राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित सुभाष चंद्र कुशवाहा की किताब ‘अवध का किसान विद्रोह’ पर यह टिप्पणी प्रवीण झा ने लिखी है। प्रवीण झा की पुस्तक ‘कूली लाइंस’ आजकल ख़ासी चर्चा में है- मॉडरेटर
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राष्ट्रवाद और सामंतवाद के मध्य पिसता किसान। सुभाष चंद्र कुशवाहा जी की पुस्तक ‘अवध का किसान विद्रोह’ तो सौ वर्ष पुराना इतिहास है, लेकिन मूलभूत प्रश्न अब भी वही हैं। जब किसान कहें कि हमें स्वराज नहीं, रोटी चाहिए; तो हमें ठिठक कर सोचना चाहिए। कि देश से ऊपर क्या है? क्या देश से ऊपर मानवता है, जो कभी-कभी देश को भी कटघरे में खड़ी कर देती है?।जब हम ‘नून-रोटी’ (नमक-रोटी) खाकर देशप्रेम की प्रतिज्ञा करते हैं, तो इसका दूसरा पक्ष भी देखना चाहिए। कि देशप्रेम के नाम पर सरकार हमें नून-रोटी ही तो खिलाती नहीं रह जाएगी? जैसा तानाशाही देशों में होता रहा है? उस वक्त के विद्रोह में प्रश्न कांग्रेस के नेताओं से था, जो ब्रिटिश के खिलाफ असहयोग आंदोलन में किसानों को शामिल करना चाहते थे। और इस पृष्ठभूमि में गांधी जी के नाम पर कहीं दुकानें लूटी जा रही थी; तो कहीं किसानों पर अत्याचार को अनदेखा किया जा रहा था क्योंकि जमींदार कांग्रेस के सहयोगी थे। यह एक अंतर्द्वंद्व है, जिसे किताब में बारीकी से तथ्यपूर्ण रूप से उकेरा गया है।
लगभग एक ही समय में दो लोग भारत लौटते हैं। अफ्रीका से ‘पहला गिरमिटिया’ यानी मोहनदास करमचंद गांधी, और फिजी से लौटे गिरमिटिया बाबा रामचंद्र। गांधी चम्पारण में गोरे जमींदारों के खिलाफ ‘सत्याग्रह’ की नींव रखते हैं, और रामचंद्र अवध में भूरे (भारतीय) सामंतों के खिलाफ। ज्यादतियाँ दोनों तरफ थी, लेकिन भारतीय सामंतों के खिलाफ कांग्रेस कभी खुल कर नहीं आ सकी। इसकी वजह स्पष्ट थी कि भारतीय सामंतों की कांग्रेस में पैठ थी। गांधी जी और कांग्रेस को संभवत: यह विश्वास भी था कि ‘स्वराज’ मिलने के बाद सामंत-किसान समस्याएँ भी खत्म हो जाएगी। जहाँ गांधीजी का कद बढ़ता गया, उनकी राष्ट्रीय पहचान बनी; बाबा रामचंद्र का दायरा अवध तक सिमट कर रह गया और वह किसान, कांग्रेस और सामंतों के मध्य उलझ कर रह गए। पुस्तक में वह महत्वपूर्ण घटना वर्णित है जब गांधीजी की उपस्थिति में काशी विद्यापीठ के उद्घाटन के समय बाबा रामचंद्र को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी की मृत्यु के दो वर्ष बाद बाबा रामचंद्र भी चल बसे। आज उन्हें कम लोग जानते हैं।
सुभाष जी ने अपनी पुस्तक में कई शोधपरक सूक्ष्म-इतिहास लिखे हैं, कई भ्रांतियों को तोड़ा है। मुंशीगंज का गोली कांड तो इतना मार्मिक है कि इसकी तुलना ‘जालियाँवाला बाग़’ से करना अतिरेक नहीं। और विडंबना यह कि इसे किसी गोरे डायर ने नहीं, भारतीय जमींदार की बंदूक ने अंजाम दिया। इतिहास की पारंपरिक स्कूली शिक्षा में यह इतिहास क्यों नहीं सम्मिलित किया गया, या कम तवज्जो दी गयी, यह कोई ‘रॉकेट साइंस’ नहीं। किसान विद्रोह और असहयोग आंदोलन के मध्य एक ‘कन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ आजादी के बाद भी उसी रूप में रहा। इसी पक्ष को किताब में क्रमबद्ध दर्शाया गया है।
एक दूसरे पक्ष पर भी किताब ध्यान दिलाती है। किसान विद्रोह के जातीय पक्ष पर। मदारी पासी के गुणगान तो शायद कई लोगों ने सुने हों, लेकिन सुभाष जी ने कई अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों से परिचय कराया है। उन्होंने मदारी पासी पर लिखे इतिहास की भी शोधपूर्ण तफ्तीश की है। इनके अतिरिक्त छोटा रामचंद्र का भी बहुकोणीय विश्लेषण है। कई ऐसे नाम जो इतिहास के पन्नों में दब गए, उन्हें उचित स्थान मिला है। हर बात यहाँ लिख कर मैं पाठकों के लिए ‘स्पॉयलर’ नहीं बनना चाहता। लेकिन, इस किताब को वक्त लेकर वाक्यों के मध्य छुपे वाक्यों को पढ़ना चाहिए।
किताब समाप्त करने के बाद किताब से अलग खड़े होकर देखते हुए, मुझे ऐसे तर्क भी नजर आते हैं कि कांग्रेस या गांधी जी ने किसान-विद्रोह से दूरी क्यों बना ली। सामंत और किसान दोनों भारतीय थे, और कांग्रेस इनके मध्य विवाद लाकर ब्रिटिश के खिलाफ लड़ाई को कमजोर नहीं करना चाहती थी। गांधी चाहते थे कि सामंत ही किसानों का हल निकालें, जैसे दरभंगा राज का जिक्र पुस्तक में है। भले ही यह अकल्पनीय इच्छा था कि शोषक ही शोषित का साथ दें। उनकी मूल धारणा यही रही होगी, और जो पुस्तक में भी लिखा है, कि किसान देश के लिए कुछ दिन सामंतों का शोषण सह लें।
आज भी परिदृश्य ख़ास नहीं बदला। कॉरपोरेट सामंत जिनके पास देश की नब्बे प्रतिशत से अधिक संपत्ति है, उनकी सरकार में पैठ है। किसानों और आर्थिक निम्न-वर्ग की समस्या गौण हो जाती है। राष्ट्र-निर्माण में इन सामंतों की भूमिका की दुहाई देकर किसान मुद्दों की अनदेखी कर दी जाती है। किसानों के छिट-पुट विद्रोह आज भी होते हैं, और आज भी सरकार या राजनैतिक पार्टियाँ उनके समर्थन से छिटकती है। क्योंकि ऐसे विद्रोहों से पूँजीपति कमजोर पड़ते हैं, और उनके कमजोर पड़ने से देश की आर्थिक व्यवस्था कमजोर पड़ती है। लेकिन राष्ट्र-निर्माण मात्र अर्थ से तो नहीं होता, सौ वर्ष बाद और ब्रिटिशों के जाने के बाद तो यह अंतर्द्वंद्व उचित नहीं।
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