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नमिता गोखले के उपन्यास ‘राग पहाड़ी’का एक अंश

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कुमाऊँ अंचल से मुझे प्यार है और यह जगाया है कुछ साहित्यिक कृतियों ने। उन कृतियों में हिंदी की तमाम कृतियों के अलावा अंग्रेज़ी के कुछ उपन्यासों का योगदान भी रहा है। जिनमें एक नाम नमिता गोखले के उपन्यास ‘दि हिमालयन लव स्टोरी’ का भी है। मुझे याद है मनोहर श्याम जोशी ने उसकी प्रति देते हुए मुझे कहा था कि अगर तुमको कसप पसंद है तो यह भी पसंद आएगा। ‘थिंग्स टू लीव बिहाइंड’ कुमाऊँ कथाओं में सबसे अलग है, अपनी विराटता में महाकाव्यात्मक। कथाओं, लोक कथाओं के साथ कुमाऊँ की जीवंत उपस्थिति है इस उपन्यास में। राजकमल प्रकाशन से इसका हिंदी अनुवाद आया है ‘राग पहाड़ी’ के नाम से, अनुवाद किया है जाने माने लेखक पुष्पेश पंत ने। कल यानी गुरुवार को इस किताब पर लेखिका नमिता गोखले और अनुवादक पुष्पेश जी के साथ आलोचक संजीव कुमार बातचीत करेंगे। फ़िलहाल आप इस उपन्यास का एक अंश पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर

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दुर्गा की अनाथ बेटी तिलोत्तमा का पालन-पोषण उसके मामा देवीदत्त पंत और उनकी नि:संतान पत्नी सरूली ने किया। वह एक ख़ुशमिज़ाज बच्ची थी जो अपने कष्टों को कभी ज़ाहिर नहीं करती थी। उसके तीन बुजुर्ग रिश्तेदार उसका लालन-पालन स्नेह से करते थे। तिलोत्तमा की माँ ताल में डूबकर मरी थी, उसने अपने पिता को कभी नहीं देखा था। वकील मामा उसे कहानियाँ पढ़कर सुनाते थे और सरूली मामी अँधेरी रात में लोरियाँ गाकर सुलाती थी। सरूली की माँ उसके लिए मुलायम-मीठे मालपुए बनाती थी। दिन के समय यह बच्ची बड़ा बाजार वाले घर के गलियारों में घूमती रहती थी। अपनी माँ के उन चित्रों पर अँगुलियाँ फिराती जिनमें अनकही कहानियाँ थीं। जब ऊँचे पहाड़ों से नीचे उतर रेशम और मूँगा बेचने हूणियाँ आते तब बड़ी माँ सरूली उसके लिए रिबन और रंगीन किनारे वाले मफ़लर ख़रीद देती। दुर्गा के सोने के गहने हँसुली, गुलूबन्द और नथ तिलोत्तमा की शादी के लिए, सरूली की भारी पायजेब के साथ अलग रख दिए गए थे। दुर्गा की अनाथ लड़की अब छह साल की होने जा रही थी और उसके लिए योग्य वर की तलाश शुरू हो गई थी।

परिवार के पुरोहित ने लड़की की जन्मपत्री देखी तो तुडी-मुडी कुंडली को ध्यान से देखते हुए उन्होंने कहा, “इतने ज़ोरदार ग्रह, पारिवारिक सुख-शांति के लिए अच्छा लक्षण नहीं है।“ लग्न-विचार कर उन्होंने कहा, ”मैं सोचता हूँ इसकी समस्याओं का एकमात्र समाधान अश्वत्थ विवाह ही है ताकि मंगल दोष का निवारण हो सके। इसकी शादी एक जवान केले यी पीपल के पेड़ से करनी होगी फिर उसे ब्राह्मण वर से बेफ़िक्र होकर किया जा सकता है…।“

वकील साहब को गुस्सा आ गया। ”हम आधुनिक युग में जी रहे हैं। गोरे लोग रेलगाड़ियाँ बना रहे हैं जो सौ घोड़ों से तेज दौड़ती हैं। उन्होंने बिजली की बत्तियों का आविष्कार किया है जो दर्जनों चन्द्रमा की तरह चमकती हैं। समय आ गया है कि हम इस दकियानूसी से निजात पाएँ। मैं देवीदत्त वकील चार वेदों को जानने वाला ब्राह्मण पंडित आपसे यह कह रहा हूँ। मेरी बात याद रखें ज्योतिषी जी, आप अभागे कमजोर लोगों को ही मूर्ख बना सकते हैं।”

वे लोग बैठक में बैठे थे जहाँ फ़र्श पर गद्दे के ऊपर लट्ठे की चादर बिछी थी ज्योतिषी एक मसनद पर टिके थे। बात उन्हें अच्छी नहीं लगी पर उन्होंने कुछ कहा नहीं। अभी उन्हें अपनी दक्षिणा वसूल करनी थी। ग्रहदशा बता रही थी कि जन्म-कुंडली का दोष हटाने के लिए कुछ न कुछ उपाय करना होगा लेकिन यदि जजमान उनकी बात ना सुने तो वह भला क्या कर सकते थे?

उन्होंने कुछ विचारते हुए कहा, “एक रास्ता है। आप इसकी शादी को 13 वर्ष के लिए टाल दीजिए। जब तक वह 19 वर्ष की ना हो जाए। तब तक शनि की कुदृष्टि और मंगल दोष की अवधि समाप्त हो चुकी होगी।“

देवीदत जी ने उनकी बातें सुनीं पर कहा कुछ नहीं । ज्योतिषी जी को लग गया कि उनकी बातों का असर हो रहा है। उन्होंने कुंडली को फिर से फहराया, उस पर कुमकुम छिड़का और लपेटकर वकील साहब को लौटा दिया। अपनी दक्षिणा लेने के लिए किसी और दिन आना उन्होंने मन ही मन तय किया।

देवीदत्त पंत उन आधुनिक तरीकों को मानते थे जो अंग्रेज अपने साथ लाए थे। फिर भी भारत के ऊपर असन्तोष के काले बादल मँडरा रहे थे। अंग्रेज़ सारे भारत में टिड्डीदल की तरह फैल गए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल से बाहर निकल उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों से होते हुए सिंध और पंजाब तक फैल चुकी थी। टौमी सिपाही, बॉक्स वाले सौदागर, मेम साहब और ईसाई मिशनरी सारे देश में फैल गए। उस देश में, जिसे इन फ़िरंगियों ने मुग़लों से छीन लिया था।

तिलोत्तमा के मृत पिता के छोटे भाई बद्रीदत्त उप्रेती गरम मिज़ाज और बाग़ी तेवरों वाले थे। वह काशीपुर में अपने परिवार और अपनी पत्नी के लम्बे-चौड़े कुटुम्ब दोनों के ही लिए परेशानी का सबब थे। लम्बे क़द के गोरे रंग और लम्बी नासिका वाले उप्रेती जी नाक सदा ऊँची रहती थी उनकी शादी मशहूर हर्षदेव जोशी की सबसे छोटी लड़की से हुई थी।

हर्षदेव जोशी कुमाऊँ की राजनीति के चाणक्य कहलाते थे। उन्होंने पहले चन्द राजाओं के ख़ात्में के लिए हमलावर गोरखों की मदद की थी और फ़िर उन्हें निकालने के लिए अंग्रेज़ विलियम फ्रेज़र को बुलावा दिया था।

बद्रीदत्त उप्रेती अकसर यह कहा करते, “हर्षदेव जोशी ने भले ही मेरी पत्नी को जन्म दिया, वह देशद्रोही और ख़ुदगर्ज इनसान थे।“ उनके श्रोता जुटते-घटते रहते थे जिनमें होनहार क्रान्तिकारी या सिर्फ़ कुतूहल के मारे होते। “मैं उन्हें गद्दार समझता हूँ विभिषण और जयचन्द जैसा।“ उनके यहाँ तक पहुँतचे उनकी पत्नी गरिमा के आँखों से आंसू फूट पड़ते और सुनने वालों को यह पता चल जाता कि अब बात किस तरफ़ मुड़ने वाली है।

“हम पहाड़ी स्वामीभक्ति को सबसे बड़ा गुण समझते हैं पर हमें अपनी कौम के प्रति स्वामीभक्ति होना चाहिए। मेरा कहना है कि रावण या पृथ्वीराज चौहान का साथ देना बेहतर है बनिस्बत उन विजेताओं के जो हमारी ज़मीनें हथिया लेते हैं और हमारा भविष्य बर्बाद कर देते हैं।“ उनकी आवाज़ नाटकीय ढंग से ऊँची होने लगती।

जब कभी बद्रीदत्त नैनीताल आते तो यही बातें बड़ा बाजार वाले घर में भी होतीं। तिलोत्तमा के मामा सरकारी वकील देवीदत्त पंत चुपचाप कमरे से निकल जाते अपने नाखूनों को निहारते। उन्होंने ज़िला जज मिस्टर वाइट डेविस को ऐसा करते देखा था और यह अदा उन्हें भा गई थी। देवीदत्त जी की वकालत बढ़िया चल रही थी और उन्हें कोई कारण नज़र नहीं आ रहा था कि वह इस तरह की ऊल-जुलूल बातों से उसे ख़तरे में डालें। फिरंगी चतुर और साहसी थे। वे संकट के वक़्त शान्त रहते थे और वे शासन करने योग्य थे। फिर वे किसी भी सवर्ण ब्राह्मण से ज़्यादा गोरे थे। देवीदत्त पंत निस्संकोच भाव से गोरों की सराहना करते थे, उन्हें लगता था वे निश्चय ही इस देश के भाग्य विधाता होने के अधिकारी हैं।

किन्तु बद्रीदत्त उप्रेती का गुस्सा और फिरंगी शासकों के प्रति आक्रोश हिन्दुस्तान के मैदानों में जगह-जगह गूँज रहा था। क्रांति की अफ़वाहें गरम लू की धूल के साथ फैल रही थीं। लोग फुसफुसा रहे थे कि अवध के नवाब वाज़िद अली शाह ने काली कुमाऊँ के राजा श्रीकालू महरा से मदद माँगी है। ठाकुर माधोसिंह फत्र्याल और ठाकुर खुशहाल सिंह जलाल अंग्रेज़ साहबों के प्रति वफ़ादार बने रहे। आनन्द सिंह फत्र्याल, बिशन सिंह करायत फ़िरंगियों के अन्याय के प्रति दबी ज़ुबान में शिकायत करने लगे थे। तिलोत्तमा के चाचा बद्रीदत्त उप्रेती बेहिचक बाग़ियों के साथ थे।

कुमाऊँ के कमिश्नर हैनरी रामजे सभी पहाड़ियों के लाड़ले थे। लोग उन्हें प्यार से रामजी कहते थे। मेजर रामजी ने कुमाऊँ को अपना दूसरा घर बना लिया था। जब भी कोई ऐसा आदेश ऊपर से आता जो रामजे की नज़र में पहाड़ियों के लिए नुकसानदेह होता है तो वह हाशिए पर लाल स्याही से यह लिखकर उसे ख़ारिज कर देते, “इसे कुमाऊँ में लागू नहीं किया जा सकता।“

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किताब – राग पहाड़ी

लेखक – नमिता गोखले

प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन

विधा – उपन्यास / अनुवाद

कीमत पेपरबैक – 199/-

आईएसबीएन – 9789388753999

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राग पहाड़ी’ का देशकाल, कथा-संसार उन्नीसवीं सदी के मध्य से लेकर बीसवीं सदी से पहले का कुमाऊँ है। कहानी शुरू होती है लाल-काले कपड़े पहने ताल के चक्कर काटती छह रहस्यमय महिलाओं की छवि से जो किसी भयंकर दुर्भाग्य का पूर्वाभास कराती हैं। इन प्रेतात्माओं ने यह तय कर रखा है कि वह नैनीताल के पवित्र ताल को फिरंगी अंग्रेजों के प्रदूषण से मुक्त कराने की चेतावनी दे रही हैं। इसी नैनीताल में अनाथ तिलोत्तमा उप्रेती नामक बच्ची बड़ी हो रही है। जिसके चाचा को 1857 वाली आज़ादी की लड़ाई में एक बाग़ी के रूप में फाँसी पर लटका दिया गया था। कथानक तिलोत्तमा के परिवार के अन्य सदस्यों के साथ-साथ देशी-विदेशी पात्रों के इर्द-गिर्द भी घूमता है जिसमें अमेरिकी चित्रकार विलियम डैम्पस्टर भी शामिल है जो भारत की तलाश करने निकला है।

तिलोत्तमा गवाह है उस बदलाव की जो कभी दबे पाँव तो कभी अचानक नाटकीय ढंग से अल्मोड़ा समेत दुर्गम क़स्बों, छावनियों और बस्तियों को बदल रहा है, यानी एक तरह से पूरे भारत को प्रभावित कर रहा है। परम्परा और आधुनिकता का टकराव और इससे प्रभावित कभी लाचार तो कभी कर्मठ पात्रों की जि़न्दगियों का चित्रण बहुत मर्मस्पर्शी ढंग से इस उपन्यास में किया गया है जिसका स्वरूप ‘राग पहाड़ी’ के स्वरों जैसा है। चित्रकारी के रंग और संगीत के स्वर एक अद्भुत संसार की रचना करते हैं जहाँ मिथक-पौराणिक, ऐतिहासिक-वास्तविक और काल्पनिक तथा फंतासी में अन्तर करना असम्भव हो जाता है। यह कहानी है शाश्वत प्रेम की, मिलन और विछोह की, अदम्य जिजीविषा की।

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