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पूजा त्रिपाठी की कहानी ‘बैंगनी फूल’

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आज ईद के मौक़े पर पढ़िए पूजा त्रिपाठी की कहानी ‘बैंगनी फूल’– मॉडरेटर

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बैंगनी फूल

“क्या बकवास खाना है यार, इसे खायेगा कोई कैसे” विशाल ने टिफ़िन खोलते ही कहा. “ अगर ४ दिन और ये “खाना खाना पड़ा तो मुझसे न हो रही इंजीनियरिंग, मैं जा रहा वापस अपनी पंडिताइन के पास.”

“सुन हीरो, बाज़ार से लगी गली के आखिरी में एक पीला मकान है, एक आंटी खाना खिलाती है. और क्या बढ़िया बनाती है.” अजीत ने सिगरेट जलाते हुए कहा.

“पता चला मुझे और अगर मेरे पंडित बाप को पता चला कि मैं मुसलमान के यहाँ खाना खा रहा हूँ तो जनेऊ रखवा के चलता करेगा मुझे.”

तीन दिन बाद विशाल बाज़ार के तरफ टहल रहा था तो उसे वही पीला मकान दिखा. सोचा चल जाकर देखते हैं, जनेऊ है, जीपीएस थोड़े कि पंडित को पता चल जायेगा. कम से कम जान तो बची रहेगी.

विशाल ने दरवाज़ा खटखटाया. बेहद मामूली सा घर था, जगह जगह पेंट उखड़ा हुआ था,हाथ से बुनी हुई झालर जो अब बेरंग हो चुकी थी, दरवाज़े पर लटक रही थी. सुबह ही टूटे हुए गमले में किसी ने पानी दिया था जो नीचे फर्श पर फैला हुआ था, गमले में बैंगनी फूल लगे हुए थे. उस बेरंग से लैंडस्केप में वो बैंगनी फूल कुछ मिसफिट लग रहे थे.

तभी एक बूढी औरत ने दरवाज़ा खोला. “जी बेटा” सर पे पीला दुपट्टा डाले एक औरत सामने खड़ी थी जिसके किनारे से सफ़ेद बाल झाँक रहे थे. उस पीले दुपट्टे का रंग कई साल पहले शायद उड़ चुका था और उस कपडे पर बस पीली खुरचन रह गयी थी.

“आंटी जी मैं यहाँ इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ता हूँ. वो टिफ़िन का पूछने आया था”

“आओ बेटा, अन्दर आओ. बाहर तेज़ धूप है. शाहीन ज़रा एक गिलास ठंडा पानी तो ले आओ”

रसोई में कुछ हलचल हुई, शायद किसी ने कोई किताब बंद कर प्लेटफार्म पर गुस्से में पटकी, या हो सकता है उसका वहम हो. वह खोया ही हुआ था कि एक आवाज़ कानों में पड़ी “पानी”. सर उठाया तो उसकी नज़रें दो उदास आँखों से टकराई. उदासी भी खूबसूरत होती है ये उस दिन जाना.

काले दुपट्टे के बीच से कुछ बाल उसके चेहरे पर गिर रहे थे. कमरे में बिजली नहीं थी इसलिए पसीने की कुछ बूँदें माथे पर टिक गयी थी. पसीने की बूँदें भी उसके माथे से हटने से इनकार कर रही थी.विशाल का काशी बहुत पीछे छूट गया था बस सामने थी तो वो दो आँखें जो सामने से तो कभी का जा चुकी थी पर हट नहीं रही थी.

और अगले दिन से विशाल हर रोज़ खाने के लिए वहां जाने लगा. पता लगा शाहीन विमेंस कॉलेज में पढ़ती है, अब्बू कुछ साल पहले गुजर गए थे बस तभी से माँ बेटी टिफ़िन का काम कर के गुजारा चला रहे थे. और फिर जैसा होता है, विशाल ऑटोमैटीकली शाम को विमेंस कॉलेज के बाहर दिखने लगा. फिर पब्लिक लाइब्रेरी में बैठने लगा,बिना किताब पढ़े बैठा रहता, पर कभी शाहीन से बात करने की हिम्मत नहीं हुई.

आज शाहीन लाइब्रेरी के जगह बाज़ार की ओर निकली, निकली क्या उसकी सहेली उसे खीच कर ले जाने लगी. सहेली खरीदारी करती रही और शाहीन उसको बताती रहती कि क्या अच्छा लग रहा है. तभी शाहीन कि नज़र बैंगनी चूड़ियों पर पड़ी.विशाल ने देखा कि चूड़ियों को देखकर उसके आँखों के कोनों पे आंसूं टिक गया था.

“अरे तुझे क्या हुआ?” सहेली ने पूछा.
“कुछ नहीं यार, अब चलें कि तुझे पूरा मार्किट खरीदना है?”
“ पहले बता कि तू ऐसे दुखी क्यूँ हो गयी”
“अरे दुखी नहीं हूँ, बस अब्बा की याद आ गयी”
“चल तेरा मूड ठीक करते हैं.गोल गप्पे खाएगी?”

वो दोनों गोल गप्पे खाने लगे और शाहीन अपनी सहेली को बताने लगी कि कैसे एक ईद पर उसने परी वाली फ्रॉक कि जिद पकड़ी थी. अब्बा ने उसके लिए बैंगनी फूलों वाली फ्रॉक खरीदी जिसे देखकर वो रोने लगी.फिर अब्बा ने उसे बैंगनी परी की कहानी सुनाई, जो अब्बा ने उसे कन्विंस करने के लिए बनाई थी. ये किस्सा बताते हुए शाहीन जोर से हंस दी और उसकी सहेली ने उसे गले लगा लिया.

“बेटा एक हफ्ते मेस बंद होगा.”

“अरे क्यूँ आंटी” विशाल का कौर गले में ही अटक गया.”ईद कि वजह से?”
“अब ईद जैसा तो कुछ है नहीं बेटा, सोच रहे हैं इसकी फूफी के पास हो आयें, ईद पर मिलना भी हो जायेगा और उनकी तबियत भी कुछ ख़राब रहती है. बेटा वो इस महीने के पैसे मिल जाते तो, सफ़र का खर्चा निकल जाता.”
“जी आंटी,मैं आज शाम को ही दे जाऊंगा”

“और घर जा रहे छुट्टियों पर तो अपने अम्मी अब्बा को मेरा सलाम कहना बेटा”
“जी आंटी”

विशाल थोड़ा परेशान हो गया, एक हफ्ता बिना शाहीन को देखे, उसने आज तक उससे बात नहीं कि थी, वो उसे हमेशा देखती थी कॉलेज में, लाइब्रेरी में. पर किसी ने कभी कुछ कहा नहीं.

शाम को विशाल पीले मकान के सामने जाकर तीन बार लौट आया, उसे पता था हमेशा कि तरह शाहीन बाहर कुर्सी डाल कर पढ़ रही होगी. उसने दरवाज़ा खटखटाया. अन्दर से आवाज़ आई “कौन?”

“जी मैं विशाल आंटी “
“आओ बेटा, चाय पियोगे”
“पिला दीजिये आंटी, मन तो है. आंटी ये आपके पैसे”
“शुक्रिया बेटा”
आंटी चाय बनाने को उठी, तो विशाल शाहीन के पास जल्दी से एक पैकेट रख के आ गया.
“आंटी मुझे कुछ काम याद आ गया, मैं चलता हूँ” वह रसोई कि ओर देख के चिल्लाया.
“अरे चाय तो पीते जाओ बेटा”
“नहीं आंटी, चलता हूँ. आपको ईद मुबारक “
“तुमको भी बेटा”

ईद के एक दिन पहले कि रौनक बाज़ार में थी, चारों ओर हलचल थी, लोग खरीदारी कर रहे थे. रात के आखिरी पहर में शाहीन ने वो पैकेट खोला. अन्दर वही बैंगनी चूड़ियां थी. एक छोटी सी रंग बिरंगी गुड़िया भी साथ में रखी थी. वह मुस्कुरा दी, आँखों में फिर वही कमबख्त आंसू आकर टिक गए थे. पर आज आँखें उदास नहीं थी. बाहर ईद का चाँद मुस्कुरा रहा था और अन्दर शाहीन.

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