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पुरूषों में भी स्त्रीत्व जगाने वाला लोकपर्व छठ

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छठ गीतों के माध्यम से प्रसिद्ध लोक गायिका चंदन तिवारी ने इस लेख में छठ की परम्परा को समझने का प्रयास किया है। छठ पर्व पर एक अलग तरह का लेख-मॉडरेटर
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इधर छठ गीतों में अलग किस्म से मन लगा. गाती तो रही ही, उससे अधिक छठ के पारंपरिक और मूल गीतों को कलेक्ट करने, उसके मर्म को समझने में लगी रही. बिहार के सभी भाषा—भाषी क्षेत्रों के गांव—गिरांव से गीतों को जुटाकर उनसे गुजरने की कोशिश की. शब्दों को, भावों को समझने की कोशिश की. ऐसा करते समय यही दिमाग में रहा कि आखिर जिस पर्व में गीत महज गीत न होकर, मंत्र की तरह होते हैं, उन गीतों की बनावट—बुनावट कैसी रही है. प्रकृति,सृष्टि और स्त्रियों के इस लौकिक पर्व में लोक कितना है, प्रकृति या सृष्टि कितनी है और स्त्रियां कितनी? रूनुकी—झुनुकी के बेटी मांगिला, पढ़ल पंडितवा दामाद जैसे गीत गा चुकी हूं, सुन चुकी हूं… तो छठ पर्व के जरिये संतान के रूप में बेटा के साथ ही बेटी पाने की कामना तो पीढ़ियों से रही है, पढ़े लिखे दामाद आदि की लोक कल्पना भी लेकिन और क्या—क्या, किस—किस रूप में? और फिर सबसे ज्यादा यह समझने की कोशिश की, कि आखिर क्या वजह है कि पीढ़ियां बदलती जा रही हैं, बदलती पीढ़ियों के साथ छठ और लोकप्रिय होते जा रहा है, छठ में गीतों का महत्व या मंत्र रूप में शाश्वत, मजबूत रूप में मूल तत्व के रूप में उपस्थिति भी बरकरार है लेकिन गीतों के टोन,ट्युन और तत्व में बदलाव को लोग लंबे समय तक आत्मसात नहीं कर पा रहे?
ऐसा इसलिए कह रही कि आप पिछले पांच—छह दशक से छठ गीतों की दुनिया पर गौर कीजिए. विंध्यवासिनी देवी के समय से यह रिकार्ड होकर सार्वजनिक रूप से सामने आना शुरू हुआ, शारदा सिन्हा ने उसे परवान चढ़ाया. छठ गीतों का एक रूप—स्वरूप बना, जिसे लोग फॉलो करने लगे. जानकारी के अनुसार इनके पहले तक छठ गीत अपने—अपने इलाके में, अपनी—अपनी भाषा में, अपने—अपने तरीके से गाये जाते थे. बिहार के अलग—अलग इलाके के ऐसे ही गीतों को लेकर पहले विंध्यवासिनी देवी और फिर शारदा सिन्हा ने एक मुकम्मल और व्यवस्थित रूप देकर आगे बढ़ाया और फिर वही छठ गीतों का ट्रेंड हो गया, वही पहचान हो गयी. पहचान ऐसी—वैसी नहीं बल्कि असर यह कि आप बिना छठ भी इन गीतों को बजा दें, सुना दें तो मन में छठ का भाव आ जाये. कुल मिलाकर कोई दर्जन भर धुन मशहूर हुए इन गायिकाओं की आवाज में. इन धुनों में कुछ बदलाव भूपेन हजारिका साहब ने भी विंध्यवासिनी देवी के साथ मिलकर किये लेकिन वह धुनों में प्रयोग न होकर, गायन में प्रयोग रहा. कोरस गान में प्रयोग रहा. धुन की आत्मा वही रही. इसलिए भूपेन हजारिका साहब और विंध्यवासिनी देवी के गीत अपने समय में खूब लोकप्रिय भी हुए. लेकिन तब से अब तक मिलाजुलाकर यही दर्जन धुन छठ की पहचान हैं. इन धुनों से हटकर अनेकानेक प्रयोग की कोशिश हुई, और प्रयोग की कोशिशें और बढ़ गई हैं लेकिन इस सेट पैटर्न या धुन से अलग कोई भी गीत लंबे समय तक छठ में चल नहीं पाता. मीडिया के अधिकाधिक टूल—किट हैं तो जिस साल ऐसे प्रायोगिक गीत आते हैं, लोगों के बीच जाते हैं लेकिन वैसे प्रयोगी गीतों की उम्र बस उसी साल तक की होती है. वह सदा—सदा के लिए छठ के गीत नहीं बन पाते, साल—दर साल आम जनमानस उसे नहीं दुहराता, जैसे पीढ़ियों से कांच ही बांस के बहंगिया जैसे गीत को दुहरा रहा है. बिना किसी बदलाव के, उसी उत्साह, उसी उमंग, उसी भाव के साथ.
तो क्यों आखिर ऐसा? छठ के गीतों में बदलाव मंजूर क्यों नहीं? आखिर दूसरे कितने पर्व तो हैं लोक के, जिनके गीतों में अंधाधुंध प्रयोग होते हैं और सफल भी होते हैं लेकिन छठ गीतो में ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा, इतनी कोशिशों के बावजूद. दरअसल, छठ के पर्व में उसकी लौकिकता ही उसका मूल है. उसमें शास्त्र की कोई गुंजाइश नहीं. शास्त्रीय परंपरा बाजार के करीब ले जाकर या बाजार के हवाले कर किसी पर्व में बदलाव और अपने अनुसार ढलाव के लिए रास्ते खोल देता है. छठ में शास्त्र का शून्य रहना उसे अपनी शर्तों पर बनाये रखता है. चूंकि पर्व ही लौकिक है, अपनी शर्तोंवाला है तो फिर उसकी मूल और प्रमुख पहचान गीतों में यह गुंजाइश भी नहीं बनती. इसलिए तमाम प्रयोगों के बावजूद छठगीतों की असल अनुभूति बिना साज—बाज के उन महिलाओं द्वारा गाये जानेवाले गीतों में जिस तरह से होती है, वह बिरला है. बिना संगीत के ही जो गायन होता है उसमें समाहित भाव, इनोसेंसी छठ गीतों में तमाम तरह के संगीत के प्रयोग में भी नहीं आ पाता. बहुत सहज तरीके से कहें तो छठ गीत प्रधान पर्व है, संगीत प्रधान नहीं.
बहरहाल, बात फिर वहीं. इन गीतों से गुजरते हुए जब मर्म समझ रही थी और आदित्य, छठी माई, सबिता माई, नदी आदि समझ रही थी तो इस रिश्ते को समझते हुए विवाह में कन्यादान परंपरा की एक गीत की याद आई. गंगा बहे लागल, जमुना बहे लागल, सुरसरी बहे निर्मल धार ए. ताहि पइसी बाबा हो आदित मनावेले, कईसे करब कन्यादान ए…इस कन्यादान गीत में आदित्य भगवान से लोक समाज का गहरा रिश्ता झलकता है. इस कन्यादान गीत में भी बेटी के दान के पहले पिता आदित को ही मना रहे हैं कि इतनी ताकत दे भगवान कि वे अपनी बेटी का दान कर सकें.
इन सभी बातों के साथ कुछ और खास बातें हैं. छठ में स्त्रियां प्रकारांतर से चार दिनों तक व्रत रखती हैं. इतना कठिन व्रत कर वह अपनी भाषा में गीत गाकर, सीधे अपने अराध्य सूर्य देवता या छठी माई से परस्पर संवाद कर या सवाल—जवाब कर मांगती क्या हैं? जवाब में यही तथ्य सामने आया कि इतना कठिन व्रत्त करने के बाद भी व्रती स्त्रियां जो मांगती हैं उसमें अपने पति के लिए कंचन काया, संतान का सुख ही प्रमुख होता है. धन—संपदा—ऐश्वर्य की मांग के पारंपरिक गीत न के बराबर हैं.छठ पर्व में दूर—दूर तक शास्त्रीयता परंपरा या कर्मकांड की कोई छाया नहीं है तो इस पर्व के गीतों में मोक्ष की कामना भी किसी गीत का हिस्सा नहींं है.
अंत में एक और बात. यह तो साफ है कि छठ का पर्व और छठ के गीत, दोनों बताते हैं कि यह  त्योहार स्त्रियों का ही रहा है. स्त्रियां ही बहुतायत में इस त्योहार को करती हैं. इधर हालिया दशकों में पुरूष व्रतियों की संख्या भी बढ़ रही है. पुरूष भी उसी तरह से नियम का पालन करते हैं, उपवास रखते हैं, पूरा पर्व करते हैं. इस तरह देखें तो पर्व—त्योहारों की दुनिया में यह एक खूबसूरत पक्ष है. छठ संभवत: इकलौता पर्व ही सामने आएगा, जो स्त्रियों का पर्व होते हुए भी पुरूषों को निबाहने या करने के लिए आकर्षित कर रहा है और इतना कठिन पर्व होने के बावजूद पुरूष आकर्षित हो रहे हैं. स्त्रियों की परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं. व्रत्त के दौरान ही सही, स्त्री जैसा होने का धर्म खुद से चयनित कर रहे हैं. अपने पति, अपनी संतानों के लिए स्त्रियां छठ के अलावा और भी दूसरे व्रत करती हैं. संतानों के लिए जिउतिया और पतियों के लिए तीज, लेकिन पुरूष अब तक इन दोनों व्रतों का कभी हिस्सा नहीं बना. कभी खुद व्रति नहीं बना. कभी यह दोतरफा नहीं चला कि अगर स्त्री इतना कुछ कर रही है, इतनी कठोरता से व्रत्त संतान के लिए या पति के लिए कर रही है तो पुरूष भी करें. इस नजरिये से छठ एक बिरला पर्व है, जो तेजी से पुरूषों को स्त्रित्व के गुणों से भर रहा है. छठ के बहाने ही सही, पुरूषों को भी स्त्री की तरह इच्छा—आकांक्षा, कठोर तप, अनुशासन, निष्ठा, संयम धारण करने की प्रेरणा दे रहा है. छठ ही वह त्योहार है, जो पारंपरिक लोक पर्व होते हुए भी लोक की जड़वत परंपरा को आहिस्ते—आहिस्ते ही सही लेकिन मजबूती से बदल रहा है. एक नयी बुनियाद को तैयार कर रहा है.

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