कवि यतीश कुमार ने हाल में काव्यात्मक समीक्षा की शैली विकसित की है। वे कई किताबों की समीक्षा इस शैली में लिख चुके हैं। इस बार उन्होंने स्वदेश दीपक की किताब ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ पर लिखी है। यह किताब हिंदी में अपने ढंग की अकेली किताब है और इसके ऊपर लिख पाना कोई आसान काम नहीं है। चेतन-अवचेतन के द्वंद्व को यतीश जी ने बहुत अच्छी तरह पकड़ा है- मॉडरेटर
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‘मैंने मांडू नहीं देखा’ को पढ़ने के बाद
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(स्वदेश दीपक के लिए)
गर्वोक्ति एक आसन्न दुर्भाग्य है…
मैं अभी उस आग से मिल आया
जो न पकाती है
न कुंदन करती है
बस भस्म कर देती है
प्रशंसा खतों में ज़्यादा अच्छी लगती है
प्रत्यक्ष स्तुति परेशानी का सबब
कई बार खून खौलने लगता है
दूध वाली खौली चाय पीता रहा हूँ
पर एक दिन मैंने गलती से
ब्लैक कॉफी पी ली
अब मुझे दोनों ही पसंद है
मैंने मांडू नहीं देखा
तुम्हारे साथ नहीं देखा ….
ये दो पंक्तियाँ
मौत और मुक्ति के बीच
खींची क्षीण रेखाएं हैं
स्मृतियों का भी एक
वर्जित क्षेत्र होता है
जहाँ जाने से
वो खुद घबरा जाती हैं
सात वर्ष लंबी
स्मृति विहीन यात्रा….
और अनजाने आज
उस वर्जित स्थान पर
चहलकदमी करने लगा हूँ।
मेरा चेहरा
कहने और न कहने के बीच
चाँद का टाइम टेबल बदलना
निहारता रहा
जद्दोजहद के बियावान में फंसा
अनिर्णीत उलझता रहा
अनिर्णय अब स्थायी अवस्था थी मेरी
गहरी नींद से उठता हूँ
गरम हथेली अपनी भारी पलकों पर रखता हूँ
अवचेतन फ्लैशबैक की तरह
स्लो मोशन में आता है।
जो दरवाजा अंदर की ओर खुलता हो
उसे बाहर की ओर खोलने का
अथक प्रयास करता रहा
पता नहीं था
अंदर की ओर खोलता
तो छूते ही खुल जाता
सच कितना हल्का
और झूठ कितना भारी !
कि अचानक नींद टूट गई
और मेरी नदी खो गई
पूल के घिसटने के निशान
अब दृश्य में है
ढूंढने की कोशिश की
तो पता चला
दिमाग पर ताला पड़ गया है
मेरे लिए अब न सर्दी है न गर्मी
ऋतुएं रूठ कर लौट चुकी है
देखा धू-धू कर
सब जल रहा है
जिस्म और रूह
दोनो धधक रहे हैं
मन फिर भी शांत है
कोई दुविधा नहीं
पर ध्वनिहीन चीखें
ख्वाबों के रेशों पर
शोर की किरचियाँ चला रही हैं
शोर बाहर
और बैठता कोलाहल अंदर
सब कुछ बेआवाज़
तहस-नहस हो रहा है
समय ने सिखाया
उजाले से डरना
और अंधेरे से दोस्ती करनी
बात करता हूँ
तो अंधेरे की भाषा बन
चुप्पी बोलती है
अंधेरा भाषा को निगल लेता है
और अंधेरे में
शरीर अपनी भाषा गढ़ने लगता है
अगर शरीर की भाषा न समझो
तो अंधेरा शरीर को भी निगलने लगता है
स्थिति ऐसी कि
अजगर के भीतर
सांस लेने जैसी
नहीं जानता था
अंधेरे से गुजर जाने वाले शब्द
पवित्र हो जाते हैं
वे दु:ख धोने के काबिल हो जाते हैं
मैं तुम्हें नहीं
अंधेरे की गुफाओं को देख रहा हूँ
तुम आती नहीं हो
प्रवेश करती हो
तुम्हारे हाथ लंबे हैं
और परछाई छोटी
मैंने आँखों में झाँकने की कोशिश की
आँखों से समंदर छलाँगकर बाहर निकल आया
और जीवित ज्वालामुखी ने अपनी जगह बना ली
यथार्थ में लौटने के लिए
जरूरी है पौरुष के दर्प में
धनुष हुए आदमी का
तीर छूटना
और यह जानना भी
कि जरूरी नहीं है
हर वासना दुष्ट ही हो
2.
रूह का लिबास मटमैला है
बहुत अहमन्य हो गया हूँ
तमाम खूबसूरत चीजें शहर से बेदखल हैं
अंधेरे का लिबास सफेद है, क्यों?
उसे उधेड़ते वक़्त
हाथ हमेशा काले दिखें !
काला वक़्त ,काली रात, काले हाथ
और सफेद आवरण का अनावरण
अब वह जब भी प्रेम करेगा
आत्मा में पंजे गाड़ देगा
एक चिथड़ा सुख
एक अहानिकारक मुस्कान
किलकारी भरते शब्द
मीठी मनुहारें
अब सब स्मृतियों की खाड़ी में
गोते लगाते ड्रीम कैचर जैसे हैं
परेशानी का सबब ये है
कि मैं तस्वीर में भी हिलता हूँ
जिंदगी पट्टे पर है
और करार
अंतिम कगार पर
ओलती में फँसा बादल हूँ
बार-बार ओले गिरने लगते हैं
फिर मौसम बदलता है
भ्रमित करता है
कि सब अच्छा है
जिंदगी ऐसी बन गई है
जैसे अर्जुन ने फिर से
वृहन्नला का रूप ले लिया हो
अर्जुन और वृहन्नला
दोनो के बीच पेंडुलम की जिंदगी
पेंडुलम सी बनी वक्र मुस्कुराहट को
सीधा रखने की कला भूल गया हूँ
समस्याओं का कशकोल लिए फिरता हूँ
जिस मोड़ से गुजरना था
उस मोड़ पर मुड़ने से पहले ही
मैं मुड़ गया
और धम्म से नींद में ही गिर गया
3.
गिरती दीवार की छाँव में
पैदा लेते बदन
जिंदगी भर धूल झाड़ते रहते हैं
मैं न दीवार बन सका न धूल
पपड़ी बना अधर पर अटका रह गया
अब भग्नाशा मेरी सहोदर है
खबरों के इतने भर मायने रह गए हैं
कि अब सिर्फ दिन और तारीख देखने के लिए
अखबार खोलता हूँ
पर एक दिन खबरों में पढ़ा
घने जंगल के बीच
सूखी औरतें
सूखी लकड़ियाँ चुन रही हैं
किसी की चिता के लिए
शिशिर में गिरते पत्तों की कराह
और लकड़ियाँ चुनते- चुनते
वह स्त्री सोचती है
क्या बीतती होगी धरती पर
जब लाशों की तरह
उसके वृक्ष-पुत्रों को काटकर
उसकी गोद में ही सुला दिया जाता है
मैं देखता रहा
एक-एक कर
मेरे इंद्रियों की मृत्यु हो रही थी
इंद्रियों का सोना
मनुष्य को भीतर से खंडित करता है
मुझे बताया गया था
खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं होती
मुझे लगा मेरे अंदर
एक और पुल
जो अभी -अभी बना था
टूट गया
घर के बर्तन खनखनाने लगें
और माँ की एक बात याद आ गई
एक चुप और सौ सुख
मैं सात सावन चुप रहा
दरवेश और रोगी की एक ही दशा है
दोनों रह-रहकर
अल्लाह और भगवान को याद करते रहते हैं
मैं दोनो बना लेकिन याद में ईश्वर नहीं दिखे
मैने अपने फ्रेम से तस्वीर निकाल ली
अब बिना तस्वीर का खाली फ्रेम हूँ मैं
लिबास नया है पर उदासी वही पुरानी
मैं वो पहाड़ हूँ
जिसमें बारूदी सुरंगे
रह-रह कर फटती हैं।
उजाड़ बढ़ता है
इंच दर इंच …
मैं वह ध्वज हूँ
जिससे धज अभी -अभी
उतार ली गई है
बाँस का वह टुकड़ा बन गया हूँ
जिसे ध्वजा फहराने का इंतजार है
अब मैं फूल की तरह
चुपचाप सूख रहा हूँ
सर्पीली टुस्सियों को पकड़ने
अंधे कुएँ में गिरा
अब रस्सियों के सहारे
पहाड़ चढ़ रहा हूँ
बहुत ताकतवर है
उम्मीद की रस्सी
प्राण निकलने तक बांधे रखती है
कोई मेरा वसंत चुराने आया
मैंने वसंत को झोले में रख लिया
जिसकी निगहबानी करने
आकाश का नीला टुकड़ा
मेरे कमरे में रहता है
खिड़की से झांकता हूँ
तो चाँद के चलने की आवाजें आती हैं
अब मेरा मन करता है
चाँद के साथ बेआवाज चलूँ
मैंने आकाश तक जाने वाला झूला बनाया
इस झूले पर एक नेम प्लेट लगाया “मुक्ति”
चंदन से मृत्यु और मुक्ति लिख
पानी में घोल पी गया
4.
मैं रूठने और नाराज़ होने के
बीच की स्थिति बन बैठा हूँ
इस यात्रा में कई बार
रोशनदान ,खिड़की और फिर
दरवाजा बनता रहा
प्रेम खिड़की से अंदर आता है
और दरवाजे से बाहर जाता है
प्रेम और युद्ध के तरीके एक जैसे
जो हारे वह युद्धबंदी
मैंने न प्रेम किया न युद्ध
फिर भी बंदी बन गया …
यात्रा में यह भी जाना कि
बुद्ध के रस्ते में
कर्ण-कवच मिलता है
और, फिर शब्दों के तीर नहीं लगते
मैं पैदल चलता गया
मैं तुम तक पहुँचना चाहता था
पर मुझे बताया गया कि
जो पैदल चलते हैं
वे अंततः कहीं नहीं पहुँचते
अब मैं कान बनना चाहता हूँ
ताकि शब्दों को अर्थों में बदल सकूं
चाहता हूँ
शक्ति और सब्र
दोनो एक साथ रहें
मेरे पैरहन बन कर
मैं उसे ओढ़ कर
दोबारा विश्व जीतने चल दूंगा
और यूँ
मैं खुद अपना अनुवाद होने से बच गया..●●
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यतीश कुमार
07/10/2019.
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