Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World Literature
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1579

पीयूष दईया के कविता संग्रह ‘तलाश’पर अरूण देव की टिप्पणी

$
0
0

कवि पीयूष दईया का कविता संग्रह हाल में ही आया है ‘तलाश’, जिसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। वे हिंदी की कविता परम्परा में भिन्न तरीक़े से हस्तक्षेप करने वाले प्रयोगवादी कवि हैं। इस संग्रह की कविताओं पर कवि अरूण देव ने यह सुंदर टिप्पणी की है- मॉडरेटर

=============

पीयूष दईया का कविता संग्रह ‘त(लाश)’ चित्रकार और लेखक अखिलेश के रेखाचित्रों से सुसज्जित है. यह कवि और चित्रकार का संग्रह है. संग्रह नौ खंडों में विभक्त है.

पता है, त(लाश)

कोई भूमि(का) नहीं

अ(मृत)

सफ़ेद पाण्डुलिपि

कृष्ण-काग़ज़

प्याऊ

कान लपेटे कवि (ता)

नी ली नि त म्ब ना र

यामा

संग्रह का मुख्यपृष्ठ अखिलेश ने बनाया है. पहले खंड की शुरुआत भी अखिलेश के रेखांकन से होती है जिसमें देवनागरी में ‘पता है, त(लाश)’ शब्द और रेखाओं से लिखा गया है.  संग्रह में बाईस रेखांकन हैं जो कविताओं के सहमेल में निर्मित किये गए हैं. दोनों को साथ में पढ़ना-देखना शब्द और रेखाओं से युक्त आस्वाद के नये बनते परिसर में रहना है.

पीयूष की कविताएँ निराकार हैं, किसी उद्देश्य या मूर्तता की प्रत्याशा में इन्हें नहीं पढ़ना चाहिए. यह किसी पूर्वनिर्धारित मंजिल की तरफ नहीं जाती हैं. राह ही मंजिल है. यहाँ शब्द अर्थ का पीछा नहीं करते ख़ुद अर्थ रचते हैं. जन्म-मृत्यु, आकर्षण-वैराग्य के बीच कवि खड़ा है. कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर ये कविताएँ समकालीन काव्य-विवेक का विस्तार करती हैं. ये नई सदी की कविताएँ हैं. इनमें प्रयोग और प्रयोग-अति की किसी परम्परा का परिणाम त(लाश)ने की हड़बडी   अभी रहने दें.

इसका आमुख कृष्ण बलदेव वैद ने लिखा है और इसकी ‘संश्लिष्ट संवेदना’ और ‘संक्षिप्त संरचना’ को रेखांकित किया है. कवर के पृष्ठ पर अंकित अनुमोदन में मुकुंद लाठ इसे ‘सूक्ष्म’ और ‘मोहक’ पाते हैं, फ्लैप पर प्रभात त्रिपाठी इसे ‘पाठ का मुक्त अवकाश बिलकुल ही अलग और मौलिक’ समझते हैं.

(एक)

‘इस देस

अकेले आये हैं, अकेले जाना है’

इस खंड में बारह कविताएँ हैं और पांच रेखांकन. रेखांकनों में देवनागरी में शब्द भी हैं कहीं-कहीं. तलाश किसकी है वह जो अब ‘लाश’ है. जिसे शब्द गढ़ते हैं और जिससे अर्थ छूट जाता है. जहाँ जितनी ध्वनियाँ हैं उतना ही मौन. एक जुलूस है अपने पीछे अपना सन्नाटा छोड़ते हुए. अपने को खोजता हुआ कवि कहीं नहीं पहुंचता. इन बारह कविताओं में कुछ पाने की निरर्थकता को पीयूष पकड़ने की कोशिश करते हैं. ज़ाहिर है इस पकड़ने की सार्थकता इसकी असफलता में ही है. जीने और मरने की रौशनी के बीच. साथ में बे-साथ, होने की अनहोनी और लिखने की शब्द-हीनता में कहीं, ये कवितांश डोलते हैं.

‘शांत होती चिता की लपटें

एक छोटी -सी लौ में बदल

रही थीं’

(दो)

‘असीसते

जैसे फूल, रक्त में शब्द’

 भूमि और भूमिका और रीति से परे. धुंधलके में बे-आहट. कोई घर नहीं जहाँ लौटना हो. कविता की अपनी कोई रीति पीयूष जैसे कवियों के लिए हो भी नहीं सकती. आईने को तोड़ कर वह अक्स भी तोड़ देते हैं. ‘अकेला’, ‘सुंदर’, ‘स्वच्छंद’ और ‘निरपेक्ष’. वह दृश्य को खो देने वाले कवि हैं.

‘-जो मेरा प्राप्य है

चुन लूँगा-‘

(तीन)

‘(अ)मृत है हमेशा

जलता आग में’

‘अ(मृत)’ में दो कविताएँ हैं. ‘ज्योत्स्ना मिलन के लिए.’ और अखिलेश के दो रेखाचित्र भी.  अपार्थिवता को ज्ञापित ये कविताएँ शिल्प में पार्थिव हैं, मृत से अ-मृत की ओर फैलती हुई दृश्य को मूर्त करती हैं. आवाज़ और लेखनी के बीच होने की स्मृति को पीयूष विन्यस्त करते हैं. ख़त और फ़ोन, होने और न होने के बीच लेखिका का हमेशा के लिए ठहर जाना. मार्मिकता काव्य-मूल्य अभी भी है. स्थगित संवेदनाओं के इस समय में भी, जो  इन कविताओं में सघन हुआ है.

‘और(त) ति रो हि त

ले खि का’

(चार)

‘खो गया है मार्ग

कहाँ जाऊं

‘सफ़ेद पांडुलिपि’ में बाईस कविताएं हैं. ये उत्तर कविताएँ हैं. इसमें भारतीय मनुष्य का उत्तर-जीवन है. जिसे आधुनिकता ने गढ़ा और बर्बाद किया है. जिसे उपनिवेश ने रचा और हमेशा के लिए जिसमें अपना निवेश कर लिया है. इसे उत्तर होकर ही समझा, सोचा और सृजित किया जा सकता है.

इस खंड में फूल समय का रूपक है जिसे उत्तर होकर कवि खिला हुआ देखता है, उसे (फूल चुनना) चुनने से पहले पानी देता है. जहाँ-जहाँ वह निरुत्तर होता है वहां एक फूल है, प्रश्न ख़ुद अपने में फूल हैं, मानवता के सबसे सुंदर पुष्प, उत्तर तो उनकी काट छांट करता है, खिला हुआ शव पर चढ़ने  के लिये जो सभी प्रश्नों का मौन-उत्तर है, एक महा-उत्तर.

कवि शब्दों की जगह फूल को रखते हुए, जीवन और मरण की बीच आलोकित होता है. उसे कविता, अर्थ, अमरता, परम्परा से दूर ख़ाली काव्य-पोथी से प्यार है. शब्द अर्थ को स्पर्श नहीं करते. स्याही ने अर्थ को सीमित कर कितने अनुभवों को भी सीमित किया है. यह अर्थ पर शब्दों की हिंसा है. एक राष्ट्र-राज्य है. तमाम अस्मिताओं पर एक पहचान थोपता हुआ. शब्द-शब्द नहीं कालिख हैं. कवि सभ्यता की सांझ में डूबता बैरागी है.

‘जब रात में अकेले जगता रहता हूँ

सफ़ेद पांडुलिपि पढ़ते हुए.’

 (पांच)

‘गोया रोशनी के घोंसले में

बसी हो’

‘कृष्ण-काग़ज़’ में तीन कविताएँ हैं. ये कविताएँ भी शब्द और अर्थ के द्वंद्व में छाया की तरह डोलती हैं. काले पन्ने पर आप लिख नहीं सकते. न यहाँ कुछ शुरू होता है न किसी का अंत. एक सीमाहीन मुक्ति. जिसका एहसास कवि को है. वह इसमें डूबा है.

‘प्रश्न से बाहर

प्रार्थना में हूँ’

(छह)

‘संभला रह सका न संभाल सका

पाया पर खोया’

‘प्याऊ’ में छह कविताएँ हैं. यह प्यास और पानी की भी कविताएँ हैं. इनमें तरलता है. प्याऊ के साथ ‘सेवाकार’, ‘मशक’, और ‘पात्र’ भी आते हैं. यहाँ पानी कब समय बन जाता है कब जीवन और कब अर्थात पता ही नहीं चलता. प्यास ही प्याऊ खोजता है, ठीक वैसे ही जितनी बड़ी अकुलाहट होती है उतना ही बड़ा जीवन. कवि उतना ही बड़ा जितनी बड़ी सौन्दर्य की उसकी तलाश. कवि समय के पास ‘प्यासस्थ’ ठहरा हुआ है.

“पानी सारा

टप टप

 गिर पड़ा कब

पता न चला.”

(सात)

‘हर दिन नये दरवाज़े पर

दस्तक देता है

भिक्षु कोई’

 

‘कान लपेटे कवि (ता)’ में आठ कविताएँ हैं. जिसमें चार कविताएँ कवि पर हैं और चार कान पर. कवि का कान कान नहीं कवि होने से बचकर निकलता कवि है.

‘- वे अकेले हैं

दो कान-’

(आठ)

‘आओ, श्यामा

आओ, सखी’

‘नी ली नि त म्ब ना र’ में पांच कविताएँ हैं. रति और केलि की कविताएँ नहीं हैं. अकुंठ स्त्री अस्तित्व की कविताएँ हैं. विशाल, उदात्त, और स्वाधीनता के सौन्दर्य से भरपूर. रीतिगत मानस के लिए भयप्रदाता.

 

इसकी शुरुआत राग से होती है पर समापन जैसे सम्मोहक पर तांत्रिक भयातुरता से. जहाँ स्त्री का अपना तिलिस्म और रहस्य और गोपन और आकर्षण उपस्थित है. वह आदिम आज़ाद है. जादुई योगिनी. इसमें वर्तमान आता है. जली हुई औरतें. पराधीन. कवि उन्हें सखी कहता है. और आह्वान करता है कि वह बदल दें, बदला लें, नाश कर दें, कभी ने मरने के लिए. बहुत सघन और शक्तिवान कविता है. मन्त्रों जैसा असर है.

उसका दैहिक आकर्षण है पर उसे सम्मान के साथ सम्भोग के लिए कवि-पुरुष आमंत्रित करता है. सिर्फ प्यार.

‘मेरा शरीर कोई जगह नहीं

जहाँ वह रह सकती हो’

 

(नौ)

‘तुम्हारे हरेक बाल को सफ़ेद होते हुए देखना मेरा राग है

यह चाँदी-सी केशराशि से रचा पूर्णिमा का घर है.’

यामा में ग्यारह कविताएँ हैं. इनमें दाम्पत्य का सुख देखा जा सकता है पर वह बेजान और मुरझाया हुआ नहीं है. सरस साथ के सुरीले स्वरों में गृहस्थी का सुफल है.. फिर कविताएँ रात की सफेदी में चली जाती हैं. अर्थ और शब्द के बीच डोलने लगती हैं. ये कविताएँ कवि और कविता-कर्म पर भी अच्छी ख़ासी हैं.

‘जिस चलचित्र में कभी छलती नहीं

उस रूपकथा के अंतिम परिच्छेद में

हँसती हुई वह

 रोशनी का विलोम है’

=======

अरुण देव

कवि-आलोचक

समालोचन का संपादन

94126565938

devarun72@gmail.com

=======

त(लाश)

पीयूष दईया

रेखांकन – अखिलेश

राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

संस्करण- २०१९

मूल्य-२९५ रूपये.

The post पीयूष दईया के कविता संग्रह ‘तलाश’ पर अरूण देव की टिप्पणी appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1579

Trending Articles