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शुभ्रास्था की कुछ कविताएँ

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दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा शुभ्रास्था के कई परिचयों के मध्य, केंद्र में, वे मूलतः एक लेखिका, कवियत्री हैं। उनकी कुछ कविताएँ-
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मैं तुमसे कैसे बात करूँ?
मुझे तुम्हारी भाषा नहीं आती
तुममें व्याकरण और दोष दोनों कम हैं
और मैंने तरकारी में नून कम रखने की की है कोशिश
लगभग हर साँझ
अलसुबह उदास होकर लौटती है
हमारे दरवाज़े से एक गौरैय्या
क्योंकि होते हुए भी लुप्त हो गयी है वो –
तुम्हारे यहाँ –
और मैं हर रोज़ उसके लिए दाने छींटना भूल जाती हूँ
मैं कैसे बात करूँ तुमसे?
तुम्हें विराम चिन्हों की समझ नहीं है।
मुझे डर है कि
मेरा पूरा जीवन हमारे बीच पसरे
अर्द्ध विराम, अल्प विराम और उप विराम को
कोष्ठकों और योजकों के सहारे प्रश्नवाचक से
पृथक् करने में बीत जाएगा।
_____________
अस्त होती मेरी आश्वस्ति को
अपनी विराट जटाओं में थाम लो
हर रोज़ उलझती इन जटिल गुत्थियों को
भस्म में लहालोट अपनी काया में मिला लो
तरल कर दो गृहस्थी के जमे ग्लेशियर
और जमा दो सदियों से बहती भागीरथी को!
हे शिव! सब सरल कर दो ना!
_________
जिस दुनिया से आती हूँ मैं
वहाँ सार्वजनिक दुःखागार में भी
नंगे बदन, भूखे पेट साँझ दीये का तेल जुटता है
हर मौसम सुख के सामूहिक ठहाके लगते हैं
तुम्हीं बताओ ना तुम्हारे इस घर में
मैं परिपूर्णता के दुःख का उत्सव कैसे मनाऊँ?
मैं संतुलन का कर्तव्य निबाहती रही हूँ –
हमेशा
पर विलास के आँसुओं और विपन्नता के कहकहों में
मैं हर रोज़
दूब सी उपजती हूँ
और हर दूसरे पल सूखती हूँ।
———————-
तुमने कहा ‘जाता हूँ’
मुझे लगा जैसे सूरज ज़मीन पर पिघल गया!
मेरे लोक बिम्ब में
कहीं जाने का उद्गार है ‘आता हूँ’।
क्या चाहते हो?
तुम्हें ‘जाओ’ कहकर अनुमति दूँ?
या हतप्रभ बिजली कड़कते हुए निहारूँ?
मेरे लोक में ‘आता हूँ’ की आश्वस्ति
तुम्हारे नहीं होने के अवसाद से
मुझे आज़ाद करती है
————————
रेत पर थोड़े न बनी हैं ये दरारें!
पेशानी पर उभर आयीं
मुस्कुराहटों के कोने से बच निकलीं
आँखों के किनारों पर तैर आयीं
बिल्ली के पाँव संग बंधी
ये नज़रें चुराती और नज़रों को बचाती रेखायें
गंगा के बढ़ आए जल में
श्योक की आवारा धारा में
ब्रह्मपुत्र की उफनाती लहरों में
कोसी के क्लांत केशों में
हाथों की लकीरें और पैरों की दरारें बन
आने वाले मौसमों के भविष्य की रेखाएँ गढ़ रही हैं
उसके पैरों के फूल गए सफ़ेद छाले
राजस्थान की रेत में दौड़ते भागते
पक गए उसके पाँव के माँस
लेह की ठंडी रेत में सूखते
केरल की तट तक पहुँचते
जिस्म पर गहरा गए निशान
हाथों की फट गयी लकीरें
पाँवों की दरदराई बिवाइयाँ
उसके तलवे पर भारत का मानचित्र बनाती हैं
—————————-
भारत के नक़्शे पर तनी नीली नसों में
दौड़ता है गाढ़ा रक्त
खीर भवानी के प्रांगण में पाँव धोते
विंध्यांचल के आँचल में हाथ मुँह पोंछते
और कामाख्या की कमर में लिपट कर रोते
उसने रामेश्वरम के मंदिर तक कई रंगों में
माँ को शंकर और शिव को शक्ति होते देखा
उन रंगों से भारत का मानचित्र बनते देखा
जिनसे रंगती है इतिहास वाली तूलिका
वे रंग वक़्त की लहर से बेपरवाह
अपने बदन के नीले निशानों से
करते रहे हैं नदियों को श्याम
अपनी नन्ही मासूम जाँघों के बीच से रिसते लाल से
भरते हैं टेसू और उड़हुल में रंग
अपने मन में बस गए काले अवसाद से
करते हैं खदानों और खनिज भंडारों को अभेद्य
और अपने पक गए घावों के फूटने से
बिछाते हैं खेतों में हरा मखमला बिछौना
जिन रंगों में पत्थर तोड़ती औरतों के आँसू हैं
और हैं खेत सींचते किसानों के पसीने
रिक्शे चलाते पाँवों से रिसते मवाद
उनमें दुधमुँही देवियों की योनि से बहते ख़ून हैं
उन्हीं रंगों से वक़्त दर्ज़ करता है इतिहास
क़िले भुजबल से फ़तह किए जाते होंगे
लेकिन केवल प्रेम से लिखा जा सकता है इतिहास
जिसमें केवल दर्ज़ नहीं होती घटनाएँ
बल्कि जीए और गाए जाते हैं इति हुए ह्रास
भारत के मानचित्र पर तनी श्याम धमनियों में
दौड़ता है गाढ़ा रक्त
और उस लहू पर नहीं पड़ता
किसी लहर का असर
उस ख़ून में या तो उबल कर गहराता है रंग
या समय के साथ तरल होती है उसकी चमक
———————
तुम्हारे दिए पते पर भेजी सारी चिट्ठियाँ
लौट आती थीं –
हर बार, बार बार।
और हर बार उनके लौटने से वापस लौटती थीं
रुआंसे अक्षरों में लिपटी वो आहें जो
ई-कार और आ-कार के बीच में
छोटी इ बन कर सिकुड़ चुकी थीं।
तुम हो, और अब कभी नहीं होगे
ये अब व्याकरण दोष नहीं
वर्णमाला के व्यंजन हैं
और हमें बाँधने वाली बिखरी मात्राएँ
निरर्थक स्वर!

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