
चंद्रकुमार ने कॉर्नेल विश्वविद्यालय, न्यूयार्क से पढ़ाई की। वे आजकल एक निजी साफ्टवेयर कंपनी में निदेशक है लेकिन उनका पहला प्यार सम-सामयिक विषयों पर पठन-लेखन है। स्थानीय समाचार पत्रों में युवाओं के मार्गदर्शन के लिए लंबे समय तक एक नियमित स्तंभ लेखन के साथ ही खेल, राजनीति, शिक्षा, कलाओं और समाज पर उनके आलेख राष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए है। पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं। उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है ‘स्मृतियों में बसा समय’। उसी संग्रह से कुछ कविताएँ पढ़िए-
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1. एकान्त
अकेलापन
क्षरण करता है
एकान्त गढ़ता है
— प्रेम भी, व्यक्तित्व भी
क्षरण के बाद ही
सम्भव हो सकता है
सृजन
अकेलापन क्या बीज है
एकान्त का
खिलाएगा जो मुझे
मेरा क्षरण करते हुए ?
2. हरे खण्डहर
ढूँढता हूँ
स्मृतियाँ
खण्डहरों में कहीं
खण्डहर — मेरे पुरखे हैं !
काई जमी दीवारें
बीच-बीच में उग आए
झाड़-झंखाड
हरा रखते हैं खण्डहरों को —
इनमें बसी ख़ुशबूओं को ।
उनका क्या होता होगा
नहीं है जिनकी स्मृतियाँ
नहीं हैं जिनके अपने खण्डहर
— जैसे नये बसे शहर ।
किसे पुकारते
या स्मृतियों से निहारते होंगे
कहाँ मिलता होगा इन्हें सुकून
बिना अपने खण्डहर
जहाँ स्मृतियाँ
हरी रहती है !
3. अमर प्रेम
अपने प्रेम को
अमर करने का यह
सबसे सरल उपाय होगा
तुम मुझे कविता बना कर
दर्ज कर लो
लिखे का यूँ मिटना आसान नहीं
महकता रहूँगा तुम्हारे
शब्दों में
जब-जब पढ़ेगा कोई
कविता
4. नदी में नहाती बारिश
मुद्दतों बाद
तुम्हारे चेहरे पर खिलखिलाया है नूर
बज रहा हो जैसे मन में
— जलतरंग ।
चेहरे पर गिरती बूँदे ः
जैसे कोई बारिश खुद नदी में
— नहा रही हो।
5. सन्नाटों का सरोवर
चाँद का अक्स
तैर रहा है
झुक आयी पेड़ की डाल के पास
चन्द सूखे पत्ते
बिखरे पड़े हैं
पानी के आँगन में
— जिन्हें हवा भी नहीं छेड़ती
ख़ामोश है पंछी भी
दुबक कर बैठे हैं
पेड़ की शाख़ों पर
मैं गुन रहा हूँ कविता
— झील किनारे
इस उम्मीद में कि —
कुछ तो बोलेगी कविता
शब्द-दर-शब्द
सन्नाटा चीरते हुए
गुनगुनाएगी जिसे
जब नींद से जागेगी
— एक दिन दुनिया ।
6. निःशब्द प्रेम
नहीं!
नहीं रच सकता मैं कुछ भी
— कोई कविता भी नही
इस दुनियावी भाषा से ।
गढ़ने होंगे मुझे कुछ नये शब्द
— या शायद कोई भाषा भी
तभी रच पाउँगा वह
जो है मेरे भीतर
— गहरे तक उतरी तुम्हारी छवि ।
बुरा तो नहीं मानोगे —
कुछ भी नहीं कहना चाहता तब तक
मैं तुम्हारे लिये?
7. प्रेमाकांक्षा
तुमसे कब उम्मीद थी
कि तुम अपने प्रेम को ज़ाहिर करोगे
मेरे, या किसी के भी सामने
— जानती हूँ ।
मेरे लिये तुम्हारा ग़ुस्सा
मेरे प्रति उदासीनता
और कभी-कभी मेरा तिरस्कार
— बहुत मुखर होते हैं !
ये भी तो भाव ही हैं
प्रेम की तरह —
ये क्यों नहीं छिपाते
जैसे तुम प्रेम को छुपाते हो
— प्रिय !
8 जंगल की साँस
सुन रहा हूँ
कहीं दूर बैठे
गिर रही बूँदों की टप-टप
हवाओं में बह कर
हो रही है जो
— विलम्बित ताल
शान्त जंगल में
जीवन का राग है
यह आवाज़
— जैसे हम साँस लेते है ।
9 पंच ईश्वर
रात ढले
तुम्हारे आँचल पर
ये इतने छेद
और कुछ बड़े पैबन्द
साफ दिख रहे हैं
झाँकती है रोशनी इनसे
— चाँद-सितारे बन कर ।
हे ईश्वर !
कुछ तो अपना भी ख़याल करो
या ख़ाली हमारी दुनिया के
— पंच बने रहोगे ?
10. स्मृतियाँ
अक्सर
स्मृतियाँ ही चुनता हूँ
मैं प्रेमी से ज़्यादा
कवि बन कर जीता हूँ ।
कवि का प्रेम
देह से ज़्यादा
स्मृतियों से है
जो रचता है
हर पल उसे
— तब भी
जब कुछ नहीं रहता ।
11. प्रेम-शब्द
कभी लिख पाऊँगा वैसे
जैसे मैं सोचता हूँ ?
लिखा है किसी ने कभी
उसी संवेग, उत्तेजना
प्रेम, घृणा या अवसाद से
भीतर जो हिलोरें मारते हैं ?
नहीं बन पाते जो
शब्द !
कैसी होगी वह कविता
जिसमें हमारा प्रेम
शब्द और उसके अर्थों से भी
वृहद् और गहरा होगा ?
क्या पता —
कोई लिख पाता हो कभी ।
मैं तो नहीं लिख पाया वह कविता
जैसा तुमसे प्रेम करता हूँ ।
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सेतु प्रकाशन,
नोएडा
पृष्ठ ः 104
मूल्य ः ₹ 140 (पेपरबैक) । ₹ 300 (हार्ड बाउंड)
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