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यतीन्द्र मिश्र से प्रभात रंजन की बातचीत

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यतीन्द्र मिश्र को हाल के वर्षों में हम ‘लता सुरगाथा’, ‘गुलज़ार साब’ जैसी किताबों से जानने लगे हैं। लेकिन वे मूलतः कवि हैं। लेकिन इस बार उनका कविता संग्रह तेरह साल के अंतराल पर आया है- ‘बिना कलिंग विजय के’। इसी संग्रह के बहाने यतीन्द्र से मैंने उनकी कविताओं और हिन्दी कविता के वितान को लेकर यह बातचीत की है। आप भी पढ़ सकते हैं- प्रभात रंजन

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प्रभात– आप मूलतः कवि हैं और हम जैसे लोगों ने आपको आपकी कविताओं से ही जाना-पहचाना, लेकिन नया कविता संग्रह इतने सालों बाद क्यों आया? ऐसा लगा जैसे आपने कविता को वनवास दे दिया हो और 14 सालों बाद नया संग्रह वनवास पूरा करके आया हो?

यतीन्द्र– यह सही है कि मैंने कविता लिखने से ही अपने रचनात्मक जीवन की शुरुआत की थी और 1997 में ‘यदा-कदा’ कविता-संग्रह प्रकाशित हो गया था, जिसे आज छब्बीस सालों बाद पलटकर जब देखता हूँ, तब ख़ुद पर हँसी आती है कि थोड़ा रुककर और धैर्य के साथ पहला संग्रह प्रकाशित करना चाहिए था। उस संग्रह के आने की बस एक खुशी यही है कि मेरी दादी विमला देवी जी उस वक्त जीवित थीं और इस दुनिया से जाने से पहले एकमात्र यही संग्रह वे देख पायीं। मेरे लिए ये किसी बड़े पुरस्कार की तरह है कि वे यह जान सकीं कि उनका पोता लेखक बनने जा रहा। बाद में, कुँवर नारायण जी की सोहबत में धैर्य से लिखना-पढ़ना आया। एक तरह से अपने को व्यवस्थित करने का जो सलीका मैंने पाया, वह उन्हीं की देन है। आप जानते ही हैं कि अब मैं अपनी एक-एक किताब में सालों का वक्त लगाता हूँ, क्योंकि उसे ठीक से लिखने और बरतने में लम्बे कालखण्ड में उसकी प्रक्रिया को जीना पसन्द करता है।

    यह भी सही बात है कि ‘विभास’ संग्रह के आने के क़रीब तेरह साल बाद ‘बिना कलिंग विजय के’ प्रकाशित हुआ। इसमें कोई सायास अन्तराल करने की कोशिश नहीं थी, कविताएँ तो लिखता रहा था अपनी ही धीमी गति से, मगर उन्हें प्रकाशित करने का मन नहीं बन रहा था। हालाँकि इस बीच कथेतर गद्य की ढेरों पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें काफ़ी समय लगा। आज इस बात की मन में थोड़ी सी खुशी है कि नये संग्रह तक आते हुए मैंने धैर्य के साथ अपनी कविताओं को तराशा और फिर पाठकों तक उन्हें पहुँचाया है।

प्रभात– ‘बिना कलिंग विजय के’ पढ़ते हुए एक सवाल मन में कौंधा कि आपकी कविताओं ने आपके कला-संगीत विषयक लेखन को और कला-संगीत विषयक लेखन ने आपकी कविताओं को किस तरह से प्रभावित किया है?

यतीन्द्र– कभी इस प्रयास के तहत कविताएँ नहीं लिखीं कि उनमें संगीत विषय की तरह प्रवेश करे… मगर यह आपके देखने में उचित ही आया है कि अधिकतर कविताओं में संगीत का कोई प्रत्यय, किसी रागिनी की कोई पुकार, किसी बन्दिश की टेक या सुर से सम्बन्धित शब्दावलियाँ आ जाती हैं। शायद मेरी बनावट ही ऐसी है कि उसमें संगीत रचा-बसा है। कई दफ़ा कोई राग अपने वितान में इतना मोहक लगता है कि चाहकर भी उस पर कोई सुचिन्तित टिप्पणी करने या निबन्ध लिखने की जगह कविता हो जाती है। हालाँकि मुझे लगता है कि रागों पर मुझे गम्भीर ढंग से काम करना चाहिए और एक पूरी व्यवस्थित पुस्तक लिखनी चाहिए, जिसमें बन्दिशों और रागिनियों पर चर्चा हो, मगर यह सब सिर्फ़ मन में बनती हुई योजनाओं की तरह है, जाने कभी पूरी भी होगी या नहीं? यह ज़रूर है कि कलाओं के छीजते और विपन्न होते जाते समाज में जहाँ कुडियाट्टम जैसी रंगनृत्य शैली या ध्रुपद जैसी महान परम्परा हाशिए पर जा रही है, उन पर सायास कविताएँ लिखी हैं कि इसी बहाने यहाँ यह सब दर्ज़ हो सके। ‘ड्योढ़ी पर आलाप’ में ‘कथकली का चेहरा’, ‘अष्टपदी’, ‘ग्रॉमोफ़ोन का पुराना रेकॉर्ड’, ‘विभास’ में ‘रावणहत्था’ जैसी कविताएँ संकलित हैं, तो नये कविता संग्रह में ‘राग बसन्त’, ‘गुर्जरी तोड़ी’, ‘मालगूँजी’ पर कविताओं के साथ ‘माँझे का गीत’, ‘माँड और अल्लाह जिलाईबाई’, ‘टप्पा और पाकिस्तान’, ‘फाग बँधाओ’ जैसी कविताएँ भी हैं, जिन्हें आप संगीत विषयक कविताओं के अन्तर्गत पढ़ सकते हैं।

प्रभात– आप स्वयं अपनी कविताओं को किस तरह देखते हैं?

यतीन्द्र– जैसे ख़ुद को आईने में देखता हूँ। सिर्फ़ कविताएँ ही नहीं, अपनी हर रचना को बहुत आत्मनिरीक्षण के साथ देखता हूँ। अयोध्यावासी हूँ, तो उसका भी एक असर है। जिस तरह यहाँ के लोगों का वीतरागी स्वभाव है, सब कुछ में लिप्त होकर उससे निरपेक्ष होकर रहने का मामला… उसी तरह अपनी रचनाओं को देखता हूँ। परम्परा, स्मृति, इतिहास, रिश्ते, आत्मीयता, घर-परिवार, सब कुछ छीजते जाने का भाव, इन सब को गहरी संलग्नता से देखता हूँ और उससे विरत बने रहने का भी प्रयास करता हूँ। …और एक बात आपको अपने मन की बताऊँ, कोई भी रचना या कृति पूरी होने और प्रकाशित होने के साथ ही, उससे न जाने कैसा मोहभंग हो जाता है कि मैं ख़ुद भी समझ नहीं पाता। इसी तरह जीवन चलता रहता है। मेरा प्रयास यही रहता है, थोड़ा भी दरक जाने के मामले को यदि सँभाल सकूँ, अपनी कलम, व्यवहार, रिश्ते और अपनापे से, तो वह मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।

प्रभात– हिन्दी में कविता की परम्परा सुदीर्घ रही है। आप कविता की इस परम्परा को किस तरह देखते हैं और किन कवियों से आप प्रभावित रहे?

यतीन्द्र– मुझे भक्तिकाल सर्वाधिक प्रभावित करता है और उसमें भी निर्गुणियों के प्रतिरोध की आवाज़ बहुत सुकून देती है। मेरे लिए मीराबाई का बहुत महत्त्व है और उनकी भाषा, भंगिमा, विचार और रागात्मकता में डूबा हुआ कृष्ण प्रेम बेहद लुभाता है। जब वे कहती हैं- ‘सन्त देख दौड़ आई, जगत देख रोई’ तो वह कहीं भीतर रिसने लगता है। तमाम सारे वाज्ञेयकार, जिसमें बख्शू नायक, तानसेन और रानी रूपमती जैसे लोग शामिल हैं, स्वामी हरिदास और वल्लभाचार्य की परम्परा- यह सब आत्मीय ढंग से लुभाते हैं और लिखने को प्रेरित करते हैं। एक दूसरे ही छोर पर मुझे गुरुनानक और कबीर भाते हैं। न जाने कितनी बार ‘गुरुग्रन्थ साहिब’ से कविताओं को पढ़कर मेरी आँखें भीगीं हैं।

आधुनिक कविता में आने से पहले मेरे सार्वकालिक प्रिय कवि जयशंकर प्रसाद हैं और उनकी ‘कामायनी’ मुझे अभूतपूर्व लगती है। शमशेर बहादुर सिंह की ‘टूटी हुई बिखरी हुई’, रघुवीर सहाय की ‘हँसो, हँसों जल्दी हँसो’, श्रीकान्त वर्मा की ‘मगध’, कुँवर नारायण की ‘कोई दूसरा नहीं’, केदारनाथ सिंह की ‘अकाल में सारस’ और अशोक वाजपेयी की ‘बहुरि अकेला’ मेरे प्रिय कविता संग्रह हैं। आलोक धन्वा की ‘दुनिया रोज़ बनती है’ और त्रिलोचन की ‘ताप के ताये हुए दिन’ मेरे अन्य पसन्दीदा संग्रह हैं। कुछ कविताएँ मन पर अमिट ढंग से अंकित हैं, जैसे- नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’, केदारनाथ अग्रवाल की ‘माँझी न बजाओ बंशी’, भारत भूषण की ‘राम की जल-समाधि’, अज्ञेय जी की ‘साम्राज्ञी का नैवेद्य दान’। महादेवी वर्मा की पीड़ा, अध्यात्म और रहस्य में डूबी हुई गीत-कविताएँ गहरा असर आज भी छोड़ती हैं। हिन्दी कविता के अलावा मुझे अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों का काम ऐतिहासिक स्तर का लगता है, जिनमें दिलीप चित्रे, अरुण कोलहटकर, शीतांशु यश्शचन्द्र, विन्दा करन्दीकर, रमाकान्त रथ और शंख घोष के अलावा पंजाबी के शिवकुमार बटालवी प्रमुख हैं। जयदेव का ‘गीत गोविन्द’ और भवभूति का ‘उत्तर रामचरितम्’ हृदय के बेहद निकट हैं।

प्रभात– यतीन्द्र जी गद्य में संगीत, सिनेमा, कला आपके प्रिय क्षेत्र रहे हैं और कविता में इतिहास और मिथक। दोनों के बीच को अन्तर्सम्बन्ध है क्या?

यतीन्द्र– इस तरह से मैंने कभी नहीं देखा। जब, जो रुचा और मुझे लगा कि बिना कुछ लिखे बग़ैर मुझे तृप्ति नहीं मिलने वाली, तो उस तरह से विषय निर्धारण होते चले गये। यह ज़रूर रहा कि मुझे हमेशा लगता था कि लता मंगेशकर जैसी महान पार्श्वगायिका के बारे में भी सुरुचिपूर्ण ढंग से गम्भीर साहित्यिक लेखन कम से कम हिन्दी भाषा में तो नहीं हुआ है। जो कुछ भी लिखा गया, वह मराठी या अंग्रेजी में ही हुआ। मैं आपसे पूछता हूँ, वह कौन से कारण रहे कि शास्त्रीय संगीत के दिग्गज गायक पण्डित कुमार गन्धर्व तो खुले मन से लता मंगेशकर की गायन-शैली पर पूरा निबन्ध लिखते हैं, मगर संगीत अध्येताओं या सिनेमा के विचारकों ने उन पर ऐसा काम क्यों नहीं किया? वे कौन से दबाव काम करते हैं, जिसके चलते हम लता मंगेशकर, बिस्मिल्ला ख़ाँ जैसे दिग्गज लोगों पर गम्भीरता से सोचने का काम नहीं करते? इसी सब के चलते मेरे गद्य में कथेतर विधाओं का प्रवेश हुआ। मैं विनम्रता से कहना चाहूँगा कि यह मेरी दृष्टि है, जिसके तहत मैंने कुछ गम्भीर रचने का प्रयास किया, बावजूद इसके मैं यह नहीं कह सकता कि मैं उसमें कितना सफल रहा।

    कविता लिखते समय भी छीजती हुई परम्परा पर मेरी निगाह रहती है। कलाओं में अन्तराल और चुप्पियाँ, इतिहास में वैभव और साम्राज्य पतन व युद्ध की विभीषिका से झाँकती हुई सच्चाई मुझे हमेशा हांट करते हैं। मैं सामाजिक टिप्पणियों और राजनीतिक आशयों वाली कविताएँ लिखने से परहेज करता हूँ, क्योंकि मैं जिस तरह से कविताएँ लिखता हूँ, वो मेरे शिल्प और विन्यास के लिए सटीक नहीं लगतीं। हालाँकि राजनीतिक सन्दर्भों और कुछ अन्तर्ध्वनियों वाली कविताएँ मुझे पसन्द आती हैं, जिसमें कविता का शिल्प और विचार की आभा सीधे नारा न बनती हो। कुँवर नारायण इस मामले में अप्रतिम लगते हैं।

प्रभात– संग्रह की शीर्षक कविता ‘बिना कलिंग विजय के’ संग्रह की अनेक सुन्दर कविताओं में से एक है। इस रूपक के बारे में कुछ बताएँ।

यतीन्द्र– ‘बिना कलिंग विजय’ का अर्थ मेरे लिहाज से यह कि आवश्यक नहीं कि इतने भीषण रक्तपात के बाद ही, एक पूरे साम्राज्य का अन्त करने और स्त्रियों, बच्चों को विलाप में छोड़ने के उपरान्त ही हृदय परिवर्तन किया जाए। मेरे लिए बिना किसी युद्ध, झगड़े, द्वेष या षड़यंत्र के भी एक अप्रतिहत जीवन जीने की प्रेरणा बेहतर लगती है। बिना युद्ध में जाए ही यदि हम युद्ध से दूरी बनाएँ और किसी पर विजय प्राप्त न करने की आकांक्षा को परे धरते हुए, ख़ुद की कमियों पर सफलता हासिल करें, तो शायद यही मनुष्य होने का मूल भाव है। यही इस कविता का रूपक है और शायद मेरी सारी कविताओं के अन्तर्मन की पुकार है।

प्रभात- किताब में ऐसी बहुत सी कविताएँ हैं, जिनमें हिन्दू मिथकों के पात्र हैं, प्रतीक हैं। हर कविता की एक कथा है। कुछ कविताओं में लोक-प्रचलित प्रतीक हैं। आपने इन विषयों को सायास चुना या अनायास आपकी कविताओं में ये विषय आ गये? ये इसलिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि आपकी कविताओं में यह बहुत बहुत बड़ा शिफ्ट है। इसके ऊपर जरा प्रकाश डालें।

यतीन्द्र– एक ज़रूरी सवाल है यह, क्योंकि मैं ख़ुद भी नहीं समझ पाया, जब मैंने पिछले एक दशक की कविताओं को एकत्र किया। कुछ अधूरी पड़ी थीं और कुछ पर लगातार काम करता रहा। संग्रह जब तैयार हो रहा था, तब अधिकांश कविताओं का पहला पाठ मित्र अम्बर पाण्डे ने किया। मुझे लगता था कि मिथकों और कथाओं, पुराणों के प्रतीक की ढेरों कविताएँ मैंने लिख डाली हैं और इनमें से कुछ ही संग्रह में जाएँ तो बेहतर हो। अम्बर पाण्डे ने और बाद में आशुतोष दुबे जी ने इस बात पर जोर डाला कि यह तुम्हारी कविताओं में एक बड़ा प्रस्थान है और इस तरह का चलन अब विरल होता जा रहा है। यह सारी कविताएँ ही संग्रह में जानी चाहिए, जबकि जिस तरह की कविताएँ मेरे पिछले संग्रहों में हैं, उनमें से भले ही कुछ को रोक दिया जाए। मुझे भी ठीक लगा और ख़ुद के लिए यह समझ में आया कि जब मैं ऐसी कविताएँ लिखता रहा हूँ और इन विषयों को उठाने में मुझे आनन्द आता है, तो भला इसे रोकना या अप्रकाशित रह जाने का क्या अर्थ है? ज़्यादातर कविताएँ सहज और अनायास ढंग से विकसित हुई हैं, जिन्हें मैंने इन दोनों मित्रों की हिदायत पर संग्रह में रखना ज़रूरी समझा। जहाँ तक मेरी बात है, एक बार आप कोई निबन्ध या गद्य का काम सायास या विषय चुनकर तो लिख सकते हैं, मगर कविता में कोई फॉर्मेट एडाप्ट करके लिखना मुझे नहीं आता। वह मेरा स्वभाव भी नहीं है।

प्रभात– एक कविता है ‘मन की सारंगी’ जिसमें आपने सारंगी वाद्य को मन के तार से जोड़ा है। संगीत और मनुष्य के मन के अन्तर्सम्बन्ध पर जरा कुछ बताएँ?

यतीन्द्र– सारंगी यहाँ एक रूपक भर है। आप ध्यान दें, तो पाएँगे कि मेरे संग्रह का अन्तिम खण्ड, जो मेरी माँ पर एकाग्र है, उसकी यह अन्तिम कविता है। दरअसल मुझे यह लगता है कि जो भी आपके जीवन में रहा है, ख़ासकर आपका स्वजन, उसके बिछोह का दुःख भी जीवन भर आपके भीतर कहीं संचित रहना चाहिए। यह नहीं होना चाहिए कि किसी प्रियजन की अनुपस्थिति समय विशेष के बाद धूमिल पड़ जाए। वो दुःख आपकी पूँजी है, नितान्त आपका अपना अर्जित एकान्त है, तो उसे सँभालकर जतन से उसी तरह रखिए, जिस तरह गाँवों में चूल्हे में आग दबाकर चिंगारी बचाई जाती है। ‘मन की सारंगी’ इसी भाव की कविता है कि उसमें अपने दुःख का घराना बनाने की बात की गयी है। और अन्त आते-आते यह बात कही गयी कि दुःख को नये चलन में गाओ। मतलब अपने दुःख को अपने भीतर बरक़रार रखिए, जिससे आपके भीतर की संवेदनशीलता और अपने प्रिय के प्रति प्रेम का भाव कभी छीजने न पाए।

प्रभात– अन्त में एक सवाल यतीन्द्र जी आपसे यह है कि हिन्दी में कविता की एक मुख्य धारा मानी जाती है, जिसमें कुछ ख़ास तरह की कविताएँ ही कविताएँ मानी जाती हैं। आपने उस लीक से हटकर एक अलग लीक बनाने की कोशिश की है इन कविताओं के माध्यम से। यह साहस का काम लगता है मुझे। हिन्दी की समकालीन कविता के सन्दर्भ में इसको आप किस तरह से देखते हैं?

यतीन्द्र– मुझे हिन्दी की समकालीन कविता बेहद प्रिय है। जिसे आप मुख्यधारा कह रहे हैं और जिस चलन की कविताएँ लिखी-पढ़ी जाती हैं उनमें से अधिकांश कविताएँ मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। अपने वरिष्ठों और समकालीनों को बहुत आदर से पढ़ता हूँ। जहाँ तक मेरी बात है, तो आप ध्यान दें कि मेरे बाद के तीनों संग्रह- ‘ड्योढ़ी पर आलाप’, ‘विभास’ और ‘बिना कलिंग विजय के’ में ऐसी कविताएँ ढूँढ़ने पर ही मिलेंगी, जो मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं। मुझे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मेरा उल्लेख कभी हिन्दी की मुख्य धारा में होगा या नहीं? जो चलन है, उस परम्परा में कहाँ शामिल किया जाऊँगा, इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं। इसे मेरा हठ या बड़बोलापन न मानकर यह समझा जाए कि जो मुझे ठीक लगता है, मैं वही लिखना पसन्द करता हूँ। मैंने विदेशी कवियों के अनुवाद नहीं किए, जो कि मुख्यधारा का ही एक हिस्सा है, बल्कि आज से बारह वर्ष पूर्व हिन्दी में पहली बार कन्नड़ शैव कवयित्री अक्क महादेवी के वचनों का अनुवाद लेकर आया। हिन्दी का परिसर बहुत बड़ा है, उसमें मेरी आवाज़ भी यदि हाशिए पर ही सही, मौज़ूद है, तो यह प्रसन्नता की बात है मेरे लिए। मैं जैसी कविताएँ लिखता हूँ, वही मेरा स्वर है और वैसा ही होना मुझे ईमानदार बनाता है। यह कोई अलग लीक पर चलना या साहस का काम नहीं, मेरे लेखन की सीमा भी हो सकती है।


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