वरिष्ठ लेखिका नूर ज़हीर के लेखन के बारे में कुछ लिखना कम ही होगा। हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में अपने उपन्यासों, कहानियों, संस्मरणों के कारण वे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी जाती हैं। यह उनकी नई कहानी है- मॉडरेटर
=====================
चिट्ठी हाथ में थी, माँ के हाथ का लिखी हुई, शक की कोई गुंजाईश न थी I माँ के अलावा आजकल कौन ख़त लिखता है और माँ कभी झूठ नहीं बोलती इतना उसे विश्वास था I झूठ बोलने की ज़रूरत भी क्या थी? एक पेड़ की ही तो बात थी I कोई सुनेगा तो उसकी बेचैनी पर हंसकर कहेगा, आप साहित्यिक लोग ही ऐसा कर सकते हैं की तथ्य और कल्पना को उलट पुलट दें I कल रात उसने मायन सभ्यता पर एक किताब का अनुवाद ख़त्म किया था I दक्षिण अमरीका के पहले निवासियों के रहस्यमय जीवन को जब भी वह समझने की कोशिश करती तो अचम्भा और दिलजस्पी दोनों ही बढ़ जाते, साथ ही गुस्सा और दुःख भी होता कि वह यह काम न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में कर रही है, उन गोरों के पैसे से जिन्होंने मायन जनजातियों को पहले हराया, फिर लूटा और फिर नेस्तनाबूद करके आज उनकी सभ्यता के आधे अधूरे अवशेषों पर करोड़ों डॉलर खर्च करके उनकी भाषा, संस्कृति और रीति रिवाज को समझने की कोशिश कर रहे हैं I
कल देर रात तक उसने एक बहुत ही रोचक अध्याय ख़त्म किया था —-मायन जनजातियों में रिवाज था की हर बच्चे के जन्म पर सौर पेड़ लगाकर उनकी देखभाल करते जबतक बच्चा खुद ऐसे करने के काबिल न हो जाए I फिर बच्चे का परिचय उन पेड़ों से करवाकर कुछ दिनों बच्चे को वहां अकेला छोड़ आते I जब इंसान और पेड़ एक दूसरे को ठीक से जान जाते तब उन सौ में एक पेड़ बच्चे से बात करता और उसकी बात सुनता! दोनों पर एक दूसरे की बात सुनना, समझना और मानना फ़र्ज़ हुआ करता थाI धीरे धीरे इंसान और पेड़ों में दूरी बढ़ी, पहले मर्दों ने पेड़ों की सलाह माननी छोड़ दी, फिर उनसे बात करने की ज़रूरत को नकार दिया और सबके बाद महिलाओं को अपने से अलग राय रखने पर पेड़ों को दोषी ठहराकर, औरतों के पेड़ों से मिलने जिलने पर रोक लगा दी I कुछ एक औरतें चोरी छुपे वनों में जाती रहीं, लेकिन उनके परिवार के कौन से पेड़ हैं यह परिचय करवाने वाले समय के साथ मर खप गए और एक नए गिरोह का जन्म हुआ; वे जो इस रिश्ते का मज़ाक़ उड़ाते थे; कुछ समय और बीता, रिश्ते पर हंसी ठिठोली चुटकुले बने, पेड़ों से सम्बन्ध को पागलपन कहा जाने लगा और रिश्ते निभाने वालियों को ‘चुड़ैल’ नाम दे दिया गया I
ऋचा ने भी तो मजाक उड़ाया था अपनी माँ का, जब पिछली बार वह झांसी उनसे मिलने गई थी I अस्सी साल की, कुछ सप्ताह पहले विधवा हुई, माँ ने दोनों भाइयों से अलग उससे फरमाइश की थी, “ऋचा, मुझे आम के पेड़ तले बैठावेगी? बड़े दिन हो गए हुआ न बैठी!” चली तो वह खुद भी जाती लेकिन पेड़ तले बना चबूतरा इतना नीचा था कि ऋचा का सहारा लेने की ज़रूरत पड़ी और वह हँसते हुए बोलीं, “ पहली बार सास ने ऐसे ही सहारा देकर बिठाया था इस पेड़ के नीचे, तब गहनों का भार नहीं उठता था, अब अपने शरीर का भार नहीं संभलता.” और फिर शुरू हुई थी उनकी जीवन कथा, जो टुकडो, हिस्सों में ऋचा पहले भी सुन चुकी थी I “तब नौ मील मतलब बहुत दूर होता था, न सड़क, न बस, झांसी से यहाँ पहुँचने में बैलगाड़ी से तीन घंटे लग गए थे I शाम हो गई थी, तेरी दादी ने जल्दी जल्दी खाना खिलाया और अपनी चारपाई के पास ही मेरा बिछौना कर दिया I अच्छी थीं मेरी सास, समझ रहीं थीं की मेरा शरीर बनारस से झांसी ट्रेन में और उसके आगे बैलगाड़ी में थक कर चूर हो गया है; विदाई का रोना पीटना, ब्याह का रतजगा जो था वह तो था ही I वैसे मेरा जी अन्दर से अकुला रहा था तेरे बाबू जी के पास जाने को; पता तो चले कैसे, क्या होता है?” ऋचा हंस दो थी, बुढापे में गाँव की औरतों का फक्कडपन, अश्लीलता की तरफ चल निकलता है I “थकन ज्यादा थी, तो मैं सो गई I सुबह सवेरा भी नहीं हुआ था कि ससुर जी ने आवाज़ लगाकर सास को जगाया और कहा, “बहू को जरा उठाकर आम के पेड़ के नीचे ले आ I” मैं आई तो मुझे बताने लगे, ‘यह पेड़ मैंने १५ साल पहले लगाया था जब रामपुर से इस गाँव पटवारी होकर आया थाI हर साल इसमें दो चार गुछे बौर तो आते हैं लेकिन फल एक नहीं लगता I तू इसकी एक परिक्रमा करदे, तेरा आँगन में पहला पग शुभ हुआ तो इस साल ज़रूर फल आएगा I’ सासू माँ ज़रा सा बिगड़ी, ‘बांज पेड़ तले बहू का पहला पग मतलब अपशकुन को न्योता!’ नई बहू मुझे तो वैसे भी सर झुककर रखना था, पेड़ की जड़ों को देखते हुए परिक्रमा की और इतना देख लिया कि पेड़ की जड़ों में दीमक का बास है I
राशन का ज़माना था, मुट्ठी भर चीनी पेड़ों की जड़ों में छिड़कने पर सास वह बिगड़ीं कि पूछो मत; लेकिन तीन दिन के अन्दर चीटियों ने पहले चीनी खाई फिर दीमकों को भी चट कर गईं I दो सप्ताह बाद देखा नई कोपलें फूट रहीं हैं I तेरे दादा जी को मच्छी बहुत पसंद थी, सप्ताह में एक दो दिन, खुद खरीदकर लाते, साफ़ करते और बनाते I मैं शलक, बलकल, अन्दर की पेटी, खाने के बाद बचे कांटे हड्डियाँ, सब जमा करती और पेड़ की जड़ों में दबा देती I पेड़ को घर के दूसरे लोग भी प्यार करते थे; फल न सही, चम्बल की तन जलाने वाली धूप से छाँव तो देता ही था I एक शाखा पर मोटी रस्सी का, नीचे तख्ता लगा झूला था I इसपर छोटी नंदे झूला करती थी और मैं भी काम काज से निबटकर इसपर बैठ हवा खा लेती I
एक दिन मैंने तेरे बाबूजी से फरमाइश की, “झूला उतारकर दूसरी शाखा से बाँध दो.”
“क्यों भला? यहाँ ठीक ही तो है I”
“लो, हम क्या एक हाथ में बोझ उठाये उठाये थक नहीं जाते? हाथ नहीं बदलना पड़ता?” वे हँसे तो मेरे ऊपर लेकिन पेड़ पर चढ़कर रस्सी खोली और दूसरी पर लंगर फेंकने ही वाले थे कि मेरी नज़र पहली वाली शाखा पर पड़ी, जो दो जगह से छिली, कटी फटी थी I “रुको रुको!” मैं अन्दर दौड़ी और एक पुरानी चुनर ले आई, “पहले यह तह करके रखो, इसके ऊपर रस्सी डालो, रस्सी की भी उमर बढ़ेगी और पेड़ भी घायल नहीं होगा I”
उस साल फागुन में बौर से लद गया पेड़! किसी को तब भी विशवास नहीं था कि बांज पेड़ फल देगा I लेकिन जब एक तोते के जोड़े ने इसपर घोंसला बनाया, तब मैं समझ गई फलेगा ज़रूर क्योंकि फल खाने वाले पक्षी इसपर आ रहे हैं I फ़ालतू बौर झड़े और नन्ही नहीं अम्बोरियां दिखने लगी तो सास ने अचार का मसाला तैयार करना शुरू किया I अच्छा ही किया क्योंकि उसी गर्मियों में तेरे बड़े भैय्या ने आने का इरादा किया I
मैं दोनों तरह से जीत गई I सास ने देखभाल के ख़याल से झूले पर बैठना बंद कर दिया, तब मैंने यह चबूतरा बनवाने को कहा I ससुर तो पेड़ लगा, चारों ओर गोल और पक्का बनवाना चाहते थे, मैंने कहा नहीं, चौकोर, पेड़ की जड़ों से थोडा हटकर और कच्चा होना चाहिए I दस पन्द्रह दिन में एक बार, मैं ही घर के बचे चिकनी मिटटी और गोबर से लीप देती I इस चबूतरे और पेड़ की ओट में, दूसरी तरफ, घरवालों की नज़र बचाकर तेरे बाबू जी और मेरी बातें होती I
जब चौथा महीना गुज़र गया, उल्टियाँ रुक गईं और मैंने आधे से ज्यादा अचार खा डाला, तब मेरा अलग अलग चीज़ें खाने को जी चाहने लगा I शर्म भी आती, संकोच भी होता, किस्से कहती? तो इस पेड़ से ही कह दिया और जी हल्का कर लिया I मुझे क्या पता था पेड़ उनसे कह देगा? ज़रूर कहा ही होगा, तभी तो अगली सुबह उन्होंने मुझसे पूछा, “सुन, तुझे कौनसी मिठाई पसंद है?”
“बालूशाही!” अब यह रोज़ स्कूल से लौटते हुए, दो बालूशाही लाते, वहीँ पेड़ की जड़ों के सहारे पत्ते का दोना टिका देते और मैं मौक़ा देख अंचल में छिपाकर खा लेती I एक महीने में ऐसा लगा की किसी ने बालूशाही का नाम भी लिया तो मुझसे पिटेगा I इसीसे कहा, “कोई मिठाई जितनी भी पसंद क्यों न हो, रोज़ रोज़ वही मिले तो जी ऊब जाता है; लाने वाले को कौन समझाए! वे बुरा भी तो मान सकते हैं I अगली शाम दोने में दो लाड्डो रखे थे I गाँव है यह, उस समय बस बालूशाही, लड्डू और जलेबी ही मिलती थी I
इसी की छाँव में, झूले पर तेरे दोनों भाइयों को और फिर तुझे डालकर मैं घर का सारा काम निबटा लेती थी I लोग कहते हैं आम का पेड़ एक साल फलता है, एक साल सुस्ताता है; लेकिन यह कभी नहीं सुस्ताया, एक बार फलना शुरू हुआ तो बीते सालों की भी कसार पूरी कर दी I
सास ससुर की अर्थी भी इसी के नीचे रखी गई और यहीं से उनकी अंतिम यात्रा शुरू हुई I तेरे भाइयों को तो आगे पढना था ही, यहाँ गाँव में कहाँ टिकते, लेकिन जब तूने भी ग्वालियर जाने की ठानी तो तेरे बाबू जी बहुत चिंतित हुए और एक पूरी रात इस पेड़ तले बैठे सोचते रहे I पेड़ ने न जाने क्या सलाह दी कि सुबह उठे और नौ साल पहले तय किया हुआ तेरा समबंध यह कहकर तोड़ आये, ‘आगे बढ़ते हुए पैरों में बेड़ियाँ क्यों रहे?’ बदनामी सह ली, गालियाँ सुन ली, और तुझे ग्वालियर भेज दिया; वहां से तू दिल्ली चली गई फिर विदेश! तेरी शादी की चिंता मैंने कितनी बार इस पेड़ से कही; कभी ढारस बंधाता, कभी दिलासा देता; एक दिन बोला, ‘ऋचा खुश है, तुम क्यों उसकी ख़ुशी में खुश नहीं हो? क्यों अपनी ख़ुशी उसके ऊपर थोपना चाहती हो?”
इस साल फागुन में इसमें बौर नहीं आया I हमने सोचा ज़रा सुस्ता रहा है I कुछ महीने पहले तेरे बाबू जी के साथ के मास्टर जी ने आकर बताया, पेड़ मर रहा है I तेरे बाबू जी बीमार चल रहे थे, कमज़ोर बहुत हो गए थे, फिर भी किसी तरह उठकर आँगन में आये I दूर से ही पेड़ को देखकर बोले, “हाँ, आम का पेड़ ऐसे ही मरता है, नीचे से हरा रहता है, ऊपर से सूखना शुरू होता!’ यह देखकर ही जैसे उनके अन्दर कुछ टूट गया, बस जीने से जैसे मन भर गया उनका! तीन महीने के अन्दर ही चल दिए I अब तो ऊपर की आधे से ज्यादा टहनियां सूख गई हैं I”
इतना कहकर माँ कुछ देर चुप रही और अपनी छड़ी से ज़मीन पर कुछ लकीरें बनातीं रहीं; फिर अचानक ऋचा से कम ख़ुद से ज्यादा बोलीं, “कोशिश तो करनी चाहिए; अंत तक कोशिश करते रहना यही इंसान का फ़र्ज़ है I सुन ऋचा मुझे सहारा देकर चबूतरे पर खड़ा कर देगी?”
“माँ इतनी मुश्किल से तो तुम्हे यहाँ लाकर बिठाया है, उठोगी भी सहारे से, चबूतरे पर कैसे चढोगी?” ऋचा ने समझाते हुए कहा I
“अरे चढ़ जाउंगी, तू पास आ जा, तेरा कन्धा पकड़कर—-“
“माँ तुम अस्सी पार कर चुकी हो, तो मैं भी साठ छू रही हूँ, अगर डगमगा गई और तुम गिर पड़ीं तो?”
“अच्छा जा, रसोई से पटरा ले आ, उसपर एक ईंट रख दे, बस बन गया जीना, तब तेरे कंधे पर बोझ नहीं पड़ेगा!”
“माँ, ज़रूरत क्या है यह सब सर्कस करने की!” ऋचा की आवाज़ में डर और खीज दोनों थी I
“मुझे उससे बात करनी है ना”
“किससे?”
“तू जबसे विदेशी हुई है, हिंदी में हो रही बात को कान ही नहीं देती I इतनी देर से किसकी बात कर रहीं हूँ मैं? मुझे आम के पेड़ से बात करनी है I जनम भर के साथी से इतनी दूर से कैसे बात करूँ—जा जा पटरा ला, मैं ईंट उठा लाती हूँ”
जिद करके माँ चबूतरे पर चढ़ीं थीं और जहाँ से मोटा ताना तीन शाखाओं में बंट रहा था वहां बड़े प्रेम से हाथ रखकर बोलीं, “समझतीं हूँ कि तुम बुढ़ा गए हो; यह भी जानती हूँ कि तुम अकेले हो गए हो; क्या करूँ, बच्चों ने एक एक करके अपना जीवन चुन लिया, दो साल यह इतना बीमार रहे, इनकी सेवा टहल में तुमसे मिलने आना नहीं हुआ I इनके जाने के बाद आना चाहिए था मुझे पर सच बताऊँ तुम्हारी छाँव में, तुम्हे देखकर ही इनकी बहुत याद आती है मुझे, इसीलिए दूर रही I लेकिन यह मेरी भूल थी, तुम्हारा गुस्सा ठीक ही है, जो चला गया उसके लिए जो है उसकी अवहेलना थोड़ी करनी चाहिए I मैं वादा करतीं हूँ, रोज़ आऊँगी तुम्हारे पास; और तुम भी जिस पथ पर चल दिए हो उससे पलट आओ I मैं भी कितने दिन और हूँ? जब तक हूँ मेरा साथ निभा दो; कोई तो मेरे लिए रुक जाए; कोई तो मेरा ख्याल करे I”
माँ जहाँ तक हाथ पहुँच रहा था, तने और शाखाओं को धीरे धीरे सहला रही थीं और पास खड़ी ऋचा, मुहं पर साड़ी का पल्लू रखे अपनी हंसी रोकने की कोशिश कर रही थी I
तीन दिन बाद वह न्यूयॉर्क लौट आई थी और आज पांच महीने बाद माँ की यह चिट्ठी आई है, “आम के पेड़ में भरपूर बौर आया है, दो जोड़ी तोते भी आ गए हैं और एक कोयल भी आसपास मंडरा रही है I अभी उसका कंठ सधा नहीं है; आजमाने के लिए बीच बीच में बोलती है जो कूकने से ज्यादा चूकने सा लगता है I आम जून तक पकेंगे! बहुत सारा प्यार, माँ !
The post नूर ज़हीर की कहानी ‘अब भी कभी कभार’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..