
अभी हाल में ही संपन्न हुए विश्व पुस्तक मेले में युवा लेखिका सुजाता का उपन्यास ‘एक बटा दो’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है, जिसकी भूमिका प्रसिद्ध लेखिका अनामिका ने लिखा है. भूमिका साभार प्रस्तुत है- मॉडरेटर
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न आधा न पूरा
* अनामिका
जेन ऑस्टिन और जॉर्ज एलियेट के उपन्यासों में लड़कियाँ ‘दूर के ढोल सुहावन’ के तर्क से फ़ैशनपरस्त लन्दन के समाचार जानने को आकुल रहती हैं ; लन्दन उनका सपना है, ठीक जैसे चेखव की ‘तीन बहनों’ का सपना है मॉस्को, क्योंकि मॉस्को उन्होंने देखा नहीं! ‘एक बटा दो’ कहानी है उन लड़कियों की जो मॉस्को या लन्दन या दिल्ली – किसी महानगर में रहती हैं और पिछली सदी की उन सपनीली लड़कियों की तरह जिनका जीवन खिड़की से आकाश देखते नहीं कटता। किसी भी तरह की नौकरी करते जिन्हें अपनी टकदुम गृहस्थी चलानी होती है – वह भी ऐसे हड़ियाढूँढन पुरुषों के साथ जिनके बारे में बिहार में कई प्यारी कहावतें चलती हैं, जैसे कि ‘भोनू भाव न जाने, पेट भरे से काम’ या कि ‘कापे करूँ सिंगार, पिया मोर आन्हर हो।’
पद्मिनी नायिकाओं-सी अगाधमना लड़कियाँ जब महानगर के गली-कूचों में जन्में और अपने मायकों की खटर-पटर से निजात पाने के लिए उस पहले रोमियो को ही ‘हाँ’ कर दें जिसने उन्हें देखकर पहली ‘आह’ भरी तो जीवन मिनी त्रासदियों का मेगासिलसिला बन ही जाता है और उससे निबटने के दो ही तरीक़े बच जाते हैं, पहला, ख़ुद को दो हिस्सों में फाड़ना। जैसे सलवार-कुरते का कपड़ा अलग किया जाता है वैसे शरीर से मन अलग करना। मन को बौद्ध भिक्षुणियों या भक्त कवयित्रियों की राह भेजकर शरीरेण घर-बाहर के सब दायित्व निभाये चले जाना! दूसरे उपाय में भी बाक़ी दोनों घटक यही रहते हैं पर भक्ति का स्थानापन्न प्रेम हो जाता है – प्रकृति से, जीव-मात्र से, संसार के सब परितप्त जनों से और एक हमदर्द पुरुष से भी जो उन्हें ‘आत्मा का सहचर’ होने का आभास देता है।
रीतिकाल पढ़ते हुए मेरे मन में हमेशा यह ख़्याल आता था कि परकीयाओं के बड़े होते बच्चों का ज़िक्र वहाँ क्योंकर नहीं है. क्या हो जब माँ अभिसारिका भाव में चले और स्टडी टेबल पर ऊँघ रहा बच्चा हड़बड़ा जाए या बेटी से अपने चित्त की अकबकाहट कहनी पड़े! इन जटिल स्थितियों पर सोचने का काम पुराने लेखकों ने आने वाली लेखिकाओं के जिम्मे ही छोड़ रखा होगा और अब आई है वह घड़ी जब सुजाता जैसी समधीत, गंभीरमना, सचेतन स्त्री-कवि, विकट दुचित्तेपन के इस एहसास के साथ संवेदित और स्वामीनुमा/बॉसनुमा – दोनों तरह के पुरुषों की सूक्ष्म संवेदनाओं का सजग मनोसामाजिक विश्लेषण अपनी काव्यात्मक भाषा में साधते हुए आसक्ति के संन्यास का एक नया वितान रचती हैं। वहाँ पहाड़, बर्फ़, वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी, बच्चे-सबके बीच से गुज़रती हुई एक उन्मन नदी अनंत की ओर मुड़ गई है सांद्र ऐहिकता की कलकल-छलछल समेटे हुए।
“गोलू मोलू पत्थरों पर फिसलते-बचते पहाड़ी नदी को पार करने का मन कैसे दबा ले जाता है कोई ? कभी उड़ना नहीं चाहा है तुमने जैसे पेड़ उड़ जाना चाहता है लहराती अपनी पत्तियों में । रूह उड़ जाना चाहती हो जैसे उंगलियों के पोरों से से छूट कर । नदी किनारे चट्टान पर बैठे बर्फीली हवा जब नाक पकड़ कर छेड़ती है ज़ोर से तो पीठ से झाँककर सूरज ने अगर बाहें नहीं डालीं तुम्हारे गले में तो बेकार है जिनगानी।”
नदी के बीच पड़ी चट्टान पर पाँव पसार कर ज़िंदगी को विस्तार देने को समुत्सुक यह ईकोफेमिनिस्ट भाषा स्त्री-फैण्टेसी के ही सात रंग बिखराती हो ऐसी बात नहीं है ! स्त्री-नागरिकता के कई पुरज़ोर प्रमाण भी देती है- ख़ासकर वहाँ जहाँ सरकारी कन्या विद्यालयों और गली-मुहल्लों में खड़े ब्यूटी-पार्लरों के दैनंदिन संघर्षों का सूक्ष्म ग्राफांकन होता है। यह विस्तार धर्मशाला की गलियों में अपनी पहली उन्मुक्त एकल यात्रा में वहाँ के तिब्बती शरणार्थियों, स्थानीय बाशिंदों और ढेर के ढेर आने वाले विदेशी पर्यटकों की सामाजिक-आर्थिक अन्तःक्रियाओं के सूक्ष्म प्रेषण तक जाता है। डॉरिस लेसिंग की ‘गोल्डन नोटबुक’ की तरह अब वह पाँच अलग-अलग नोटबुक्स में दर्ज नहीं होता, बल्कि और महीन होकर वैयक्तिक-सामाजिक परिवेश के अनुभवों में रल-मिलकर अपने सान्द्र रूप में पहुँचता है।
पढ़ी-लिखी बुद्धिमती स्त्रियों के महीन हास्य-बोध और उनकी मस्त मटरगश्तियों की भी कई दिलकश छवियाँ जहाँ-तहाँ आपको मिलेंगी।
स्वयं से बाहर निकल कर ख़ुद को द्रष्टा-भाव में देखना और फिर अपने से या अपनों से मीठी चुटकियाँ लिए चलना भी स्त्री-लेखन की वह बड़ी विशेषता है जिसकी कई बानगियाँ गुच्छा-गुच्छा फूली हुई आपको हर कदम पर इस उपन्यास में दिखाई देंगी !
हर कवि के गद्य में एक विशेष चित्रात्मकता, एक विशेष यति-गति होती है, पर यह उपन्यास प्रमाण है इस बात का कि स्त्री-कवि के गद्य में रुक-रुककर मुहल्ले के हर टहनी के फूल लोढते चली जाने वाली क़स्बाई औरतों की चाल का एक विशेष छंद होता है। अपने अहाते में फूल न भी हों तो भी पूरे मुहल्ले के एक-एक पेड़ से बतियाती, साधिकार उनकी डाली से फूल लोढती ये औरतें अपनी डलिया भरे जाती हैं-एकदम इत्मीनान से जैसे सारा जगत अपना ही तो है ! काल की वल्गा अपने ही हाथ में है तो हड़बड़ी कैसी ! अब हिन्दी में स्त्री उपन्यासकारों की एक लम्बी और पुष्ट परंपरा बन गई है। सुजाता का यह उपन्यास उसे एक सुखद समृद्धि देता है और ज़रूरी विस्तार भी।
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