सुभद्रा सेनगुप्ता की किताब ‘दि टीनएज डायरी ऑफ़ जहाँआरा’ में मुग़लिया इतिहास के उस दौर को दर्ज किया गया है जब शाहजहाँ ने अपने पिता जहांगीर से बग़ावत कर दी थी और अपने परिवार के साथ दक्कन में रह रहे थे। शाहजहाँ की बेटी जहाँआरा के बारे में सब जानते हैं कि वह लेखिका थी। इसी बात को आधार बनाकर एक दिलचस्प किताब लिखी गई है। पुस्तक का प्रकाशन ‘स्पीकिंग टाइगर’ ने किया है। उसी किताब का एक अंश मेरे अनुवाद में- प्रभात रंजन
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वो दोपहर
मेरे भाई घुड़सवारी के लिए गए हुए हैं, और मैं औरंगज़ेब और उसके सवालों से ख़ुद को बचा पाने में कामयाब हो गई। लेकिन मैं इस बारे में सोच रही हूँ। किस वजह से नूरजहाँ का यक़ीन मेरे अब्बा से जाता रहा? अचानक उसने शहज़ादे शहरयार को शह देने का फ़ैसला क्यों किया? बड़ा अजीब चुनाव था।
मैं शहज़ादे शहरयार के बारे में सोच रही थी जो जहांगीर के चार बेटों में सबसे छोटे हैं। चूँकि उनकी अम्मा एक रखैल थीं और उनका कोई ख़ास दर्जा नहीं था इसलिए उनको अपने भाइयों जैसी इज़्ज़त नहीं बख़्शी गई। मज़े वे हमेशा से अजीब से लगते रहे हैं और दारा का भी यह मानना है। दारा को इस बात का यक़ीन है कि शहरयार दिमाग़ी तौर पर कुछ कमज़ोर है। वह बड़े अजीब तरीक़े से हँसते हैं, जैसे घोड़े हिनहिना रहे हों और शर्मिंदा करने वाले मौक़ों पर वे मुँह दबाकर हँसते हैं। मुझे हमेशा से यही लगता था कि दादा जहांगीर और नूरजहाँ दोनों को उनका मिज़ाज पसंद नहीं था।
आज मैं अपना काग़ज़, क़लम और दवात लेकर झरोखे में आ गई हूँ। मुझे यहाँ बैठकर लिखना बहुत अच्छा लगता है। चेहरे से टकराती हवा और बाग़ से दूर झील के काँपते पानी की चाँदी जैसी चमक मुझे अच्छी लगती है। एक समय था जब दादा जहांगीर को मांडू बेहद अच्छा लगता था।
खुशी के उन दिनों में वह और बादशाह बेगम परीयर के साथ मांडू में बारिश देखने आया करते थेझील के किनारे खुली हवा में खाना पीना होता था और साज़िंदे संगीत बजाते रहते थे। आजकल उनको कश्मीर जाना पसंद है। उनको पहाड़ पसंद हैं और वह कहते हैं कि साफ़ हवा में उनको अच्छा महसूस होता है और वे अधिक खुलकर साँस ले पाते हैं। मुझे लगता है कि अगर सम्भव रहा होता तो उन्होंने कश्मीर को ही राजधानी बना ली होती और गर्म तथा धूल भरे आगरा में कभी लौट कर नहीं आते।
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