
अनुजीत इक़बाल मूलतः पंजाबी भाषी हैं। अंग्रेज़ी में लिखती हैं। क़रीब एक साल से हिंदी में भी कविताएँ लिख रही हैं। उनकी इन कविताओं को देखिए- मॉडरेटर
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प्रेम
हे महायोगी
जैसे बारिश की बूंदें
बादलों का वस्त्र चीरकर
पृथ्वी का स्पर्श करती हैं
वैसे ही, मैं निर्वसन होकर
अपना कलंकित अंतःकरण
तुमसे स्पर्श करवाना चाहती हूं
तुम्हारा तीव्र प्रेम, हर लेता है
मेरा हर चीर और आवरण
अंततः बना देता है मुझे
“दिगंबर”
थमा देना चाहती हूं अपनी
जवाकुसुम से अलंकृत कलाई
तुम्हारे कठोर हाथों में
और दिखाना चाहती हूं तुमको
हिमालय के उच्च शिखरों पर
प्रणयाकुल चातक का “रुदन”
मैं विरहिणी
एक दुष्कर लक्ष्य साधने को
प्रकटी हूं इन शैलखण्डों पर
और प्रेम में करना चाहती हूं
“प्रचंडतम पाप”
बन कर “धूमावती”
करूंगी तुम्हारे “समाधिस्थ स्वरूप” पर
तीक्ष्ण प्रहार
और होगी मेरी क्षुधा शांत
हे महायोगी, मेरा उन्मुक्त प्रेम
नशे में चूर रहता है
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धूमावती- दस महाविद्याओं में पार्वती का एक रूप, जिसने भूख लगने पर महादेव का भक्षण किया था।
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महायोगी से महाप्रेमी
क्षमा करना कृष्ण
प्रेम प्रणय की दृश्यावली
मैं तुम्हारे रासमंडल में
कदाचित न देख पाऊंगी
मेरे मन मस्तिष्क में
अर्द्धजला शव हाथों में लिए
क्रंदन के उच्च
आरोह अवरोह में
तांडव करते हुए
शिव की प्रतिकृति उकेरित है
वो प्रेम ही क्या
जो विक्षिप्तता न ला दे
तुम्हारी बंसी की धुन को
सुनने से पहले सम्भवतः
मैं चयन करूंगी
प्रेमाश्रु बहाते हुए शिव के
डमरू का आतर्नाद
और विकराल विषधरों की फुफकार
मृत्यु या बिछोह पर
तुम्हीं करो
“बुद्धि” का प्राकट्य
मुझे उस “बोध” के साथ
रहने दो, जो हर मृत्यु
अपने साथ लाती है
शिव से सीखने दो मुझे
कैसे विरहाग्नि
महायोगी को रूपांतरित करती है
महाप्रेमी में
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स्वयंप्रभा
निरर्थक साधनाओं में कैद होता संसार
तुमको तलाशता सुदूर तीर्थों में
और मैं लिखती हूं
तुम्हारी विस्तृत हथेली पर
वो तमाम प्रणय गीत
जो मेरा ह्रदय गाता है।
व्यर्थ कर्मकांडों के वशीभूत होता संसार
तुम को ढूंढता बेमतलब क्रियाओं में
और मैं निमग्न होती हूं
उस चरमबिंदु पर
जहां आसन-रत हो
प्रेम ईश्वर हो जाता है।
अर्थहीन आडम्बरों से आच्छादित होता संसार
तुमको देखता निर्जीव पाषाणों में
और मैं तन्मय होती हूं
हृदय के उस घाट पर
जहां हिम-द्रवित हो
गंगा का उद्गम हो जाता है।
मिथ्या अर्चन से सम्मोहित होता संसार
तुमको पुकारता उन्मादी कोलाहल में
और मैं मल्हार रचती हूं
अंतस के उस सभा मंडल में
जहां घनगर्जित हो
जीवन स्वयंप्रभु हो जाता है।
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वचन
हे प्रियतम
तुम्हारा अघोर रूप
किसी सर्प की भांति
मेरे हृदयक्षेत्र में
कुंडली मार बैठ गया है
और मैं वैराग्य धारण करने के पश्चात
प्रेमविह्वल हो रही हूं
गेरुए वस्त्र त्याग कर
कौमुदी की साड़ी ओढ़ कर
तृष्णा के ज्वर से तप्त
मैं खड़ी हूं तुम्हारे समक्ष
चंद्र की नथनी डाल कर
तुम्हारी समस्त इंद्रियां
हिमखंड की भांति स्थिरप्रज्ञ हैं
लेकिन दुस्साहस देखो मेरा
तुमसे अंकमाल होते हुए
प्रक्षालन करना चाहती हूं
तुम्हारी सघन जटाओं का
मोक्ष के लिए
मुझे किसी साधना की आवश्यकता नहीं
समस्त कलाओं का रसास्वादन करते हुए
मेरी कलाई पर पड़ा
तुम्हारे हाथ की पकड़ का नील
काफी होगा
मुझे मुक्ति दिलाने के लिए
वचन देती हूं प्रियतम
वो दिन अवश्य आएगा
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गमन और ठहराव
सूर्य का आकाशगंगा में
अपरिचित सा मार्ग
विचरण करता जिसके गिर्द
वो श्रोत केंद्र अज्ञात
समस्त तारागण और नक्षत्रपथ
सतत हैं गतिवान
वेगित सागर के खेल से
बोझिल नीरव चट्टान
बिन सरवर के पानी सी धरा
घूमती निरंतर बदहवास
सब कुछ है आंदोलित सा
अस्तित्व का अक्षयतूणीर परिहास
अनवरत चलते इस नृत्य में
स्थिरप्रज्ञ होने की आस
क्योंकि
घटित एक ही समय पर होता
गमन और ठहराव।
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