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हाथी की देह पर खड़िया की धारियों सी रेवा!

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हिन्दी की वरिष्ठ लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ का यह वृत्तांत पढ़िए। रेवा नदी को लेकर लिखा है और खूब सारे पाठ संदर्भों के साथ। बहुत रोचक और बहुत गहराई के साथ लिखा गया यह गद्यांश पढ़कर पानी राय दीजिये-

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‘स्थित्वा तस्मिन् वनचरवधूभुक्तकुंजे मुहूर्तम

तोयोत्सर्गाद्द्रुततरगतिस्तत्परं वर्त्म तीर्ण: ।

रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे  विंध्यपादे विशीर्णाम

भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमंगे गजस्य।।

अगणित कुंज हैं आम्रकूट की घाटियों में

करती होंगी विहार जंगली तरुणियाँ

रुक जाना तुम भी वहाँ घड़ी भर

बरसने से बदन हो चुकेगा हलका

अब और आगे बढ़ना –

विन्ध्य के ऊबड़–खाबड़ पठारों पर

दिखाई देगी अनेक धारों में छितराई रेवा-नदी

हाथी की देह पर सफेद खड़िया से खिंची लकीरों जैसी ( पू.मे.19)

वन तरुणियों की घाटी में महज क्षणभर नहीं, ख़ूब विहार कर हल्का कर चुके थे बदन, मेघ महोदय। रेवा मेरा अगला गंतव्य थी। विंध्य के ऊबड़ – खाबड़ पठारों पर प्रपात तो बहुत मिले मगर विभक्त रेवा की धारियों तलाश न कर सकी, वे तीक्ष्ण तापमान के कारण अपने दुर्बल रूप में थीं। धूपगढ़ पर भी रेवा की धार बहुत ही क्षीण अवस्था में मिली. चूंकि विद्वान कैलाश द्विवेदी अपने मतानुसार होशंगाबाद–छिंदवाड़ा की सीमा पर स्थित पचमढ़ी को ही आम्रकूट मानते हैं। जहां से रेवा और दशार्ण प्रदेश ठीक उत्तर में पड़ते हैं। वन बहुलता, आम – जामुन के पेड़ों की प्रचुरता, वनवासी आज भी यहां विद्यमान हैं।  लेकिन कालिदास को डीकोड करना इतना भी सहज नहीं। कालिदास किशोरी और उच्छृंखल नर्मदा को रेवा कहते हैं, जब वह गंभीर बन मैदानों में बहती है नर्मदा हो जाती है।

आजकल रेवा की असल धारियाँ तो भेड़ाघाट जबलपुर में बनती है। पर दिशांतर मतभेद करता है। अन्यथा अमरकंटक के आम्रकूट होने का दावा दमदार हो जाता। फिलहाल हम उस मत के अनुसार यात्रा पर हैं जिस के तहत रामटेक को मेघ का प्रस्थानबिंदु माना गया है। इस मेघ-यात्रा के क्रम से यही इंगित होता है कि कालिदास के इस श्लोक में जिस स्थान पर रेवा का वर्णन है, वह वर्तमान होशंगाबाद के निकट रहा होगा।

मेरी आंख पर कालिदास अकसर शब्दों की पट्टी बांध कर घुमा देते हैं, फिर दिशा खोजते रहो। मैं अंदाज़ लगा पा रही हूं, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी सहित अनेक विद्वानों के प्रिय ‘सरगुजा के रामगिरी पर्वत’ वाले मत की मेघ-यात्रा में विचलन बहुत होंगे, दिशाएं भी कतई एक्यूरेट नहीं होंगी मगर हम कवि को कल्पना के गल्प की छूट भी तो दे सकते हैं। खैर फिलहाल तो हमें इस रास्ते में रेवा आगे भी मिलेगी.

भौगोलिक दृष्टिकोण देखें तो रेवा नदी क्या है? वह मध्यप्रदेश की जीवन-रेखा नर्मदा नदी का ही उच्छृंखल स्वरूप है.  नर्मदा उत्तर में विंध्य पट्टियों और दक्षिण में सतपुड़ा रेंज के बीच तीन संकीर्ण घाटियों में प्रवेश करती है। यहाँ वह अनेक धाराओं में विभक्त हो जाती है. गर्मी में तो ये धाराएं क्षीण-सी दिखती हैं किंतु वर्षा के दिनों में कवि की उपमा का साकार रूप आज भी बनती है. यह इलाका विन्ध्य की तलहटी कहलाता है। इसका दक्षिणी विस्तार अधिकतर स्थानों पर फैला हुआ है। हमारे यात्रा क्रम में रामटेक को हमने प्रस्थान बिंदु माना है तो उपर्युक्त छन्द में जिस तरह से रेवा का विवरण है, वह वर्तमान होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) के आस-पास रहा होगा.

नर्मदा-पुत्र अमृत लाल वेगड़ जी से अधिक रेवा को कौन जानता होगा? वे अपने लेख ‘नर्मदा नदी की आत्मकथा’ में लिखते हैं – “उम्र के हिसाब से मैं गंगा से बड़ी हूँ क्योंकि जब गंगा नहीं थी, मैं तब भी थी। जब हिमालय नहीं था, विन्ध्य तब भी था। विन्ध्य शायद भारत भूमि का सबसे पुराना प्रदेश है। लेकिन यह पुरानी, बहुत पुरानी बात है। यह ठीक है कि मेरे तट पर मोहनजोदड़ो या हड़प्पा जैसे 5,000 वर्ष प्राचीन नगर नहीं रहे, लेकिन मेरे ही तटवर्ती प्रदेश होशंगाबाद और भीमबेटका में 20,000 वर्ष पुराने प्रागैतिहासिक चित्र पाए गए हैं। और उतने बड़े नगर मेरे तट पर हो भी कैसे सकते थे। मेरे दोनों ओर दण्डकारण्य जैसे घने जंगलों की भरमार थी। इन्हीं जंगलों के कारण वैदिक आर्य तो मुझ तक पहुँचे ही नहीं। बाद में जो आए, वे भी अनेक वर्षों तक इन जंगलों को पार कर दक्षिण में जाने का साहस न कर सके। इसलिए मैं आर्यावर्त की सीमारेखा बनी। उन दिनों मेरे तट पर आर्यावर्त या उत्तरापथ समाप्त होता था और दक्षिणापथ शुरू होता था। मेरे तट पर मोअन-जो-दड़ो जैसी नागर संस्कृति नहीं रही, लेकिन एक आरण्यक संस्कृति अवश्य रही। भारतीय संस्कृति मूलत:आरण्यक संस्कृति है। मेरे तटवर्ती वनों में मार्कण्डेय, भृगु, कपिल, जमदग्नि आदि अनेक ऋषियों के आश्रम रहे। यहाँ की यज्ञवेदियों का धुआँ आकाश में मंडराता रहता था। ऋषियों का कहना था कि तपस्या तो बस नर्मदा-तट पर ही करनी चाहिए। इन्हीं ऋषियों में से एक ने मेरा नाम रेवा रखा। रेव यानी कूदना। उन्होंने मुझे चट्टानों में कूदते-फाँदते देखा, तो मेरा नाम रेवा रखा। एक अन्य ऋषि ने मेरा नाम नर्मदा रखा। नर्म यानी आनन्द। उनके विचार से मैं सुख या आनन्द देने वाली नदी हूँ, इसलिए उन्हें नर्मदा नाम ठीक जान पड़ा। मैं भारत की सात प्रमुख नदियों में से हूँ। गंगा के बाद मेरा ही महत्त्व है। हजारों वर्षों से मैं पौराणिक गाथाओं में स्थान पाती रही हूँ। पुराणों में मुझ पर जितना लिखा गया उतना और किसी नदी पर नहीं। स्कन्दपुराण का रेवा-खंड तो पूरा का पूरा मुझको अर्पित है।“ ( नर्मदा नदी की आत्मकथा – अमृत लाल वेगड़ )

मुझे अब होशंगाबाद जाकर रेवा के उच्छृंखल सौंदर्य को देखना था. मैं कल्पना कर पा रही थी कि विंध्य और सतपुड़ा के सांवले पहाड़ों, तलहटियों में रेवा की धाराओं की उपस्थिति हवाई दृश्य से हाथी की देह पर खड़िया की लकीरों सी ही दिखती होगी। अनवरत यात्राओं में इतना चलकर कालिदास की दृष्टि से इतना मेघ-पथ जानने और महसूस करने के बाद  मैं बिलाशक कह सकती हूं कि कालिदास की यह कृति महज मानवीय दृष्टि से नापी-देखी भौगोलिक सतह पर से नहीं लिखी गयी है।  बल्कि मेघ और उसकी स्थिति को कल्पना में रख कर लिखी गई है… जिसे आज हम ‘एरियल व्यू’ कह सकते हैं। तब तो यह मेघ – दृष्टि की गहन कल्पना होगी।

सुबह मुझे टैक्सी में सामान रखते देख हड़बड़िया बादल आनन – फानन में ढलान पर आ खड़ा हुआ दूर उसके बाल-बच्चे अब भी पहाड़ियों पर खेल रहे थे. उनकों गर्मियों की छुट्टियों में मानो यहीं मित्र के पास छोड़ वह मेरे साथ चलने की ठान बैठा था. गाड़ी चली तो मैं मुस्कुराई उसने भी पवन संग उठान ली उत्तर दिशा की ओर।

हम तीन घंटों में सुबह साढ़े नौ बजे होशंगाबाद आ गए थे। यहाँ मुझे कहीं नहीं ठहरना था। बस रेवा के दर्शन करने थे। रेवा के तट पर बसा यह शहर भी निश्चय ही अपना प्राचीनतम इतिहास रखता होगा यह इसका नाम ही बताता है। प्राचीन समय में इसका नाम नर्मदापुरम था।  लेकिन मालवा के पहले शासक होशंगशाह के कारण यह नामकरण किया गया। नदी के निर्मल तटों के चलते यहाँ आध्यात्म ने भी शरण ली है।  मुझे टैक्सी वाला सीधे सेठानी घाट ले गया। यहाँ उसका ननिहाल था सो वह यहाँ के बारे में सबकुछ जानता था। सेठानी घाट पर ठीक- ठाक सफाई है। सीढियाँ अच्छी तरह पेंट करके रखी हुई हैं। यहाँ खूब सारे मंदिर हैं। नाम ज़ाहिर करता है कि इस घाट को किसी सेठानी ने बनवाया होगा। मुझे यह शहर किसी पिछली सदी में रुक गया-सा  प्रतीत होता अगर यहाँ पॉलीथीन प्रकोप नहीं दिखाई पड़ता तो … वहाँ आस – पास साधु समाज एकत्र है, उनमें से एक रामनामी ओढे हुए वृद्ध साधु कह रहे हैं – “ पुराणों में लिखा है –  गंगा कनखल क्षेत्र में, सरस्वती कुरूक्षेत्र में अधिक पुण्यवती है। लेकिन रेवा चाहे कस्बों में हो या जंगल में, यह तो सर्वत्र पुण्यदायी हैं।“

यह बात यहां जनमानस में खूब प्रचलित है और रेवा सहज सुलभ नदी भी है। जाने कितने गांव, कस्बे, शहर, जंगल, पहाड़, पठार छूती चलती है। मेरा अन्य खंडहर और पर्यटन स्थल देखने का मन न था। दोपहर तक केवल और केवल रेवा का सान्निध्य। एक चटुल-चंचल नौका पानी में दूर दीख पड़ रही है. मैंने वहाँ घाट से एक नौका वाले को खूब आग्रह कर, अतिरिक्त आमदनी का लालच देकर पकड़ा है …. बस एक घंटे की सैर की तो बात है।  धूप चिलचिलाने लगी थी, मगर निर्मल रेवा का जल पुकार रहा था. सर पर स्कार्फ़ बाँध कर चश्मा लगा लिया था मैंने।

रेवा के पछुवा हवाओं से थरथराते जल पर दोपहर में घूप-छाया की रंगीन रेखाएँ खिंच गईं।  रेवा का रूप तो मन मोह लेता है और धूप घाट पर रँगोली रचने लगती है। मैं दूसरे घाट से भी नज़ारा करना चाहती हूँ। नर्मदा के दक्षिण तट पर है यह होशंगाबाद का पोस्ट-ऑफिस घाट। नजदीक में है हर्बल पार्क। हाँ, टैक्सी वाला बताता है –पहले इसका नाम था ‘माई की बगिया’। यहाँ से बागली नदी तक महीन रेत की  मानो चादर बिछी है। यह रेत रंग-बिरंगी सतरंगी है। दूर निगाह तक फैला हुआ जुगला का रेत टापू। जुगला के दोनों ओर से बहती है रेवा। नर्मदा के बीचों-बीच मीलों-मील सुनहरी-स्वच्छ महीन रेत, जिससे टकराती नन्हीं धाराएं नाच रही हैं। अद्भुत दृश्य है।

इस सुनहरे कैनवास पर सरसराते कीड़े-मकोड़ों ने अपनी नन्हीं यात्राओं के मांडने यूं मांडे हैं मानो रेत पर अज्ञात लिपियाँ लिखी हों। रेत की चादर पर कुछ बच्चे खेल रहे हैं। कुछ घरोंदे बना रहे हैं, बचपन याद या जाता है, एक पैर को गीली ठंडी रेत में रखना। उसके ऊपर गीली रेत के लौंदे रखना, दबाना और थपकना फिर पैर बाहर निकाल लेना। खोखले घर को आकार देना, बगीचा बनाना, उंगलियों से तराश कर सीढ़ियाँ बनाकर महल बनाना।

कुछ देर वहाँ रुक कर अपने युवा सारथी के सुझाव पर अमल करते हुए  मैं दस किलोमीटर की अतिरिक्त यात्रा करके तवा – नर्मदा के संगम बांद्राभान पर आ खड़ी हुई हूँ. धूप में चुभन बढ़ रही है हवा में नमी अचानक ही मेघ मेरे सर पर धूप के लिए छाता बन कर आ खड़ा हुआ है। मैं ऊपर देखती हूँ, उसका होना एक सहारे जैसा है। अचानक ऎसा लगा कि बारिश की महीन बूँदों की बौछार से तट और घाट की धूल फूली नहीं समाई है। मेरी खुश आँखों ने पूरा खुलकर एक बार अपनी गहराईयों में  भँवर डालते हुए चलती रेवा को देखा। दूसरी बार रेत के पाट से विस्तार पाती तवा नदी को देखा। यही दोनों का संगम – स्थल है, बांद्रभान। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। सोच में थी कि, इतना लंबा-चौड़ा तवा नदी का पाट है, इतनी बालू वाली तवा नदी नर्मदा में कैसे जा मिली होगी?  फिर इस संगम को तो और विशाल होना था! मन से उत्तर फूटा, “ निश्चय ही नर्मदा की गहनता में तवा का उथलापन समाहित हो गया।“ यही विशाल रेत भंडार इस संगम पर सुनहरे टापू बनाता है. लेकिन आगे जाकर नर्मदा में विलीन हो जाता है, सारी बालू नर्मदामय हो जाती है। यही तो नदी होना है, संगम होना है।

नदियों से मेरा जुड़ाव बचपन का है। चित्तौड़गढ़ में हमारे स्कूल के आगे ही गंभीरा नदी का एनीकट था। विवाह होकर मथुरा गई तब यमुना से मिली, तब वह अपेक्षाकृत साफ–सुथरी थी और हम चाँदनी रातों में नौकाविहार को जाया करते थे। लौटते हुए मुझे एक बात ने सुखद आश्चर्य से भर दिया कि तवा नदी के होशंगाबाद की ओर के तट पर ‘भवानी कुंज’ है। और तवा के माखन लाल चतुर्वेदी के जन्म स्थान बबई की ओर के तट पर ‘माखन कुंज’ है। भ्रष्ट व्यवस्था के चलते आज ये दोनों ही कुंज अच्छी स्थिति में नहीं हैं मगर वह समय कितना कवितामय रहा होगा। काश मेरी इस मेघ-यात्रा में वे दोनों जीवित होते…तो मैं ज़रूर मिलती। अब तो अनुपम मिश्र जी भी नहीं रहे। आह!

बह नहीं रहे होंगे

रेवा के किनारे–किनारे

उन दिनों

हमारे शब्द

दीपों की तरह

पड़े तो होंगे मगर

पहुंच कर वे

अरब-सागर के किनारे पर

कंकरों और शंखों और

सीपों की तरह

मुझे लगा हवा पर सवार मेघ यह कविता गुनगुना रहा है। मैं ने गरदन उठा कर पूछा– “ मेघ भाई, तुमने कब भवानीप्रसाद मिश्र को पढ़ लिया? “

मेघ चुप रहा, वह तो तब भी नहीं बोला था जब यक्ष विरह के सन्निपात में प्रलाप कर रहा था। बस ठिठका था यक्ष-समक्ष, विनीत- मूक मुस्कान लिये फिर संदेश ले उड़ चला था यक्ष के सुझाए पंथ पर। सो बोला तो अब भी नहीं, मगर उछाह में ‘एक्रोबेट्स’ करने लगा। हम दोपहर के एक भोजनालय में स्वादिष्ट खान खाने के बाद विदिशा के लिए निकल पड़े। विदिशा में मेरा ठिकाना अंशु के एक  मित्र के परिवार के संग था। टैक्सी में बैठते हुए मेरा चित्त अति-प्रसन्न था मगर काया पस्त। हाइवे पर आकर दो किलोमीटर भी ना तय किए होंगे की मैं सो गई।

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