Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World Literature
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1574

प्रेम में आत्माभिव्यक्ति: लौ

$
0
0

हाल ही में बाबुषा कोहली का नया उपन्यास आया है ‘लौ’। इसकी बेहद गंभीर व बारीक समीक्षा कर रहे हैं युवा समीक्षक शुभम मोंगा। यह समीक्षा इसलिए भी ख़ास है क्योंकि इस उपन्यास की पहली समीक्षा प्रकाशित हो रही है अनुरंजनी

==============================

प्रेम में आत्माभिव्यक्ति: लौ

         बाबुषा कोहली के लेखन की विशेषता है कि वह लौकिक होते हुए भी अपने भीतर दर्शन की निष्पत्तियों को आत्मसात किए हुए हैं। उनकी लिखाई धरातल के ऊपर जितनी दुनियावी दिखती है, धरातल के नीचे उतनी ही सूक्ष्म, गहन और अपने भीतर संवेदनाओं व प्रेम को अंतर्गुम्फित किए है। यह सच है कि दार्शनिक निष्पत्तियों को अपने गर्भ में धारण करने वाला लेखन सरल नहीं होता। वह क्रमतर सूक्ष्म और संश्लिष्ट होता चलता है। वह हमारे बाह्य जीवन की परतों को भेद कर, हमारे अन्तर्मन को भी परिष्कृत करता चलता है। बाबुषा अपने लेखन में उसी प्रेम का सृजन करती हैं, जो अपनी गहराई का आधार होने के साथ-साथ पूरी सृष्टि का विस्तार भी बन जाता है। इस उपन्यास के तीनों प्रमुख पात्र इश्क़ा, इल्हाम और अनन्त अपने भीतर की कोमलता और संवेदना के माध्यम से इसी प्रेम का संरक्षण कर रहे है।

         “आज अपने आप को किसी से भी अपरिचित नहीं पा रहा हूँ। यहाँ आता-जाता हर मनुष्य मुझे जाना-पहचाना लग रहा है। न जाने क्यों जी कर रहा है कि यहाँ आने वाले हर एक तीर्थयात्री के गले मिलूँ, गुनगुनाते हुए उसे कहूँ –

“इश्क़ कुन वक्त ज़ाया मकुन

इश्क़ कर वक्त ज़ाया मत कर।”

उपन्यास की ये पंक्तियाँ हमें पाठ के अन्तिम पड़ाव पर मिलती हैं, लेकिन मुझे यही पंक्तियाँ संवेदना में प्रवेश करने की देहरी जान पड़ती है। कथा के पात्रों के भीतर बाहरी ध्वनियों का कोलाहल नहीं है, अपितु मौन एकान्तिक वार्तालाप है। यही कारण है कि इन तीनों के जीवन की अनुभूति में सत्य, प्रेम और दर्शन अपनी समग्र गहनता के साथ व्यंजित हो रहे हैं। बाबुषा इश्क़ा-इल्हाम के जीवन की सीधी-सरल अनुभूतियों को अपनी लेखनी में अभिव्यक्त करती हैं, लेकिन जहाँ से खड़े होकर वह इन दोनों पात्रों को संवादरत देख रही हैं, वहीं वक़्त के दरिया से छिटक कर वह अकेला क्षण संबंधों की ऊष्मा व जीवन की संपूर्ण संवेदना और प्रेम की संश्लिष्टता से ओतप्रोत हो जाता है।

इस उपन्यास का एक लंबा अंश पत्रात्मक शैली में लिखा गया है, परंतु यहाँ संवाद तीन स्तरों पर चल रहा है। सबसे पहले स्वयं से, दूसरे स्तर पर एक-दूसरे से और तीसरे स्तर पर समूची सृष्टि के साथ। यही कारण है कि यहाँ इश्क़ा-इल्हाम अपनी जीवन-दृष्टि को भी विकसित कर रहे हैं। दोनों जब साथ नहीं हैं, तो वे एक-दूसरे को पत्र लिखते हैं, पर यहाँ भी वे अपने इस संबंध को दर्द में, आत्मपीड़न के रूप में ‘रिड्यूस’ नहीं कर रहे, बल्कि प्रेम उनके लिए एक तरह से आत्मोन्यन की राह बन रहा है। यह उपन्यास जीवन में प्रेम और संबंध, हृदय और बुद्धि के समन्वयात्मक समंजन को विश्लेषित करता है।

        प्रेम और संबंध: “जो है उसको नाम देने के झंझट में मत पड़ो, जो है, उसको बस जानो।” यहाँ प्रेम और संबंध के बीच में संबोधन मार्ग अवरुद्ध नहीं कर रहा है। इश्क़ा-इल्हाम के इस संबंध को क्या नाम दिया जाए? यह प्रश्न लेखिका ने हम पर ही छोड़ा है, पर इश्क़ा इल्हाम को अनेक नामों से संबोधित कर पत्र लिख रही है और इल्हाम भी इश्क़ा को लिखता है कि “भाषा की सीमा के कारण कभी-कभी मैं प्रेम शब्द का प्रयोग करता हूँ, पर तुम यह हमेशा जानना कि जो हमारे बीच है, वह प्रेम से आगे का मकाम है।” इश्क़ा-इल्हाम के प्रेम में दैहिक वासना नहीं है। “इश्क़ा का स्पर्श उसके भीतर कामना को नहीं जगाता, बल्कि किसी ऐसे अनिर्वचनीय सुख से भर देता है, जिसकी व्याख्या के लिए शब्दकोश में कोई शब्द नहीं है।” यहाँ प्रेम और संबंध के घनत्व के साथ मनुष्यता की गहराई भी अधिक विकसित हुई है। शाम्भवी इश्क़ा से कहती है कि “तुमने बिना किसी दर्द के इतना बड़ा बच्चा पैदा किया है। तुम्हारे कारण आज मैं ज़िंदा हूँ। यहाँ लेखिका ने एक बार फिर संबंधों को पुनर्परिभाषित किया है, जिसमें वह जैविक मातृत्व से अधिक महत्त्वपूर्ण मानती हैं माँ की आँख से इस दुनिया को देखने और महसूसने का वैभव। यहाँ सभी पात्र अपने सर्जक के वैचारिक व्यक्तित्त्व को भी प्रतिबिम्बित कर रहे हैं, इसलिए वे सब तरल, संवेदी, स्वप्नजीवी और सृष्टा भाव अपने भीतर सहेजे हैं।

हृदय और बुद्धि के संबंध को इश्क़ा कुछ यूँ परिभाषित करती है, “जो मेरी बुद्धि की पकड़ के बाहर है, मगर संवेदना की पहुँच वहाँ तक है।” इश्क़ा लेखिका द्वारा स्थितियों के बुनते हुए स्पेस में उन सभी अंतर्ध्वनियों को सुन पाने में सक्षम है, जो उसे संवेदनशील मित्र और पत्नी भी बनाते हैं। प्रेम की रक्षा व उसकी अर्थवत्ता अक्षुण्ण रखने के लिए हृदय व बुद्धि के ऐक्य पर बल दिया गया है। “अज्ञेय एक कविता में लिखते हैं— मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ। अज्ञेय कच्चे हैं। ध्यान में हो, तो मैं बचा कैसे?” ‘मैं’ का विलोपीकरण अर्थात् हृदय और बुद्धि का सामंजस्य, अर्थात् जीवन का अध्ययन-मनन और उसके पश्चात अपने समूचे व्यक्तित्त्व को, अपनी अन्तर्दृष्टि की वैयक्तिकता में परिवर्तित करना और उसके अनुरूप जीवन के सृजन की इंटेंसिटी को अपने भीतर महसूसना और फिर ‘मैं’ को स्वयं की चैतन्यपूर्ण पड़ताल में ‘ट्रांसफर’ करना।

इस उपन्यास में कला के प्रवाह में बाहर-भीतर बहते, समय-जीवन-मनुष्य की अंतर्वृत्तियों को भी एक-दूसरे की पारस्परिकता से समझने का प्रयास नज़र आता है। इल्हाम लाओत्ज़ु के अनाम के दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है, तो इश्क़ा मीरा की तरह नाम रतन धन को पाकर गीत गाती है। इश्क़ा दुनिया की हर एक जीवंत शै के नाम से इल्हाम को पुकारती है। इल्हाम इश्क़ा को बुद्ध और मीरा का मेल समझता है। वहीं अनन्त अपने नाम के अनुरूप अपने व्यक्तित्व में नाम-अनाम सब कुछ समाहित किए हुए है। उपन्यास के सभी पात्रों के नाम अपने व्यक्तित्व के अनुरूप बन पड़े हैं। चिंतन-मनन की गहराइयों में उतरे हुए प्रत्येक पात्र से लेखिका उनकी भूमिका सार्थक ढंग से अदा करवा लेती है।

इश्क़ा, इल्हाम और अनन्त चेतना के भिन्न-भिन्न धरातल पर खड़े होकर स्वयं की पड़ताल कर रहे हैं। “बाह्य उपकरणों को बंद कर दिया जाए, तो भीतर के सूक्ष्म उपकरण बहुत बल के साथ सक्रिय हो जाते हैं।” इस पंक्ति को आधार बनाकर देखा जाए, तो हर पात्र अपने अंतर्द्वंद्व से बाहर आकर जीवन के उच्चतम आयाम को छूता है।

         यह उपन्यास अपने वैचारिक संवेदन के घनत्व का विकास करने के साथ ही स्वयं को सँवारने का दायित्व भी निभाता हैं। यहाँ जो प्रेम है, इसमें आत्माभिव्यक्ति सर्वत्र विद्यमान है।“आत्मा तो सभी की उजली होती है, पर कितने लोगों में अपने उजाले को अपनाने का, उसे जीने का साहस होता है।”

लेखिका यही तो कहना चाहती है कि आत्मा की इस लय के भीतर जीवन का क्षरण करने वाली स्थितियों को पहचानने के लिए, हमें स्वयं ही उसके भीतर उतरना होगा और इस लय के ध्रुवांत पर यह तीनों पात्र खड़े हैं जो अपने जीवन को यांत्रिक भाव से नहीं, अपितु चैतन्यता के साथ जी भी रहे हैं। यही इन पात्रों की सबसे बड़ी खूबी भी है।लेखिका भी लिखती है- “इश्क़ा को जीवन की भंगुरता का भान है, पर अब जैसे उसे पता ही है कि अनिश्चितता केवल परिधि में होती है,केंद्र में सब कुछ शाश्वत होता है।” ये पात्र अपनी परिधि का नहीं, अपने केंद्र का विस्तार कर रहे हैं।

“इश्क़ा संबंधों से नहीं, मनुष्यों से प्रेम करती है।प्रेम उसके होने का ढंग है,स्वभाव है।” यही कारण है कि लेखिका इश्क़ा-इल्हाम के संबंध को किसी बंधन में बाँधने की अनिवार्यता को खारिज करती हैं, “मगर दुनिया इतनी अजीब है कि वह नाम और परिभाषाओं के बिना कुछ समझती नहीं।” लेखिका अपने उपन्यास में पात्रों के उदात्तीकरण के माध्यम से यही प्रस्तावित कर रही हैं और उदात्तीकरण भी कैसा? प्रेम को जीवन का मर्म समझकर उसमें जीने का औदात्य।

इश्क़ा-इल्हाम के पत्राचार में आत्मीयता के साथ-साथ निरन्तर विकसित होती अंतर्दृष्टि उनके व्यक्तित्त्व को एक साथ गहराई और ऊँचाई पर ले जाती है। वे लम्बे समय तक भौतिक रूप से एक-दूसरे से दूर हैं, परंतु विदेही चेतना के रूप में वे हमेशा निकट हैं। इस तरह बाबुषा अपने पात्रों को नि:संग भाव से निहार ही नहीं रही, अपितु पूरी तरह से उनमें तल्लीन होकर उन्हें रच भी रही है। इस उपन्यास की कथा को इस कोण से भी देखा जा सकता है।

       उपन्यास के अंतिम अंश में लेखिका ने इल्हाम के माध्यम से उचित ही अनन्त के बीहड़ व्यक्तित्व में प्रच्छन्न सर्वोत्तम चेतना को रेखांकित किया है। साथ ही न्याय-अन्याय की ‘बायनरी’ को भी निरस्त किया है। “प्रेम में जीने वाले मनुष्य के लिए न्याय-अन्याय का भेद मिट जाता है। ऐसे लोग अपने प्रेम की लौ से ही रौशन हो उठते हैं।इश्क़ा ऐसी ही हो गई थी, नीति।शायद उसके ऐसे होने की वजह से ही मैं तुम्हारे साथ ठीक से रह सका।” इल्हाम यह प्रश्न उठा रहा है कि “क्यों दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा सिद्धार्थ के घर छोड़ने को ग़लत बताता है, मगर बुद्ध के लौटने को देखने से चूक जाता है।” उसका यह प्रश्न संबंधों में एक-दूसरे को स्पेस देने के सामाजिक संदर्भ में प्रेम के स्वरूप और तत्त्वों की आलोचनात्मक शिनाख़्त के रूप में हम पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत होता है। इश्क़ा, इल्हाम और अनन्त चेतना के एक ही धरातल पर खड़ी तीन संवेदनशील, विवेकशील मनुष्य अस्मिताएँ हैं, जो पूरे उपन्यास में अपने बोधपूर्ण वजूद को बचाए रखती हैं और अपने आप को जेंडर में ‘रिड्यूस’ नहीं होने देतीं। यह तीनों अपने आत्मपरिष्कार की यात्रा पर हैं और तीनों ही अपने भीतर उस शै को समाहित किए हुए हैं, जिसका लक्ष्य, अस्तित्व, उत्स एक ही है — वह है प्रेम।

       अब यहाँ प्रमुख प्रश्न यह उठता है कि प्रेम क्या है? यह कहा जा सकता है कि प्रेम दो हृदयों के एकाकार हो जाने का गहरा सम्मोहन ही तो है, जैसे इश्क़ा और इल्हाम का- “यूँ स्वभावतः दोनों ही गहरे अंर्तमुखन में जीते थे, मगर आपस में वह इतने सहज थे कि जैसे खुद के ही साथ हों। एक-दूसरे की उपस्थिति में उन्हें एक-दूसरे की मौजूदगी का आभास नहीं होता था।” यहाँ वे दोनों अपने भीतर के सूनेपन को पूरने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन इस प्रयास में वह यह भी ध्यान रखते हैं कि एक-दूसरे के भीतर का सूनापन उनके मिलन के आलोक में नया लिबास भी पहन ले। इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि वे दोनों इतने भरे हुए हैं कि सुपात्र पाते ही अपनी नमी को उसमें उड़ेल देते हैं। दुनिया-जहान की फ़िल्मों, संगीत, लोक-कथाओं के बारे में बतियाते हुए उन दोनों के पत्र उस नमी से भीगे रहते हैं।

“वे दोनों सुख के फूल थे जिनकी सुगंध उनके इर्द-गिर्द फैलने ही थी, सो फैल रही थी।” यह दोनों पात्र प्रेम व विश्वास के तंतुओं से निर्मित अपनी भीतरी दुनिया को इतनी सुन्दरता से बचाते हैं कि बाहरी दुनिया उस प्रेम के असर में स्वतः बचती चली जाती है। इश्क़ कुन, वक़्त ज़ाया मकुन का संदेश देने वाली यह कथा मनुष्यों को प्रेम की वह दिशा दिखाती है, जिससे मनुष्यों के भीतर प्रेम करने का साहस पैदा होता है। प्रेम की संवेदना ही दुनिया को बचाने का एकमात्र सूत्र है।

प्रेम अपनी मूल प्रकृति में मनुष्य के भीतर बंद पड़ी नदियों के कपाट खोलकर उनके समुद्र बनकर उमड़ने का आह्वान ही तो है, यही कारण है कि लेखिका प्रेम को ‘प्राणयोग’ भी कहती है। प्रेम कोमलता और संवेदना के बहाने मनुष्यता के संरक्षण का पहला नाम है या शायद प्रेम की छोटी-सी धारा से जन्मी प्रेम के भी आगे कोई ऐसी व्यापक भावना है, जिसके बारे में इल्हाम कहता है कि उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता। एक पाठक के तौर पर इसे मैं प्रेम ही कहना चाहता हूँ, जिसका फैलाव अनन्त है।

बाबुषा के इस उपन्यास की बिम्बधर्मिता और सांकेतिकता एक विराट प्रेम के द्वार पर दस्तक की तरह हैं। उनके लेखन की भावभूमि व समूचा शिल्प इसी प्रेम के सहारे समझ को विकसित करने का एक प्रयास है, ताकि हम अपने दायरे से बाहर निकलकर चेतना के संगीत को सुन सकें और उसकी लय-ताल पर जीवन को सतत रच सकें।

बाबुषा के गद्य में भी कविता की लय होने का कारण उपन्यास अत्यंत पठनीय बन पड़ा है व निरंतर हमें अपने भीतर प्रेम के झरने की खोज के लिए प्रेरित करता है। प्रेम की इस लौ को पकड़ना असंभव है, तभी तो इस उपन्यास के सभी पात्र इस लौ को अपने भीतर प्रतिष्ठापित कर चुके हैं।

=================

पुस्तक : लौ

लेखक : बाबुषा कोहली

प्रकाशक : रुख़ पब्लिकेशन्स


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1574

Trending Articles