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ज्योति शोभा की दस कविताएँ

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समकालीन कविता में ज्योति शोभा की कविताएँ किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं। ऐसी प्रेम कविताएँ निस्संग उदासी जिसके पार्श्व संगीत की तरह है। आज पढ़िए उनकी दस कविताएँ- मॉडरेटर 

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1) वह कोई जगह है

वह कोई जगह है
या कोई पुरानी याद जो हमें जकड़े रहती है
निरंतर, साल दर साल
हमारा इससे निकल कर छत तक जाना
ढलते सूर्य में चेहरा गलाना
और उसी पिघले‌ मोम से नया चेहरा बनाना
सीढियाँ उतर कर बस स्टैण्ड तक जाना
छाता बंद करना और रुकना
और छटपटाकर नदी का पुल पार करना
या फिर और दूर
किसी दूसरे शहर किसी दूसरे देश जाना
सब फ़िज़ूल की कवायद

क्या यह कोई ग्रह की परिक्रमा है
अपशकुन में डूबे दिन
जब तुम्हें भी पता नहीं कि असल में विरासत में मिली पुतलियों का काला रंग फीका
पड़ता जाता है

बग़ैर किसी आँसू के पत्थर हो चुकी आँखों में जब कोई प्रतिबिम्ब न हो
तो उसे क्या कहना ठीक है?

क्या तब भी तुम फ़र्क़ कर सकोगे
और बता सकोगे
समुद्र का नमक चिपका है खाल पर या उमसे दिन का पसीना है?

खुद पर दया करने से भी बात नहीं बनती
न उगते फूलों पर प्यार आता है
इसके बाद मन उकता जाता है देवताओं से
जैसे और अधिक क्या होगा
कि इसी तस्वीर के तल्ख़ रंग को बदल कर दूसरी तस्वीर बना दी जायेगी

कितनी ही दूर जा सकोगे
क्या सचमुच लगता है तुम्हें
यह ख़ून जो गाढ़ा होता जाता है
यह जम नहीं जाएगा एक रोज़
हर पत्थर पर नाम तो ज़रूर लिखा होगा
तलवार के नीचे कोई न कोई गर्दन तो होगी न

क्यों है यह यक़ीन?
मृत्यु नहीं आ सकती है समंदर पार कर के
उसे भी तो तुम्हारी गंध आती होगी
जैसे स्मृति को पता है
यही गंध।

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2) रात की चुप में

क्या तुम वही सुनना चाहते थे
रात की चुप में
वही बात जिसे आधी नींद में पानी पीते हुए दो बार सुना जा सकता था
फिर भुलाया जा सकता था
किसी दूसरे दिन जुराबें खोजते

मुझे दिन याद नहीं
नामों की बाबत कच्ची याददाश्त में सिर्फ़
आड़े तिरछे रास्तों की गूंज है

ऐसे ही शोक के साथ होना था
मगर नहीं है
वह धातुई चमक गहराती है हर बार

क्या तुम सचमुच ही जाना चाहते थे नयी चीज़ों वाली दोपहर में?

अज़ीब किस्म की लापरवाहियां होती हैं मुझसे जब मैं भी जाना चाहती हूँ यहाँ से बाहर
कल्पना साथ नहीं देती
डर हावी हो जाता है अनदेखे हथियारों का
घड़ी या चश्मा छूट जाता है मेज पर
या फिर कोई दूसरी याद
उम्मीद भरी कोई पुरानी बात
आधे रस्ते से लौट आना पड़ता है

बहुत धीरे पता चलता है
तुम उस दिन शायद यही बात सुनना चाहते थे
यही नाम भूलने की बात

हाथ मिलाते हुए
भूलना पुरानी हंसी
एक नयी भाषा में मुस्कुराना।

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3) ऐसे ही सर्दियों के ठिठुरते दिन

वे ऐसे ही दिन होंगे
ऐसे ही सर्दियों के ठिठुरते दिन
जब अपनी मूर्खताओं पर हंसा जा सकेगा
लगातार हंसना, बहुत दिन पहले जान बूझकर लड़खड़ाने को लेकर
और रोना, रोते जाना
गलती ठंड में अपने ठोस हृदय को गलते देखना
ऐसे ही किसी दिन होगा

उस दिन बग़ैर बत्ती बुझाये सो सकेंगे हम
नींद में मिलेंगे मर चुके मनुष्य से
वह अपना हाल बताएगा और यह भी कि उसके आस पास भी इन दिनों कम सितारे हैं
इन दिनों उसे पुराने आकाश की याद आती है

इसी बीच मौसम बदलेगा
सरहद से घुड़सवार लौट आएंगे, चोट पर मलहम लगाएंगे
बीड़ी के दो कश और एक लम्बी सिसकी
उनका शोक मन तोड़ेगा
उनकी टूटन से दिखेगा चन्द्रमा टूटा हुआ
फ़िज़ूल लगेगा उनका पागलपन: मौत को बुलाने की ज़िद
शायद अनुराग कोई जलता हुआ जंगल हो
नष्ट हो जाना ही तय हो

क्या ऐसे भी दिन होंगे?
कुहासे को चीर कर आएगी कोई याद
पंक्तियों के नए अर्थ पहचाने जाने के बाद
जब अनायास दुःख उठेगा
बहुत समय तक भूलने की कोशिश में बीतेंगे कि किस पहर कौन सा वार हुआ था
फिर आसान हो जाएगा सहना, सहते जाना
इन दिनों हम उसे बदकिस्मती कह सकते हैं
कौन सुब्हा करेगा
सभी के पास ऐसे दिन हैं इस समय
अपनी ही खाल से ढके
ठंडे, कसकते हुए।

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4) शर्तों में डर खत्म करने की बात कहीं नहीं लिखी होती

शर्त में साफ़ लिखा है
जो चीज़ जैसी है वैसा ही रखा जाना है उन्हें
मतलब किताब पढ़ने के बाद उसे अपने तय खाने में उसकी पुरानी धूल समेत रखना है
और चीनीमिट्टी के गुलदान को एकदम साबुत
कोई खरोंच न आने पाए

मुझे यक़ीन है
ये शर्तें बेवकूफ़ों के लिए हैं

अभी मुझे वह चीज़ खोजनी है जो कभी नहीं टूटती
या जिस पर गहरा रंग चढ़ा कर उसे बिलकुल नया बताया जा सकता है
अक्सर यह काम चोरबाज़ार में होता है मगर कई बार अपने बिस्तर पर भी कर सकते हैं
खासकर उस समय जब कोई याद बीच से टूट जाए
और डर बना रहे कि पीछे वह चीख अकेली रह गयी है
और उस दिन की पीली रौशनी
बिलकुल अकेली शहर के बाहर जाती सड़क पर

शर्तों में डर खत्म करने की बात कहीं नहीं लिखी होती
सांस लेना सावधानी का काम है
ताला खोलकर कहीं दाख़िल होना
फिर बहुत करीब से किसी को जान लेना
उसकी धड़कनों की लय से घड़ी मिला लेना अपनी
और तीन महीने बाद लौट कर देखना वह कविता जिसमें शराब के गिलास का सुन्दर हिस्सा रखा है
ठीक आँखों की तरफ।

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5) एक तस्वीर से कितनी तस्वीरें बनायी जा सकती हैं

एक तस्वीर से कितनी तस्वीरें बनायी जा सकती हैं

एक ढलती शाम की तस्वीर
दरख़्त की उदासी की तस्वीर
और एक अजब सी मायूसी कि जिसकी परछाई रंगसाज ने छुपा ली अपने दिल में
रंगों में उतरने न दिया
कैसी बेज़ारी कैसी बेबसी होगी कि उसने ख़ून को ख़ून का रंग न दिया

तस्वीर से निकली कितनी बातें
जैसे तुमने मर्तबान को खाली बना कर कहा हो
इसे अब उम्मीद से भरना है और भरना है नींद में हुई बारिश से
क्या भरोसा है आख़िर धड़कन का
इस ख़ौफ़नाक शहर में जाने
कब बंद हो जाए

तस्वीर किसी सच को उजागर नहीं करेगी
मगर छिपाएगी भी नहीं
और उसे देख कर ऊब बिलकुल नहीं होगी जैसी अमूमन इन दिनों जेब में पड़े खाली हाथ को होती है

तुम्हारी बात सुनते समय
एक बार को यह भी लगा मुझे
किसी एक तस्वीर के बारे में एक राय नहीं हो सकती
हो सकता है कहीं बीच में मुझे तस्वीर के होंठ सही न लगे हों
या उसकी गर्दन एक हाथपंखे जैसी थी
कहीं आँसू के बीच तुम उठ कर चले गए थे आग की तपिश खोजने
या उकता गए थे ठंडे पानी से

हो सकता है वह आधी बात थी जो तस्वीर को सोने से ठीक पहले कही गयी थी।

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6) रात में चाँद का होना तसल्ली का होना नहीं है

रात को देखना चाँद को देखना तो नहीं है
रात अपनी अलग गति से चल रही है
सैकड़ों चुप धड़कनों के भीतर उसकी आवाज़ महज़ एक ख्याल है
किसी बंद किताब में जैसे तुमने कोई पंक्ति रखी थी
और अब उसे ढूंढते हो

ख़ुदकुशी की बात उस रात में नहीं हो सकती
वह पुकार जैसी लगेगी
चमगादड़ों के फड़फड़ाने की और फिर उसी जगह बैठ जाने की

रुलाई से बगलगीर को ख़लल होगा यह जानते हुए रोना बेरहमी लगती है
ख़्वाबों के प्रेत दूर से देखते हैं
किसी आरामकुर्सी पर मुस्कुराते

उस रात यह तय नहीं हो पाता कि तुम इस गर्म सांस के किस तरफ हो
सुन्न उँगलियों पर बर्फ़ है या लपट
पता चलता भी है
कब हंसना है कब रोना है
और कितना कम समय बीतता है इस बीच
शायद दो मिनट जब यह मान लेना होता है
रात में चाँद का होना तसल्ली का होना नहीं है।

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7) गुमनामी उर्फ़ सुकून

कि गुमनामी में सुकून है अगर तो यह कहाँ है
जबकि अपने घरों में अपनी शक़्ल बासी अख़बार की हमशक़्ल है
सुराही के अधसूखे तल में बची तसल्ली
और पंखे की गर्म हवा को झूठ कहने का हौंसला
बेगैरत है

कैसे छू कर टटोलते हैं आदमी
ज़िंदा या मुर्दा!
थकी हुई आंखों पर चश्मा लगा कर लगता है
धोका एक दुर्घटना में बदल गया है

कुहरा ढकता है नंगे महीने को
ठीक उस तरफ बिजली के खम्भे पर रात भर जलते बल्ब के भीतर
धीमी रोशनी में सच ज़्यादा चमकता है
दीवार पर लिखी पंक्ति बाद में समझ आती है
गुज़र जाने के बाद
जान लेने की जल्दबाज़ी में एक टुकड़ा बात पकड़ आती है
बची हुई बात देर तक छूती है नींद की पहली परत
कोई बेचैन परिंदा लगातार चोंच मारता है अँधेरे में और
लगता है उसने जगह बना ली है लावारिस बेंच के ऊपर

दूसरे दिन से पहले ही कोई तोड़ देगा गुमनामी का भ्रम
कितने लोगों को बुखार हैं ?
कितने वोटर हैं? कितने बच्चे?
जैसे हर दूसरा जिस्म कागज़ों के पुलिंदे की तरह खुद अपना इश्तेहार है

दहशत एक बात है रुलाई एकदम अलग
अपनी रुलाई गले में बांधे लगता है
कैसी गुमनामी कैसा सुकून
सीने पर हाथ रखने से कुछ महसूस तो हो !

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8) यह उसका जन्मस्थान नहीं

यह उसका जन्मस्थान नहीं
यह दूर एक चुप का घर है
कबूतरों के उड़ते ही यह और खाली हो कर घूरता है
जैसे कुर्सी पर बैठा चौकीदार घूरता है रात के अँधेरे को
ज़रा देर को पलक झपकती है
और तुरंत ही हड़बड़ा कर उठता है और उठाता है अपने सोये पैर
ठंडे जूतों को उठाता है

पूरी उम्र बीतने के बाद उसे महसूस हो रहा है
उसे ज़रूरत नहीं थी नीले मेज़पोश की और इस पलंग की
उसे पीछा करना था झील से उठते कुहासे का
उसे बेहोशी चाहिए थी
बेईमान सालों का दूसरा सिरा
तब टेबल से यह बर्फ़ का टुकड़ा उठा ले जाता है कोई अजनबी चेहरा
कि यह दफ़्न जिस्मों की ताज़गी के काम नहीं आती

और वह सोचता है – अब उठना चाहिए
दुनिया भरोसेमंद पहियों से बंधी है
भरोसेमंद हाथ से ..
मगर क्या है यह भरोसेमंद चीज़ – और वह लड़खड़ाता है
उसके हाथ से छूटता है चाँद
एक छोटी सी आवाज़ या फिर बहुत से खूबसूरत ख़्याल
ठीक पता नहीं चलता।

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9) बस्तियों के खालीपन में

यह भी एक दिन होना था

पिछले सूर्यास्त का सच लगना
उसके अंतिम झुटपुटे का भीतर रह जाना जैसे आज किसी भी तारे के लिए जगह नहीं है
बाहर की तरफ
इस चिड़ियाँ का और इस पालतू कुत्ते का इंतज़ार
रात से ज़्यादा लम्बा है

आवाज़ों को विदा करना कभी नहीं होगा
घंटे भर बैठने के बाद
स्टेशन से लौट आएंगे दोनों ही – एक आवाज़ और प्रतिध्वनि

चाहे जो भी आये दरवाज़े पर
नज़र खाली रहेगी और हाथ खोजेंगे सूर्योदय की दिशा
जलते हुए हाथ और उगता हुआ दिन – दो चीज़ों से मिल कर बनी ज़मीन चाहेगी
बस्तियों के खालीपन में
उसे नाम भूलने की नेमत मिले और शर्मिंदगी छुपाने की जगह।

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10) हमारा मरना संभव नहीं

हमारा मरना संभव नहीं
जलते तेल की गंध है हमारे पसीने में
चमगादड़ों के झुण्ड बंद आँखों में
किसी ख़ौफ़ से जाग कर हम देखते हैं
यह अलग दिन है
और भागते समय हमारी गिर गयी तस्वीरों में हम भी हैं
हमारी वजहें भी हैं
दूसरे दिन का उजाला गलत न लगने की खुमारी भी

दो घोड़े हमेशा तैयार हैं
अस्तबलों के अँधेरे से बाहर उनका दिन
उनके झाग से लिपटे मुंह और चमकती आँखें
याद दिलाते हैं कुछ साल पहले की मासूमियत
नेक नियति में लड़खड़ाते पैर
बेदम जिस्म छह महीने से आँसू पोंछते
हम बैठने से पहले हिचकते हैं
चाहते हैं कोई कुछ कहे
नावों पर खड़े मछुआरे इशारे में कहते हैं
क्या तैरना आता है?

शहर से दूर हवाई पट्टी में बकरियों को घास चाहिए
हमने पक्की छत की अर्ज़ी लगायी है
यह भी सोचा है
आख़िर क्यों जागे हैं हम दूसरी जगह
जब पहली जगह सोये थे
तीन लड़कियों की आत्महत्या के बाद
कागज़ों का ऊँचा खंडहर है और उन पर बने अस्पतालों की इमारतों का दरवाज़ा
अब तक लगा नहीं
बिस्तर खाली हैं
दीवारों पर घास का चित्र बना कर
हम यहीं लेट कर दिन बीताते हैं
इस बीच चूमने की भी सोचते हैं और जनसँख्या रोकने का उपाय भी

एक कमरे से दूसरे कमरे के बीच कुछ अजीब सी बातें हमें परेशान करती हैं
लगता है नशा उपाय है शान्ति का
कफ़ सिरप, गोलियां कोई दूसरी उपलब्ध चीज़ दराज़ में
या फिर यह सफ़ेद सितारा
जिसे लगातार देखने से नीला पड़ता है
और लगता है हम नींद में हैं

उन्हें हमारे होने का इल्म नहीं
या वे मान नहीं रहे
उनका इंतज़ार सदियों से है
उनका लाइटर उतना दिलकश नहीं
उसमें चेहरा आधा छिप जाता है
यह आग के साथ नाइंसाफी है और मरे जिस्मों के साथ भी
इसके बाद वे हाथ धोते हैं और कहते हैं – अब उठ जाओ, पर्दा गिर चुका है
हम उठते हैं
घर की तरफ आते हुए लगता है
अब दूसरा अंक है

बदसूरती क्या कहेंगे इसे
जो है यही है
कीचड़ पर रखी ईंट से गुज़रते पैर
और इसका फ़िल्मी रूपांतरण
मैंने मान लिया है
हमें कोई भी देख सकता है
उजाले में और अँधेरे में भी
भीतर से बाहर से और मना कर सकता है पहचान से
मुझे रश्क है रास्ता काटने वाली बिल्ली से
और सख्त खाल के साथ पैदा होने वाली नस्ल से
फ़ाक़ाज़दा पेट गुनाह की फ़हरिश्त से बाहर है
उल्लू की आवाज़ बाहर है
और बाहर है नाइट शो का रंगीन कलाकार
हम बीच में हैं
प्यार करने न करने की कोशिश में
और यहीं कहीं हैं अधमरी चिड़िया के टूटे छितरे पंख।


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