महान अभिनेता इरफ़ान के असमय निधन ने सबको उदास कर दिया है। यह श्रद्धांजलि लिखी है जाने माने युवा पत्रकार-लेखक अरविंद दास ने- मॉडरेटर
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इरफान अभी यात्रा के बीच थे. उन्हें एक लंबी दूरी तय करनी थी. हिंदी सिनेमा को उनसे काफी उम्मीदें थी. हिंदी जगत की बोली-बानी, हाव-भाव, किस्से-कहानी पर पिछले दो दशकों में बॉलीवुड में जोर बढ़ा है. उदारीकरण के दौर में विकसित इस देशज चेतना के वे प्रतिनिधि कलाकार थे. उनकी अदाकारी में एक सम्मोहन था, जिसे देखने-परखने वालों ने उनके एनएसडी के दिनों में ही नोट किया था. पुराने दौर के लोग ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ (1987-88) नाटक में उनके अभिनय को याद करते हैं.
वे एनएसडी के अस्तबल से निकले ऐसे घोड़े थे, जिसकी आँखों में बड़े परदे के सपने थे. पर बहावलपुर हाउस (एनएसडी) से बॉलीवुड और हॉलीवुड की उनकी यात्रा काफी लंबी और संघर्षपूर्ण थी. छोटा परदा (टेलीविजन) एक पड़ाव था. वर्ष 2004 में विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ में एनएसडी के अग्रजों- नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर और समकालीन पीयूष मिश्रा के साथ ‘मकबूल’ के किरदार को उन्होंने जिस सहज अंदाज में जिया वह हिंदी सिनेमा के प्रेमियों के बीच उन्हें मकबूलियत दी. फिल्म मक़बूल (2004) ही थी जिसे मैंने बड़े परदे पर ‘चाणक्य’ सिनेमा हॉल में दो बार देखा था. फिल्म देखने के बाद मैंने जनसत्ता अखबार के लिए एक टिप्पणी लिखी- ‘खेंचे है मुझे कुफ्र’. इसमें बॉलीवुड में थिएटर की पृष्ठभूमि से आए कलाकारों की दुखद स्थिति और बेकद्री का जिक्र था. इरफान खुद इस बेकद्री को झेल चुके थे.
हालांकि इससे पहले एनएसडी के दिनों के मित्र और निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की कैंपस राजनीति को केंद्र रख कर बनी ‘हासिल (2003)’ फिल्म ने उन्हें पहचान दिला दी थी. कहने को वे मीरा नायर की बहुचर्चित ‘सलाम बॉम्बे’ (1988) और तपन सिन्हा की पुरस्कृत फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ (1990) में दिखे थे, पर उन्हें नोटिस नहीं किया गया. बाद में मीरा नायर की ‘नेमसेक’ ने जहाँ उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया वहीं तिग्मांशु धूलिया की ‘पान सिंह तोमर’ (2012) ने राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाया.
मैं फिर से उनकी कम चर्चित फिल्म ‘क़रीब क़रीब सिंगल’ (2017) देख रहा था, जिसमें उनके साथ मलयालम फिल्मों की काबिल अभिनेत्री पार्वती थिरूवोथु है. इस फिल्म में उन्हें जितना स्क्रीन टाइम मिला है उतना उन्हें पूरे कैरियर में दो-एक फिल्मों में ही मिल पाया. क्राफ्ट पर एक अभिनेता की पकड़ के लिए यह फिल्म देखी जानी चाहिए. उनकी हँसी, आँखों की भाव-भंगिमा, संवाद अदायगी का अंदाज उन्हें आम दर्शकों के करीब ले आता है. यही कारण है कि उनके असमय गुजरने का दुख किसी आत्मीय के गुजरने का दुख है.
इस फिल्म में प्रेम के फलसफे को उन्होंने जिस खूबसूरती और खिलंदड़ापन के साथ जिया है वह हमारे समय के करीब है. इरफान का किरदार कहता हुआ प्रतीत होता है- प्रेम में हैं तो अच्छा , प्रेम को खो चुके हैं तो फिर से नए प्रेम की तलाश में रहिए…एक और जिंदगी आपका इंतज़ार कर रही है.
मैंने नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा आदि को मंच पर नजदीक से देखा-सुना है. पर इरफान को कभी नहीं देखा. मुझे उनसे रश्क है जो उनके करीब थे. मैं कभी उनसे बात नहीं कर पाया. मुझे दुख है कि मैं कभी मिल भी नहीं सका.
‘करीब करीब सिंगल’ फिल्म में जब वे अपनी तीसरी प्रेमिका से मिलने जाते हैं तो उसे नृत्य में मग्न पाते है. एक झरोखे से वे उसे देखते हैं और उसके लिए काग़ज़ पर एक नोट छोड़ जाते हैं- ‘तेरी उड़ान को मेरा सलाम.’ सलाम इरफान!
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