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‘रंगभूमि’का रंग और उसकी भूमि

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प्रेमचंद का साहित्य जब से कॉपीराईट मुक्त हुआ है तब से उनकी कहानियों-उपन्यासों के इतने प्रकाशनों से इतने आकार-प्रकार के संस्करण छपे हैं कि कौन सा पाठ सही है कौन सा गलत इसको तय कर पाना मुश्किल हो गया है. बहरहाल, मुझे उनका सबसे प्रासंगिक उपन्यास ‘रंगभूमि’ लगता है. इतना बड़ा विजन हिंदी के बहुत कम उपन्यासों का है. सच्चे अर्थों में यह राष्ट्रीय उपन्यास है. इस उपन्यास पर मैंने किसी प्रसंग में कुछ लिखा है. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन

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प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन 1925 में हुआ था। इससे पहले देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1920 ईस्वी में शुरू हुए असहयोग आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रव्यापी पड़ा था। समाज बड़े पैमाने पर जाग्रत हो गया था और भारतीय समाज की अलग-अलग धाराओं, विचारों, धर्मों, जातियों का द्वंद्व अपने चरम पर था। सबसे बढ़कर एक उत्साही युवा वर्ग देश को विदेशी शासन से मुक्त करवाने के लिए उत्साह के साथ सकारात्मक हो गया था। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के पाठ को समझने के लिए भारत की इस तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना जरूरी है। यह उपन्यास महज अपने कैनवस, विजन में ही बड़ा नहीं है बल्कि यह प्रेमचंद का सबसे अधिक पृष्ठों का उपन्यास है।

उपन्यास की शुरुआत में पाठकों का परिचय बनारस के एक बाहरी मोहल्ले पांडेपुर के सूरदास से होता है। वह अँधा है और भीख मांगकर अपना जीवन यापन करता है। इसी भीख मांगने के दौरान उसका सामना एक ऐंग्लो-इन्डियन जॉन सेवक और उसके परिवार से होता है।  जॉन सेवक एक व्यापारी है और पहली ही मुलाक़ात में अंधे भिखारी को भीख देने का झांसा देकर एक किलोमीटर दौड़ा देता है और उसके बाद भी भीख नहीं देता। पता चलता है कि जॉन सेवक पांडेपुर ही जा रहा था। वहां उसने खाली जमीन देख रखी थी। उस जमीन पर वह सिगरेट का कारखाना खोलना चाहता था। पता चलता है दस बीघे की जमीन का वह टुकड़ा सूरदास का है तो व्यापारी जॉन सेवक उसे जमीन बेचने के लिए कहता है, मुंहमांगे दाम का प्रलोभन देता है। कहता है यहाँ कारखाना खोलूँगा, उस कारखाने में हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा।  लेकिन सूरदास साफ़ मना कर देता है। बहुत जोर देने पर वह कहता है कि वह अपने मुहल्लेवालों यानी अपने समाज से पूछे बिना कोई फैसला नहीं लेगा।

उपन्यास की कथा के केंद्र में यही टकराव है। जॉन सेवक ने अपने बेटे प्रभु सेवक को अमेरिका सिगरेट के कारखाने के प्रशिक्षण के लिए भेजा।  वह हर हाल में कारखाना लगाना चाहता है। शहर के रईसों के शेयर उसने ले रखे हैं। अपने और उन सबके मुनाफे के लिए हर हाल में कारखाना लगाना उसका परम ध्येय है। दूसरी तरफ उस जमीन का मालिक सूरदास है जो हर काम के औचित्य को धर्म-अधर्म के आधार पर तौलता है।  उसके लिए धर्म है उस जमीन को बचाना और अधर्म है कारखाने का लगना, जो समाज के ऊपर बुरा प्रभाव डालने वाला है।

जमीन भले सूरदास की है लेकिन मोहल्ले वाले अपनी अपनी सुविधाओं के लिए उसका उपयोग करते हैं।  उसके मोहल्ले में जगधर है जो खोंचा लगाता है, दूध बेचने वाला बजरंगी, ताड़ी बेचने वाला भैरों, मंदिर का  पुजारी दयागिरी, पान बेचने वाला ठाकुरदीन है, और मुखिया नायकराम है। सबकी जातियां अलग हैं, पेशे अलग हैं लेकिन रात में सोने से पहले सभी मिलकर ठाकुर के मंदिर के बाहर कीर्तन करते हैं। सब लड़ते-झगड़ते साथ रहते हैं और मिलकर अपने अपने हित में सूरदास की जमीन का उपयोग करते है।

पांडेपुर के उस मंदिर की मासिक वृत्ति कुँवर भरत सिंह के दरबार से आती है। उनका बेटा विनय सिंह है जो समाज सेवा के लिए मंडली चलाता है। उसकी मंडली के लोग देश में कहीं आपदा आने पर मदद के लिए जाते हैं। उनकी बेटी इंदु है। जिसने स्कूल की पढ़ाई नैनीताल से की थी। स्कूल में उसकी सहपाठिनी जॉन सेवक की बेटी मिस सोफिया थी। इंदु का विवाह चतारी के राजा महेंद्र कुमार सिंह से हुआ था जो बनारस की म्युनिसिपैल्टी के प्रधान थे। महेंद्र कुमार सिंह विचारों से साम्यवादी थे लेकिन जनवाद के नाम पर समाज में अशांति फैले इसके पक्ष में भी नहीं थे। इन सबके सूत्र आपस में जुड़े हुए हैं और उपन्यास के घटनाक्रम के केंद्र में मूल रूप से यही किरदार हैं। इनके आपसी हित-अहित हैं, द्वंद्व हैं और सबके सूत्र कहीं न कहीं पांडेपुर से जुड़ते हैं।  इनमें एक किरदार ताहिर अली भी है, जो जॉन सेवक का गुमाश्ता है।

पांडेपुर उपन्यास में भारत देश के रूपक की तरह लगने लगता है, जिसे एक ईसाई जॉन सेवक के इशारे में शहर के प्रभावशाली वर्ग अपने कब्जे में लेना चाहता है, दूसरी पांडेपुर के गरीब हैं जो सूरदास के साथ हैं ताकि वह सामूहिक उपयोग वाली जमीन बची रहे। अंग्रेजों और उनका साथ देने वाले देशी रजवाड़ों के शासन से त्रस्त लोग और पढ़ा-लिखा नौजवान शहरी तबका सूरदास के इस संघर्ष के साथ खड़ा हो जाता है।  जमीन को बचाने की लड़ाई देश को बचाने की लड़ाई लगने लगती है।

लेकिन प्रेमचंद के उपन्यासों को महाकाव्यात्मक उपन्यास कहा जाता है अर्थात ऐसे उपन्यास जिसमें जीवन और समाज को उसकी सम्पूर्णता में दिखाया जाता है। इसलिए उपन्यास का एकमात्र द्वंद्व देशी बनाम विदेशी का नहीं है। तत्कालीन समाज में द्वंद्व के अनेक कारण थे और उपन्यास में भी।

जॉन सेवक के घर में धर्म का द्वंद्व है। जॉन सेवक के पिता ईश्वर सेवक बहुत धर्मपरायण हैं, रोज बाइबल का पाठ सुनते हैं। जॉन सेवक पक्के व्यापारी हैं और वे बदलते समय को पहचानना खूब जानते हैं, और उसका लाभ उठाना भी। जॉन सेवक की पत्नी मिसेज सेवक भी पक्की ईसाई हैं और भारतीय लोगों से नफरत करती हैं। उनका बेटा प्रभु सेवक अन्दर से उतना धार्मिक नहीं है लेकिन अपनी धार्मिक भावनाओं को वह अंदर ही अन्दर छिपा कर रखता है। इसके विपरीत उसकी बहन बाइबिल के कथनों पर आँख मूंदकर विश्वास नहीं रखती। वह उनको तर्क के तराजू पर तोलती रहती है। वह अपनी धार्मिक स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहती है। इसी बात से उसकी अपनी माँ से नहीं बनती है।

ऐसे में एक दिन वह अपने घर से निकल जाती है और कुँवर भरत सिंह की हवेली पहुँच जाती है। जहाँ वह राजा साहब के बेटे विनय सिंह को आग में फंसने से बचाते हुए घायल हो जाती है। जब होश में आती है तो पाती है कि वह अपनी सहेली इंदु के घर में है। विनय सिंह इंदु का भाई होता है। इस घटना के बाद वह उसी घर में रहने लगती है और इंदु की माँ ज्योत्स्ना उसको अपनी बेटी की तरह मानने लगती हैं।

जब सेवक परिवार को पता चलता है कि उनकी बेटी कुँवर भरत सिंह के घर में है तो वे उसको लाने जाते हैं। लेकिन इंदु की माँ के इसरार पर उसे वहीं छोड़ देते हैं। जॉन सेवक को इस सम्बन्ध में भी फायदा दिखाई देता है। वह पहले मुनाफे का लालच देकर कुँवर साहब को अपनी कम्पनी का शेयर बेच देता है। चेतारी के राज महेंद्र कुमार सिंह मुनिसिपैल्टी के प्रधान हैं और कुँवर साहब के दामाद हैं। वह उनकी मदद से पांडेपुर की जमीन हासिल करने की कोशिश करता है।  पारिवारिक संबंधों को देखते हुए राजा साहब तैयार हो जाते हैं।

वे सूरदास से स्वयं बात करने जाते हैं। सूरदास को हर तरह से समझाते हैं। वह कहता है कि इस जमीन पर पशु चरते हैं, धार्मिक अवसरों पर तीर्थ यात्री ठहरते हैं। कारखाना खुल जाने से ये सारे सामाजिक कार्य बंद हो जायेंगे। इस पर राजा साहब कहते हैं कि तुम दस में से नौ बीघे जमीन कारखाने के लिए दे दो और एक बीघे जमीन से धर्म-कर्म का काम करो। लेकिन सूरदास कहता है कि यह जमीन उसके पुरखों की धरोहर है वह तो महज संरक्षक है इसका। वह बिना समाज की अनुमति के कैसे बेच सकता है।

राजा साहब कहते हैं कि कारखाना खुलने से रोजगार बढेगा। सूरदास कहता है कि कारखाना खुलने से कई तरह की बुराइयाँ बढेंगी।  इसके अलावा गाँव से लोग खेती का काम छोड़कर रोजगार के लिए आयेंगे।  समाज का पूरा ताना-बना बिखर जाएगा। राजा साहब उसकी बातों से प्रभावित होते हैं और यह कहकर चले जाते हैं कि वे जॉन सेवक को समझा देंगे कि सूरदास जमीन देने को तैयार नहीं हुआ।

वास्तव में इस उपन्यास की कथा का यह द्वंद्व आधुनिकता और परम्परा का द्वंद्व है।  जो प्रेमचंद के उपन्यासों में बार-बार आया है।  समाज का पुराना ढांचा टूट रहा था।  वह ढांचा जो सामाजिकता पर आधारित था, जो जमीन-जायदाद, पशुओं के माध्यम से जीवन यापन करता था। उसकी जगह पर नई औद्योगिक सभ्यता आ रही थी जो पूँजी पर आधारित थी। जो सामाजिक ताने बाने से अधिक व्यापारिक लाभ-नुक्सान पर ध्यान देता था। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ में गाँव बनाम शहर का द्वंद्व नहीं है बल्कि यह द्वंद्व विदेशी बनाम स्वदेशी का है। विदेशी पूँजी पर आधारित उद्योग के माध्यम से देसी सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देना चाहते हैं। जॉन सेवक उसी विदेशी यथार्थ का प्रतीक है जबकि सूरदास देशी आदर्श का।

उधर कुँवर भरत सिंह के घर में रहते रहते सोफिया को विनय सिंह से प्यार हो जाता है। हालांकि उसने यह प्रण कर रखा था कि वह विवाह नहीं करेगी। दूसरी तरफ सेवा समिति के माध्यम से संकट में पड़े लोगों की सेवा का व्रत ले चुके विनय सिंह के लिए भी निजी सुखों से अधिक समाज का सुख महत्व रखता है। इतने बड़े जमींदार के एकमात्र पुत्र होने के बावजूद सामान्य जीवन जीता है। अपने दल के साथ देश भर में घूमता रहता है। लेकिन सोफिया से उनको भी प्यार हो जाता है और वह अपनी बहन इंदु के सामने इस बात को स्वीकार भी कर लेता है। जब विनय सिंह की माँ को यह पता चलता है कि दोनों के बीच नजदीकियां बढ़ रही हैं तो वह विनय सिंह को राजपुताना जाने का फरमान जारी कर देती हैं। सोफिया और विनय सिंह की यह प्रेम कहानी इस उपन्यास में मिलन से अधिक वियोग की है, पाने से अधिक खोने की है, प्रेम से अधिक त्याग की है।

उधर सूरदास के मना करने पर जॉन सेवक अंग्रेज अधिकारियों से मिलकर उसकी जमीन का सार्वजनिक हित में अधिग्रहण करवा लेता है।  मुआवजा लेने से सूरदास मना कर देता है तो उस पैसे को सरकारी खजाने में जमा कर दिया जाता है। लेकिन सूरदास हार नहीं मानता है।  वह भीख मांगने के लिए तो रोज घूमता ही था। अब उसने घूम घूम कर अपने साथ हुए इस अन्याय के खिलाफ माहौल बनाना शुरू कर दिया।  एक दिन वह गिरजाघर भी चला गया जहाँ विशेष सरमन वाले दिन गणमान्य इसाई जुटे हुए थे। वहां कई लोगों ने सूरदास की बातों का समर्थन किया। सोफिया भी उसके साथ हुए अन्याय से द्रवित हो जाती है और वह जमीन पर सूरदास का हक़ वापस दिलवाने के लिए अपनी सहेली इंदु के घर जाती है ताकि उससे कहे कि वह राजा साहेब से कहकर सूरदास को उसकी जमीन वापस दिलवा दे।  लेकिन इंदु उसके सहयोग से इनकार कर देती है। सोफिया अपने अपमान का बदला लेने के लिए मिस्टर क्लार्क का सहयोग लेती है। मिस्टर क्लार्क जिले के सबसे बड़े अधिकारी हैं और सोफिया से विवाह करने की इच्छा रखते हैं।  सोफिया ईसाई धर्म का वास्ता देते हुए मिस्टर क्लार्क से कहती है कि ‘आप लोग ऐसे साधुजनों से अन्याय करने में भी बाज नहीं आते जो अपने शत्रुओं पर एक कंकड़ उठाकर भी नहीं फेंकता। प्रभु मसीह में यही गुण सर्वप्रधान था।’ जवाब में मिस्टर क्लार्क कहता है कि इसका प्रायश्चित निश्चित होगा। वह इस आधार पर वह जमीन सूरदास को वापस दे देते हैं क्योंकि व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए सरकारी कानून का दुरूपयोग किया गया था।

इस बीच राजपूताना पहुँचने पर विनय सिंह को पता चला कि वहां जनता के ऊपर शासन द्वारा बहुत अत्याचार किया जा रहा था तो वे अपने दल के माध्यम से जनता के लिए काम करने लगे। सरकार ने ख़तरा भांपते हुए उनको गलत आधार पर फंसा कर गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया था। जब यह बात सोफिया को पता चलती है तो उसको जेल से निकालने का जुगत लगाती है। सूरदास की जमीन वापस करने के कारण ऊपर से मिस्टर क्लार्क के ऊपर कार्रवाई होती है। उसको अपने पद से हटा दिया जाता है और यह अवसर उसके सामने होता है कि वह किसी रियासत का रेजिडेंट बन जाए। सोफिया इस बात को अच्छी तरह समझती थी कि मिस्टर क्लार्क उसका दीवाना था। जबकि वह खुद विनय सिंह की दीवानी थी। वह क्लार्क के ऊपर जोर डालकर उसको राजपूताना का रेजिडेंट बनने के लिए तैयार कर लेती है और उसको वहां जेल से छुडाकर ले आती है।

इधर ताड़ी बेचने वाले मित्र भैरों की पत्नी के कारण सूरदास पर मुकदमा हो जाता है और सूरदास के ऊपर जुर्माना भी हो जाता है। उसको सजा होने के बावजूद शहर के राष्ट्रवादी लोग उसके साथ सहानुभूति रखने लगते हैं। वे उसके जुर्माने कि रकम जुटाने के लिए आपस में चंदा करने लगते हैं, इसमें राजा महेंद्र कुमार सिंह की पत्नी इंदु भी चंदा दे देती है जिससे राजा साहेब दुखी और नाराज हो जाते हैं।

इस सबके बीच कारखाने के निर्माण का काम चलता रहता है। वह पूरा होने को होता है कि समस्या यह उठ खडी होती है कि कारखाने के मजदूरों को रहने के लिए कहाँ जगह दी जाए। उसके बाद उस बस्ती को खाली करवाने के लिए साम दाम दंड भेड़ को आजमाया जाने लगता है।  सूरदास इस बार अपनी झोपड़ी खाली करने से इनकार कर देता है।  उसकी तरफ से लड़ाई लड़ने के लिए विनय सिंह अपनी सेवा समिति के साथ लग जाता है। विनय सिंह सूरदास से कहता है कि यह तुम्हारी झोपड़ी नहीं हमारा जातीय मंदिर है। उसको बचाने के लिए संघर्ष होता है, गोलियां चलती हैं जिसमें सूरदास और विनय सिंह बारी बारी मारे जाते हैं। सोफिया इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाती है। उसके ऊपर एक बार फिर परिवार की तरफ से दबाव डाला जाने लगता है कि वह मिस्टर क्लार्क से विवाह कर ले। वह हाँ तो कर देती है लेकिन एक दिन रात में घर छोड़कर निकल जाती है। जाने कहाँ? प्रभु सेवक कुछ दिन सेवा समिति से जुड़ा था। बाद में भी उसने उसको चंदा दिया लेकिन उसके जीवन का उद्देश्य अलग हो चुका होता है।  वह अपने जीवन का लक्ष्य बना चुका था प्राच्य और पाश्चात्य के द्वंद्व को मिटाना।

इस सबके बीच कारखाना बन जाता है। कुँवर साहब भी अपना राज कोर्ट ऑफ़ वर्ड के हवाले करके पुनः विलासितापूर्ण जीवन जीने लगते हैं।  जिला प्रशासन जनता के आन्दोलन से मजबूर होकर राजा महेंद्र कुमार सिंह को उनके पद से हटना पड़ता है, जहाँ सूरदास की झोपड़ी थी उस जगह पर उसकी एक प्रतिमा स्थापित की जाती है। शेष लोग अपने अपने घर के बदले मुआवजा लेकर पीछे हट जाते हैं, व्यापार राज को स्वीकार कर लेते हैं।  उपन्यास में एक स्थान पर जॉन सेवक और एक स्थान पर उनके पुत्र सेवक यह कहते हैं कि यह व्यापार राज है। सत्ता से अधिक व्यापार की महत्ता होगी।

जितने आदर्शवादी लोग इस उपन्यास में थे सब मारे जाते हैं- सूरदास, विनय सिंह, सोफिया। जीवित बचे लोगों में जाह्नवी अपने पति का मार्ग छोड़कर और उनकी पुत्री इंदु अपने पति महेंद्र कुमार सिंह के अन्यायों का भागी न बनते हुए विनय सिंह की सेवा समिति के काम को आगे बढाने के लिए पंजाब निकल जाने का निश्चय करते हैं। उनक साथ डॉ. गांगुली भी तैयार हो जाते हैं, जिनकी शिक्षा ने विनय सिंह को राष्ट्रवादी बनाया था। उपन्यास में अंत में यह सूचना भी आती है कि जॉन सेवक अब पटना में भी सिगरेट का कारखाना बनाने के बारे में सोच रहे हैं। व्यापार राज फ़ैल रहा था।

‘रंगभूमि’ प्रेमचंद का एक ऐसा उपन्यास है जो भारत के सबसे बड़े आधुनिक द्वन्द्व की व्याख्या करने की कोशिश करता दिखाई देता है।  समाज को अपने परम्परागत कौशल, पारम्परिक रूप के सहारे आगे बढ़ाया जाए या औद्योगिकीकरण के माध्यम से आधुनिक विकास का मार्ग चुना जाए।

लेखक व्यापार को वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है तथा सेवा-भावना को आदर्श के रूप में बचाए रखना चाहता है।

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