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कैलाश सत्यार्थी की तीन कविताएँ

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बहुत कम लोग जानते हैं कि नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता श्री कैलाश सत्यार्थी कवि भी हैं। अपने मन के भावों- विचारों को शब्दों के माध्यम से वे अकसर व्यक्त करते रहते हैं। बाल शोषण के खिलाफ अपनी जन-जागरुकता यात्राओं और आंदोलन के गीत वे खुद रचते हैं। उनकी कलम समय-समय पर बच्चों से लेकर समाज के वंचित और हाशिए के लोगों के दर्द को बयां करती रहती है। बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ करीब तीन साल पहले उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी जन-जागरुकता यात्रा आयोजित की थी। इस यात्रा का चर्चित थीम सांग हम निकल पड़े हैं… उन्होंने खुद लिखा था। जिसे चर्चित इंडियन ओसिन बैंड ने अपनी आवाज दी थी। बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ उनका यह गीत यू-ट्यूब पर काफी लोकप्रिय हुआ था।

कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही उनके अंदर का लेखक जगा और वे शब्दों का मोल समझने लगे। अखबारों में वे वैचारिक लेख से लेकर यात्रा वृत्तांत और रिपोर्ताज आदि लिखने लगे। अस्सी के दशक के शुरुआत में इंजीनियरिंग का अपना बेहतरीन करियर छोड़ कर बाल मजदूरी के खिलाफ अलख जगाने निकले श्री सत्यार्थी ने कलम और शब्द को ही अपना हथियार बनाया। बाल अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए उन्होंने संघर्ष जारी रहेगा…. और क्रांतिधर्मी नामक पत्रिका का प्रकाशन और संपादन किया।

श्री सत्‍यार्थी की लेखन शैली थोड़ी अलग है। वह प्रतीकात्‍मक और आत्‍मीय अंदाज में कविताएं लिखते हैं। उनकी कविताओं में व्‍यक्‍त आक्रोश और व्‍यंग्‍य हालात की भयावहता का पता देते हैं। श्री सत्यार्थी आशावादी हैं। लिहाजा, इन बातों के बावजूद श्री सत्‍यार्थी को भरोसा है कि यह उदास मंजर छंटेगा, क्‍योंकि सुबह का आगाज घने अंधकार के बाद ही होता है। दुनिया के इस शांति दूत का मानना है कि लोगों में करुणा का संचार कर ही मानवता को बचाया जा सकता है और खुशहाल और शांतिमय दुनिया का निर्माण किया जा सकता है। इसीलिए वे बार-बार करुणा के भूमंडलीकरण की बात करते हैं। 

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1. तब हम होली खेलेंगे
 
हर साल होली पर
उगते थे इंद्रधनुष
दिल खोल कर लुटाते थे रंग
 
 
मैं उन्हीं रंगों से सराबोर होकर
तरबतर कर डालता था तुम्हें भी
तब हम एक हो जाते थे
अपनी बाहरी और भीतरी
पहचानें भूल कर
 
 
लेकिन ऐसा नहीं हो सकेगा
इस बार
सिर्फ एक रंग में रंग डालने के
पागलपन ने
लहूलुहान कर दिया है
मेरे इंद्रधनुष को
 
अब उसके खून का लाल रंग
सूख कर काला पड़ गया है
अनाथ हो गए मेरे बेटे के
आंसुओं की तरह
जिसकी आंखों ने मुझे
भीड़ के पैरों तले
कुचल कर मरते देखा है
 
जिस्म पर नाखूनों की खरोंचें और फटे कपड़े लिए
गली से भाग, जल रहे घर में जा दुबकी
अपनी ही किताबों के दमघोंटू धुएं से
किसी तरह बच सकी
तुम्हारी बेटी के स्याह पड़ गए
चेहरे की तरह
 
आसमान में टकटकी लगा कर
देखते रहना मेरे दोस्त
फिर से बादल गरजेंगे
फिर से ठंडी फुहारें बरसेंगी
फिर इन्द्रधनुष उगेगा
वही सतरंगा इन्द्रधनुष
 
और मेरा बेटा, तुम्हारी बेटी, हमारे बच्चे
उसके रंगों से होली खेलेंगे।
 
 
2. मरेगा नहीं अभिमन्यु इस बार
 
सदमे में अचेत अस्पताल में पड़ी मेरी मां
महसूस नहीं कर सकती प्रसव पीड़ा तक
और मैं छटपटा रहा हूं दुनिया में आने के लिए
गर्भ में बैठा सुन रहा हूं भयानक कोलाहल
बाहर हर तरफ भीड़ ही भीड़ है
कहां दुबक गए हैं इंसान
शायद बचे ही नहीं
इंसानियत मरती है तभी जन्मती है भीड़
उसके जिंदा रहने पर तो समाज बनता है।
कल एक भीड़ ने हत्या कर दी थी मेरी मां के शौहर की
पोंछ डाला था उसकी मांग का सिंदूर 
 
सुना था वे झुनझुने, खिलौने, झबेले और
बुरी नजर से बचाने वाला ताबीज लेने निकले थे लेकिन लौटे नहीं
ना ही वे लौटे वे हाथ जो मां के पेट के ऊपर से ही सही
खुद को ढूंढ लेते थे मुझमें
पीठ जो घोड़ा बनने को अकुला रही थी
नहीं लौट सके मेरी हर बात सुन सकने वाले कान  
 
न जाने कहां, कब और किससे सुनी थी
मेरे पिता ने एक कहानी
किसी अभिमन्यु की कहानी
जिसे सुनाकर वे मेरी मां को या शायद मुझे
सुनाते रहते थे और भी ढेरों कहानियां
मोहब्बत की, अमन की, इंसानियत की
नहीं होती थी उसमें कोई कहानी
मजहब की, अंधभक्ति की और सियासत की
शायद वे जानते थे कि इन्हीं से भीड़ बनती है
या फिर कोई और कहानी जानते ही नहीं थे।
 
मेरी मां जल्दी ही जागेगी
मैं जल्दी ही आऊंगा दुनिया में
लेकिन इस बार भीड़ वध नहीं कर सकेगी
अभिमन्यु को अकेला घेरकर
चक्रव्यूह तोड़ेगा अभिमन्यु इस बार
 
और बाहर भी निकलेगा
क्योंकि सबसे अलग थे मेरे पिता
मां के पेट में उन्होंने मुझे
हिंदू या मुसलमान नहीं
सिर्फ और सिर्फ इंसान बनाया है
मरेगा नहीं अभिमन्यु इस बार
युद्ध जीतेगा।
 
 
3. गांव की तरफ लौट रहे प्रवासी मजदूर
 
मेरे दरवाज़े के बाहर घना पेड़ था,
फल मीठे थे
कई परिंदे उस पर गुज़र-बसर करते थे
जाने किसकी नज़र लगी
या ज़हरीली हो गईं हवाएं
 
बिन मौसम के आया पतझड़ और अचानक
बंद खिड़कियां कर, मैं घर में दुबक गया था
बाहर देखा बदहवास से भाग रहे थे सारे पक्षी
कुछ बूढ़े थे तो कुछ उड़ना सीख रहे थे
 
छोड़ घोंसला जाने का भी दर्द बहुत होता है
फिर वे तो कल के ही जन्मे चूज़े थे
जिनकी आंखें अभी बंद थीं, चोंच खुली थी
उनको चूम चिरैया कैसे भाग रही थी
उसका क्रंदन, उसकी चीखें, उसकी आहें
कौन सुनेगा कोलाहल में
 
घर में लाइट देख परिंदों ने
शायद ये सोचा होगा
यहां ज़िंदगी रहती होगी,
इंसानों का डेरा होगा
कुछ ही क्षण में खिड़की के शीशों पर,
रोशनदानों तक पर
कई परिंदे आकर चोंचें मार रहे थे
मैंने उस मां को भी देखा, फेर लिया मुंह
मुझको अपनी, अपने बच्चों की चिंता थी
 
 
मेरे घर में कई कमरे हैं उनमें एक पूजाघर भी है
भरा हुआ फ्रिज है, खाना है, पानी है
खिड़की-दरवाज़ों पर चिड़ियों की खटखट थी
भीतर टीवी पर म्यूज़िक था, फ़िल्में थीं
 
देर हो गई, कोयल-तोते,
गौरैया सब फुर्र हो गए
देर हो गई, रंग, गीत, सुर,
राग सभी कुछ फुर्र हो गए
 
ठगा-ठगा सा देख रहा हूं आसमान को
कहां गए वो जिनसे हमने सीखा उड़ना
कहां गया एहसास मुक्ति का, ऊंचाई का
और असीमित हो जाने का
 
पेड़ देखकर सोच रहा हूं
मैंने या मेरे पुरखों ने नहीं लगाया,
फिर किसने ये पेड़ उगाया?
बीज चोंच में लाया होगा उनमें से ही कोई
जिनने बोए बीज पहाड़ों की चोटी पर
दुर्गम से दुर्गम घाटी में, रेगिस्तानों, वीरानों में
जिनके कारण जंगल फैले, बादल बरसे
चलीं हवाएं, महकी धरती
 
धुंधला होकर शीशा भी अब,
दर्पण सा लगता है
देख रहा हूं उसमें अपने बौनेपन को
और पतन को
 
भाग गए जो मुझे छोड़कर
कल लौटेंगे सभी परिंदे मुझे यक़ीं है, इंतजार है
लौटेगी वह चिड़िया भी चूज़ों से मिलने
उसे मिलेंगे धींगामुश्ती करते वे सब मेरे घर में
सभी खिड़कियां, दरवाज़े सब खुले मिलेंगे
आस-पास के घर-आंगन भी
बांह पसारे खुले मिलेंगे।

 

 

 

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