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सीरज सक्सेना से प्रभात रंजन की बातचीत

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आज प्रस्तुत है चित्रकार, सिरेमिक कलाकार सीरज सक्सेना से मेरी बातचीत। समकालीन कलाकारों में कला माध्यमों, रूपों को लेकर जितने प्रयोग सीरज ने किए हैं उतने शायद ही किसी कलाकार ने किए हों। कविताओं से उनका जुड़ाव मुझे विशेष रूप से आकर्षित करता है। यह बातचीत कविता और कला के रिश्तों को लेकर ही है। आप भी पढ़ सकते हैं- प्रभात रंजन

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1 प्रश्न- कविता और कला के रिश्ते को आप किस तरह देखते हैं?

सीरज -कविता और कला दोनों ही के साथ से मनुष्य अपनी संवेदनाओं को अपने भीतर से प्रवाहित कर दोनों माध्यमों में व्यक्त कर अन्य तक पहुंचता रहा है। कविता और कला दोनों ही तरफ़ कुछ समान बिंब हैं। जैसे कविता कम शब्दों में एक गहरा विचार या बात कहती है तथा दोनों ही हमें अपने-अपने भाषा व्यवहार के रचनात्मक प्रयोगों व कृत्य से चमत्कृत भी करते हैं। भाषा को उसके व्याकरण उपयोग से बाहर कला और कविता ही ले जाती है और इसी से नवोन्मेष की संभावना भी बनती है। मनुष्य को दोनों ही कुछ लयात्मक भी बनाते हैं और मनुष्य के लयात्मक होने का आभास और उसकी संभावनाओं की ओर देखने को प्रेरित भी करते हैं कला और कविता। कविता और कला का रिश्ता भी पुराना है कई चित्रकारों ने भी कविता प्रेम को अपनी कृतियों के माध्यम से व्यक्त किया है।

 

2 प्रश्न- आप ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने कविताओं को अपनी कलाकृति के स्पेस में रखा है। बहुत कम कलाकारों ने ऐसा किया है। मुझे रज़ा साहब का नाम ध्यान आता है। कविताओं के प्रति यह आकर्षण आपमें कब शुरू हुआ और आपने उसको अपने कला माध्यम से कब से जोड़ना शुरू किया? 

सीरज- कविता का मेरे जीवन में प्रवेश कुछ देर से हुआ। हालाँकि रामचरित मानस की चौपाइयों और दोहो का आनंद लेना लड़कपन में यानी स्कूली जीवन में शुरू हो गया था और कला अध्ययन के दौरान जब कविताएँ पढ़ना शुरू हुआ तो मैं कविता में व्यक्त होते भाषा के जादुई सम्मोहन से बच नहीं पाया। शुरुआत में मैंने श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल, नरेश मेहता आदि कवियों को पढ़ा। फिर कुंवर नारायण, नरेश सक्सेना, चंद्रकांत देवताले आदि को पढ़ा कुछ युवा कवि मित्रों को भी पढ़ता हूँ।

भारत भवन में पहली बार अपने माध्यम सिरेमिक(चीनी मिट्टी) सतह पर मैंने कुछ कवियों की कविताएँ अंकित (लिखीं) की थी। ये कवि हैं अशोक वाजपेयी, अज्ञेय, जगदीश स्वामीनाथन, ध्रुव शुक्ल, श्रीकांत वर्मा, उदयन वाजपेयी व शिरीष ढोबले। कविता जब चित्र सतह पर लिखी जाती है तब चित्र सतह पर रंग, रूप और आकार के साथ शब्द और उनके अर्थ कृति को एक काव्यात्मक लय प्रदान करते हैं – ऐसी अनुभूति देखने से होती है।

लिखित शब्द या पंक्ति को चित्र या शिल्प में उसकी दृश्य अस्मिता के साथ भी देखना चाहिए। लिखी जाने के बाद कविता का एक रूप भी निर्मित होता ही है पर आमतौर पर उसके ऊपर ध्यान नहीं जाता। मेरे लिए कविता पंक्ति चित्र या शिल्प की सतह पर एक रेखा की तरह भी काम करती है। चित्र में उस पंक्ति को कहाँ और कितना छोटा या बड़ा लिखा जाना है यह भी एक महत्त्वपूर्ण निर्णय होता है। चित्र और कविता का साथ हमारी चित्र परंपरा में पुराना है। अगर आप लघु चित्र (मिनिएचर चित्र) देखें तो कितनी ही समृद्ध कला शैलियों में ये चित्र आप देख सकते हैं जिनमें चित्र और शब्द साथ साथ हैं। उन चित्रों में हाशिए को विशेष तौर पर बनाया जाता था और उस पर उस चित्र का शाब्दिक वर्णन या कविता लिखी जाती थी। एम एफ हुसैन के कुछ रेखांकन विशेष रूप से देखने चाहिए जिन पर उन्होंने अपनी कविता लिखी है।

अपने चित्रों में मुझे कविता की उपस्थिति अच्छी लगती है। मैं नरेश सक्सेना और चंद्रकांत देवताले जी की कविताएँ भी अपने चित्र सतह पर उकेरना चाहूँगा।

 

3 प्रश्न- कुंवर नारायण की कविताओं को लेकर आपने अनेक माध्यमों में काम किया है। उनकी कविताओं के प्रति आपका आकर्षण कब से हुआ?

सीरज- कुंवर जी की कुछ बड़ी तस्वीरें भारत भवन भोपाल की पुस्तकालय के बाहर दीवारों पर लगी थीं जिन्हें मैं आते जाते लगभग प्रति दिन देखता रहता था। यह बात चौरानवे के बाद की है जब सिर्फ़ फिल्मी सितारों की बड़ी तस्वीरें ही जन स्थानों पर नज़र आती थीं। उन बड़ी तस्वीरों को देख मेरे मन में कुँवर जी की एक बड़ी छवि बन गई थी। जबकि मैं उस वक्त उनकी कविताओं के बारे में नहीं जानता था सिर्फ़ उनकी आदमकद बड़ी श्याम श्वेत तस्वीरें देख ही मैं उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो गया था। उनकी कविताओं के पास मैं कुछ देर से पहुँचा। उनकी कविताएँ मुझे सच लगती हैं उनकी कविता और कविता पंक्तियों पर भरोसा या यक़ीन करने का मन होता है। जब अपने जीवन यापन के लिए दिल्ली आना हुआ तब कुँवर जी से भी मिलना हुआ उनका सरल सहज व्यक्तित्व का प्रभाव मुझ पर पड़ा। भारती जी का भी स्नेह मुझे मिलने लगा। कुंवर जी को मेरे चित्र और शिल्प भी पसंद थे। उनके पुत्र अपूर्व से भी मित्रता हुई। अब जिस कवि को मैं पसंद करने लगा था उसके नज़दीक उसे पढ़ते लिखते देखने का भी अवसर मुझे मिला। कुँवर जी का स्नेह खूब रहा। फिर कुंवर जी का पोलेंड देश से भी एक लंबा रिश्ता रहा है और २०१४ से मैं भी पोलैंड अपनी कला यात्राओं पर जाता रहा हूँ। उनकी कविता को पॉलिश भाषा में देखना भी मेरे लिए एक रोमांचित करने वाला अनुभव है। पोलैंड यात्रा पर मैं अपने पॉलिश कलाकार मित्रों को पॉलिश में अनूदित कुंवर जी की कविता पढ़ने के लिए कहता और फिर उस कविता पर वे अपनी बात कहते। कुंवर जी की कविता में मनुष्यता का एक नैसर्गिक आग्रह है। वे आम जीवन, ऋतुओं या आसपास घटने वाली घटनाओं को कवि के रूप में उतना नहीं जितना एक साधारण आदमी या मनुष्य तरह व्यक्त करते थे। कई बार उनके बात कर या पढ़ते वक्त महसूस होता है कि वे अपने कवि(पन) को छुपाने की या मुखरता से न प्रस्तुत करने की आवश्यक कोशिश करते हैं। उनकी सादगी और कविता में सच के बहुत करीब रहने की अदा या कल्पनाशीलता को सच के इतने करीब रख पाने का हुनर मुझे प्रभावित करता है।

 

4 प्रश्न- कुंवर जी की कविताओं में आपको क्या बात आकर्षित करता है?

सीरज- जैसा कि मैं पिछले प्रश्न में कह चुका हूँ की कुँवर जी की कविता में उनका एक साधारण जन की आँखों से देखना महत्त्वपूर्ण है और कुछ पंक्तियों में उनका यह देखना व कहना अचंभित करता है। यह अचंभा एक साधारण बात से उपजता है जैसे कि उनकी एक पंक्ति है –
पत्तों पर पानी गिरने का अर्थ
पानी पर पत्ते गिरने के अर्थ से भिन्न है।
अब यह पंक्ति पढ़ते ही सबसे पहले एक दृश्य रचती है और यह दृश्य यकीन करने वाला दृश्य बन जाता है। यहाँ यह साधारण बात भी कविता में आते ही महत्त्वपूर्ण हो जाती है। और इस महत्त्व पर आस्था से यकीन करना मुझे सहज लगता है।
कुँवर जी एक कविता है – पानी की प्यास
उसकी पहली पंक्ति ही पूरी कविता में एक अचंभे के साथ पाठक को प्रवेश कराती है यह पंक्ति है-
धरती में प्रवेश करती
पानी की प्यास

इसी तरह एक कविता है – मेरा घनिष्ठ पड़ोसी
यह कविता भी अपनी पहली दो पंक्तियों से यकीन करने वाला एक अचंभा हमारे सामने रखती है, हमसे कहती है

मेरा घनिष्ठ पड़ोसी है
एक पुराना पेड़
या
नदी बूढ़ी नहीं होती।

भाषा के प्रति संवेदनशील कोई भी हिंदी पाठक इस कविता  पंक्ति पर आस्था और भरोसा रख सकता है। और इसके लिए उसे कहीं जाने की जरूरत नहीं है। वह चाहे नगर का हो या गाँव का, उसे अपनी कल्पनाशीलता के घोड़े भी दूर तक दौड़ाने की जरूरत नहीं बस भाषा और एक पेड़ जो उसी का पेड़ है उसे सोचना और पेड़ की अपनी स्मृति को सतह पर लाना भर है। यहाँ उनके भाषा, शिल्प, विचार और कल्पना वह भी इतनी यथार्थ कि उस पर यकीन किए बगैर आप कविता में प्रवेश नहीं कर सकते। यह उनकी मौलिकता है और यही आकर्षण भी है।
कुँवर जी के देखने और उस देखे हुए अनुभव को वे इतने कम शब्दों में जिस सादगी से पेश करते है यह महत्त्वपूर्ण है। कुछ मेरी प्रिय कविता पंक्तियाँ में यहाँ उल्लेखित करता रहूँगा जैसे-
ऐतिहासिक भर होते हैं नगर
प्रागैतिहासिक होता है वन
यह कविता पंक्ति क्या हमे इस पर यकीन करने का विनम्र आग्रह नहीं करती?
कुँवर जी की कविता न सिर्फ़ हमे उत्साही, अचंभित करती है बल्कि हमें  आत्मविश्वासी होने का भी यकीन दिलाती है। मसलन इस कविता पंक्ति में आप देखिए जो कहा गया है –
कोई दुःख
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं-
वही हारा
जो लड़ा नहीं
या
कोई आदमी मामूली नहीं होता।

एक ही कविता में होती है
कई कई कविताएँ
जैसे एक ही जीवन में
कई जीवन

और इस बात पर भी इसीलिए यकीन होता है कि
“कविता वक्तव्य नहीं गवाह है“।
वे कहते हैं –
“कविता एक उड़ान है चिड़िया के बहाने”
यहाँ वे कविता को एक चिड़िया की तरह मानते है जिस पर कोई भार नहीं है न ही किसी तरह की परतंत्रता है।
दूसरी पंक्ति में वे ही कहते है –
“कविता की उड़ान भला चिड़िया क्या जाने”
कविता को चाहिए चिड़िया और उसकी उड़ान, पर चिड़िया को कविता की कोई बाध्यता नहीं है वह अपने आकाश में स्वतंत्र है।
“हँसी भी एक तरह की निकटता है”

प्रकृति पर कुंवर जी का यकीन और आस्था भी मुझे भाती है। जब वे लिखते है- उसी ओर से उगेगा सूर्य
आशा से देखते हैं जिधर
वृक्षों के शिखर

प्रेम के बारे में भी कुँवर जी जो महसूस करते हैं लिखते हैं वह भी मुझे आकर्षित करता है-
एक शून्य है
मेरे और तुम्हारे बीच
जो प्रेम से
भर जाता है।

कभी कभी एक फूल के खिलते ही
उस पर मुग्ध हो जाता है पूरा जंगल

एक संवेदनशील कलाकार व भाषा के प्रति सजग होने की ही वजह से मैंने कुँवर जी तथा अन्य कवियों की कविताएँ इसी आकर्षण की वजह से अपनी कृतियों में शामिल की हैं कि भाषा के पास सिर्फ़ शब्द होते हैं वो हमे इस सीमित (अन्य रचना माध्यमों की तुलना में) दायरे में भी कितना कुछ रच देती है। और हम एक बेहतर मनुष्य बन पाते हैं।
कुँवर जी के ही शब्दों में अगर कहूँ तो उनसे मिलने, उनका स्नेह पाने को मैं इस तरह व्यक्त करूँगा –
कितना ऐतिहासिक लगता है तुमने मिलना
उस दिन।

5 प्रश्न- अभी हाल में ही आप इंदौर में कवि चंद्रकांत देवताले जी की जयंती पर आयोजित प्रदर्शनी में शामिल थे। देवताले जी की कविताओं में आपको क्या बात प्रभावित करती है?

सीरज- जी हाँ ७ नवंबर इंदौर के जाल सभागृह में चंद्रकांत देवताले जी को उनके अनूठे व रचनात्मक ढंग से याद किया है। उनकी स्मृति में आयोजित इस कार्यक्रम का आयोजन व परिकल्पना उनकी वायलिन वादक बेटी अनुप्रिया जी ने की थी। इस कार्यक्रम में इंदौर के कवि आलोक वाजपेयी ने देवताले जी की कविताओं का पाठ किया, अनुप्रिया जी ने वायलिन बजाया व मैंने वहीं मंच पर ईज़ल पर कैनवास रख लाईव चित्र बनाए। संगीत दिल्ली के होनहार युवा संगीतकार जीवेश जी ने रचा था। मंच संचालन जयश्री पिंगले जी ने किया था। विशेष बात यह है कि हम चारों ही देवताले जी को अपने अपने निजी कारणों से उन्हें पसंद करते है और  उनसे हम सभी की निजी मित्रता रही है। उनकी कविता हमारी मित्रता का सेतु है।
कविता और संगीत के साथ एक ही मंच पर चित्रकारी का यह एक अनोखा संगम रहा। चंद्रकांत जी को उनके जन्मदिवस पर याद किया गया था।
मैं चंद्रकांत जी से इंदौर, भोपाल और दिल्ली में मिल चुका हूँ और इनके सहज सरल और बालमना स्वभाव आकर्षक और प्रभावित करने वाला था। उनके स्वभाव में हँसी ठिठोली रंजित थी इसी वजह से युवा मित्र भी उनकी मित्रमंडली में शामिल थे। उनकी कविता यथार्थ की कविता  लगती है। उनके इस यथार्थ का एक प्रमुख अंश है आसपास घट रही जीवनलीला को न सिर्फ़ कवि दृष्टि से देखना बल्कि उसमे शामिल होने का अवसर वे नहीं गँवाते थे। रसोई में भी उनका आधिकारिक दखल था। उन्हें भोजन बनाना व मित्रों को खिलाना बहुत पसंद था। रसोई से उनकी निकटता का ही यह प्रताप जान पड़ता है कि उनकी कविता में यथार्थ जीवन का एक विशेष प्रकार का तड़का है। उनके व्यवहार की तरह सहजता उनके लेखन में भी शामिल है।
“जब में प्रेम करता हूँ अपने से
अच्छा लगता है पानी का दरख़्त
और मेरे भीतर से उछलकर कुछ बीज
प्रवेश करते हैं शब्दों के भीतर।”

इस कविता में जो पानी का दरख़्त है यही इंदौर में हुए उस आयोजन का शीर्षक था।

“मेरे होने के प्रगाढ़ अंधेरे को
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम
अपने देखने भर के करिश्मे से।”

ये रंग हैं देवताले जी के, उनकी कविता के यही रंग मुझे आकर्षित करते हैं।

6 प्रश्न- आपने स्वयं कविताएँ लिखी हैं?

सीरज -जी मैंने भी जब भाषा का महत्व कविताओं और अन्य साहित्य से पाया। कुछ लिखने की कोशिश की है। मन में आए कुछ ख़याल, कुछ दृश्य भी प्रभावित करते हैं, जिन्हें देखने के बाद कुछ लिखने का मन करता है तथा कभी कुछ संवेदनशील अनुभूति भी लिखवा लेती है। लिखना अपने अनुभव को भाषा में दर्ज करने का भी एक नायाब ढंग है।
अपनी कुछ पुरानी कविताएँ जब मैं अभी पढ़ता हूँ तो नई कविताएँ लिखने की प्रेरणा मिलती है। कविता जब कविता का मन होता है तभी मेरे काग़ज़ के रनवे पर उतरती है। कविता में बना हुआ जीवन मुझे अच्छा लगता है और जीवन जो कविता रचता है वह भी रोचक, रोमांचित और आश्चर्यचकित करने वाला होता है। अगर जीवन में कविता न हो तो जीवन रचित कविता किसी हुबहू बने इलस्ट्रेशन सी लगेगी। मेरे हिस्से जितनी कविता आती है वह भी एक ख़ूबसूरत तोहफ़े की तरह है। कविता के बग़ैर जीवन की कल्पना भी करना नीरस लगता है। कविता का साथ भाषा का साथ है। कविता में आकर भाषा भी अपना पूर्ण रूप पाती है वरना हम देखते हैं कि बाज़ार भाषा का इस्तेमाल अपने उत्पाद बेचने के लिए कितने रचनात्मक ढंग अपनाता है।


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