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वसन्त में वसंत की याद

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वसंत आया तो अपने ही एक पुराने लेख की याद आ गई- प्रभात रंजन

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‘यह कैसा युवा लेखन है जी? कोनो वसंत पर लिखता ही नहीं है!’ सीतामढ़ी के सनातन धर्म पुस्तकालय के पुराने मेंबर सुशील बाबू ने जब फोन पर पूछा तो अचानक कोई जवाब ही नहीं सूझा. वसंत आ गया है. सुबह से ही चिड़ियों की चहचहाहट और मौसम में हलकी गर्मी की चुनचुनाहट बढ़ गई है. लेकिन सच में हिंदी के समकालीन कविता में अब वसंत उस तरह से नहीं आता है जिस तरह से आता रहा है. कविता इसलिए क्योंकि कविता को साहित्यिक अभिव्यक्ति का सर्वोच्च रूप कहा जाता है. बोले तो ह्रदय के सबसे करीब मानी जाने वाली. यह अपने आप में इस बात का उदाहरण है कि समकालीन जीवन प्रकृति से इतना दूर होता जा रहा है कि उसमें मौसमों का आना-जाना अभिव्यक्त ही नहीं हो पाता. आखिर क्या कारण है कि ‘हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ’ जैसी कविता पढ़कर बड़ी हुई पीढ़ी अपनी कविताओं में वसंत का आना जाना नहीं लिखती है.

सुशील बाबू की बातों में कुछ तो दम इसलिए भी दिखता है क्योंकि इस समय हिंदी में युवा लेखन प्रधान स्वर है. वसंत को यौवन का माह कहा जाता है. कविता याद आती है- अभी न होगा मेरा अंत/ अभी अभी ही तो आया है मेरे जीवन में वसंत. एक दौर तक हिंदी के सभी कवियों के लिए यह निकष की तरह था कि किसने वसंत पर कविता लिखी. वसंत एक ऐसा मौसम है जिसने हिंदी में सभी विचारधारा के कवियों को एक कर दिया. कहते हैं मौसम तो कई हैं लेकिन मन का मौसम यही होता है. फूलों के खिलने, नई कोंपलों के फूटने, सर्दी के बीत जाने के इस मौसम को अब क्या कोई इस तरह से याद करता है जैसे कवि केदारनाथ सिंह ने याद किया था- प्राण आ गए दिन दर्दीले/ बीत गई रातें ठिठुरन की. अब वसंत नहीं वसंत पर लिखी कविताओं की याद अधिक दिखती है. सोशल मीडिया के इस दौर में वसंत पर लिखी कविताओं की लोकप्रियता दिखाई देती है. लेखक-पाठक अपनी अपनी पसंद की कविताओं को फेसबुक, ट्विटर पर शेयर करते हैं, यूट्यूब पर वीडियो बनाते हैं. लेकिन यह सच्चाई है कि वसन्त इस महानगरीय जीवन में जीवन से दूर होता जा रहा है. शायद इसीलिए वसंत में वसंत के होने की अनुभूति ही शायद नहीं होती है. रघुवीर सहाय की कविता-पंक्ति बेसाख्ता याद आती है- ‘और मन में कुछ टूटता-सा/ अनुभव से जानता हूँ कि यह वसंत है.’

मुझे याद आता है कि उर्दू की मशहूर लेखिका कुर्रतुल ऐन हैदर के ‘आग का दरिया’ जैसे क्लासिक उपन्यास लिखने के पीछे की प्रेरणा वसंत ही थी. पाकिस्तान से आई उनकी एक रिश्तेदार बच्ची ने जब उनसे पूछा कि वसन्त क्या होता है? तो इस बात ने उनको इस कदर सोचने पर मजबूर कर दिया कि ‘आग का दरिया’ जैसा साभ्यतिक उपन्यास लिखा गया, जिसमें भारत के होने न होने की कहानी कही गई है.

असल में समकालीन जीवन बचपन से ही आज बच्चों को मौसमों की इस फीलिंग से दूर कर रहा है. जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो हमें निबंध लिखने के लिए दिया जाता था- ऋतुओं में ऋतु वसंत! हम अच्छे से अच्छा निबंध लिखने के लिए खूब पढ़ते थे, अपनी कल्पनाशीलता पर जोर डालते थे, उन दिनों हमने विद्यापति की कविता पढ़ी थी- आयल ऋतुपति राज वसंत! अब ‘गूगल एज’ में न वह कल्पना बची न वह वसंत. प्रकृति से दूर बसते जा रहे कंक्रीट के जंगलों में अब यह अहसास कहाँ हो पाता है यही वह मौसम होता है जब धरती सबसे रंगीन, सबसे सुन्दर हो जाती है. पुराने का त्याग कर फिर से नई नवेली हो जाती है.

जब मन में ही वह भाव नहीं बचा तो कविता में कहाँ से वसंत आएगा- सुशील बाबू की बात का कोई ठोस जवाब नहीं सूझ रहा है!

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