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प्रमोद द्विवेदी की कहानी ‘मुलतानी काफी  के उस्ताद’

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आज पढ़िए हरफ़नमौला लेखक प्रमोद द्विवेदी की  बेजोड़ रसदार कहानी-

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यह कहानी उस्ताद की मौत से ही शुरू होती है।

दरअसल सुबह से ही बैगपाइपर ने भौंकना शुरू कर दिया था। वह उस खिड़की के पास ही बैठकर भौंक रहा था, जहां से उस्ताद की मुलतानी काफी का सुरीला टुकड़ा निकलकर बेसुरे इंसानों के कानों तक पहुंचता था। मुतवातिर भौंक सुनकर रोज देर से सोकर उठने वाले चरसी-गंजेड़ी लौंडे भी कुकुवाते हुए जग गए। कुत्ते की भाषा और इशारे वे समझते थे। अलसाए बिस्सू भटेरे ने उसके पास जाकर कहा, ‘अबे मेरी जान, काहे इत्ता भौंक रहा है… उस्ताद सरक लिए क्या ?’ बैगपाइपर क्या जवाब देता। उसने बस अपनी रुअंटी तान मारी। पूरे तार सप्तक के सामांतर असगुनही तान।

यानी वाकई उस्ताद अनंत यात्रा पर चले गए थे। बिना किसी को बताए। ना जाने क्यों मूड में अकसर वे गाते भी थे- पड़िए गर बीमार तो कोई ना हो तीमारदार, और अगर मर जाइए तो नौहाख्वां कोई ना हो…। फिल्म मिर्जा ग़ालिब में सुरैया की गाई इस ग़ज़ल को उन्होंने  उस्ताद सलामत अली की एक पंजाबी धुन लेकर थोड़ा सुधारा था। चमत्कारी खटके-मुर्की के साथ कलेजा लगाकर गाते थे और कहते थे, ‘मेरी जान सुरैया, तुम्हारे लिए ही इसे  ग़ालिब मियां ने लिखा होगा…।’ वही हुआ। उनकी हसरत पूरी हो गई। इस बेमुरव्वत जहां से गुजरे तो कोई तीमारदार, खैरख्वाह तक नहीं…और तो और देह का वारिस तक नहीं। यह भी नहीं बता गए कि दफनाना है, जलाना है या किसी दरिया में गर्क करना है।

 

बिस्सू ने खिड़की के पल्ले को धक्का दिया। खुलते ही उसके प्राण सूख गए। उस्ताद जमीन पर ढनगे पड़े थे। टांगें  थोड़ी मुड़ी हुई। बगल में बैगपाइपर का चंद बूंदों वाला पउवा, जर्मन रीड वाली हारमोनियम और खाली प्लेट जिसमें लगा खाना सूख चुका था। मक्खियों ने जिस्म पर कब्जा शुरू कर दिया था। बड़े छेदों वाली मोटी नाक से घुसकर मक्खियां खुले मुंह से निकल रही थीं । कुछ ने आंख के चीपड़ पर बसेरा बना लिया था…। बिस्सू से ज्यादा देखा नहीं गया। मिचली आने लगी। उसने घबराते हुए, पलट कर नरसिंह और बिहारी से कहा, ‘अबे पउवा उस्ताद सही में मर गए हैं। साला दरवज्जा भी अंदर से बंद है…।’

तीनों परेशान। बिस्सू बोला, ‘गुरु पुलिस को बतलाएं क्या?‘

पुलिस के नाम से ही दोनों लौंडों का मेदा हौल गया। खाकी देखकर उनका दिन खराब हो जाता था। हालांकि ‘नागिन’ और ‘परमशक्ति’ की पुड़ियों की सप्लाई उन्होंने बंद कर दी थी। महीने में एक बार चौकी में उनकी हाजिरी लगती थी और हलफ देकर आते थे।

मोहल्ले में झटके में खबर फैल गई कि पउवा उस्ताद कोरोना से निपट गए। उस्ताद के आवारा चेलों को छोड़कर कोई करीब आने को तैयार नहीं। पर लाश तक कैसे पहुंचें। भले पड़ोसियों ने आते ही पेच फंसा दिया कि कोरोना से मौत हुई है, कोई डेडबॉडी छुएगा नहीं। सरकार को जवाब देना पड़ेगा। मोहल्ले का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति एसपी पांडे नाम का आजमगढ़िया हॉकर था, जिसका दावा था कि पुलिस भी हमसे पंगा नहीं लेती। लौंडों ने पांडे से गुहार लगाई। पांडे ने इस शर्त पर पुलिस को सूचित करने का जिम्मा लिया कि बताया जाएगा- मोहल्ले में यह कोरोना से पहली मौत है। नहीं तो यह पूरी गली सील हो जाएगी। पांडे इस मामले में जानकार था, क्योंकि सील की गई गली में हॉकरों पर भी रोक लग जाती थी।

पांडे ने चार अखबार भेंटकर पुलिस चौकी को सूचित किया। सिपाही चंद्रशेखर रावत ने आते ही पहले तो हृदयहीन पड़ोसियों की मां-बहन की। फिर सीएमओ दफ्तर से लेकर सेहत कर्मियों को सूचित किया कि कोरोनों से एक तनहा निवासी की मृत्यु हुई है। उसका कोई अटेंडेंट, तीमारदार नहीं था…। फिर गरजकर फालतू मजमे को भगा दिया, ‘अबे भागो यहां से। लप्सी बंट रही है  का… अब यह बॉडी सरकार के जिम्मे हो गई है। लावारिस कोटे से लिहास का किरिया करम हो जाएगा।’

फिर आवारा लौंडों को पहचानकर बुलाया, ‘तुम लोग रहो…यह बताओ यह कौन जाति-बिरादरी का था। वही हिसाब से ले जाएंगे।’ सबसे ज्यादा नौवीं तक पढ़े अतरी पाल ने चिंतक की तरह याद किया, ‘उस्ताज जी दीवार में गुरुनानक और ईसामसीह का फोटू लगाए थे…तो पक्का है मुल्ला नहीं थे।’

सिपाही ने राहत की सांस ली, ‘साला मियां होता तो दफनाने जाने पड़ता सुलेमानपुरवा। इसे यही घाट में निपटा देंगे, बस कोरोना टीम आ जाए।’

आवारा लड़के अब सिपाही से खुल गए थे। बताने लगे-‘पउवा उस्ताद बहुत बड़े गायक थे। बस पीते थे और गाते थे। कभी-कभी हमें भी…हमने उनका नाम पउवा उस्ताद रखा था, काहे कि वो बस बैगपाइपर का पउवा मंगवाते थे। बस इस कुत्ते से ही उनकी यारी थी, इसे भी कुछ बूंदे चटवाते थे। इसीलिए उनसे हिला था। नाम भी बैगपाइपर रखा था। इनके दरवाजे पर ही बुरिया में सोता था। अकसर बैगपाइपर के गले पर हाथ फेरते हुए कहते थे, बेटा धरमराज युधिष्ठिर के साथ कुत्ता ही गया था। मेरे साथ तू भी जाएगा…देखिए मुंशी जी बैगपाइपर कितना उदास है…।’

रावत नाराज हो गया, ‘भैनचो, मुंशी किसे कह रहा है…बीट कांस्टेबल हूं, पूरी चौकी संभालता हूं।’ लड़के डर गए, सर हमें तो लगा मुंशी बड़ा होता है।

‘घंटा बड़ा…।’ रावत ने ना जाने किस पर अपनी खीज निकाली।

विषय बदलने के लिए सहमे हुए लड़के फिर कुत्ते पर आ गए। इससे  भुकरा हुआ सिपाही भी सहज हो गया था। फोकट की मिली लंबी सिगरेट सुलगाकर ज्ञानी हो चला था, ‘यार तुम्हाई कसम अपने पर शर्म आने लगी है कि एक लाश के पास तक नहीं जा सकते…अच्छा चल मिलकर दरवाजा तो खोल देते हैं।’ लड़कों की हिम्मत बढ़ी। मिलकर धक्का दिया और दरवाजा चर्राकर खुल गया। पर कोरोना के डर से पास जाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। सिर्फ बैगपाइपर ही था, जो बेसब्र होकर मालिक के पास गया, और जैसे मौत की पुष्टि करके, फिर बाहर आकर निर्णायक ढंग से भौंका। सिपाही ने भौचक्के भाव से कहा, ’भइया इन्हें भगवान ने छठी इंद्री दी है। सब ज्ञान होता है इन्हें।’ श्वान महिमा फिर शुरू हो गई। अतरी ने पंजाब केसरी के हवाले से जानकारी दी कि भिंड में एक वृद्धा की मौत हो जाने पर कुत्ता उसकी शवयात्रा में श्मशान तक गया। पूरे अंतिम संस्कार के बाद लौटा। इसके बाद खाना त्याग दिया और वियोग में जान दे दी…। इस किस्से ने बैगपाइपर का मान बढ़ा दिया, बल्कि पूरे श्वान संसार पर आस्था बढ़ी। उनके दिमाग में यह बात भी घुसी कि जब कोरोना के भय के मारे इंसानों ने एक  इंसान को भुला दिया, तब एक कुत्ते को ही उस तनहा आदमी की फिक्र थी।

 

रावत ने बताया, ‘कोरोना टीम महाराज नगर पुलिया के पास जाम में फंस गई है। दूसरे केंद्र से एक एनजीओ की टीम पहुंच रही है। वह अंतिम संस्कार का इंतजाम कर देगी। लेकिन टाइम लगेगा।’ वह माथा पकड़ कर बड़बड़ाया, ‘अबे पुलिस का काम थोड़ी है ये सब …’ उसने चौकी इंचार्ज महिपाल सिंह को बताया। महिपाल ने डांटकर उसे बताया, ‘यह बिल्कुल पुलिस का काम है। तुमने दरवाजा तुड़वाकर और जिम्मेवारी ले ली है।’

वह दुखी था वाकई, ‘अबे कुछ खिलवा दो भाई। यह तुम्हारा सिंगर तो पूरा दिन ही खा गया।’

तुरंत चाय-नमकीन का इंतजाम हुआ। अब सबमें मित्रता भाव जग रहा था। बिस्सू ने उदास सिपाही को तसल्ली देते हुए कहा, ‘अभी छोले-कुलचे की पार्टी करते हैं।’ रावत अब भूल गया था कि वह इलाके का बीट कांस्टेबल है।

माहौल देखकर मददगार आने लगे। जुनैद अली हकीम साहब ने पांच-छह कुर्सियां रखवा दीं। एक दौर चाय का हो गया। मृत्यु-चिंतन शुरू हुआ, ‘बेचारे का कोई सगा होता तो सब देखता। कैसी गत हुई कि लाश पर रोना वाला तो छोड़ो, किरिया करने वाला तक नहीं।’ ये चिंतन करने वाले वे बुझैल बूढ़े थे जिन्होंने उस्ताद की गायकी का रस लिया ही नहीं। इनका जीवन चपरासीगीरी या पल्लेदारी में गुजरा। काव्य, कला, संगीत से रहित इंसान होकर रोटी के राग में जीवन खप गया। जीवन में मनोरंजन के नाम पर फ्री का पतुरिया नाच देखकर इनकी रसिकता फड़कती रही। मुलतानी काफी के इस दिवंगत गायक से इनका वास्ता ही नहीं हुआ। बस सुन रखा था, पक्के गाने वाला कोई बाहर से आकर बसा है।

 

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चलिए जरा उस्ताद के जीवन में झांक लेते हैं।    

एक जमाने में अच्छे-खासे आकाशवाणी में ए ग्रेड के उपशास्त्रीय गायक थे। कभी दूरदर्शन की एक रात्रिकालीन संगीत महफिल उनके नाम थी। मुलतानी काफी के जो चंद उस्ताद भारत-पाकिस्तान में बचे थे, उनमें से एक थे ये उस्ताद । लेकिन इस यथास्थितिवादी मोहल्ले में उन्हें सीमित शिनाख्त देकर पउवा उस्ताद के नाम से जाना जाता था। यह इसलिए कि बैगपाइपर का पउवा चढ़ाए बिना उनसे मुलतानी काफी सुनना संभव ही नहीं था। अक्सर जब  वे भरी दोपहरी में गली की ओर खुलती खिड़की के पास पर बैठकर ‘गोरी तोरे नैन कजर बिन कारे …’ की रसभीनी लहरिया मारते, तो लोग समझ जाते कि आज उस्ताद असली धुन में आ गए हैं। सलामत अली, नजाकत अली और बरकत अली सब उनके गले में उतर आते। पर यह संकरी कुलिया रसिकों की तो थी नहीं, इसलिए कोई ना कोई चिकाईबाज लड़का उन्हें छेड़ता निकल जाता, ‘उस्ताजजी ऐइसनै गाते रहोगे…कउनो दिन गोरी दिलवाओ भी…।’

बस इतने में खमाज और भैरवी के सुर लपट मूतने लगते, ‘अबे भैण के…अपनी अम्मा को भेज देना एक दिन, फिर गोरी दिलवाएंगे…भो…वाले।’ तमाशा इसी के बाद तो मजेदारी दिखाता। उस्ताद गालियों की बौछार के बीच सुर से नहीं सरकते। क्या मजाल खटका, मुर्की और पत्ती में कहीं नुक्स आ जाए। तेरी बहन की…के साथ ही वे आकर टिकते… ‘कजर बिन कारे…।’

खिल्लीबाज लहकटवे हार मान जाते, ‘गुरु एक बात है, ‍पउवा उस्ताद गाली भी सुर में देता है। बहन-मादर…में भी सुर की रंगत कायम रहती है।’ समझौते की बात तब आती, जब एक लफंडर आके प्रस्ताव रख देता, ‘उस्ताज जी टिक्का खाओगे….सलीम के हियां जा रहे हैं…’ यहां उनका जी जुड़ा जाता – ‘जा भाग के ले अइयो…सुन एक बैगपाइपर का पउवा भी…।’ यह कहकर वे टूटे दांतों के साथ मुस्कियाते…। ललडोरिया नैन भी मुस्कान मारते…। यही बैरन बैगपाइपर तो उस्ताद की कमजोरी थी। आवारा लड़कों के लिए यह भी एक मनोरंजन था। मुलतानी काफी, गाली और बैगपाइपर का पउवा…क्या मेल था!

उस्ताद का दिन ऐसे ही गुजरता। हां, जिस दिन कोई धनी मुरीद आता तो बैगपाइपर उपेक्षित हो जाती। महफिल और ब्रांड बदल जाते। लड़कों की भूमिका भी सेवकों जैसी रह जाती। वे छोड़े हुए माल के अधिकारी बनकर रह जाते। इसी में खुश हो जाते। खाली बोतलों से उन्हें पता चलता कि अमीर रसिकों के ब्रांड कौन से होते हैं ।

 

शरीफों के बीच उस्ताद का असली नाम था- हयात सिंह संधू। कागज भी यही कहते थे। घर के बाहर दरवाजे पर जड़ी एक गंदी-सी प्लेट में उनका यही नाम लिखा था, अंग्रेजी में। उम्र पचहत्तर को पार कर गई थी। संधू थे, पर जट्ट सिख नहीं… । इस उम्र तक आते-आते एकदम गंजे हो गए थे,इसलिए मोना मान लिए गए। इतवार को जेंटलमैन बनकर वे चर्च भी हो आते थे।  किसी ने पूछा नहीं, क्या करने जाते हैं। पर असल में वे मजहबी सिख थे, और बताते हैं कि अंबाला में बसी अपनी किसी ईसाइन माशूका के चक्कर में चर्च जाने लगे थे। हो सकता है, ईसाई भी बने हों, पर नाम नहीं बदला।

उनकी मुखाकृति में कोई इलाकाई झलक नहीं। चेहरे पर चेचक के चंद बड़े दाग। छिदे हुए कान। माथे का मस्सा सेहतमंद होकर बाईं भौंह को छूने लगा था। गटई मजबूत दिखती। इससे लगता कि जवानी में संगीत के रियाज साथ अखाड़ा भी गोड़े होंगे। पहले शायद यह परंपरा भी थी कि गायक को पहलवान की तरह दमदार बनना पड़ता था। संधू उस्ताद इस चक्कर में अपना एक कान भी तुड़ाए बैठे थे।

जिंदगी भी क्या मजाक और सितम करती है। उस्ताद जी शामचौरासी घराने की महान गायकी की विरासत संभाले-संभाले अपना घर नहीं संभाल सके। आगे नाथ ना पीछे पगहा, जैसी दशा। एक दिन,तकरीबन चार साल पहले कछियाने की इस बेनूर गली में आ गए।

इसकी कहानी भी गजब की है। हुआ यह कि चौक के मशहूर शंभू ज्वेलर्स के जवान मालिक बिज्जन बाबू उर्फ बिजेन खंडेलवाल ने चोरी से जिस रखैल को माल रोड से लगे खत्रीगंज में रखा था,वहीं एक पान की दुकान में बैठा आदमी उस्ताद सलामत अली की नकल करके गुनगुनाता मिलता, ‘सांवल मोर मुहारां…।’ बिज्जन बाबू से रहा नहीं जाता। सौंफिया पान खाते, उस गायक को भी खिलाते और कह जाते, ‘उस्ताद कहां से आवाज निकालते हो। करेजवा चीर जाती है।’

गायक हंसता, ‘काक्के ये मुलतानी काफी हैगी…रूह में उतर जाने वाली गायकी…। हम आखिरी चिराग हैं, समझो…हमारे उस्ताद आफताबे-मुलतानी नट्टन अली की बंदिशें गाकर हमने जिंदगी गुजार दी…’  बिज्जन सेठ को इससे क्या मतलब। वह तो दो मुखड़े सुनकर, गुनगुनाते हुए अपने विलासठौर की तरफ बढ़ जाता। एक दिन प्रतापगढ़िया पान वाले बीरबल पांडे ने बेठौर गायक यानी उस्ताद संधू को बताया, ‘छिनरे सेठवा का शौक देखो। घर में शानदार सेठानी है, तीन बच्चे हैं। पर अगले को मुताई का नशा ऐसा कि हर चार दिन बाद यहीं आता है। एक छुट्टा-छुड़ैल सिंधिन को रखे है। पर गुरुवर, एक बात है, निभा भी रहा है… सिंधिनौ  पूरा टन्न बसीकरण करवाए है। पंद्रह तोला का सीतारामी हार पहनकर निकलती है गजगामिनी…। ’ बीरबल अपने रस-वचन से ही तसल्ली कर लेता।

ना जाने क्यों, उस्ताद को उम्मीद की रोशनी दिखने लगी थी। जिंदगी में अल्ला-खल्ला घूमते वह थक चुका था। एक दिन बिज्जन सेठ की गाड़ी जैसे ही रुकी, उसने मुखड़ा छेड़ दिया, ‘मैं ढुक विच पी लवांगा साकिया…।’ बिज्जन गजब का दिलफिगार था। ये सुर तो जैसे उसे छेद जाते थे। वह मुस्करा कर बोला, ‘गुरु बीनदार आवाज कहां से निकालते हो… लागत है कौनो दिन करेजवा में कटारी माल्लेई…। हमरे बेनीगंज वाले रामखिलावन  उस्ताद  याद आ गए…क्या गाते थे-लग गई चोट करेजवा में हाय रामा…तब से वही सुर हिया में बसे हैं…।’

संधू ने औघड़िया अदा से कहा, ‘काक्के कटारी क्यों मारोगे, मजा लो फुल्ल…।’

बिज्जन सेठ उसके करीब आ गया, ‘उस्ताद जी एक बात बताएं, आप कसम से दिल जीत लिए हो हमारा। दारू पियोगे, लौंडिया दिलवाएं…नेपालिन, मद्रासिन…’

गायक मायूसी और उम्मीद से बोला,  ‘आप दयानतदार हो…रहने का ठिकाना दिला दो, यह अहसान रहेगा। खानाबदोशी से थक गया हूं।’

बिज्जन सेठ ने कुछ देर सोचा। मुस्कियाते हुए शर्त रख दी, ‘कोई नहीं, हम ठिकाना दे देंगे। हमको और हमारी दिलजानी को कुछ सुनाया करोगे, कभी कभी…।’ कहकर वह हंसा भी, ‘बुरा मत मानियो, दिल्लगी कर रहे थे।’

 

सौदा तय हो गया। खत्रीगंज से काफी दूर कछियाने में बिज्जन ने कभी विकास प्राधिकरण की लाटरी में निकला एक जनता फ्लैट लेकर डाल दिया था। सफाई-धुलाई करके उस्ताद को सम्मान सहित पहुंचाया गया। उनकी गिरस्ती के नाम पर एक जर्मन रीड वाली हारमोनियम, एक कलकतिया सुरबहार और एक टीन का बक्सा था, जिसमें चार-छह जोड़ी कपड़े,दो प्रोग्राम लायक कुर्ते, कुछ संस्थाओं के सार्टिफिकेट और अखबार में छपी खबरों की कतरनें थीं। आय के नाम उस्ताद को कला कोटे से सरकारी पेंशन मिलती थी।पेट पालने के लिए काफी। युनिवर्सिटी में संगीत शिक्षिका रानी सब्बरवाल की कृपा से काफी दिन वे सर्वेंट क्वार्टर में रहे। उनके वर्धा जाने के बाद  उस्ताद की फुटपाथपरस्ती और बढ़ गई। कुछ दिन एक साई मंदिर मंदिर की शरण ली। टिक के रहना उनकी फितरत में ही नहीं था। पहली बार बिज्जन सेठ से मिलकर उन्हें लगा कि आखिरी वक्त बसेरा होना ही चाहिए, जहां मौत भी इज्जत के साथ नसीब हो।

ऐसा नहीं कि उस्ताद ने घर बसाया नहीं। ढलती जवानी में गुरुदासपुर की एक मुस्टंड सुनियारिन से शादी की थी। पर निभी नहीं। दोनों के शौक ही अलग थे। उसे अच्छा नहीं लगता कि घर में मिरासियों का डेरा लगे। एक दिन माल-मत्ता समेट कर अपने आवारा आशिक के साथ भाग गई। तब से मुलतानी काफी ही उस्ताद की बीवी थी। मुलतानी काफी से चहेतियां तो बनाईं, पर कोई हमसफर नहीं बना पाए। आवारगी का आनंद ही लेते रहे।   घर के सारे कलाविहीन लोग कनाडा में बस गए। पर ये अपनी मुलतानी काफी छोड़कर कहां जाते। जलंधर, चंडीगढ़, दिल्ली होते हुए इस शहर का दानापानी नसीब हुआ। पर कोई औरत नसीब नहीं हुई। छेड़ने वाले कहते जरूर थे, ‘उस्ताद ये बताओ, गाते तो प्रेम और माशूक की चीजें हो, पर असल जिंदगी में कुछ और ही है।’ क्या जवाब देते। जैसे,अपनी मर्दानगी की हार मंजूर करके रह जाते।

 

बहरहाल, बिज्जन सेठ उस्ताद का स्थाई चेला बन गया था। उसने कलकत्ता से एक हारमोनियम मंगाई। रियाज भी करने लगा। उस्ताद ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘एक बात बता काक्के, आजकल के जमाने में कौन ऐसा जिगरदार है, जो गाना सुनकर फ्लैट दे दे…कुछ तो है पोशीदा केस…।’

बिज्जन ने दिल की बात बता ही डाली, ‘उस्ताद छुटपन में हम भी सोचते थे कि कभी गाएंगे। एक बार तो हबीब कव्वाल को सुनने के लिए घर से भाग गए, ऐसी तो दीवानगी थी। बाप ने कहा, बनिया के लौंडे हो, साले मिरासीपने से दूर रहो। हमें धंधे में लगा दिया। गाना सीखने का शौक मन में ही रह गया। लेकिन कानसेन बनने की फितरत तो ऊपर वाले ने दे ही रखी थी। थाट-राग तो पता नहीं पर जो भी अच्छा लगता है, वह जरूर राग में होगा, ऐसा लगता रहा है।’

उस्ताद ने पूछा, ‘किसी ने दिल में चोट तो नहीं पहुंचाई…’

बिज्जन सेठ हंसकर बोला, ‘उस्ताज जी, फुरसत ही कहां मिली। बाप ने बीस साल में शादी कर दी, यह कहकर-बेटा इधर उधर मुंह मत मारियो…।’

उस्ताद ने कहा, ‘यह फार्मूला भी ठीक है…।’

-‘घंटा ठीक है। मौज करने की उम्र तीन-तीन बच्चे खिला रहे हैं…।’

उस्ताद बिज्जन सेठ से कुछ राज जान नहीं सके। पर यह जान गए कि वह दिलदार है और सुर का कद्रदान है। इसके बाद उस्ताद ने कोई राज जानने की कोशिश नहीं की। सेठ भी मस्तमौला आदमी था। शुरू में हफ्ते में एक बार आता। धीरे-धीरे उत्साह जाता रहा। अब तीन-चार माह में आता। उस्ताद को सलाह देता, ‘उस्ताद जी इतनी कला लेकर कहां जाओगे, चार-छह शागिर्द छोड़ जाओ दुनिया में।’ उस्ताद कहते, ‘काक्के यही तो गम है। सरगम, पलटे सीखते ही लौंडे डिमांड करते हैं उस्ताद ठुमरी सिखा दो…अमां ठुमरी के लिए घिसना पड़ता है…।’

बिज्जन ने एक काम बढ़िया यह किया कि उसने उस्ताद की गायकी रिकार्ड करके यू ट्यूब में डालना शुरू कर दिया। वादा भी किया कि आप पर डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बनवाऊंगा।

 

अब कछियाने की इस आवारा गली की ओर चलते हैं। पहले यह अवैध बस्ती थी। बाद में वोटों के लालच में सरकार ने इसे नियमित कर दिया। पास में ही एक सेटलमेंट बस्ती थी,जिससे निकल कर काफी हबूड़े-सांसी यहां आकर बसने गए थे। अब हर साल पंद्रह-बीस बिहारी परिवार आकर बने लगे थे। ना जाने कब एक पुराने घर में हरी-सफेद मस्जिद उग आई और लोगों को अंदाज हो गया कि इधर-उधर के मियां काफी आ रहे हैं। यहां ज्यादातर आटो, ई रिक्शा चलाने वालों और सब्जी के ठेले लगाने वालों के घर थे। सब चरसी या दारूबाज। आधुनिक विकास के नाम पर बस्ती के सबसे पास वाली सड़क पर दारू की मॉडल शाप खुल गई थी। इसी की प्रेरणा से यहां मुरादाबादी चिकन बिरियानी की दुकान स्थापित हो गई। कुछ सहायक खोखे बस्ती वालों के ही थे।

 

उस्ताद का मोहल्ला ही ऐसा था कि यहां की हवा में भी आवारगी पसरी थी। पुलिस अक्सर रेड के बाद किसी जवान हबूड़िन को ले जाती। हबूड़िन दुपट्टे से मुंह ढंककर निकलती, पुलिस को गरियाती चलती। महिला पुलिस जवाब देती चलती, ‘रंडोरानी चौकी पर चुतरिया सेवा होगी तो सारा मांस छंट जाएगा।’ कहानी अखबारों के जरिए बाद में रिलीज होती, ‘हबूड़ों की लैंडियां हाईवे पर जाकर धंधा करती हैं…।’ कभी कभी लौंडे भी धरे जाते, ज्यादातर जेबतराशी में, नेपाली गांजा बेचने के आरोप में। जेल से लौटे लड़के कुछ दिन लंगड़ाने के बाद रफीक पहलवान से हाड़ बैठवाकर, फिर फार्म में आ जाते।

उस्ताद जी को ऐसे लोगों से परहेज भी नहीं था। खिड़की से झांककर ही किसी चेले को बुला लेते और हुक्म देते, ‘ये ले सौ का नोट, भागकर बैगपाइपर का पउवा ले आ।’ यह उनका रोज का काम हो गया था।

 

उस्ताद की जिंदगी में इन गुजरे सालों में यही बदलाव आया कि उन्हें अपने ठिकाने में दो वक्त की रोटी मिलने लगी। किस्मत से एक सांझे चूल्हे वाले से रोटी, दाल मिल जाती। जब जश्न मनाने का मन होता, सोहन ढाबे से मुर्गा-मछली आ जाता। यह उनके जीवन का स्वर्णिम दौर था। लड़के छेड़ते, ‘उस्ताज जी कल जैन पारिक में परिचय सम्मेलन है, चलते हैं, शायद कोई बूढ़ी माई टकरा जाए…’  इसके बाद संधू साहब की बेसुरी गालियों का प्रेमभरा सत्र होता….फिर गुनगुनाते-‘ओ परदेसी सपने में  आ जा, सारी बिपतिया खतम हुई जाए…।’

 

 

जाहिर है, उस्ताद  के पास मुलतानी काफी ना होती तो शायद घुटकर मर जाते। अपने हुनर से शहर में कई दीवाने बना लिए थे। इनमें कथक केंद्र चलाने वाली सन्नो शंकर खत्री, एक संपादक रामेंद्र निरंजन, एक साड़ी निर्माता सेठ सुखराज कंसल भी थे। इनकी लंबी गाड़ियां जब उस्ताद के लिए कुछ लेकर आतीं तो यहां की सिकुड़ी हुई बेनियाज दुनिया को पता चलता कि यह गरियहा मुलतानी काफी का गायक मामूली चीज नहीं है। उस्ताद को पेशकश भी कई आईं। भारत भवन से भी एक बार बुलावा आया। भातखंडे संगीत विद्यालय में उन्हें न्योता मिला। पर आवारगी के नशे में ही उन्हें मजा आता। बस कभी-कभार आकाशवाणी वाले ही याद करते।

 

उस्ताद संधू का पिछला यानी आखिरी कार्यक्रम एफएम चैनल की शोख एंकर शादा शिबली ने कराया था। इसके बाद ही करोना की मार ने जिंदगी को ठप कर दिया। डर ने ज्यादा सितम ढाया। उस्ताद जब भी उदास होते, ‘अपने आवारा चेलों से कहते, इस बार मौत का परवाना चल चुका है….।’ यह उनका पूर्वाभास गलत भी नहीं था। दुनिया अपने में खोई रही,उन्होंने तनहाई में ही जिंदगी की डोर छोड़ दी।

 

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दोपहर तक इतना जरूर हुआ कि उस्ताद को अंतिम विदा देने के लिए फुरसतिया मजमा लग गया। ये लोग कोरोना वाली टीम को भी देखना चाहते थे। तीन बजे के आसपास शोर करती, रगदा उड़ाती गाड़ी आई। अमले ने आते ही महामारी के खौफ की डुग्गी पीटी। पहले से ही सहमा हुआ मजमा ऐसे डरा  जैसे उनके मुहल्ले में मौत नहीं, कत्ल की वारदात हुई हो। लोग छंटने लगे।

अपने आप कर्फ्यू लग गया। बीट कांस्टेबल चंद्रशेखर रावत ने सारी कहानी बयां कर दी। अंतरिक्ष यात्रियों की तरह ढंके कर्मचारियों ने मशीनी फुरती से लाश को पैक किया और पलक झपकते ही रवाना हो गए।

 

सब शांति से निपट गया। रावत ने राहत की सांस लेकर निर्देश जारी किए, ‘यह घर सील हो गया है। इसके मालिक से कह देना कि जाफरगंज थाने में एसओ साहब से जाकर मिल ले।’

 

              और उस्ताद संधू की मौत के  बाद    

 

कछियाने के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति यानी पांडे हॉकर ने एक बड़ा काम यह किया कि उसने दैनिक आज और घनघोर टाइम्स में उस्ताद की मौत की खबर छपवा दी-एक गायक की लाश को वारिस भी नहीं मिला…। खबर में सनसनी का सुर था, इसलिए प्रशासन भड़भड़ाया। एसडीएम नीकेलाल तंवर घर के चक्कर मार गया। अब बस्ती को आभास हुआ कि मरने वाला बंदा कुछ खास था। उन्होंने उदासीन पड़ोसियों से पूछा कि सरकार क्या कर सकती है उनकी याद में। पड़ोसियों ने फरियाद कर दी- दो हैंडपंप लगवा दीजिए। लॉकिंग टाइल लगवा दीजिए। बीच-बीच में फोगिंग जरूर करवाइए। सामने का नाला कवर करवा दीजिए….। साहब ने सब नोट कर लिया।

बिज्जन सेठ को उस्ताद की खबर अखबारों से ही मिलीं। अखबारों और सोशल मीडिया से सरकार ने जाना कि संगीत की विरासत को काफी नुकसान पहुंचा है। सबसे पहले राज्यपाल टीएम मेश्राम का संदेश आया कि उनके जैसे कलाकार की मौत कला जगत के लिए अपूर्णीय क्षति हो। चूंकि वे पंजाब से निकले थे, इसलिए वहां की सरकार ने एलान कर दिया कि उनकी याद में एक पीठ स्थापित की जाएगी। सबसे बड़ा काम दिल्ली सरकार ने किया कि नैना देवी संगीत महाविद्यालय के बन रहे नए छात्रावास में एक ब्लाक का नाम उस्ताद हयात सिंह संधू के नाम पर होगा।

इसे कहते हैं जीवन का मजाकदार संयोग। जो उस्ताद जीवन भर अपने वास के लिए भटकते रहे, उनके नाम पर एक ब्लाक बन रहा था जिसमें काफी लोग रहने वाले थे।

और चंद दिनों बाद कछियाने की इस गली के उजाड़ घर में उस दुर्लभ, दिवंगत शख्स के नाम की नई तख्ती लग गई थी। थानेदार नरेंद्र सिंह यादव को चढ़ावा देने के बाद बिज्जन सेठ को अपना घर मिल गया था।

घर के बाहर लगी बड़ी सुनहरी नेमप्लेट में लिखा गया थाः मुलतानी गायकी के उस्ताद हयात सिंह का निवास।

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–  प्रमोद द्विवेदी, 9667310319

 

305, एमरल्ड एपार्टमेंट, रामप्रस्थ ग्रींस, पाकेट 1, वैशाली गाजियाबाद

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