Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World Literature
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1574

  ‘सरदार उधम’ : एक क्रांतिकारी को विवेक सम्मत श्रद्धा–सुमन

$
0
0

आजकल ‘सरदार उधम’ फ़िल्म की बड़ी चर्चा है। इसी फ़िल्म पर यह विस्तृत टिप्पणी लिखी है मनोज मल्हार ने, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं। आप भी पढ़िए-

=========================

सरकारें अक्सर अपनी विचारधारा के अनुरूप कला , संस्कृति और सिनेमा को प्रोत्साहित करती है. कांग्रेस की सरकारें पहले धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रित मूल्यों को बढ़ावा देने और ऐसे मूल्यों को स्थापित करने का काम करती रही हैं. वर्तमान सरकार अपनी हिंदूवादी विचारधारा के अनुरूप ही कला, संस्कृति और सिनेमा में हस्तक्षेप करती रही है. इसके प्रोत्साहन और समर्थन से ‘राजी’, ‘शेरशाह’, ‘अ वेडनेस डे’, ‘केसरी’ , ‘परमाणु’ , ‘भुज’  सहित दर्जनों फिल्मों का जखीरा निर्मित और प्रदर्शित किया गया. इन फिल्मों में देशभक्ति  आतंकवाद , पाकिस्तान, कश्मीर और मुसलमान के चालू  फ़ॉर्मूले , शोर शराबे और जिंगोइस्म को ही परोसा गया. ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’, ‘पीएम मोदी’  के रूप में हिंदी फिल्मों ने निम्नतम स्तर भी प्रदर्शित किया. शुजित सरकार ने ‘सरदार उधम’ के निर्माण और  निर्देशन के द्वारा न केवल राष्ट्रवाद का एक विश्वसनीय और इतिहास सम्मत चेहरा प्रस्तुत किया है बल्कि बॉलीवुड की साख को लगे बट्टे को काफी तक तक डैमेज कण्ट्रोल किया है. शूजित सरकार ने लम्बे समय बाद कोई ऐसी फिल्म हिंदी सिनेमा को दी है जिस पर  बरसों तक गर्व किया जा सकता है. निर्देशक का अंदाज पेशेवर है. फिल्म के पात्र और घटनाएं बोलते  हैं. स्कॉटलैंड यार्ड के अधिकारी बोलते हैं, जबरन उधम के खिलाफ सबूत इकठ्ठा कर  रही इंग्लैंड पुलिस का पक्ष है या फिर न्याय का नाटक कर रहे औपनिवेशिक अदालत का जज .. फिल्म समय के एकरेखीय स्वरूप को नहीं अपनाती बल्कि 1919 से 1940 तक की अवधि में आगे – पीछे करती रहती है.

 शूजित सरकार ने ‘पीकू’ , ‘विक्की डोनर’ , ‘पिंक’  जैसी फिल्मों बाद अपनी छवि एक नई विषय – वस्तुओं को इंटेंसिटी के साथ  और जीवन के मूल्यों की सार्थकता की तलाश को प्रस्तुत करने वाले निर्देशक के रूप में  पेश किया था. काफी सराहे गये. ‘सरदार उधम’ का निर्देशन कर उन्होंने समकालीन निर्देशकों की अग्रिम पंक्ति में आ गये हैं. पूरी फिल्म निर्देशक की फिल्म है और विक्की कौशल की सराहना करनी होगी कि उन्होंने इसके बावजूद सरदार उधम सिंह के चरित्र को जीवंत कर दिया. ऐसा लगता है विक्की कौशल इसी भूमिका के लिए बने थे. फिल्म डॉक्यूमेंटेशन, इवेंट्स और इमोशन  का बेहतरीन संगम है. फिल्म  में भारतीय  क्रांतिकारी आन्दोलन के एक केंद्र के रूप अमृतसर और  हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर. ए.) की गतिविधियों को एक  जरूरी सन्दर्भ दिया गया है. उधम भगत सिंह और अन्य साथियों के साथ एच. एस. आर.ए. में सक्रिय थे. चार साल जेल भी काट चुके थे. जलियांवाला बाग़ नरसंहार में आत्मीय जनों सहित सैकड़ों लोगों की निर्मम हत्या के बाद एक दृढ़ इच्छा के साथ बेहद तकलीफदेह यात्रा के बाद लन्दन पहुँचते हैं. उन्हें डायर को मारने का कई बार अवसर मिलता है पर वे ‘प्रोटेस्ट’ के रूप में उसे मारने चाहते हैं न कि एक व्यक्तिगत प्रतिशोध की भावना के रूप में. उधम बीस साल तक इंतज़ार करते हैं और अंतत 1940 में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में भाषण देकर मंच से नीचे उतरने के बाद डायर को गोलियों से वेध देते हैं. डायर उस वक़्त न केवल जलियांवाला बाग हत्याकांड में अपने एक्ट को जस्टिफाई कर रहा था बल्कि भारत को ‘सभ्य’ और सुरक्षित रखने के लिए इस कारवाई को अनिवार्य बता रहा था.

  उधम को भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन के ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो भगत की फाँसी और एच.एस. आर. ए. के बिखर जाने के बाद अकेला उसे पुनः खड़ा करने का प्रयास कर रहा है. उसके पास भगत सिंह का आख़िरी सन्देश है कि क्रांतिकारी आन्दोलन को पुनः खड़ा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन जुटाया जाये. इसके मद्देनज़र  समाजवादी रूस के पोलित ब्यूरो के सदस्यों से मिलते हैं और आयरलैंड के क्रांतिकारी आन्दोलन से संपर्क करना चाहते हैं. भगत सिंह का चरित्र पर्दे पर कुछ लम्हों के लिए ही है पर उसमें भगत सिंह की रजनीतिक सोच और समानता की  विचारधारा को , भगत सिंह के  जीवन जीने के मस्त तरीके और मस्त सपनों को बयाँ किया गया है. फाँसी के बाद उधम सिंह की दबी हुई उँगलियों से एक कागज बरामद किया जाता है. उस कागज पर भगत सिंह की जेल वाली तस्वीर है जिसमें वो बेड़ियों में जकड़े चारपाई पर बैठे हैं. पुलिस के यातना गृह में यातनाओं के बाद उधम एक शब्द भी नहीं बोलते . एकदम चुप रहते हैं. पर जाँच अधिकारी द्वारा भगत सिंह का नाम लिए जाने पर पहली बार उधम मुंह खोलते हैं और बहुत मजबूती से कहते हैं कि तुम भगत सिंह का नाम भी लेने के काबिल नहीं हो. उसका नाम मत लो. हिंदी फिल्मों में भगत सिंह की एक नई छवि है. हंसी और प्रेम के साथ स्वप्निल भगत सिंह जो विचारधारात्मक स्पष्टता की जरूरत पर जोर देते है.  उधम सत्ता और वर्चस्वकारी ताकतों की उन चालों का भी सामना करते हैं जिसमें सत्ता उन्हें क्रांतिकारी नहीं बल्कि एक आतंकवादी के रूप में पेश करना चाहती है और डायर की हत्या को एक ‘छिटपुट हिंसा की घटना’ कह कर उनके ‘क्रांतिकारी’ और वैचारिक पहलुओं को छुपा लेना चाहती है. उस समय के अखबारों के संपादकों को सख्त सकारी निर्देश है कि उधम को नायक न बनाया जाए. फिल्म की कहानी के लेखक ने सत्ता और  इसके भिन्न एजेंसियों  की अलग – अलग चालों और कथित ब्रिटिश न्यायप्रियता और प्रोफेशनलिज्म की कमियां और धूर्तता  उजागर की है.

 एक निर्देशक के रूप में शूजित का जालियांवाला हत्याकांड का दृश्य पूरी संवेदनशीलता और संयम के साथ 30 मिनट्स से अधिक समय तक चित्रित करना एक साहसिक निर्णय है. आमतौर पर समकालीन फिल्मों के सीक्वेंस छोटे रखे जाते हैं, कट टू कट. दर्शक कहीं बोर न हो जाएँ. पर शूजित और उनके  डीओपी का यह कार्य हिंदी सिनेमा की एक बड़ी उपलब्धि तो है ही.. जालियांवाला नरसंहार का एक पुनः सृजन भी है. बहुत छोटी से तंग गली से आते सेना के अधिकारी और जवान. मार्शल लॉ और धारा 144 लागू होने की घोषणाएं,  एक पंक्ति में खड़े सेना के जवान और  दनादन आग उगल रही बन्दूक की नालियां.. सामने गोलियां खाकर गिरते वृद्ध, बच्चे, स्त्रियाँ और  जवान. डायर का ताना हुआ कठोर चेहरा, फिर एक छकड़ा गाड़ी पर घायलों को लाद बार बार चक्कर लगाता उधम. अस्पताल में थके हुए डॉक्टर का बेहद थकावट भरी आवाज में कहना –‘  इसे मोर्फीन दे दो’. .. पूरा सीक्वेंस हम हिन्दुस्तानियों के लिए बेबसी और मजबूरी से भरा लगता है. सिर्फ सत्ता और सरकार है जो जनरल डायर का ये कहते हुए समर्थन कर सकती है कि मार्शल लॉ और धारा 144  लागू  होने की सूचना सभी सभा करने वालों को थी. संवेदना यहाँ दीर्घकाल तक बने रहने के लिए उभरती है. हाँ , ये जरूर अखरता है कि घायलों को अस्पताल पहुंचाने में सिर्फ उधम ही थे ? क्या कोई और वाकई नहीं था? यकीन नहीं होता.

विक्की कौशल का अभिनय उनके जीवन के शानदार उपलब्धियों में रहेगा. उनकी चुप्पी, उनकी आँखें में दबा गुस्सा. अदालत में उनके गुस्से का एकदम से फूटना..सब परफेक्ट लगता है. असली. मेलोड्रामाटिक नहीं.  भावों का नियंत्रण और भावों का ब्लास्ट बढ़िया है. अच्छा निर्देशक अच्छे  कलाकारों का अच्छा इस्तेमाल करता है. फिल्म का रंग संयोजन और पार्श्व संगीत मार्मिक है. भावों को बहुत  मजबूत बनाते है. फिल्म की गति को किसी बड़े उपन्यास के अध्यायों की तरह कसावट से पूर्ण और नियंत्रित रखी गयी है.

‘सरदार उधम’ सही वक़्त  पर आयी शानदार फिल्म है जो देशभक्ति को सही अर्थों में प्रस्तुत करती है. यह बहुत दूर तक याद रखे जाने वाली और इतिहास सम्मत फिल्म है जो राष्ट्रवाद के  समकालीन स्वरूप के बरअक्स इसके वास्तविक स्वरूप को प्रस्तुत करती है, देश की आज़ादी का सपना देखने के साथ साथ एक समतामूलक मानवीय समाज के निर्माण के शहीदों के तस्सवुर को रीविजिट करती यह फिल्म उधम सिंह जैसे क्रांतिकारी को विवेकसम्मत सम्मान और श्रद्धा सुमन अर्पित करती है.

…………………………………………

The post   ‘सरदार उधम’ : एक क्रांतिकारी को विवेक सम्मत श्रद्धा–सुमन appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1574

Trending Articles