हंस पत्रिका का अप्रैल अंक कृष्णा सोबती की स्मृति को समर्पित था, जिसका सम्पादन अशोक वाजपेयी जी ने किया है। इस अंक में कृष्णा जी को याद करते हुए उनकी भतीजी ने एक आत्मीय संस्मरण लिखा है जिसका अंग्रेज़ी से अनुवाद मैंने किया है। आपने न पढ़ा तो तो पढ़िएगा- प्रभात रंजन
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यादगारे जीजी
हर बात के पीछे एक कहानी होती है- कई दफा कहानियां सामान्य होती हैं कई बार संगीन और दिल को तोड़कर रख देने वाली. लेकिन इन सभी कहानियों के पीछे कृष्णाजी की कहानी रही है- क्योंकि वह वहां है जहाँ से मेरी कहानी शुरू हुई.
इस आंटी ने इस छोटी लड़की का दिल चुरा लिया और वह उनको जीजी बुलाने लगी– हम सभी उनको प्यार से यही बुलाते. कृष्णा सोबती को कहानियां सुनाने से अधिक शायद ही कुछ पसंद था- शायद सिवाय ऐसी कहानियों के जो खुद उनके अपने जीवन से जुड़ी होती हों. आँखें चमकाते हुए, रंगमंच के कलाकारों जैसी पक्की टाइमिंग के साथ वह अपना जादू बिखेरती थीं. प्यारी आंटी, आत्मविश्वास से भरपूर और शाश्वत विदुषी जीजी के प्रखर विचारों, धुन और प्रज्ञा ने उनको एक ऐसा इंसान बना दिया अपनी पूरी जिंदगी में ऐसे इंसान से कोई बार बार नहीं मिलता.
पुराने जमाने जैसा कोई ज़माना नहीं हुआ. मेरे अन्दर जीजी की जो छवि है वह 1960 और 1970 के दशक की है. उनके काले बाल उनके चेहरे पर इस तरह लहराते रहते थे जिस तरह उस समय हॉलीवुड फिल्म स्टार के लहराते थे, वह अपनी ड्रेसिंग टेबल पर आगे की तरफ झुकी अपने चेहरे पर चार्मिस कोल्ड क्रीम लगाती(जिसका जार ख़ास तरह के गुलाबी रंग का होता था), या अपने होंठों पर सुर्ख लाल लिपस्टिक लगाने के लिए अपने हंसमुख मुँह को अंग्रेजी के ओ अक्षर के की तरह गोल कर लेती थीं. जीजी इवनिंग ऑफ़ पेरिस, चार्ली और चैनल नंबर 5 परफ्यूम लगाती थीं और मेरे पास अभी वह स्प्रे वाली बोतल है जो कुछ समय पहले उन्होंने मुझे अपने ड्रेसिंग टेबल से उठाकर दी थी, यह तब की बात है जब हम उनके बेडरूम में साथ थे. मैं उसको नहीं सूंघती हूँ क्योंकि इससे उनके न रहने का दर्द बहुत सालने लगता है. वह ढीले ढाले सिल्क के गोटा गरारा पहनती थीं जो उनके घुटनों पर बहुत नाटकीय ढंग से लहराती रहती थीं, चिकनकारी वाली कुर्ती, दुपट्टे से ढंके सर, उनके बड़े फ्रेम का चश्मा, बड़े डायल वाली धातुई पट्टी वाली घड़ी, उनके कंगन, वही जिनके लिए प्रसिद्ध थीं, यह सब मिलाकर ऐसा प्रभाव छोड़ता था और उनके बोलने का लहजा, पहनावा ओढावा और भावनात्मक शैली भावनाओं को बहुत अतियथार्थवादी गूढ़ अंदाज में सामने लाती थी. जादुई रौशनी के महीन जाल के सहारे बिना किसी अतरिक्त प्रयास के वह जो रचती थीं, मेरा भाई बॉबी और मैं जीजी के उन अलग अलग अवतारों से मंत्रमुग्ध हो जाते थे जो वह धारण कर लेती थीं-जादूगर, सूत्रधार, रहनुमा, इतिवृत्त्कार और इतिहासकार. जीजी ने दिल्ली के सभी 305 गाँव देख रखे थे, सबसे अच्छे मटर उस इलाके में उगते थे जिसे आज प्रगति मैदान कहा जाता है, वह अपने छोटे भाई जगदीशजी(वह अपने छोटे भाई को यही बुलाती थीं जो मेरे पिता भी हैं) के साथ 16 अगस्त को उस ऐतिहासिक मीलस्तम्भ का गवाह बनी थीं जब लाल किले के प्राचीर पर झंडा फहराया गया था(उस दिन दोनों कर्जन रोड से लालकिले पैदल ही गए थे, गांधीजी की अंतिम यात्रा में भी दोनों शामिल हुए थे जिसमें हार्डिंग एवेन्यू के पास वे उसका हिस्सा बने थे.
जब चांदनी चौक में घंटाघर के गिरने की खबर आई तो वह तत्काल वहां गई थीं. उसके बाद जिस तरह वहां मलबा था और जिस तरह से अफरा तफरी मची थी जिसके बारे में बताते हुए अक्सर उनकी आँखों में करुणा दिखाई देती थी- औरतों की चमकदार ओढनियाँ मलबे के अन्दर से दिखाई दे रही थी और उसके बाद प्रदर्शन करने के लिए जिस तरह से भीड़ जमा हो गई थी, उनकी स्मृति में जैसे उसकी तस्वीर से बनी हुई थी. वह युद्ध स्मारक के ऊपर चढ़ गई थीं जिसके ऊपर से धुंआ निकल रहा था, गाँधी मैदान में सुभाष चन्द्र बोस के खून सने शर्ट के कारण किस तरह का मंत्रमुग्ध कर देने वाला नजारा था, जब उन्होंने संविधान सभा के सत्रों में हिस्सा लिया था जहाँ विमर्श और बहस इस तरह की शालीनता के साथ होता था, चाहे कितनी भी भड़काऊ बात आ गई हो, एशियाई सम्मलेन और उसके साथ ही हुए पुरातात्विक प्रदर्शनी के समय पुराना किला के पीछे कैसी चहल-पहल थी- जीजी की दास्तानगोई में यह सब और भी बहुत कुछ बिंधी हुई रहती थी.
चूँकि जीजी उस पीढ़ी की थीं जिसने ब्रिटिश भारत से आजाद भारत के मादक संक्रमण को देखा था, उनकी समृद्ध, उदबोधनात्मक गुलकारी जैसी हस्तलिपि से हमारे बचपन के दिनों की यादें भरी हुई हैं. वह अक्सर कहती थीं कि सीखते हुए और जीते हुए बीच के साल फीके नहीं पड़े. जब हम उनके पास जाते थे तो वह अपने जीवन की कथा को पूरी भावुकता से सुनाती थीं. निर्मोही भाव से वह बताती कि किस तरह से उनके रिश्तेदार बर्बाद हो गए, मार डाले गए और बेघरबार हो गए और किस तरह अपने प्यारे प्यारे लाहौर को उन्होंने अलविदा कहा.दो कहानियां सुनाते हुए उनको खूब मजा आता था- एक उनकी जन्मदिन के जलसे की थी जो रावी नदी में एक बाजरे पर मनाया गया था, जिसमें दिल खोलकर पैसे खर्च किये गए थे, बैठने के लिए खुले में कुर्सियां और मेजें लगाई गई थीं, जिसमें जाने माने रेस्तरां से चीज पैटीज, म्योनिज, एग सैंडविच, लेमन टार्ट, चॉकलेट केक के साथ स्पेंसर से विम्टो कोल्ड ड्रिंक मंगवाया गया था- जिन सब चीजों की वजह से वह शाम जानदार और शानदार हो गई थी. दूसरी स्मृति बड़ी मार्मिक थी जो फतेहचंद कॉलेज को अलविदा कहने से जुडी है जहाँ उन्होंने पढ़ाई की थी, जब उनका सामान तांगे पर लादा जा चुका तो जीजी आखिरी बार अपने होस्टल की सीढियों पर गई और हसरत भरी नजरों से अपने कमरे की तरफ देखा- नीचे उनको एक पेन्सिल पड़ी हुई दिखाई दी और जिससे उन्होंने दीवार पर लिखा दिया- जाती बहारों ये याद रखना/ के कभी हम भी यहाँ बसते थे. कृष्णा जी जब लद्दाख गई तो उन्होंने वहां यह पंक्ति एक विहार के बाहर लिखी हुई देखी थी- जब भी किसी चीज को देखो तो इस तरह देखो जैसे पहली बार देख रहे हो- जब भी किसी चीज को देखो तो इस तरह से देखो जैसे आखिरी बार देख रहे हो. मैं इस बात को अनुभव से जानती हूँ कि ईश्वर सही है- स्मृतियाँ अनन्त होती हैं. जीजी बताती थीं कि श्रीनगर-लद्दाख की यात्रा उनके लिए निर्णायक थी- सिंध का प्राचीन नीलापन औए नयनाभिराम दृश्य एक तरफ राष्ट्रीय गर्व की भावना से भर देते थे- जब वह भारतीय वायुसेना के जहाज को आकाश में उड़ते हुए देखती तो उनके अन्दर एक अव्याख्येय सी भावना उमड़ती थी, इसके साथ ही उनके अन्दर एक तरह की उदासी और दुःख की भावना भी भर गई जिसको वह बेहद अपना कहती थीं. गुजरात जहाँ के आकर्षक फाटक और शाम की सैर बीते ज़माने की बातें लगती थीं. जैसा कि जीजी हमेशा कहती थीं, ‘विभाजन को भुला पाना तो मुश्किल है- लेकिन उसको याद करना भी उतना ही खतरनाक है.’
बीती यादों के प्रयासहीन प्रवाह से भरपूर दास्तान, जो बहुत बारीकी से बुना गया होता- महत्वपूर्ण पल जिसमें कृष्णा सोबती की किस्सागोई- दस्तावेजी, चाक्षुष, सौन्दर्यशास्त्रीय, ऐतिहासिक, रोजमर्रापन से प्रचुर किस्से. जिनमें छोटी कृष्णा सोबती के पुरखों की हवेली की पेचीदा घुमावदार परतें होती, जिनमें ऐंग्लो-सिख निर्णायक युद्ध के बाद के हालात का जायजा होता था, वह युद्ध जो चिलियानौला, गुजरात तथा कियेंरी में 1849 की सर्दियों में लड़ा गया था. हवेली के बरामदे चौड़े थे ताकि छाया मिल सके, खिडकियों पर चिक पड़े होते थे और ठंडा रखने के लिए पानी का छिडकाव किया जाता था, दोपहरों में हल्का अँधेरा किया जाता था और बाहर की चमकदार रौशनी बांस की चिक से आती थी, बचपन में सोने जाने के पहले पिताजी की सुनाई फूलवालों की सैर, हल्दीघाटी और टाइटैनिक जहाज के डूबने की कहानियां; फूलों और सब्जियों को पोटेशियम परमैगनेट के घोल में धोया जाता था जिससे पानी गुलाबी हो जाता था; भुलाई जाने वाली बात थी कॉड लीवर आयल और अंडे की ज़र्दी का पिलाया जाना. दूध को एक जग में रखकर उसके ऊपर जाली से नीले मनकों से लटकाकर रखा जाता था जो बहुत गर्म होता था जिससे उसके ऊपर मोटी मलाई जम जाती थी. शिमला(छोटा विलायत) की कहानियां जिनमें ओक, चीड़, देवदार और बुरुंश के जंगल होते थे; फर्न, काई, शैवाल और विंडफ्लावर्स इन्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज के विशाल स्कॉटिश बंगले की सीढियों को ढंके रहते थे. जीजी की सुन्दरता के ढांचे में उत्तरी पहाड़ों की बर्फीली चोटियाँ थीं; लम्बे लम्बे समय तक एक्जीक्यूटिव बांड कागजों के बीच, शेफर इंक पेन से लिखते जाना, मसूरी, नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, कौसानी में आनंदभपूर्ण किताबें, उनका नगीना- शिमला और मुर्री. जुहू के सन एंड सैंड होटल में बुनियाद सीरियल के जमाने में रमेश सिप्पी के साथ; मास्टरजी के लम्बे अतीत की पीड़ा को पंजाबियत देते हुए; श्यामला हिल्स में सुरमा भोपाली दोपहरें और दिलचस्प कबाबी कहानियां; ज़िन्दाबादी बुकस्टोर और किताबखाना. सीपी की किताब की दुकानें भवनानी संज, रामाकृष्णा, अमृत बुक्स और दरियागंज का लतीफी प्रेस. हार्टले पामर की स्वादिष्ट बिस्किट हो या एंकर या ग्लैक्सो के बिस्कुट, उनके स्वाद को याद कर आज भी कृष्णा जी के मुंह में पानी आ जाता था; मंगोलिया, कैरी होम या बहुत बाद में क्वालिटी के आइसक्रीम(उनका पसंदीदा था सभी आइसक्रीम की रानी वनिला और बड़े आकार की डाइजेस्टिव), जब वह नब्बे साल से ऊपर की हो गई थीं तब भी कप भर बचपन में खाया जाने वाला ओवल्टीन, कभी कभार कपुचीनो, और कॉम्प्लान को याद करती थीं. यह साफ़ लगता था कि वहां उनका दिन बहुत अच्छा गुजरा था- ऐसा लगता था कि वह हमेशा वहीँ रहती थी.
सत्तर के दशक के आरम्भ से लेकर 80 के दशक तक बीजी हमारे लिए बरगद की छांह जैसी रहीं, रौशनी के असंख्य मौके हमारे जीवन में उनके कारण आये. अज्ञेय, भीष्म साहनी(हमारे लिए भीष्म अंकल), उपेन्द्रनाथ अश्क, मन्नू भंडारी, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, कृष्ण बल्देव वैद जैसे शीर्षस्थ लेखकों की छाया में बड़े होना ऐसा है जैसे ऐसे इकत को बुना रहे हों जो जीवन के लिए मीलस्तम्भ की तरह हो और जिसमें एक शानदार दृश्यावली की घुलावट भी हो. कृष्णा जी के दोस्त और भरोसे के साथी, जैसे स्वर्ण सेठ, प्रोमिला कल्हण, आनंदलक्ष्मी, गिरधर गोपाल, सत्येन, मंजूर भाई, गौरी पन्त, रमा झा. ये सभी लोग उनके और मेरे जीवन में जीवन के ज़र, ज़र्दा, जेवर, ज़ाफ़रान थे. ऐसी ही दोस्तियों को कोई सबसे संजोकर रखता है उतार चढ़ाव के दौर में सबसे याद करता है, जो हमेशा ताज़ा रहती हैं, जिनको आप जब चाहें फिर से शुरू कर सकते हैं, जो दूरी और नजदीकी के उदहारण के रूप में होती हैं. कैलेण्डर में तारीख़ देखकर टैरेस और पोर्च में गमलों में चीड के पौधे लगाये जाते और उनको आइसक्यूब में डालकर लाया जाता था और छायादार जगह के हिसाब से उनको रखे जाने के स्थान बदले जाते रहते थे, ताकि चंगेजी गर्मी से उनको बचाया जा सके(जैसा कि जीजी कहती थीं); सूर्यास्त के बाद होने वाली बार बे क्यू पार्टियों के लिए जामा मस्जिद के इलाके से खानसामे बुलाये जाते, सुषम(मेरी माँ) से इस बात के लिए सम्पर्क किया जाता था कि टेबल पर क्या बिछाया जाए और मीठे में क्या बनवाया जाये- खुमानी का मीठा होना चाहिए या फिरनी या खीर या ज़ाफ़रान चावल; जब कोई जश्न का मौका आता था तब ओबेरॉय मैडंस में पूलसाइड बैठकर डैनिश पेस्ट्री और आइसक्रीम के साथ कोल्ड कॉफ़ी का भोज दिया जाता था, साथ ही चाय का पूरा बंदोबस्त, ट्रे में चाय साथ में चीनी के टुकड़े, टीकोजी और साथ में खाने के लिए चुनिन्दा- मार्बल केक, क्रैकर्स जो याद रह गया. हमारी प्लेट में मिठाई नहीं होती थी(जीजी को मिठाई कुछ ख़ास पसंद नहीं थी न ही आम). भारतीय क्रिकेट टीम से मिलने जाने के लिए मैडेंस होटल जाना, इण्डिया गेट और बुद्ध जयंती पार्क में पिकनिक मनाना, द साउंड ऑफ़ म्यूजिक और द गन्स ऑफ़ नवोरोन देखना, कनिष्का में कोना कॉफ़ी पीना, आईआईसी में बेक्ड अलास्का का आनंद उठाना, कोका कोला पीने की बारीकी को सीखना, पाकीज़ा देखने के बाद मगन होकर बड़ों द्वारा उसकी की जा रही समीक्षा को सुनना, पढ़ाई के साथ कटोरी में चाय पीना(यह मैंने कृष्णा सोबती से नहीं सीखा). हम असामान्य रूप से उमंग से भरे रहते थे, उसी तरह से जिस तरह से उन किताबों को होना चाहिए जो हम लिखते हैं,उनके अन्दर यह भावना हमेशा कायम रही.
और अब मिजाज- वह बनने-बिगड़ने वाला था, चिडचिडा और कई बार समझ में न आने वाला. इसी तरह जीजी का मूड भी विविधवर्णी था. विभाजन की धूल धूसरित चिंताओं को सहेजकर रखने के कारण वह असाधारण रूप से करुणा का बर्ताव करती थीं. वह एक चमत्कारिक लेखिका थीं- किनारों पर मुलायम जबकि लोहे की तरह अडिग रहने वाली. आवाभागत उदारता दिखाने का सबसे दुर्लभ और सबसे शुद्ध रूप है, इस मामले में वह अपने जैसी अकेली थीं, कई बार उनका हुक्म चलाने वाला व्यक्तित्व हावी हो जाता था, लेकिन उससे न तो किसी को घुटन महसूस होती थी. भतीजियाँ अपनी बुआओं से सीखती हैं, जो मैंने भी सीखी. उनकी आत्मा और उनका भाव योद्धा जैसा था, और मेरे जीवन में उनकी मौजूदगी हमेशा बनी रही. उनका अडिग आदर्शवाद, और बहुलतावादी विचारों के प्रति उनका रुख उनको प्रेरक बनाता था.
शरारती मुस्कान के साथ हिंदी के ह अक्षर से शुरू होने वाले चार अक्षरों वाले शब्द के साथ लम्बे और रंगीन वाक्य बोलने वाली जीजी मेरी बचपन की स्मृतियों में भरी हुई हैं- उनका नाटकीय व्यक्तित्व, उनकी चमकदार भेदने वाली निगाह, उनकी भव्य स्टाइल, जो भव्य होने के साथ, भरपूर था, एकाग्रता से भरपूर था, जिसमें विरक्ति की झलक भी थी और विस्मय का रस भी था, जिसमें यादों के पल आते रहते थे. अब यह सब बहुत पहले की बात लगती है. कनॉट प्लस के हवादार बरामदे से गुनगुनाते हुए (जिसका निर्माण इस मकसद से किया गया था कि ब्रिटिश राज की महानता का डंका बजाय जा सके) जीजी का विशाल व्यक्तित्व क्वींस वे पर इम्पेरियल होटल में घुसता, ताड़ के पेड़ों के भव्य बगीचे से होते हुए वह उस पोर्च तक जाती थीं जो लम्बे लम्बे गलियारों की तरफ जाती थी जहाँ कमरे और प्रांगण बने हुए थे. वह बहुत धीरे से बताती थीं कि यह उनका और जिन्ना का प्रिय होटल था. सबसे प्रसिद्ध रेस्तरां टैवर्न, दिल्ली का एक ऐतिहासिक रेस्तरां जहाँ लाइव बैंड भी था, हलकी रौशनी में बैंड बजता रहता था और शानदार सजावट के बीच बहुत अच्छा खाना और पीना. यहाँ लड़के-लड़कियां सुबह तक एक दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते-गाते रहते थे, जो उन दिनों बड़े साहस की बात मानी जाती थी. फिर लैबोहम और विन्गर्स था- जो जीजी की एक और पसंदीदा जगह थी- ये सब उनके शहर के सामाजिक जीवन का हिस्सा था, इसके अलावा सामाजिक मेलजोल घरेलू कामों से भी उनका वास्ता था. मानवीय सीमांतों का धूपछांही चित्रण इतने स्वाभाविक ढंग से किया गया है कि यह पुराने दौर की सुसज्जित गोधुली की तरह लगती है जहाँ बहुत आकर्षक बातचीत, उत्कृष्ट कविता तथा दिल को छूने वाला संगीत तथा ऐसी तहजीब जिसमें कहीं कोई जल्दबाजी नहीं रहती थी. वेन्गर्स का डाइनिंग हॉल पहली मंजिल पर था और वहां का बैंडमास्टर जीजी के आग्रह पर बड़ी उदारता से उनकी पसंद के सदाबहार गाने बजाता था- ‘माई शूज कीप वाकिंग बैक टू मी’ और ‘नाऊ और नेवर, कम होल्ड मी टाईट, फॉर टुमारो में बी टू लेट’, ये गीत इस कदर महसूस होने लायक हैं कि कोई यह कल्पना कर सकता है कि इन धुनों पर कृष्णा जी डांस कर रही हों, उन्होंने बॉलरूम डांसिंग एक स्विस महिला से सीखी थी जो शंकर मार्किट में सिखाती थीं, वह अक्सर मुझे बताती थीं. इसी तरह वह यह भी सुनाती थीं कि किस तरह उन्होंने युनेस्को के एक कोर्स में दाखिला लिया था जहाँ सार्वजनिक अभिभाषण और सम्प्रेषण सिखाया जाता था- ताकि वे बातचीत के दौरान किस तरह से कहाँ रुका जाये और कहाँ क्या कहा जाए, किस तरह से हावभाव व्यक्त किये जाएँ ताकि सहज बातचीत हो सके. जैसा कि वह मजाक में कहती थीं- ‘मेरे पास बस एक जोड़ी जूता है जो इतना सही है कि सही तरह से चलने में मेरी मदद करता है और सीधा तनकर खड़े रहने में.’ इसके अलावा मैं जीजी के साथ बड़े बड़े खम्भों वाले दुकानों के इलाके सिंधिया हाउस जाती थी, जहाँ ऊपर की मंजिल पर रहने के लिए घर बने हुए थे जबकि नीचे कूक एंड केविन, गिरधारीलाल एंड कांजीमल जैसे व्यापारियों की दुकानें थीं, जो पारिवारिक गहनों के विश्वसनीय नाम थे, होने वाली दुल्हनों के लिए बेहतरीन कपड़ों के लिए एक ऐसी दुकान थी हरनारायण गोपीनाथ, अचार और बोतलबन्दों का स्वाद हमें जिनकी दुकानों की तरफ खींच ले जाता था, ओरिएण्टल फ्रूट मार्ट में हम एवोकैडो, ऐस्परैगस और बुल्स आई खरीदने जाते थे, रीगल बिल्डिंग में वैश ब्रदर्स, तथा लोकनाथ टेलर्स, स्नोव्हाईट ड्राईक्लीनर्स, पंडित ब्रदर्स, गोदिंस ओर्गंस एंड पियानोज, फोटोग्राफर्स किन्सले ब्रदर्स, महत्ता, और बेहद ही प्रसिद्ध रंगून स्टूडियो, एम. आर. स्टोर्स, एम्पायर स्टोर्स, चाइनीज आर्ट पैलेस, गेलॉर्ड्स और क्वालिटी. जीजी की रोजमर्रा की जिंदगी और उसका नामा इसी सबके दरम्यान गुजरता था- जिसमें यादों की खुशबू रची बसी होती थी- मक्खन के टुकड़े की भीनी खुसबू लेते, ओवन से निकाले गए मफीन की खुशबू, गूंजते आलाप के बीच वह सामने के काउंटर से ब्राउन ब्रेड का एक टुकड़ा खरीद ले लेती थीं, फिरोजशाह रोड से टेलीग्राफ लेन के बीच तेजी से चलते हुए, किसी दोपहर उग्रसेन की बावली के दीदार के लिए चल दिए, ईस्टर्न कोर्ट जाकर एक टेलीग्राफ करना. जब सर्दियों का अँधेरा फैलेगा तब हम उनकी छोटी छोटी कद्रों को याद करेंगे- एक केक, एक हग, बातचीत करने के लिए बुलावा, और एक एक गुलाब. लाखों छोटी छोटी बातों को मिलाकर जीजी की दिल्ली की असाधारण सुन्दरता का रहस्यलोक खड़ा होता था. कृष्णा जी मेरे लिए ऐतिहासिक सवेरे की तरह थीं- वह कहानियों और किरदारों का छिपा हुआ खजाना थीं, ऐसे नाम जो सदियों में गूंजते महसूस होते थे. उनकी कहानियों में सोने की महीन रेखा जैसी रहती थी. जब वह मुझसे बात करती थीं और धीरे धीरे आने वाले सालों के दौरान मेरे लिए यह ऐसा हो गया था कि मैं उनका हाथ उठाकर उसको ज़री में बन दूँ जो अपने आप में इतिहास जैसा महसूस होता था. एक के बाद दूसरी घटना- जीजी को यह याद आती थी कि लोगों का हुजूम संसद की तरफ बढ़ा जा रहा था और वह आधी रात में आयोजित सत्र में आगंतुक दीर्घा में बैठी थीं, और नेहरु के ‘ट्रिस्ट ऑफ़ डेस्टिनी’ वाले भाषण को सुनकर वह कितनी भावुक हो गई थीं. उनको यह भी याद था उन्होंने नेहरु को राजकाज सँभालते हुए देखा था, 15 अगस्त को संसद भवन के बाहर गोल बारामदे पर दोनों सरकारों ने अपनी अपनी बैठने की जगह बदल ली थी. उन्होंने राष्ट्रपति भवन में आयोजित माउन्टबेटन के विदाई समारोह को भी देखा था. लार्ड माउंटबेटन ने गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण किया और उसके बाद एक बग्घी में बैठकर वहां से विदा हो गए. सीढियों पर खड़ी होकर कृष्णा जी ने बग्घी को टीले तक जाते हुए देखा और वहां बग्घी कुछ देर के लिए रुकी रही और वहां सिर्फ बग्घी दिखाई दे रही थी न कि घोड़े. सुनने में यह आया कि एक घोड़ा परेशानी खड़ी कर रहा था और उसको बदल दिया गया था. कृष्णाजी खुद घोड़े की सवारी में दक्ष थीं खुद इस बात को अच्छी तरह समझ नहीं पाई कि आखिरी वायसराय इस तरह से बिना किसी जश्न के एक जोड़े कम घोड़े के साथ विदा हुआ.
और उन्होंने इसका खूब आनंद उठाया. सनसनी और रोमांच उनके लिखे पन्नों से उभरता है- मित्रो मरजानी, जिंदगीनामा, दिल-ओ-दानिश और गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान तक, इन सभी किताबों के पन्नों में एक दुनिया की प्रदक्षिणा है. उनकी मेहनत और संयम ने उनके लेखन को बेहद उर्जपूर्ण बनाया और उनकी फड़कती हुई भाषा, उसका चहकता हुआ सोबतीपन. उनकी रचनाओं में साहस के साथ मूर्तिभंजन था जो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था, उनके सोच की विदग्धता और लहजा, सुक्तिपूर्ण और सूत्रात्मक लहजा उनके लेखन की ऐसी शक्ति है जिसकी प्रशंसा उनके दुश्मन भी करते हैं. उनकी कहानी ऐ लड़की- जो बार बार याद आने वाली कहानी है और फिर भी बहुत सुन्दर है- यह कहानी ऐसी है जैसे काँटों से शहद को चाटना. उनका दिमाग असाधारण रूप से शक्तिशाली था- वह सुकरात का दिमाग था- वह बहुत सूक्ष्म रूप से विश्लेषण करता था और इस हद तक फोटोग्राफिक था कि यकीन नहीं होता था. उन्होंने हर ऐसे लेखक को पढ़ रखा था जो पढने के लायक था- बुआ-भतीजी गुलाबी जाड़े में या ढलती शाम में खूब सारा खाने पीने का सामन लेकर बैठती थीं. उनको खाते हुए दिल्ली का आखिरी मुशायरा, आजादी की छाँव में, हेवेन उनके पसंदीदा थे, सिस्टरहुड शक्तिशाली है, कॉफ़ी, चाय और मैं, राइनर मारिया रिल्के, हम इनके बारे में बातें करते और अर्थ को समझने की कोशिश.
बुआ तो कोई भी हो सकती हैं- लेकिन कृष्णा सोबती कोई कोई होती हैं. समय ने हमें बहुत अच्छे तरीके से यह समझा दिया है कि असल में क्या मायने रखता है- जीजी मेरा हाथ तो कुछ पल के लिए थामती थीं लेकिन उन्होंने जीवन भर के लिए मेरा दिल थाम लिया. उन्होंने जो विरासत पीछे छोड़ी है मैं उसके ऊपर गर्व करती हूँ- वह मुझे बीबा बुलाती थीं और उनका मन्त्र आज भी गूंजता है- सोबती लड़कियां नेअमत होती हैं. वह अब मुझसे अपने शब्दों की उष्मा से बात करती हैं(ज़िन्दगी न औकात की, न कलम की, न लेखन की- जिन्दी बस खुद की खुद बदलती चली गई), अब वह मुझसे दिल की चुप्पियों में बात करती हैं, उनका गहरा प्यार जिसको कभी मापा नहीं जा सका, जिन्होंने ऐसी धडकनें दी जिनको सुना नहीं बल्कि महसूस किया जा सकता है. जीजी जैसी बुआ अपने जैसी ही होती हैं- जीवन के धागे की ज़रदोज़ी. उन्होंने दुनिया को अपने लेखन के माध्यम से दिया, अपनी कृतियों के माध्यम से उसके खोये हुए दिल का एक टुकड़ा. जैसा कि वह सदा कहती थीं कि किताबें पढने से दुनिया बदल जाती है- इसी तरह लेखन भी बदल देती है. यह जीवन को इस तरह से महसूस होता है जैसे सूरज की राहत भरी रौशनी में खड़े होना.
यह उन गुलाबों की खुशबू है जो समय के गलियारे से झोंके तरह महसूस हो रही है जो मुझे अतीत की सुखद यादों को याद करने जैसा है.
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