युवा लेखक कुशल सिंह का नया उपन्यास आ गया है ‘मनी कथा अनंता’। अपने पहले उपन्यास ‘लौंडे शेर होते हैं’ की तरह ही यह उपन्यास भी रोचक है और पठनीयता के तमाम गुणों से भरपूर भाषा। वे कोल इंडिया में अधिकारी हैं और ज़मीनी कहानियाँ लिखते हैं। हिंद युग्म से प्रकाशित उपन्यास के इस अंश का आप भी आनंद उठाइए-
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सो कलिकाल कठिन उरगारी, पाप परायन सब नर नारी
धृतराष्ट्र ने पांडवों को खांडव वन की निर्जन भूमि दी कि बेटा जाओ, वहीं बनाओ, खाओ और राज करो, हमारा पिंड छोड़ो। लेकिन खांडव प्रदेश एक दम बंजर इलाक़ा था जो हज़ारों तरह के ख़तरनाक जानवरों का अड्डा था। अब इतने बड़े जंगल को साफ़ करना बहुतई कठिन काम था सो अर्जुन ने गांडीव पर तीर धरा और उस तीर पर बैठे अग्निदेव और अग्निदेव ने जो धूँ-धाँ मचाई उसमें जंगल के सारे जानवर, कीट, भुजंग वहीं जलकर मर गए। उस खांडव वन पर उस समय नागराज तक्षक का अधिकार था इसमें वह ख़ुद तो किसी तरह बच गया लेकिन उसका परिवार और राजपाट जल गया। उसने अर्जुन से बदला लेने की क़सम खाई लेकिन अर्जुन से बदला कैसे लिया जाए, अर्जुन भारी धनुर्धारी आदमी। तो उसने किया इंतज़ार, एक बड़ा लंबा इंतज़ार। लेकिन असल कहानी ये थोड़े ही न है, कुछ और है, इसलिए वहीं ले चलता हूँ।
बात बहुत पहले की है, इतने पहले की कि कलियुग बस शुरू ही हुआ था। धर्म और धरती दोनों ही दुखी थे। एक नदी किनारे दोनों बतिया रहे थे। धर्म, जिस बेचारे की हर युग की समाप्ती पर एक टाँग जाती रही, अब अपनी एक ही टाँग पर मुश्किल से बैल के रूप में खड़ा था और धरती गाय के रूप में थी। दोनों ही टेंशन में रहे कि अब का होई? कैसे होई? भगवान कृष्ण तो बैकुंठ चले गए, अब कौन बचाए इस कलियुग से! तभी कलियुग वहाँ आ पहुँचा और लगा दोनों को मारने। उसी समय अर्जुन के पौत्र महाराजा परीक्षित, जो अभिमन्यु के पुत्र और महाभारत के युद्ध में बचे पांडवों के इकलोते उत्तराधिकारी थे, वहाँ पहुँचे और कलियुग को ललकारते हुए बोले, “अबे नराधम दुष्ट! कौन है रे तू जो इन निरीह गाय-बैल को सता रहा है? आज गर्दन काटकर तेरा पत्ता साफ़ कर देता हूँ ताकि तुझे तेरे अपराध की सज़ा मिल सके।” ये सुनकर कलियुग की हवा टाइट हो गई और डर के मारे चौहल्लर होता हुआ कलियुग त्राहिमाम-त्राहिमाम डकराते हुए महाराज परीक्षित से शरण माँगने लगा।
उसी समय धर्म तथा पृथ्वी भी अपने रूप में आ गए और अपनी परेशानी सम्राट परीक्षित को बताने लगे।
सम्राट परीक्षित बोले, “हे कलियुग! अब तू चूँकि शरण माँग रहा है, इसलिए बेटा, तुझे मारेंगे तो नहीं लेकिन है तू बहुतई हरामी। हर तरह के गड़बड़झाला, कुकर्म, पाप, झूठ, चोरी, कपट, दरिद्रता जैसी हरेक चीज़ का टंटा तू ही है। इसलिए बेटा जान की सलामती चाह रहे हो तो मेरे राजपाट से निकल लो नहीं तो अभी चटनी बनाए तुम्हारी।”
राजा परीक्षित के इन वचनों को सुनकर कलियुग बोला, “हे तात! क्यों हमारी खुस्की ले रहे हो? पूरी दुनिया पे तुम्हारा ही राज है। अब मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ और इस समय मैं धरती पे हूँ तो ये तो काल के हिसाब से है। तुम्हीं बताओ अब कहाँ रहूँ मैं?”
कुछ सोच-साचकर महाराज ने कहा, “हे कलियुग! जुआ-सट्टा, शराबखोरी, अडल्टरी और वायलेंस… इन चार जगहों में असत्य, मद, काम और क्रोध का निवास होता है। इन चार जगहों में रहने की मैं तुझे छूट देता हूँ।”
इस पर कलियुग सर खुजाते हुए बोला, “हे राजन! बस इतनी-सी जगह में कैसे रहेंगे, हमारो ऊ तो कुनबा-ख़ानदान है, थोड़ा रहम खाओ और एक-आध जगह और दे देओ।”
कलियुग के बहुत ही रिक्वेस्ट करने पर राजा परीक्षित ने उसे पाँचवीं जगह ‘स्वर्ण’ दे दी। समय के साथ-साथ जब स्वर्ण मुद्राओं का स्थान काग़ज़ के नोटों ने ले लिया तो स्वर्ण के साथ-साथ कलियुग नोटों में भी बसने लगा। उपरोक्त पंच-स्थल ऐसे हैं कि मन की मति फिसलने में देर नहीं लगती। आदमी हर तरह का अपराध करने के लिए एक ही टाँग पर खड़ा तैयार रहता है। तो इन सब जगहों को पाकर कलियुग उस समय तो वहाँ से ग़ायब हो गया लेकिन अदृष्य होकर वो राजा परीक्षित के स्वर्ण मुकुट में ही घुस गया।
इसके बाद परीक्षित शिकार के लिए गए। वहाँ बहुत भटके और भूख और प्यास के मारे उनकी हालत हो गई टाइट। शाम के समय थके हारे वो आगरे में कीठम के पास बने हुए, श्रृंगी ऋषि के आश्रम पहुँचे और ऋषि उस समय समाधी में थे। परीक्षित ने कहा, “हमें प्यास लगी है, पानी पिलवाओ।”
ऋषि उस समय समाधी में लीन थे। राजा ने दो-तीन बार पानी माँगा परंतु ऋषि की समाधी नहीं टूटी। ये बात राजा ने अपने ईगो पे ले ली और ग़ुस्से में आकार ऋषि को दंड देने का फ़ैसला लिया। हालाँकि ये करतूत मुकुट में बैठा कलियुग करवा रहा था जिसने उनकी सात्विक बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी।
परंतु राजा के अच्छे संस्कारों के कारण उन्होंने अपने-आप को उस पाप से रोक लिया। लेकिन फिर भी कलियुग के ज़ोर लगाने पर ग़ुस्से में राजा ने मरा हुआ साँप ऋषि के गले में डाल दिया। ये बात जब ऋषि के लड़के को मालूम पड़ी जो वहीं पास में कीठम झील में ही नहा रहा था तो उसने वहीं अंजुली में पानी भरकर राजा को श्राप दिया कि जा मूर्ख और अभिमानी राजा अब से सातवें दिन तोये साँप डसेगा, तासे तुम अकाल मौत मरोगे। सातवें दिन जिस साँप ने राजा को डसा वो कोई और नहीं था बल्कि सालों से बदले की आग में जलने वाला नागराज तक्षक था। बदला ज़रूरी नहीं कि तुरंत लिया जाए, बल्कि शत्रु पर तब प्रहार करो जब उसकी चूलें हिल रही हों ताकि वो चारों खाने चित्त हो जाए।
तो ये कहानी मैं आपको क्यों सुना रहा हूँ जबकि अपनी कहानी तो कुछ और ही है। वो इसलिए कि हमारी कहानी कि नींव भी तब ही डल गई थी, कलियुग के आने के साथ ही। तो महाराज कलियुग है, घोर कलियुग। कुछ भी उलट-सुलट हो सकता है यहाँ।
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