों से प्रेरणा ले कर उत्तर भारत में तो आया पर बड़ी समस्या इस के साथ यह थी कि इन उपन्यासों में न शरलॉक होल्म्स के आधुनिक लन्दन का और न ही, कलकत्ता महानगरी के पंचकौरी दे के ट्रामों, विशाल अट्टालिकाओं, अंग्रेजी पढ़े लिखे जासूसों, इंस्पेक्टरों का संसार था. ऐसा नहीं की डब्लू. ई. एम्. रेनॉल्ड्स का अनूदित ‘लन्दन रहस्य’ या पँचकौड़ी दे के अनूदित उपन्यास पढ़े नहीं गए, बल्कि वो लोकप्रिय भी बहुत हुए. पर जब तथाकथित रूप से ‘मूल’ जासूसी उपन्यासों को रचने की बात आई तो उसके मॉडल्स अपने सन्दर्भों में गढे जाने की ज़रूरत पड़ना लाज़मी था.

मुख्यतः तीन उपन्यासकारों के माध्यम से यह थोड़ा साफ़ करने की ज़रुरत पड़ेगी। पहले तो देवकीनंदन खत्री जिनकी चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता संतति आज भी हिंदी पाठकों के एक बड़े भूभाग में पढ़ी जाती है. इसके नायक कोई अंग्रेजी पढ़े लिखे सूट पहनने वाले, शहरों में घूमने वाले जासूस नहीं थे, बल्कि महलों और किलों में रहने वाले राजकुमार, जमींदार, उच्च जाति के वीर बहादुर नायक थे. वे चुनार की जंगली पहाड़ियों, गुफाओं और कंदराओं, पहेली भरी सुरंगों और बागीचों में निरंतर भटकने वाले प्रेमी थे, अपनी रहस्यमयी, सुंदरी प्रेमिकाओं की तलाश में. यहाँ अगाथा क्रिस्टी की दुनिया की पहेलियां नहीं थीं, जिन्हें आप कड़ी दर कड़ी सुलझाते जाएँ, वह लेखिका द्वारा छोड़े गए साधारण से लगने वाले सुरागों के माध्यम से नहीं बल्कि फ़ारसी और संस्कृत की पुरानी ‘’दास्तानो’ और आख्यानों की परम्पराओं में गूँथी गयी कई कहानियों की लड़ियाँ थीं. हाँ, पहेली और रहस्य दोनों जगह थे, पर उनकी भौगोलिक पृष्ठभूमि भी बिलकुल अलग और उनकी संरचना भी अलग. यहाँ जासूस नहीं, फिर पुरानी परम्पराओं से पुनराविष्कृत áऐयार थे, जो पश्चिमी जासूसों की तरह खुद नायक नहीं थे, पर उनके सहयोगी थे. हाँ, उनके करतब, जैसे भेष बदल लेना, नकाबपोश बन कर अंधेरों में भटकना, कहीँ भी जब चाहे प्रगट हो जाना, कई तरह के औजारों का आविष्कार कर उनका चमत्कारी इस्तेमाल कर लेना (भले ही इन्हें तर्क के आधार पर दूर तक समझाया न जा सके), उन्हें नायकों से श्रेष्ठ साबित करता था. अधिकांश कहानियों का आधार संपत्ति की लड़ाई, राज्यों की लड़ाई थी. फ्रांचेस्का ओर्सीनी ने अपने एक निबंध में इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि किस तरह बदलते औपनिवेशिक क़ानून के सन्दर्भ में पुरानी पितृसत्तात्मक व्यवस्था एक संकट महसूस कर रही थी, खास कर परिवार में स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार दिए जाने के मसले को लेकर. अधिकांश उपन्यास स्त्री पात्रों के अपहरण या उनकी हत्या की बुनियाद पर बने दिखलाई पड़ते हैं. खत्री की परंपरा में कई उपन्यासकार आगे आये, यहाँ तक कि उनके बेटे दुर्गा प्रसाद खत्री ने उसी श्रंखला को बढ़ाते हुए ‘भूतनाथ ‘श्रंखला की लंबी क़तार खड़ी  की.

एक मिली-जुली पर दूसरी परंपरा किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यासों में मिलती है, जिन्होंने पहले सीधे बंगला से अनुवाद, फिर हिंदी में रहस्य रोमांच भरे ऐतिहासिक उपन्यासों की एक लंबी कड़ी खड़ी की, जिनमें कई तो ऐतिहासिक पात्र थे और कई लेखक की अपनी कल्पना से उपजे हुए. यहाँ भी महलों का षड़यंत्र, प्रेमचंद की भाषा में कहें तो ‘वही कील कांटे’ जहाँ नवाब अपनी कारस्तानियां कर रहे थे, गुप्तचर अपनी. इनमें  कई जगह पर ‘सेक्स और व्यभिचार का तड़का भी लगा होता था, भले ही वह सब एक महान सामाजिक ‘राष्ट्रीय उद्देश्य के नाम पर हो रहा हो. यहाँ भी उपन्यास की सरंचना इस तरह बुनी जा रही थी कि घटना दर घटना किसी रहस्य का आवरण बना रहे और घटना दर घटना उसकी परतें खुलती जाएँ। पुरानी दास्तानों और पुराने आख्यानों की परंपरा में एडवेंचर तो था, अनूठी, अजब-गजब की कल्पनाएं तो थीं पर अक्सर किसी एक रहस्य के गिर्द बना घटनाक्रम था जो मानवीय आकांक्षाओं, षड्यंत्रों की बुनियाद पर बना हो. दूसरी ओर, इन ऐतिहासिक षड्यंत्र भरे उपन्यासों के माध्यम से भारतीय इतिहास की एक ‘हिन्दू परिभाषा भी गढ़ी जा रही थी जिनमे नायक अक्सर वीर हिन्दू और खलनायक अक्सर क्रूर मुसलमान पात्र होते थे. ख़ुद गोस्वामी के मुताबिक़, ‘मुसलमान सरीखे कट्टर धर्माग्रही विजिट आर्यों के सच्चे  गुणों या मान मर्यादा की क़द्र ही क्या कर सकते थे?….इसीलिए हमने  अपने बनाये उपन्यास में ऐतिहासिक  घटना को ‘गौण’ और अपनी कल्पना  को ‘मुख्य’ रखा है. और कहीं कहीं तो कल्पना के आगे इतिहास को दूर ही से नमस्कार भी कर लिया है.’ (गोस्वामी के उपन्यास ‘तारा’ की भूमिका से उद्धृत). ऐसा नहीं है कि इसका विरोध नहीं हो रहा था. बालमुकुंद गुप्त ने तब के प्रमुख पत्र ‘भारतमित्र’ में १९०३ में काशी नगरी प्रचारिणी सभा को सीधा पत्र लिखते हुए अपील की थी कि ‘’यदि सचमुच वह हिंदी की उन्नति चाहती है तो सबसे पहले ‘तारा’पढ़े और गोस्वामी जी को उनकी पुस्तक के गुण दोष को समझावे कि वह  कैसा गन्दा और भयानक कार्य कर रहे हैं.’ पर इन सबके बावजूद दिलचस्प यह है कि गोस्वामी के ऐतिहासिक उपन्यास, रहस्य-रोमांच, गुप्तचरी जैसे कई औजारों का सहारा लेते हुए इतिहास और रहस्य की एक ऐसी मिली जुली विधा को गढ़ रहे थे जो भारत के नए हिन्दू इतिहास को भी गढ़ रही थी और साथ ही उनके पाठकों को एक नए क़िस्म के रसास्वादन का आनंद भी दे रही थी.

गोपालराम गहमरी एक तीसरी परंपरा की बुनियाद रख रहे थे, वह थी सीधे अंग्रेजी और बंगला से आयातित ‘डिटेक्टिव या जासूस को हिंदी क्षेत्र में गढ़ने की कोशिश. १९०० में उन्होंने ‘जासूस’ नाम की पत्रिका की शुरुआत की जो लगभग १९४० तक चलती रही. सैकड़ों उपन्यासों के अनुवाद या, हिन्दीकरण या उनसे प्रेरित हो कर ‘मूल उपन्यासों के द्वारा वह क्लासिक अंग्रेजी डिटेक्टिव नॉविल की विधा को हिंदी में लाने की कोशिश कर रहे थे. पर समस्या यहाँ भी वही थी, जहाँ उनके जासूस मुग़लसराय से भटकते हुए सीधे बम्बई या कलकत्ता की सड़कों पर जाने को विवश हो जाते थे, क्योंकि औपनिवेशिक आधुनिकता का संसार तो वहीँ था. पर उनके उपन्यास, जैसे ‘अजीब लाश’, ‘खूनी कौन है’ या फिर ‘गाडी में खून’ बेहद लोकप्रिय रहे. दूसरी ओर, वह श्यामसुंदर दास द्वारा लिखित ‘हिंदी के निर्माता’ श्रंखला में भी सम्मान से नवाज़े गए, तत्कालीन हिंदी की बहसों जैसे कि ब्रज भाषा बनाम खड़ी बोली जैसे विषयों पर उन्होंने सक्रिय हिस्सा भी लिया.

गोकि इस बात पर विचार करना दिलचस्प होगा कि एक बिलकुल नयी विधा ने कैसे इतनी जल्दी भारतीय जन मानस में अपनी जड़ें जमा ली, यह जानना भी उतना ही दिलचस्प है कि इस विधा के मुख्य औजार, जैसे, अपराध, षड़यंत्र, हत्या, सेक्स, व्यभिचार, किसी न किसी रूप में कई अन्य विधाओं में भी शामिल किये जा रहे थे और कहीं ज्यादा सम्मान के साथ. ‘चाँद’ पत्रिका का ‘’फांसी अंक’’ इसका एक बढ़िया उदाहरण है. इस अंक के छपने से पहले ही इसकी इतनी चर्चा हो चुकी थी कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था और उसके बावजूद यह एक ‘बेस्टसेलर बन गयी थी. भारतीय क्रांतिकारियों की जीवनी पर आधारित इस अंक में (जिसके कई अंश भगत सिंह ने छद्मनाम से लिखे थे जो उन दिनों अज्ञातवास में रह रहे थे), क्रांतिकारियों की ज़िन्दगी के पन्ने एडवेंचर दर एडवेंचर, ब्रिटिश राज के खिलाफ उनके गुप्त षड़यंत्र, उनके भागते छिपते रहने की अनूठी दास्तान पाठक को फिर उसी रहस्य और रोमांच की दुनिया में ले जा रहे थे, जहाँ कि पहले के वर्णित उपन्यास, पर इस बार बिना किसी भय के कि उन पर ‘सस्ता या ‘गुप्त साहित्य पढ़ने का इल्जाम लगेगा. ‘फांसी अंक’ की सरकार द्वारा जब्ती के आदेश बावजूद उसकी १५००० प्रतियां आधिकारिक तौर से बिक चुकीं थीं. आचार्य चतुरसेन, जो उस अंक के संपादक थे, के अनुसार, ‘ रामरखसिंह सहगल’ (प्रकाशक) की मेज़ पर पैसा बरस रहा  था.’ उन क्रांतिकारियों के संस्मरण, आत्मकथाएं, (जिनमे उस दौर के क्रांतिकारी जैसे अम्बा प्रसाद सूफ़ी, करतार सिंह सराभा वग़ैरह की जीवनियाँ भी एक ‘थ्रिलर’ के अंदाज़ में लिखीं गयीं थीं), भी अक्सर रस लेकर उसी दृष्टिकोण से पढ़ी जाती रही जैसे कि जासूसी उपन्यास. इस विधा की आज तक याद की जाने वाली एक कृति है ‘लाल रेखा’ जो कुशवाहा कान्त द्वारा लिखी गयी थी और १९५२ में प्रकाशित हुई थी, आज़ादी के मात्र पांच सालों बाद. क्रांतिकारी षड़यंत्र, गुप्तचरी और ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ लड़ाई की पृष्ठभूमि में लिखा गया यह उपन्यास एक रोमांटिक उपन्यास के बतौर भी उतना ही सफल रहा था.

एक दिलचस्प पहलू इस विधा का था, उसमें नाटकीयता का अत्यधिक प्रभाव। पारसी थिएटर की अत्यधिक लोकप्रियता जो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से शुरू हुई थी और जिसे हिंदी में राधेश्याम कथावाचक और नारायण प्रसाद बेताब ने बीसवीं सदी में लोकप्रियता की बुलंदियों तक पहुँचाया, (इससे पहले कि टाकी सिनेमा ने उनकी जगह ले ली) इन उपन्यासों में भी भरपूर में दिखलाई पड़ती है. नायकों-खलनायकों का स्वगत भाषण, लच्छेदार ज़ुबान का प्रयोग, घटनाक्रम का फॉर्म जैसे वह किसी स्टेज पर खेला जा रहा हो, ऐसे कई औज़ारों का इस्तेमाल यह विधा कर रही थी.

पारसी थिएटर की इस परंपरा से एक और नाम आता है हरेकृष्ण जौहर का. इनका करियर ग्राफ़ बड़ा ही दिलचस्प है. वह इस में कि कैसे उस वक़्त लेखक एक विधा से दूसरी में बिना किसी प्रयास के शामिल हो थे बल्कि इसलिए भी कि उच्च साहित्यिकता बनाम लोकप्रिय साहित्यिकता की तमाम सीढ़ियों पर भी वो उसी आसानी से चढ़ उतर रहे थे. एक और तो जौहर ‘हिंदी बंगवासी’ और ‘श्री वेंकटेश्वर समाचार’ जैसे प्रमुख हिंदी पत्रों के संपादक भी रहे तो दूसरी ओर पारसी नाटकों में उर्दू की जगह हिंदी शब्दावली के माध्यम से नए अत्यंत लोकप्रिय नाटकों का लेखन भी उन्होंने किया. तीसरी ओर, ‘भूतों का मकान’ और ‘नर पिशाच’ जैसे रहस्य और रोमांचकारी उपन्यासों का लेखन भी. साथ ही ‘श्रीमदभागवत’ और अनेक पुराणों का अनुवाद भी किया. इन सबके बावजूद वह हिंदी की ‘साहित्यिक शुद्धता’ के चल रहे आंदोलन में भी उतने ही सक्रिय रहे.

पर उन्ही दशकों में जब इस विधा ने लोकप्रियता की ऊंचाइयां छुईं, उर्दू और हिंदी में ‘राष्ट्रीय सुधारवाद और सामाजिक सोद्देश्यता का नया सौंदर्य शास्त्र तैयार हो रहा था. अल्ताफ हुसैन हाली  ने उर्दू में, फिर पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और फिर रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी इसकी वो ज़मीन तैयार की जिसकी कसौटी पर वही विधाएं खरी उतरीं जिनकी ‘’उपयोगिता’ देश और समाज के लिए थी. इस सौंदर्य शास्त्र में जहाँ कविता में रीति काव्य पर आक्रमण हुए, वहीँ,  द्विवेदी जैसों ने तो पहले úपन्यास को एक विधा के तौर पर ही बहुत ‘’संदेह से देखना शुरू किया’. उनके मुताबिक़ इस विधा में ही वो खामियां थीं जो किसी समाज के काम आने लायक नहीं थी. द्विवेदी इस मुहिम में अकेले नहीं थे. १८९९ में ‘हिंदी प्रदीप’ में प्रकाशित अपने एक लेख ‘हिंदी उपन्यास लेखकों को उलाहना’ में काशी प्रसाद जायसवाल ने यह कहा: ‘‘सम्प्रति हिंदी में उपन्यासों की बड़ी भरती देख पड़ती है. इनमे से अधिकाँश बंग भाषा के अनुवाद हैं. हिंदी में मूल उपन्यासों की गणना बहुत थोड़ी है बल्कि यों कहा जाय की मूल उपन्यास का अभाव है तो फब सकता है. उन अनुवादित उपन्यासों में भी कुछ तो ऐसे हैं कि इनका गंगाजी में प्रवाह कर देना ही प्रेय है. केवल नागरी अक्षरों में कोई उपन्यास (या कोई पुस्तक) लिखे जाने से वह ‘हिंदी उपन्यास’ या ‘हिंदी पुस्तक’ नहीं कहा जा सकता’’.

कहा जाय तो, प्रेमचंद और उनकी धारा के आने के बाद उपन्यास की बतौर एक ‘साहित्यिक विधा’ की प्राण प्रतिष्ठा तो हुई पर ‘सस्ता साहित्य बनाम उच्च साहित्य’ के पैमाने भी ज्यादा रूढ़ होने लगे. पर उससे पहले एक लंबा दौर वैसा था जब एक ओर तो ऐसी विधा में लिखने वाले लेखक साहित्य की सांस्थानिक गतिविधियों में भी उतने ही सक्रिय थे जितने कि ‘श्रेष्ठ’ साहित्य के पैरोकार, दूसरी ओर खुद उन उप-विधाओं में इस्तेमाल किये जाने वाले औज़ारों को उतना अलगाया नहीं गया था कि उनके आधार पर कोई सीधी रेखा खींची जा सके. ज़ाहिर है जहाँ जासूसी या रहस्य-रोमांच वाली विधा के उपन्यास भी राष्ट्रीयता, वीरता, सामाजिक सोद्देश्यता की बात कर रहे थे तो दूसरी ओर ऐतिहासिक उपन्यास और क्रांतिकारी साहित्य, जासूसी विधा से उसकी तकनीक को अपने भीतर शामिल कर रहे थे. मुझे लगता है कि यदि ‘ग़बन’ को भी हम देखें तो प्रेमचंद एक ‘अपराध कथा’ को ही कच्चे रूप में ले कर उसका ‘ट्रीटमेंट’ ऐसे करते हैं कि वह उनके अन्य मुख्य धारा के उपन्यासों से इसी मायने में अलग ठहरता है.

पर ‘सामाजिक सोद्देश्यता’ का साहित्यिक वर्चस्व समय का तक़ाज़ा था और इस प्रक्रिया में क़तर ब्योन्त भी होनी थी. उसका सौंदर्य शास्त्र उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई में कैसे इस्तेमाल हो, इसकी परिभाषा कई संस्थान तय कर रहे थे. हिंदी के साहित्यिक संस्थान जैसे हिंदी साहित्य सम्मलेन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, साहित्य के इन पैमानों को संस्थाबद्ध रूप से विश्वविद्यालयों में स्थापित भी कर रहे थे. फ्रेंच समाजशास्त्री पियर बोर्दू ने इस प्रक्रिया को ‘सांस्कृतिक उत्पादन की ज़मीन’ पर निरंतर चलने वाली लड़ाई के रूप में भी देखा है, जहाँ, आर्थिक रूप से जो विधा जितनी कम बिकती है, सान्स्कृतिक रूप से उसे विधाओं की श्रेणीबद्ध हायरार्की में उतना ही ऊंचा स्थान दिया जाता है, इस तरह कविता उपन्यास से ऊपर ठहरती है. और उपन्यास में वो उप-विधा जो ज्यादा लोकरन्जक साबित होती है, वह सांस्कृतिक सम्मान की सीढ़ी पर गंभीर उपन्यास से नीचे ठहरती है. पर बोर्दू का समीकरण इतना सरल भी नहीं। वह लगातार इनके भीतर चलने वाले संघर्षों, सामाजिक-ऐतिहासिक सन्दर्भों और लेन-देन की भूमिका पर भी विचार करते हैं. औपनिवेशिक उत्तर भारत के लगातार बदलते सन्दर्भ ने जहाँ जासूसी उपन्यासों को एक दूसरा ही रूप लेने पर विवश किया तो दूसरी ओर, बोर्दू के समीकरण में उन्हें धीरे धीरे नीचा स्थान तो प्राप्त हुआ, पर एक लंबी लड़ाई के बाद ही और उसके बावजूद भी, इन उपन्यासों के कई पहलू तथाकथित अभिजात साहित्य के जाने अनजाने अभिन्न अंग साबित हुए.

 

प्रदीपिका सारस्वत की कविताओं में कश्मीर

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बहुत दिनों बाद कश्मीर पर कुछ अच्छी कविताएँ पढ़ी. कुछ कुछ अपने प्रिय कवि आगा शाहिद अली की याद आ गई. कवयित्री हैं प्रदीपिका सारस्वत. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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1.

मेरे ख़्वाब में
चारों तरफ़ बिखरे पड़े हैं क़िस्से
दिल्ली की बेमौसम धुँध में
साँस-साँस घुटते
मैं देखती हूँ किसी कलहण को
एक और राजतरंगिनी लिखते
दर्ज करते हुए कुननपोशपोरा
और भटों की जलावतनी
दिल्ली की धुँध में
साफ़ देखती हूँ
नमाज़-ए-जनाजा पर जुटी भीड़
और वीरान पड़े
कुछ टूटी खिड़कियों वाले, अधजले घर
अभिशप्त वादी
रख के देख चुकी है
तमाम राजाओं के सर पर सजीले ताज
जेहलम में बह चुका है
कितने रंगों का लहू
मठ और मंदिर न जाने कितने
खो चुके हैं अपने ईश्वर

निज़ाम और ख़ुदा बदले हैं
चिनार के पत्तों की तरह
पर घाटी के बाशिंदे अब भी खड़े हैं
हाथों में ख़ून-रंगे फूल लिए
कि एक दिन उनका राजा
घाटी को जन्नत बना देगा
मैं बेचैनी में करवट बदलकर
छीन लेती हूँ कलहण के हाथ की क़लम
अब बस, एक और शब्द मत लिखो
इतिहास का गला घोंट, शायद
मैं वर्तमान को
बचा लेना चाहती हूँ

2.

हवाएँ नहीं जमतीं ठंड से
घुलती रहती हैं ख़ून में, चुपचाप
पर ख़ून का तापमान बढ़ने पर
उठ जाती हैं ऊपर
जिस सर पे ख़ून चढ़ा हो
वो ज़िंदा नहीं
मुर्दा साँसों में मरती हवाएँ
धुआँ हो जाती हैं
घाटी से कह दो
हवाओं के लिए बसंत न सही
सर्दियाँ बचाए रखे

3

घाटी के लिए
___________

एक बार, बस एक अंतिम बार
भीतर आने देना मुझे
मुझे ज्ञात है
कि तुम वो पुराना कमरा हो
जिसने देखा है इंसानी पागलपन
ऊपरी सीमा से उस बिंदु तक
जिस से नीचे नापे जाने, न जाने का कोई अर्थ नहीं
तुमने देखे हैं ईश्वर, बुत, पैग़म्बर और निंदित स्त्रियाँ
दूध, पानी, स्वेद और रक्त
समर्पण, दंभ, युद्ध और हताशा का प्रलाप
सब एक ही भाव से
मुझे नहीं लिखना अपना नाम
तुम्हारे दर, दीवार, फ़र्श या खिड़की पर
वरन हो जाना है विलीन
तुम्हारी सनातन आँखों के शून्य में
समय के उन तमाम प्रेतों की तरह
जिनका नाम मानव इतिहास में
कहीं अंकित नहीं

4.

मग़रिब की अज़ान
ले आती है अक्सर
शाम के साथ
गांव के शिवाले की घंटियां
मस्जिद से आती रौशनी में
नज़र आता है
घी का दिया
और अम्मा का आशीष
जैसे देखती हूँ अक्सर
झूमते चिनार में
ट्यूबवेल के सामने का पीपल
जेहलम के पानी में
राजघाट का गंगाजल
और हिजाबपोश लड़कियों में
माँ का चेहरा

5.

रात ढली नहीं आज
जागती हुई मस्जिद की खिड़की के पल्ले पर
बर्फ़ हुई ओस पे हँस,
उतर गई कांदरू के तंदूर में
और तमाम सौंधी रोटियों की शक्ल में
दिन बन कर उग आई
रात के पेड़ की काली जड़ें
छुपा कर रख दी गई कांगड़ियों में
मस्जिद किनारे बूढ़ा मौलवी
अज़ान के बाद
सुड़कते हुए पिछली पुश्तों का पसीना
तय नहीं कर पाया कि नरम लवास की रंगत में
दिन की ख़ुश्क तासीर है या रात का रूखापन
वैसे उम्र के इतने बरसों में
नहीं समझ पाई हैं उसकी झुर्रियाँ
रात और दिन का फ़र्क़


फिल्म में लड़ाई पद्मावती के लिए नहीं बल्कि पद्मावती से है

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इसमें कोई शक नहीं कि हाल के दिनों में सबसे अधिक व्याख्या-कुव्याख्या संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ को लेकर हुई. बहरहाल, यह एक व्यावसायिक सिनेमा ही है और मनोरंजक भी है. इस फिल्म पर जेएनयू में कोरियन भाषा की शोधार्थी कुमारी रोहिणी की समीक्षा- मॉडरेटर

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बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की

यह लड़ाई पद्मावती के लिए नहीं बल्कि पद्मावती से थी

जी हाँ हम गए थे देखने फ़िल्म पद्मावती..ऊप्स पद्मावत. यही “ई” की कमी मुझे फ़िल्म के आधे से अंत तक खलती रही. फ़िल्म में राजपूताना शौर्य या ख़िलजी के आतंक दोनो में ही किसी भी तरह की कोई भी कमी दिखाई गई है. भंसाली ने पटकथा को बहुत ही अच्छे से पिरोते हुए परदे पर उतारा है. पिछले एक साल में राजपूताना शौर्य और उनसे जुड़े इतिहास का इस हद तक छिछालेदार हम सब ने मिलकर कर दिया है कि अब इस बारे में बात करना बिलकुल वैसा लगता है जैसा कि आप आठवीं में हो और हार रोज़ ऐल्जेब्रा के फ़ोर्मूले रट रहे हों.

ख़ैर जहाँ तक भंसाली निर्देशित पद्मावत की बात है नि:संदेह यह एक अच्छी फ़िल्म है बिलकुल हमारे उम्मीदों पर खरी उतरने वाली (जैसी उम्मीद हम भंसाली से करते हैं). किरदारों का चुनाव बहुत ही सोच समझ कर किया गया है. रणवीर अपने करियर के उत्कृष्टम पर लगे मुझे वहीं दीपिका इस बार ठहराव वाली फ़ीलिंग दे रही हैं. दीपिका को अपने अभिनय में अब किसी नए प्रयोग की ज़रूरत है ऐसा मुझे महसूस हुआ क्योंकि वे पद्मावती के रूप में भी मुझे पद्मावती कम मस्तानी ज़्यादा लग रही थीं. रही बात शाहिद की तो सिनेमा में उनका रोल और अभिनय दोनो ही उतना हल्का है नहीं जितने हल्के में करणी सेना वालों ने और उनके विरोधियों ने उन्हें लिया था. जानदार राजा के रूप में शाहिद बहुत जंच रहे हैं और सच में एक राजपूर राजा के किरदार को परदे पर चित्रित कर पाने में सफल रहे हैं. इसके अलावा, जहाँ तक सेट और वेशभूषा का मामला है हर बार की भाँति इस बार भी भंसाली साहब ने तनिष्क के एंडोर्समेंट में कोई कमी नहीं छोड़ी है. ये सब तो आधारभूत जानकारियाँ है जो बिना सिनेमा देखे भी प्राप्त की जा सकती है या फिर भंसाली के पैटर्न को देखते हुए समझा जा सकता है.

मैं इस सिनेमा को देखने के बाद किसी और ही तरह की बहस में उलझी हुई हूँ. सोचा नहीं था कि कुछ लिखूँगी इस पर, क्यों? इसका कारण पहले ही बता दिया लेकिन तभी लौटकर आने के बाद रात में फ़ेसबुक पेज पर विदुषी अभिनेत्री स्वरा भास्कर जी की खुली चिट्ठी पढ़ने को मिल गई. उनकी यह चिट्ठी पढ़कर मन अजीब सा हुआ, पहली बार असहमत हूँ मैं उनके विचारों से. उन्होंने भंसाली को लिखी अपनी चिट्ठी में कहा है कि इस सिनेमा के लिए वह बहुत लड़ी हैं और भंसाली का साथ भी दिया है लेकिन अंत में उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि भंसाली ने हम औरतों को बस चलती फिरती योनि(vagina) ही समझा और दिखाया. मैं यहाँ उनके इस  तर्क से असहमत हूँ. मुझे सिनेमा देखते हुए एक पल को भी नहीं लगा कि इसमें ऐसी कोई बात उभर कर अस्पष्ट रूप से आ रही है. मैं तो यहाँ तक कहूँगी कि बिटवीन द लाइंस भी देखने पर ऐसा कुछ नहीं लगा. इस पूरे सिनेमा को देखकर जो सबसे ज़्यादा बड़ी बात लगी वह यह कि यह लड़ाई राजा रतन सिंह और अल्लाउद्दीन ख़िलजी के बीच की नहीं बल्कि पद्मावती और अल्लाउद्दीन ख़िलजी के बीच की थी. कहीं भी ऐसा नहीं लगा है सिनेमा देखते हुए कि पद्मावती को बस एक रूपवती के रूप में भंसाली ने परदे के सामने खड़ा किया है. सिनेमा में दीपिका की एंट्री से लेकर अंतिम दृश्य में उसके जौहर तक एक एक पल पद्मावती मुझे एक कुशल योद्धा और राजनीतिक समझ और सूझबूझ वाली रानी ही लगी. कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि वह बस एक स्त्री होने की वजह से ख़िलजी या राजा रतन सिंह के सामने छोटी पड़ रही हैं, चाहे वह ख़िलजी के सामने अपना चेहरा दिखाने का निर्णय हो या राजा रतन सिंह को क़ैद से छुड़वाने के लिए दिल्ली जाने का फ़ैसला, हर जगह उन्होंने अपने को स्थापित राजनीतिज्ञ और कुशल योद्धा की तरह पेश किया है . और वह फ़ैसला भी भावना से ओतप्रोत होकर लिया हुआ फ़ैसला नहीं था बल्कि उसमें भी जो शर्तें पद्मावती ने रखी थी वह एक कुशल राजनीतिज्ञ ही रख सकता है जिसके पास राजनैतिक समझ के साथ साथ रणनीति तैयार करने की योग्यता भी हो. ये सारी घटनाएँ इस बात को प्रमाणित करती हैं कि पद्मावती तथाकथित अबला नारी नहीं थी जिसके लिए उसके पति को लड़ाई करनी पड़े या अपनी ईज्जत बचाने के लिए उसे ख़ुद ही आग में कूदना पड़  जाय. बल्कि परिस्थिति ऐसी थी कि हर बार पद्मावती ने ही राजा रतन सिंह को मुश्किलों से उबारा, यहाँ तक कि उन्हें ख़िलजी के क़ैद से वापस भी लेकर आईं.

मेरा नज़रिया तो यह कहता है कि यह लड़ाई एक राजा की दूसरे राजा से नहीं बल्कि एक ज़िद्द की दूसरी ज़िद्द से थी. ऐसा नहीं था कि अल्लाउद्दीन को पद्मावती इसलिए चाहिए थी क्योंकि वह बहुत ही सुंदर थी या वह उसके प्रेम में पागल हो चुका था, बल्कि इसलिए चाहिए थी क्योंकि उसे दुनिया की सभी नायाब चीज़ों का शौक़ था, और हर सम्भव नायाब चीज़ चाहे वह दिल्ली का सल्तनत हो, उसकी बीवी हो या उसका ग़ुलाम मालिक काफ़ूर सभी उसके पास थी. एक तरफ़ जहाँ ख़िलजी को अपनी ज़िद्द पूरी करनी थी वहीं पद्मावती ने भी अपने राज्य का सम्मान और प्रजा के हित को ध्यान में रखते हुए हमेशा ही सही और तर्कपूर्ण निर्णय लिया. चाहे वह निर्णय सामूहिक जौहर का ही क्यों ना हो. हम में से कई लोग जौहर और सती में कन्फ़्यूज़ हो जा रहे हैं. ध्यान रखिए पद्मावती ने जौहर किया था वह सती नहीं हुई थी. इसे दूसरी तरफ़ से सोचें तो पद्मावती का जौहर करना बिलकुल ऐसा ही था जैसे कि चंद्रशेखर आज़ाद ने अंग्रेज़ों की गोली से मरने के बजाय स्वयं को गोली मारना ज़्यादा सम्मानजनक समझा था. पद्मावती का जौहर बस स्त्री सम्मान की रक्षा ही नहीं था बल्कि अपने दुश्मन को एक करारा जवाब भी था. (कम से कम मैं ऐसा ही सोचती हूँ). क्योंकि इतनी लड़ाई और इतनी मशक़्क़त के बाद भी ख़िलजी के हाथ जो आया वह निराशा ही थी, और एक योद्धा के लिए इससे बड़ी जीत और दूसरे योद्धा के लिए इससे बड़ी हार कुछ नहीं हो सकती कि वह अपना पूरा जीवन  इस मलाल में बिता दे कि उस लड़ाई में वह कुछ ऐसा हार गया जो किसी भी दूसरी लड़ाई से हासिल नहीं किया जा सकता है और यही पद्मावती की जीत थी.

बात लम्बी हो रही है और शायद मैं भटक भी रही हूँ अपने विषय से. सभी बातों की एक बात जो मुझे लगी और जो मैंने सिनेमा देखते हुए महसूस किया वह यह कि पहली बार किसी कामर्शियल सिनेमा को देखकर ऐसा नहीं लगा कि इसमें नारी के अबलापन को बेचा गया है. देखने के सौ और सोचने के हज़ार तरीक़े हो सकते हैं और होते भी हैं. हो सकता है आपको भी सिनेमा देखकर ऐसा लगे कि स्वरा जी की बात ही सच है और भंसाली ने एक बार फिर स्त्री के अंग विशेष को अपने सिनेमा के माध्यम से बेचा है और हम स्त्रियों को कमतर किया है लेकिन मुझे सच में ऐसा नहीं लगा क्योंकि मैं सिनेमा देखते वक़्त यह नहीं देख रही थी कि इसका मुख्य किरदार एक औरत है. मुझ पर हर वक़्त पद्मावती का राजनैतिक कौशल ही हावी रहा उसकी योनि नहीं.

पद्मावत – ऐतिहासिक गल्पों की सबसे मज़बूत नायिका की कहानी

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पद्मावत फिल्म को अपने विरोध-समर्थन, व्याख्याओं-दुर्व्यख्याओं के लिए भी याद किया जायेगा. इस फिल्म पर एक नई टिप्पणी लिखी है युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह ने- मॉडरेटर

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पद्मावत- एक महाकाव्य – जिसे पंद्रहवीं/सोलहवीं सदी के घुम्मकड़ कवि मलिक मुहम्मद जायसी के कवित्त ह्रदय ने रचा था. यह दिल्ली सल्तनत और एक राजपूती राजपरिवार के बीच की लड़ाई की एक लम्बी कवित्त गाथा थी, जिसके अतिशयोक्तिपूर्ण होने के बावज़ूद इतिहास की भव्यता में जीने वाला समाज अपने इतिहास के तौर पर स्वीकारता चला गया क्योंकि कम से कम एक प्रमुख पात्र के होने की गवाही इतिहास दे रहा था.

इसी काव्य के लिखे जाने के तकरीबन पाँच सौ सालों के बाद, तब जब दिल्ली का सल्तनत बहुत बदल चुका था और अपनी धर्म-निरपेक्षता को परे रख कर नयी शासकीय इबारत लिखने में व्यस्त था, हिन्द की फ़िल्मी नगरी के एक जागीरदार ने एक नयी पद्मावत के रचने की घोषणा की. यह नयी वाली पद्मावत, कुल मिला-जुला कर पुरानी पद्मावत पर ही आधारित होने वाली थी, फर्क यह था कि इसे सिनेमाई परदे पर रचा जाना था – थोड़े परिस्थितिजन्य परिवर्तनों के साथ.

नए रचनाकर द्वारा परिवर्तन की उद्घोषणा ने इस परिवर्तनशील मगर मानसिक तौर से परिवर्तन-विरोधी मुल्क में विरोध की एक बेमिसाल तौर से खतरनाक लहर पैदा कर दी. यह लहर इस कदर खतरनाक थी कि इतिहास इस बात को याद रखेगा कि किसी फ़िल्म की वज़ह से भी इस देश में आपातकाल के हालात पैदा हुए थे.

खैर, इतिहास और काल-खण्डों से बाहर निकलते हुए फ़िल्म की ओर चलते हैं – संजय लीला भंसाली कृत फ़िल्म. वही संजय लीला भंसाली, जिन्हें अपनी फिल्मों के कथानक से ज्यादा उसके भव्य सेट्स और बेतहाशा खर्च हुए बजट के लिए जाना जाता है. हालाँकि ये वही भंसाली हैं जिन्होंने ब्लैक, खामोशी द म्यूजिकल और गुज़ारिश जैसी फिल्मों का निर्माण किया है. गौरतलब यह है कि जिस साल ब्लैक रिलीज़ हुई थी, उसे विश्व-स्तर पर साल की बीस सबसे अच्छी फिल्मों में रखा गया था.

भंसाली साब की बाकी फिल्मों की भांति पद्मावत भी सुन्दर फ़िल्मी सेट्स, जेवरों और कपड़ों की प्रदर्शनी है.

कहानी शुरू होती है एक षड्यंत्रकारी सिपहसलार, उसके सनकी भतीजे, एक खूबसूरत लड़की से और वहाँ से फिल्म का रुख सीधे सिंघल द्वीप की ओर हो जाता है.

उस दृश्य में कुलाँचे भरती हुई, हिरण का शिकार करती राजकुमारी को देखकर सहसा राजामौली की देवसेना याद आ जाती है, मगर जो बात नोटिस करने की है वह यह है कि भव्यता के बावज़ूद ‘सिंघल द्वीप’ की राजकुमारी के परिवेश में सादगी घुली है. यहीं राजकुमारी की भेंट अपने भावी जीवनसाथी से होती है. फ़िल्म की यह शुरुआत महाकाव्य से इतर है और यहाँ से पद्मावत दो राजपरिवारों की समानांतर चल रही कहानी बन जाती है.

एक राजपरिवार जिसकी बागडोर एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में जाने वाली थी जो वहशीपने की हद तक सनकी था और दूसरी तरफ़ वह राजपरिवार जो आन-बान-शान की परंपरागत परिभाषा का बेहतरीन नमूना है. आगे की कहानी एक पुराने विश्वासपात्र के खफ़ा हो जाने और ज़िद का रूप धारण कर चुके अहम् के टकराव की कहानी है. इस कहानी में दोनों ही पक्ष जीतने के लिए युद्धरत है. वहशी अल्लाउद्दीन खिलजी जो दुनिया की हर नायाब चीज़ को अपना समझता है, नायाबियत की मलिका ‘पद्मावती’ को भी वस्तु समझ कर हासिल करना चाहता है. यह उसकी फ़ितरत में है.

किसी भी आम प्रेमी की भांति रतनसेन खिलजी की इस चाह पर उसका सर कलम कर देने की इच्छा रखते हैं.

फ़िल्म में इन दो बलशाली पुरुषों के मध्य जो सबसे शक्तिशाली चेहरा उभरता है वह रानी पद्मावती का है. राजनीति, युद्धनीति और धर्म की जानकार पद्मावती सौन्दर्य को गुण नहीं मानती है, इसे महज़ देखने वाले की नज़र कहती है. पद्मावती कुशल है, उसे अपनी उपस्थिति का भान है. वह पूरे कथानक में न तो वस्तु के तौर पर नज़र आती है, न ही किसी चुप पुरुष-जीवी सहयोगी के रूप में. इस फिल्म के अन्य स्त्री-पात्र भी काफी मज़बूत नज़र आते हैं, चाहे वह खिलजी की पत्नी मेहरुन्निसा हो, रतन सेन की बड़ी रानी या फ़िर देवगिरी की राजकुमारी.

फिल्म के एक दृश्य में अपने प्रियतम को खाना खिलाते वक़्त पद्मावती पंखा झल रही होती है. देखकर सहसा ही किसी पुराने हिंदी फ़िल्म की बेचारी पत्नी याद आ जाती है मगर अगले ही पल रतनसेन से हो रहा पद्मावती का संवाद सारे परिदृश्य को गज़ब तरीके से बदल देता है.

पद्मावती बार-बार चौंकाती है. वह रतनसेन की पत्नी होने के नाते उसकी बात मौन होकर नहीं सुनती है. अपना मत रखती है और अपने तर्कों से रतनसेन को अपनी बात मानने को मज़बूर कर देती है. उसके रणकौशल का मज़मून तब भी नज़र आता है जब वह खिलजी के आँगन से अपने पति को छुड़ा लाती है.

खिलजी जितनी कोशिशें करता है कि वह पद्मावती को पाए, वह उतनी ही चतुराई से उससे निबटती चली जाती है. वह चतुर स्त्री ऐतिहासिक-फिक्शन पृष्ठभूमि पर बनी कई हॉलीवुड-बॉलीवुड फिल्मों की नायिकाओं से ज्यादा सशक्त है. वह न तो ट्रॉय की हेलेन की तरह पीछे छिपती फिरती है, न ही थ्री हंड्रेड की रानी की मानिंद अपने आप को वस्तु रूप में सौंपती है.

इस भूमिका को निभाते हुए दीपिका अभिनय के कुछ नए आयामों को छूती है. राजा रतनसेन के तौर पर शाहिद बेइंतहा शानदार नज़र आते हैं. उन्हें देखते हुए न जाने क्यों ट्रॉय फिल्म के प्रिंस हेक्टर की याद आ गयी.

वहशी अलाउद्दीन की भूमिका निभा रहे रणवीर सिंह अपने अभिनय में इतना घुस जाते हैं कि यह कल्पना करना मुश्किल हो जाता है कि कभी इस अभिनेता ने प्रेमी का सहज रूप भी निभाया था.

मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य से प्रेरणा लेता हुआ संजय लीला भंसाली का पद्मावत आख्यान काव्य की भांति ही फिल्म में पद्मावती का जौहर दिखाता है, मगर इस जौहर का कहीं भी महिमामंडान नहीं किया गया है. हाँ, एक फ्लीटिंग डायलॉग में एक मुंह लगी दासी ज़रूर जौहर का नाम लेती है मगर रतनसेन के जनानखाने का वह दृश्य जनानखाने के अन्दर के लोकतंत्र का बेहद खूबसूरत नमूना था. इस दृश्य में रतनसेन की पहली पत्नी अपने पति की गिरफ़्तारी का दोष पद्मावती को देती है, मगर अन्तःपुर की अन्य स्त्रियों के स्वर मज़बूत होते हैं कि किसी भी स्त्री को बुरी नज़र से देखने पर स्त्री की नहीं, उसी बुरी नज़र वाले की गलती होती है.

रही बात मनुष्यों को सामान के रूप में देखने-परखने की तो इस बात का ख़याल रखना अति-आवश्यक है कि इस फिल्म का कथानक गुलाम वंश (इतिहास के अनुसार) के इर्द-गिर्द घूमता है जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों समान रूप से चीज़ों की तरह ख़रीदे और बेचे जाते थे.

अलाउद्दीन के ग़ुलाम मलिक-कफूर का होना इस बात की पुष्टि करता है. यह अलग बात है कि फिल्म में मलिक काफूर महज़ एक ग़ुलाम नहीं है, वह उस कोल्ड-ब्लडेड खलनायक की तरह नज़र आता है जो एक-एक करके उन सभी को अपने और खिलजी के बीच में से हटाता चला जाता है जिसमें भी उसे प्रतिद्वंदिता नज़र आती है, चाहे वह खिलजी की पत्नी मेहरुन्निसा हो या फिर पद्मावती.

एक और चीज़ जो नज़र आती है वह यह है कि इस फिल्म के आखिर में रानी के साथ खूब सारी स्त्रियाँ होती तो हैं मगर जौहरकुंड में सिर्फ रानी पद्मावती प्रवेश करती दिखती है. हो सकता है स्त्री-विमर्श के मद्देनज़र भंसाली ने कथानक का मूल अंत थोड़ा बदला हो जो कि वर्तमान परिवेश को देखते हुए उचित भी है. यहीं पर हथियार गिराता खिलजी भी दिखता है. फिल्म का यह अंत एक आम दर्शक के मन में अजीब विरोधाभास पैदा करता है. कहानी का वह दुखद अंत जहाँ सभी अच्छे पात्र मारे जाते हैं, कहानी का वह सुखद अंत जहाँ सारे अच्छे पात्र किसी न किसी तरह से खलनायक की बेजा चाहत को हरा देते हैं और फिर वह खलनायक, जो जीत कर भी हार जाता है.

फिल्म के इस बिंदु पर देवदास और रामलीला जैसी फ़िल्में बनाने वाले संजय लीला भसाली कहीं खो जाते हैं. जो नज़र आता है वह है ब्लैक का सधा हुआ निर्देशक.

तकरीबन तीन घंटे लम्बी यह फिल्म शुरू से अंत तक विरोधाभासों के बावज़ूद बाँधे रखती है. अमीर खुसरो की रुबाइयों से सजी हुई एक खूबसूरत स्क्रिप्ट को बेहद अच्छे डायलॉग, उम्दा अदाकारी और सधे हुए निर्देशन का साथ मिला है. समय और परिस्थिति के लिहाज़ से संगीत और मेकअप भंसाली मार्का हैं ही.

इस फिल्म को देखते वक़्त यह ख़याल रखना ज़रूरी है कि यह फिल्म एक काल्पनिक काव्य-गाथा पर बनी है और लगभग उसी के अनुसार इसके दृश्यों का फिल्मांकन हुआ है. उस काव्य-गाथ से लुका छिपी खेलते हुए भी एक कलात्मक प्रस्तुति के तौर फिल्म निराश नहीं करती है. बहरहाल इस फिल्म को देखते हुए मैं बार-बार उन दृश्यों की प्रतीक्षा कर रही थी जिसकी वज़ह से इसका दक्षिण और वाम, दोनों खेमों के द्वारा विरोध किया जा रहा था, मगर उस हिसाब से मुझे निराशा ही हाथ लगी.

पद्मावत न तो करणी सेना के अफवाहों के जैसी है, न ही वजाइना सेंट्रिक विमर्शकारियों की चिंता को बल देती है. न पूरी फिल्म में खिलजी को कहीं पद्मावती मिलती है, न ही जौहर को सराहा गया है. फिल्म का आखिरी दृश्य मूल कथा का वह कथोचित दुखद फिल्मांकन है जिसमें रानी की वह ज़िद जीतती है कि वह अलाउद्दीन के बेजा हठ को जीतने नहीं देगी. गौर करने वाली बात यह है कि पद्मावत में विशेष रूप से उल्लेखित वीर ‘बादल’ की माँ विधवा होती है. खैर, पद्मावत एक काल्पनिक मानी जाने कहानी पर बनी फिल्म है और अपने गल्प के साथ ख़त्म हो जाती है. इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए.

 

भविष्य का भयावह कथानक है ‘रेखना मेरी जान’

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‘रेखना मेरी जान’रत्नेश्वर सिंह के इस उपन्यास की छपने से पहले जितनी चर्चा हुई छपने के बाद इसके अलग तरह के कथानक की चर्चा कम ही हुई. यह हिंदी का पहले उपन्यास है जिसका विषय ग्लोबल वार्मिंग है, जो केवल भारत की कहानी नहीं कहता. इसकी एक विस्तृत समीक्षा लिखी है पीयूष द्विवेदी ने- मॉडरेटर

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रत्नेश्वर सिंह का उपन्यास ‘रेखना मेरी जान’ वर्तमान समय से आगे की कहानी है। ग्लोबल वार्मिंग के विषय पर केन्द्रित मुख्य कथानक के सामानांतर इसमें एक प्रेम कथा तथा सांप्रदायिक समरसता और विद्वेष की छोटी-छोटी कथाएँ भी चलती हैं। ग्लोबल वार्मिंग की समस्या अभी पूरे विश्व के लिए चिंता का कारण बनी हुई है, रत्नेश्वर सिंह ने इसी समस्या की भावी विकरालता को अपने कथानक का आधार बनाया है। इस प्रकार के विषय पर, इतने तथ्यपरक ढंग से, केन्द्रित कथा-साहित्य संभवतः हिंदी में अबतक नहीं रचा गया होगा।

ग्लोबल वार्मिंग साधारण रूप में तो इतनी समस्या है कि विश्व का तापमान बढ़ रहा है, मगर जब इसके अंदर जाकर कथा गढ़नी हो, तो इसके वैज्ञानिक पहलुओं को टटोलना आवश्यक हो जाता है। वैज्ञानिक तथ्यों को जाने-समझे बिना गढ़ी गयी कहानी निष्प्रभावी ही सिद्ध होगी। अतः रत्नेश्वर विभिन्न अंतर्कथाओं के माध्यम से आवश्यकतानुसार विषय की वैज्ञानिकता पर भी प्रकाश डालते चले हैं। उदाहरणार्थ पुस्तक का एक अंश उल्लेखनीय होगा, “…पृथ्वी पर नौ विशिष्ट सीमा रेखाओं को चिन्हित किया गया है, जिनमें हमें हस्तक्षेप से बचने की सलाह दी गयी थी। पर हमने तीन सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण पहले ही शुरू कर दिया है। वे हैं जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और भूमंडलीय नाइट्रोजन-चक्र।” इस प्रकार अनेक स्थलों पर, विविध प्रसगों के माध्यम से, विषय के वैज्ञानिक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि विषय को वैज्ञानिक तथ्यों का आधार मिल जाने से यह कथा प्रभावी बन पड़ी है।

कहानी दो प्रगतिशील हिन्दू-मुस्लिम परिवारों की है, जिनकी संतानों सुमोना और फरीद के मध्य प्रेम है, परन्तु धार्मिक रेखाओं के कारण संकोच भी है। इसी बीच अंटार्कटिका में पिघलती बर्फ और पर्वतीय खिसकाव से भयानक तूफ़ान का तांडव मचता है, जिसकी जद में बारिसोल शहर भी आ जाता है। इसके बाद शुरू होता है जीने के लिए संघर्ष और इसी संघर्ष के बीचोबीच कहानी भी बढ़ती जाती है। तूफ़ान की त्रासदी के शब्द-चित्र उकेरने में रत्नेश्वर काफी हद तक सफल रहे हैं। हालांकि कहानी का अंत थोड़ा अजीब और जल्दबाजी भरा लगता है; ऐसा लगता है जैसे लेखक ने अंत के अभाव में कहानी को बीच में ही रोक शेष सब कुछ पाठक के विवेक पर छोड़ दिया है। पाठकों के विवेक पर आश्रित इस प्रकार के अंत हिंदी साहित्य में बहुतायत मिलेंगे, परन्तु इस कथानक के लिए ऐसा अंत कोई बहुत सार्थक और प्रभावी नहीं कहा जा सकता।

ये तो बात हुई ग्लोबल वार्मिंग पर आधारित उपन्यास की मुख्य कथा की, अब इसके समानांतर चलती अन्य कहानियों पर आते हैं। फरीद और सुमोना की प्रेम कहानी के माध्यम से लेखक अक्सर हिन्दू-मुस्लिम समाज के मध्य समरसता और विद्वेष के पहलुओं को भी टटोलने लगते हैं। इस क्रम में कई जगह वे चीजों का बेहद सरलीकरण करते जाते हैं। अब जैसे कि फरीद जैसे सुशिक्षित युवा का कुरआन की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि उसने गीता भी पढ़ी है और सभी ग्रंथ बेहद करीब हैं, सम्बंधित विषय के सरलीकरण का ही एक उदाहरण है। सभी धर्मों, धर्मग्रंथों में समन्ता की यह बातें कहने-सुनने में ही अच्छी लगती हैं, वास्तविकता में उनका कोई ठोस आधार नहीं होता। अतः ऐसे सरलीकरण गंभीर कथानक को हल्का बनाते हैं। यदि ऐसे प्रसंगों से लेखक की मंशा सांप्रदायिक समरसता के समर्थन की है, तो इस दृष्टि से भी इन प्रसंगों का कोई अर्थ नहीं; क्योंकि निराधार और वायवीय धारणाओं पर आधारित सामाजिक समरसता स्थायी नहीं हो सकती। बहरहाल, हिन्दू-मुस्लिम विषय इस पुस्तक की एक अंतर्कथा के रूप में मौजूद है, अतः संभव है कि लेखक ने इसकी गहराई में जाकर उलझने से बचने के लिए भी ऐसे सरलीकरण का मार्ग अपना लिया हो।

भाषा की दृष्टि से यह पुस्तक अत्यंत प्रभावित करती है। हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आदि के शब्दों सहित बंगाली शब्दों का भी भरपूर और बेहद सहज प्रयोग हुआ है। बंगाली शब्दों के इस प्रयोग से भाषा में सहज ही एक ताजगी पैदा हो गयी है। इसके अलावा जैसा कि ऊपर वर्णित है कि यह समय से आगे की कहानी है, तो इसकी भाषा भी उसी तरह समय से कुछ आगे की है। इसमें वर्तमान समय से कुछ आगे के अत्याधुनिक वैज्ञानिक उपकरण अपने अनूठे और आकर्षक नामों के साथ मौजूद हैं, जैसे सूरजेटर (सूर्य द्वारा बिजली पैदा करने वाला यंत्र), छड़ीकैम (कैमरा लगी छड़ी), रिंगफोन (अंगूठी वाला फोन) इत्यादि। ये नाम-रचना निश्चित तौर पर प्रभावित करती है।

कुल मिलाकर ये उपन्यास ग्लोबल वार्मिग जैसे विषय की अपनी मुख्य कथा के साथ न्याय करने में सफल है। परन्तु, इसके सामानांतर चलती कथाएँ मुख्य कथा के भार में कुछ दब सी गयी लगती हैं। बावजूद इन सबके यह तथ्य है कि ग्लोबल वार्मिंग जैसे विषय की भावी विकरालता को आधार बना यह उपन्यास रचकर रत्नेश्वर सिंह ने न केवल हिंदी साहित्य को और समृद्ध किया है, बल्कि हिंदी के नवोदित लेखकों को भविष्य में वर्तमान से जुड़े कथाओं के सूत्र तलाशने के लिए मार्ग दिखाने का भी काम किया है।

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पीयूष द्विवेदी

08750960603

महात्मा गांधी की प्रिय पुस्तकों की सूची

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महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की वेबसाईट ‘हिंदी समय’ पर तेजी ईशा ने उन पुस्तकों की सूची प्रस्तुत की है जो महात्मा गाँधी पढ़ा करते थे. हमने सोचा अपने पाठकों से भी साझा कर लें- मॉडरेटर.

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Abott, Lyman: What Christianity Means To Me: A Spiritual Autobiography

Advice To A Mother

Joseph Addison: Essays

Rev. T.: James: Aesop’s Fables

AIi, Amir: History of The Saracens

Ali, Amir Syed: Spirit of Islam: A History of The Evolution and Ideals of Islam

Allison, Dr, T. R.: Hygienic Medicine

Allison, Dr: T. R.: Writings on Health and Hygiene

Andrew, Charles Freer: What I Owe To Christ

Andrews, Charles Freer: Zaka Ullah of Delhi

Annual Report of The Inspector of Education in Basutoland, 1909-19

Arab Wisdom: Wisdom of the East series

Arnold, Edwin: Indian Idylls

Arm of God

Arnold, Edwin: Japan via Land and Sea

Arnold, Edwin: Life Beyond Death

Arnold, Edwin: Light of Asia; Or The Great Renunciation

Arnold, Edwin: Seas and Lands

Arnold, Edwin: The Song Celestial Or Bhagavadgita

Bacon, Francis: Bacon’s Essays with Annotations

Bacon, Francis: Wisdom of The Ancients

Bell: Standard Elocutionist

Bellamy, Edward: Equality

Bentham, Jeremy: Theory of Utility

Besant, Annie Wood: How I Became A Theosophist

Bhgavad Gita

Bhagavan Das: Science of Peace

Bhatt, Nrisinhprasad Kalidas: Biography of The Prophet

Bhattacharya: Indian Castes

Bible Yew of The World Martyrs

Bible Story

Blavatsky, Helene Petrovna (Hahn-Hahn): The Key To Theosophy

Blount: New Crusade

Boehmen, Jacob: Super Sensual Life

Birla, G:D:: Birla’s Book on Currency

Brailsford, Henry Noel: Rebel India

Brierly, J.: Ourselves and the Universe

Broom: Common Law

Browning: Christmas Eve

Buck, Pearl Sydenstricker: The Chinese Children Next Door

Buck, Pearl Sydenstricker: Good Earth

Buckle, Henry Thomas: History of Civilization in Europe

Buhler, George: The Laws of Manu

Bunyan, John: Pilgrim’s Progress

Bureau, Paul: Towards Moral Bankruptcy

Burnes, Delisle Berne: Democracy

Butler, Joseph: Bishop of Durham : Analogy of Religion Natural and Revealed to the Constitution and Course of Nature

Calthrop, M. M.C.: Crusade

Cambridge History of Scotland

Candle of Vision

Carlyle, Thomas: French Revolution: A History

Carlyle, Thomas: Life of Burns

Carlyle, Thomas: Life of Johnson

Carlyle, Thomas: Life of Scott

Carlyle, Thomas: Lives

Carlyle, Thomas: On Heroes, Hero Worship and The Heroic in History

Carlyle, Thomas: Past and Present Carnegie, Andrew: Round The World

Carpenter, Edward: Civilization : Its Cause and Cure

From Adams Peak To Elephanta

Carus, Paul: Gospel of Buddha

Chakravarti, Atulananda: Hindus and Muslims of India

Chatterjee, Ramananda: The Golden Book of Tagore

Childbirth and Obstetrics

Christianity in Practice

The Coming Struggle For Power

Constipation and Our Civilization

Coomaraswamy, Ananda Kentish: Essays in National Education

Coomaraswamy, Ananda Kentish: Essays in National Idealism

Cox, George W: Crusades

A Word To Gandhi: The Lesson of Ireland

Cunningham, J. D.: History of The Sikhs’ From The Origin of The Nation To The Battles of The Sutlej

Dadachanji: Zend-Avesta

DeFoe, Daniel: Robinson Crusoe

Dickens, Charles: A Tale of Two Cities

Dickinson, Goldsworthy Lowes: Letters From John Chinaman

Digby, William: Prosperous British India: A Revelation From Official Records

Doke, Joseph John: The Secret City

Dr Carton’s Thesis on Consumption

Drummond, Henry: The Greatest Thing in The World

Drummond, Henry: Natural Law in The Spiritual World

Durant, Will: Case For India

Dutt, Romesh Chunder: Economic History of India Under Early British Rule

Dwivedi, M: N: Rajyoga

Eddy, Mrs: Mrs: Eddy’s Works (Of Christian Science)

Edward: Real Property

Essence of The Koran

Farrar, Rev: Fredric William: Seekers After God

Finot: Race Prejudice

Food Remedies

Galileo

Geddes, Sir Patrick: Cities in Evolution: An Introduction To The Town Planning Movement and To The Study of Civics

Ghose, Aurobindo: Eight Upanishads

Ghose, Aurobindo: Gita: With Text, Translation and Notes

Gibbon, Edward: Decline and Fall of The Roman Empire

Goethe, Johann Wolfgang Von: Faust

Gokhale, Gopal Krishna: Speeches of Gopal Krishna Gokhale

Gospel and The Plaugh

Govindacharya, Alkondaville: Life of Ramanuja

Guizot: European Civilization

Haeckel, Ernst: Evolution of Man (A Popular Scientific Study)

Haribhadra, Suri: Shaddharshana Samuchchaya Granth

Hassan: Saints of lslam

Hayes: Book of The Cow

Hayes, Will: Essence of Hinduism

Hayes, Will: Indian Bibles

Heath: Astronomy

Henry (A Police Officer): Finger Impressions

Henry, Sir: Sir Henry’s Book on Castes

Hoare, Samuel: The Fourth Seal

Holmes: Freedom and Growth

Homer: Iliad of Homer

Hopkins, E. Washburn: Origin and Evolution of Religion

How to Launder

Hughes, Thomas: Tom Brown’s School Days; By An Old Boy

Hugo, Victor: Les Miserables

Hugo, Victor: Ninety Three

Hunter, William Wilson: History of British India

Hunter, William Wilson: Indian Empire: Its People, History and Products

Huxley, T:H:: On Education

Imam, Saheb: Biography of The Prophet

Irving, Washington: Life and Voyages of Christopher Colombus

Irving, Washington: Life of Mahomet and His Successors

Ishopanishad: Arvind’s Commentary

Iyer: Foreign Exchange

Jacolliot, M: Louis: Bible in India

Jaikrishna, Vyas: Panchikaran

Jain, Champakrai: Confluence of Religions

James: Our Hellenic Heritage

James, William: Varieties of Religious Experiences

Jamia: Kimiyagar

Jamia: Urdu PIays: Shareef Ladka and Kheti

Jeans, James Hopwood: Mysterious Universe

Just, Adolf: Return To Nature

Kabir : Kabir’s Songs

Kaye, John William and George Bruce Malleson: Kaye’s and Malleson’s History of The Indian Mutiny: 1857-1858

Keay: Hindu Astronomy

Kharas: Astronomy

Kharas: Swadhynya Samhita

Khayyam, Omar: Rubajyat of Omar Khayyam

Kidd, Benjamin: Social Evolution

Kingsford, Anna and Edward Maitland: The Bible’s Own Account of Itself

Kingsford, Anna and Edward Maitland: Clothed With The Sun

Kingsford, Anna and Edward Maitland: Perfect Way in Diet: The Finding of Christ

Kingsford, Anna and Edward Maitland: Story of The New Gospel of Interpretation

Kingsley: Eastward Ho

Kingsley: Westward Ho

Kingsley: Money

Kipling, Rudyard: Barrack-Room Ballads

Kipling, Rudyard: Jungle Book

Kiritkar, Vasudev: Studies in Vedanta

Kuhne, Dr.: of Leipzig: Hydrotherapy

Kumarappa, Joseph Cornelius: Survey of Matar Taluka

Lane, Edward William: Arabian Nights

Lansbury’s Life

Lavator: Physiognomy

Leadbeater, Charles Webster: Writings

Lecky, William Edward Hartpole: History of European Morals From Augustus To Charlemagne

Life of John Howard

Life of Tolstoy

Lin-V-Tang: Lin-U-Tang’s Book

Llewellyn, Richard: How Green Was My Valley

Locaire: Astronomy

Lodge, Oliver: Modern Problems

Lucian: Trips To The Moon

Macaulay, Thomas B.: Lays of Ancient Rome

Macauliffe, Max Arthur: Sikh Religion: Its Gurus, Sacred Writings and Authors

Macdonald, George: Cibble

MacDonald, R: Travelolgue

Madan: Fasting

Maeterlinck, Maurice: Magic of The Stars

Maine, Henry James Sumner: Village Communities in The East and West

Maitland, Edward: New Interpretation of The Bible

Mander: Astronomy Without A Telescope

Manu: Manusmriti

Marx, Karl: Capital: A Critical Analysis of Capitalist Production

Masani: Conference of The Birds

Masani, Rustom Pestonji: Religion of The Good Life: Zoroastrianism

The Master and His Teachings

Mayne, John Dawson: Civil Procedure Code

Mayne, John Dawson: Treatise on Hindu Law and Usage

Mayo, Katherine: Mother India

Mazzini, Giuseppe: The Duties of Man and Other Essays

Mehta, J. P.: Vernaculars As Media of Instruction in Indian Schools and Colleges

Milton, John: Lycidas: The Tradition and The Poem

Modi, P. N.: Bhagavadgita: A Fresh Approach

Morley, John Morley: Life of William Ewart Gladstone

Morley, John: On Compromise

Morley, John Viscount: Recollections

Motley, John Lothrop: Rise of The Dutch Republic: A History

Moulton: Early Zoroastrianism

Muller, Friedrich Max: India: What Can It Teach Us?

Muller, Friedrich Max: Upanishads

Musings of St: Theresa

Muller, Friedrich Max: Upanishads

Musings of St. Theresa

Naoroji, Dadabhai: Admission of Educated Natives Into The Indian Civil Service

Naoroji, Dadabhai: England’s Duty To India

Financial Administration of India

Poverty and Un-British Rule in India

Natesan, Ganapati Agraharam: What India Wants: Autonomy Within The Empire

Natural History of Birds

Nehru, Jawaharlal: Glimpses of World History

Newcome: Astronomy

Nicholson: Mystics of Islam

Nivedita: Cradle Tales of Hinduism

Nordau, Max: Paradoxes of Civilization

Page , Kirby: War: Its Causes, Consequences and Cure

Parker, Dr: Commentaries

Patanjali: Yogasutras of Patanjali

Patel, Narasinhbhai Ishwarbhai: Letters of Narasinhbhai

Persian, Mystics: Wisdom Of The East Series

Pherwani, Shivram: Social Efficiency

Philo Christus: Pro Christo Ht Ecclesia

Pierson, Arthur Tappan: Many Infallible Proofs: The Evidences of Christianity Or The Written and Living Word of God

Plato: Defense and Death of Socrates

Plato: Dialogues of Plato

Pope, George Uglow: First Lessons in Tamil

Prophet’s Message To The West

Ramanathan: Speech on Khadi

Ranade, Mahadeo Govind and R T: Telang: Rise of The Maratha Power and Other Essays and Gleanings From Maratha Chronicles

Report of The Committee on Co-operation in India: 1917

Reports of Herschel and Other Committees

Rhys Davids, Thomas William: Lectures on Buddhism

Rolland, Romain: Life of Ramakrishna

Rolland, Romain: Life of Vivekananda and The Universal Gospel

Rosebery: The Life of Pitt

Rosicrucian Mysteries

Rothenstein: Ruin of Egypt

Ruskin, John: Crown of Wild Olives: Four Lectures on Industry and War

Ruskin, John: Fors Clavilgera Letters To The Workmen and Labourers of Great Britain

Ruskin, John: Joy For Ever and Its Price in The Market

Ruskin, John: Sesame and Lilies : Three Lectures

Ruskin, John: St: George’s Guild

Ruskin, John: Unto This Last: Four Essays on The First Principles of Political Economy

Saadi, Shaikh: Gulistan Or Rose Garden

Saadi, Shaikh: The Way of Zoraster

Saheb, Imam: Life of Nabi Saheb (Sirat-un-Nabi)

Salmin, Al Haj: Imam Hussain

Salmin, Al Haj: Khalifa Ally

Salt, Henry Stephens: A Plea For Vegetarianism and Other Essays

Salter, WiIliam MacIntyre: Ethical Religion

Salvemini, Gaetano: Mussolini

Sarkar, Jadunath: Shivaji and His Times

Schopenhaaver: Upanishads

Second and Third Urdu Reade

Secret Medicines

Seely, John Robert: Expansion of England

Seen and Heard in A Punjab Village

Shah, K. T.: Federal Finance

Shah, K. T.: Indian Currency and Exchange Banking

Shakespeare, William: Richard The Third

Shankh Ane Kodi

Shanna, Abhayadev: Vaidik Vinaya

Shaw, George Bernard: Man and Superman: A Comedy and A Philosophy

Shelley, Percy Bysshe: Shelley’s Works

Shibli, Maulana: Life of The Prophet

Shibli, Maulana: Sirat-On-Nabi

Shriman Narayan, Agarwal: Gandhian Constitution For Free India

Sinclair, Upton: Wet Parade

Sir Jean: Astronomy

Six Systems of Hindu Philosophy

Slocomb’s Book

Snell: Equity

Socrates: Socrates’ Works

Sohravorthy, Abdulla: Sayings of Mahomed

Sound of Heaven

Spencer, Herbert: The Principles of Sociology

St. Paul in Greece

Steps To Christianity

Stevenson, Robert Louis: Strange Case of Or Jekyll and Mr. Hyde. The Merry Men and Other Tales and Fables

Stevenson, Robert Louis: Virginbus Puerisque and Other Papers

Stories From The History of Rome

Swift, Jonathan: Guilliver’s Travels

Tagore, Rabindranath: Golden Book of Tagore

Tagore, Rabindranath: Sadhana: The Realization of Life

Taylor: Gujarati Grammar

Taylor, Thomas: Fallacy of Speed

Tennyson, Alfred: The Poems of Alfred Lord Tennyson

Text Book of Indian History

Thackeray, William Makepeace: Vanity Fair- A Novel Without A Hero

Thadani: Thadani’s Poem

Thakur: Indian Administration

Theology in English Poets

Thompson, Edward W: Other Side of The Medal

Thompson, Francis: Hound of Heaven

Thoreau, Henry David: Life Without Principle

Thoreau, Henry David: On The Duty of Civil Disobedience

Thoreau, Henry David: Walden and Civil Disobedience

Tilak, Bal Gangadhar: Hindu Philosophy of Life, Ethics and Religion, Omtat-sat Srimad Bhagavadgita Rahasya Or Karma-Yoga Shastra

Tilak, Bal Gangadhar: Orion Or Researches Into The Antiquity of The Vedas

Tolstoy, Countess: Defense

Tolstoy, Leo Nikolaevich: Complete Works of Count Tolstoy

Tolstoy, Leo Nikolaevich: Essays and Letters

Tolstoy, Leo Nikolaevich: The First Step

Tolstoy, Leo Nikolaevich: The Gospel in Brief

Tolstoy, Leo Nikolaevich: How Shall We Escape

Tolstoy, Leo Nikolaevich: Ivan The Fool

Tolstoy, Leo Nikolaevich: The Kingdom of God Is Within You

Tolstoy, Leo Nikolaevich: Letter To A Hindoo

Tolstoy, Leo Nikolaevich: Letters To Russian Liberals

Tolstoy, Leo Nikolaevich: My Confession

Tolstoy, Leo Nikolaevich: Relation of The Sexes

Tolstoy, Leo Nikolaevich: Slavery of Our Times

Tolstoy, Leo Nikolaevich: What I Believe

Tolstoy, Leo Nikolaevich: What Is Art

Tolstoy, Leo Nikolaevich: What Shall We Do Then

Tolstoy, Leo Nikolaevich: What To Do

Trine: My Philosophy and Religion

Vegetarian Messenger

Verne, Jules: Dropped From The Clouds

Vivekananda, Swami: Raja Yoga Or Conquering The Internal Nature

Wadia, Ardaser Sorabjee N: Message of Christ

Wadia, Ardaser Sorabjee N: Message of Mahomed

Wadia, Prof: Southern Cross

The Way of The Buddha

Way of The Cross

The Way To Be in Life

Webb, Alfred: Alfred Webb’s Collection on Indian Civilization

Wells, Herbert George: The Outline of History: Being A Plain History of Life and Mankind

What War Means?

White and Tudor: Leading Cases in Equity

Wilberforce: Five Empires

Wilde, Oscar: Complete Works of Oscar Wilde

Williams, Howard: Ethics of Diet

William, Joshua: Principles of The Law of Real Property

Woodroffe, John George: Shakti and Shakta: Essays and Addresses on The Shakta Tantrashastra

Wordsworth, William: Poems

Yogavasishtha: Mumukshu Prakaran

Young Crusader

Zarathustra: Sayings of Zarathustra

पंचवटी : मैथिलीशरण गुप्त

साकेत : मैथिलीशरण गुप्त

स्वाध्याय संहिता : वैदिक मुनि हरिप्रसाद

वेदांत : राजन अय्यर

पंचीकरण : व्यास

कुरान

रामायण : लेडी रमानाथ

मनुस्मृति : मनु

इस्लाम का नीतिशास्त्र : मिर्जा

रामचर्चा : प्रेमचंद

बुद्ध और महावीर : किशोरीलाल मशरूवाला

गाँधी विचार दोहन : किशोरीलाल मशरूवाला

समर्पण : किशोरीलाल मशरूवाला

धर्म विचार

(स्रोत : मणि भवन, गाँधी संग्रहालय

सुरेन्द्र मोहन पाठक और ‘न बैरी न कोई बेगाना’

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हिंदी क्राइम फिक्शन के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा ‘न बैरी न कोई बेगाना’ का लोकार्पण जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हुआ. इसका प्रकाशन वेस्टलैंड ने किया है. अब पाठक जी के पाठकों के लिए ख़ुशी की बात यह है कि 16 फ़रवरी से यह आत्मकथा पाठक जी के पाठकों के लिए बुकस्टोर्स में उपलब्ध हो जाएगी- मॉडरेटर

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भारतीय लोकप्रिय कथा साहित्य हमेशा से मुख्यधारा के लेखन और प्रकाशन से अलग स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में रहा है। इसके पाठकों ने भी अपना अलग स्थान बना रखा था। मगर, पचास के दशक में उर्दू लेखक इब्ने सफ़ी की अपराध कथा सीरीज़ जासूसी दुनिया और इमरान सीरीज़ ने सबके दिमाग़ों पर घर कर लिया था। यहां तक कि,  पाकिस्तान चले जाने के बाद भी इब्ने सफ़ी भारत में प्रकाशित होते रहे थे। उनके बाद की पीढ़ी के आकांक्षी लेखक उनके लेखन से अत्यंत प्रभावित थे। उनमें से ही एक थे किशोरवय के सुरेंद्र मोहन पाठक जो जेब में सफ़ी के उपन्यास लिए स्कूल से पहले, बीच में और बाद में दिल्ली के जामा मस्जिद क्षेत्र की गलियों में मंडराते रहते थे। तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि वो भारत के सबसे ज़्यादा सफल अपराध लेखक बनेंगे।

पाठक 58 साल से निरंतर लिखते आ रहे हैं, और इस लंबी एवं सफल पारी में, उनके प्रशंसकों की तादाद और उन्हें मिली लोकप्रियता इस बात के सबूत हैं कि पाठक बेहतरीन कथाकार हैं। और इसीलिए अक्सर उन्हें अपराध लेखन का बादशाह कहा जाता है। एसएमपी, जैसा कि हम उन्हें जानते हैं, इस मायने में अनूठे हैं कि वे अपने नए उपन्यासों की भूमिका में अपने प्रशंसकों से प्राप्त फ़ीडबैक पर चर्चा करते हैं, वादा करते हैं कि अगली बार बेहतर लिखेंगे – और अपना वादा पूरा करते हैं।

अब हम पेश करते हैं पाठक के अपने जीवन की बहुप्रतीक्षित कहानी, उनकी 298वीं पुस्तक, उनकी अपनी ज़बानी। उनका लेखन कैरियर, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज में अपनी पूर्णकालिक नौकरी के साथ-साथ 1960 के दशक के आसपास आरंभ हुआ था। उनकी पहली कहानी सत्तावन साल पुराना आदमी उस समय की एक अत्यंत लोकप्रिय पत्रिका मनोहर कहानियां में प्रकाशित हुई थी। उनका पहला उपन्यास पुराने गुनाह नए गुनाहगार 1963 में एक अन्य बहुत पढ़ी जाने वाली पत्रिका नीलम जासूस में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद, उन्होंने उपन्यासों की श्रृंखला आरंभ की जिसका हीरो एक जासूसी पत्रकार सुनील चक्रवर्ती था; सुनील सीरीज़ 121 पुस्तकों तक चली। पाठक ने अपनी दूसरी सीरीज़, सुधीर सीरीज़, के लिए एक अन्य पॉपुलर हीरो गढ़ा, प्राइवेट डिटेक्टिव सुधीर कोहली। जीत सीरीज़ में एक चाभी बनाने वाला है जो दिल टूटने पर जुर्म की दुनिया में आ जाता है। मगर पाठक के सबसे पसंदीदा उपन्यास विमल सीरीज़ के रहे जिनका हीरो सरदार सुरेंद्र सिंह सोहल एक ज़मीर वाला ग़ुंडा है।

1977 में प्रकाशित उनका उपन्यास पैंसठ लाख की डकैती ब्लॉकबस्टर था जिसकी आज तक 2,50,0000 के लगभग प्रतियां बिक चुकी हैं। पाठक के उपन्यास कोलाबा कॉन्सपिरेसी को 2014 में Amazon.in पर सबसे ज़्यादा लोकप्रिय पुस्तक चुना गया था। उनका नवीनतम उपन्यास हेरा-फेरी  नवंबर 2017 के नीलसेन हिंदी चार्ट में शीर्ष पर था। उनकी पुस्तकें लाखों की तादाद में बिकी हैं, और पूरे हिंदी प्रदेश में उनके प्रशंसकों की भारी तादाद है।

चिनार के झड़ते पत्ते और कोरिया की रानी री

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प्रवीण झा नौर्वे में रेडियोलोजिस्ट हैं. शायद ही कोई ऐसा विषय है जिसके ऊपर वे न लिखते हों. इस बार जानकी पुल पर बड़े दिनों बाद लौटे हैं. एक अनूठे गद्य के साथ- मॉडरेटर

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राजा की गद्दी। अनुवाद यही ठीक रहेगा। एक बहुमंजिली इमारत की इक्कीसवीं मंजिल का वो कोना जहाँ खड़े होकर उटोया का द्वीप दिखता है। इसी उटोया द्वीप पर एक श्वेत चरमपंथी ने कभी साठ-सत्तर लोगों को शीतल-रक्त मृत्यु दे दी थी।

शब्दानुवाद की यही समस्या है। ‘हॉर्सेस-माउथ’ को कोई तुरंग-मुख कह गए, ‘कोल्ड-ब्लडेड’ को मुझे शीतल-रक्त कहना पड़ रहा है। और होटल की ‘किंग्स सीट’ को राजा की गद्दी। उस दिन राजा की गद्दी पर कोरिया की रानी बैठी थीं। कितना सुंदर नाम था- री। न तिलोत्तमा, न पद्मावती, बस री। यह जरूर अयोध्या की रानी सुरीरत्ना की वंशज होंगीं। रत्न और सुर खत्म हो गया, बस ‘री’ रह गया, और मध्यमा और तर्जनी के बीच विराजमान सिगरेट।

मैं री के करीब ही खड़ा द्वीप का अवलोकन कर रहा था। जब से विश्व में समाजवाद आया, रानी के समीप अब कोई भी टॉम, डिक या हैरी खड़ा हो सकता है। हालांकि मैं इन तीनों महानुभावों से भिन्न था। मैं उस सामंतवादी मिट्टी का बना हूँ, जहाँ स्त्री का द्विचर रूप है। स्त्री पूज्य है वा त्याज्य। स्त्री का और कोई स्वरूप नहीं। मैनें कई बार चिनार के पतझड़ी शृंगार से ध्यान हटाकर इस युवती को देखा। और युवती से ध्यान हटाकर चिनार को। मुझे इस युवती में कभी रानी नजर आ रही है, कभी बौद्ध देवी थंका। यह त्याज्य तो नहीं, पूज्य ही हैं।

“आप भी इसी होटल में ठहरी हैं?”

“हाँ! और आप? जरूर ऑफ़ीस के ‘क्रिशमस टेबल’ में आए होंगें? वरना एशियाई क्यों यहाँ आने लगे?”

“एशियाई सुनकर अच्छा लगा। अमरीका में एशियाई अलग और इंडियन अलग कहते हैं।”

“वो तो नाक का फर्क है।” री कुर्सी पर झूलते हुए हँसने लगी।

“मैं समझा नहीं। हिंदुस्तानियों की नाक भला बाकी एशियाई की नाक से कब ऊँची हो गयी?”

“ये मैनें कब कहा कि आपकी नाक ऊँची है?”

“क्षमा कीजिएगा। मेरा मतलब नस्लीय टिप्पणी से नहीं था। हिंदुस्तान में नाक इज्जत से जुड़ी है।”

“नाक से। मूंछों से। पौरूष से। जाति से। धर्म से। धन से। हर चीज से जुड़ी है आप हिंदुस्तानियों की इज्जत। ऐसा सुना है।”

“हम इतने भी बुरे नहीं। पर आपके देश में इज्जत का तराजू क्या है?”

“पता नहीं। मेरी इज्जत तो अब एक नॉर्वेज़ियन के हवाले है।” री फिर से कुर्सी झूलाते बचकानी हँसी हँसने लगी।

री से उन दो दिनों में अच्छी मित्रता हो गयी। संभवत: उस होटल में उस पार के हम दो ही लोग थे। ‘उस पार’ मतलब यूरोप से बाहर की दुनिया के।

उसका पति भी उसी होटल में था, पर कभी मिला नहीं। हालांकि री जब राजा की गद्दी पर नहीं मिलती तो अपने कमरे में पति के साथ ही होती। पर यह बमुश्किल आध-एक घंटे का मामला होता। पुनश्च अपनी राजगद्दी पर वो विराजमान हो जाती, सिगरेट लिए। वो दो दिन गर कार्य-घंटों (वर्किंग हावर) के हिसाब से गिनें, तो मेरे साथ री ने अधिक बिताए। खुली हवा में, उटोया द्वीप किनारे। कोरिया की बातें करते। मैं भाषा के तार जोड़ता कि कैसे तमिल और कोरियन के बीच संबंघ है। और अयोध्या से संबंध। पर री को जैसे ख़ास रूचि न थी। हाँ! वो डॉक्टरी की बातें पूछती। अंतरंग बातें।

“क्या सत्तर वर्ष का पुरूष नपुंसक नहीं होता?”

“अब नपुंसक की उम्र-सीमा बढ़ गयी है। कई दवाएँ आ गयी हैं। पर क्यों पूछ रही हो?”

“क्योंकि मेरा पति सत्तर वर्ष का है!” और री फिर से झूल-झूल कर हंसने लगी।

मैं सन्न रह गया। यह बीस-तीस वर्ष की बाला भला सत्तर वर्षीय व्यक्ति के साथ इस ध्रुवीय देश में क्यों है? री के पति उनके शक्करी-पिता हैं। ओह! पुन: शब्दानुवाद हो गया। सुगर-डैडी। जब युवतियाँ अपनी ख़ास आर्थिक जरूरतों के लिए एक धनी वृद्ध से जुड़ जाती हैं। यह पश्चिम के मधुर संबंध हैं, जो पूरब में शनै:-शनै: आ ही जाएँगें। कुछ ज्ञान-हस्तांतरण उपरांत। हिंदुस्तान में भी शकरपिता-युग आएगा। पूंजीवाद, प्रगतिशीलता और नारी उन्मुक्ति जब चरम पर होगी, तब सुगर-देवों का भी अवतरण होगा। तब स्त्री द्विचर नहीं होगी। पूज्य और त्यज्य के मध्य त्रिशंकु भी होंगी। उन्मुक्त। शकर-पुत्री।

री का पति उसे आकाश में मिला। आधुनिक पुष्पक-विमान पर। जब कोरिया से जहाज हिमालय के ऊपर उड़ रहा था, तो उसने पहली बार री के शरीर पर हाथ रखा, और री मुक्त हो गयी। उसकी मुक्ति कब यौन-गुलामी बन गयी, यह री को स्मरण नहीं। री अब भी मुक्त है, किंतु जब ज़नाब अपनी पौरूष-उत्प्रेरक दवा फांक लेते हैं तो री दासी बन जाती है।

“इस दवा के साइड-इफेक्ट भी तो होते होंगें?” री ने सिगरेट की कश लेते प्रश्न किया।

“हाँ! होते हैं।”

“क्या इस से मृत्यु संभव है? हार्ट-अटैक?”

“संभव तो है। पर क्यों पूछ रही हो?”

“सोचती हूँ, ये बुड्ढा कब मरेगा?” अब वह उछल कर कुर्सी पर पद्मासन में बैठ गयी थी, और अनवरत हँस रही थी।

एक वृद्ध पति एक दिन काम-मुद्रा में मृत हो जाए? यह कैसी कामना है? री की हंसी अब अट्टहासी रूप ले रही थी। और इस भय से मेरा पौरूष कांप रहा था। मैं खिड़की से बाहर देखने लगा। कैसे इस उटोया-द्वीप पर घूम-घूम कर गोली मारी होगी? भाव-शून्य होकर हत्या की होगी, या री की तरह उन्मादित ठहाकों के साथ? कोल्ड-ब्लडेड मर्डर क्या सचमुच कोल्ड ही होता होगा?

“तुम्हारी समस्या क्या है री? अगर प्रेम नहीं तो त्याग क्यों नहीं देती?”

“प्रेम है। तभी तो नहीं त्यागती।”

“तो फिर ऐसी कामना?”

“हार्ट-अटैक की कामना भी कोई कामना है? यह तो स्वाभाविक मृत्यु है।”

“पर पति की मृत्यु की कामना तो है ही। यह मेरे लिए विचित्र है।”

“हम एशियाईयों का प्रेम जैसे वेश्या का प्रेम। उसकी बेटियाँ भी यही समझतीं हैं। उसके परिवार में मेरा यही अस्तित्व है।”

“तो बेटियों से मित्रता कर लो। उनको मातृत्व दो।”

“मातृत्व? वो क्या है? मेरी माँ तो मुझे स्मरण नहीं। वो कौन थीं, किस परिवार से थीं, कुछ ज्ञात नहीं। कहीं तुम्हारे देश से तो नहीं, वो महारानी?”  और री फिर हँसने लगी।

री की हँसी अब मेरे लिए असहनीयता की सीमा पर थी। मातृत्व-बोध से मुक्त भी नारी का अस्तित्व संभव है? कहाँ मैं द्विचर रूप में अटका पड़ा हूँ, और यहाँ एक मायावी युवती क्षण-क्षण अपने बहिमुखी अस्तित्व का परिचय दे रही है।

री की कोरियन माँ पता नहीं कौन थीं? पर पिता मानसिक विक्षिप्त थे। री उनकी सेवा करती। मृत्यु के समय तक साथ थी, पर पिता ने कभी री को पहचाना ही नहीं। वो अबोध थे। भाव-शून्य। कोल्ड। क्या यह ‘कोल्डत्व’ संक्रामक है? उनसे री को पसर गया, री से उसके पति को, और अब कहीं मुझ तक तो नहीं आ जाएगा? क्या यह रोग चुंबन से पसरता है या बस छूने से? उस शाम कहीं मेरे हाथ भी री तक तो नहीं पहुँचे, या मेरा पौरूष कांप गया था? क्या मेरी भारतीयता इस हिमालय पार की बाला के स्पर्श मात्र से समाप्त हो जाएगी? एक दिन मैं भी भाव-शून्य हो जाऊँगा? और तभी विश्व-नागरिकता मिलेगी? जब मैं ‘कोल्ड’ हो जाऊँगा?

चिनार के पत्ते दो दिन में कितने झड़ गए! लगता है रात तूफ़ान आया था।

सुबह अखबार में पढ़ा कि उटोया के उस हत्यारे ने अर्जी दी कि जेल का विडियो-गेम ‘प्ले-स्टेशन’ का नया संस्करण उपलब्ध कराया जाए। नए संस्करण में कुछ और वीभत्स खेल आए हैं। सरकार ने मानवाधिकार की रक्षा के लिए उसकी अर्जी मान ली है।

सुरेन्द्र मोहन पाठक और उनके पाठकों की दुनिया: कुछ अनछुए पहलू

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सुरेन्द्र मोहन पाठक के आत्मकथा का पहला खंड ‘न बैरी न कोई बेगाना’ बाजार में आने वाला है. उनके पाठकों में बहुत उत्साह है. यह बात शायद लोगों को उतना पता न हो कि पाठक जी अकेले ऐसे लेखक हैं जिनका फाइन क्लब है. जिनके प्रशंसक निस्वार्थ भाव से उनके किताबों का जश्न मनाते हैं. देश के किसी भी हिस्से में पाठक जी का कोई भी आयोजन हो उसमें अपने आप पहुँचते हैं. पाठक जी से पाठकों के प्यार से जुड़े इन पहलुओं को लेकर मैंने विशी सिन्हा से बात की, जो भारत में अपराध कथाओं के सबसे गंभीर पाठकों में एक हैं और पाठक जी के एक फैन क्लब को संचालित भी करते हैं. पढ़िए उनसे एक दिलचस्प बातचीत और सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के पाठकों की दुनिया की एक अंदरूनी झलक- प्रभात रंजन

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  1. किसी जमाने में फिल्म अभिनेताओं के फैन क्लब हुआ करते थे लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक फैन क्लब की शुरुआत कैसे हुई?

उत्तर: साथी शरद श्रीवास्तव ने 27 जुलाई 2006 को जब ऑरकुट पर पाठक जी के नाम से कम्युनिटी बनाई थी, तो उन्हें रत्ती भर भी इमकान नहीं था कि वे एक इंक़लाब की बुनियाद रख रहे हैं. शुरू-शुरू में इन्टरनेट पर भारतीयों की सक्रियता वैसे ही बहुत कम थी, तिस पर पाठक जी के प्रशंसक तो बिखरे पड़े थे. एक-एक प्रशंसक को ढूंढ-ढूंढ कर ऑरकुट कम्युनिटी में शामिल होने के लिए मनाना पड़ता था. धीरे-धीरे पाठक जी के प्रशंसक जुड़ते गए और 2010 तक आते-आते प्रशंसकों संख्या 300 पार कर गयी. बाद में जब ऑरकुट की लोकप्रियता में गिरावट आई और फेसबुक-ट्विटर सोशल मीडिया का भविष्य प्रतीत होने लगा तो 27 जून 2011 को फेसबुक पर ऑरकुट फैन-क्लब के ही सदस्यों – शरद श्रीवास्तव, पवन शर्मा और युअर्स ट्रूली – द्वारा फेसबुक ग्रुप बनाया गया. शुरुआत में ऑरकुट पर सक्रिय सदस्यों की ही मनुहार कर फेसबुक ग्रुप में शामिल होने को राज़ी किया गया. कालान्तर में सदस्यों का आना स्वतः स्फूर्त रूप से शुरू हो गया. अब तो ये हालात हैं कि प्रशंसकों के ग्रुप ज्वाइन करने की ढेरों रिक्वेस्ट पेंडिंग रहती है और ग्रुप एडमिन को वक़्त नहीं मिल पाता कि रिक्वेस्ट की जेनुइननेस चेक कर अप्रूवल दी जाय.

  1. फैन क्लब क्या क्या काम करती है?

उत्तर: प्रश्न छोटा है पर उत्तर नहीं. शुरूआती दिनों में जब फ्लिपकार्ट/अमेजॉन जैसे ई-कॉमर्स पोर्टल्स नहीं थे फैन क्लब के जरिये ही पाठक जी की नई किताब की मार्किट में आमद की सूचना मिला करती थी, उन बुकस्टोर्स की जानकारी मिल जाती थी जहां पाठक जी की नई किताब उपलब्ध हो जाती थी.

फिर नई-पुरानी किताबों के रिव्यू और उनपर चर्चा, किरदारों पर चर्चा आदि से प्रशंसकों को धीरे-धीरे ये अहसास हुआ कि उन जैसे और भी लोग हैं जो लुगदी कागज़ पर छपने वाली पाठक जी की किताबों के दीवाने हैं.

ऑरकुट कम्युनिटी के जरिये ही पाठक जी के उपन्यासों को अंग्रेजी में अनुवादित किये जाने का ख़याल परवान चढ़ सका. ऑरकुट कम्युनिटी के एक सदस्य सुदर्शन पुरोहित – जो बैंगलोर स्थित एक आईटी कंपनी में कार्यरत थे और पाठक जी की किताब के अंग्रेजी अनुवाद के इच्छुक थे – को शरद श्रीवास्तव और रवि श्रीवास्तव द्वारा मार्गदर्शन मिला; फलस्वरुप चेन्नई स्थित प्रकाशन – ब्लाफ्ट पब्लिकेशन  – से पाठक जी के दो उपन्यासों – “65 लाख की डकैती” और “दिन दहाड़े डकैती” – के अंग्रेजी अनुवाद क्रमशः “65 Lakh Heist” और “Daylight Robbery” छपकर आये. ये 2009-2010 की बात है. वास्तव में तब तक पौने तीन सौ उपन्यास लिख चुकने के बाद भी पाठक जी को मीडिया ने कभी कोई तवज्जो नहीं दी थी, लेकिन इन दो उपन्यासों के अंग्रेजी में प्रकाशित होते ही बदलाव की शुरुआत हो गयी. अंग्रेजी के हर अख़बार में खबर आई, इंटरव्यू प्रकाशित हुए. पत्रिका तहलका ने भी स्टोरी की, लेकिन सबसे बड़ी बात ये हुई कि टाइम पत्रिका ने “65 Lakh Heist” को पढ़े जाने की संस्तुति की. कई देशी-विदेशी ब्लॉग्स ने भी इन किताबों पर और पाठक जी  पर लिखा.

लेकिन पाठक जी की पुरानी किताबों की उपलब्धता अत्यंत सीमित थी, जबकि प्रशंसक उनके उपन्यास ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ना चाहते थे. पॉकेट बुक्स के दिन-प्रतिदिन सिकुड़ते जा रहे कारोबार के चलते प्रकाशक री-प्रिंट छापने को राज़ी नहीं थे. ऐसे में कुछ प्रशंसकों द्वारा ही ये विचार पोषित हुआ कि पाठक जी के अनुपलब्ध उपन्यासों की स्कैन कर सुरक्षित किया जाय. अब भले ही स्कैन करने के पीछे मंशा दूसरे प्रशंसकों के लिए उपन्यास की उपलब्धता की सदिच्छा ही रही हो, स्कैनिंग था तो विधि-विरुद्ध ही – जिससे लेखक रॉयल्टी से भी वंचित होता और कॉपीराइट का भी उल्लंघन होता. बौद्धिक संपदा क़ानून विशेषज्ञ होने के नाते ये जिम्मेदारी मैंने उठाई और चौतरफा विरोध के बावजूद साथी शरद श्रीवास्तव के सहयोग से स्कैन/पाईरेटिड बुक्स के खिलाफ एक आमराय कायम की गयी जिसे पिछले आठ वर्षों से फैन क्लब सक्रियता से निभाता आ रहा है. यही नहीं, यदि किसी वेबसाइट/ब्लॉग पर पाठक जी  की कोई स्कैन/पाईरेटिड किताब उपलब्ध कराई जाती है तो तुरंत कानूनी कार्यवाही कर उसे हटवाया जाता है. अभी बीते सप्ताह में ही अहमदाबाद निवासी प्रशंसक साथी विद्याधर याग्निक की सूचना पर एक वेबसाइट से 19 ऐसी पाईरेटिड किताबों को डिलीट करवाया गया है.

स्कैन/पीडीएफ़ नहीं तो फिर कैसे प्रशंसक पाठक जी की अनुपलब्ध किताबें पढ़ें. इस दिशा में 2012 में एक कम्युनिटी लाइब्रेरी शुरू की गयी – एसएमपी लाइब्रेरी, जिसमें पाँच किताबें डोनेट कर कोई भी सदस्य बन सकता था और एक बार में अधिकतम चार किताबें पढने के लिए मंगवा सकता था – 21 दिनों के लिये – बस उसे दोनों तरफ के कूरियर का खर्च वहन करना होता था. प्रशंसकों में एसएमपी लाइब्रेरी खासी लोकप्रिय हुई. शुरू में साथी शरद श्रीवास्तव और बाद में साथी राजीव रोशन द्वारा ये एसएमपी लाइब्रेरी संचालित की गयी. लेकिन ये कोई स्थायी समाधान नहीं था. एक निश्चित समय के बाद किताब लाइब्रेरी को वापस भेजनी पड़ती थी, जबकि प्रशंसक पाठक जी  की किताब सहेजकर रखना चाहते थे. फिर अधिकतर किताबें लुगदी कागज़ होने की वजह से ट्रांजिट और पढने के दौरान खराब होती जाती थीं.

वर्ष 2013 में ऑस्ट्रेलिया निवासी साथी सुधीर बड़क – जो ऑरकुट के दिनों से ही फैन क्लब के सदस्य रहे थे – ने पाठक जी  की किताबें को ई-बुक में कन्वर्ट करने का बीड़ा उठाया. तब किनडल हिंदी फॉण्ट सपोर्ट नहीं करता था (वास्तव में किनडल ने 2016 के दिसम्बर से हिंदी फॉण्ट सपोर्ट करना शुरू किया है) तो सुधीर बड़क ने किनडल की तरह ही एक प्लेटफार्म – कोबो – ढूँढा जो अनऑफिशियली हिंदी फॉण्ट सपोर्ट करता था. पर समस्या थी कि कैसे पाठक जी  की किताबें टाइप हों. ये काम भी खुद सुधीर जी ने ही शुरू किया – रोज़ ऑफिस से लौटकर वे अपने कम्प्यूटर के हवाले हो जाते और चार घंटे टाइप करते. बाद में उनके इस प्रयास में गिलहरी सदृश योगदान देने के लिए अन्य साथी – दिल्ली से शरद श्रीवास्तव, कुलभूषण चौहान, मुबारक अली, नवीन पाण्डेय, शैलेन्द्र सिंह, विशी सिन्हा, चंडीगढ़ से मुश्ताक अली, मनोज गर्ग जैसे प्रशंसक भी आ जुड़े, जो अपने व्यस्त महानगरीय जीवन और पारिवारिक जीवन से कुछ समय चुराकर इस काम में योगदान देने लगे. कुछ ही समय में पाठक जी की 35+ किताबें कोबो पर ई-बुक के रूप में उपलब्ध हो गयीं, जिसने न सिर्फ भारत में हिंदी ई-बुक्स के लिए राह खोल दी, वरन् पाठक जी के प्रशंसकों को भी एक विकल्प दिया – प्रशंसकों ने पाठक जी की ई-बुक्स में खासी रूचि दिखाई. इसी लोकप्रियता से प्रभावित हो न्यूज़हंट (अब डेलीहंट) ने नवम्बर 2013 में ई-बुक्स के क्षेत्र में पदार्पण करने से पूर्व पाठक जी की ई-बुक्स प्रकाशित करने का करार करना आवश्यक समझा. इस तरह से फैनक्लब ने पाठक जी के ई-बुक प्रचार-प्रसार में की-रोल प्ले किया.

पाठक जी की वेबसाइट को मेन्टेन करने का कार्य भी फैन क्लब के सदस्य ऑस्ट्रेलिया निवासी साथी सुधीर बड़क द्वारा ही किया जाता है.

दुनिया भर के पुस्तक प्रेमियों के लिए गुडरीड्स एक अच्छी रिफरेन्स साईट है, जहाँ पुस्तक प्रेमी पुस्तकों पर रिव्यू लिखते हैं और रेटिंग्स देते हैं. 2012 से ही मैं गुडरीड्स पर एक लाइब्रेरियन के तौर पर जुड़ा हूँ, तो उसी वक़्त से पाठक जी की सभी किताबों को गुडरीड्स पर भी लिस्ट कर दिया, ताकि गाफ़िल पुस्तक प्रेमी पाठक जी की किताबों के बारे में जान सकें. पाठक जी हिंदी के पहले लेखक रहे जिन्हें गुडरीड्स पर लिस्ट किया गया.

ऑरकुट के ही दिनों में फैन-मीट आयोजन का विचार आया और पहली फैन मीट में ही फेसबुक ग्रुप और फेसबुक पेज बनाने का निर्णय हुआ. फैन मीट में पाठक जी के कार्यों का प्रचार-प्रसार ही चर्चा का केंद्र हुआ करता है कि किस प्रकार से पाठक जी के लेखन को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया जाय. बीते वर्षों में अलग-अलग शहरों में पचास से ज्यादा फैन – मीट आयोजित हुई हैं और अब देशाटन भी फैन मीट का हिस्सा बन चुका है. दिल्ली के अलावा भाखरा-नांगल, लखनऊ, मसूरी – धनोल्टी, अमरकंटक, माउंट आबू, पंचकुला, चित्रकूट-खजुराहो और भोपाल जैसी जगहों पर फैन मीट आयोजित हो चुकी है.

पाठक जी से सम्बंधित किसी भी आयोजन में फैन क्लब बढ़-चढ़ कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता ही रहा है – टी-शर्ट, बैज और अन्य तरीकों से अपनी दमदार प्रेजेंस दर्ज कराता ही रहा है.

और इन सबसे इतर, फैन क्लब के सदस्य समय-समय पर लोकोपकार के कार्यों में भी शिरकत करते रहते हैं.

कम से कम दो सौ एसएमपियंस ने आजकल फेसबुक पर “न बैरी न कोई बेगाना” के कवर को अपनी प्रोफाइल पिक बना रखा है.ये फैनक्लब का अनूठा तरीका है अपने प्रिय लेखक की आत्मकथा का प्रचार करने का.

मैं खुद 2012 से आजतक हर पुस्तक मेले में पाठक जी के नाम/चित्र वाली टी-शर्ट पहने, उनका इश्तिहार बने घूमता रहा हूँ.

  1. आपकी जानकारी में किसी और लेखक का कोई फैन क्लब है?

उत्तर: पिछले दो-तीन वर्षों में पाठक जी के फैन क्लब से प्रेरणा लेकर इसी तर्ज पर कई एक फैन ग्रुप अस्तित्व में आये जरूर, पर ऊपर बताई उपलब्धियों सरीखी एक भी गतिविधि अंजाम दे सकें हों, ऐसा कम से कम मेरी जानकारी में नहीं है. हाँ, ऐसी कोई कोशिश होती है तो उसका जरूर स्वागत किया जाना चाहिए.

4. कितने सदस्य फैन क्लब से जुड़े हैं?

उत्तर: आज फेसबुक पर पाठक जी के दसियों ग्रुप हैं, इनमें से मकबूल ग्रुप तीन ही हैं जिनमे से प्रत्येक की सदस्य संख्या हजार से ऊपर है. फेसबुक के अलावा गुडरीड्स और व्हाट्सएप पर भी पाठक सर के नाम पर कई ग्रुप्स हैं. सदस्य संख्या का निश्चयात्मक अनुमान संभव नहीं है.

5. क्या पाठक जी को लेखन में फैन क्लब भी इनपुट देती है?

उत्तर: पाठक जी शायद इकलौते ऐसे लेखक होंगे जो इतनी व्यस्तता के बावजूद शुरू से लेकर आजतक अपनी फैन मेल को न सिर्फ खुद पढ़ते हैं बल्कि हर फैन-मेल का खुद जवाब भी देते हैं, भले ही पत्र में उनकी कृति को लानतें ही क्यों न भेजी गयी हो, अपशब्द ही क्यों न कहे गए हों. फैन – क्लब के भी कई सदस्य सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव से दशकों पहले से पाठक जी के साथ खतो-किताबत करते रहे हैं. अपने लेखकीय में भी पाठक जी पाठकों के पत्र, घनघोर आलोचना वाले भी पत्र शामिल करते रहे हैं. फैन क्लब अलग से अपने इनपुट्स नहीं देता, ये व्यक्तिगत स्तर पर ही होता है.पाठक जी का फैन क्लब से किस तरह से रिश्ता है?

6. वे अपने प्रशंसकों के साथ किस प्रकार सम्बन्ध बनाए रखते हैं?

उत्तर: आपके प्रश्न के उत्तर में मैं हाल ही में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत करने वाले प्रशंसकों के प्रति पाठक जी द्वारा उनके फेसबुक पेज पर पोस्ट किये गए आभार को ही कोट करना चाहूँगा, जो बानगी है इस बात की कि पाठक जी अपने प्रशंसकों को कितना मान देते हैं –

“मैं अपने उन तमाम पाठकों का दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ जिन्होंने दूरदराज़ जगहों (दिल्ली, भोपाल, इंदौर, धुले, बनारस, चंडीगढ़, लुधियाना, नया नांगल, अहमदाबाद वगैरह) से जयपुर पहुँच कर मेरी इवेंट में शिरकत की और न सिर्फ मेरी हौसलाअफ्ज़ाई की, यादगार रौनक भी लगाईं. मैं दिल से कहता हूँ कि आपलोगों के बिना मेरी कोई औकात नहीं है. मैं उम्मीद करता हूँ कि आप मेहरबानों की रहमत और रहनुमाई मुझे यूँ ही हमेशा हासिल होती रहेगी.”

7.आपकी आगे की योजनायें क्या हैं?

उत्तर: पाठक जी की आत्मकथा कई मामलों में अनूठी साबित होने जा रही है. मुझे तनिक भी आश्चर्य न होगा यदि आने वाले समय में इस आत्मकथा को हिंदी में अब तक लिखी गयी श्रेष्ठ आत्मकथाओं में शुमार किया जाय. लुगदी का लेबल चस्पां कर दुत्कार दिए गए अपराध साहित्य को जो कुछ भी थोड़ा-बहुत सम्मान मिल सका है, वो पाठक जी के सदके ही मिल सका है. मेरा मानना है जो लोग अपराध साहित्य को स्तरहीन समझ कर नकार देते हैं, वे भी जब पाठक जी की आत्मकथा का प्रथम भाग “न बैरी न कोई बेगाना” पढेंगे तो पाठक जी की भाषा की खूबसूरती से अछूते न रह सकेंगे. ये पाठक जी का अंदाजे-बयाँ है जो उन्हें अपराध साहित्य के दूसरे लेखकों से कहीं परे, एक अलग ही स्तर पर स्थापित करता है. फिलहाल हमारी योजना आत्मकथा को उन लोगों तक पहुँचाने की है जो अमूमन अपराध साहित्य के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं. एक बार पन्ने पलटने भर की देर है, पाठक जी की कलम में इतना जोर है कि आगे मुरीद खुद-ब-खुद बनते जाने हैं.


कोरियाई उपन्यास ‘द वेजेटेरियन’और अनुवाद को लेकर कुछ बातें

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कोरियन भाषा की लेखिका हान कांग को उनके उपन्यास ‘द वेजेटेरियन’ को प्रतिष्ठित मैन बुकर प्राइज मिला तो इस किताब की दुनिया भर में धूम मच गई. पहली बार हुआ था कि इस उपन्यास की अंग्रेजी अनुवादिका को भी लेखिका  के साथ पुरस्कार दिया गया. इस उपन्यास और इसके अनुवाद पर लिखा है कोरियन भाषा में जेएनयू से पीएचडी कर रही कुमारी रोहिणी ने- मॉडरेटर

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जब हम अनुवाद की बात करते हैं या किसी लेखन का अनुवाद करने की शुरुआत करते हैं तब एक सवाल हमारे सामने मुँह बाए खड़ा हो जाता है (कम से कम मेरे संदर्भ में ऐसा ही है क्योंकि मैं एक प्रोफेशनल अनुवादक नहीं हूँ), वह सवाल है “एक अनुवाद को किस हद तक उसके मूल लेखन की तरह होना चाहिए? दुनिया भर के विशेषज्ञों ने इस सवाल के कई जवाब दिए हैं लेकिन मैं यहाँ एक दो लोगों के उद्धरण से ही अपनी बात रखना चाहूंगी. अनुवाद की बात करते हुए व्लादिमीर नबोकोव (जो एक रुसी अमेरिकन साहित्यकार थे और कम से कम तीन भाषाओँ के ज्ञानी थे और जिसमें से दो भाषाओँ के लेखक थे) ने इस सवाल के जवाब में कहा था “एक फूहड़ और भद्दा शाब्दिक अनुवाद किसी बहुत अधिक सुंदर वक्तव्य या कथन से ज्यादा उपयोगी होता है”.वहीँ दूसरी तरफ अर्जेंटीना के कथाकार बोर्खेज मानते हैं एक अनुवादक को अनुवाद करते समय मूल लेखन से सौ प्रतिशत जुड़ा नहीं होना चाहिए, बल्कि उसको इसे बदलने और साथ ही बेहतर करने की कोशिश भी करनी चाहिए. बोर्खेज के अनुसार “अनुवाद सभ्यता का ज्यादा विकसित रूप है”. किसी भी अनुवाद को पढ़ते समय आप “लेखन के उत्कृष्ट और अधिक विकसित रूप को पढ़ते हैं. अनुवाद की भूमिका साहित्यिक जीवन में कितनी अधिक है इस बात को प्रमाण की ज़रूरत नहीं है. आज अनुवाद का क्षेत्र इस क़दर विकसित हो चुका है कि हमें सिर्फ़ अंग्रेज़ी ही नहीं बल्कि अन्य भाषाओं की किताबें (साहित्यिक, असहित्यिक) भी हिंदी तथा अंग्रेज़ी में उपलब्ध होने लगी हैं. शुरुआती दौर में पाठ्यक्रम की किताबों का अनुवाद चलन में आया, इसके बाद किसी भी भाषा की कालजयी कृतियों का अनुवाद हुआ और आज की स्थिति यह है कि अगर हम किताबों के बाज़ार का मुआयना करें तो उदाहरण स्वरूप बेस्ट सेलर साहित्यिक उपन्यासों से लेकर बाबा रामदेव के योग की किताबें भी हमें हिंदी और अंग्रेज़ी सहित अन्य भाषाओं में आसानी से उपलब्ध हैं.

आधुनिक अंतरराष्ट्रीय साहित्य और उसके अनुवाद की बात करें तो साल 2016 का वर्ष साहित्य और अनुवाद की दुनिया में एक बदलाव का साल कहा जा सकता है. इसका मुख्य कारण 2016 के मैन बुकर पुरस्कार की विजेता किताब “वेजेटेरियन” है. यह दक्षिण कोरियायी लेखिका हानकांग रचित एक उपन्यास है जिसका अंग्रेज़ी सहित कई अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. “प्लीज़ लुक आफ़्टर मॉम” (2008) के बाद यह दक्षिण कोरिया का यह दूसरा उपन्यास है जिसने  अमेरिका के साथ साथ ही दुनिया भर के अन्य देशों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा है.

पिछले दिनों “वेजेटेरियन” ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत धूम मचाई और अब भी चर्चा में है. इसका मुख्य कारण 2016 के मेन बुकर प्राइज की विजेता किताब  भर होना ही नहीं है बल्कि यह पहली ऐसी किताब है जिसे उसके मूल लेखन के साथ साथ ही उसके अनुवाद के लिए भी पुरस्कार दिया गया है. हम सब जानते हैं कि अनुवाद ने साहित्य की दुनिया को एक दूसरे से जोड़ते हुए उनके बीच की दूरी को बिलकुल कम कर दिया है. अनुवाद का योगदान लेखन की दुनिया में क्या और कितना है इस बात पर सालों से बहस होती आ रही है, बावजूद इसके साहित्य जगत ने कभी भी अनुवादक को लेखक के बराबर का दर्जा और सम्मान देने में कोताही ही बरती है. सदियों से चली आ रही इस बहस और सम्मान के इस खेल को 2016 के मेन बुकर प्राइज की घोषणा ने अल्पविराम दिया जब वेजेटेरियन की अनुवादक “डेबराह स्मिथ” को लेखिका हान कांग के साथ इस पुरस्कार से नवाजा गया. 28 वर्षीय स्मिथ पीएचडी की शोधार्थी हैं और जिन्होंने 6 साल पहले ही कोरियन भाषा की पढाई शुरू की थी. डेबराह के काम को अंग्रेजी भाषा की दुनिया में बहुत अधिक सम्मान मिला. लेकिन कुछ ही दिनों बाद कोरियन मिडिया ने इस किताब के मिस्ट्रान्स्लेशन की बात को लिखना शुरू कर दिया जिससे की इस किताब के पुरस्कृत होने की खबर धुंधली पड़ गई. हालाँकि यह बात भी सच है कि किताब की लेखिका हान ने इसका अनुवाद पढ़ा भी था और इसे अनुमति भी दी थी… स्मिथ ने तो बहुत अच्छा अनुवाद किया और किताब की मूल भाषा का तो कहना ही क्या है. हानकांग की पहली किताबों की तरह यह किताब भी अंत तक आपको खुद से बांधे रखती है और पढ़ने के बाद आपकी आत्मा को भीतर से झकझोरती है. चाहे आप वेजेटेरियन पढ़ें या हानकांग की दूसरी किताब “ह्यूमन फ़ैक्ट्स” हान आपको हर बार अपने लेखन से आश्चर्य में डाल देती हैं. वेजेटेरियन  को दुनिया भर के आलोचकों ने एक कल्पना आधारित कहानी कहा है. यह कहानी मानव जीवन के आत्म विनाश को केंद्र में रख कर लिखी गई है. एक ऐसा देश जहाँ आज भी आत्महत्या का प्रतिशत बहुत  अधिक है उस समाज में इस तरह की कहानी का होना और इसका लिखा जाना शायद हमें नयापन नहीं दे लेकिन इस तथ्य के बावजूद भी “वेजेटेरियन” कोरियाई समाज का एक नया रूप को लेकर सामने आता है. ऐसे तो इस कहानी में कई पात्र हैं लेकिन इसकी मूल कहानी एक ऐसे औरत की है जिसने अपना आगे का जीवन शाकाहारी बनकर जीने का फैसला लिया है, अब आप या हम कह सकते हैं कि इसमें क्या बड़ी बात है? तो समस्या या आश्चर्य उसके इस फैसले में नहीं बल्कि जिस देश की वह निवासी है फर्क उससे पड़ता है. एक ऐसा देश जिसके इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें अगर तो आज से आठ -दस  साल पहले “शाकाहार” शब्द उनके जीवन के शब्दकोष में भी नहीं था और वर्तमान में भी  स्थिति बहुत अधिक नहीं बदली है, फर्क सिर्फ इतना भर आया है कि वैश्वीकरण और अन्य ऐसे कारकों की वजह से इतिहास में “हर्मिट किंगडम” कहे जाने वाले इस देश (कोरिया ) के लोगों ने दुनिया के अन्य हिस्सों से जुड़ना, उन्हें जानना और समझना शुरू कर दिया है और साथ ही वे इसका महत्व भी समझते हैं . ऐसे किसी देश में किसी परिवार की मुख्य महिला (जिसे वुमन ऑफ दी हाउस कहेंगे) ने शाकाहारी होने का फैसला ले लिया हो वह इस परिवार उस औरत के लिए आत्मघाती निर्णय से कम नहीं माना जायेगा.

किस तरह एक पूरी तरह से मांसाहारी जीवन जीने वाली महिला ने अचानक ही रातोरात सहकारी होने का फैसला लिया और उसके इस फैसले से उसके परिवार के सदस्यों जिनमें उसका पति, उसके माता पिता और उसकी बहन तथा उसके पति का जीवन प्रभावित हुआ है, इसकी एक जीवंत कहानी है वेजेटेरियन. मुख्य विषय के अतिरिक्त हान ने और भी कई मुद्दों को इस लेखन में जगह दी है है , उदाहरण के लिए इस उपन्यास की मुख्य पात्र योंग-हे को ब्रा पहनना बिलकुल पसंद नहीं है और वह इसे नहीं पहनने के मौके और उपाय दोनों तलाशती रहती है. और उसकी यह बात उसके पति चेओंग को बहुत ही अजीब लगती है, अपनी शादी के कई साल गुजार लेने के बाद चेओंग को अपने पत्नी की इस बात का पता तब लगता है जब वह उसे एक दिन किसी पार्टी में बैठे देखता है और उसका ध्यान इस तरफ जाता है. यहाँ फिर से मैं आपका ध्यान इस तरफ खींचना चाहूंगी कि कोरियाई समाज बाहर से आपको कितना भी खुला और स्वछंद दिखे लेकिन इस समाज में भी औरतों की स्थिति आज से 20 साल पहले बहुत अच्छी नहीं थी और यह समाज भी कन्फूसियन विचारधारा के कारण औरतों को दूसरे दर्जे का प्राणी समझता था और आज भी पूरी तरह से इस सोच से मुक्त नहीं हुआ है.

ऐसे समाज से आई हुई किसी लेखिका का अपने समाज के किसी स्त्री को केंद्र में रखकर इस तरह का लेखन करना आसान नहीं है और इस किताब की लोकप्रियता को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि यह समाज का सामान्य वर्ग सही मायने में आधुनिकता को अपना रहा है.

इस किताब को मैंने अंग्रेज़ी के साथ साथ इसकी मूल भाषा में भी पढ़ा है. अंग्रेज़ी अनुवाद को पढ़ते हुए एक बार भी यह नहीं लगा कि यह कहानी अनुवाद की हुई है और यह मूल लेखन नहीं है. मेरे हिसाब से कोई भी अनुवाद इसी स्तर का होना चाहिए कि पढ़ते वक़्त वह आपको इसके मूल भाषा के लेखन की याद ना दिलाए

इस उपन्यास को पढ़ते हुए एक सबसे महत्वपूर्ण बात जो मुझे महसूस हुई वह यह कि डेबराह ने सिर्फ़ भाषा ही नहीं बल्कि संस्कृति और सभ्यता का ज्ञान भी उसी स्तर से हासिल किया है और कोरियाई समाज की उनकी समझ तरफ़ के क़ाबिल है.

मैंने किताब की समीक्षा नहीं की है, बस “वेजेटेरीयन” और डेबराह के हवाले से अनुवाद और उसकी कठिनाई और योगदान पर अपने विचार (आधे-अधूरे और अधकचरे) रख रही हूँ.

 

‘दूसरा इश्क’की पहली ग़ज़लें

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युवा शायर इरशाद खान सिकंदर के पहले इश्क का तो पता नहीं लेकिन उनका ‘दूसरा इश्क’ हाल में ही नुमाया हुआ है- ग़ज़ल संग्रह की शक्ल में. इसमें कोई शक नहीं कि वे नई नस्ल के सबसे नुमाइंदा शायरों में एक हैं. मोहब्बत के इस मौसम में राजपाल एंड संज प्रकाशन से प्रकाशित इनके इस नए दीवान की कुछ ग़ज़लें पढ़ते हैं- मॉडरेटर

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1
 
वही बस्ती वही सहरा वही रूदाद ज़िंदाबाद
नए दिन में हुई ताज़ा तुम्हारी याद ज़िंदाबाद
 
दिखा माँझी के सीने में तुम्हारा अज़्म जूँ का तूँ
सो बरबस ही कहा दिल ने मियाँ फ़रहाद ज़िंदाबाद
 
तिरे आने से मेरे घर में रंगत लौट आती है
तिरे जाने से होती है ग़ज़ल आबाद ज़िंदाबाद
 
वो जिन कामों से हमको लोग नाकारा समझते थे
उन्हीं की आज मिलती है मुबारकबाद ज़िंदाबाद
 
मिरे होने की भी लज़्ज़त तिरे होने से है सचमुच
तो मेरी जान के दुश्मन मिरे सय्याद ज़िंदाबाद
 
ये बीनाई मुबारक हो तुम्हें दिखने लगा अब तो
फ़जर से क़ब्ल का मंज़र इशा के बाद ज़िंदाबाद
 
मिरे मुर्शिद यक़ीनन तू छड़ी जादू की रखता है
तिरे शागिर्द सारे हो गए उस्ताद ज़िंदाबाद
 
ग़ज़ल का ग़ैन भी कहना न आया ठीक से लेकिन
ग़ज़ल पर बह्स करते हो मियाँ’ इरशाद’ ज़िंदाबाद
 
2
 
 
डूबता हूँ कि ऐ तिनके मैं उबरने से रहा
दूसरा इश्क़ मिरे ज़ख़्म तो भरने से रहा
 
देख मैं हो गया इन्सां से फ़रिश्ता और तू
इतना शैतान फ़क़त इश्क़ न करने से रहा
इब्तिदा चांदनी रातों से हुई थी अपनी
नश्शा यादों का तिरी ख़ैर… उतरने से रहा
 
तू न घबरा कि ये घबरा के चला जाएगा
देर तक दर्द मिरे साथ ठहरने से रहा
 
दश्त में उम्र कटी कैसे कटी ऐसे कटी
हौसला मुझमें तिरा अक्स उतरने से रहा
 
ज़िन्दगी तूने अजब शर्त लगाई मुझसे
दिल धड़कने से रहा और मैं मरने से रहा
 
गर कभी ख़्वाब ही ले आये तो आये वरना
पांव चौखट पे तिरी शख़्स ये धरने से रहा
 
3
 
कोई वजूद का अपने निशाँ बनाता जाऊं
मैं चाहता हूँ तुझे आसमां बनाता जाऊं
 
अगर मैं आ ही गया भूले भटके मकतब में
तो क्यों न तख़्तियों पे तितलियाँ बनाता जाऊँ
 
मिरे बग़ैर भी मिलना है तुझको दुनिया से
सो लाज़मी है तुझे काइयाँ बनाता जाऊं
 
मैं बन गया तो हूँ हिस्सा तुम्हारे क़िस्से का
मज़ा तो जब है कि जब दास्ताँ बनाता जाऊं
 
जहाँ जहाँ से मैं गुज़रूँ अँधेरे छंटते जाँय
ज़मीं पे नूर भरी कहकशाँ बनाता जाऊं
 
न मेरे बाद सफ़र में किसी को दिक़्क़त हो
ये मेरा फ़र्ज़ है पगडंडियाँ बनाता जाऊं
 
ज़मीनो-आसमां के दरमियाँ मुहब्बत की
मिरा जुनून है कुछ सीढ़ियाँ बनाता जाऊं
 
4
 
दिल की शाख़ों पर उमीदें कुछ हरी बांधे हुए
देखता हूँ अब भी तुमको टकटकी बांधे हुए
 
है ये क़िस्सा मुख़्तसर वो बंध गए घर बार में
और मुझको है मिरी आवारगी बांधे हुए
 
है यही बेहतर कि अब तुमसे किनारा कर लूं मैं
बात करते हो ज़बाँ पर तुम छुरी बांधे हुए
 
ख़ाक ये कब की ठिकाने लग चुकी होती मिरी
कोई तो शय है कहानी जिस्म की बांधे हुए
 
तेरी फ़ुर्क़त में पड़े हैं वक़्त से मुंह फेरे हम
मुद्दतें गुज़रीं कलाई पर घड़ी बांधे हुए
 
आज तक पूरा न उतरा तू मिरे अशआर में
मुझको मेरे फ़न से है मेरी कमी बांधे हुए
 
आये दिन करता ही रहता हूँ नया कोई सफ़र
कुछ पुराने ख़्वाबों की मैं पोटली बांधे हुए
 
चाँद तारे शब उदासी जब मुझे ज़ख़्मी करें
आंसुओं! यलग़ार करना ख़ामुशी बांधे हुए
 
 
5
 
चाँद की दस्तार सर से क्या गिरी
धूप की बौछार सर पे आ गिरी
 
आज मैं सबकी नज़र में आ गया
मेरी नज़रों से मगर दुनिया गिरी
 
जाओ तुम भी!भीड़ का हिस्सा बनो
एक लड़की फिर कुएँ में जा गिरी
 
रात मजबूरन हवस के पाँव पर
अपने बच्चों के लिये बेवा गिरी
 
आंसुओं के लाव-लश्कर साथ थे
कब मिरे बिस्तर पे शब तन्हा गिरी
 
इक पुरानी दास्ताँ की देन है
खेप ये जो ग़ज़लों की ताज़ा गिरी
 
हाथ से छूटा रिसीवर फ़ोन का
ताक़ से सिन्दूर की डिबिया गिरी
 
भूले-बिसरे लोग याद आने लगे
रौशनी मेरी तरफ़ बेजा गिरी
 
अब तो लाज़िम है कि हों जंगल हरे
फ़स्ल बारिश की बहुत बढ़िया गिरी

चिनार पत्तों पर जख़्मों की नक्काशी

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गौतम राजऋषि के कहानी संग्रह ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ पर कल यतीन्द्र मिश्र जी ने इतना आत्मीय लिखा कि उसको साझा करने से रोक नहीं पाया. ऐसा आत्मीय गद्य आजकल पढने को कम मिलता है- मॉडरेटर

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कर्नल गौतम राजऋषि की किताब ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ एक अदभुत पाठकीय अनुभव है। एक ऐसी दुनिया को नजदीक से, रिश्तों और भावनाओं की गहरी घाटियों में उतरकर देख लेने की कोशिश, जो अमूमन फौजियों के जीवन से वंचित पायी जाती है। यह माना जाता है कि फौजियों का जीवन नीरस, शुष्क और सरहद पर लड़ते रहने के अलावा, जीवन की सूक्ष्मतम संवेदनाओं का मानवीय अर्थों में अनुवाद करना नहीं जानता। मगर जब आप इस किताब से होकर गुजरते हैं, तो आप वैसे कतई नहीं रहते, जैसा कि १४४ पृष्ठों वाले इस संग्रह की २१ छोटी-छोटी कहानियों से गुजरकर हो जाते हैं। गौतम राजऋषि अपने फ़ौजी होने को यहाँ अपने लेखक होने के चेहरे के पीछे छुपाते हैं, जिनका खुद का किरदार बड़ा दिलचस्प और ‘पाल ले एक रोग नादाँ’ जैसे ग़ज़लों के शायर के रूप में भी रचा गया है। वे अपनी बन्दूक से निकली गोली से किसी को हताहत नहीं करते, बल्कि उसे परे धरकर अपने कलम के अचूक निशाने से निब के चीरे पर दिल को करीब से चीरते हुए बाहर निकल जाते हैं।

सैनिकों और आम नागरिक के बीच के अंतर्विरोधों को लगभग टटोलती सी इन कहानियों को पढ़ते हुए फौजियों और सेना के ब्यौरे, उनकी बातचीत और जीवन का कहन, रिश्तों को पीछे छोड़ आने की मजबूरी और उसी के साथ-साथ अपने कर्त्तव्य पर टिके रहने की एक अघोषित किन्तु ईमानदार कोशिश को ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ में चप्पे-चप्पे पर पढ़ा जा सकता है। इस किताब को जितना भी आप उलट-पुलट कर पढ़ें, उतनी बार वह कुछ सार्थक, कुछ अधिक अर्थपूर्ण, कुछ खुलता सा जाता है।

गौतम राजऋषि इन लगभग हर कहानियों में सिनेमाई पटकथाओं के चुस्त और कुशल सम्पादक की मानिन्द खड़े नज़र आते हैं, जिन्होंने कहानी में बयान की संक्षिप्ति को नैरेटिव के साथ गजब ढंग से साधा है। इस काम में उनके लेखक द्वारा भावनावों की तीव्रता को उतने ही संक्षेप और गहराई से महसूस कराया गया है, जिससे गुज़रकर आपके मुँह से सिर्फ़ ‘वाह’ या ‘ओह’ निकल जाये। यहाँ फौजियों की समस्याओं और उनके जीवन में आने वाली कठिनाईयों के साथ-साथ पानी, झरने, पत्तों, चिनार, बर्फीली वादियों, झेलम और पड़ोसी मुल्क की नदी नीलम और ठिठुरती रातों में बार में बैठे हुए अपने-अपने रिश्तों को याद करते हुए फौजियों के मानवीय चरित्र, लगभग हर चीज एक किरदार की तरह आए हैं। मुझे मालूम नहीं कि फौजियों की जीवन पर कभी मैंने सहयात्री की तरह इतने सूक्ष्म ब्यौरों के साथ ढेरों कहानियों को एक ही जिल्द में कहीं पढ़ा होगा। फौजियों का आपसी व्यवहार में एक-दूसरे को ‘बे’ कहकर सम्बोधित करना इन कहानियों में इतने मनुहार, इतने रूमान और इतनी गर्मजोशी से भरा होगा, पहले कभी महसूस ही नहीं हुआ। कुछ-कुछ वो बात याद आ गयी, जब एक फ़िल्म गीत के लिए आर. डी. बर्मन और गुलज़ार आपस में इसलिए झगड़ पड़े थे कि उसमें एक शब्द ‘बदमाशियों’ आता है। ‘बदमाशियों’ को गीत से पंचम हटाना चाहते थे, जो गीत की खूबसूरती को उनके अनुसार बाधित कर रहा था। यह तो भला हो लता जी का, जिन्होंने इस शब्द को ही इतने उन्मुक्त और सुन्दर भाव से गाकर यह टिप्पणी की कि ‘इस शब्द ने ही गाने को सुन्दर बनाया है।’ (सन्दर्भ – फ़िल्म : घर, गीत : आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज हैं) इस किताब में यहाँ ‘बे’ भी कुछ ऐसा ही असर लेकर आता है, जब बॉस अपने मातहत से और दो फ़ौजी आपस में दोस्ती निभाते वक्त सम्बोधन का एक अलग ही आत्मीय चेहरा रचते हैं।

गौतम राजऋषि की तारीफ भी इसलिए अलग से की जानी चाहिए कि उन्होंने जीवन में छूटती जा रही खामोशी में बेवजह तिरती जा रही हँसी और हँसी में अचानक ही मिल जाने वाली प्यार भरी यादों को निशानियों की तरह बटोरते हुए ‘हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज’ बनाया है। एक ऐसी समावेशी मुस्कुराहट, जो वादियों में गूंजती हुयी दूर मैदानी इलाकों में भी उतनी ही प्रेमभरी तड़प के साथ सुनी जा सकती है।

मान गए उस्ताद! कैसे आप ‘गर्लफ्रेंड्स’ में मेजर प्रत्यूष वत्स, ‘एक तो सजन मेरे पास नहीं रे’ में रेहाना, ‘बर्थ नंबर ३’ में मेजर सुदेश सिंह, ‘बार इज़ क्लोज्ड ऑन ट्यूसडे’ में सुरेश कचरू, ‘गेट द गर्ल’ में लेफ्टिनेंट पंकज और ‘हेडलाइन’ में नौजवान मेजर की कहानियाँ कह पाए हैं। यह किताब हर उस लेखक को भी ज़रूर पढ़नी चाहिए, जो अपनी कलम से किसी तरह की नयी आहट को अंजाम देने का हसरत मन में पाले हुए है। लेखक अपनी रोशनाई से सरहद पर घटने वाली जीवन स्पन्दन की तमाम कहानियों को दस्तावेज़ की तरह लिख रहे हैं, जो निश्चित ही हिन्दी के लिए एक नयी आहट की तरह है।

बधाई कर्नल !

-यतीन्द्र मिश्र

शर्मिला जालान की कहानी ‘चारुलता’

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आज समकालीन कहानी की एक विशिष्ट स्वर शर्मिला जालान की कहानी ‘चारुलता. शर्मिला जी कम लिखती हैं लेकिन भीड़ से अलग लिखती हैं, रहती हैं. हाल में ही उनका कहानी संग्रह वाग्देवी प्रकाशन से आया है ‘राग-विराग और अन्य कहानियां’. यह एक प्रेम कहानी है. चारुलता की, जिसे बचपन से ही एक बीमारी थी कि वह किसी से भी तुरंत प्रेम कर बैठती थी- मॉडरेटर

कहानी पढ़िए और साथ में वरिष्ठ लेखक जयशंकर की टिप्पणी भी-
“चारूलता” मन की पारदर्शिता और मार्मिकता पर ठहरती ठिठकती कहानी है । ‘चारूलता’ अगर एक तरफ अपने शीर्षक से रवि बाबू की कहानी ‘नष्टनीड़’ की याद दिलाती है, तब दूसरी तरफ नायिका की मासूमियत चेखव की कहानी ‘डार्लिंग ‘ की ।
चारु का अपना सा जीवन ,उस जीवन की ललक और लालसाएं . चारु के स्वप्न और मोहभंग और अंत में प्रेम के भले ही ट्रेजिक,पर अपने महत्व का अंत लिया पैराग्राफ
“इस छोटी सी कहानी का पाठ हमें यह बताता है कि मनुष्य अपने जीवन में अपने लिए कुछ आत्मीय – सा चुनना चाहता है , चुनने के वक्त के अस्पष्ट , अमूर्त वातावरण को नहीं जान पाता है और इससे चुनने की स्वतंत्रता की सीमाओं को भी नहीं जान पाता है।  चुनने की ये संभावनाएं, और सीमाएं हमारे भीतर किस तरह की व्यथाओं को जन्म देती रहती है इसे हम ‘चारुलता’ में  कुछ हद तक महसूस कर सकते हैं। —-जयशंकर

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चारुलता को बचपन से ही एक बीमारी थी । वह यह थी कि वह किसी से भी तुरंत प्रेम कर बैठती । प्रेम करने के बाद उसे यह लोक स्वर्ग-लोक दिखाई पड़ता । वह खूब अच्छी बनना चाहती । खूब सजती । खूब हँसती । सबको यह सलाह देती कि वे भी प्रेम करें । प्रेम करना बहुत अच्छी बात है ।

पर यह सब ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाता । उसका प्रेम जल्दी टूट-छूट जाता और जब ऐसा होता तब उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता । उसे लगता यह दुनिया अच्छी नहीं है । यहाँ कोई भी अच्छा नहीं है । वह सबसे कहती फिरती, सब कुछ करना पर प्रेम मत करना । वह जीना नहीं चाहती । मरने की रट लगाती पर मरने की बात तुरंत भूल जाती जब उसके सामने कोई दूसरा आ जाता और वह फिर से प्रेम में पड़ जाती ।

अपनी इस बीमारी के कारण चारुलता बदनाम भी थी पर वह कहती – ‘मैं क्या करूं, सब कुछ अपने आप होता है ।’

इस बड़ी बीमारी ने उसमें छोटी-छोटी कई बीमारियाँ पैदा कर दी थीं । वे थीं – अकेले पड़े रहना, अकेले में कभी अपने से तो कभी प्रेमी से बात करना, कभी हँसना तो कभी रो लेना ।

चारुलता ने सबसे पहले पल्लू से प्रेम किया था । तब जब वह दस वर्ष की रही होगी। पल्लू का अच्छा नाम पल्लव था । वह उनकी गाड़ी धोता था । सुबह छह बजे रोज वह गाड़ी की चाबी मांगने आता । चारुलता जगी रहती । जैसे ही घंटी बजती वह दौड़कर दरवाजा खोलती और धीरे से बिना कुछ कहे, उसे चाबी पकड़ा देती । पल्लू मुस्कुरा देता । यहीं से उसकी बीमारी शुरू हुई थी । घर में और कोई उसे देखकर उस तरह नहीं मुस्कुराता जिस तरह पल्लू, इसलिए ही तो वह सबसे अलग था ।

चारुलता अक्सर रात में ही बड़ी दीदी से कभी मिठाई तो कभी कोई फल माँगकर पल्लू को देने के लिए रख लेती । कभी-कभी चारुलता की नींद बहुत सुबह खुल जाती तो वह जल्दी से उठकर मंजन करती, मुँह धोती,बाल संवारती । दीदी ध्यान से देखकर कहती, ‘चारू तुमने कंघी भी कर ली’ चारुलता जल्दी-जल्दी जवाब देती, ‘माँ कहती है -सुबह सबसे पहले केश संवारने चाहिए ।’ बाल बनाने के बाद चारुलता पल्लू का इंतजार करने लगती । कभी जब वह साढ़े छह बजे घंटी बजाता, चारुलता गुस्से में सोने चली जाती । सोचती, वह अब कभी भी दरवाजा नहीं खोलेगी । पल्लू को पता चल जाएगा कि देर से आने से क्या होता है । पर जैसे ही घंटी बजती वह लपक कर दरवाजा खोलती और पहले की तरह चाबी पकड़ाती ।

वह अकेले घंटों पल्लू से बात किया करती । पूरे दिन उसके साथ जो भी कुछ घटता सब कुछ उसे बताती । उसे लगता कि पूरी दुनिया में पल्लू ही एक ऐसा व्यक्ति है जिसे वह सब कुछ कहना चाहती है । उसे पता था कि पल्लू भी उसकी बात सुनना चाहता है ।

उस दिन वह पल्लू को रात की बात बताने लगी । रात जब बत्ती गुल हो गयी थी, माँ ने मोमबत्ती जलायी । मोमबत्ती जलाते ही अजीब बात हई । पूरा घर काली आकृतियों से भर गया । माँ का हाथ बहुत बड़ा हो गया । इतना बड़ा कि दीवार में समाया ही नहीं ।आसपास की दीवारों में आधा-आधा दिखलाई पड़ा ।

माँ के हाथ के साथ उसका अपना हाथ भी बहुत लम्बा होने लगा । हाथ ही क्या पैर, सिर सब कुछ ! उसी समय मच्छरों का एक झुण्ड उसके सिर पर बैठ गया । उसे तो तब पता चला जब भन-भन की आवाज हुई । वैसी आवाज उसने पहले कभी नहीं सुनी । जैसे ही उसने अपना सिर ऊँचा किया, मच्छर बिखरने लगे ।

चारुलता पल्लू को यह भी बताना चाहती थी कि कल जब वह स्नानघर में नहा रही थी तो उसने देखा, पानी जमा हो रहा है । उसने नल को पूरा खोल दिया । उसे मजा आने लगा । धीरे-धीरे वह उस पानी में हाथ-पाँव चलाने लगी । तभी उसका हाथ उस जाली पर गया जो नल के ठीक नीचे थी । वहाँ बालों का एक गुच्छा था । जैसे ही उसने उस गुच्छे को वहाँ से हटाया, जमा पानी धू-धू की आवाज करता हुआ जाली से नीचे चला गया ।

एक दिन की बात है, चारुलता ने देखा, उसका भाई पल्लू को डांट रहा है । कह रहा है, ‘एक नम्बर के निकम्मे हो । क्या ऐसे गाड़ी धोई जाती है गंदी छोड़ दी गाड़ी तुमने ? मैं एक पैसा भी नहीं दूँगा ।…. साला कामचोर कहीं का ।’ पल्लू चुपचाप वहाँ से चला गया । चारुलता को उस समय भैया पर बहुत गुस्सा आया । मन हुआ कि उनके मुँह पर थूक दे । कैसी अश्लील भाषा में उन्होंने पल्लू को डाँटा था । चारुलता का मन पूरे दिन खराब रहा । उस दिन के बाद से चारुलता के मन का खराब रहने का सिलसिला शुरू हो गया था । रोज भैया किसी न किसी बात पर पल्लू को डाँट देते । चारुलता अकेले बैठी सोचती कि वह पल्लू को समझाएगी, कहेगी -वह गाड़ी और अच्छी तरह धो दिया करे । गाड़ी की छत पर पानी ज्यादा डाले जिससे वहाँ चिपकी धूल-गंदगी धूल जाए ।

उस दिन के बाद से पता नहीं क्या हुआ, चारुलता ने देखा, पल्लू उसे देख पहले की तरह हँसता नहीं है । चारुलता रोज यह सोचकर उसे चाबी देने जाती कि शायद आज हँसे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । एक दिन चाबी लेते समय पल्लू अजीब ढंग से बोला, ‘कहो न अपने भाई को, वही गाड़ी धो लिया करे ।’

चारुलता को पल्लू की बात समझ में नहीं आई पर उस दिन के बाद से ऐसा कुछ हुआ कि पल्लू उसे कम अच्छा लगने लगा । उसका मन नहीं होता कि वह पल्लू से अकेले बैठकर बात करे । उसे अपनी सारी बातें बताए । धीरे-धीरे चारुलता सुबह देर तक सोने लगी । पल्लू को चाबी कभी माँ तो कभी दीदी देने लगी । जिस दिन चारुलता पल्लू को पूरी तरह भूल गयी उस दिन वह बहुत अकेली हो गई । पर उसका अकेलापन लम्बे समय तक चलने वाला नहीं था । उसे बीमारी जो थी ।

कुछ दिनों से दीदी को गाना सिखाने के लिए एक संगीत शिक्षक आने लगे थे । लम्बे, गौरवर्ण, मुस्कुराता चेहरा। चारुलता को वह बहुत अच्छे लगते । वह बहुत अच्छा गाते थे । चारुलता जब कभी दीदी के पास बैठकर गाना सुनती, देखती कि वह उसे देख रहे हैं । वह यह सोचने लगी थी कि वह उससे प्रेम करते हैं । वह यह बात दीदी को नहीं बता सकती थी । उसे दीदी से सहानुभूति थी कि उन्होंने दीदी से प्रेम न करके उससे प्रेम किया ।

चारुलता अपने हाव-भाव इस तरह के बना कर रखती कि कहीं दीदी को कुछ पता न चल जाए । दीदी जब कभी उसका चेहरा गौर से देखती, वह समझ जाती कि दीदी कुछ भांपने की कोशिश कर रही है । उस समय दीदी उसकी सबसे बड़ी शत्रु जन पड़ती । चारुलता जानती थी कि दीदी सोचती है कि वह एक बिगड़ैल लड़की है । तुरंत प्रेम करने लगती है । दीदी कुछ भी सोचे चारुलता को कोई फर्क नहीं पड़ता । उसने तो सोच लिया है कि कुछ भी हो वह बस उन्हीं से शादी करेगी । पर उन्हें कैसे बोले । दीदी को ही मदद करनी होगी ।

उन दिनों जब चारुलता स्वयं को दर्पण में देखती, उसे यह देखकर बहुत दुःख होता कि उसके सामने के दो दांत अजीब ढंग से बाहर निकले हुए हैं । ऐसे बेढंगे दांतों के साथ संगीत सर के सामने जाने में उसे बहुत शर्म आती । उसकी लम्बाई भी तो कम थी । उनके सामने वह बहुत छोटी लगती थी । अपनी लम्बाई बढाने के लिए वह अपनी सहेलियों की तरह नियमित रस्सी लेकर उछलने लगी । तैरने से भी कद बढ़ता है इसलिए उसने अपना नाम स्कूल में तैराकी में लिखवा लिया । वह भी गाना सीखना चाहती थी । माँ ने कहा था कि पहले दीदी को कुछ महीने सीखने दो, फिर तुम सीखना ।

चारुलता सोचती कि जब वह गाना गाएगी तब ‘सा’ करते हुए पूरा मुँह नहीं खोलेगी । दीदी कैसे मुँह फाड़ कर ‘सा’ करती हैं । कैसी भद्दी लगती हैं । वह जब गाएगी तब अपना हाथ भी ठीक से रखेगी । दीदी का बीच में हाथ हिलाना भी उसे अच्छा नहीं लगता ।

एक दिन संगीत सर नहीं आये । चारुलता को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । वह बहुत देर तक उनका इंतजार करती रही । उस रात उसे नींद भी कहाँ आई । वह जानती थी कि सर का भी मन हो रहा होगा चारुलता को देखने का । दो दिन निकल गए, वह नहीं आये । चारुलता का कहीं भी किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था । वह अपना चेहरा छुपा रही थी कि कहीं दीदी को उसकी आँखे उदास न लगें ।

कुछ दिनों के बाद जब सर आये, चारुलता उन्हें देखते ही भागकर उनके पास गई और पूछा -‘आप इतने दिन क्यों नहीं आए ? वह चारुलता को हैरान होकर देखते रहे । धीरे से बोले, ‘दीदी को पता है ।’ चारुलता ने दीदी की तरफ देखा । दीदी तुरंत बोली, ‘तुमने पूछा ही नहीं ।’

चारुलता को दीदी पर बहुत गुस्सा आया । वह समझ गयी कि दीदी ने उसे जान-बूझकर नहीं बताया कि सर कुछ दिन नहीं आएँगे । दीदी उससे ईष्या करती है न । पर सर क्यों नहीं आए ! बता क्या थी ? कुछ दिनों बाद संगीत का अभ्यास करवाते हुए सर दीदी से बोले, मेरी बेटी की नाक एकदम अपनी माँ पर है ।’ चारुलता सन्न रह गयी । सर विवाहित हैं । दीदी ने बताया नहीं ? चारुलता सर और दीदी के सामने से उठकर दूसरे कमरे में चली गयी ।

कई-कई दिनों तक चारुलता ने दीदी से कोई बात नहीं की । वह छुप-छुप कर रोती रही । वह इस ताक में रहती कि कैसे माँ से संगीत शिक्षक की चुगली करे, कहे कि वह -सिखाते कम हैं और बातें ज्यादा करते हैं । चारुलता एक बार फिर अकेली थी ।

कुछ दिनों बाद की बात है । देखा गया, चारुलता इतिहास पढ़ाने वाली अध्यापिका को खूब ध्यान से देखने लगी है । मैडम का चेहरा हर समय उसकी आँखों के सामने रहता । चारुलता मैडम की तरह कम बोलने लगी थी । माँ और दीदी उसमें आये इस परिवर्तन से हैरान होने के बजाय परेशान थी । चारुलता से कुछ भी पूछा जाता वह हाँ, हूँ में जवाब देती । एक दिन चारुलता ने दीदी को बताया कि सोनल सेन जो उन्हें इतिहास पढ़ाती हैं, वह कब, कैसे बोलती और बात करती हैं, क्या पहनती हैं और कौन सा हैण्ड बैग रखती हैं ?

उन दिनों चारुलता सोनल सेनकी ही तरह अपने पास किताबें रखने लगी और उन्हें पढ़ने की कोशिश करने लगी । उसका प्रेम इस बार विकराल रूप धारण कर चुका था । वह एकदम अलग ढंग से हँसने, बोलने और चलने लगी । हर समय कहती, मैडम किसी भी बात को इस तरह समझाती हैं । ऐसा कहते हुए उसे मैडम की वह अंगुली याद आती जिसमें वह हमेशा सोने की अँगूठी पहने रहती, जो बहुत सुंदर थी । उसने सोनल सेनका जूड़ा भी बहुत पास से देखा था । दोनों भौंहों के बीच वह दो बिंदी लगाती थीं । वह भी उसे बहुत सुंदर लगती थी । उन दिनों चारुलता एकदम उन्हीं की तरह सजना चाहती ।

एक दिन चारुलता स्कूल पहुँची तो उसके मन की मुराद पूरी हो गयी । सोनल सेन एक अन्य अध्यापिका के साथ स्कूल के बाहर खड़ी मिली । चारुलता जल्दी-जल्दी उनकी तरफ बढ़ने लगी । उसने देखा, मैडम बार-बार अपने जूड़े को छू रही हैं उन्होंने तुरंत जूड़ा खोल लिया और अपने केश खोल कर खड़ी हो गयीं । खुले बालों में वह अच्छी नहीं लग रही थीं । चारुलता को उनका जोर-जोर से बात करना भी अजीब सा लगा । वह उनके बहुत पास गयी । नमस्ते कहा पर वह उसे देख ही नहीं रही थीं । न जाने वह चारुलता को देखना नहीं चाह रही थीं । मैडम के बगल में खड़ी अध्यापिका ने इशारा कर सोनल सेन से कहा-‘देखो ।’ मैडम ने चारुलता की तरफ देखा और विचित्र ढंग से नमस्ते का जवाब दे मुँह फेर लिया । चारुलता वहाँ से जाने लगी तभी उसने सुना सोनल सेन कह रही थीं , ‘ये लडकियाँ उसके पीछे घूमती रहती हैं, सोचती हैं नम्बर बढ़वा लेंगी ।’ यह सब सुनकर चारुलता का मन कैसा-कैसा हो गया । उससे चला नहीं जा रहा था ।

कुछ दिनों तक, चारुलता को हर बात पर गुस्सा आता रहा । वह माँ और दीदी पर बात-बात पर झुंझलाती-खीझती । माँ उसके इस व्यवहार पर उसे डांटती पर दीदी चुप रहती ।

धीरे-धीरे चारुलता बड़ी हो गयी । कॉलेज जाने लगी । उन वर्षों में उसने कितने प्रेम किये यह तो उसे भी ठीक से याद नहीं । हाँ बीच-बीच में कोशिश की, कि वह इस बीमारी से निजात पाए । कुछ परहेज भी किये, जैसे कि तुरंत किसी से बात न करना । किसी की बात सुनकर तुरंत खुश न होना । किसी को भी ज्यादा देर तक न देखना आदि ।

इसी तरह कई-कई दिन-महीने-वर्ष गुजर गए । चारुलता बूढी हो गयी । उसने बाद के सालों में एक रास्ता निकाला, वह यह कि जब भी किसी से प्रेम हो, उस बात को मन में ही रखो । चुपचाप प्रेमी को देखो, सुनो और परखो । जब प्रेम टूट जाए तो चेहरे पर कोई भाव मत लाओ । इस तरह करने से कोई भी नहीं कहेगा कि चारुलता बीमारी से मुक्त नहीं हुई ।

लोग समझने लगे कि चारुलता रोगमुक्त हो गई पर सत्य तो चारुलता ही जानती थी । लोगों की इस बात पर वह हँस देती । मन ही मन कहती भला इस रोग से भी कोई मुक्त हो सका है । यह तो शरीर धारण करते ही लग जाता है ।

हृषिकेश सुलभ की कहानी ‘हबि डार्लिंग’

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आज जाने माने लेखक हृषिकेश सुलभ का जन्म दिवस है. उनको पढ़ते हुए हम जैसे लेखकों ने लिखना सीखा. आज जानकी पुल की तरफ से उनको बधाई. वे इसी तरह हमें प्रेरणा देते रहें- मॉडरेटर

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     उस रात एक आदिम गंध पसरी हुई थी। यह गंध उसके रन्ध्रों से होती हुई उसके मन-प्राण को हिलोर रही थी। वह भारहीन हो गई थी। फूल की पंखुड़ियों की तरह। आलाप से छिटक कर द्रुत में भटकती आवाज़ की तरह। …..रुई वाली हवा मिठाई के गोले की तरह या फिर……! उसके साथ पहली बार ऐसा हो रहा था।

     वह पूरे घर में चक्कर काट रही थी। कभी सोने के कमरे में, …कभी ड्राइंग रूम में, तो कभी बालकनी में। कभी बिस्तर पर, कभी सोफे पर, …तो कभी डाइनिंग चेयर पर। उसकी देह और उसके मन में, …उसके घर की दीवारों में, …उन पर टँगी तस्वीरों में …हर सामान में, …यहाँ तक कि किचेन के डब्बों-बर्तनों में असंख्य आँखें उभर आई थीं और राह निहार रही थीं। बालकनी के गमलों में फूलों की जगह आँखें ही खिली हुई थीं। वह आ रहा है। बस पहुँचने ही वाला है वह । सच, ऐसा पहली बार हो रहा था। ऐसी आकुलता। ….ऐसी सिहरन। रोम रोम में झिरझिर हवा, …रिमझिम फुहियाँ। वह पिछले कुछ महीनों से उससे मिलती रही है। व्हाट्स एप्प पर चैट कर रही है। फोन पर घन्टों बातें करती है। रेस्तराँ में साथ बैठकर कॉफ़ी पी है। खाना खाया है। पर पहली बार वह घर आ रहा था, उसके आमंत्रण पर। उससे मिलने आ रहा था। निभृत एकांत में उसके साथ होने की कल्पना के जादू में तैर रही थी वह।

     उसके मोबाइल फोन पर ‘स्लो कॉफ़ी’ रिंगटोन बजा। और उसका नम्बर चमका और नाम, …नाम नहीं। …..नाम की जगह दर्ज़ था – माय लव। उसने बेचैनी से पूछा – “कहाँ हो?”

     “लिफ्ट में।“ उधर से एक जादुई आवाज़ आई। ख़ुशबू से मह-मह करती ऐसी आवाज़, …मानो  मख़मल में लिपटी इत्र की शीशी खुल गई हो। …….और वह दरवाज़े की ओर भागी।

     वह दरवाज़े पर था। दरवाज़ा खुला। वह भीतर आया। दोनों ने एक-दूसरे को बाँहों में कस लिया। वह भी द्रुत में भटकती आवाज़ की तरह ही गमक में भटक रहा था। अपने भीतर उमगती श्रुतियों के बीच उबचुभ हो रहा था। रात अभी शुरु ही हुई थी। …..पर रात का क्या ठिकाना, …कब ख़त्म हो जाए!

     बमुश्किल बीस-पच्चीस मिनट गुज़रे होंगे कि मोबाइल फिर बजा। और उस पर ‘हबि डार्लिंग’चमका। वह कुछ चौंकी पर परेशान नहीं हुई। उधर से आवाज़ आई – “कहाँ हो?”

     काँप गई उसकी देह। उसकी आँखें पल भर के लिए बन्द हुईं। हरहरा कर गिरते कदम्ब की छाया लहराई। उसने मुट्ठी में भींचा अपने मन को।

“आकर देख लो।“ उसके मन्द्र स्वर में चुनौती थी। ललकार।

     “आकर तो देखूँगा ही। ……तुम बताओ, …हो कहाँ?” धमकी और सवाल दोनों एक साथ। धमकी और सवाल के आवेग ‘हबि डर्लिंग’ के स्वर में टकराए और उस तक पहुँचे। इस टकराव से फूट रहे स्फुलिंग की छुवन से गहरी पीड़ा उभरी उसके भीतर।

     “आओ। ……इंतज़ार कर रही हूँ।“

      दोनों एक झटके में द्रुत से वापस आलाप तक पहुँचे। अब वे षड़ज-स्वर में बातें कर रहे थे। काॅफी बनने तक वह सिगरेट फूँकता रहा। काॅफी आई तो उसे जल्दबाज़ी में गटका, हालाँकि जीभ जल रही थी। समय नहीं था। वापस निकलना था। जल्दी से जल्दी, …हर हाल में। वह निकल गया। जाते हुए इतनी हड़बड़ी में था कि चूमना तक भूल गया। उसके तपते होठों की मरीचिका में लपटें लहराती रहीं।

     रूई वाली हवा मिठाई की तरह उसकी भारहीन देह, अब उसके उठाए नहीं उठ रही थी। आनन्द के अतिरेक से अभी भी सिहर रही थी उसकी देह। उसके जाने के बाद बेमन पाँव घसीटते हुए दरवाज़े तक गई। ……उसे बन्द किया। ….फिर वापस आकर पलंग पर कटे हुए कदम्ब वृक्ष की तरह धम्म से गिर गई।

     वह आँखें मूँद कर उस कदम्ब को याद कर रही थी। दृश्य गडमगड्ड हो रहे थे। कदम्ब के छोटे से बिरवे का आना। दो आँगन थे। एक भीतर, …औरतों के लिए। और दूसरा बाहर, …सामने से खुला और तीन ओर से घिरा। एक ओर बैठका और बरामदा। दूसरी ओर बरामदा और अन्न के भरे हुए कोठार। और सामने के खुले भाग के विपरीत तीसरा भीतर वाले आँगन में प्रवेश के लिए बने दोमुँहे से जुड़ा। इसी बाहर वाले आँगन में रोपा गया कदम्ब का बिरवा। वह सात साल की थी। अम्मा ने एक पायल ख़रीद कर पहना दी थी। छुनछुन करती फिरती थी इस आँगन से उस आँगन। कदम्ब बड़ा होता रहा। वह भी। दस साल में वह युवा, बलिष्ठ, ऊँचा और छतनार हुआ। वह भी ऊँची हुई, …रंग, नैन-नक्श, छातियाँ, नितम्ब – सब सजे-सँवरे। कदम्ब फूलते। फल बनते। पकते और आँगन की धरती पर गिरते।

     वह शहर में रहने लगी थी। हाॅस्टल में रह कर पढ़ रही थी। पिता और भाई दो-चार दिनों में एक बार आते। कुशल-क्षेम पूछते। ज़रूरतें जानते। हिदायतें देते। उसे यह पता नहीं चल सका था कि जासूसी भी करते थे। और एक दिन भाई ने हास्टल के वेटिंग रूम में उसके कमर तक लहराते केशों को मुट्ठी में भर लिया और घसीट-घसीट कर उसकी सहेलियों और वार्डन के सामने पीटा। वह उस समय रजस्वला थी। रात तक उसे साथ लेकर भाई वापस घर आया। उसकी अम्मा ने पीने के लिए दूध में हल्दी घोलकर दिया। अम्मा को उसके रजस्वला होने की बात मालूम हुई, उन्होंने चैन की साँस ली। पिता को भीतर वाले आँगन में बुलाकर बात की। बताया कि चिंता की कोई बात नहीं। सब ठीक-ठाक है। ईश्वर ने लाज बचा ली।

     भाई दरवाज़े पर नाग की तरह कुंडली मारे बैठ कर फुँफकारता रहता। एक दिन भाई नहीं था। कहीं आसपास ही गया था। वह दोमुँहा पार कर बाहर वाले आँगन में खड़ी थी। कदम्ब को निहार रही थी। उसकी छतनार डालों, …गझिन पत्तियों, …और लट्टुओं की तरह खिले फूलों को देख रही थी। …वह कदम्ब की आड़ में थोड़ी दूर पर हिलती-डुलती उस छाया को अपनी आँखों से टेर रही थी कि भाई आ गया। वह कदम्ब और कदम्ब के उस पार डोलती छाया में इस कदर खोई हुई थी कि भाई को आते हुए देख नहीं सकी। आते ही वह फुँफकारते हुए फन निकाल कर झपटा। वह सरपट भागी भीतर वाले आँगन में। वह चीख़ रहा था – “मना किया था न तुझे कि दोमुँहे से आगे पैर नहीं बढ़ाना। किसे निहार रही थी एक टक? तुझे जो-जो अच्छा लगता है, सब मटियामेट कर दूँगा। तुझे कदम के नीचे राधा बन कर खड़ा रहने का शौक चढ़ा है? मैं इसे जड़ से…….”

     उसी दोपहर, …भाई ने अपने हाथों कदम्ब को काट डाला। युवा कदम्ब हरहराते हुए गिरा धरती पर।

     उसने संयत किया ख़ुद को। उठी। शिफौन की झीनी साड़ी, पेटीकोट, ब्लाउज़, ब्रा – सब खोलकर वार्डरोब में ठूँसा। नंगी देह चलती हुई वाश-बेसिन तक आई। चेहरा धोकर गाउन पहना और बिस्तर पर लेट कर बेमन टीवी आॅन कर दिया। कोई इमोशनल दृश्य चल रहा था। नायक और नायिका गले मिल कर रो रहे थे। उसने साउन्ड म्युट किया और करवट फेर कर कमरे की दीवारों को घूरने लगी।

      दीवारों को घूरती उसकी आँखों में फिर कदम्ब उभरा। कट कर धरती पर गिरा हुआ कदम्ब। क्षत-विक्षत डालें, …बिखरी हुई पत्तियाँ और कच्चे फल। जवान पेड़ के कटने के अपशकुन से भयभीत अम्मा का छाती पीट-पीट कर रोना-चिल्लाना। अम्मा के रुदन में घुल रही थी हरहरा कर गिरते कदम्ब की आवाज़। फिर औरतों का गीत-नाद, …हल्दी, …बारात, …बैन्ड-बाजा, …परिछावन, …मँड़वा, …विवाह की वेदी, …भाँवर, …सप्तपदी, ….माथढँकाई, …विदाई। अनगिनत दृश्य, …अनगिनत आवाज़ें, ….असंख्य लोगबाग। और विदा से पहले भाई की जलती हुई आँखें और लहकते हुए शब्द और क्रोध के दाब में फुसफुसाती आवाज़। “अगर कुछ भी सुने तो गोली मार कर मिटा देंगे अपने पूरे कुल को…..। दीयरी जलाने पुरखों के डीह पर आना पड़ेगा तुमको। सुन रही हो न बुचिया?”

     फिर उसी शहर में बसेरा, जहाँ पढ़ाई वाला बस्ता छूट गया था। एक क्षीण-सी आशा कि शायद मिल जाए बस्ता। पुश्तैनी खेत का एक बड़ा टुकड़ा बेच कर पिता उसे विदा कर सके थे। हालाँकि सस्ते ही जान छूटी थी उनकी। कुल सम्पत्ति का दसवाँ हिस्सा भी नहीं गँवाना पड़ा। निठल्ला भाई भीतर ही भीतर प्रसन्न था कि कम में ही समय पर निबट गया यह संकट। वह जिस घर में पहुँची थी वहाँ असंतोष था कि ठग लिया उसके बाप-भाई ने। जो तय था उसमें भी घालमेल किया गया। ऐसे ही लोगों की बेटी-बहनें फूँक-ताप दी जाती हैं। …….सास और ननदों ने पारम्परिक व्यंग्य वाणों, श्वसुर ने मौन और अपने साथ हुई ठगी से बौखलाए पति ने बदले की हिंसक योजनाओं के साथ उसका स्वागत किया। पहली रात जब वह अपने निचले होठ को दातों से भींचकर सब कुछ सह गई, संदेह का शिकार बनी। जैसे हास्टल के वेटिंग रूम में भाई ने अपनी मुट्ठी में उसके केशों को भरकर खींचा था, लगभग वैसे ही, पहली ही रात उसके केशों को खींचते हुए हबि डार्लिंग ने कई सवाल दागे थे। उसकी चुप्पी से चिढ़कर कहा था – “कितने दिन चुप रहोगी…..? आज नहीं तो कल पता चल ही जायेगा। …..ज़रूर खेली-खाई हुई हो तुम …..तभी तो ! पहली रात में लड़कियाँ रो-रो कर जान दे देती हैं और तुम मज़े ले रही थी। ….सच बोलो। अगर ना है, … कभी कुछ नहीं किया, तो ना ही बोल दो। मैं भरोसा कर लूँगा।“

     उसने न ना कहा, न हाँ। और रोई भी नहीं। तय कर लिया था कि न तो कोई सफाई देगी और न रोएगी। अब इन हालातों में कहाँ और कैसे ढूँढ़ती अपना छूटा हुआ बस्ता। इंटर की परीक्षा होने वाली थी। वह दुबला-पतला लड़का उसकी तैयारियों में मदद कर रहा था। अपने नोट्स दे जाता और फिर दो-चार दिनों के भीतर आकर ले जाता। अच्छा दोस्त बन गया था, पर कभी उसने उँगली तक से नहीं छुआ। पता नहीं भाई ने क्या देखा! …..किसी से क्या सुना!

     हबि डार्लिंग की नौकरी शादी के तीन-चार महीनों बाद बैंक में लगी। कलेजा कट गया। मन मसोस कर रह गए हबि डार्लिंग। अपने पिता पर बरसे। इन तीन-चार महीनों में क्या बिगड़ रहा था कि बेटा ब्याहने की ऐसी जल्दबाज़ी थी? बड़ा घाटा हुआ। इस बैंक की नौकरी के बाद विवाह होता तो लड़की भी और पढ़ी-लिखी मिलती और कम से कम पाँच लाख का फ़र्क़ तो पड़ता ही। थोड़ी होशियारी बरतते पिता तो यह फ़र्क़ दस लाख तक का हो सकता था। चिरकुटों के घर की बेटी उठा लाए। न पूरा माल-असबाब मिला और न……। औरत भी प्योर नहीं लगती। ज़रूर पहले किसी के साथ….! यह तो बाद में पता चला कि इसके उत्पात के चलते हॉस्टल वालों ने इसे निकाल दिया था। भाई आकर हॉस्टल से ले गया था। सुना है, कसकर कूटा भी था और इसी चलते इंटर का इम्तेहान नहीं दे सकी। गाँव पर घर में ही नज़रबन्द करना पड़ा था इसे। सब भेद पता चला, पर शादी के बाद। संदेह तो शादी के बाद की पहली रात ही हो गया था, पर….। हबि डार्लिंग ने पिता को कोसा। पिता ने अपनी पत्नी को कोसा। और पत्नी यानी, हबि डार्लिंग की माता ने कोसा भाग्य को।

     उन्नीस की उम्र में पहला गर्भ और बेटी का जन्म। नइहर ससुराल, दोनों जगह कुहराम। फिर दूसरी बेटी का जन्म। शोक ही शोक और प्रताड़ना। तीन साल में दो बेटियों का जन्म और लिंग-परीक्षण के कारण दो गर्भपात। ख़ुद दो बेटियों को जन्म देने वाली सासु माँ दूसरी पोती के जन्म का आघात नहीं सह सकीं और लकवा मार गया। व्याही हुई दो बड़ी ननदों ने पक्षाघात का लांछन उसके ऊपर थोप कर अपनी माँ की सेवा-टहल से अपने को बरी कर लिया। लिथड़ती हुई सासु माँ गईं। इस बीच अपनी ममेरी बहन की शादी में वह दूसरे शहर गई। हबि डार्लिंग नहीं गए थे। वहीं, अपनी एक बहन की मदद से उसने कॉपर-टी लगवा लिया। किसी को कानों कान ख़बर तक न हुई। बस्ता छोड़कर अपने घर लौटने के बाद पहली बार, …एक लम्बे अरसे के बाद पहली बार वह प्रसन्न हुई। बैंक के खातों और डिपार्टमेंटल प्रोमोशन के लिए बैंकिंग प्रणाली के ज्ञान अर्जन में उलझे हबि डार्लिंग को उसने ठेंगा दिखा दिया।

     इस बीच श्वसुर गुज़रे। उसे अफ़सोस हुआ। ननदें यदाकदा छापामारों की तरह आतीं और बैंक बाबू से कुछ लूट-खसोट कर चली जातीं। जाते-जाते पलीतों में आग लगा जातीं और हबि डार्लिंग पटाखों की तरह कुछ दिनों तक फटते रहते। समय सरकता रहा और उसने बेटियों को पालते-पोसते हुए इंटर, बीए और उसके बाद उद्यमिता का एक शॉर्ट कोर्स किया। अपना शहर छूट गया था। मकान किराए पर लग गया। हबि डार्लिंग बैंक बाबू से बैंक अधिकारी हो गए थे। बेटियाँ सयानी होकर पुणे और हैदराबाद में पढ़ रही थीं। मुम्बई की पोस्टिंग के बाद इत्मिनान आ  गया था। उद्यमिता का शॉर्ट कोर्स काम आया। उसने अपना छोटा-सा व्यवसाय भी शुरु कर दिया था। दस से ज़्यादा औरतें उसके साथ रोज़गार पर लगी थीं। ज्वालामुखी के दहाने पर बसी गृहस्थी को ज़िन्दगी के गर्भ में उबलते खनिजों का उर्वरक मिला और वह जीवित रही।

     कालबेल की आवाज़ आई। उसने दरवाज़ा खोला। हबि डार्लिंग सामने थे। आसमानी रंग का छोटा ट्राली बैग साथ लिये। वे अपनी निर्धारित यात्रा एक दिन पहले ही समाप्त कर लौट आए थे। यह कोई नई बात नहीं थी। वह अक्सर ऐसा करते और ऐसा करने के पीछे उनकी मंशा  उसे रँगे हाथ पकड़ने की थी।

     “खाना खाओगे या…..?”

     “या?

     “या खाकर आए हो?”

“तुमने बनाया है क्या खाना? …मैं तो आज आने वाला नहीं था, …तो बनाया किसके लिए था?”

     उसके जी में आया कि कह दे ‘अपने यार के लिए बनाया है’। उसे वह चीनी लोककथा याद आई, जिसमें एक औरत के दरवाज़े पर एक यात्री पहुँचता है और साँकल खटखटाता है। औरत निकलती है। वह यात्री उससे पानी माँगता है। पीठ पर भोजपत्रों के भारी बंडलों का बोझ लादे,  …थका-हारा। वह बहुत प्यासा है। औरत उसे पानी देती है। भोजन के लिए पूछती है। पहले वह सकुचाता है, पर भूखा होने की बात स्वीकारता है। औरत उसे घर के अंदर बैठाती है और भोजन देती है। वह जब जाने को तैयार होता है तो वह उस बोझ के बारे में पूछती है, जिसे वह अपनी पीठ पर ढो रहा है। यात्री बताता है कि वह एक शोधकर्ता है और औरतों के चरित्र के बारे में शोध कर रहा है। अब उसका शोध पूरा हो चुका है और वह वापस अपने नगर जा रहा है। इन बंडलों में औरतों के बारे में जानकारियाँ दर्ज़ हैं। इस बीच उस औरत का पति दरवाज़े की साँकल खटखटाता है। औरत उससे कहती है कि उसका पति बहुत क्रोधी और शक्की है। वह दोनों को मार डालेगा। औरत यात्री को भोजपत्र के बंडलों सहित सामने रखे एक संदूक में छिपा देती है। दरवाज़ा खोलती है। पति दरवाज़ा खुलने में हुई देर के चलते गालियाँ देता है और खाना माँगता है। वह खाना परोसती है। पति सन्दूक पर बैठकर खाने लगता है। वह औरत सन्दूक पर बैठने से मना करती है। पति गालियाँ देते हुए पूछता है कि वह क्यों न बैठे? …क्या उसने सन्दूक में अपने यार को छिपा रखा है? औरत मुस्कुराती है। उसका पति उसी सन्दूक पर बैठ कर खाता है। वह और खाना माँगता है। औरत कहती है कि खाना ख़त्म हो गया। वह चीख़ता है, हरामजादी, यार को खिला दिया क्या? औरत ठठा कर हँसती है और कहती है, हाँ मेरे राजा, अपने यार को खिला दिया। उसका पति गालियाँ देते हुए बाहर चला जाता है। वह यात्री को सन्दूक से बाहर निकालती है। यात्री हत्प्रभ! औरत ने उसके पूरा हो चुके शोध को अधूरा साबित कर दिया है। वह उसका आभार मानते हुए चला जाता है। …… वह मुस्कुराई। बोली – “यार बिना खाए चला गया। उसका हिस्सा बचा है। खाओगे तो गरम कर दूँ।“

     हबि डार्लिंग की भृकुटि तन गई। “बहुत लम्बी होती जा रही है तुम्हारी ज़ुबान। साली, किसी दिन ऐसे कूटूँगा कि ज़ुबान भीतर चली जाएगी और बच्चेदानी बाहर आ जाएगी।“

“तुम बार-बार भूल जाते हो। बच्चेदानी तो कैंसर के डर से तुम्हीं ने निकलवा दिया था। दूसरे अबार्सन के बाद, …छोटी गोद में थी और मैं काॅपर-टी लगवा कर आई थी। तभी जाने क्यों ख़ून आने लगा था और तुम डर गए थे कि कैंसर हुआ तो बहुत पैसे ख़र्च करने होंगे। …….और बेटियाँ छोटी-छोटी थीं, सो मेरा मरना तुम अफोर्ड ही नहीं कर सकते थे, …वर्ना निकलवाते ही नहीं तुम।“ वह हँसी, चीनी लोककथा वाली उस औरत की तरह।

     मारे क्रोध के हबि डार्लिंग दाँत किटकिटा रहे थे। वह फ्रि़ज़ के पास खड़ी उन्हें लहूलुहान होते देख रही थी। कुछ देर चुप रही। थोड़ा सम्भलने दिया उन्हें। अब इस खेल में उसे मज़ा आता था। अब वह अपमान, दुःख, भय और पछतावे से मुक्त हो चुकी थी। उसने कहा – “चिकेन गरम कर देती हूँ, तब तक तुम कपड़े बदल लो। फिर गरम-गरम रोटियाँ सेंक दूँगी। ……दो दिनों से बाहर का खाना खाते-खाते जी ऊब चुका होगा। है न?”

     यह ‘है न’ मारक था। सीधे सीने में जाकर लगा। बोले हबि डार्लिंग – “नहाऊँगा पहले। …..ये साली मुम्बई की धूल…….उमस…..पसीना…..चिपचिप……।“

     “मैं तो नहीं नहाऊँगी आज। अपनी देह की इस गंध के साथ ही सोऊँगी।“ उसकी आवाज़ मद्धिम थी और उसमें संगीत की लयकारी थी।

     “किसकी गंध?”

“परफ़्युम की।“ उसने बात बदल दी।

“कहाँ गई थी परफ़्युम लगा कर?”

     “यार से मिलने। तुम्हारी तरह बदबू करते हुए नहीं जाती मैं अपने चाहनेवालों के पास।“ फिर एक तीखी मुस्कान थी उसके साथ।

     “लात खाओगी आज तुम।“

     “आओ।“ झुक कर फ्रि़ज़ से चिकेन निकालते हुए मुड़ कर देखा उसने। हबि डार्लिंग जा चुके थे, …कपड़े बदलने…..नहाने।

     बेटियाँ जल्दी ही समझदार हो जाती हैं। चाहे कितनी भी धूल-धक्कड़ हो या कितना भी घना हो कुहासा,छिपकर काँपते सच तक उनकी आँखें पहुँच ही जाती हैं। देखने और सूँघने की कला में माहिर होती हैं बेटियाँ। पीठ पीछे चिपकी आँखें भी देख लेती हैं वे और होनी-अनहोनी की उस हर गंध को भी सूँघ लेती हैं जो घात करने के इंतज़ार में ठिठकी या छिपी होती है। समझदार होती बेटियों के सामने अच्छे और ताक़तवर पिता की छवि बनाए रखने की लालसा ने हबि डार्लिंग को कुछ दिनों के लिए विवश ज़रूर किया था,पर भीतर ही भीतर गाँठें बढ़ती जा रही थीं। और वह इस शहर को जागते-सोते,…दौड़ते-भागते, …घिसटते-लिथड़ते, …रोते-हँसते, ….गाते-विलाप करते हुए देखकर अपनी आत्मा की गाँठ का रेशा-रेशा खोल रही थी। शहर सिखाए कोतवाली,सो मुम्बई ने उसे हिम्मत और हिकमतें दोनों दी। उसने हबि डार्लिंग को पटा कर पहले अपना व्यवसाय शुरु किया। हबि डार्लिंग इतने भोले भी नहीं थे कि पट जाते। उन्होंने सोचा,उद्योंगों के लिए करोड़ों का कर्ज़ स्वीकृत करने के एवज में होने वाली कमीशन की काली कमाई को सफ़ेद करने के लिए पत्नी का व्यवसाय ढाल की तरह काम आयेगा,सो उन्होंने सहजता से सब स्वीकार किया था। कमर तक लटके केशों को सबसे पहले कटवाया था उसने और उन्हें इतना छोटा करवा लिया था कि वे किसी मुट्ठी की ज़द में न आ सकें। उसने अपने हबि डार्लिंग को आप कहना छोड़ कर तुम पुकारना शुरु किया। सम्बोधन के इस बदलाव ने पलक झपकते बहुत कुछ बदल दिया था उसके भीतर। उसने अपनी कमाई से कुछ शिफौन की साड़ियों की ख़रीददारी की। डीपकट,स्लीवलेस,बैकलेस ब्लाउज़ बनवाया। फ़्लोरल प्रिंट के कुछ ब्रा और पैंटीज़ भी लिया। बेटियों के साथ जाकर  कुछ जींस की पतलूनें और स्कर्ट्स  के साथ नए डिज़ाइन की जूतियाँ ली। माँ के इस कायांतरण से बेटियाँ आह्लादित थीं। पहले बड़ी बेटी पढ़ने पुणे गई। इसके अगले साल छोटी गई हैदराबाद। मुम्बई में अपनी माँ को अपने पिता के हवाले छोड़कर बेटियाँ चिन्तित थीं। छोटी के चले जाने के बाद तो बड़ी बेटी शुरु में काफी परेशान रही थी। बार-बार पुणे से भाग कर आती। पिता की फटकार सुनती। जब तक छोटी मुम्बई में थी,उसे भरोसा था कि पिता उसकी उपस्थिति का लोक-लाज रखेंगे,पर उसके जाते ही वह बेचैन रहने लगी थी। उसने बहुत धीरज के साथ बेटियों को भरोसा दिलाया था कि वह सुरक्षित है। हबि डार्लिंग ने भी सोचा था कि दोनों के जाने के बाद, …पर इस बीच उसने अपने को अपने भीतर जनमा ही नहीं लिया था बल्कि,पाल-पोस कर बड़ा भी कर लिया था।

     हबि डार्लिंग स्नानघर से तरोताज़ा होकर निकले। स्लिपिंग सूट पहना। ज़ुल्फ़ों में कंघी फिरा कर कई कोणों से अपने को देखा। डाइनिंग टेबल पर आकर बैठे। उसने खाना टेबल पर लगा दिया था। आठ-दस की जगह अब तीन  रोटियाँ ही खाते हैं हबि डार्लिंग। भाप से भरी आख़िरी रोटी प्लेट में डाल कर वह बेडरूम में चली गई। जाते-जाते कहती गई – “जूठे बर्तन सिंक में डाल देना।“

     वह बिस्तर पर थी। लस्त-पस्त। अक्सर ऐसा होता कि वह ध्वंस करती और हरहरा कर गिरते मलबे में ख़ुद ही दब जाती। सारा गर्दो गुबार उसकी आत्मा में भर जाता। ध्वंस की आवाजें बहुत देर तक अपनी बोझिल प्रतिध्वनियों के साथ उसके भीतर भाँवर काटती रहतीं। उसके हृदय की धमनियों का रक्त-प्रवाह इतना तेज़ हो जाता कि वे फटने-फटने को हो आतीं।

    “दम साधे क्यों पड़ी हो?” अपने चिर-परिचित सवाल के साथ हबि डार्लिंग ने शयन-कक्ष में प्रवेश किया।

     उसने आँखें खोल कर निमिष भर को देखा और फिर आँखें बन्द कर ली। वह बचना चाहती थी। वह अभी हर तरह की अयाचित स्थितियों से पीछा छुड़ाना चाहती थी। आँखें बन्द किए हुए धीरे से उसने कहा – “सो जाओ। ……थके होगे।“

“मैं नहीं थका हूँ। तुम्हारे पास मुझे थका देने का हुनर ही नहीं है।“ यह शिकायत नहीं दर्प था।

     वह चाहती थी थोड़ी देर पहले अपने रन्ध्रों में उमगते उस गंध की वापसी। …….वह चाहती थी गमक से आलाप में वापसी के बाद के षड़ज-स्वर की अपनी षिराओं में गूँज। ……वह चाहती थी आनन्द के उस हिंडोले से उतरने के बाद की विश्रांति का स्वप्निल सुख। …..वह चाहती थी उन सारे सुखों की वापसी, जिन्हें वह उसे सौंप गया था। वह आँखें बन्द कर अँधेरे में उस प्रकाश-वलय को खोज रही थी जिसकी दीप्ति में वह कुछ देर पहले तक डूबी हुई थी। पर क्या यह सम्भव था? वह अँधेरे में हाथ-पाँव मार रही थी कि कोई सिरा पकड़ में आ जाए कि यह आज की रात कटे, पर उसके हबि डार्लिंग उसके सौंपे सारे सुखों को चाट गए थे। उसके लिए सब कुछ अछोर था और वह बिस्तर पर बगल में अपने हबि डार्लिंग के होते हुए भी अकेली थी। कुछ ही घन्टे बीते थे कि वह उसके साथ था। उसका सुख उसके साथ था। …….कि वह एक जीवित लोक में भरा-पूरा जीवन जी रही थी। पर अब सब बदल चुका था। वह गया। यह अंदेशा उसे जल्दी लेकर चला गया कि कोई आ रहा है। उसके जाते ही पौधों पर बे-आवाज़ रेंगते हुए पत्तों-फुनगियों को चाट जाने वाले कीड़े की तरह हबि डार्लिंग आए और चाट गए सारा सुख। उसे अपने दुःखों, …अपनी पीड़ा, …अपने अकेलेपन के लिए इत्मिनान नहीं था। होता तो वह इसमें ही अपना सुख तलाश लेती। उसे ऐसे पलों में यही लगता कि मानो वह ख़ुद अपने को चबा रही है। ……कि उसके जीवन का सारा  सत्त चूस गए हबि डार्लिंग और वह अपनी ठठरी चबा रही है।

     अपनी अम्मा की मृत्यु से ठीक पहले वह अंतिम बार नइहर गई थी। बिछावन पर संज्ञा-शून्य पड़ी थीं अम्मा की असमय बूढ़ी हुई देह । अपनी लकवा ग्रस्त उस देह की ठठरी चबा रही थी अम्मा, जिसका सत्त जब तक जीते रहे, पिता चूसते रहे। अपने चेहरे पर भिनभिनाती मक्खियों को उड़ाने की ताक़त भी नहीं थी अम्मा के उन हाथों में, जिन हाथों से वे उसके केश सँवारा करती थीं। अम्मा टुकुर-टुकुर उसे निहारती रही थीं। भाई और भावज को अपने राजकाज से फु़र्सत नहीं थी। अम्मा को एक फालतू सामान की तरह घर के पिछवाड़े वाले बरामदे में फेंक दिया गया था। उसकी बेटियाँ साथ थीं। बड़ी होने के बाद पहली बार वे अपनी नानी को देख रही थीं और वह भी मृत्यु-शय्या पर। मरणासन्न। वह चाहती थी रुकना, पर हबि डार्लिंग ने कुछ घन्टों की मोहलत दी थी। वह चाहती थी अपनी अम्मा को साथ ले जाना, पर हबि डार्लिंग पहले ही चेतावनी जारी कर चुके थे। भाई जाने भी नहीं देता क्योंकि उसके भीतर यह डर कुंडली मारे बैठा था कि कहीं अगर किसी कागज़ पर अम्मा  के अँगूठे का निशान ले लिया किसी ने तो……! वह अम्मा की मृत्यु के लिए प्रार्थना करती हुई लौटी। लज्जित। …….पराजित। पराजित होकर तो वह पहली ही बार अपने नइहर से विदा हुई थी। वह लौटते हुए अपनी बेटियों से आँखें चुराती रही थी। अपनी अम्मा को असहाय छोड़कर लौटते हुए उसके पास अपनी बेटियों की आँखों में अपने लिए आश्रय तलाशने का साहस नहीं बचा था।

     जब-जब उसने अपने लिए साहस सँजोना चाहा बरसात में भींगी गाय की तरह थरथरा कर रह गई। जब-जब कसाई के ठीहे पर ज़िबह के लिए चढ़ी उसकी आँखों में भय और करुणा की काली छाया लरज़ती रही। पहली बार जब भाई ने हाॅस्टल के बेटिंग रुम में उसे उसकी सहेलियों के सामने पीटा, …कदम्ब के उस पार खड़ी उस साँवले लड़के की छाया निहारती हुई जब उसे भाई ने पकड़ा और कदम्ब को ही काट डाला, तब भी वह काँपती रही केवल। …..उसके कानों में भावज का गाया यह गीत गूँजता रहा कि ‘आवहू ननदोइया….पलंग चढ़ी बइठहू…..कचरहू मगही पान/अपना रंगीलिया के डंड़िया फनावहू….ले जाउ बैरन हमार’ और एक दिन भाई बारात बुला लाया। हबि डार्लिंग आए और वह मिमियाती हुई चली आई उनके साथ। नित नए बहाने, …कभी बोल और व्यवहार से आत्मा छिलती तो कभी हबि डार्लिंग के लात-जूतों से देह छिलती, पर वह हँकर-डँकर कर रो भी नहीं पाती।

     हबि डार्लिंग की हथेलियाँ उसकी देह टटोल रही थीं। वह दोनों टाँगें और बाहें छितराए चित पड़ी थी। उसकी देह की तमाम कोशिकाएँ हबि डार्लिंग के छूते ही रेत कणों में तब्दील हो गई थीं। जलविहीन, …सूखी हुई, …रेत भरी नदी की तरह बिछी रही वह। तेज़ आँधी की तरह बहते रहे हबि डार्लिंग और उड़ते रहे रेत के बगूले। वह चाहती थी कि इतनी रेत उड़े कि हबि डार्लिंग का मुँह, …नाक, …कान ही नहीं….फेफड़ा तक भर जाए रेत से। हूँफते हुए अलग हुए हबि डार्लिंग। एक भद्दी-सी गाली उछाल कर वाशरुम में घुस गए। वह वैसे ही पड़ी रही अपने अंग-अंग में रेत के ढूह लिये। हबि डार्लिंग वाशरुम से बाहर निकले और बालकनी में जाकर सिगरेट फूँकने लगे।

     वह सोच रही थी रात और दिन में इतना फ़र्क़ क्यों होता है। दिन में दुनिया के झमेले, पर दिन न बढ़ते हैं, न सिकुड़ते हैं। …और रातें कभी पलक झपकते बीत जाती हैं, …दूब की नोक पर टिकी ओस की तरह भाप बन कर उड़ जाती हैं और कभी सुरसा के मुँह की तरह ऐसे फैल जाती हैं कि सब कुछ समा जाता है उनमें। …….और उस रात, …जब गरजते हुए हबि डार्लिंग ने कहा था – “ …हाँ, अय्याषी करने गया था मैं। ……और अक्सर जाता हूँ। कभी लोनावाला, तो कभी खंडाला, …और कभी पुणे। तुझ जैसी लाश के साथ सो-सो कर उकता चुका हूँ मैं। …….तू तो इस लायक़ भी नहीं कि कहीं जाकर अय्याशी कर सके। कुतिया साली,  बस टाँगे छितराकर पड़ जाना जानती है। …….. पर मैं तुझे छोड़नेवाला भी नहीं। मैं भी तुझे कुत्ते की तरह नोचता-खसोटता रहूँगा। चैन से नहीं जीने दूँगा तुझे।………”

     उस रात का बलात्कार, पिछले सारे बलात्कारों पर भारी था। पर उसी रात पहली बार साहस का बीज अँखुआया था उसके सीने में। उस रात वह रोई नहीं। ……और उसके बाद कभी नहीं रोई। रातें बदलती रहीं दिन में और दिन बदलते रहे रातों में। साँझ और सुबह आती-जाती रहीं। हँसना और रोना, दोनों क्रियाओं का उसके जीवन से लोप हो चुका था। बेटियाँ आतीं, तो पता चलता कि सुबह हुई या साँझ आई। वह बेटियों के सुकून और आश्वस्ति के लिए मुस्कुराती। बेटियाँ लौटतीं और वह उनके फिर आने की आस की डोर थामे डोलती फिरती दिन और रात के बीच, …सुबह और साँझ के बीच।

     ऐसी ही एक साँझ मिला था वह। उसके लिए मुम्बई के जनसमुद्र में एक हरे-भरे द्वीप की तरह उभर आया था वह। उसे देखते ही जाने क्यों पल भर के लिए उसकी आँखों में कई दृश्य भर गए थे। उस दुबले-पतले साँवले लड़के की छवि कौंध गई थी। हाॅस्टल के गेट पर हाथ में नोट्स की कापियाँ लिये खड़ा दिखा था वह। ……उसके घर के सामने कदम्ब की ओट में थोड़ी दूर खड़ा बेचैन आँखों से उसे ढूँढ़ता हुआ दिखा था वह। ……यह उसका मतिभ्रम था, पर वह इसमें खोई रही थी कुछ पलों तक।……. छोटी हैदराबाद से आई थी। वह छोटी के साथ एक बुक-शॉप में थी। वहीं मिला था वह पहली बार। क़िताबों की रैक से अपने लिए क़िताबें चुन रहा था कि…….। वह उसे लगातार निहार रही थी। पहले तो झिझका वह। फिर मुस्कुराया। दुबला-पतला, …मँझोला कद, …उमगती हुई बड़ी-बड़ी आँखें, …करीने से सँवारी हुई जुल्फें और चेहरे पर काली-सफ़ेद बेतरतीब घनी दाढ़ी। छोटी क़िताबों के रैक में उलझी थी और वह उसके जादू में। वह पास आया। उसने हैलो किया। वह लरज़ उठी।

     “कौन सी क़िताब ढूँढ़ रही हैं आप?” हौले से पूछा था उसने।

     उसके जी में आया कह दे कि ‘तुम्हें ही ढूँढ़ रही थी। …….कहाँ गुम हो गये थे?”, पर वह चुप रही।

     “मैं आपकी मदद करूँ……क़िताब ढूँढ़ने में?”

“…बेटी के साथ हूँ। वो अपने लिए क़िताबें ले रही है…..वहाँ……वो सामने वाली रैक के पास……” बड़ी मुश्किलों से वह कह सकी।

      “कल मिलते हैं।….यहीं……इसी समय। ….आपके लिए क़िताबें ढूँढ़ कर रखूँगा। मैं तकरीबन रोज़ ही आता हूँ यहाँ।“ उसका स्वर संयत था और दृढ़ भी।

     लरज़ रही थी वह। पता नहीं, यह भय था या रोमांच! डसके होंठ काँपे “नहीं….। कल नहीं।“

     “परसों। ….मैंने कहा न कि तकरीबन रोज़ ही आता हूँ यहाँ।  संडे छोड़ कर।“

     “हूँ” उसने हुँकारी भरी। कंठ में फँसी इस हुँकारी को छाती में उमड़ती…. बेक़ाबू होती धड़कन ने बाहर धकेल दिया था।

     “थैंक्स!” कहते हुए वह आगे निकल गया। वह उसे निहारती रही। उसने पीछे मुड़कर देखा। मुस्कुराया। और एक रैक में लगी किताबों की ओट से उसे निहारता रहा। छोटी उसके पास आ चुकी थी।

     दूसरे दिन छोटी हैदराबाद गई। तीसरे दिन उसने आने के लिए हुँकारी भरी थी, पर गई नहीं। चौथे दिन सन्डे था। पाँचवे दिन वह अपने को रोक नहीं सकी थी। सोचा था कि बस एक मिनट के लिए उस बुक शॉप में जाएगी। अगर वह नहीं रहा, तो इंतज़ार नहीं करेगी। वापस लौट आएगी। ……और अगर मिल गया तो!

…वह गई। वह था। बुक-शॉप के दरवाज़े के पास वाली क़िताबों की रैक में अनमना-सा कुछ ढूँढ़ता हुआ। बार-बार अपनी आँखों से किसी के आने की आहट को टेरता हुआ।

     वे दोनों बुक-शॉप से बाहर निकले। एक कैफे में गए। उसी दिन उसने अपने फोन में उसका नम्बर दर्ज़ किया और नाम की जगह लिखा – “माय लव”। इसके बाद वह लगातार अपने माय लव से मिलती रही। कभी कैफे में, …कभी रेस्तराँ में, …कभी समुद्र तट पर। वह टहलती रही उसकी बाहों में बाहें डाल कर। कभी साथ खाना खाया …..और कभी थिएटर में साथ फ़िल्म देखा। ……..वह सालों पहले उत्तरप्रदेश के एक क़स्बे से मुम्बई आया था। फ़िल्मों के जादू ने उसे इस मायानगरी तक खींच लिया था। वह ख़ूब पढ़ता था। कविताएँ लिखता था। नाटक करता था। वह सेल्युलाइड पर कविताएँ लिखना चाहता था, सो अपना क़स्बा छोड़कर मुम्बई आ गया। वह अब तक तीन अच्छी, पर असफल फ़िल्में बना चुका था। इस बीच बमुश्किल वह अपने लिए एक कमरे का फ्लैट अर्जित कर पाया था।

     माय लव ने उसकी ज़िन्दगी बदल दी थी। वह सपने देखने लगी थी। वह कल्पनाओं के पंख लगाकर निभृत आकाश में उड़ान भरने लगी थी। माय लव को याद करते ही उसकी देह हिंडोले भरने लगती। आज पहली बार वह उसके घर आया था, …उसके बुलावे पर। अकूत धैर्य था उसके पास। यह धैर्य उसने अपनी असफलताओं से अर्जित किया था।

     …आज माय लव का यूँ लौट जाना उसे वेध गया था। अचानक उस युवा कदम्ब के कट कर गिरने से उपजी पीड़ा की तरह यह पीड़ा भी असह्य हो चली थी उसके लिए।… सिगरेट फूँक कर बिस्तर पर वापस आ चुके थे हबि डार्लिंग और खर्राटे भर रहे थे। …….और वह कमरे की नीम रोशनी में उभरते माय लव के चेहरे को निहार रही थी। उसकी साँसें उसके भीतर नई इबारतें लिख रही थीं……. कि वह अब हबि डार्लिंग के ख़ौफ़ से अपने माय लव को विदा नहीं करेगी। बेटियों के ख़ुदमुख़्तार होने में कुछ ही समय शेष है। तब तक सारे छल करेगी और अपने आँचल की ओट में बचाए रखेगी प्यार और लालसाओं की इस लौ को। ……और एक दिन हबि डार्लिंग के मुँह पर थूक कर उन्हें अय्याशी और प्यार का फ़र्क़ बताएगी। ……उसने बगल में पड़ा मोबाइल फ़ोन उठाया। कान्टैक्ट में जाकर हवि डार्लिंग को ढूँढ़ा। एडिट मोड में गई। केवल हबि रहने दिया और डार्लिंग को डिलीट किया।

‘कथादेश’ से साभार

सम्पर्क: 094310 72603,  099734 94477

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