आज अनामिका अनु की कविताएँ। मूलतः मुज़फ़्फ़रपुर की अनामिका केरल में रहती हैं। अनुवाद करती हैं और कविताएँ लिखती हैं। उनकी कुछ चुनिंदा कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर
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१.मां अकेली रह गयी
खाली समय में बटन से खेलती है
वे बटन जो वह पुराने कपड़ों से
निकाल लेती थी कि शायद काम आ जाए बाद में
हर बटन को छूती,उसकी बनावट को महसूस करती
उससे जुड़े कपड़े और कपड़े से जुड़े लोग
उनसे लगाव और बिछड़ने को याद करती
हर रंग, हर आकार और बनावट के बटन
ये पुतली के छट्ठे जन्मदिन के गाउन वाला
लाल फ्राक पर ये मोतियों वाला सजावटी बटन
ये उनके रेशमी कुर्ते का बटन
ये बिट्टू के फुल पैंट का बटन
कभी अखबार पर सजाती
कभी हथेली पर रख खेलती
कौड़ी,झुटका खेलना याद आ जाता
नीम पेड़ के नीचे काली मां के मंदिर के पास
फिर याद आ गया उसे अपनी मां के ब्लाउज का बटन
वो हुक नहीं लगाती थी
कहती थी बूढ़ी आंखें बटन को टोह के लगा भी ले
पर हुक को फंदे में टोह कर फंसाना नहीं होता
बाबूजी के खादी कुर्ते का बटन?
होगी यहीं कहीं!
ढूंढती रही दिन भर
अपनों को याद करना भूल कर
दिन कटवा रहा है बटन
अकेलापन बांट रहा है बटन
२.मैं पूरा वृक्ष
मैं सिर्फ खोह नहीं पूरा वृक्ष हूं।
मैं सिर्फ योनि नहीं
जहां मेरी सारी इज्जत और पवित्रता को स्थापित कर रखा है
मैं पूरी शख़्सियत
मजबूत ,सबल,सफल
किसी ने चोट दिया तन हार गया होगा
मन कभी नहीं हारेगा
नेपथ्य से कहा था
अब सम्मुख आकर कहती हूं-
मैं हारूंगी नहीं
खोह में विषधर की घुसपैठ
मैं रोक नहीं पाती
पर इससे मेरी जड़े भी हिल नहीं पाती
मेरा बढ़ना ,फलना,फूलना इससे कम नहीं होता
मैं वृक्ष ही रहती हूं
कितने पत्ते टूटे
कितनी टहनियां आंधी उड़ा ले गयी
पर मैंने नये पत्ते गढ़े ,नयी टहनियां उपजाई
अपनी बीजों से नए वृक्ष बनाए
मैं सिर्फ खोह नहीं पूरा वृक्ष हूं।
मेरे खोह से बहते लाल रक्त को
अपावन मत कहना
इसमें सृजन की आश्वस्ति है
इसमें सततता का दंभ है
यह यूं ही लाल नहीं
इसमें जीवन का हुंकार है
प्राण उगाने की शक्ति है
ये सुंदरतम स्त्राव है मेरा
जीवन से भरा
इसमें सौंधी सुगंध मातृत्व की
श्रृंगार मेरा,पहचान मेरी
सबकुछ न भी हो पर बहुत कुछ है ये मेरा।
३. मैंने अब तक टूट कर प्यार किया नहीं
मैंने अब तक टूट कर प्यार किया नहीं
अब करूंगी छत्तीस में
ये इश़्क मौत तक चलेगा, पक्का है
प्रेमी मिलेगा ही, ये भी तय है
मैं सर्वस्व उसे समर्पित कर दूंगी, गारंटी है।
जब वह आलिंगन में लेगा
मैं पिघल कर उसमें समा जाऊंगी
इत्र बन कर उसके देह की खुशबू बन जाऊंगी
अपने रोम-रोम को उसकी कोशिका द्रव्य का अभिन्न हिस्सा बना दूंगी
वह वृक्ष तो मैं फंगस बन,उसकी जड़ों से जुड़ जाऊंगी
माइकोराइजा* सा उसे और भी हरा-भरा कर दूंगी।
तब कोई भी दूर से ही उसकी लहलहाती हंसी देख कर कह देगा
वह किसी के साथ है,साथ वाली खुशी छिपती नहीं
यह गर्भ की तरह बढ़ती है
और सृजन करती है, जन्म देती है जीवन को
मैं टूट कर प्यार करूंगी तुम्हारी आंखों में चमकती अमिट
तस्वीर बन जाऊंगी ताकि
कोई भी खोज ले भीड़ में तुमको, तेरी आंखों में मुझे देखकर
ये पहचान नई देकर मैं प्यार करूंगी
तेरे रूह के पाक मदीने में मैं कालीन सा बिछ जाऊंगी
इश़्क उस पर सिजदे ,आयतें और नमाज़ पढेगा
तुम अनसुना कर देना बाहर का हर कोलाहल
और भीतर से आती हर अज़ान पर गुम हो जाना मेरी याद में
मैं टूट कर प्यार करूंगी इस बार
पहली और अंतिम बार
तेरी उंगलियों के पोर-पोर को मैं कलम बनकर छुऊंगी
तुम मेरे कण-कण में भाव भर देना
फिर इस मिलन से जो रचना होगी,उसे तुम कविता कह देना
जिस पर वह लिखी जाए,उसे तुम कागज कह देना
इस बार टूट कर प्यार करूंगी
चिर चुम्बन तेरे लब के कोलाहल को दीर्घ चुप्पी में ढक देगा ,
तेरे सारे भाषण मेरे लबों की लाली बन घुल जाऐंगे
मैं ऑक्सीजन सा हाइड्रोजन में मिल जाऊंगी
फिर पानी बन कर बह जाऊंगी
कोई इसे तर्पण मत कहना
मैं! कब मेरा हाड़ मांस थी?
मैं अनामिका, अपरिचित, अनकही ,अनलिखी कविता थी
फिर कैसे मैं जल कर राख,गलकर मिट्टी,नुच कर आहार!
मैं स्वतंत्र और मौत के बाद शुरू होता है मेरा विहार
मौत मेरा अंतिम प्रेमी और मैं मौत की अनंत आवर्ती यात्रा का एक प्रेमपूर्ण विश्राम मात्र।
गंभीर श्वास, उन्मुक्त निश्वास
*माइकोराइजा-कवक और पेड़ के जड़ों के बीच एक सहजीविता का संबंध
४.तथाकथित प्रेम
अलाप्पुझा रेलवे स्टेशन पर,
ई एसआई अस्पताल के पीछे जो मंदिर हैं
वहां मिलते हैंl
फिर रेल पर चढ़कर दरवाजे पर खड़े होकर,
हाथों में हाथ डालकर बस एक बार जोर से हंसेंगे,
बस इतने से ही बहती हरियाली में बने ईंट और फूंस के घरों
से झांकती हर पत्थर आंखों में एक संशय दरक उठेगा,
डिब्बे में बैठे हर सीट पर लिपटी फटी आंखों में
मेरा सूना गला और तुम्हारी उम्र चोट करेगी
मेरा यौवन मेरे साधारण चेहरे पर भारी
तेरी उम्र तेरी छवि को लुढ़काकर भीड़ के दिमाग में
ढनमना उठेगी
चरित्र में दोष ढूंढते चश्मों में वल्व जल उठेंगे
हमारे आंखों की भगजोगनी भुक भुक
उनके आंखों के टार्च भक से
हम पलकें झुकाएंगे और भीड़ हमें दिन दहाड़े
या मध्यरात्रि में मौत की सेंक देगी
तथाकथित प्रेम ,मिट्टी से रिस-रिस कर
उस नदी में मिल जाएगा
जिसे लोग पेरियार कहते हैं।
५.लज्जा परंपरा है
मां टीका कितना सुंदर है
रख दें ठीक से!
मुझे दोगी?
नहीं?
क्यों?
भाई की पत्नी को दूंगी
क्यों?
तू पराया धन है
तुम्हें क्यों दूंगी?
बेटी के हाथ से लेकर
मां ने डिब्बे में रख दिया
बेटी ने उस दिन ही अपनी सब चाहे डिब्बे में रख दी
और परायेपन को नम आंखों से ढोती रही
उसकी चुप्पी को लज्जा और त्याग को
परंपरा कह दिया गया
6. कामरेड की पत्नी थी वह
वह कामरेड की पत्नी
घिसी चप्पल जुड़वाती
दौड़ कर बस पकड़ती
तांत,सूती से बाहर नहीं निकल पाती
केरल में रहकर भी सोना नहीं पहनती
रातों में भी, दो पैग के बाद ही वह आता
इश्क या जरूरत ,जो समझो
दिन में घुमक्कड़,रफूचक्कर
बच्चे हो गये दो चार
वक़्त मिलेगा कब है इंतजार
चाक श्यामपट्ट पर घिसी रही
घर के तानाशाह पर तंज कस रही
कभी उसका हाथ पकड़ कर
चलता नहीं सड़क पर
सब जानते हैं उसको
पर वह जानता नहीं हमसफ़र को
गर्भ में पले बच्चे
उम्र के इस पड़ाव पर घूरते हैं
अम्मा है या अच्चन!*
आंखों से टटोलते हैं
बुढ़ापे के इस पड़ाव पर
कामरेड बड़ा नेता हो गया
बच्चे मुकाम पर
वह विरान में वजूद तलाशती
खु़द से ही बाते करती,हंसती,बुदबुदाती
और सबको बतलाती रिक्त आंखों से कि
कामरेड की पत्नी का कोई साथी नहीं होता
*अम्मा-मां, अच्चन-पिता
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