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संयुक्ता त्यागी की कविताएँ

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आज पढ़िए संयुक्ता त्यागी की पाँच कविताएँ। इन कविताओं में एक तरफ़ स्त्री की वास्तविक स्थिति का चित्रण है, आत्मसंवाद है तो दूसरी तरफ़ उन वास्तविक स्थितियों पर सवाल भी हैं और उनसे बाहर निकल, स्वतंत्र जीवन जीने का आह्वान भी है- अनुरंजनी

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1. वैधव्य

माथे पर बाकी रह गया है
जो बिंदी का गहरा निशान
अब कभी नहीं जाएगा,
वो चिन्ह है कि कभी यहाँ
लाल बिंदिया दमकती थी,
जिसकी जगह अब छोटी
काली बिंदी ने ज़रूर ले ली है
लेकिन उस खालीपन को
नहीं भर सकी है!
उसका खालीपन…
उसकी आँखों का सूनापन…
उसकी रिक्तता…वैधव्य है!

क्या फर्क पड़ता है
उसने अब गहरा रंग
पहना है या हल्का
कलाई सूनी है उसकी या
वो गहने पहनती है अब भी!
ख़ामोश हो चुकी है या
अब भी मुस्कुराती है

उसकी मुस्कुराहट…
उसकी बातें…
उसका सिसकियों को समेट
रोटी जुटाना…वैधव्य है!

समाज के बनाए
खांचे में फिट बैठती है
या खुद निर्धारित करती है
अपनी सीमाएँ!
हालातों के सामने
घुटने टिका देती है,
या अचानक शेरनी सी
दहाड़ उठती है!

उसका अकेलापन…
उसका संघर्ष…
अंतहीन पीड़ा…
उसका अंतर्द्वंदों से
जूझना…वैधव्य है!
बीच राह से ही
साथी के चले जाने के बाद,
कर्तव्य निभाना… वैधव्य है!

2. तुम बोलती बहुत हो

अक्सर कहते हो मुझसे कि,
तुम बस चुप रहा करो
जो हो रहा है इर्द-गिर्द
खामोशी से देखा करो,
चार पैसे कमा,
बराबरी का ढोल पीटती बहुत हो
लाख समझाया फिर भी
तुम बोलती बहुत हो!

हक की बातें छोड़ो,
फिजूल सवाल ना किया करो,
अपनी अक्ल बच्चों को
पालने तक ही रखा करो,
हर बात सही-गलत के
तराजू में तोलती बहुत हो
लाख समझाया फिर भी
तुम बोलती बहुत हो!

सुनो! अहिल्या की तरह पत्थर
बन ख़ामोश नहीं रहती,
अपनी सोच को तुम्हारे
दायरे में कैद नहीं रखती
तुम्हारे झूठे अभिमान को
मैं ललकारती बहुत हूँ
गलत कहाँ कहते हो,
हाँ, सच में, मैं बोलती बहुत हूँ।

उन चार पैसों से अपने
आत्मसम्मान को सहेजती
अपने सवालों से तुम्हारे
बिखरे पुरुषत्व को समेटती
तुम्हारे घिस गये अस्तित्व पर
पैबंद लगाती बहुत हूँ
गलत कहाँ कहते हो,
हाँ, सच में, मैं बोलती बहुत हूँ।

3. स्याह नूर

हर रंग खुद में सोख
मैं स्याह नूर हो गई हूँ
खुदगर्जी के पैमाने का
सुरुर हो गई हूँ,
गिले-शिकवे अब
दिल को भाते नहीं मेरे
लफ़्ज़ों की तल्खी के लिए
मशहूर हो गई हूँ
मगरुर कह सको
तो कह लेना मुझे
जमाने के चलन से
कुछ दूर हो गई हूँ,
नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है
राब्ता सुकून से
बेअदब मैं,
बेरुखी से चूर हो गई हूँ।
लहज़ा मेरा नागवार
क्यों लगने लगा
बस दुनियावी रंगों से
सराबोर हो गई हूँ
आईना बन अक्स
दिखाया जो जनाब
दीदों की किरकिरी मैं
भरपूर हो गई हूँ!
हर रंग खुद में सोख
मैं स्याह नूर हो गई हूँ।

4. सुकून

जब चुभने लगे आंखों की
कोर में रोशनी की किरच,
अंधेरे को बस यूँ ही देखते रहना
आँखों को सुकून देता है।

दिल जब भर जाए
बेवजह की बातों से,
मन से फ़ालतू सब कुछ
निकाल देना सुकून देता है।

कभी बोलते हुए
हलक जो सूखने लगे,
संवादहीन हो जाना
सच में सुकून देता है।

बेमक़सद सी लगने लगे
मौजूदगी खुद की,
खामोशी से किसी की जिंदगी
से चले जाना सुकून देता है।
उंगलियों के पोर दुखने लगे
लिखते कोई कहानी,
कलम को तोड़ फेंक
देना बहुत सुकून देता है।

लहरें जब डुबोने की
हद तक आ जाएँ,
पतवार थाम उनकी जद से
बाहर आ जाना सुकून देता है।

कसैला सा मन हो जाए
जिन यादों को जी कर,
उन्हें जीवन से बाहर
करना सुकून देता है।

किसी की नजरों में खटकने
लगे वजूद खुद का,
खुद को और ज्यादा तराशना
तब सुकून देता है।

5. स्त्री क्रोध

कहो तो, क्यों सहज नहीं
लिया जाता स्त्री क्रोध!
विकृति नहीं, मात्र एक भाव ही है

प्रेम,शोक,कामना,
ममता की तरह,
फिर क्यों इसकी अभिव्यक्ति
स्त्री के लिए वर्जित है, अक्षम्य अपराध है!

मस्तिष्क और हृदय की संरचना,
संवेग स्त्री-पुरुष में एक समान ही हैं
तब उन संवेगों पर स्त्री से
अंकुश की अपेक्षा क्यों?
पुरुष सार्वजनिक रूप से,
अकारण क्रोध जता अपने
पुरुषत्व को तुष्ट करे
तब भी अनदेखा कर दिया जाता है।
उसकी वाणी से निकली
अभद्र टिप्पणी तक में स्त्री अपमानित होती है!
परंतु स्त्री यदि क्रोधित हो
तब अपने अश्रुओं के माध्यम
से ही क्रोध व्यक्त करे…ऐसी अपेक्षा क्यों?

क्रोधित होने पर अभद्रता
स्त्री और पुरुष दोनों के लिए
गलत होनी चाहिए
ना कि किसी एक के लिए

क्रोधित पुरुष का स्त्री पर प्रहार स्वीकार्य,
स्त्री आत्मसम्मान की रक्षा के लिए
पुरुष का हाथ काट दे तो ‘पापिन’!

कहो तो, मां दुर्गा क्रोध आने पर काली सकतीं हैं
तो स्त्री को क्रोधित होने का अधिकार क्यों नहीं!

सुनो स्त्री! अब इस नियमावली
को संशोधित करने का समय आ गया है!
अपने क्रोध को मुट्ठी में भींच
आंसूओं में बहा देने से,
कुंठाग्रस्त होने से बेहतर है,
अभिव्यक्त कर दो…
परंतु ध्यान रहे,
अपनी गरिमा न खंडित होने देना!
गौरी और काली दोनों ही रुपों का
तुममें समाहित होना आवश्यक है… बहुत आवश्यक!

परिचय

नाम– संयुक्ता त्यागी
जन्म व निवास स्थान -मेरठ(उत्तर प्रदेश)
शिक्षा – बीएससी,एमए (अर्थशास्त्र), बीएड, एमएड
प्रकाशन – विभिन्न साझा संकलनों (मीमांसा -२, त्रिवेणी, त्रिवेणी-2,कुमुदावली, रंगरेज़, स्त्री तेरे कितने रूप) अमर उजाला व अन्य पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।

 


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