Quantcast
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1475

‘दुर्वासा क्रोध’वाला मानवीय व्यक्तित्व

Image may be NSFW.
Clik here to view.

विष्णु खरे के निधन के बाद जो श्रद्धांजलियाँ पढ़ीं उनमें मुझे सबसे अच्छी वरिष्ठ लेखक विनोद भारद्वाज की लगी। इंडिया टुडे में प्रकाशित इस श्रद्धांजलि को साभार प्रस्तुत कर रहा हूँ- प्रभात रंजन

============================================

कभी-कभी मौत एक बहुत गलत और अजीब समय पर आकर दरवाजे पर चुपचाप खड़ी हो जाती है. हिंदी के अद्वितीय कवि और विलक्षण आलोचक, चिंतक, अनुवादक विष्णु खरे के साथ यही हुआ. अचानक उन्हें मुंबई से दिल्ली की हिंदी अकादेमी के उपाध्यक्ष पद के लिए बुलाया गया और वे अभी एक लंबी पारी खेलने की शुरुआत ही कर रहे थे कि ब्रेन हेमरेज ने उन्हें दिल्ली के पंत अस्पताल में अचेत हालत में पहुंचा दिया.

वे हिंदी साहित्य के एक जबरदस्त योद्धा थे—आसानी से हार मान लेना उनके जीवन का सिद्धांत नहीं था. हम सब उनके दोस्त उम्मीद कर रहे थे कि वे अचानक उठ खड़े होंगे और हैरानी तथा गुस्से में पूछेंगे—अरे भई, मुझे वेंटीलेटर पर क्यों रखा हुआ है?

दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ नहीं. वे एक हफ्ता अस्पताल में रहने के बाद 19 सितंबर की दोपहर कई बड़े अधूरे काम छोड़कर चले गए. वे पिछले कई महीने से रजा फाउंडेशन के लिए मुक्तिबोध की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद के काम में लगे थे. काफी काम हो चुका था पर अभी वह पूरा नहीं हो पाया था. हिंदी अकादेमी की पत्रिका के लिए वे कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह की स्मृति में एक विशेषांक की तैयारी कर रहे थे.

जिस दिन वे अस्पताल ले जाए गए, उस शाम उन्हें इसी विशेषांक के सिलसिले में कुंवर नारायण के सुपुत्र अपूर्व नारायण से मिलना था. यह भी विडंबना है कि खरे का निधन कुंवर नारायण (उनके प्रिय कवि) के जन्मदिन पर हुआ. कुछ तारीखें इतिहास में अजीब तरह से दर्ज हो जाती हैं.

और हिंदी साहित्य की हालत देखिए कि विष्णु खरे अभी बिस्तर पर ‘कोमा’ से लड़ रहे थे कि फेसबुक पर कुछ युवा कवियों ने उन पर आरोप लगाने शुरू कर दिए कि हिंदी अकादेमी बूढ़े और मृत्यु की ओर बढ़ रहे कवियों को प्रोत्साहित कर रही है.

असद जैदी, मंगलेश डबराल और देवीप्रसाद मिश्र का काव्य पाठ या देवताले की स्मृति में एक आयोजन इतिहास में इस तरह से दर्ज किया जाएगा? अकादेमी की पूर्व अध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा ने इस पर जो टिप्पणी की वह भी गौर करने लायक है. हिंदी अकादेमी का खून बूढ़े साहित्यकारों के मुंह लगा हुआ है जिसका चस्का वे छोड़ नहीं पाते.”

मैं विष्णु खरे को करीब पचास वर्षों से जानता हूं. वे हिंदी की अनोखी और अद्वितीय प्रतिभा थे. युवा लेखकों में उनकी लोकप्रियता, उनका सम्मान बेमिसाल है. वे खोज-खोजकर युवा कवियों को पढ़ते थे. हिंदी अकादेमी में तो अभी वे कुछ कर ही नहीं पाए थे पर उनके बारे में घटिया किस्म के फैसले दनादन सुना दिए गए.

विष्णु खरे जीनियस थे—वे कविता, साहित्य, मिथकशास्त्र, महाभारत, फाउस्ट, बर्गमैन, तारकोवस्की कारायान पर अधिकार के साथ बोल सकते थे. ग्योठे के फाउस्ट का उन्होंने हिंदी अनुवाद भी किया है—ग्युंटर ग्रास की किताब जीभ निकालना का भी. भारतविद् जर्मन विद्वानों से उनकी गहरी मित्रता थी—उनसे उनका जबरदस्त बौद्धिक संवाद था.

वे इस लायक थे कि उन्हें साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष पद पर बैठाकर कुछ बेहतरीन काम कराए जा सकते थे. लेकिन हिंदीवालों ने अपने सबसे काबिल विद्वान को इस पद के लिए चुना. हिंदी के कई औसत लेखक, कवि साहित्य अकादेमी पुरस्कार पा चुके हैं. पर जिस कवि को कई नामी लोग रघुवीर सहाय के बाद का सबसे महत्वपूर्ण हिंदी कवि मानते हैं वह अपने जीवन में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से वंचित रहा.

कई कड़वे तथ्य याद आ रहे हैं. नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक विद्या निवास मिश्र जब अपने जयपुर, लखनऊ आदि संस्करणों के स्थानीय संपादक विष्णु खरे से नाराज थे, तो दिलीप पाडगांवकर उन्हें टाइम्स ऑफ इंडिया का साहित्य संपादक बनाने के लिए तैयार थे. पर मिश्र ने मालिकों को साफ कह दिया कि इस व्यक्ति का ट्रांसफर भी नहीं होने दूंगा. इसे संस्थान से निकालिए.

खरे विवादास्पद थे, कई बार पसंद-नापसंद में ज्यादतियां भी करते थे पर उनकी विद्वता और प्रतिभा अनोखी थी. उनके अनेक साहित्यिक दुश्मन भी भीतर से उनके इस लड़ाकूपन का सम्मान करते थे.

पिछले साल मैं उनके हृदय के ऑपरेशन के बाद इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मिला, तो मुझे उनके देखने के ढंग से थोड़ी चिंता हुई. लग रहा था जैसे मौत से वे कोई गुप्त लड़ाई लड़ रहे हैं. मैंने उन्हें छोटे-से मेल में इसका जिक्र किया. उनका जवाब था, ”मुझे कल भी समझ में नहीं आया था और अभी भी नहीं कि तुम मेरे किस देखने के ढंग की बात कर रहे हो. मैं क्या उस ‘ढंग’ से तुम्हारे समेत आस-पास की दुनिया को देख रहा था?

क्या वह वैसा है जैसा उस आदमी के चेहरे पर होता है जो जाने-अनजाने अपनी आसन्न मृत्यु को देख रहा हो? अपनी वह सेंसुअल मृत्यु…डोंबिवली में 5 फरवरी, 2017 को…मैं अनुभव कर चुका था. यह वह ‘हैगार्ड मेडिकल लुक’ है जो चार महीनों में तीन ऑपरेशनों से गुजरे हुए 77 वर्ष के शख्स के चेहरे पर होता होगा? ऐसा भी होता है कि कई बार हम परिजनों या मित्रों या उनके भारी अहित की विशफुल कल्पना भी करते हैं. वैसा चेहरा तो तुम्हें नहीं लगा?” (16 जुलाई, 2017)

यही कह सकता हूं कि खरे जैसा योग्य और मानवीय व्यक्ति मैंने नहीं देखा. उनके ‘दुर्वासा क्रोध’ की लोग चर्चा करते हैं, पर उनकी गहरी मानवीयता को वे आसानी से पहचान नहीं पाते.

The post ‘दुर्वासा क्रोध’ वाला मानवीय व्यक्तित्व appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1475

Trending Articles