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गरिमा जोश पंत की कहानी ‘मुन्नू की स्वदेश वापसी’

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आज पढ़िए गरिमा जोशी पंत की कहानी। गरिमा जोशी ने लिखना देर से शुरू किया। कम लिखा है लेकिन कहानी पढ़कर आपको लगेगा कि कहानी पर पकड़ इनकी कितनी खूब है-

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मुन्नू आज स्वदेश लौट आया।” यह कहने से पहले ही मैंने सिर पर हेलमेट पहन लिया है। क्यूं? क्यूं क्या, स्वयं को प्रश्नों की तीक्ष्ण बौछारों और कुछ संभावित प्रस्तर प्रहारों से बचाने के लिए। और यह आक्रमण मुझ पर क्योंकर होगा इसका उत्तर तो आपको देर सबेर मिल ही जाएगा पर इसका उत्तर जानने की इतनी भी क्या जल्दी?  क्या आप भी व्यक्तियों की उस श्रेणी में आते हैं जिन्हें बातों पर नमक मिर्च लगाकर उन्हें चटपटा बनाने का शौक होता है।

चटपटी चटनी के साथ तो गली के नुक्कड़ पर शंकर हलवाई की दुकान के अहाते में बैठ सुकुल जी और मिसिर जी गरमा गरम मूंग दाल के बड़े खा रहे हैं। इसके बाद कुल्हड़ में मलाईदार दूध पिया जाएगा जिसके बड़े से कड़ाही में मद्धम आंच पर औटाने की गरम सौंधी महक सर्दी की सुबह में वैसे ही विस्तार पा रही है जैसे धीरे धीरे चढ़ते सूरज की किरणें। साथ में ही बहस की हंडिया में खदबदा रहें हैं सुकुल मिसिर जी की बातों के बतोले जिनका आनंद वे लोग भी ले रहे हैं जो इनके इर्दगिर्द बैठ  सिकी मूंगफलियां  चाब रहे हैं और इस बहस की हंडिया के नीचे जो आग जल रही है उसे कम ना पड़ने देते। इस आग की तपत और बातों के पकवानों के मजे को दफ्तर जाने की याद  से किरकिरा ना कर देना क्योंकि ये जान लो कि वहां हाजिरी लगा के ही वे इत्मीनान से यहां बैठने आए हैं। और फिर दफ्तर तो यूं भी सरकारी है।

कुल्हड़ से दूध को सुपड़ते हुए सुकुल जी कह रहे हैं कि उनका सुपुत्र विकास उर्फ़ विकी शुक्ला जितना मान अमरीका में पा रहा है वह उसे अपने देश में कभी नहीं मिला। हर कक्षा में अव्वल आने पर भी नहीं। इस कहन में दूध की मलाई उनकी खिजाब लगी मूछों में जा लगी जिसे जीभ से फेर उन्होंने मुंह के भीतर खींच लिया। मिसिर जी को यह बात हजम ना हुई। इसके दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि उनका पूत सर्वज्ञ मिश्रा उच्च शिक्षा का एक भी सोपान न चढ़ पाया बल्कि निचले स्तरों पर ही कई बार लुढ़क गया तो विदेश में शिक्षा प्राप्त करना यूं भी उसके बूते की बात नहीं थी और जो मिले ना उसकी भर्त्सना करना बनता है। और दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मिसिर जी को स्वदेश से प्रेम बहुत है और वे इसलिए वे विदेश जाने के विरोधी हैं। हालांकि दूसरे कारण की संभावना क्षीण लगती है। वैसे सर्वज्ञ भैय्या ने अपनी योग्यता को सिर्फ डिग्री की मोहताज ना रखकर ऐसी छलांग लगाई कि अच्छी नौकरी लग गए हैं, सुंदर, पढ़ी लिखी कमाऊ लड़की से शादी हो गई है और आजकल के नौजवान जोड़ों की तरह एकदूसरे को समझने में वक्त न जाया करके अगले महीने  दो से तीन होने जा रहे हैं। मिसिर जी और मिसराइन जी के श्रवण कुमार हैं हमारे सर्वज्ञ भिय्या। खैर जो भी हो आज मूंग दाल के बड़ों की चपड़ चपड़ और गरम मलाईदार दूध की सुपड़ सुपड़ के बीच यह बहस जोर पकड़ती जा रही है। मिसिर जी की दलील गलत नहीं कि माना विदेश में सब  फ्लेवर्ड बटर है तो भी उस से स्वदेश के मक्खन के देसी स्वाद का महत्त्व तो कम नहीं हो जाता। वहीं सुकुल जी पूरे जोशोखरोश से कह रहे हैं कि विदेश का हर निवाला फोर्टीफाइड है विटामिन और प्रोटीन से। बहस को पूर्णविराम ना लग जाए इसलिए कुछ दर्शक पन्नू पनवाड़ी के यहां से दोनों के लिए बीड़े भी बंधवा ले आए हैं। मिसिर जी मुंह को बीड़े और उससे उपजे पीक से कुप्पा किए सिर हिला कह रहे हैं कि यह फोर्टीफाइड का तरीका अप्राकृतिक है। उधर सुकुल जी का कहना है कि सड़क, बिल्डिंग, शिक्षा, आजादी, खान पान, चिकित्सा सभी क्षेत्र में अभी हमारे देश को विदेश की बराबरी पर आने में बहुत संघर्ष की जरूरत है। और उबड़ खाबड़ सड़कों पर कोई अपने पैर लहूलुहान करने क्यों आए जबकि उसे मक्खन सी सड़कों की आदत हो गई हो। ये सब बातें उन्होंने पीक को मुंह के अंदर ही अंदर घुमाते हुए और बिना एक बूंद बाहर निकाले जिस जोश से कही , वह किसी कौशल से कम नहीं। यह कौशल विदेश में किसी के पास हो तो बताए कोई।

अब यह बहस कहां जा कर खतम हुई ये तो पता नहीं पर सुकुल मिसिर जी की दोस्ती पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ा और वे अगले दिन नई और पुरानी हिरोइनों के तुलनात्मक अध्ययन के साथ मिर्ची बड़े और अदरक वाली चाय का मजा ले रहे थे।

पर पहले दिन की बहस ने मुझे मुन्नू की याद दिला दी है फिर से। अरे वही मुन्नू जिसके बारे में हम नहीं कह रहे थे कि वह आज स्वदेश लौट आया।

उसका नाम महेश्वर लाल सक्सेना है। किसका? अरे मुन्नू का। समझे? मां प्यार से मुन्नू बुलाती थी। और पिताजी भी। और हम सब भी। उसे अधिकतर लोग मुन्नू ही बुलाते हैं। उसकी मां रुक्मिणी देवी हैं। पिताजी को सब आर. एल सक्सेना बुलाते थे सो हमें भी यही नाम पता है। हम तो यूं भी उन्हें सक्सेना अंकल कहते थे। “कहते थे “इसलिए कहा क्योंकि कुछ वर्ष पूर्व सक्सेना अंकल का देहांत हो गया।

सब मुन्नू को मुन्नू बुलाते हैं ऐसा नहीं है। कुछ लोग उन्हें महेश्वर,महेश्वर जी या सक्सेना साब नामों से भी संबोधित करते है।

और सुंदरी उन्हे माही बुलाती है। अरे सुंदरी मतलब सुंदर स्त्री नहीं। मुन्नू की पत्नी का नाम सुंदरी है। वह सुंदर है या नहीं यह कोई पूछने जानने वाली बात नहीं क्योंकि सुंदरता देखने वाले की आंखों में होती है। उसकी आंखें छोटी हैं, रंग गोरा, कद छोटा, बाल छोटे और नाक पतली है। अरे सुनो! आप को सुंदरी के सौंदर्य विवरण में दिलचस्पी नहीं है। धैर्य धरिए ना हम जल्द बताएंगे की हमने हेलमेट क्यों पहना और क्यों हमारे एक कथन पर लोग आक्रामक  हो सकते हैं। पर उस के लिए थोड़ी देर सुंदरी का सौंदर्य विश्लेषण झेल लीजिए ना। धन्यवाद।

हां  तो हम कह रहे थे कि किसी और को जैसी भी लगे, मुन्नू को  सुंदरी बहुत सुंदर लगती है और हर पति को अपनी पत्नी सुंदर लगनी भी चाहिए आखिर वह उसकी सुख दुख की साथी है, उसके बच्चों की मां और घर की लक्ष्मी है और सुंदरी तो लक्ष्मी है ही क्योंकि वह नौकरी करती है और कमाती है। इसके अलावा वह गाड़ी चलाती है, सूट, साड़ी, पैंट, जींस, शर्ट, टीशर्ट, फ्रॉक, निक्कर सब पहनती है, घर बाहर का काम कर सकती है और अंग्रेजी में गिटपिट भी। और बकौल मुन्नू, उसके जैसे स्वादिष्ट दही बड़े और मालपूए और कोई बना ही नहीं सकता। और  यही , बस यही बात रुक्मणि जी को अखर गई। बचपन से जिस मां के हाथ के दहीबड़े खाने के लिए मुन्नू मचलता था वह आज सुंदरी के हाथ के पकवानों की तारीफ करता नहीं थकता। यहां यह जान लेना जरूरी है कि रुक्मणि जी कोई सीधी सादी फिल्मी मां नहीं है जो पग पग पर त्याग की मूर्ति बनी रहे और पल्लू से आंसू पोंछती रहे और ममता भरे गीतों से बच्चों को जीवन के पाठ सिखाती रहे। बिल्कुल नहीं। बल्कि उन्होंने तो बचपन में मुन्नू को गणित में 100 में से 80 लाने पर 20 नंबरों के लिए तलब भी किया और सज़ा के तौर पर झन्नाटेदार चांटा भी गाल पर जड़ा। युवा मुन्नू  जब छत पर टहलते पड़ोस की लड़कियों से नैना लड़ाने की जुगत में रहा तो इन्हीं रुक्मणि देवी ने सबके सामने लड़के के काम उमेठ दिए थे और उन्हे उमेठते हुए ही मुन्नू को घसीटते हुए नीचे ला पढ़ाई की टेबल पर ला पटका था उसका ध्येय याद दिला देने को। और जब प्रतियोगी परीक्षा पास कर महेश्वर उर्फ़ मुन्नू अफसर बना तो यही मां बेटे की बलैया लेते ना थकती थी। फूली ना समाती थी। मुहल्ले भर में लड्डू बांटती और भगवान को धन्यवाद देने के लिए मंदिर की चौखट पर अश्रुपूरित नेत्रों से सिर झुकाती, नाक रगड़ती नहीं थकती थी। मुन्नू के लिए सुंदरी को भी उन्होंने ही पसंद किया था और बड़ी धूमधाम से उसे बहु बनाकर लाई थी। बेटे की सफलता, स्वास्थ्य, लंबी उम्र, विवाह  इन सबके लिए रुक्मणि जी ने कितने  व्रत उपवास, पाठ, दान किए हैं ये स्वयं मुन्नू से भी नहीं छिपा। नए नवेले जोड़े को रुक्मणि जी आए दिन नित नए पकवान बना कर खिलाती थी। फिर महीने भर में सुंदरी ने जो रसोई में कदम रखा तो उसके हाथ के बने खाने की तारीफ के पुल बांधते मुन्नू के पास शब्द कम पड़ जाते। एक दो दिन ठीक पर फिर तो यह रोज की बात होने लगी। लौकी कद्दू भी तारीफ की फेहरिस्त में शामिल होने लगे तो हद ही हो गई। यह तारीफ घर रखने, सजाने, शॉपिंग करने, अंग्रेजी में झाड़ने, सब जगह पैर पसारने लगी। अब भले ही रुक्मणि जी अंग्रेजी में गिटपिट करना या गाड़ी चलाना ना जानती हों पर थीं बीए पास और खरीददारी करने, बातचीत करने आदि कई कामों में निपुण थीं। बढ़ती उम्र और उम्रजनित रोग अवश्य इस निपुणता में बाधा डालते थे पर वे बौड़म नहीं थीं। वैसे उन्हें पहले पहल सुंदरी से कोई शिकायत भी नहीं थी। उन्हें तो शिकायत थी मुन्नू से जो एकदम ही जोरु का गुलाम बन गया था और मां बाप को कुछ न समझता था और अगर समझता भी था तो एकदम पुरानी पीढ़ी का जो किसी काम के नहीं। सास बहू की तानाकशी रोज ही चलती थी। इसे कलेश कहा जा सकता है  पर होशियारी दिखाता तो मुन्नू इन तानों की फुटबॉल का मजा ले सकता था। कभी ब्राजील का साथ देता तो कभी अर्जेंटीना का पर उसने तो एक टीम का पल्लू ही कस के पकड़ लिया था। तो अब तो यह क्लेश ही हो गया।

  यूं तो रुक्मणि जी को अपने पोता पोती से प्यार बहुत था पर उन्हें लगता था कि मां के सिखाने पर बच्चे उनसे उद्दंडता करने लगे थे। मुन्नू की शह पा सुंदरी और बच्चे उन्हें और उनके पति को उल्टा जवाब भी दे देते हैं और वह मिट्टी का माधो मुन्नू कुछ बोलता भी नहीं। यहां तक भी ठीक लेकिन मुन्नू तो उनसे ज्यादा अपने ससुराल वालों का सगा हो गया। अपनी सास, ससुर, सालों का गुणगान करते नहीं अघाता। अपनी बहनों तक को भुला बैठा है।  रुक्मणि जी और उनके पति ने मुन्नू से खूब जवाब सवाल किए, कभी गुस्सा तो कभी भावुकता के रूप भी दिखाए पर मुन्नू का यह कथन, ” आप ने मेरे लिए किया ही क्या है” उन्हें तोड़ गया। इसके बाद वे चुप भी हो गए और निराश भी। लाचार भी महसूस करने लगे। उन्हें लगा कि उनका अपना बेटा उन्हें छोड़ अपनी ससुराल का और अपने सास ससुर के बुढ़ापे की लाठी बन गया है। वो भी वे सास ससुर जिनके पास अपनी दो मजबूत लाठियां पहले से ही थीं। मां के हाथ के मक्खन में मुन्नू को अब हीक सी लगती है और सास के हाथ के निवाले फोर्टीफाइड। उनकी बड़ी सी कोठी के आगे उसे अपने मां बाप का घर झोंपड़ी सा लगता है। खाई इतनी बढ़ गई है कि अब दोनों परिवारों में  वार त्योहार पर मिलनी भी नहीं होती।

छोटी सी बात से कितना बतंगड़ हो गया। रुक्मणि जी  टूटने पर भी पूरा मोर्चा संभाले थीं। पर वज्राघात तो तब हो गया जब सक्सेना अंकल हृदयाघात से चल बसे। उस दिन टूटी हुई रुक्मणि जी बिखर गई। वह एकदम चुप हो गईं। सचमुच की लाचार। एकदम अकेली। एकदम नाउम्मीद।

राखी का त्योहार आया और सुंदरी भाईयों के लिए, उनके बच्चों के लिए, अपने पापा के लिए ढेरों उपहार तैयारियों में लग गई। अपने लिए भी नई साड़ी लाई। मां से अपनी पसंद के पकवान बनवाए। वहां तो रौनक ही अलग थी। सुंदरी की मां अपने हाथों से सुंदरी को पकवान खिला रही थी। उसका सिर सहला रही थी। अपने भाइयों की जान सुंदरी ने कैसे शौक से बड़ी बड़ी राखियां अपने भाइयों की कलाइयों पर बांध दी थी। कैसे मान मन्नोवल कर खा खिला, खिलखिला रही थी। अकेला था तो बस महेश्वर लाल सक्सेना उर्फ़ मुन्नू। शाम को मां ने सुंदरी का सिर गोद में रख उसके सिर की मालिश भी की। हिदायत भी दी कि अपना ध्यान रखा करे। मुन्नू के दिल में एक कसक सी उठी। उसके बालों में जैसे कोई अदृश्य सा हाथ फिरा और गायब हो गया। मेले में खो गए किसी अबोध बच्चे जैसी एक अनुभूति ने उसे घेर लिया जो हठ करके अपनी मां की उंगली छुड़ा भाग खड़ा हुआ हो और अब भीड़ में अकेला डर रहा है। उसे मां की याद आ गई। वह उठा और घर की ओर भागा। घर की नौकरानी ने दरवाजा खोला। मां रुक्मणि राखी पूजा की थाली सजाई टेबल पर ही छोड़ अपने कमरे में बैठी ऊंघ रही थी। मुन्नू ने सिर मां की गोद में रख दिया। अपने आंसुओं से मां के चरणों का अभिषेक कर दिया। मां ने स्नेहसिक्त हाथ से बाल सहला दिए। आज इस घर में बरसों बाद त्योहार मना।

अब हेलमेट क्यों पहना, वह सुनो। क्योंकि मुन्नू को जानने वाले हमें अफ़वाह फैलाने के जुर्म में मारते कि “क्यूं बे? मुन्नू विदेश गया ही कब जो तुम नाहक ही अफवाह फैलाते फिर रहे हो कि ” मुन्नू आज स्वदेश लौट आया” तो भई हेलमेट को ठीक से पहन और हाथों की ओट करके प्रस्तर प्रहारों से बचते बचाते हम यही कहेंगे कि गणेश भगवानजी की वह कथा भूल गए हो क्या जिसमें उन्होंने मूषक पर बैठ अपने माता पिता शिव पार्वती की परिक्रमा कर ली थी और यह संदेश जगत को दिया था कि माता पिता के चरणों में तो पूरा ब्रह्मांड समाया है। अब ब्रह्मांड ना सही मुन्नू की मां के चरणों में एक स्वदेश तो समाया ही होगा। और आज भटका हुआ मुन्नू स्वदेश लौट आया है।

रही बात सुंदरी की तो पता नहीं कि वह तेज थी या सीधी। सही थी या गलत पर उसने विदेश यानी अपने पति के घर का मज़ा तो लिया ही पर अपने स्वदेश यानी मायके के प्रति प्यार को , अपनत्व को कभी नहीं छोड़ा।

मुन्नू को भी चाहिए कि वह ससुराल में मिल रहे सम्मान  प्यार और संपन्नता  का लुत्फ उठाए और पर मां की ऐतिहासिक वात्सल्य भरी छांव को भी न भूले।

आज मां की गोद में सिर रख मुन्नू और मां दोनों सुकून पा रहे हैं। अब तो कह लेने दो कि ” मुन्नू आज स्वदेश लौट आया है।”

समाप्त

©® गरिमा जोशी पंत

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