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अनुकृति उपाध्याय लिखित वन-यात्रा वृत्तान्त ‘ताडोबा-अंधारी के वन’

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युवा लेखिका अनुकृति उपाध्याय का कथा-संग्रह हाल में आया है ‘जापानी सराय‘, जिसकी कहानियां हिंदी की मूल प्रकृति से बहुत भिन्न किस्म की हैं. पशु-पक्षियों के प्रति करुणासिक्त कहानियां भी हैं इसमें. यह शायद कम लोग जानते हैं कि अनुकृति वाइल्ड लाइफ के क्षेत्र में काम करती हैं. उनकी हाल की एक वन यात्रा का यह गद्य-विवरण प्रस्तुत है- मॉडरेटर

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ताडोबा के बाँस-वनों में हवा सो रही है। टीक, महुआ, तेंदू, इमली, बेहड़, सेमल वृक्षों के कंधों पर टिका आकाश क्षण क्षण उजला रहा है, श्याम से नील पड़ रहा है। उसके मरकत पर रक्त-चंदन और गोरोचन लिप गए हैं। लम्बी सूखी घास ताम्बई कौंध रही है। ताडोबा लेक के जेड-वर्णी जल में उजाले के डले घुल रहे हैं। मोहर्ली और ज़री और नवेगाँव और कोलरा के प्रवेश  द्वारों पर की हलचल के बाद यहाँ जंगल के भीतर निविड़ शांति है। जल-घास की सरसराहट और पंछियों के परों की फड़कन तक सुनाई देती है। ठूँठ पर पंख फुलाए, गर्दन टेढ़ी किए बैठा सर्पेंट ईगल सहसा ऊँचे फ़ॉल्सेटो सुर में गा उठता है। अधसोए वन- पर्यटक आँखों से भोर-पूर्व की जगार का अवसाद झाड़ कर चेतते हैं। दूरबीनें और गाइड की दूरबीन से भी बेहतर आँखें घास-मैदान, बाँस के खोंपों और वृक्षों के झुरमुटों पर सध गई हैं। तालाब के जल-भींजे तट पर धनुषाकार पीठ झुकाए काले आईबिस और लंब-चोंचे इंडीयन स्पूनबिल तनिक थमक कर फिर चरने लगे हैं। बत्तख़ों के दल दर्पण से शांत जल पर निर्द्व्न्द्व तिरते रहते हैं किंतु और बगले निश्चल खड़े रहते हैं। ताल के उस पार लहरती घास पर हिरनों के दल छपे हैं। उनके बीच एक वराह धरती खूँद रहा है। गहरी सलेटी पीठ पर कड़े बालों की पाँत, थूथन के अगल बग़ल निकले हँसिए से दाँत, नाटी कड़ियल टाँगें।

कल निकट के गाँव में किसान ने कहा था –

वाघ या बिबट्या का इतना भय नहीं जितना डुक्कर का।

व्याघ्र और तेंदुए से अधिक जंगली सुअर का डर?

हाँ, फ़सल उजाड़ देते हैं, दाँत से फफेड़ कर मार डालते हैं रानडुक्कर।

रात भर जागता है कृषक और आधी घड़ी की नींद का मूल्य महीनों की मेहनत। पूस की रात अस्सी-पिच्चासी सालों में बीती नहीं है।

अचानक झाड़ियों से चीतल आर्त स्वर में पुकारता है, जैसे मोरचंग  का टंकार।  लंगूरों का दल डालियाँ झकझोरता फुनगियों पर टँक गया है। हिरन कनौतियाँ चढ़ाए स्तब्ध हैं। रोमांच से शरीर कँटीले हो रहे हैं, चेहरों पर उदग्रता उगी है। कॉल चल रहा है! टाइगर! यहीं कहीं आस-पास! सरग़ोश स्वरों में बतकही। गाइड और प्रकृतिविद हाथों और आँखों से इंगित कर रहे हैं।

पिछले हफ़्ते वाघ गायी ले गया था, किसान ने कहा था। सरकार का मुआवज़ा आएगा तब दूसरी ख़रीदी जाएगी।

बाघ अक़्सर गाएँ ले जाता है?

जंगली जीव है, शिकारी है, ले जाता है।

तुम्हें ग़ुस्सा नहीं आता वाघ पर?

क्रोध? किसलिए? भूखा था, ले गया। सरकार पैसे दे देती है। ताडोबा जैसे हमारे रक्षक, वैसे वाघ के।

जंगल के बेटे हैं किसान और बाघ। हम सुख-सुविधा-अभ्यस्त नागर नहीं, रूखी सूखी धरती कुरेद कर बमुश्क़िल खाने लायक़ अन्न उगा पाने वाला किसान बाघ का संरक्षक है। उसकी सहिष्णुता के चलते ताडोबा के सुरक्षित वन-संकुल में सड़सठ बाघ हैं और वन के बाहर बफ़र ज़ोन के छितरे जंगलों, खेतों और चरागाहों में चवालीस। आए दिन तेंदुए और चीते पशु उठा ले जाते हैं और वह संतोष कर लेता है कि भूखा जीव ले गया। जंगलों की तराश जैसे गाँव-घर, हार-खेत, झाड़-बनी पर मनुष्य और जानवरों दोनों का अधिकार है। किसे बेदख़ल किया जाए?

आह्ह! एक समवेत साँस गूँजती है। एक साथ कई नथुने फ़ॉल्ट्स हैं, कई छातियाँ फूलती हैं। बाघ! वाघ! टाइगर! लुक, देयर! लम्बी घास में पहले एक जोड़ा पीली-भूरी अवर्णननीय आँखें, फिर निःशब्द गुर्राहट में खिंचा, नुकीले दाँत झलकाता भीषण मुँह और आख़िर में बलखाती धारियों वाला शक्ति-पुंज सा शरीर, मानो हमारे देखने से ही, हमारी आँखों के सामने ही बनता, हमारी मूर्तिमान भयंकर-मनोहर कल्पना। टाइगर!

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