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कोरियाई उपन्यास ‘सिटी ऑफ़ ऐश एंड रेड’और महामारी

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महामारी के काल को लेकर बहुत लिखा गया है। अलग अलग भाषाओं में लिखा गया है। आज एक कोरियाई उपन्यास ‘सिटी ऑफ़ ऐश एंड रेड’ की चर्चा। लेखक हैं हे यंग प्यून। इस उपन्यास पर लिखा है कुमारी रोहिणी ने, जो कोरियन भाषा पढ़ाती हैं

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लॉकडाउन के इस दौर में पिछले दिनों आम दिनों के बनिस्पत पढ़ने लिखने का काम थोड़ा सा ज़्यादा हुआ. कई सालों के अंतराल के बाद किताबों को उलटना पलटना छोड़कर पूरी पूरी किताब को पढ़ने की कोशिश जारी है.

इस लगभग महीने भर की घरबंदी के दौरान मैंने कई किताबें पढ़ी हैं (कुछ अधूरी हैं, कुछ पूरी हुई).

इन किताबों में से एक किताब हे यंग प्यून की “City of Ash and Red”. 2010 में प्रकाशित इस उपन्यास के केंद्र में एक ऐसा व्यक्ति है जो देश/विश्व में फैले हुए संक्रमण वाली किसी बीमारी का शिकार हो जाता है. हालाँकि बीमारी की पहचान नहीं हुई है लेकिन यह चूहों से फैलने वाली बीमारी है. (संभवत: प्लेग)

इस कहानी का मुख्य पात्र एक आदमी है जिसका नाम कहानीकार ने देना ज़रूरी नहीं समझा है. पूरी किताब में वह “एक आदमी” के नाम से ही संबोधित किया गया है. वह “एक आदमी” कीटनाशक दवाओं के छिड़काव वाली किसी कम्पनी में काम करता है. वहाँ काम करते करते उसकी कम्पनी ने उसका ट्रांसफ़र किसी दूसरे देश में कर दिया है. कहानी आगे बढ़ती है और वह उस देश के हवाई अड्डे पर इमिग्रेशन की पंक्ति में खड़ा है जहाँ उसकी कम्पनी ने काम करने के लिए उसे भेजा है. वह बीमार है और शायद किसी बीमारी से भी संक्रमित है. वह “एक आदमी” Y नाम के इस देश में (यहाँ फिर से लेखिका ने देश को भी नाम देना आवश्यक नहीं समझा है) काम करने के उद्देश्य से आया है. लेकिन जब वह अपने रहने वाले अपार्टमेंट में पहुँचता है तो उसे यह एहसास होता है कि वह इमारत कूड़े के उस विशाल ढेर पर बसा हुआ एक छोटा सा द्वीप जैसा है, जहाँ एकत्रित कूड़ों को शायद सदियों से हटाया नहीं गया है. थोड़े ही समय में उसे यह एहसास हो जाता है कि उसकी कम्पनी ने उसे अपनाने से मना कर दिया है और शायद उसके लिए वहाँ किसी तरह का काम भी नहीं है. इससे पहले कि वह इस मामले में कुछ कर पाता उस पूरी इमारत को क्वॉरंटीन कर दिया जाता है, और यहाँ से उसके जीवन की स्थिति बद से बदतर होती जाती है.

लेखिका प्यून ने एक भयावह सपने की तरह इस कहानी को आगे बढ़ाया है जिसे एक बार में बिना विचलित हुए पढ़ पाना लगभग असंभव हो जाता है. इस कहानी की पटकथा किसी सर्वनाश के बाद की स्थिति पर (भविष्यसूचक) आधारित है. कहानी को पढ़ते हुए लगातार उस सर्वनाश का इंतज़ार रहता है लेकिन वह स्पष्ट रूप से कभी सामने नहीं आता है. बल्कि यह पूरी कहानी एक ऐसे आदमी के इर्दगिर्द घूमती है जो एक दफ़्तर के कर्मचारी से कूड़े के ढेर में रहने वाला आवारा बन जाता है और वास्तव में उसकी स्थिति इससे भी ख़राब और दयनीय होती जाती है.

प्यून की कहानियों को पढ़ते हुए आपको कई बार काफ़्का की कहानियों की याद आती है क्योंकि काफ़्का की कहानियों की तरह ही प्यून की कहानियों में भी कोई स्पष्ट और तय नियम नहीं होता है. हर अगली पंक्ति अनिश्चित होती है और बड़ी ही निष्ठुरता से लेखिका पाठक के अंदेशे को ग़लत साबित कर देती हैं. पढ़ते हुए आपको लगता है कि अब सबकुछ ठीक होगा और तभी कहानी और बदतर हो जाती है.

मेरे लिए इस किताब को पढ़ना आसान नहीं रहा. इसके कई कारण थे. एक तरफ़ जहाँ कहानी का मुख्य पात्र इस भयावह स्थिति का सामना कर रहा है वहीं उसके निजी जीवन की कई ऐसी बातें उभर कर सामने आती हैं जिसके कारण आपको न तो उससे किसी तरह की सहानुभूति होती है और ना ही आप उसे पसंद कर पाते हैं.

हालाँकि उस आपदा के कारण वह एक दफ़्तर के कर्मचारी से कूड़े के ढेर में चूहा मारने वाला एक इंसान बन गया था और उसने इस काम में महारत हासिल कर ली थी. लेकिन उसके निजी जीवन के कृत उसे और भी गंदा और घिनौना बनाते हैं. यहाँ जब किसी दूसरे देश में बिना किसी काम धंधे के वह एक किराए के अपार्टमेंट में बंद है वहीं उसके अपने देश में उसकी पत्नी अपने ही घर में मृत पाई जाती है. स्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि वह “एक आदमी” ही अपनी पत्नी का हत्यारा प्रतीत होता है. परिणामवश उसे विदेश में अपने उस किराए के घर से भी हाथ धोना पड़ता है क्योंकि वह अब एक सम्भावित अपराधी हो गया है. प्यून ने इतनी सहजता से दोनों पहलुओं को कहानी में पिरोया है कि उस “एक आदमी” की कौन सी स्थिति बदतर है यह समझना मुश्किल हो जाता है. हालाँकि समकालीन कोरियाई साहित्य को पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि यंग प्यून एक मात्र ऐसी कोरियाई साहित्यकार नहीं हैं जिनकी लेखनी में ही सिर्फ़ ये पहलू उभर कर आते हैं बल्कि हाल के अन्य कोरियाई कथा-साहित्य में भी ऐसा देखने को मिलता है.

इस उपन्यास को पढ़कर कहा जा सकता है यह सभी के पढ़ने के लिए नहीं लिखी गई है. निश्चित रूप से यह एक तनावपूर्ण और गम्भीर मनोवैज्ञानिक थ्रिलर है. इसे पढ़ते हुए आपको मैककार्थी के उपन्यास “द रोड” के खुलेपन के मिलने की उम्मीद भी जागती है लेकिन चूँकि प्यून की कहानियों की यह ख़ासियत है कि वह अक्सर ही भविष्यसूचक स्थितियों के साथ उछलकूद करती हैं और पूरी पटकथा को अलग मोड़ मिल जाता है और जिसे पढ़कर आप उसे अपरिहार्य मान लेते हैं और इसका अंत इस तरह से होता है कि आप मैककार्थी के उस खुलेपन से वंचित रह जाते हैं जिसकी उम्मीद आपने शुरुआत में देखी थी.

आज के इस समय में जब विश्व कोरोना की आपदा से गुज़र रहा है, यह किताब मुझे बहुत ज़्यादा प्रासंगिक लगती है.

कोरोना की वजह से विश्वभर में न जाने कितने ही लोग प्यून के उस “एक आदमी” तरह अपने जीवन की बदतर स्थिति में पहुँच रहे हैं, पहुँच चुके हैं जिनकी न तो उन्होंने कल्पना की होगी और न ही हमने. आज जब एक तरफ़ इंसान को इंसान से ख़तरा है वहीं इंसानियत पर भी ख़तरा है. इस विश्वव्यापी संकट से उबरने के क्रम में और उसके बाद भी बेरोज़गारी, ग़रीबी, अपराध आदि के आँकड़ों में इज़ाफ़ा अपरिहार्य है.

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सिटी ऑफ़ एश एंड रेड मूलत: कोरियाई भाषा में “재와 빨강” के नाम से 2010 में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी अनुवाद: City of Ash and red (2018)

लेखक: हे यंग प्यून

अनुवादक: किम सोरा रसेल

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