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इरशाद ख़ान सिकन्दर की पाँच ग़ज़लें

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समकालीन शायरों में इरशाद ख़ान सिकन्दर का लहजा सबसे अलग है। सादा ज़ुबान के इस गहरे शायर का नया संकलन आया है ‘चाँद के सिरहाने लालटेन’राजपाल एंड संज प्रकाशन से प्रकाशित इस संकलन की चुनिंदा ग़ज़लें पेश हैं- प्रभात रंजन

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1

शीशे में साज़िशों के उतारा गया हमें
चारों तरफ़ से घेर के मारा गया हमें

सारे अज़ीम लोग तमाशाइयों में थे
जब इक अना के दाँव पे हारा गया हमें

गोया कि हम भी आगरे से आये हों मियाँ
पहले-पहल तो ख़ूब नकारा गया हमें

ख़ुश होइए कि रोइए महफ़िल में यार की
जब लौट आये हम तो पुकारा गया हमें

ये कोई इत्तिफ़ाक़ नहीं जान-बूझकर
उनकी गली से आज गुज़ारा गया हमें

2

आब होते हुए भी ख़ाक उड़ाने लगना
ठीक होता नहीं दरिया का ठिकाने लगना

शाहज़ादों के लिए खेल हुआ करता है
किसी लट्टू की तरह सबको नचाने लगना

आख़िरी बार गले मिलते हुए बोला वो
अब न जीते जी किसी और के शाने लगना

जोश में होश न खो देना मिरे तीर-अंदाज़
इतना आसाँ नहीं मौक़े पे निशाने लगना

रास्ते, हमने सुना बन्द नहीं होते हैं
बन्द खिड़की से ही आवाज़ लगाने लगना

दुख की सुहबत में पले और ये सीखा हमने
कारआमद है बहुत नाचने-गाने लगना

दश्त में जाँय जुनूँ करते हुए मर जाएँ
हम दिवानों का ज़रूरी है दिवाने लगना

अब जो तैराक हुआ हूँ तो खुला है मुझपर
इश्क़ दरिया का मुझे रोज़ बहाने लगना

3

ये नया तज्रिबा हुआ है मुझे
चाँद ने चूमकर पढ़ा है मुझे

अपनी पीठ आप थपथपाता हूँ
इश्क़ पर आज बोलना है मुझे

देखिये क्या नतीजा हाथ आये
वो गुणा-भाग कर रहा है मुझे

मुझको जी भर के तू बरत ऐ दिन
शाम होते ही लौटना है मुझे

आपका साया भी  वहीं उभरा
रौशनी ने जहाँ लिखा है मुझे

आँसुओं की ज़मीं हुई ज़रखेज़
ज़ख़्म अब काम का मिला है मुझे

देखना ये है वक़्त का बनिया
किस तराज़ू में तोलता है मुझे

क्या कोई आठवाँ अजूबा हूँ
क्यों भला शह्र घूरता है मुझे

ऐसे में जबकि सो रहे हों सब
फ़र्ज़ कहता है जागना है मुझे

अब हुआ वस्ल चुटकियों का खेल
इस क़दर हिज्र ने गढ़ा है मुझे

4

पानी की शक्ल में कोई वहमो-गुमाँ न हो
पानी के पार देखिए जलता मकाँ न हो

मज़बूत इस क़दर है तिरे इश्क़ की गिरफ़्त
मुमकिन है दिल के शह्र का क़िस्सा बयाँ न हो

शहरे-जदीदियत में नये इंक़लाब से
कटकर गिरी है जो वो हमारी ज़बाँ न हो

ईजाद कर चुके हैं तरक़्क़ी-पसंद लोग
वो आग! जिसमें सिर्फ़ लपट हो धुआँ न हो

जबसे किया है मस्जिदे-वीराँ का इंतिख़ाब
दिल मस्त है नमाज़ में हो या अज़ाँ  न हो

उसने कहा ये देखिये नद्दी है लाल क्यों
मैंने कहा कि आगे कोई दास्ताँ न हो

उसने कहा ज़रूर यहीं से गये हैं वो
मैंने कहा ये राज़ किसी पर अयाँ न हो

कल शब कहीं से आई सदा चीख़ती हुई
वो घर भी कोई घर हुआ जिस घर में माँ न हो

दरिया-ए-इश्क़ कर नहीं सकता कोई पहल
जब तक कि दोनों डूबने वालों की हाँ न हो

5

तीर है तरकश में केवल इक और निशाने दो
अब भी वक़्त है दीवाने को आगे आने दो

मैंने देखा चाँद मगर दुनिया ने देखे दाग़
यार है बात मज़े की लेकिन छोड़ो जाने दो

वो ऐसा है… एक हमारे अंदर है पैवस्त
ये अंदर की बात है प्यारे एक के माने दो

तीन का तेरह करने ही में उम्र गुज़रती है
जब आपस में मिल जाते हैं डेढ़ सयाने दो

साक़ी भी हैरान है आख़िर क्यों तन्हाई में
एक शराबी बैठा है लेकर पैमाने दो


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