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सौम्या बैजल की कहानी ‘ख़त’

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युवा लेखिका सौम्या बैजल की छोटी छोटी कहानियाँ और कविताएँ हम लोग पढ़ते रहे हैं। इस बार अरसे बाद उनकी कहानी आई है, छोटी सी प्रेम कहानी- मॉडरेटर

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ख़त

‘उस दिन जब तुमसे पहली बार मिली थी, तो यह नहीं सोचा था की इतने करीब हो जाएंगे। और आज जब जुदा होने की कगार पर बैठे हैं, तो ऐसा लगता है, की वक़्त यहीं रुक जाए। न वह मोड़ आये न पल। न मुझे कचोटते हमारे सच हों, जिन्हे मैं चाह कर भी झुठला नहीं सकती, न वह दायरे हों जो समाज की कठोरता को और सख्त बना देते हैं। बस एक ही रिश्ते का कुछ मोल हो, जो मैं ने महसूस किया है, हर उस पल में जिस में हम साथ थे। जहाँ ‘हम’ की गुंजाइश थी। जहाँ मैं ने मौके ढूंढे थे हमारे नाम साथ लेने के, जिस से मैं यह समझ पाऊं, की वह एक साथ कैसे सुनाई देते हैं। जहाँ और कोई नहीं था, बस एक सन्नाट्टा जिसमें मैं ने, तुम्हारे हाथ से टकरा टकरा कर, सब कुछ कह देना चाहा। क्योंकि जुबां से कह देना हमें हमारे बनाये दायरों से बाहर खींच लाता। उन सभी पलों में मेरी आँखें तुम्हे तब तक देखती थीं, जब तक तुम आँखों से ओझल न हो जाते थे, और फिर कुछ देर और वहीँ खड़ी रहती थी, यह सोच कर कि पलट के जब आओगे, तब भी कुछ बदलेगा नहीं। इन पलों को संभाल कर, सहेज कर उस तरह ले जाउंगी, जिस तरह जैसे हम दोनों ने यह दोस्ती समेटी है। लेकिन यादों का यही तो फायदा है। वह बदलती नहीं। सब कुछ बदल सकता है, तुम, मैं , हमारा यह रिश्ता, लेकिन वह बीते हुए पल नहीं। और वह नहीं, जो मैं ने तुम्हारे साथ बीते हर पल में महसूस किया। की हम एक इंसान हैं, जो बस बट गए हैं। और दूर हमें जाना ही है, क्युंकि हमारे आज, हमारे कल का फैसला कर चुके हैं।’

देव ने मीरा का यह ख़त उसी तरह पकड़ा हुआ था, जिस तरह इस समय वह मीरा का हाथ पकड़ना चाहता था। कल रात एयरपोर्ट पर जब मीरा ने उसे यह खत दिया था, उसकी आँखों की नमी, और उनका तेज वह भूल नहीं सकता था। मीरा, उसकी बेहद अज़ीज़ दोस्त, जिसकी मुस्कराहट से उसे बेहद सुकून मिलता था। वह चाहता था की मीरा की हर दिक्कत वह किसी भी तरह मिटा दे। मीरा खुद एक बेहद आज़ाद ख्याल वाली, सशक्त इंसान थी। जिसे किसी की ज़रुरत नहीं थी। वह रिश्तों को, लोगों को चुनती थी, और फिर उन रिश्तों को nourish करती थी। और उसकी यही बात, जिस तरह की वह इंसान थी, सशक्त भी, कठोर भी, निर्मल भी, सौम्य भी, और बिलकुल सच्ची, देव को बेहद पसंद थी। दोनों हर चीज़ के बारे में बात कर लिया करते थे, क्यूँकि दोनों की सोच एक जैसी थी, बस नजरिया कभी कभी अलग होता था। दोस्ती ऐसी, कि एक के मुँह से आधी निकली बात, शायद दूसरा बिलकुल उसी अंदाज़ से पूरा कर दे, जैसे पहले ने सोचा होगा।

देव समझ नहीं पा रहा था कि उसके मन में क्या चल रहा था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसे अभी मीरा की ज़रुरत थी, उसके खुद को समझने के लिए। लेकिन मीरा वहां नहीं थी। देव यह बात स्वीकार कर चुका था कि मीरा को जाना था। वह जानता था की मीरा वह करने जा रही है जो उसकी तमन्ना थी, लेकिन फिर भी, मीरा को रोज़ न देख पाने का ग़म तो था ही। लेकिन इस पल से पहले, देव ने वह ग़म महसूस ही नहीं किया था। उसे लगा था की वह संभल जाएगा, मीरा यहाँ नहीं हुई तो क्या हुआ, बात-चीत तो चलेगी ही, लेकिन उसका अब वहां न होने का मतलब, इस समय देव को पूरी पूरी तरह समझ में आ रहा था। वह मीरा की गीली आँखों से जवाब माँगना चाहता था, उन सवालों के, जो उसने खुद से अभी किये भी नहीं थे। वह जानना चाहता था की आगे क्या? इस ख़त का भी वह क्या करे? मीरा के हाथ की गर्मी को उस ख़त में वह महसूस कर पा रहा था। आज से  पहले उसने मीरा का हाथ और बार क्यों नहीं थामा? क्यों नहीं पूछा उस से कभी भी, कि उसने उस से दोस्ती क्यों की? क्योँ नहीं जान ने की कोशिश की कभी की वह उसकी ज़िन्दगी में क्या था, और क्या बन रहा था? वह उस से क्या चाहती थी ? क्यों एक बार भी नहीं कहा उस से, या खुद से, कि वह उस से प्यार करता है? क्यों नहीं जताया वह प्यार कभी? शायद इसीलिए क्यूंकि वह जानता था, कि वह जानती है। जानती है की वह उस से प्यार करता है, देख लेती थी उसकी रोज़ कि आदतों में, पढ़ लेती थी उसके चेहरे पर। और यह भी समझती थी, की प्यार का भी एक दायरा नहीं होता। एक परिभाषा नहीं होती। तो क्या हुआ अगर वह साथ नहीं है, न हो सकते थे। उस से प्यार का क्या तालुक़ है? मीरा और देव दोनों बिना कहे अपने अंदर यह दायरे बना चुके थे। देव के दायरे समाज के दायरे थे और जज़्बाती भी। उसकी शादी जो १५ साल हो चुके थे, और वह मीरा से १०  साल बड़ा भी था। मीरा के दायरे सिर्फ जज़्बाती थे। वह देव कि ज़न्दगी में कोई परेशानी नहीं खड़ी करना चाहती थी। और रात का भी वह ख़त न सवाल कर रहा था, न कुछ मांग रहा था। उनकी इस गहरी दोस्ती की सच्चाई को आगे ले जा रहा था। वह वह सब कुछ बयान कर रही थी जो वह जानती थी की देव भी जानता था। और दोनों महसूस कर रहे थे। आज भी उस ख़त में उसने कुछ कहा नहीं था।

जज़्बातों को दायरों का खौफ नहीं होता। प्यार इजाज़त का मोहताज नहीं। और एक इंसान जब दो होते हैं, तो दर्द तो होता ही है।

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