हिंदी दिवस आने वाला है। हिंदी की दशा दिशा को लेकर गम्भीर चर्चाएँ हो रही हैं। क्या खोया? क्या पाया? आज यह लेख पढ़िए जिसे लिखा है युवा लेखक और राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम ने। भाषा के अतीत-भविष्य, सम्पन्नता-विपन्नता को लेकर उन्होंने कुछ गम्भीर बिंदु उठाए हैं जिनको लेकर चर्चा होनी चाहिए। यह लेख मूल रूप से राष्ट्रीय सहारा के परिशिष्ट हस्तक्षेप के लिए लिखा गया जहां आज सुबह प्रकाशित हुआ। वह लेख अबाध रूप से आप लोगों के लिए प्रस्तुत है-
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किसी भी भाषा का जीवन समाज की ज़ुबान पर टिका होता है। उसे प्राण वायु उस भाषा के लेखन से मिलता है। वह कहते हैं न कि जैसी ख़ुराक वैसा स्वास्थ्य, तो कोई भाषा अपने लिखित रूप में कितनी तरह से बरती जा रही है, इससे उसकी उम्र घटती-बढ़ती है। केवल मनोरंजन के लेखन से कोई भाषा दीर्घजीवी नहीं हो सकती। उसके लिए ज्ञान-विज्ञान, सूचना और संवाद की अद्यतन भाषा बने रहना ज़रूरी है। लेकिन हिंदी की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि राजनीति की भाषा बन चुकी है.
पिछले 50 वर्षों की राजनीति पर निगाह डालें तो अटल बिहारी वाजपेयी, लालू प्रसाद यादव और नरेंद्र मोदी—इन तीनों राजनेताओं की लोकप्रियता का आधार इनकी हिंदी रही है. तीनों की अपनी विशिष्ट शैली है. तीनों के श्रोता वर्ग अलग-अलग हैं. अटल जी की अपनी अलग ज़मीन है. वे शुद्ध, सुसंस्कृत हिंदी बोलने वालों में प्रतिनिधि राजनेता हैं. लेकिन लालू प्रसाद यादव और नरेंद्र मोदी ठीक उनके उलट भदेस हिंदी के नेता हैं. लालू जी बिहार और मोदी जी गुजरात की हिंदी बोलते हैं. इन दोनों के उच्चारण में क्षेत्रीय प्रभाव पूरम्पूर है. इनका उदय राष्ट्रीय राजनीति के फ़लक पर टेलीविज़न के उस दौर में हुआ जब ख़बरों की कारोबारी दुनिया मनोरंजन के बाज़ार से होड़ लेने पर उतारू थी. दोनों की वक्तृत्व शैली और क्षमता का भरपूर दोहन न्यूज़ चैनलों ने किया है. लेकिन सभाओं और ड्राइंग रूम में पिटी जा रही तालियों की गूँज से राजनेता मज़बूत होते हैं, भाषा मज़बूत नहीं होती. ऐसा हम इन बीते दशकों में देख चुके हैं.
जिन तीन राजनेताओं का जिक्र किया जा रहा है, उनमें से एक प्रधानमंत्री रह चुके हैं. दूसरे अभी प्रधानमंत्री हैं. जब ये दोनों राजनेता प्रधानमंत्री बने तो हिंदी समाज में उत्साह की लहर दौड़ गई. दोनों के शपथ-ग्रहण के साथ ही हिंदी को विश्वभाषा और यूनेस्को की भाषा बनाने के अरमान हिंदी समाज में आसमान में तैरने लगे. लेकिन दुर्भाग्य कि दोनों प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में हिंदी की ज़मीनी सचाई नहीं बदली.
इतिहास गवाह है कि जो भी भाषा सत्ता के भरोसे रही है, वह ज़मीनी स्तर पर कमज़ोर हुई है. जो लोक में बहुविध प्रयोग में रही है, वही फली-फूली और मज़बूत होती गई है. हिंदी को किसी दरबार ने प्रश्रय नहीं दिया था. इसे बाज़ार ने बढ़ाया था. यह व्यापारियों के साथ उत्तर से दक्षिण भारत तक पसरी. अभी भी हिंदी की जो स्वीकार्यता है, वह किसी संवैधानिक दबाव से नहीं, राजनीतिक ताकत से नहीं, बाजार की ज़रूरत से है. लेकिन सवाल यह है कि क्या बाज़ार किसी भाषा को सम्मान और अमरत्व भी दे सकता है? नहीं. क्योंकि बाज़ार ठहराव से नहीं चल सकता. वह बदलती मांगों से ताकत पाता है. हर नई पीढ़ी अपने हिसाब से अपनी दुनिया बनाती है. उसमें न केवल उसकी ज़रूरतें बदलती और विकसित होती हैं, बल्कि उनके अनुरूप भाषा भी घिसती और बदलती जाती है. इसी प्रक्रिया में लम्बे समय बाद भाषा बदल जाती है. संस्कृत, लैटिन, फ़ारसी तो छोड़िए, क्या बांग्ला और कन्नड़ जैसी भाषाएँ भी अब वहीं हैं जो सौ-दो सौ साल पहले थीं? नहीं. हिंदी और उर्दू क्या वही हैं जो सौ-डेढ़ सौ साल पहले थीं? नहीं. पुरानी पीढ़ी कहती है, भाषा बिगड़ रही है. नई पीढ़ी कहती है, भाषा बदल रही है. हमारे लिए देखना यह ज़रूरी है कि बदलाव किस तरह का है? वह नया कुछ जोड़ रहा है या घटा रहा है?
भारतेंदु हरिश्चन्द्र जब कह रहे थे कि ‘हिंदी नई चाल में ढली’ तो सचमुच उस समय हिंदी में लेखन के स्तर पर बहुत कुछ सकारात्मक घटित हो रहा था. श्रोताओं को पाठक में तब्दील करने की ही मुहिम नहीं छिड़ी हुई थी, बल्कि उनके लिए उपयोगी और अनुकूल पाठ-सामग्री भी तैयार की जा रही थी. कविता सुनकर झूमने वाले समाज के दिमाग़ में यह बात डाली जा रही थी कि ज्ञान और हैसियत के लिए पढ़ने का हुनर होना ज़रूरी है. जो नए-नए पाठक बन रहे थे, उनको अपनी भाषा से जोड़े रखने के लिए विविध विषयों पर विविध शैलियों में लेखक लिख रहे थे. पत्रकार अपने पाठकों को भरमाने का काम नहीं कर रहे थे. वे सीमित संसाधनों के बावजूद उन्हें जागरूक बनाने का काम कर रहे थे. हम बीसवीं शताब्दी के पहले बीस वर्षों की हिंदी से इक्कीसवीं सदी के पहले बीस वर्षों की हिंदी की तुलना करें तो पाएंगे कि यह भाषा विपन्न हुई है. तब ज़्यादा सम्पन्न थी. ऐसा क्यों हुआ है?
पिछले बीस वर्षों में एक दशक से अधिक का समय अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रीत्व का दौर है. इस दौरान हम हिंदी के लिए सरकारी ताकत, वैश्विक हैसियत बढ़ाने को ज़्यादा उत्सुक रहे हैं. लेकिन इन दो दशकों में हिंदी को जो भी ताकत और ऊर्जा मिली है, वह सरकार से नहीं, बाज़ार से मिली है. आपातकाल के बाद की परिस्थितियों में धीरे-धीरे हिंदी जिस तरह बेबस और धूमिल पड़ती जा रही थी, वह बीसवीं शताब्दी के बीतने-बीतने तक नए मध्यवर्ग और नव शिक्षित दलित-पिछड़े वर्ग से नई ऊर्जा पा रही थी. यह वही नौजवान पीढ़ी थी जो ज्ञान, सूचना और स्वस्थ मनोरंजन के लिए नए तरह का साहित्य, नए तरह का सिनेमा चाह रही थी. जिसे सोशल मीडिया का बल मिल चुका था. वह अब मुँह जोहने वाली पीढ़ी नहीं थी. अपनी बात खुलकर कहने और लिखने वाली पीढ़ी थी. उसके पास ख़ारिज करने की ऐसी ताकत थी, जिससे उसने भाषा को उत्पाद में बदलने वालों को मजबूर किया कि वे उसकी जरूरतों के अनुकूल ढलें. बावजूद इसके हिंदी समाज का एक बड़ा तबका अभी भी दूसरों का मुँह जोहने का अभ्यस्त है. वह जितनी जल्दी यह समझ ले कि उसकी भाषा की ताकत किसी नेता के हिंदी भाषण में नहीं है, उतना अच्छा.
हिंदी की असली ताकत हिंदी माध्यम की स्कूली किताबों में है, प्रतियोगी परीक्षाओं के हिंदी माध्यम में होने में है, ज्ञान-विज्ञान और समसामयिक विषयों पर हिंदी में होने वाले समृद्ध लेखन में है, हिंदी में स्वस्थ और सच्ची पत्रकारिता के होने में है, अच्छे समाज के सपने से जुड़े सिनेमा और संगीत में है, अन्य भारतीय भाषाओँ से मैत्री में है—यह बात समझकर ही हम हिंदी को नवजीवन दे सकते हैं.
सत्यानन्द निरुपम
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