वरिष्ठ लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने मेरी किताब ‘पालतू बोहेमियन’ पढ़कर मुझे एक पत्र लिखा है। यह मेरे लिए गर्व की बात है और इस किताब की क़िस्मत भी कि पाठक जी ने ने केवल पढ़ने का समय निकाला बल्कि पढ़ने के बाद अपनी बहुमूल्य राय भी ज़ाहिर की। आप भी पढ़िए-प्रभात रंजन
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जनाब प्रभात रंजन जी,
आप की ताजातरीन किताब ‘पालतू बोहेमियन’ दिल-ओ-जान से पढ़ी, फ़ौरन से पेशतर पढ़ी और उसकी बाबत अपनी हकीर राय इन अल्फ़ाज़ में दर्ज करने की गुस्ताखी की:
आप कमाल के आदमी हैं। ‘ पालतू बोहेमियन’ से जोशी जी के बारे में तो जो जाना सो जाना, आप के बारे में और भी ज़्यादा जाना।ख़ास तौर से ये कि आप ने – रिपीट, आपने – कभी जासूसी उपन्यास लिखने का भी मन बनाया था, वो भी सलीम-जावेद की तरह किसी दूसरे लेखक की जुगलबंदी में, वो भी एक अनपढ़, नालायक पब्लिशर के इदारे से। सोचता हूँ जोशी जी का कृपापत्र होशियार, ख़बरदार आलम फ़ाज़िल नौजवान वेद प्रकाश शर्मा की परछाईं बनता कैसा लगता!
आप का अन्दाज़-ए-बयाँ बिलाशक बहुत बढ़िया और पढ़ने के लिए मजबूर करने वाला है। इतवार शाम को भोजनोपरान्त पुस्तक को हाथ आते ही पढ़ना शुरू किया, रात को सोने की मजबूरी के तहत सुबह उठते ही फिर पढ़ना शुरू किया और आख़िरी पेज तक पढ़ कर छोड़ा। ऐसी पठनीयता हाल में पढ़ी किसी पुस्तक में न दिखाई दी।
पुस्तक में भूपेन्द्र कुमार स्नेही, ब्रजेश्वर मदान का ज़िक्र अच्छा लगा क्यों कि लेट सिक्स्टीज़ में वो (जमा, बाल स्वरूप राही, शेर जंग गर्ग) हिंदुस्तान टाइम्ज़ में जोशी जी के दरबारी थे और इन चार महानुभावों के चीफ़ चमचे की हैसियत में गाहे बगाहे जोशी जी से साक्षात्कार का सौभाग्य yours truly को भी प्राप्त हो जाता था।
बहरहाल बढ़िया किताब लिखी जिस के लेखक की शान में क़सीदा पढ़ने के अंदाज से अर्ज़ है:
तेरे जौहर की तारीफ़ ज़ुबाँ से करूँ कैसे बयाँ,
ये तो होगा देना गुलाब को ख़ुशबू का धुआँ।
जो बातें अखरीं, वो हैं:
जोशी जी पर पुस्तक में जोशी जी से ज़्यादा ज़िक्र आप का था। अगर फ़ोकस जोशी जी पर रखना अनिवार्य न होता तो पुस्तक का नाम ‘दो बोहेमियन’ भी हो सकता था।
कई जगह दोहराव ने जोल्ट दिया। कई पूर्वस्थापित बातों का ज़िक्र फिर आया।
109 पेज की टेक्स्ट की 17 पेज की प्रस्तावना से लगता था कि अगर प्रस्तावना लेखक के अतिउत्साह पर अंकुश न होता तो विस्तार में प्रस्तावना भी मूल पाठ को कंपीटीशन दे रही होती। प्रस्तावना में जोशी जी का दर्जा पान में लौंग का था, अलमोड़ा पान का दर्जा पाने से बाल बाल बचा।
वैसे भी मेरी निगाह में प्रस्तावना की यही हैसियत होती है कि आम खाना है तो गुठली झेलनी पड़ेगी।
नेक खवाहिशात के साथ,
सुरेन्द्र मोहन पाठक
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