पिछले एक-दो बरसों में फेसबुक पर प्रवीण झा ने शास्त्रीय संगीत पर बेहद रोचक शैली में लिखना शुरू किया है और उनके मेरे जैसे कई मुरीद पाठक हैं. आज सुबह-सुबह उनका एक दिलचस्प लेख पढ़ा औरंगजेब और संगीत पर. शीर्ष संगीत इतिहासकार स्व. गजेंद्र नारायण सिंह की मरणोपरांत प्रकाशित किताब “मुस्लिम शासकों के रागरंग और फ़नकार शहंशाह औरंगज़ेब” के हवाले से, निकोलस मनुच्ची पुस्तक के हवाले से उन्होंने कई ऐसी बातें लिखी जो मेरे जैसे आम पाठकों के लिए बहुत नई है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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शहंशाह औरंगज़ेब और मौसिक़ी का जनाज़ा की कहानी मैंने पहली बार निकोलस मनुच्ची की किताब ‘स्टोरिया डी मोगोर’ में पढ़ी। इतालवी निकोलस मनुच्ची चूँकि दारा शिकोह के ख़ास थे तो औरंगज़ेब पर उनके लिखने को कितना सच मानूँ? लेकिन औरंगज़ेब पर पढ़ने के लिए यह ऐसी किताब जरूर है कि किसी ने आँखो-देखी लिखी हो, और ख़्वाह-म-ख़्वाह कयास न लगाए। जैसे यह लिखना कि औरंगज़ेब के रंगरूट घूम-घूम कर मुल्लों की दाढ़ी नापते और गर ख़ास आकार की नहीं होती, तो काटते फिरते। उसी में यह भी ज़िक्र है कि जब संगीत की मनाही हुई तो सभी संगीतकार अपने वाद्य-यंत्र लेकर जमीन में गाड़ने निकल पड़े। जब मस्जिद में बैठे औरंगज़ेब ने पूछा कि बाहर क्या हो रहा है तो कहा कि मौसिक़ी का जनाज़ा जा रहा है। औरंगज़ेब शांत मुद्रा में जवाब देते हैं कि मौसिक़ी की रूह को ख़ुदा जन्नत बख्शे।
यह बात बाद में कई इतिहासकारों द्वारा इसी कलेवर में परोसी गयी कि औरंगज़ेब एक क्रूर शासक था और उसने सभी संगीतकारों को दरबार से लठिया कर भगा दिया। कई लोग यह भी कहते हैं कि तभी तमाम संगीत घरानों की स्थापना हुई जब यह भाग-भाग कर अलग-अलग जगह गए। खैर यह बात तो बेबुनियाद है क्योंकि संगीत के घराने औरंगज़ेब के काफी समय बाद ग्वालियर से जन्म लेने शुरू हुए। रही बात भगाने की, तो इस पर आश्चर्यजनक रूप से पहली बार एक जनसंघी ब्राह्मण संगीत-प्रेमी ने जोर देकर लिखा कि औरंगज़ेब स्वयं एक आला दर्जे का बीनकार और बंदिशकार था। आचार्य कैलाशचंद्र बृहस्पति के लेख “औरंगज़ेब का संगीतप्रेम” को ही आधार बना कर कैथरीन बट्लर ब्राउन ने एक शोध किया, हालांकि उस शोध में इधर का माल उधर वाली बात ही अधिक है। मौलिक शोध कि सिद्ध करना औरंगज़ेब वाकई फ़नकार था, यह पक्के तौर पर मुझे नहीं मिल पा रहा था।
तभी भारत के एक शीर्ष संगीत इतिहासकार स्व. गजेंद्र नारायण सिंह की मरणोपरांत प्रकाशित किताब “मुस्लिम शासकों के रागरंग और फ़नकार शहंशाह औरंगज़ेब” किताब हाथ लगी। किताब पढ़ कर मन में कुछ स्पष्ट हुआ कि गजेद्र बाबू ने यह किताब अपने जीवन के आखिरी समय के लिए क्यों बचा कर रखी थी। उन्होंने राष्ट्रकवि दिनकर के “संस्कृति के चार अध्याय” को तो आड़े हाथों लिया ही है, औरंगज़ेब की छवि ऐसी बनायी है जो शायद स्थापित धारणाओं को न पचे। हालांकि गजेंद्र बाबू एक निर्भीक और दबंग संगीत विशेषज्ञ-इतिहासकार रहे, फिर भी। यह बात तो उन्होंने किताब में ही लिखी है कि उनके शोध का पुरजोर विरोध हुआ, फिर भी उन्होंने ख़ुदाबख़्श ओरियेंटल लाइब्रेरी में बैठ-बैठ कर औरंगज़ेब आलमग़ीर के समय के मूल फ़ारसी ग्रंथों को स्वयं अनुवाद किया और यह शोध पूरा किया। बस इस किताब का मुँह देखने से पहले उनका देहांत हो गया।
गजेंद्र बाबू बिन्दुवार लिखते हैं कि संगीत पर प्रतिबंध लगने की वजह आखिर थी क्या? यह जान कर बड़ा ताज्जुब लगता है कि संगीतकार कूटनीति के मोहरे बनते थे। बिसराम ख़ाँ ने लाख अशर्फी रिश्वत लेकर शाहजहाँ को अपने गायन में ऐसा उलझाया कि औरंगज़ेब को दक्कन भिजवाने वाले आदेश पर हस्ताक्षर उसी मध्य ले लिए गए। अब औरंगज़ेब को यह तो यकीं हो गया कि दरबारी कामों के मध्य संगीत को बंद करना ही होगा, अन्यथा शासन बाधित होगा। लेकिन यह तो राजनीति की बात थी, मेरे लिए यह जानना जरूरी था कि औरंगज़ेब खुद क्या गाते-बजाते थे? और किस वजह से फ़नकार जोड़ दिया? आज जिन कठमुल्लों को मौसिक़ी से दिक्कत है, उनके लिए तो औरंगज़ेब एक आदर्श है। एक बार गर यह सिद्ध हो गया कि औरंगज़ेब खुद वीणा बजाता था और बंदिशें रचता था, तो यह इस्लाम और मौसिक़ी का द्वंद्व औंधे मुँह गिर जाएगा।
अब औरंगज़ेब की लिखी बंदिश जो पुस्तक में है, उसकी पंक्तियाँ हैं-
“सौंतिनी सो बाजू पीअ प्रीत लीनि,
साहि औरंगज़ेब रीझि रूचि सौ कंठ लगाई..”
और यह बात तो निकोलस मनुच्ची ने भी लिखी है कि दरबार में मनाही थी, पर औरंगज़ेब अंत:पुर में खूब वीणा बजाता और संगीत में रमा रहता था। बल्कि एक दफ़े तो दक्कन में नदी किनारे वीणा बजाने लग गया था। अब इतिहासकारों और पूर्वाग्रहियों में द्वंद्व होता रहे, लेकिन अगर औरंग़जेब की यह बातें सत्य मानी जाएँ तो वह वाकई इकलौता मुग़ल शासक कहलाएगा जो बंदिशकार भी हो और संगीतकार भी। क्योंकि बहादुरशाह ज़फर बंदिश तो लिखते थे, पर बजाना-गाना न आता था। और अकबर तो खैर सिफ़र थे।

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