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सिमोन का सवाल: क्या हर स्त्री मां बनना चाहती है?

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कल हम लोगों ने जानकी पुल पर लकी राजीव की एक कहानी पढ़ी ‘शर्बत’ जिसके केंद्र में मातृत्व था आज सिमोन के हवाले से मातृत्व को लेकर यह लेख पढ़िए जिसको लिखा है युवा शोधार्थी उर्मिला चौहान ने। उर्मिला चौहान असम विश्वविद्यालय के दीफू परिसर में पीएचडी कर रही हैं। स्त्री विमर्श में गहरी रूचि। यह उनका कहीं भी प्रकाशित होने वाला पहला लेख है। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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उर्मिला चौहान

फ्रेंच लेखिका सिमोन द बोउवार स्त्रीवादी विमर्श में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। उनके स्त्री संबंधी विचारों पर व्यापक चर्चा हुई है, लेकिन यह चर्चा अधिकतर एक युवा स्त्री के शरीर और मन से संबंधित उनके विचारों तक ही सीमित रही है। जबकि, सिमोन ने मातृत्व के मुद्दे को भी गहराई से समझने और विश्लेषण करने का प्रयास किया है। उन्होंने मातृत्व को न केवल जैविक प्रक्रिया के रूप में देखा, बल्कि इसे सामाजिक, मानसिक और अस्तित्वगत संदर्भों में भी विश्लेषित किया है

उनकी बहुचर्चित पुस्तक की पुस्तक “द सेकेंड सेक्स” (1949) स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि स्त्रियों की स्थिति विश्वभर में लगभग समान रही है।  सिमोन न केवल स्त्रियों की परिस्थितियों की पर्यवेक्षक हैं, बल्कि स्वयं एक स्त्री होने के कारण उन अनुभवों की भागीदार भी रही हैं। हिंदी में इसका अनुवाद प्रभा खेतान ने किया है, जिसका शीर्षक है ‘स्त्री: उपेक्षिता’। इस पुस्तक के दो खंड हैं—पहले खंड में स्त्री के जैविक, ऐतिहासिक और सामाजिक पक्षों पर चर्चा की गई है, जबकि दूसरे खंड में आधुनिक स्त्री की दशा को विस्तार से विश्लेषित किया गया है। इसमें विवाह, मातृत्व, सामाजिक जीवन, वृद्धावस्था और स्त्री की नियति जैसे विषयों पर विचार किया गया है। सिमोन ने मातृत्व को स्त्री की परनिर्भरता का मूल कारण माना है। उनका कहना है कि प्रजनन की क्षमता स्त्री में तो थी, पर पुरुष में नहीं, और यही विशेषता स्त्री के दासता के मूल में थी।

स्त्रीत्व और मातृत्व: क्या मां बनना ही स्त्री की नियति है?

बचपन से ही लड़कियों को यह सिखाया जाता है कि मातृत्व उनका परम कर्तव्य है। समाज स्त्री के जीवन को तभी सार्थक मानता है, जब वह मातृत्व को स्वीकार करे। इस परंपरा के कारण स्त्री का स्वयं का शरीर और उसकी इच्छाएँ गौण हो जाती हैं। गर्भधारण का अनुभव हर स्त्री के लिए भिन्न होता है—कुछ इसे गर्व और आनंद से स्वीकार करती हैं, तो कुछ के लिए यह एक भय और दुविधा का विषय बन जाता है। कुछ स्त्रियों को बार-बार गर्भधारण में सुख का अनुभव होता है, तो कुछ इसे बोझ समझती हैं।

संतान और स्त्री: प्रेम, स्वतंत्रता, सुरक्षा और स्वार्थ की उलझन

मां और संतान का संबंध जटिल होता है। मां कभी अपने बच्चे को अपनी संपत्ति के रूप में देखती है, तो कभी उसके प्रति गहरे प्रेम और दायित्व का अनुभव करती है। मातृत्व स्त्री के जीवन में विरोधाभास भी पैदा करता है—वह अपने बच्चे की रक्षा के लिए समर्पित रहती है, लेकिन कभी-कभी वही संतान उसे बोझ लगने लगती है। स्त्रियां अपने बेटों और बेटियों के प्रति अलग-अलग दृष्टिकोण रखती हैं। अक्सर पुत्र को पौरुष के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, जबकि पुत्री के प्रति मां का रवैया मिश्रित होता है—कभी वह उसमें अपना प्रतिबिंब देखती है, तो कभी उसे अनुशासित करने की कोशिश करती है।

सिमोन के अनुसार, कई बार मातृत्व के कारण स्त्री के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाता है। वह अपने स्वयं के सपनों, आकांक्षाओं और स्वतंत्रता को त्यागने पर मजबूर हो जाती है। एक मां होने के नाते, समाज उस पर जो अपेक्षाएँ लादता है, वे उसे एक संपूर्ण स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में विकसित होने से रोकती हैं। मातृत्व का अनुभव स्त्री को आत्ममुग्धता और आत्मत्याग के बीच झुलाता रहता है।

समाज और मातृत्व: आदर्श मां की परिभाषा किसने तय की?

समाज ने मातृत्व को स्त्री की स्वाभाविक नियति के रूप में स्वीकार किया है, और इसी कारण स्त्रियों के अन्य संभावित योगदानों को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। मातृत्व को त्यागने वाली स्त्रियों को कठोर आलोचना झेलनी पड़ती है। सिमोन इस तथ्य की ओर इशारा करती हैं कि मातृत्व को स्त्रियों पर एक सामाजिक दायित्व के रूप में थोपा गया है, जिससे वे स्वयं को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त नहीं कर पातीं। यह उनके अस्तित्व को सीमित कर देता है।

त्याग की कीमत कितनी बड़ी?

बच्चों के पालन-पोषण में मां का बहुत कुछ निचुड़ जाता है। कई बार स्त्रियां बार-बार गर्भधारण करने से भावनात्मक रूप से शुष्क हो जाती हैं। सिमोन के अनुसार, मातृत्व एक जटिल मिश्रण है—यह आत्ममुग्धता, परोपकारिता, यथार्थ और आडंबर का संयोजन है। स्त्री की सामाजिक स्थिति का संदर्भ देते हुए सिमोन कहती हैं कि घर के कामकाज, संतान उत्पत्ति और साथ ही आकर्षक बने रहना स्त्री के लिए बहुत कठिन होता है। कई स्त्रियां इस संघर्ष में मातृत्व से ही उदासीन हो जाती हैं।

मातृत्व केवल एक जैविक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि इसका सामाजिक और मानसिक प्रभाव भी होता है। स्त्रियों को एक अच्छी मां बनने के लिए बलिदान की मूर्ति बनने को कहा जाता है। वे अपने स्वास्थ्य, करियर और व्यक्तिगत इच्छाओं को त्यागने पर मजबूर हो जाती हैं। यह उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डालता है, क्योंकि समाज उनसे एक आदर्श मां बनने की अपेक्षा करता है।

मातृत्व और वृद्धावस्था: जब संतान अपने रास्ते चली जाती है

वृद्धावस्था में पहुंचकर, जब स्त्री मातृत्व की ऊष्मा खोने लगती है, तब भी वह जीवन को पुनः सृजित करने की आकांक्षा से भरी रहती है। कई स्त्रियां वृद्धावस्था में खालीपन का अनुभव करती हैं, क्योंकि उनका संपूर्ण जीवन बच्चों की देखभाल और पालन-पोषण में बीत गया होता है। जब बच्चे बड़े होकर स्वतंत्र हो जाते हैं, तो मां को अपनी पहचान की पुनः खोज करनी पड़ती है।

सिमोन का विश्लेषण मातृत्व के हर पहलू को छूता है—यह न केवल स्त्री के शरीर और मन पर प्रभाव डालता है, बल्कि उसके अस्तित्व और स्वतंत्रता की अवधारणा को भी प्रभावित करता है। यह विचार करने योग्य है कि क्या मातृत्व सच में स्त्री के अस्तित्व का सार है, या फिर यह एक सामाजिक संरचना है, जिसे बदला जाना चाहिए?

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(उर्मिला चौहान असम विश्वविद्यालय के दीफू परिसर में पीएचडी कर रही हैं)

संपर्क:
उर्मिला चौहान
मोबाइल: 6002738959
ईमेल: chauhanurmila691@gmail.com

   


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